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Arya Samaj Indore - 9302101186. Arya Samaj Annapurna Indore |  धोखाधड़ी से बचें। Arya Samaj, Arya Samaj Mandir तथा Arya Samaj Marriage Booking और इससे मिलते-जुलते नामों से Internet पर अनेक फर्जी वेबसाईट एवं गुमराह करने वाले आकर्षक विज्ञापन प्रसारित हो रहे हैं। अत: जनहित में सूचना दी जाती है कि इनसे आर्यसमाज विधि से विवाह संस्कार व्यवस्था अथवा अन्य किसी भी प्रकार का व्यवहार करते समय यह पूरी तरह सुनिश्चित कर लें कि इनके द्वारा किया जा रहा कार्य पूरी तरह वैधानिक है अथवा नहीं। "आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी अन्नपूर्णा इन्दौर" अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट द्वारा संचालित इन्दौर में एकमात्र मन्दिर है। भारतीय पब्लिक ट्रस्ट एक्ट (Indian Public Trust Act) के अन्तर्गत पंजीकृत अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट एक शैक्षणिक-सामाजिक-धार्मिक-पारमार्थिक ट्रस्ट है। आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी के अतिरिक्त इन्दौर में अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट की अन्य कोई शाखा या आर्यसमाज मन्दिर नहीं है। Arya Samaj Mandir Bank Colony Annapurna Indore is run under aegis of Akhil Bharat Arya Samaj Trust. Akhil Bharat Arya Samaj Trust is an Eduactional, Social, Religious and Charitable Trust Registered under Indian Public Trust Act. Arya Samaj Mandir Annapurna is the only Mandir in Indore controlled by Akhil Bharat Arya Samaj Trust. We do not have any other branch or Centre in Indore. Kindly ensure that you are solemnising your marriage with a registered organisation and do not get mislead by large Buildings or Hall.
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  • रोग निवारण के घरेलू नुस्खे

    नीम्बू से रोग निवारण के घरेलू नुस्खे

    1. एक चम्मच नीम्बू का रस, एक चम्मच पिसी हुई अजवायन आधा कप गर्म पानी में डालकर सुबह-शाम पीना चाहिए।
    2. एक गिलास पानी में नीम्बू निचोड़कर चौथाई चम्मच सोड़ा मिलाकर नित्य पीयें।
    3. आधा गिलास गरम पानी में आधा नीम्बू निचोड़कर जरा सी पीसी हुई काली मिर्च की फंकी सुबह-शाम लें।

    Ved katha _15 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    4. एक चम्मच सौंठ तथा साबुत अजवायन 50 ग्राम नीम्बू के रस में भिगोकर छाया में सुखायें। भोजन के बाद इसकी एक चम्मच चबायें।
    5. नीम्बू काटकर इसकी फांकों में नमक तथा काली मिर्च भरकर गर्म करके चूसने से लाभ होता है। उपरोक्त सभी उपायों से वायु विकार में लाभ होता है।
    6. एक गिलास गर्म पानी में आधा नीम्बू निचोड़कर 4 बार नित्य कुल्ले करने या नित्य नीम्बू-पानी में स्वाद के लिये चीनी या नमक डालकर प्रातः भूखे पेट पीने व रात को सोते समय एक गिलास गर्म दूध में एक चम्मच घी डालकर पीने से दो-तीन महीने तक प्रयोग से छालों में लाभ होता है।
    7. नीम्बू के पेड़ से हरी पत्तियॉं तोड़कर चबाकर रस चूसने, तेज गर्म पानी में नीम्बू निचोड़कर घूंट-घूंट पानी पीने से हिचकी बन्द हो जाती है।
    8. नीम्बू, सौंठ, काली मिर्च, अदरक सब थोड़ी मात्रा में लेकर चटनी बनाकर चाटने, नीम्बू में नमक भरकर 4 बार चूसने, काला नमक तथा शहद और नीम्बू का रस मिलाकर चाटने से हिचकी बन्द हो जाती है।
    9. खट्टी डकार आने की स्थिति में गर्म पानी में नीम्बू निचोड़कर पीना चाहिए।
    10. 50 ग्राम पुदीने की चटनी पतले कपड़े में डालकर, निचोड़कर रस निकालकर आधा नीम्बू निचोड़ें।
    11. 2 चम्मच शहद और 2 चम्मच पानी मिलाकर पीने से पेट का दर्द जल्द बन्द हो जाता है।
    12. आधा कप पानी, 10 पिसी हुई काली मिर्च, एक चम्मच अदरक का रस, आधे नीम्बू का रस सब मिलाकर पीने से पेट दर्द ठीक होता है। स्वाद के लिये चीनी या शहद मिला सकते हैं।
    13. एक नीम्बू, काला नमक, काली मिर्च, चौथाई चम्मच सौंठ, आधा गिलास पानी में मिलाकर पीने से पेट दर्द ठीक होता है।
    14. अजवायन तथा सेंधा नमक को नीम्बू के रस में भिगोकर सुखा लें। पेट दर्द होने पर एक चम्मच चबाकर पानी पीएं। इस प्रकार जब तक दर्द रहे, हरेक घण्टे में सेवन करें और पेट पर सेक करें।

    शुद्ध शहद की पहचान कैसे करें

    1. शहद में अपनी साफ उंगली लगाकर नेत्रों में लगावें। यदि नेत्रों को लगता है, आंसू निकलते हैं तो शहद शुद्ध है।
    2. कुत्ते के आगे शहद में रोटी भिगोकर दें। यदि कुत्ता दूर से ही रोटी सूंघकर हट जाये तो शहद असली है।
    3. शहद में रूई की बत्ती भिगोकर जलावें। यदि घी की तरह जलने लगे तो शहद असली है।
    4. शहद को कागज पर रखें। कागज न गले तो शहद शुद्ध है।
    5. पान की दुकान से तरल चूना लेकर हथेली पर रखें। थोड़ी सी शहद की बून्द लेकर हल्के चूना में मिलावें हथेली जलने लगेगी ।
    6. कपड़े पर शहद की बून्द डाल दें तथा कपड़े को हल्का सा झाड़ दें। बून्द कपड़े से अलग गिर जायेगी, निशान नहीं बनेगा । इसके विपरीत परिणाम मिले तो भूलकर भी ऐसा शहद न खरीदें।एकता ओझा

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    सौंफ से पाचन-शक्ति बढ़ती है

    बहुत से लोग भोजन के बाद कभी-कभी सौंफ खाना पसन्द करते हैं। जो लोग कभी भी सौंफ नहीं खाते, वे भी होटल में भोजन करने के बाद पेमेण्ट काउण्टर पर रखी सौंफ को मुंह में डाल लिया करते हैं। रसोईघर में भी सौंफ का बहुत बोलबाला होता है। कुछ विशिष्ट सब्जियों को स्वादिष्ट और खुशबूदार बनाना सौंफ का महत्वपूर्ण गुण है। वैसे ज्यादातर लोग सौंफ को भोजन करने के बाद खाते हैं। स्वागत-सत्कार में भी सौंफ-सुपारी का प्रचलन है। सौंफ के कुछ प्रमुख गुण ये हैं -

    1. इसके खाने से पाचनशक्ति में आश्चर्यजनक वृद्धि होती है।
    2. सौंफ और धनिया को समान मात्रा में पीसकर डेढ़ गुना शुद्ध घी में मिला लें। इसमें स्वाद हेतु शक्कर भी मिला लें। इस मिश्रण का कुछ दिनों तक सुबह-शाम सेवन करें। इसके सेवन से शरीर के किसी भी भाग में होने वाली खुजली जड़ से मिट जाती है।
    3. कच्ची एवं भुनी हुई सौंफ खाने से दस्तों में तुरन्त फायदा होता है।
    4. नीम्बू के रस में पिसी हुई सौंफ का प्रयोग करने से भूख भी खुलकर लगती है एवं कब्ज की शिकायत भी मिटती है।
    5. निःसन्तान महिलाओं को नियमित रूप से दो- तीन माह तक सौंफ के चूर्ण का प्रयोग करना चाहिए। उन्हें सौंफ के एक चम्मच चूर्ण के साथ गाय का शुद्ध घी एक चम्मच मिलाकर सुबह-शाम लेना अत्यन्त गुणकारी है। इसके प्रयोग से पेट के विकार समाप्त होते हैं तथा गर्भ स्थापन की स्थिति बनती है।
    6. वायुगोला का दर्द पेट में होने पर सौंफ को चिलम में भरकर पीने से कुछ ही मिनटों में दर्द उड़न-छू हो जाता है । इसे तम्बाकू की तरह चिलम में भरकर पीते हैं।
    7. जो महिलायें गर्भावस्था में नारियल और सौंफ का प्रयोग करती हैं, उनकी सन्तान गौर वर्ण होती है।
    8. पाचन सम्बन्धित जो भी चूर्ण तैयार होते हैं। लगभग सभी चूर्णों में सौंफ जरूर डाली जाती है डॉ. ऋषिमोहन श्रीवास्तव

    पुदीना के प्रयोग

    1. गर्मी के कारण उत्पन्न फुंसियों पर पुदीने का रस बहुत राहत देता है।
    2. ताजा हरा पुदीना पीसकर चेहरे पर बीस मिनट तक लगा लें। फिर ठण्डे पानी से चेहरा धो लें। इससे आपको गर्मी से राहत मिल जाएगी और आप तरोताजा महसूस करेंगे।
    3. पुदीने के पत्तों को पीसकर शहद के साथ मिलाकर तीन बार चाटने से अतिसार (दस्त) से राहत मिलती है।
    4. गर्मी के समय प्रतिदिन भोजन के साथ पुदीने की चटनी अवश्य खाएं।
    5. गन्ने के रस में पुदीने का थोड़ा सा रस भी मिलाकर लिया जा सकता है।

     

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    Grind equal quantity of fennel and coriander and mix it in one and a half times pure ghee. Add sugar to taste as well. Drink this mixture twice a day for a few days. Due to its use, itching in any part of the body disappears from the root.

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  • विचार शक्ति का महत्व

    विचार शक्ति का मनुष्य जीवन में एक विशिष्ट स्थान है।  इसका प्रभाव जीवन में भिन्न-भिन्न प्रकार से असन्दिग्ध रूप में होता ही रहता है। यह एक महान्‌ शक्ति है, जो प्रत्येक मानव के अन्तर में निहित है। बुद्धि अथवा परिस्थितियों द्वारा जब उसका विकास हो जाता है, तब उससे निसन्देह कभी-कभी आश्चर्यजनक कार्य भी होते देखे गये हैं। परमात्मा की दी हुई इस शक्ति का लाभ प्रत्येक नर-नारी को अवश्य उठाना चाहिये, अन्यथा वह परम उपादेय शक्ति प्रयोगविहीन रहकर कुण्ठित हो जाती है और हम उसके सभी सम्भव लाभों से वंचित रह जाते हैं।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए-
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    दुःख निवारण के उपाय

    Ved Katha Pravachan _67 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    यह सम्पूर्ण जगत ही विचार (संकल्प) शक्ति का परिणाम है। यह प्रकृति तो जड़ होने के कारण स्वयं गति शून्य हैपरन्तु परमात्मा में जगदोत्पत्ति का विचार आते ही प्रकृति में गति उत्पन्न हो जाती है और प्राकृतिक नियम के अनुसार क्रमशः जगत्‌ की उत्पत्ति हो जाती है। यह इतना अतुलितमहान्‌ अपरिमित एक अद्वितीय कार्य केवल विचार (संकल्प) के बल पर ही हो जाता है। इसी कारण इस विचार शक्ति का इतना व्यापक महत्व है। मनुष्य जैसे विचार करता है वैसा ही बन जाया करता है। यदि किसी व्यक्ति के विचार अच्छे हैंजो केवल सत्संगउपासना और उत्तम साहित्य के अध्ययन से ही हो सकते हैंतो वह अच्छा बन जाता है और यदि बुरे हैं जो कुसंगति और कुसंस्कारों का परिणाम होते हैंतो वह बुरा बन जाता है। मनुष्य को सुख और दुःख का जो भान होता हैवह भी इन्हीं विचारों का परिणाम है।

    इन विचारों का उद्‌गम स्थान हृदय है और मन के द्वारा उनका व्यापार होता है। जितनी कामनाएँ हैं सभी का कारण विचार ही हैं। मनुष्य पहले मन में विचार करता हैपुनः उसे वाणी अथवा लेख द्वारा प्रकाशित करता हैफिर फल विधि के विधानानुकूल उसे मिल जाता है। इससे स्पष्ट है कि सभी कर्मों का प्रथम अथवा मूल कारण विचार ही है। स्वामी विवेकानन्द ने अपनी पुस्तक "राजयोगमें एक स्थान पर लिखा है, "मनुष्य के हृदय से निकला हुआ प्रत्येक घृणा अथवा प्रेम का विचार बलपूर्वक उसी उसी के पास लौट आया करता हैकोई शक्ति उसे रोक नहीं सकती। अर्थात्‌ घृणा से घृणा और प्रेम से प्रेम की उत्पत्ति होती है।

    मनुष्य बूढ़ा क्यों होता हैविशेषतः अपने विचारों के कारण। जैसे-जैसे वह बुढ़ापे की बातें सोचता जाता हैवैसा ही वह होता जाता है। अमेरिका का एक प्रसिद्ध लेखक बैनट इसका ज्वलन्त उदाहरण है। उसने अपनी 50 वर्ष तक की आयु का उसका एक फोटो उसकी प्रसिद्ध पुस्तक"Old age, its cause and prevention'' में है। फोटो के देखने से यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि वह लगभग 70 वर्ष के बुड्‌ढ़े का चित्र है। बाल सफेदगले में झुर्रियॉंमाथे में सिकुड़न और सम्पूर्ण शरीर की त्वचा मांस रहित। 50 वर्ष की आयु के पश्चात्‌ उसने अपना स्वास्थ्य सुधार प्रारम्भ किया। उसने केवल दो बातों को अपनाया (1) समस्त शरीर के हलके व्यायाम, (2) अपने विचारों को उपयोगी और शक्तिशाली बनाना। इन्हीं दोनों बातों का अभ्यास उसने निरन्तर 20 वर्ष तक किया। 70 वर्ष की आयु का एक दूसरा चित्र उसी पुस्तक में हैजिससे प्रकट होता है कि वह चित्र किसी पैतींस-छत्तीस वर्ष के युवक का है। इस आयु में उसके शरीर में बुढ़ापे के सभी चिन्ह अदृष्ट हो गए थे।

    उसी पुस्तक में एक दूसरा उदाहरण उसने फ्रांस की एक लड़की का दिया है। उस लड़की ने 19 वर्ष की आयु में अपना विवाह वहीं के एक नवयुवक के साथ करने का निश्चय किया। नवयुवक ने अपनी निर्धनता के विचार से लड़की से कहा कि विवाह तो निश्चित हैपरन्तु विवाह से पूर्व मैं कुछ धन संग्रह कर लूं। लड़की ने उसे स्वीकार कर लिया। वह धन उपार्जन करने के लिये अमेरिका चला गया। उस युवक ने तीन वर्ष में अपने अथक परिश्रम से पर्याप्त धन अर्जित कर लिया। परन्तु किसी झगड़े में उसे 15 वर्ष अमेरिका में और रुकना पड़ा। 18 वर्ष पश्चात्‌ जब वह फ्रांस लौटातब उन दोनों का विवाह हुआ। परन्तु आश्चर्य की बात जो उसने देखी वह यह थी कि 37 वर्ष की आयु में भी उस लड़की के मुख की आकृति ठीक वैसी ही थीजैसी वह 19 वर्ष की आयु में अमेरिका जाते हुए छोड़ गया था। उसका रहस्य पूछने पर युवती ने कहा, "मैंने निश्चय किया था कि 19 वर्ष की आयु में विवाह करूँगी। परन्तु जब वह न हो सकातो उसने दूसरा निश्चय किया कि विवाह जब भी होगा मैं उस समय तक अपने मुख का आकार-प्रकार वैसा ही बनाये रखूंगी जैसा 19 वर्ष की आयु में था।'' इस निश्चय की पूर्ति के लिए उसने अपने एक कमरे में मनुष्य की ऊँचाई का एक दर्पण बनवाया जिसमें देखकर उसने अपने मुख की आकृति मन में अंकित कर ली। अब वह जब भी दिन में इस कमरे से होकर जाती तो एक मिनट के लिये उस दर्पण के सम्मुख खड़ी होकर देख लिया करती कि उसके मुख की आकृति में कोई अन्तर तो नहीं आया है। निरन्तर 18 वर्ष तक यह क्रम चलता रहा और उसके सशक्त विचारों का यह प्रभाव हुआ कि उसके मुख की आकृति में कोई अन्तर नहीं आने पाया। यह है विचार का महत्व।

    इस विचार शक्ति का उपयोग जीवन में मनुष्य अनेकों स्थान पर यदि चाहे तो सफलतापूर्वक कर सकता है। विचार प्रकृति के नियम के अनुसार अपने ही समान विचारों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। विचारोें के द्वारा हम सदैव अपने विचारोें के समान ही शक्ति और विचार दृश्य और अदृश्य जगत्‌ में से अपनी ओर आकर्षित करते रहते हैं। हम उसे जानें अथवा न जानेंउसकी इच्छा करें अथवा न करेंपरन्तु यह सिद्धान्त अपना कार्य करता ही रहता  है। अंग्रेजी में भी इस सम्बन्ध में एक कहावत है'Like attracts live'' अर्थात्‌ जैसे को तैसा सदैव आकर्षित करता ही रहता है। शराबी शराबी कोजुआरी जुआरी कोचोर चोर कोगायक गायक कोसत्संगी सत्संगी को इत्यादि। हम विचारों के सागर में तो निवास ही करते हैंजहॉं से हमारे विचार बाहर जाते और बाहर से विचार हमारे पास आते रहते हैं। इस अदृश्य धारा का प्रवाह निरन्तर होता ही रहता है। जिस प्रकार हमारी श्वास और नाड़ी सदैव चलती रहती हैपरन्तु हम उस ओर कभी ध्यान नहीं देतेठीक उसी प्रकार विचारों का आदान-प्रदान भी सदैव अज्ञात रूप में होता ही रहता हैपरन्तु हम उधर ध्यान बहुत ही कम देते हैं। 

    विचारों से ही कर्म की उत्पत्ति होती है। बिना विचारों के कोई कर्म नहीं बनता। विचार ही कर्मों की जननी है। यह निर्विवाद तथ्य है कि शुभ विचारों से शुभ कर्म ही बनेंगे और विचार जितने ही प्रबल होंगेकर्म उतना ही अधिक साध्य और सफल होगा। मनुष्य जितने सूक्ष्म विचार तरंगों को ग्रहण करने योग्य होता है उतना ही प्रभाव विचारों का उस पर होता है। निर्बल मन वाले मनुष्य पर बाहर के विचारों का अधिक और शीघ्र प्रभाव होता है। वह विचारों के अधीन शीघ्र ही हो जाता है। सुदृढ़ मन वाले मनुष्य किस विचार को मन आने देना और किसको न आने देनाऐसा ध्यान में रखकर ही उन्हें ग्रहण करते हैं। विचारों का प्रभाव मनुष्य पर होता ही है। मनुष्य जैसे विचारों की संगति में रहता है और जैसा साहित्य पढ़ता हैउसके विचारों की प्रबलता से दुसाध्य कार्य भी सुसाध्य देखे गये हैं। - आचार्य डॉ. संजयदेव

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    This whole world is the result of thought (sankalpa) power. Due to this nature being inertial, the speed itself is zero, but as soon as the idea of ​​worldliness comes in the divine, motion arises in the nature and according to the natural law, respectively, the world is born. This unique work, so incomparable, is done only on the strength of thought (sankalpa). This is why this power of thought is so widespread. Man becomes like what he thinks.

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  • वेद एवं वैदिक संस्कृति के पुनरुत्थान में महर्षि दयानन्द का योगदान

    वेद भारतीय संस्कृति अथवा आर्य संस्कृति के आधार ग्रन्थ हैं। भाषा विज्ञान की शब्दावली में वेद भारतीय परिवार (Indo-European Family) के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। समस्त उत्तरवैदिक साहित्य वेदों के व्याख्या ग्रन्थ हैं। ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, वेदांग, उपवेद, षड्‌दर्शन, सूत्रग्रन्थ, स्मृतियॉं तथा प्रातिशाख्य आदि सबका सम्बन्ध वेद से जोड़ा गया है। मनुस्मृति वेद को परम प्रमाण मनाती है तथा वेद से भूत, भविष्यत्‌, वर्तमान सब कुछ सिद्ध हो सकता है। कवि कुलगुरु कालिदास का कहना है कि यह वेदवाणी ओंकार से आरम्भ होती है तथा उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित तीन भेद से इसका उच्चारण होता है। विभिन्न भारतीय भाषाओं में भी अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। भारत में उद्‌भूत दर्शन एवं सम्प्रदाय या तो वैदिक कोटि में माने गए हैं या अवैदिक। वैसे प्रत्येक सम्प्रदाय अपने को वैदिक ठहराने का प्रयास करता है। वेद का इतना महत्व है कि इसके ज्ञान को नित्य माना गया है। इसकी शब्दानुपूर्वी (Word order) को भी नित्य माना गया। इसीलिए सम्भवत: वेदमन्त्रों की श्रुतिपरम्परा से जिस तरह रक्षा की गई, वैसी आज तक समस्त वैदिक, लौकिक संस्कृत अथवा भारतीय भाषा-साहित्य में किसी भी ग्रन्थ की रक्षा नहीं की गई। हजारों वर्षों से वेदमन्त्रों को कण्ठस्थ किया जाता रहा है और आज भी यह परम्परा अपने मूल में अक्षुण्ण है, यह वेदपाठियों का दावा है। उसका एक भी अक्षर इधर से उधर नहीं हुआ। विश्व के इतिहास में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता। इस परम्परा को अक्षुण्ण (ज्यों का त्यों) बनाए रखने के लिए ऋषियों ने अनेक उपाय किए। प्रत्येक मन्त्र में ऋषि, देवता, छन्द और स्वर का विधान किया गया। अष्ट विकृतियों अर्थात्‌ एक मन्त्र का आठ प्रकार से पाठ करने की प्रणाली चालू की गई और उनमें किसी-किसी पाठ के तो आगे 25 भेद हैं। फिर वेदमन्त्रों के अध्यात्म, अधिदैवत, अधिभूत से तीन-तीन अर्थ होते हैं। वेदार्थ के लिए व्याकरण का अध्ययन आवश्यक है, क्योंकि वेदमन्त्रों में सभी लिंगों एवं विभक्तियों का उल्लेख नहीं मिलता। निरुक्त के अनुसार वेदार्थ के लिए ऋषि, तपस्वी एवं विद्वान होना आवश्यक है। उसका राग और द्वेष तथा पक्षपात से रहित होना भी अपेक्षित है।

    dayanand saraswati

    ऐसे गम्भीर और जटिल विषय का फल क्या है? महामुनि पतंजलि के शब्दों में वेद का एक शब्द भी, यदि उसको अच्छी तरह समझकर जीवन में ढाल लिया जाए तो लोक और परलोक की सिद्धि करने हारा है। बिना अर्थज्ञान के वेदार्थं को हृदयंगम किए बिना वेद को पढना व्यर्थ में भार ढोने के समान है। वेदार्थ को जानने हारा सकल कल्याण को प्राप्त करता है। वेदमन्त्र नारियल के समान बाहर दुर्गम एवं कठोर है, परन्तु भीतर उनमें जीवन रस भरा हुआ है। उसको फाड़कर ही, वेदमन्त्रों को समझकर ही वह रस चखा जा सकता है। वह रस चखा कैसे जाए? मन्त्रों का मनन करने से, केवल पढने से नहीं, काम-क्रोध-राग-द्वेष से रहित होकर मनन-चिन्तन करने से।

    इस प्रकार का है यह वेद का जगत्‌ जो आश्चर्यजनक भी है, सूक्ष्म और गम्भीर भी है। सर्वजनहिताय है, सर्वभूत मैत्रीप्रतिपादनीय है। विश्व के समस्त अमृतपुत्रों, अमर मानवों के लिए है। समस्त पृथिवी इसका क्षेत्र है। वेदान्तदर्शन के शब्दों में जगत्‌ और ब्रह्मा के बीच समन्वय-स्थापक है, जो कुछ जगत ये है उसका वर्णन वेद में है। प्राचीन काल से लेकर आज तक वेद को समझने का प्रयास होता रहा है। पाश्चात्य एवं पौर्वात्य विद्वान्‌ (Indologists or Sanskritists of the East and the West) वेद को समझने का यत्न करते रहे हैं। परन्तु वेद अब भी रहस्य बने हुए हैं।

    इन्हीं वेदों के लिए यतिवर दयानन्द ने अपना जीवन लगाया तथा उनके द्वारा प्रवर्तित आर्यसमाज ने विगत 140 वर्षों में इसके प्रचार और प्रसार का यत्न किया। एक वाक्य में आर्यसमाज के पिछले एक सौ चालीस वर्षों की कहानी वेदों के प्रचार की कहानी है। इसमें उसे कितनी सफलता मिली, यह निर्णय करना सुविज्ञ पाठकों पर है। भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के पुनर्जागरण (Revival) में अनेक महान्‌ आत्माओं ने अपना योगदान दिया है। परन्तु इसके मूल उत्स या प्रेरणास्रोत वेद की ओर हमारा ध्यान किसने खींचा, इसका निर्णय स्वयं पाठक करें। दयानन्द इसलिए महान्‌ नहीं कि वे आर्यसमाज के संस्थापक थे, अपितु इसलिए कि उन्होंने वेद का उद्धार किया तथा वैदिक संस्कृति का पुनरुत्थान किया। जैसे कभी मण्डनमिश्र के द्वार पर शुकसारिकाओं में वेद के स्वत: प्रमाण अथवा परत: प्रमाण होने के बारे में चर्चा होती थी, वैसे ही विगत 140 वर्षों में आर्य समाज के मंच से विभिन्न रूपों में वेदों की चर्चा रही है और आज इसी का परिणाम है कि "आक्सफोर्ड हिस्ट्री आफ इण्डिया" में विन्सैण्ट स्मिथ ने आर्यसमाज के वेद-विषयक मत का उचित उल्लेख किया है। अन्य किसी संस्था या सम्प्रदाय को यह श्रेय नहीं मिला। महर्षि दयानन्द ने वेद में ही मानव की सब समस्याओं का समाधान ढूंढा तथा वेद में ही सब ज्ञान-विज्ञान को बताया। बर्तानिया ज्ञान का विश्वकोष इस बात को स्वीकार करता है-

    वेद के बारे में दयानन्द और उनके आर्यसमाज ने एक शताब्दी पूर्व जो स्थापनाए रखी थीं, वे आज विद्वद्‌जगत्‌ को मान्य हो चली हैं तथा इतिहासकार, वेदविद्‌ तथा संस्कृतज्ञ उनके मत को उचित स्थान देने लगे हैं। प्रश्न केवल निष्पक्ष होकर विचार करने का है। आर्यसमाज मानो रथ है और दयानन्द उस रथ के सारथि हैं और वेद मानो उनका सुदर्शन चक्र था, जिसके द्वारा उन्होंने अज्ञान अविद्या तथा अवैदिक विचारों की कौरव सेना का विध्वंस किया। सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम दस समुल्लासों में दयानन्द ने सनातन वैदिक संस्कृति के सिद्धान्तों का विशद विवेचन प्रस्तुत किया है।

    वेद आर्य अथवा भारतीय संस्कृति के उद्‌गम-स्रोत हैं। भारतीय विद्या भवन बम्बई से प्रकाशितHistory and Culture of Indian people प्रथम खण्ड की भूमिका में डा. मजुमदार इसको स्वीकार करते हैं। वेद ईश्वरीय ज्ञान है, ऋषियों ने तप एवं समाधि के द्वारा वेदमन्त्रों का साक्षात्‌ किया, दयानन्द की यह अगली स्थापना थी। डा. राधाकृष्णन जैसे दार्शनिक इस मत को स्वीकार करने लगे हैं। उनका कहना है कि वेद में वर्णित आध्यात्मिक सत्यों का धर्म एवं तपश्चर्या द्वारा पुन: साक्षात्‌ या प्रत्यक्ष किया जा सकता है।

    आर्य लोग बाहर से नहीं आए, दयानन्द की इस मान्यता को कई विद्वान्‌ स्वीकार करने लगे हैं। डा. के. एम. मुन्शी इस मत को मानते हैं तथा स्वतन्त्र लेख को भी इस विषय मेंHistory and Culture of Indian people में स्थान दिया गया है।

    वेद के विषय में दयानन्द की स्थापनाओं के सन्दर्भ में मैं अपनी ओर से अधिक कुछ न कहकर हिन्दी विश्वकोष को उदधृत करूंगा, जिसे नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी ने प्रकाशित किया है, इसका समस्त व्यय भारत सरकार ने वहन किया है। यह भी एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका की तरह हिन्दी में ज्ञान का विश्वकोष (Encyclopedia Hindi) है। इस विश्वकोष के खण्ड 11 में वेद के विषय में दामोदर सातवलेकर को प्रमाणित मानकर अक्षरश: उद्धृत किया गया है। इससे बढकर दयानन्द की स्थापनाओं की दिग्विजय और क्या हो सकती है? आर्यसमाज के लिए यह गौरव का विषय है कि अन्तत: सुधी विद्वानों ने निष्पक्षभाव से उसकी मान्यताओं का आदर किया है। सातवलेकर के बारे में पाठकों को विदित रहे कि उन्होंने ऋषि दयानन्द द्वारा प्रदर्शित पद्धति का अनुसरण किया है। दयानन्द से पहले आधुनिक समय में किसी ने वेद की ओर हमारा ध्यान नहीं खींचा। सातवलेकर के शब्दों में जो राष्ट्र के लिए श्रेष्ठ सन्देश देता है वह ऋषि कहलाता है। स्वामी दयानन्द सचमुच ऋषि थे, क्योंकि उन्होंने हिन्दुओं के पतन का सच्चा कारण देखा और उन्नति का सच्चा मार्ग भी देखा। यह सत्य दृष्टि ही ऋषि की दृष्टि है। उनके समय में बहुत से नेता थे, वे नेतागण हिन्दुओं के उद्धार का मार्ग भी सोचते थे परन्तु किसी ने वेद का मार्ग देखा नहीं। उस समय शास्त्री पण्डित भी थे, परन्तु वे बेचारे वेद को जान भी नहीं सकते थे, फिर वेद के धर्म से मानवों का त्राण होने की बात जानना और वैसा उपदेश करना तो दूर की बात है। केवल अकेले ऋषि दयानन्द जी के पास ही यह ऋषित्व आता है। इन्होंने ही यह सच्ची रीति से जाना और कहा कि वेदों को पढो और वेदोपदेश को आचरण में लाओ।

    विश्वकोष में लिखा है कि यज्ञ में पशुवध नहीं होता, क्योंकि वेद में वध करने का कोई मन्त्र नहीं है-

    ओषधे त्रायस्व स्वधिते मैनं हिंसी:। हे औषधि, इसका संरक्षण कर। हे शस्त्र, इसकी हिंसा न कर। मन्त्र का स्पष्ट भाव पशु का संरक्षण करना ही है। गोमेध में गाय का वध उचित नहीं, क्योंकि वेदों में गौ को अघ्न्या (अवध्या) कहा है। अजमेध में बकरे का वध करना अनुचित है, क्योंकि अज एक धान्य का नाम है। कोश में अज के अर्थ अजश्रृंगि-औषधि-प्रेरक-नेता-सूर्य किरण-चन्द्रमा-प्रकृति-माया आदि हैं। राष्ट्र सेवा ही अश्वमेध यज्ञ है- राष्ट्र वा अश्वमेध:। (शतपथ ब्राह्मण)

    वैदिक यज्ञों के बारे में यह स्थापना किसने की थी? पाठक स्वयं अनुमान करें।

    अथर्ववेद-अथर्ववेद का अर्थ गतिरहितता अर्थात्‌ शान्ति है। सचमुच अथर्ववेद आत्मज्ञान देकर विश्व में शान्ति स्थापना करने का महत्वपूर्ण कार्य करता है।

    अथर्वेति गतिकर्मा तत्प्रतिषेधो निपात:। (निरुक्त)

    इससे पहले तो अथर्ववेद जादू टोने चमत्कार का ही पिटारा बन गया था। दयानन्द ने उसे वेदत्व का दर्जा दिलवाया, अन्यथा उसके वेद होने को ही नकारा जाने लगा था।

    ये वेद मानव की उन्नति करने का सच्चा धर्म बतलाते हैं। ऋग्वेद (10.111.2) का उपदेश है- संगच्छध्वं संवदध्वं। हम मिलकर चलें, मिलकर बोलें, हमारे मन एक हों। यजुर्वेद (40.1) कहता है कि यह सारा संसार ईश की सत्ता से व्याप्त है, त्याग भाव से इसका उपभोग करो।

    दयानन्द की अगली स्थापना थी कि वेद में इतिहास नहीं। सातवलेकर इस सम्बन्ध में लिखते हैं कि वेद में इतिहास-पुराण की कल्पना पृथक्‌ है। भारत के ऋषि-मुनि मानवीय शरीरों की हलचल को इतिहास नहीं मानते। शरीर की हलचल मानसिक विचारों से होती है। वेद में दशरथ, दु:शासन गुणबोधक नाम है। अयोध्या नगरी शरीर को कहा है, जिसमें आठ चक्र और नवद्वार हैं। ये मानवीय भावों और विचारों का शाश्वत और सनातन इतिहास है।

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    दयानन्द का उद्देश्य कोई नवीन सम्प्रदाय अथवा मत-मतान्तर चलाने का नहीं था। उन्होंने उसी प्राचीन वेदमार्ग का पुनरुद्धार (Revival) किया जिसको ब्रह्मा से लेकर जैमिनी मुनि पर्यन्त मानते आए हैं। वेद परम प्रमाण हैं। वेद विरुद्ध जितनी भी स्मृतियॉं या ग्रन्थ हैं वे निरर्थंक हैं तथा वेद को पढना ही सबसे बड़ा तप या धर्म है। ऋषि दयानन्द ने मनु की इन धारणाओं को अक्षरश: सत्य चरितार्थ कर दिखाया। इसी कारण उन्होंने मतमतान्तरों की आलोचना की, किसी की हानि या द्वेष के भाव से नहीं।

    वर्तमान समय में जब हम एक शताब्दी बाद यतिवर दयानन्द के विचारों का मूल्यांकन (Estimate) करते हैं, तो वेद एवं वैदिक अथवा आर्य संस्कृति अथवा भारतीय संस्कृति के बारे में उनकी मौलिक स्थापनाएं मान्य एवं सत्य हो चली हैं। परन्तु मतमतान्तरों या विभिन्न धर्मों के बारे में उनके विचारों में संशोधन की आवश्यकता है तथा इसी प्रकार का दृष्टिकोण त्याज्य अथवा अपाठ्‌य ग्रन्थों के बारे में अपनाने की आवश्यकता है। विचारों की समय-समय पर पुनर्व्याख्या (Review) पुनरालोचना होती रहने से ही विचार वैज्ञानिक एवं तर्कसंगत बने रहते हैं, अन्यथा वे रूढिग्रस्त (Traditional, old) पुराने तथा असंगत हो जाते हैं। पुनरालोचन से सारतत्व (मुख्य बातें) छंट जाता है तथा गौण बातें त्याग दी जाती हैं। वेद एवं वैदिक संस्कृति का पुनरुद्धार दयानन्द का मुख्य लक्ष्य अथवा साध्य था। मतों की आलोचना तथा त्याज्य ग्रन्थों का उल्लेख यह साधन था। साधन कभी स्थायी नहीं होते, वे देशकालानुसार बदलते रहते हैं। यही दृष्टिकोण (Approach) हमें राग, द्वेष और पक्षपात से रहित होकर अपनाना होगा। विभिन्न भारतीय धर्मों एवं मतों तथा ग्रन्थों में से हम वेदानुकूल को ग्रहण कर लें। दूसरे इन सबमें मूलभूत विचार (Fundamental ideas) तो उसी वैदिक अथवा आर्य संस्कृति के ही हैं।  विभिन्न धर्मों के बारे में विगत एक शताब्दी में काफी शोध (research) कार्य हुआ है। हम नई खोज तथा नए विचारों से लाभ उठाएं।

    आज हमें कालिदास, माघ और भारवि के काव्यों को त्यागने की आवश्यकता नहीं है और न ही सांख्यतत्वकौमुदी तथा तर्कसंग्रह से डरने की आवश्यकता है। यही दृष्टिकोण तुलसी-रामायण के बारे में अपनाना है। विगत 60-70 वर्षों में इस पर काफी अनुसन्धान हुआ है। हॉं, हम इन्हें तर्क की कसौटी पर परख लें। इसी प्रकार पुराणों के बारे में भी अनेक आलोचनात्मक अध्ययन (Critical studies) या ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। स्वयं गीता प्रैस गोरखपुर से राधा और कृष्ण की तथा पुराणों में कृष्णलीला की युक्तिसंगत व्याख्या प्रकाशित हुई है। इसी प्रकार का दृष्टिकोण हमें विभिन्न मतों एवं धर्मों के बारे में अपनाने की आवश्यकता है। सब मतों की अच्छी बातें, जो-जो बातें सबके अनुकूल सत्य हैं, उनको हम ग्रहण कर लें और जो एक दूसरे से विरुद्ध हैं उनको हम त्याग दें। हमें सबको अपने साथ लेकर चलना है, समस्त मानव समाज का कल्याण करना है, सबको श्रेष्ठ बनाना है। सबकी उन्नति में हमारी उन्नति है। भारतोद्‌भूत जितने भी धर्म हैं हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख इनका मूलस्रोत तो एक ही है। ये सारे एक सनातन वैदिक धर्म या आर्य धर्म में विलीन हो जाते हैं। इसी प्रकार ईसाई तथा मुस्लिम धर्मों के प्रति भी हमें अपना दृष्टिकोण उदार तथा विस्तृत करना होगा। क्योंकि आज विज्ञान की दुनियां में समस्त मानव समाज एक इकाई (Unit of family) बन गया है।

    धर्मों एवं मतान्तरों की आलोचना से ऋषि दयानन्द का तात्पर्य था कि धर्म में तर्कसंगतता (resonability), युक्ति एवं हेतु (argument) की प्रधानता हो, अन्धविश्वास तथा आडम्बर न हो। हम बाबा-वाक्यं को प्रमाण न मानें, सत्य-असत्य की स्वयं परीक्षा तथा छानबीन करें। यही उनकी धर्म को स्थायी देन है। - प्रा. चन्द्रप्रकाश आर्य

     

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    मजहब ही सिखाता है आपस में बैर करना

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  • वेद मानव जाति के सर्वस्व हैं

    जैसे दही में मक्खन, मनुष्यों में ब्राह्मण, ओषधियों में अमृत, नदियों में गंगा और पशुओं में गौ श्रेष्ठ है, ठीक इसी प्रकार समस्त साहित्य में वेद सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।वेद शब्द "विद्‌' धातु से करण वा अधिकरण में "धञ्‌' प्रत्यय लगाने से बनता है। इस धातु के बहुत-से अर्थ हैं जैसे "विद ज्ञाने', विद सत्यायाम्‌', विद विचारणे', विद्लृ लाभे', विद चेतनाख्याननिवासेषु'। अर्थात्‌ जिनके पठन, मनन और निदिध्यासन से यथार्थ विद्या का विज्ञान होता है, जिनके कारण मनुष्य विद्या में पारंगत होता है, जिनसे कर्त्तव्याकर्त्तव्य, सत्यासत्य, पापपुण्य, धर्माधर्म का विवेक होता है, जिनसे सब सुखों का लाभ होता है और जिनमें सर्वविद्याएं बीजरूप में विद्यमान हैं, वे पुस्तक वेद कहाती हैं।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    तेतीस कोटि देवताओं का स्वरूप - 2
    Ved Katha Pravachan _66 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    वेद ईश्वरीय ज्ञान है। यह ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में मानवमात्र के कल्याण के लिए दिया गया था। वेद वैदिक-संस्कृति के मूलाधार हैं। वे शिक्षाओं के आगार और ज्ञान के भण्डार हैं। वेद संसाररूपी सागर से पार उतरने के लिए नौकारूप हैं। वेद में मनुष्य जीवन की सभी प्रमुख समस्याओं का समाधान है। वेद सांसारिक तापों से सन्तप्त लोगों के लिए शीतल प्रलेप हैंअज्ञानान्धकार में पड़े हुए मनुष्यों के लिए वे प्रकाशस्तम्भ हैंभूले-भटके लोगों को वे सन्मार्ग दिखाते हैंनिराशा के सागर में डूबने वालों के लिए वे आशा की किरण हैंशोक से पीड़ित लोगों को वे आनन्द एवं उल्लास का सन्देश प्रदान करते हैंपथभ्रष्टों को कर्त्तव्य का ज्ञान प्रदान करते हैंअध्यात्मपथ के पथिकों को प्रभु-प्राप्ति के साधनों का उपदेश देते हैं। संक्षेप में वेद अमूल्य रत्नों के भण्डार हैं। महर्षि दयानन्द के शब्दों में-वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। महर्षि मनु के शब्दों में- वेदोऽखिलो धर्ममूलम्‌। (मनुस्मृति 2.6) वेद धर्म की मूल पुस्तक है। वेद वैदिक विज्ञानराष्ट्रधर्मसमाज-व्यवस्थापारिवारिक-जीवनवर्णाश्रम-धर्मसत्यप्रेमअहिंसात्याग आदि को दर्पण की भॉंति दिखाता है।

    वेद मानवजाति के सर्वस्व हैं। महर्षि अत्रि के अनुसार- नास्ति वेदात्‌ परं शास्त्रम्‌। (अत्रिस्मृति 151) वेद से बढ़कर कोई शास्त्र नहीं है। इसीलिए महर्षि मनु ने कहा हैा-

    योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्‌।
    स जीवन्न्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः।।(मनुस्मृति 2.168)

    जो द्विज (ब्राह्मणक्षत्रिय और वैश्य) वेद न पढ़कर अन्य किसी शास्त्र वा कार्य में परिश्रम करता हैवह जीते-जी अपने कुलसहित शीघ्र शूद्र हो जाता है ।

    वेद के मर्मज्ञ और रहस्यवेत्ता महर्षि मनु ने अपने ग्रन्थ में स्थान-स्थान पर वेद की गौरव-गरिमा का गान किया है। वे लिखते हैं- सर्वज्ञानमयो हि सः।(मनुस्मृति 2.7) वेद सब विद्याओं के भण्डार हैं। वेद में कौन-कौन से विज्ञान भरे हुए हैं-

    पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षुः सनातनम्‌।
    अशक्यं चाप्रमेयं च वेदशास्त्रमिति स्थितिः।।

    चातुर्वर्ण्यं त्रयो लोकाः चत्वारश्चाश्रमाः पृथक्‌।
    भूतं भव्यं भविष्यच्च सर्वं वेदात्प्रसिध्यति।।

    बिभर्ति सर्वभूतानि वेदाशास्त्रं सनातनम्‌।
    तस्मादेवत्परं मन्ये यज्जन्तोरस्य साधनम्‌।।(मनुस्मृति 12.94,97,99)

    वेद पितरदेव और मनुष्य सबके लिए समातन मार्गदर्शक नेत्र के समान है। वेद की महिमा का पूणरूपेण प्रतिपादन करना अथवा उसे पूर्णतया समझना अत्यन्त कठिन है। चारों वर्णतीन लोकचार आश्रमभूतभविष्यत्‌ और वर्त्तमान विषयक ज्ञान वेद से ही प्रसिद्ध होता है। यह सनातन (नित्य) वेदशास्त्र ही सब प्राणियों का धारण और पोषण करता है। इसलिए मैं इसे मनुष्यों के लिए भवसागर से पार होने हेतु परम साधन मानता हूँ।

    dayanand saraswati

    मनु जी ने तो यहॉं तक लिखा है कि तप करना हो तो ब्राह्मण सदा वेद का ही अभ्यास करेवेदाभ्यास ही ब्राह्मण का परम तप है (मनुस्मृति 2.166)। "जो वेदाध्ययन और यज्ञ न करके मुक्ति पाने की इच्छा करता हैवह नरक (दुःखविशेष) को प्राप्त होता है'' (मनुस्मृति 6.37)। "क्रम से चारों वेदों कातीन वेदों कादो वेदों का अथवा एक वेद का अध्ययन करके अखण्ड ब्रह्मचारी रहकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहिए।'' (मनुस्मृति 3.2)। आज यदि महर्षि मनु का विधान लागू हो जाए तो सारे विवाह अयोग्यअनुचित हो जाएं। महर्षि मनु ईश्वर को न मानने वाले को नास्तिक नहीं कहतेअपितु वेदनिन्दक को नास्तिक की उपाधि से विभूषित करते हैं- नास्तिको वेदनिन्दकः (मनुस्मृति 2.11)

    यद्यपि मनुस्मृति ही सर्वाधिक प्रामाणिक हैअन्य स्मृतियॉं बहुत पीछे बनी हैं और उनमें प्रक्षेप भी खूब हुए हैंपरन्तु वेद के विषय में सभी स्मृतियॉं एक ही बात कहती हैं। महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं-

    यज्ञानां तपसाञ्चैव शुभानां चैव कर्मणाम्‌।
    वेद एव द्विजातीनां निःश्रेयसकरः परः।।(याज्ञवलक्य स्मृति 1.40)

    यज्ञ के विषय में तप के सम्बन्ध में और शुभ-कर्मों के ज्ञानार्थ द्विजों के लिए वेद ही परम कल्याण का साधन है।

    अत्रिस्मृति श्लोक 351 में कहा गया है-

    श्रुतिः स्मृतिश्च विप्राणां नयने द्वे प्रकीर्तिते।
    काणःस्यादेकहीनोऽपि द्वाभ्यामन्धः प्रकीर्तितः।

    श्रुति=वेद और स्मृति ये ब्राह्मणों के दो नेत्र कहे गये हैं। यदि ब्राह्मण इनमें से एक से हीन हो तो वह काणा होता है और दोनों से हीन होने पर अन्धा होता है।

    बृहस्पतिस्मृति 79 में वेद की प्रशंसा इस प्रकार की गई है-

    अधीत्य सर्ववेदान्वै सद्यो दुःखात्‌ प्रमुच्यते।
    पावन्‌ चरते धर्मं स्वर्गलोके महीयते।। 

    वेदों का अध्ययन करके मनुष्य शीघ्र ही दुःखों से छूट जाता है। वह पवित्र धर्म का आचरण करता है और स्वर्गलोक में महिमा को प्राप्त होता है। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

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    The Veda is like the guide eye for Pitar, Dev and Man. It is very difficult to fully represent or fully understand the glory of Vedas. The knowledge of the four varnas, three loks, four ashrams, past, future and current is known only from the Vedas. This Sanatana (continual) Vedashastra holds and nurtures all beings. That's why I consider it the ultimate tool for humans to cross the Bhavsagar.

     

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  • वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है, पर कैसे ?

    आर्य समाज का तीसरा नियम है- "वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है।" इस नियम को समझने के लिए ऋग्वेद का "अदिति" शब्द बहुत सहायक सिद्ध हो सकता है। अदिति के लिए ऋग्वेद (1.89.10) में निम्न मन्त्र है-

    अदिति द्यौ: अदिति अंतरिक्षं अदिति: माता स: पिता स: पुत्र:।
    विश्वेदेवा: अदिति पञ्चजना: अदिति: जातं अदिति: जनित्वम्‌।।

    संसार में जो कुछ है, वह "अदिति" है। जो दिति न हो वह अदिति होगा। "दिति" शब्द "दो, अवखण्डने" धातु से बना है। "दिति" का अर्थ है- "खण्डित"। "अदिति" का अर्थ हुआ- "अखण्डित"। खण्डित का अर्थ है- एक से दो, दो से तीन, तीन से चार- इस प्रकार बटते जाना। अखण्डित का अर्थ है- सर्वदा एक बने रहना, टुकड़ो में न बटना। जितना भौतिक ज्ञान है, जिसे हम विज्ञान कहते हैं, वह सब दिति के भीतर समा जाता है। अध्यात्म से सम्बन्धित सब कुछ अदिति है, जो जात या जनित्व है वह सब अदिति है, तो वेद भी अदिति है, सत्य भी अदिति है, वेद-ज्ञान भी "अदिति" है। वेद-ज्ञान को अदिति कहने का अर्थ हुआ अखण्डित-ज्ञान, ऐसा ज्ञान जो सदा-सर्वदा एक बना रहता है, कभी बदलता नहीं- सदा सत्य-सनातन। इसी "अदिति"- शब्द के लिए ऋग्वेद (8.18.6) में दो अन्य शब्दों का प्रयोग हुआ है जिससे हमारा विषय अधिक स्पष्ट हो जाता है। वह मन्त्र है:

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    भारत देश की गुलामी के कारण

    Ved Katha Pravachan _48 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    अदितिर्नो दिवा पशुं अदितिर्नक्तं अद्वया।
    अदिति: पात्वहंस: सदावृधा।

    इस मन्त्र में "अदिति" के लिए "अद्वय" तथा "सदावृध" शब्दों का प्रयोग हुआ है। "अद्वय" का अर्थ है- जो दो न हो। "सदावृध" का पदच्छेद करके इसके दो अर्थ हो जाते हैं। सदावृध जो सदा बढता रहेविकसित होता रहेएक से दोदो से तीनतीन से चार होता रहे बटता रहे। इसका दूसरा अर्थ है- सदा अवृध जो सदा एक रहेएक से दोदो से तीन न होनित्य सनातनएक रूप में बना रहे।

    इस प्रकार वेद ने ज्ञान को तीन भागों में विभक्त किया है- अदितिसदावृध तथा सदा+अवृध। अदिति वह ज्ञान है जो सदा रहता हैउसमें दो पक्ष नहीं हो सकते। सदावृध वह ज्ञान है जो सदा बढता रहता हैबदलता रहता हैआज यह और कल वहबढेगा तो बदलकर ही बढेगा। यह वह ज्ञान है जिसे हम आज की भाषा में "विज्ञान" कहते हैं। "सदा अवृध" वह यह ज्ञान है जिसे हम पहले "अदिति" कह आए हैं- सत्य ज्ञानअखण्डित- ज्ञानएक-ज्ञान न बदलने वाला ज्ञान या जिसे हम "ईश्वरीय ज्ञान" कह सकते हैं।

    भौतिक ज्ञान सदा बढता रहता हैसदावृध रहता हैइसका गुरु-शिष्य परम्परा द्वारा आदान-प्रदान हो सकता है या मनुष्य द्वारा आविष्कार हो सकता है। आध्यात्मिक ज्ञान सदा एक रहता है अदिति या "अद्वय" हैदो नहीं एक हैसदा-सनातन हैइसका आविष्कार नहीं हो सकतायह सदा दिया जाता है। संसार में सदा एक रहने वाली अगर कोई वस्तु है तो वह "सत्य" है, "सत्य-ज्ञान" है। सत्य सदा एक रहता हैअखण्डित रहता हैवेद के शब्दों में कहें तो सत्य सदा अद्वय हैअदिति है। यह नहीं हो सकता कि किसी बात के लिए हम कहें कि यह भी ठीक हैऔर उसकी विरोधी बात भी ठीक है। उदाहरणार्थ हिन्दू होईसाई होमुसलमान होयहूदी होपारसी हो- सभी कहेंगे कि सत्य बोलना चाहिएकोई नहीं कहेगा कि सच भी बोल सकते हैं और झूठ भी बोल सकते हैं। सब कहेंगे कि प्रेम करना चाहिएकोई नहीं कहेगा कि प्रेम भी करो और द्वेष भी करोसब कहेंगे परोपकार करना उचित हैकोई नहीं कहेगा कि परोपकार भी करोपर अपकार भी करो। कई ऐसे आधारभूत तत्व हैं जो अद्वय हैं अर्थात्‌ उनमें दो पक्ष हो नहीं सकते- ऐसा सब कोई कहते हैं।

    अगर अदिति का अभिप्राय अद्वय हैतो वेद ने इसी को उक्त मन्त्र में सदावृध या सदा बढने वाला वर्धमान क्यों कहावर्धमान तो वह तत्त्व है जो सदा बढता रहता है। छोटे से बड़ा और बड़े से बहुत बड़ा हो जाता या हो सकता है। आज जैसा हैकल वैसा नहीं हैअर्थात्‌ पहले जैसा नहीं है।

    यजुर्वेद के 40 वें अध्याय में "विद्या" तथा "अविद्या" का वर्णन आता है। वहॉं कहा गया है:

    अन्यदाहु: विद्या अन्यदाहु: अविद्या।
    इति शुश्रुम घीराणां येनस्तद्‌ व्याचचक्षिरे।।

    विद्यां च अविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह।
    अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते।।

    इन मन्त्रों का अभिप्राय यह है कि अविद्या से मृत्यु को तर जाते हैं और विद्या से अमृत की प्राप्ति होती है। कितनी बेतुकी बात लगती है यह। यदि अविद्या से मृत्यु को तर जाते हैं तब तो सबका लक्ष्य अविद्या होना चाहिए। परन्तु नहींवेद में तथा उपनिषद्‌ में विद्या तथा अविद्या का अर्थ क्रमश: ज्ञान तथा अज्ञान नहीं है। वैदिक परिभाषाओं तथा लौकिक परिभाषाओं में जमीन आसमान का भेद है। वेदों तथा उपनिषदों में भौतिकवाद को अविद्या कहा गया हैअध्यात्मवाद को विद्या कहा गया है। यह स्पष्ट है कि भौतिक औषधियों के सेवन से रोग की मुक्ति होती हैदीर्घ जीवन हो सकता हैमृत्यु से लड़ा जा सकता है। इसी कारण तो कहा- अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा- अविद्या से भौतिकवाद सेमृत्यु को तो तरा जा सकता है। परन्तु विद्यया-अमृतमश्नुते- अमृत की प्राप्ति "विद्या" से ही होती है। यहॉं विद्या का अर्थ पढने-पढाने की विद्या से नहींआत्मज्ञान की विद्याअध्यात्मवाद की विद्या है।

    हमारा ज्ञानज्ञान तभी कहला सकता है जब वह वर्धमान होआगे-आगे बढेउन्नति करे। आज का वैज्ञानिक-जगत इसलिए श्रेयकर माना जाता है क्योंकि आज जो बात ठीक मानी जाती हैकल रिसर्च या परीक्षण या खोज करते-करते गलत मालूम पड़ने पर छोड़ दी जाती है। अगर विज्ञान किसी जगह आकर खड़ा हो जाएरुक जाएतो वह फेंक देने लायक होगा। परन्तु यह बात भौतिक-विज्ञान पर ही लागू होती हैआध्यात्मिक विज्ञान पर नहीं। अध्यात्म सदा "अद्वय" तथा "वर्धमान" होता हुआ भी "अवर्धमान" (सदा+अवृध) होता है। हिंसा से शुरू कर मनुष्य "अहिंसा" पर जाकर रुकता हैअसत्य से शुरू कर सत्य की खोज में भटकता हैचोरी-डाके-स्तेय से चलता-चलता अस्तेय को लक्ष्य बनाता हैअब्रह्मचर्य तथा पर-दारा-गमन से गुजरता सदाचार तथा ब्रह्मचर्य को ही जीवन का लक्ष्य बनाता हैछीना-झपटी से जीवन शुरू कर "अपरिग्रह" को ही सामाजिक-जीवन लक्ष्य बनाता है। भौतिक तत्व जब तक वर्धमान तक सीमित रहते हैंतब तक जीवन अपने लक्ष्य को न हीं पकड़ताजब जीवन के वर्धमान तत्व "अवर्धमान" हो जाते हैंवे अहिंसासत्यअस्तेयब्रह्मचर्यअपरिग्रह तक पहुंच जाते हैंतब मनुष्य "अद्वय", "अदिति", "अवर्धमान" कोजीवन के सनातन सत्य को पा लेता है। उसी अद्वयअदितिअखण्डित सत्य का वर्णन वेद में किया गया है।

    वेदों में मुख्यतौर पर "वर्धमान" तत्वों काभौतिकवाद का वर्णन नहीं है। क्योंकि ये तत्व भौतिकवाद का अङ्ग होने के कारण परिवर्तनशील हैं। वेदों में "अवर्धमान" तत्वों काआध्यात्मिक तथ्यों का वर्णन है क्योंकि वे नित्य हैंअपरिवर्ततनशील है क्योंकि वे नित्य हैंअपरिवर्ततनशील हैं। ज्ञान जब बढेगा तो बढते-बढते उसकी भी सीमा कभी-न-कभी आयेगी। वृक्ष ऊँचा जाता हैपरन्तु कहीं तो रुक जाता है। "वर्धमान" जब "अवर्धमान" हो जाता हैतब वही "अद्वय" हो जाता हैअदिति हो जाता है। भौतिकवाद जहॉं रुक जाता है वहॉं अध्यात्मवाद शुरु हो जाता है।

    ज्ञान या तो वर्धमान होगा या अवर्धमान होगा। "वर्धमान" ज्ञान भौतिक हैसमय-समय पर मनुष्य की खोज के आधार पर बदलता रहता है इसलिए बढता भी रहता है। "अवर्धमान" ज्ञान आध्यात्मिक हैनित्य हैसनातनएक हैअद्वय हैअदिति हैबदलता नहीं है। क्योंकि वेद का ज्ञान मनुष्य की खोज नहीं हैईश्वरीय देन हैइसलिए उसे वेद ने "अद्वय" तथा अदिति कहा है। परन्तु ज्ञान का स्रोत मनुष्य तथा ईश्वर दोनों हैं- इसलिए ज्ञान को वेद ने सदावृध भी कहा है। सदावृध शब्द के यहॉं दो अर्थ किए गए हैं। सदावृध संस्कृत भाषा का विलक्षण शब्द है जिसमें ज्ञान के मानुषीय तथा ईश्वरीय दोनों पक्ष आ जाते हैं। "सदा+वृध" मानुषीय ज्ञान है, "सदा+अवृध"ईश्वरीय या वेद ज्ञान है।

    जबकि हम कहते हैं कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक हैतब हमारा अभिप्राय क्या होता हैक्या यह अभिप्राय होता है कि वेद में फिजिक्सकैमेस्ट्री आदि सब कुछ है। क्या रेलहवाई जहाजतारटेलीफोन आदि बनाना सब सत्य विद्यायें वेद में हैंअगर वेद में फिजिक्सकैमिस्ट्रीरेलतारहवाई जहाज आदि सब कुछ है तो भगवान ने मनुष्य को अपने मस्तिष्क से सोचने समझनेखोजने के लिए क्या कुछ भी नहीं छोड़ाहमें इस बात का भी उत्तर देना होगा कि सब भौतिक आविष्कार उन लोगों ने कैसे किये जो वेद का एक अक्षर भी नहीं जानते थे। वास्तविक स्थिति यह है कि वेदों में भौतिक-विद्याओं का बीज तो है परन्तु उसे पुष्पित तथा फलित या क्रियात्मक रूप देने के लिए उपवेदों की रचना की गई। उपवेदों का निर्माण इसलिए हुआ ताकि वेदों में जिन भौतिक विद्याओं का बीज थापरन्तु उसकी प्रधानता न थीउपवेदों द्वारा उनका विशदीकरण किया जाये।

    वेद में जो भी वैज्ञानिक बात कही गई हैवह उदाहरण या उपमा के रूप कही गई है। मुख्य रूप में नहीं कही गई है। उदाहरणार्थ यजुर्वेद के 23 वें अध्याय में यज्ञ का वर्णन करते हुए कहा है- पृच्छामि त्वां परमन्त: पृथिव्या: -मैं पूछता हूँ पृथ्वी का परम छोर क्या हैइसका उत्तर देते हुए कहा गया है "इयं वेदि: परो अन्त: पृथिव्या:"- यह वेदी जहॉं हम यज्ञ कर रहे हैंपृथ्वी का परला सिरा है। इसका अर्थ हुआ कि पृथ्वी गोल है जिसे सिद्ध करने के लिए गैलिलियो को जेल जाना पड़ा था। प्रत्येक गोल वस्तु का आदि तथा अन्त एक ही स्थल होता हैपरन्तु यह कथन भूगोल या भूगर्भ के रूप में नहीं कहा गयायज्ञ के विषय में उदाहरण के रूप में कहा गया है। हमारा कथन है कि वैज्ञानिक या भौतिक तथ्यों को परमात्मा की तरफ से बतलाए जाने की जरूरत नहींउनका आविष्कार करने के लिए भगवान्‌ ने मनुष्य की बुद्धि दी है। आध्यात्मिक तथ्यों को ही वेद द्वारा दिया गया है। अध्यात्म-विद्या ही सत्य विद्या हैवही अद्वय हैवही अदिति हैवही अवर्धमान हैवही विद्या है। भौतिक-विद्या को वेद ने "सदावृद्ध"- सदा बढने वाली विद्या कहते हुए भी "अविद्या" कहा है। भौतिक-विद्या को अविद्या कहते हुए भी जीवन के लिए उपयोगी होने के कारण उसे भी वेद ने सम्मान का स्थान देते हुए कहा है- "अविद्यया मृत्युं तीत्वा"- अविद्या से मृत्यु को तो तरा ही जा सकता हैपरन्तु अमरत्व तो अध्यात्म से ही प्राप्त होता है।

    तो क्या वेद में विज्ञान नहीं हैहमारा उत्तर है- वेद में विज्ञान हैऔर अवश्य है परन्तु ऐसा विज्ञान जो नित्य हैअखण्ड हैजो सदा-अवृध हैजो बदलता नहीं है। जो विज्ञान बदलता रहता हैवह वेद की परिभाषा में अविद्या हैसदावृध- सदा-वर्धमान है। सदावृध- सदा वर्धमान ज्ञान मनुष्य के हाथ में है"सदा-अवृध" - सदा एक रहने वाला ज्ञान वेद द्वारा भगवान्‌ मानव को देता है। -प्रो. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार

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    In this mantra, the words "Adavya" and "Sadavridha" are used for "Aditi". "Advay" means no two. It has two meanings by "Padavadh". Sadavriha, which continues to grow, continues to grow, growing from one to two, two to three, three to four. Its second meaning is to always be the one who always remains one, not one to two, two to three, always in a form.

     

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  • वेद-सौरभ - यज्ञोपवीत

    3म्‌ स सूर्यस्य रश्मिभिः परिव्यत तन्तुं तन्वानस्त्रिवृतं यथा विदे।
    नयन्नृतस्य प्रशिषो नवीयसीः पतिर्जनीनामुपयाति निष्कृतम्‌।।
    (ऋग्वेद9.86.32)

    शब्दार्थ - (सूर्यस्य रश्मिभिः) ज्ञान-रश्मियों से (परिव्यत) आवृत, परिवेष्टित आत्मावाला (सः) वह गुरु (त्रिवृतं तन्तुं) तीन बटवाले धागे, यज्ञोपवीत को (तन्वानः) धारण कराता हुआ (यथा विदे) सम्यक्‌ ज्ञान के लिए (ऋतस्य) सृष्टि-नियम की (नवीयसीः) नवीन, अति उत्तमोत्तम (प्रशिषः) व्यवस्थाओं का (नयन्‌) ज्ञान कराता हुआ (पतिः) उनका पालक होकर (जनीनाम्‌) सन्तानोत्पादक माताओं के (निष्कृतम्‌ उपयाति) सर्वश्रेष्ठ पद को प्राप्त करता है।

    Ved Katha Pravachan _100 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    भावार्थ - 1. जिसकी आत्मा सूर्य के समान देदीप्यमान होऐसा व्यक्ति ही गुरु होने के योग्य है।2. ऐसा गुरु ही शिष्य को यज्ञोपवीत देने का अधिकारी है। 3. गुरु का कर्त्तव्य है कि वह अपने शिष्य को सम्यक्‌ ज्ञान कराए। 4. गुरु को योग्य है कि वह अपने शिष्य को सृष्टि-नियमों का बोध कराएं। 5. गुरु को शिष्यों का पालक और रक्षक होना चाहिए। 6. ऐसे गुणों से युक्त गुरु माता की गौरवमयी पदवी को प्राप्त होता है। माता के समान गौरव और आदर पाने योग्य होता है। 

    मन्त्र में आये "तन्तुं तन्वानास्त्रिवृतम्‌शब्द स्पष्ट रूप में यज्ञोपवीत धारण करने का संकेत कर रहे हैं।स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

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    Connotation- 1. Only a person whose soul is resplendent like the Sun is eligible to be a Guru. 2. Only such a master is entitled to offer the yagyopaveet to the disciple. 3. It is the duty of the Guru to make his disciple get proper knowledge. 4. The Guru is able to make his disciple understand the rules of creation. 5. The Guru should be the foster and protector of the disciples. 6. With such qualities, one attains the glorious status of Guru Mata. It is worthy of pride and respect like a mother.

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  • वैदिक विनय - अमरता

    3म्‌ जुहुरे चितयन्तोऽनिमिषं नृम्णं पान्ति।
    आ दृळहां पुरं विविशुः।। ऋग्वेद5.11.2।।

    ऋषिः आत्रेयो वव्रिः।। देवता अग्निः।।छन्दः गायत्री।।

    विनय -एक नगर है जो कि बिलकुल दृढ़ है, अभेद्य है। इसमें पहुंच जाने पर हम पर किसी भी शत्रु का आक्रमण सफल नहीं हो सकता। क्या कोई उस स्थान पर पहुँचना चाहता है? वहॉं पहुँचने का मार्ग कुछ विकट है, कड़ा है, आसान नहीं है। वहॉं पहुँचने वालों को ज्ञानपूर्वक स्वार्थ-त्याग करते जाना होता है और सदा जागते हुए अपने "नृम्ण' की, आत्म-बल की रक्षा करते रहना होता है। ये दो साधनाएँ साधनी होती हैं। कई लोग अपने कर्त्तव्य व उद्देश्य का बिना विचार किये यूँ ही जोश में आकर "आत्म-बलिदान' कर डालते हैं। ऐसा करना आसान है, पर यह सच्चा बलिदान नहीं होता। इससे यथेष्ट फल नहीं मिलता।

    Ved Katha Pravachan _99 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    इस पवित्र उद्देश्य के सामने अमुक वस्तु वास्तव में तुच्छ हैइसलिए अब इस वस्तु को स्वाहा कर देना मेरा कर्त्तव्य हैइस प्रकार के स्पष्ट ज्ञान के बिना आत्म-बलिदान के नाम से वे आत्मघात कर रहे होते हैं। वहॉं पहुँचने के लिए तो आत्मा का घात नहींकिन्तु आत्मा की रक्षा करनी होती है। हम लोग प्रायः क्रोध करकेअसत्य बोलकरइन्द्रियों को स्वच्छन्द भोगों में दौड़ाकर अपना आत्म-तेजआत्मवीर्यआत्मबल खोते रहते हैंपर धीर पुरुष अपने इस "नृम्ण'=आत्मबल की बड़ी सावधानी सेसदा जागरूक रहते हुए बड़ी चिन्ता से रक्षा करते हैं। वे पल-पल में अपनी मनोगति पर भी ध्यान रखते हुए देखते रहते हैं कि कहीं अन्दर कोई आत्मबल का क्षय करने वाला काम तो नहीं हो रहा है। इस प्रकार रक्षा किया हुआ आत्मबल ही उस दृढ़ पुरी में पहुँचाने वाला है। वास्तव में ये दोनों साधनाएँ एक ही हैं। यदि हम इनके इस सम्बन्ध पर विचार करें कि ऐसे लोग आत्मबल की रक्षा करने के लिए शेष प्रत्येक वस्तु का बलिदान करने को उद्यत रहते हैं और ये सदा इतने सत्य के साथ आत्मबलिदान करते जाते हैं कि उनके प्रत्येक आत्मबलिदान का फल यह होता है कि उनका आत्मबल बढ़ता है। आओ! हम भी आत्महवन करते हुए और आत्मबल की रक्षा करते हुए चलने लगें तथा उस मार्ग के यात्री हो जाएं जोकि अभयताअजातशत्रुताअमरता और अभेद्यता की दृढ़ पुरी में पहुँचाने वाला है। 

    शब्दार्थ - जो वि चियन्तो जुहुरे=ज्ञानपूर्वक स्वार्थ-त्याग करते हैं और अनिमिषं नृम्णं पान्ति=लगातार जागते हुए अपने आत्मबल की रक्षा करते हैं ते=वे दृळहां पुरम्‌=दृढ़-अभेद्य नगरी में आविविशुः= प्रविष्ट हो जाते हैं। आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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    Vinay - A city that is absolutely resolute, impenetrable. On reaching it, no enemy attack can succeed on us. Does anyone want to reach that place? The way to reach there is a bit difficult, difficult, not easy. Those who reach there have to go with self-sacrificing knowledge and keep on guarding the self-strength of their "nirma", always awake. These two practices are spiritual. Many people do not consider their duty and purpose. He gets excited and commits "self-sacrifice". This is easy to do, but it is not a true sacrifice. It does not yield enough fruit.

     

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  • वैदिक संस्कृति की गंगा बन्द न होने देना

    ओ3म्‌ अच्छिन्नस्य ते देव सोम सुवीर्यस्य रायस्पोषस्य ददितारः स्याम।
    सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा स प्रथमो वरुणो मित्रो अग्निः।। यजु. 7.14।।

    अर्थ- (देव) हे दिव्य शक्तियों के भण्डार (सोम) सब प्रकार के ऐश्वर्य और शान्ति के निधि प्रभो!  हम (अच्छिन्नस्य) निरन्तर अबाध होकर बहने वाले (ते) तेरे (सुवीर्यस्य) सुवीर्य और (रायस्पोषस्य) ऐश्वर्य और उससे प्राप्त होने वाली पुष्टि के (ददितारः) देने वाले (स्याम) बनें। वह सुवीर्य और रायस्पोष कौन-सा है अथवा कहॉं से आता है ? कहते हैं (विश्ववारा) सबके वरण करने योग्य (सा) वह (प्रथमा) सबसे पहली (संस्कृतिः) वैदिक संस्कृति है। इस संस्कृति का उद्‌गम स्थान कौन है ? कहते हैं (सः) वह (प्रथमः) सबसे पहला (वरुणः) वरण करने योग्य अथवा पाप से बचाने वाला (अग्निः) सबको गर्मी और प्रकाश देकर आगे ले जाने वाला (मित्रः) सबका हित चाहने वाला मित्र तू ही है। 

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    वेद में शान्ति और सोम का स्वरूप (वेद कथा)
    Ved Katha Pravachan _61 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    भगवान्‌ वरुण हैं। वे सबके वरण करने योग्य हैं। उनकी प्राप्ति से बढ़कर कोई और चीज मनुष्य के लिये हितकारी नहीं हो सकती। मनुष्य सारी उन्नति और तरक्की इसीलिए करता है कि वह सुखी होना चाहता है। पर उसकी यह पूर्ण सुखी होने की हार्दिक इच्छा जगत्‌ में पूरी नहीं हो सकती, चाहे वह कितनी ही आश्चर्यजनक सांसारिक उन्नति कर ले। इस सांसारिक उन्नति से उसके सुख की मात्रा थोड़ी-बहुत बढ़ सकती है, पर पूर्ण आनन्दवान्‌ होने की उसकी इच्छा यहॉं पूरी नहीं हो सकती। कोई भी सांसारिक जीवनचर्या का गम्भीर निरीक्षण करने वाला इस सच्चाई का अनुभव कर सकता है। पूर्ण सुखी होने की मनुष्य की इच्छा प्रभु को प्राप्त करने पर ही पूरी हो सकती है। क्योंकि एकमात्र प्रभु ही पूर्ण सुखी हैं, आनन्दस्वरूप हैं। इसलिये प्रभु ही सबके सबसे अधिक वरणीय हैं। वह प्रभु पाप के निवारण करने वाले भी हैं। सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों के कल्याण के लिये दिये गये अपने ज्ञान-राशि वेद के द्वारा वे मनुष्य के आगे पाप से बचने के लिये धर्म का स्वरूप खोलकर रख देते हैं। जो प्रभु के साथ अपना गाढ़ा सम्बन्ध जोड़ लेते हैं, उनके हृदयों में पाप मार्ग से बचने के लिये प्रेरणा भी प्रभु करते रहते हैं। जो पाप-मार्ग को छोड़कर धर्म-मार्ग पर चलते हैं, उन्हें एक न एक दिन आनन्द-धाम प्रभु का साक्षात्‌ हो ही जाता है। 

    प्रभु अग्नि हैं। वे गरमी और रोशनी को देकर  सबके जीवनों को उन्नति के मार्ग में आगे ले जाते हैं। धर्म के मार्ग में उन्नति करने के लिये गरमी और रोशनी की जरूरत है। अज्ञानी और ठण्डा पड़ गया मनुष्य उन्नति नहीं कर सकता। धर्म के मार्ग में तो और भी नहीं कर सकता। प्रभु हमें ज्ञान का प्रकाश देने वाले हैं। वेद द्वारा और प्रभु के लिये आत्मार्पण कर चुके हृदयों में प्रेरणा द्वारा प्रभु का प्रकाश मिलता है। बल भी हमें प्रभु की कृपा से ही मिलता है। इसे कोई भी संसार का और अपना गम्भीर निरीक्षण करने वाला आसानी से समझ सकता है। परन्तु प्रभु के लिये आत्मार्पण कर देने वाले भक्तों के हृदयों में जो बल का अथाह और असीम समुद्र हिलोरें लेने लगता है, वह किसी भी पहुँचे हुए प्रभुभक्त के जीवन में स्पष्ट देखा जा सकता है। इन लोगों में युगान्तर उपस्थित कर देने की शक्ति पैदा हो जाती है। प्रभु सचमुच में अग्नि हैं। 

    साथ ही वह प्रभु मित्र भी हैं। प्रभु की वरणीयता और अग्निरूपता हमारे लिये किस काम की, यदि वे हमारे लिये न हों। पर प्रभु तो हमारे मित्र हैं, हमारा परम हित चाहने वाले हैं। उनका सब कुछ हमारे हित और कल्याण के लिये है। वे हमारे मित्र होकर खुले हाथों अपनी वरणीयता और अग्निरूपता लुटा रहे हैं। जो चाहे लेकर अपने को निहाल कर लें। 

    पर हमें तो प्रभु की वरणीयता और अग्निरूपता कहीं लुटती नजर नहीं आती, कहॉं जाकर उसे लें? कहा कि संसार के आरम्भ में मनुष्य मात्र का ही नहीं, अपितु प्राणिमात्र का कल्याण करने के लिये प्रभु ने जो वैदिक संस्कृति दी थी उसका अध्ययन करो, मनन करो और उसे समझो तथा फिर करो उसके अनुसार अपना आचरण। फिर देखो क्या होता है! तुम्हें प्रभु की वरुणरूपता भी समझ में आ जायेगी और अग्निरूपता भी। तुम्हारे पास न बल और पराक्रम की कमी रहेगी,न धन-दौलत की। बल और पराक्रम कैसा? सुवीर्य। उससे किसी का अनिष्ट और बिगाड़ नहीं होना चाहिए। उसका उपयोग सबकी भलाई और कल्याण में होना चाहिये। फिर धन-दौलत कैसी? जिससे तुम्हें पुष्टि भी मिलती हो। वह खाली "रै' न होकर रायस्पोष हो, पुष्टि देने वाली हो। फिर इस सबके स्वीकार करने योग्य संस्कृति के अध्ययन, मनन और तदनुकूल आचरण से खाली इस दुनिया की धन-दौलत ही नहीं मिलेगी, तुम सबसे कीमती, सबसे प्यारी, सबसे स्थायी दौलत के अधिकारी हो जाओगे। तुम पूर्ण सुख के धाम आनन्दस्वरूप भगवान्‌ के प्रत्यक्ष साक्षात्कार के अधिकारी हो जाओगे, जिसके सम्बन्ध में स्वयं वेद ने कहा है- "रसेन तृप्तो न कुतश्चनोनः'। (अथर्ववेद 10.8.44) वह रस से तृप्त है, उसमें रस की कहीं कुछ कमी नहीं है। 

    वैदिक-संस्कृति का अनुशीलन करने वाले और उसके फलस्वरूप अपने को आनन्द धाम प्रभु के साक्षात्कार के योग्य बना लेने वाले भक्त ! उस बल-पराक्रम और रायस्पोष को प्राप्त करके ही सन्तुष्ट न हो जाना, यहीं न ठहर जाना। उस बल-पराक्रम और रायस्पोष की धारा को औरों के लिए भी बहाते रहना और ऐसा प्रबन्ध कर जाना कि यह धारा तुम्हारे पीछे भी, तुम्हारी सन्तति के द्वारा भी निरन्तर अबाधित रूप में अच्छिन्न होकर बहती रहे। वेद के शब्दों में तुमने प्रभु से "अच्छिन्नस्य ते देव सोम सुवीर्यस्य रायस्पोषस्य ददितारः स्याम' यह और प्रतिज्ञा की है। इसे कार्यरूप में लाते रहना। वैदिक संस्कृति की धारा सदा बहाते रहना तेरा कर्त्तव्य है। तेरे द्वारा अपने इस कर्त्तव्य के पालन से ही संसार में शान्ति की धारा बह सकेगी। 

    भगवान्‌ सोम हैं, शान्ति के समुद्र हैं। मनुष्यों को परम शान्ति तथा परम आनन्द की गङ्गा में स्नान कराते रहने की भावना से ही प्रभु ने सृष्टि के आरम्भ में वेद की संस्कृति का, मांजकर पवित्र कर देने वाली वेद की शिक्षा का उपदेश दिया था। "सोम' प्रभु से मिलने वाली संस्कृति ही संसार में वास्तविक शान्ति ला सकती है। आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति

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  • वैदिक-विनय-प्रभु की प्राप्ति

    3म्‌ सदा व इन्द्रश्चर्कृषदा उपो नु स सर्पयन्‌।
    न देवो वृतः सूर इन्द्रः।। साम. पू.3.1.1.3।।

    ऋषिः प्रगाथः काण्वः।। देवता इन्द्रः।।छन्दः गायत्री।।

    विनय - हे मनुष्यो ! तुम अपने परमात्मा से प्रेम क्यों नहीं करते? जहॉं हरिकथा होती है वहॉं से तुम भाग आते हो। बार-बार प्रभु-चर्चा होती देखकर तुम ऊबते हो, जबकि विषयों की चर्चाएँ सुनने के लिए सदा लालायित रहते हो। तुम्हें उस अपने पिता से इतना हटाव क्यों हैं? तुम चाहे जो करो, वह देव तो तुम्हें कभी भुला नहीं सकता। वह तो तुम्हें प्रेम से अपनी ओर आकर्षित ही कर रहा है, सदा आकर्षित कर रहा है, निरन्तर अपनी ओर खींच रहा है। तुम जानो या न जानो, पर वह अत्यन्त समीपता के साथ माता की भॉंति तुम-पुत्रों की निरन्तर परिचर्या भी कर रहा है।

    Ved Katha Pravachan _101 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    वह परमेश्वर हमारे रोम-रोम में रमा हुआहमारे एक-एक श्वास के साथ आता-जाता हुआहमारे मन के एक-एक चिन्तन के साथ तद्रूप हुआ-हुआ और क्या कहेंहमारी आत्मा की आत्मा होकरएक अकल्पनीय एकता के साथ हमसे जुड़ा हुआ है। हमें संसार में जो कुछ प्रेमआरामवात्सल्यभोगसेवासुख मिल रहा है वह किन्हीं इष्ट-मित्रों या प्राकृतिक वस्तुओं से नहीं मिल रहा है। वह सब हमारे उस एक अनन्य सम्बन्धी परम दयालु प्रभु से ही मिल रहा है। वह केवल हमें अपनी ओर खींच ही नहीं रहा हैअपितु अति समीपता से निरन्तर हमारी सेवा भी कर रहा हैप्रेम-प्रेरित होकर हमारी सेवा कर रहा है। हमारा पालनपोषणरक्षणदुःखनिवारण आदि सब परिचर्या कर रहा है। अरे! वह तो कहीं छिपा हुआ भी नहीं है। उसके और हमारे बीच में कोई भी आवरण नहीं है। उसे ढका हुआआच्छादित भी कौन कहता है?

    हे मनुष्यो ! सच बात तो यह है कि यदि हम उसके इस प्रेमाकर्षण को जानने लग जाएँ कि वे प्रभुदेव सदा प्रेम से हमें अपनी ओर खींच रहे हैंयह हम सचमुच अनुभव करने लग जाएँतो हमें यह भी दिख जाए कि वे हमारे अत्यन्त निकट हैं और अत्यन्त निकटता के साथ हमारी सेवा-शुश्रूषा कर रहे हैं और फिर एक दिन हमें यह भी दिख जाए कि वे सब ब्रह्माण्ड के रचयिता महापराक्रमी इन्द्र प्रभुजिनके विषय में परोक्षतया हम इतनी बातें सुना करते थेवे हमसे किसी आवरण से ढके हुए भी नहीं हैं। वे प्रत्यक्ष हमारे सामने हैं और यह दिख जाना ही परमात्मा का साक्षात्कार करना हैपरम प्रभु को पा लेना है।

    शब्दार्थ- हे मनुष्यो ! इन्द्रः = परमेश्वर वः = तुम्हें सदा = सदैव आचर्कृषत्‌ = अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। सः = वह नु = निःसन्देह उप उ=समीप हीसमीपता के साथ सपर्यन्‌ = तुम्हारी सेवा करता हुआ विद्यमान है। शूरः इन्द्र देवः = वह महापराक्रमी इन्द्रदेव वृतः = ढका हुआआच्छादित न = नहीं है। आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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    Hey man The truth is that if we start to know his love for God, that he is pulling us towards us with love, we can start realizing, then we should also see that he is very close to us and very We are doing our service with close proximity and then one day we can also see that all those who were the creators of the universe, Mahaprakrami Indra Prabhu, whom we used to hear so much about indirectly, are not covered by any cover from us. . They are directly in front of us and to see this is to interview God, to find the Supreme Lord.

     

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  • शिव नाम परमात्मा का है

    शिवरात्रि का सीधा सरलार्थ कल्याण रात्रि है। पौराणिक परिभाषा में यह शिव की रात है। जो भी कोई शिवभक्त इस रात्रि में शिवमूर्ति का पूजन करता है, वह शिवजी के प्रसाद से कृतकृत्य होकर शिव लोक प्राप्त करने का अधिकारी बन जाएगा। ऐसा पौराणिक प्रचार है। मुसलमानों में भी शबरात की बड़ी महिमा है। शबरात "शिवरात्रि' शब्द का ही विकृत रूप हुआ प्रतीत होता है। क्योंकि उर्दू, अरबी तथा फारसी लिपि में इकार-उकारादि मात्रायें प्रायः लिखी नहीं जाती तथा व में मध्य रेखा खींचकर व का ब बन जाना सम्भव है। अतः शिव का शब बन जाना और रात्रि का रात लिखा जाना सरलता से समझा जा सकता है। 

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    स्वर्ग और नरक का निर्माण विचारों से ही होता है

    Ved Katha Pravachan _52 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    वेद में शिव नाम परमात्मा का है, जिसके अर्थ कल्याणकारी के हैं। उसकी आराधना-उपासना प्रातः-सायं होती है। 

    पौराणिकों ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश या शिव तीन देवता माने हैं। पुराणों में इनकी कथाएं बहुत लिखी गई हैं। इनके आधार पर पिता जी ने अपने बालक मूलशंकर को शिवरात्रि के व्रत द्वारा रात्रि जागरण का महात्म्य बताकर शिवदर्शन की बात कही, जिससे आत्मा का कल्याण होकर मोक्ष की प्राप्ति हो। 

    किन्तु जागरण के मध्य ऋषि की आत्मा में सच्चाई का प्रमाण उदित हो गया कि यह जड़ पाषाण मूर्ति सच्चा कल्याणकारी शिव नहीं है। वह सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान्‌, अजर-अमर, नित्य, पवित्र, सृष्टिकर्ता परमात्मा घट-घट वासी है। उस निराकार परमात्मा की पूजा निराकार आत्मा में शुभ गुणों के विकास के साथ-साथ ध्यान द्वारा होती है, जिसके लिये योग साधना की आवश्यकता है। 

    अतः योग-युक्तात्मा के सान्निध्य की आवश्यकता हुई, वर्षों के कठोर परिश्रम और साधना के पश्चात्‌ यह सिद्धिप्राप्त हुई। तब योग-युक्तात्मा महर्षि दयानन्द ने गुरु विरजानन्द जी से वेदों के रहस्यों को समझकर गुरु दक्षिणा में वेदों के प्रचार में जीवन की आहुति देकर संसार के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। 

    वास्तव में जिस भी क्षण में मनुष्य को सन्मार्ग की प्रेरणा मिले, वही शिव अर्थात्‌ कल्याणकारी है। योग-समाधि का पर्याय ही योगनिद्रा है। कल्याण की सच्ची प्राप्ति योगनिद्रा से विभूषित होती है और योगरात्रि भी कही जा सकती है। 

    संसार जागते हुए भी शुभ प्राप्ति से विमुख होकर वास्तव में मोहान्ध होकर एक प्रकार से गफलत की नींद में सोए रहता है। किन्तु योगी समाधि निद्रा में प्रभु दर्शन से आनन्दविभोर हो रहा होता है। यह योगनिद्रा है। यह योग समाधि ही योगरात्रि या कल्याणकारिणी शिवरात्रि है। हिन्दू-मुसलमान तथा अन्य सभी लोग इस रहस्य को समझ जाएं, तो किसी भी जागरूक क्षण को शबरात या शिवरात्रि कहा जा सकेगा। यही रहस्य दयानन्द ने समझा और ऋषि-महर्षि की पदवी प्राप्त की। 

    नमस्यामो देवान्ननु बत ! विधेस्तेऽपि वशगा, विधिर्वन्धः, सोऽपि प्रतिनियत-कर्मैकफलदः।
    फलं कर्मायत्तं किममरगणैः किं च विधिना, 
    नमस्तत्‌ कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवति।। (नीति शतक 95)

    हम विद्वान आदि देवों को नमस्कार करते हैं, किन्तु अरे! वे भी तो विधाता के आधीन हैं। तो फिर विधाता अवश्य वन्दनीय है, किन्तु वह भी तो कर्मों के अनुरूप ही निश्चित फल देता है। इस प्रकार जब फल कर्मों के ही आधीन है (कर्मों के अनुसार ही मिलने वाला है) तो देवों और विधाता के ऊपर निर्भर न रहकर कर्मों को नमस्कार करें, कर्मों को प्रधानता दें, जिनको बदलने में विधाता भी समर्थ नहीं है। - पं. शान्तिप्रकाश (शास्त्रार्थ महारथी)

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    Mythologists have considered Brahma, Vishnu, Mahesh or Shiva as the three gods. Their stories have been written a lot in the Puranas. On the basis of this, Father told Shivdarshan by telling his child Mool Shankar the great significance of night awakening by fasting of Shivaratri, so that the soul can be benefited and attain salvation. 

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  • शिव-रात्रि बोध रात्रि

    भारत में शिवरात्रि के पर्व का बहुत महत्व है। शिवरात्रि का अर्थ है- कल्याणकारिणी रात्रि और शिव (महादेव) से सम्बद्ध रात्रि। वर्तमान में हिन्दू समाज इस रात्रि में विशेष रूप से शिवमूर्ति की अर्चना करता है। परन्तु जब तक शिव (महादेव) के साथ इस रात्रि का क्या सम्बन्ध है, यह प्रकट न हो, तक तक यह पर्व मनाना सफल नहीं हो सकता।

    महाभारत में अनेकों स्थानों पर शिव के महत्वपूर्ण कार्यों का वर्णन है। "शिव सहस्त्रनाम स्तोत्र" में तो एक-एक नाम से महात्मा शिव के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं का संकेत है। महात्मा शिव सपत्नीक होते हुए भी पूर्ण ब्रह्मचारी थे। उनका पार्वती के साथ शारीरिक सम्बन्ध हुआ ही नहीं। इस ओर संकेत करने वाले "शिव सहस्त्रनाम" में अनेक नाम हैं। उदाहरण के लिये दो नाम उपस्थित हैं।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    विचार सबसे रचनात्मक कार्य है

    Ved Katha Pravachan _51 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    उत्तानशय:-इसका अर्थ है सदा सीधा सोने वाला। स्त्री-संसर्ग में पुरुष अधोमुख होता है। अत: यह नाम बताता है कि शिव ने पार्वती के साथ यौन सम्बन्ध नहीं किया था।

    स्थाणु- स्थाणु का अर्थ होता है पुष्प फल से रहित ठूंठ (वृक्ष)। यह नाम बताता है कि इसी आजन्म ब्रह्मचर्य के कारण शिव सन्तानरूपी फल से रहित थे। कार्तिकेय शिव के औरस पुत्र नहीं थेजैसा कि समझा जाता है। वे उनके पालित पुत्र थेजैसे गणेश। इसकी ओर महाभारतस्थ कार्तिकेयोत्पत्ति का प्रकरण भी संकेत करता है।

    ऐसा आजन्म ब्रह्मचर्य और वह भी पत्नी के होते हुए पालन करना अति असम्भव सा कार्य है। परन्तु शिव ने उसे भी सम्भव कर दिखाया। इसीलिये उन्हें कामारि या मदनारि कहते है। शिव का एक महत्वपूर्ण नाम है- अर्धनारीश्वर। इसका भाव यह है कि नारी पार्वती की उपस्थिति वे बाहर न मानकर अपने अर्धभाग में ही स्वीकार करते थे। जो मनुष्य अपने भीतर ही अर्धभाग में नारी की स्थिति जान लेता है वह बाह्य नारी-सम्बन्ध से दूर हो जाता है। शतपथ में कहा है- तावत्‌ पुरुषो अर्धो भवति यावज्जायां न विन्देत अथ जायां विन्दते पूर्णो भवति।

    इसका भाव यह है कि मनुष्य अपने में किसी वस्तु की न्यूनता समझता है और उसे पूर्ण करने के लिये जाया (पत्नी) को प्राप्त करता है। तब वह अपने को पूर्ण समझने लगता है।

    यदि किसी को यह ज्ञान हो जावे कि जिस नारी रूपी बाह्य वस्तु की मैं कामना करता हूँवह तो मेरे भीतर ही अर्धभाग में स्थित हैतब वह अपने आपको पूर्ण जानकर जाया की कामना नहीं करता। यह ज्ञान परम सूक्ष्म है। इसी महत्वपूर्ण ज्ञान को प्राप्त करके शिव अपने में पूर्ण हो गये और अन्य देवों की अपेक्षा महान्‌ हो गयेमहादेव बन गये। यही उनके तृतीय नेत्र (ज्ञान नेत्र) के उद्‌घाटन का भाव है। इसी विवेक नेत्र से उन्होंने मदन को भस्मीभूत किया था।

    सम्भव है इसी ज्ञान की उपलब्धि उन्हें इस रात्रि में हुई होगी और उन्होंने काम पर विजय पाकर अर्धनारीश्वरत्व को समझा होगा।

    यदि शिवभक्त महात्मा शिव के इस तत्वज्ञान को समझने के लिये कुछ प्रयत्न करेंतो यह रात्रि उनके लिये भी शिव (कल्याण रात्रि बन सकती है)।

    शिवरात्रि महात्मा शिव के वैवाहिक जीवन की प्रथम रात्रि थीसुहाग रात ! तभी असुरों ने देव सेना को ललकारा और तभी देवों के सेनापति रुद्र (शिव) ने असुर और आसुरी सभ्यता के विनाश के लिये अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया। यह था शिव रात्रि व्रत! बज उठा डमरूथिरक उठे पॉंव। सेनापति शिव अब असुर-नाश के रूप में ताण्डव नृत्य कर रहे थे। कैसे खेद का विषय है कि ऐसे योगी और ब्रह्मचारी के नाम पर "शिवलिङ्ग पूजा" का भ्रष्टाचार फैलाया गया है।

    दयानन्द-बोधइसी शिवरात्रि के साथ महान्‌ तत्ववेत्ता ऋषि दयानन्द का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। बालक मूलशङ्कर को इस रात्रि में ही कुल-परम्परा से प्राप्त शिवमूर्ति की पूजा करते हुए इस तत्व का बोध हुआ था कि इतिहास पुराणों में जिस महाबली त्रिपुरारि शिव का वर्णन मिलता हैवह यह प्रस्तरमूर्ति नहीं है। महादेव ने तो बड़े-बड़े बलवान्‌ राक्षसों को मारा था और यह महादेव जिसकी पूजा मैं कर रहा हूँवह तो अपने ऊ पर से नैवेद्य को खाने वाले चूहों को भी हटाने में असमर्थ है। इसीलिये मैं उस सच्चे शिव-महादेव की खोज करूँगाजिसका वर्णन शास्त्रों में मिलता है। इस प्रकार मूलशंकर के लिए यह रात्रि वास्तव में शिव-कल्याण की रात्रि बन गई।

    मूलशंकर ने इस रात जो शिव संकल्प लियाउसके लिए उन्होंने वैभवपूर्ण घर का त्याग करके सच्चे शिव की खोज में अपना सारा जीवन अर्पित कर दिया। सच्चे शिव के दर्शन के लिये योग की आवश्यकता का अनुभव होने पर योगियों की खोज मे अर्वली (आबू) पर्वतहिमालय के हिमाच्छादित शिखरों एव विन्ध्याचल की दुर्गम पर्वत श्रेणियों और जङ्गलों की रोमांचकारी यात्रायें की। "जिन खोजा तिन पाइयांगहरे पानी पैठ" की उक्ति के अनुसार उन्हें कुछ योगीजनों के दर्शन हुए। उनसे योगविद्या सीखी और समाधि पर्यन्त उत्कृष्ट सफलता प्राप्त की।

    परन्तु अभी उन्हें विद्या के क्षेत्र में न्यूनता अखरती थी। यद्यपि उन्होंने अपने दीर्घकालीन भ्रमण में जहॉं भी कोई विद्वान्‌ मिलाउससे शिक्षा ग्रहण करने का पूरा यत्न कियातथापि उन्हें कोई गुरु नहीं मिलाजो शास्त्रज्ञान प्राप्त कर लेने पर भी हृदय में अविद्या की गॉंठ रह जाती हैउसे खोलकर शास्त्रों का तत्वज्ञान कराये। अन्त में उन्हें इसमें भी सफलता मिली और मथुरा निवासी प्रज्ञाचक्षु गुरुवर दण्डी विरजानन्द ऐसे सद्‌गुरु प्राप्त हुए।

    यद्यपि गुरुवर विरजानन्द के चरणों में बैठकर लगभग तीन वर्ष ही विद्याध्ययन किया और वह भी व्याकरण शास्त्र का ही। तथापि गुरुवर विरजानन्द ने व्याकरणशास्त्र के अध्यापन के व्याज से उन्हें उस मूल तत्व ज्ञान से भी सम्पन्न कर दिया जिसके सहारे से दयानन्द शास्त्रों के तत्वज्ञान की उपलब्धि में समर्थ हुए। वह तत्व ज्ञान है आर्ष ग्रन्थों को पढो-पढाओअनार्ष ग्रन्थों का परित्याग करो।

    इतना ही नहींगुरुवर विरजानन्द ने दयानन्द को एक महती शिक्षा यह दी कि अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट मत होवो। अज्ञानान्धकार में भटकती भारतीय जनता को सुमार्ग दर्शाकर उसके दु:खों को दूर करो। देशवासियों की उन्नति में अपनी उन्नति समझो।"

    इस गुरुमन्त्र को पाकर दयानन्द ने अपने व्यक्तिगत मोक्ष के साथ-साथ दया से परिपूर्ण होकर भारतीय जनता के अज्ञानान्धकार जिसके कारण भारतवासी दु:खीहीन दरिद्र और पराधीन थेको दूर करके उन्हें सुमार्ग दर्शाया। अपने इस उद्‌देश्य की पूर्ति के लिये उन्होंने सर्वस्व समर्पित कर दिया। इसी हेतु आर्यसमाज बनाया।

    इस दृष्टि से शिवरात्रि में शिवार्चन करते हुए बालक मूलशंकर को जो बोध हुआ उसी की यह महिमा है कि मूलशंकर स्वयं सच्चे शिव को पाने में जहॉं समर्थ हुएवहॉं उन्होंने भारतीय जनता में व्याप्त अज्ञान मतमतान्तर के विरोध एवं पराधीनता से व्याप्त दु:ख दारिद्रय को दूर करने का सच्चा मार्ग बताकर सभी भारतवासियों को शिव (कल्याण) के मार्ग पर चलने में समर्थ बनाया।

    प्रत्येक भारतीय को मिथ्या मतों को त्याग शिव (कल्याण) के मार्ग (वैदिक सत्य मार्ग) पर चलने का शिवसंकल्प ग्रहण करना चाहिए। इस शिवसंकल्प से जहॉं हमारी व्यक्तिगत उन्नति होगीवहॉं देश और संसार के भी कष्ट दूर होंगे।

    गुरुवर विरजानन्द ने अपने शिष्य को जिस शास्त्रीय तत्व ज्ञान को बोध कराया और दयानन्द ने अपने जीवन में जिसका प्रचार किया, उसे हम प्राय: भुलाते जा रहे है। हमारे अध्ययन-अध्यापन में से उत्तरोत्तर आर्ष ग्रन्थों का लोप होता जा रहा है। इस क्षेत्र में आर्ष ग्रन्थों की नई व्याख्याओं के प्रकाशन का कार्य तो प्राय: अवरुद्ध ही हो गया है, प्राचीन व्याख्यायें भी अप्राप्त हो गई हैं।

    आज वस्तुत: आत्म-निरीक्षण का समय है। अपनी कमियों को पूरा करने के लिये किसी शिव संकल्प को धारण करने का है। यदि आर्य जनता "आर्ष ग्रन्थों के स्वाध्याय का शुभ संकल्प लेवे" और स्वाध्याय में प्रयत्नशील होवे तो उनके लिये यह वस्तुत: शिवस्वरुप हो सकता है। (तपोभूमि मथुराफरवरी 1994)

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    The Mahabharata describes Shiva's important works at many places. In the "Shiva Sahastranam Stotra", each name indicates the important events of Mahatma Shiva's life. Mahatma Shiva was a complete celibate despite being a son. He did not have a physical relationship with Parvati. "Shiva Sahastranama" has many names pointing towards this. For example two names are present.

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  • शूद्र को वेदाध्ययन अधिकार - 2

    पूर्व मीमांसा दर्शनकार जैमिनि के सम्बन्ध में एक और भयङ्कर भ्रान्ति

    वेद के उपाङ्ग माने जाने वाले छह वैदिक दर्शनों पर अर्वाचीन टीकाकारों ने मूल से हटकर अपनी मनमानी काल्पनिक व्याख्या के आधार पर यह सिद्ध करने का असफल प्रयास किया कि इन छहों दर्शनों में मौलिक सिद्धान्तों पर परस्पर मतभेद है। ऋषि दयानन्द ने इन दर्शनों के मूल के अध्ययन के आधार पर उन लोगों के इस प्रयास को गलत साबित करते हुए यह सिद्ध किया कि इन वैदिक दर्शनों में परस्पर कहीं भी कोई भी विरोध नहीं है। सभी शास्त्रों और वेद तक इस मौलिक अध्ययन को स्वामी दयानन्द ने आधार बनाया और शास्त्रों के सम्बन्ध में अन्धानुकरण से प्रचलित अनेक भ्रान्तियों को दूर किया। मूल से हटकर शास्त्रों की व्याख्या करने के कारण सभी शास्त्रों की नव्य परम्परा प्रचलित हुई जो अपने आप में एक अलग शास्त्र बन गया, जिसका नाम तो प्राचीन शास्त्र के आधार पर बना रहा किन्तु वह प्राचीन शास्त्र से बहुत भिन्न थी। इसके कारण मूल शास्त्र के मौलिक सिद्धान्त उन नव्य व्याख्याओं के कारण नीचे दब गये और मूल शास्त्र का वास्तविक स्वरूप और अभिप्राय ही तिरोहित हो गया। स्वामी दयानन्द जी महाराज ने इसी मूलभूत भयंकर भूल को पकड़ा और शास्त्रों के मूल की ओर लौटने का क्रान्तिकारी नारा दिया, जिसे आर्ष ग्रन्थों की परम्परा कहा जाता है।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    श्री और लक्ष्मी में अन्तर व लक्ष्मी का वाहन उल्लू क्यों
    Ved Katha Pravachan _46 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    किन्तु आर्यसमाज और ऋषि दयानन्द के भक्त कहलाने वाले कुछ आधुनिक विद्वान्‌ ऋषि दयानन्द के ही इस नारे को भूल गये और मूल से हटकर शास्त्रों की वही गलत व्याख्या कर रहे हैंजिसकी चेतावनी स्वामी दयानन्द ने दी थी।

    "सर्वहितकारी" 14 अप्रैल 2004 के अंक में डॉ. सुदर्शनदेव आचार्य का "जैमिनिमत समीक्षा-शूद्र को ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन अधिकार" शीर्षक से लेख छपा है। इस लेख में उन्होंने "जैमिनि का मत" देते हुये वेदान्तदर्शन का मध्वादिष्वसम्भवादनधिकारं जैमिनि: (वेदान्त 1.3.31.1) सूत्र उद्‌धृत करते हुए लिखा है कि "जैमिनि मुनि शूद्र को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं मानते हैं।" वेदान्त का अगला सूत्र 1.3.32 भी अपनी बात के समर्थन में उद्‌धृत कियाजिसमें उन्होंने यजुर्वेद के मन्त्राश "त्रीणि ज्योतींषि सचते" ज्योतिषी शब्द की व्याख्या को उद्‌धृत करते हुए तीन ज्योतियों की अपनी मनमानी व्याख्या "ब्राह्मणक्षत्रियवैश्य" करके कहा है कि जैमिनि मुनि इस मत्रांश के आधार पर ब्राह्मणक्षत्रिय और वैश्य का ही वेदाध्ययन अधिकार मानते हैं। वेदान्त का अगला सूत्र "भावं तु बादरायणोऽस्ति हि" (1.3.32)की अपनी मनमानी व्याख्या के आधार पर पण्डित जी कहते हैं कि "बादरायण अर्थात्‌ वेदव्यास" शूद्रों का वेदाध्ययन अधिकार मानते हैं जो जैमिनि के विरोध में है।

    यहॉं भयङ्कर भूल तो यह है कि यहॉं शूद्रों का प्रसङ्ग है ही नहीं। वेदान्त के ये सूत्र शूद्रों के प्रसङ्ग-प्रकरण के हैं ही नहीं। शूद्रों का प्रकरण-प्रसङ्ग तो दुर्जनतोषन्याय से वेदान्त के अगले सूत्र "शुगस्य तदनादरश्रवणात्‌ तदाद्रवणात्‌ सूच्यते हि" (1.3.34) सूत्र से प्रारम्भ होता है जो वेदान्त के 1.8.38 वें सूत्र तक चलता है।

    पं. सुदर्शनदेव जी को यह तो पता ही होना चाहिये कि सूत्रों में अनुवृत्ति अगले सूत्र से पिछले सूत्र में नहीं आती अपितु पिछले सूत्र से अगले सूत्र में जाती है। यहॉं शूद्र का प्रकरण वेदान्त के 1.3.34 (चौंतीसवें) सूत्र से प्रारम्भ होता है जबकि जैमिनि के मत को दिखलाने वाला सूत्र 1.3.31 (इकत्तीसवां) है जो शूद्र के प्रकरण वाले सूत्र से तीन सूत्र पहले है। कितनी भयङ्कर भ्रान्ति के शिकार हैं पं. सुदर्शनदेव जी।

    वस्तुत: जैमिनि के मत को और बादरायण के मत को दिखलाने वाले सूत्रों का प्रकरण मनुष्य और देवताओं का प्रकरण है जो वेदान्त के "हृद्यपेक्षया तु मनुष्याधिकारत्वात्‌" वेदान्त 1.3.25 से प्रारम्भ होता है जिसका अगला ही सूत्र है "तदुपर्यपि बादरायण: सम्भवात्‌" वेदान्त (1.3.26) इस प्रसंग में स्पष्ट ही "मनुष्याधिकारत्वात्‌" शब्द है और अगले सूत्र का "तदुपर्यपि" शब्द मनुष्यों से ऊपर देवों के सम्बन्ध में वही बात करता है। यह प्रसङ्ग "देवताधिकरण" प्रसङ्ग वेदान्त में कहलाता है जो 1.3.33 तक चलता है। इस प्रसङ्ग में कहीं भी शूद्र शब्द नहीं है तथा जैमिनि और बादरायण द्वारा इन सूत्रों में प्रकट किया गया मत शूद्र के वेदाध्ययन-अधिकार के सम्बन्ध में बिल्कुल नहीं हैअपितु मनुष्य और देवताओं के सम्बन्ध में है और वह मतभेद भी कोई सैद्धान्तिक मतभेद नहीं अपितु एक शास्त्रीय प्रक्रिया के सम्बन्ध में दो विकल्पों के सम्बन्ध में मतभेद नहीं अपितु  सुझावमात्र है। इसकी व्याख्या की यहॉं अपेक्षा नहीं है। यहॉं हम केवल यह दर्शाना चाहते हैं कि जैमिनि और बादरायण के सम्बन्ध में मतभेद प्रकट करने वाले जो सूत्र पं. सुदर्शनदेवजी ने उद्‌धृत किये हैंवे शूद्र सम्बन्धी प्रकरण के हैं ही नहीं। कहीं का शिर कहींऔर कहीं की टांग कहीं जोड़कर प्रकरण को सर्वथा काटकर शास्त्र पर मिथ्यारोप नहीं चलेगा। जैमिनि पर यह मिथ्या आरोप पण्डित जी के शास्त्र सम्बन्धी अज्ञान का सूचक है। इस प्रसङ्ग की अन्य विद्वानों की भी यदि ऐसी व्याख्या है तो वह भी भ्रान्त है।

    पुनश्र्च जैमिनिमुनि ने "ज्योतींषि" की व्याख्या के लिये उक्त मन्त्र उद्‌धृत भी नहीं किया और न जैमिनि ने कहीं भी "त्रीणि ज्योतींषि" मन्त्रांश की व्याख्या ब्राह्मणक्षत्रिय और वैश्य को ही तीन ज्योतियॉं बतलाया है। क्या श्री सुदर्शनदेव जी जैमिनि द्वारा की गई इस मन्त्रांश की व्याख्या दिखला सकते हैं कि "तीन ज्योतियों से अर्थात्‌ ब्राह्मणक्षत्रियवैश्य से संयुक्त रहता हैचतुर्थ शूद्र से नहीं?" इस मनमानी व्याख्या द्वारा श्री सुदर्शनदेव जी वेद पर भी यह आरोप लगा रहे हैं कि वेद शूद्र को ज्योति नहीं मानता। वेदमन्त्र में वर्णित तीन ज्योतियॉं कौनसी हैं इसकी व्याख्या का यहॉं प्रसंग नहीं हैक्योंकि यह मन्त्र जैमिनि ने उद्‌धृत नहीं किया है और न ही यह शूद्र के वेदाध्ययन अधिकार का प्रसङ्ग है। यहॉं उक्त प्रसङ्ग का इतना निष्कर्ष देना पर्याप्त है कि जैमिनि मानवमात्र के अधिकार के पक्ष में है। जबकि बादरायण मनुष्यों से ऊपर देवताओं की भी बात करते हैं। सूत्र में "अपि" शब्द से मनुष्य तो अभिप्रेत हैं ही।

    rishi dayanand

    अब रहा अगला प्रसङ्ग जो वेदान्त सूत्र 1.3.34 "शुगस्य तदनादरश्रवणात्‌ तदाद्रवणात्‌ सूच्यते हि" से प्रारम्भ होता है जिसे श्री सुदर्शनदेव जी ने उल्टवासी करके (उल्टीकला) पहले के प्रसङ्ग से भ्रान्तिवश जोड़कर जैमिनि ऋषि पर मिथ्यारोप मढ डाला है। वस्तुत: वेदान्तदर्शन की व्याख्या में जितनी खेंचतानी हुई है उतनी सम्भवत: और दर्शनों के साथ नहीं हुई। वेदान्त की भिन्न-भिन्न व्याख्या के आधार पर पांच प्रकार के भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय तो प्रसिद्ध हैं हीयथा अद्वैतवादशुद्ध अद्वैतवादविशिष्ट अद्वैतवादद्वैत-अद्वैतवाद आदि। इनमें शङ्कराचार्य अद्वैतवादी होते हुये भी यहॉं "शुगस्य" की व्याख्या शूद्र करके शूद्र का वेदाध्ययन अधिकार का प्रसङ्ग उठाते हैं जो वेदान्त सूत्र 1.3.38 तक चलता है और वेदान्त के रचयिता स्वयं वेदव्यास के नाम पर यह सिद्ध करते हैं कि शूद्रों को वेदाध्ययन अधिकार नहीं है । क्योंकि इस प्रसङ्ग में वेदव्यास के अतिरिक्त और किसी मुनि का नाम उल्लिखित नहीं है। अत: इस प्रसंग के सूत्र देवव्यास की ही मान्यता ज्ञापित करते हैं। शंकर आचार्य ने इस प्रसङ्ग के अन्तिम सूत्र श्रवणाध्ययनार्थप्रतिषेधात्‌ स्मृतेश्र्च (1.3.38) पर स्मृति का प्रमाण देते हुये लिखा कि श्रवणे त्रपुजतुभ्यां श्रोत्रपूर्णम्‌ और उच्चारणे जिह्वाच्छेद:। यदि शूद्र वेदमन्त्र सुन ले तो उसके कानों में त्रपु और जतु भर दो और यदि वह वेदमन्त्र उच्चारण करे तो उसकी जिह्वा काट लो। यह व्याख्या शंकराचार्य की है जो स्वयं वेदव्यास कोजो वेदान्त के रचयिता हैं इस कटघड़े में खड़ा करते हैं जैमिनि मुनि को नहीं। श्री सुदर्शनदेव जी पर भी लगता है शंकराचार्य का जादू चढ गयाकिन्तु आधा। इसीलिये उन्होंने वेदव्यास को नहीं जैमिनि मुनि के गले में फंदा फिट कर दिया।

    वस्तुत: यहॉं "शुगस्य" की व्याख्या शंकराचार्य आदि के आधार पर शूद्र करना और उसे वेदाध्ययन अधिकार से वेदव्यास के नाम पर भी वञ्चित रखना शास्त्र का अनर्थ है। इसीलिये स्वामी दयानन्द ने ये सभी भ्रान्त व्याख्याएं निरस्त करते हुये कहा कि व्यासमुनिकृत वेदान्त पर जैमिनिवात्स्यायन या बोधायन आदि मुनि की व्याख्या और जैमिनि मुनिकृत पूर्व मीमांसा पर व्यासमुनिकृत व्याख्या पढें। जैमिनि ने वेदान्त पर और व्यास ने पूर्वमीमांसा पर व्याख्यायें लिखी थीं जो सर्वथा प्रामाणिक थीं। इससे यह भी स्पष्ट है कि जैमिनि और व्यास में परस्पर कोई विरोध नहीं था और न है। व्यास ने जैमिनि को आदर देने के लिये अपने वेदान्तदर्शन में ग्यारह बार स्मरण किया है और इसी प्रकार जैमिनि ने आदरार्थ बादरायण को अपने पूर्व मीमांसा में स्मरण किया है। इन दोनों में कहीं भी सैद्धान्तिक विरोध मानना अपनी अज्ञानता प्रकट करना है। यदि यहॉं शूद्र का प्रकरण वेदव्यास शास्त्रकार को अभिप्रेत होता तो "शुक्‌" शब्द के स्थान पर स्पष्ट ही "शूद्र" शब्द का पाठ होता। इन सब सूत्रों की व्याख्या का यहॉं प्रसङ्ग नहीं है। यहॉं केवल हम यह दिखलाना चाहते हैं कि शङ्कराचार्य और उनके अन्धानुकरणकर्त्ता यहॉं जो शूद्र का प्रकरण समझकर "शुगस्य" आदि सूत्रों द्वारा स्वयं वेदव्यास पर भी शूद्र को वेदाधिकार से वञ्चित करने का आरोप लगाते हैंवे कितने भ्रान्त हैं। यदि दुर्जनतोषन्याय से इसे शूद्र का प्रकरण मान भी लें तो भी प्रकरणान्तर होने से जैमिनि पर तो यह आरोप बनता ही नहीं।  

    ऋषि दयानन्द ने यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य:ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च" आदि यजुर्वेद के मन्त्र के आधार पर जो शूद्रों को वेदाध्ययन अधिकार सिद्ध किया वह भी जैमिनि के पूर्व मीमांसा के नियमों के आधार पर व्याख्या करके किया। इस बात का पता सम्भवत: विद्वानों को नहीं है। जैमिनि का सूत्र चोदनालक्षणोऽर्थो धर्म: (1.1.2) यह नियम निर्धारित करता है कि वेदमन्त्रों में जो विधि वाक्य हैजो विधिलिड्‌ या लोट्‌ आदि प्रत्ययों के द्वारा विधान किया जाता है वह धर्म है। और उक्त मन्त्र में "आवदानि" शब्द में विधि है जो लोट्‌ द्वारा विहित है। अत: जैमिनि के इस नियम के अनुसार वेदाध्ययन सबका धर्म है चाहे वह कोई भी वर्ण हो। इसी जैमिनि के नियम के आधार पर स्वामी दयानन्द ने आर्यसमाज के तीसरे नियम में धर्म शब्द का प्रयोग किया- "वेद का पढना-पढाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।" यदि जैमिनि शूद्रों को वेदाध्ययन अधिकार से वञ्चित  करते तो स्वामी दयानन्द जैसा अदम्य व्यक्ति उसका अवश्य खण्डन करता। किन्तु स्वामी दयानन्द ने कहीं भी जैमिनि के विरोध में एक शब्द भी नहीं लिखा और न ही जैमिनि और वेदव्यास में कहीं सैद्धान्तिक विरोध बतलाया। अपितु वेद के उपाङ्ग माने जाने वाले इन छओं दर्शनों में परस्पर समन्वय बतलाया और इनमें विरोध मानने वालों का पुरजोर खण्डन किया। जैमिनि मनुष्यमात्र का वेदाध्ययन अधिकार मानते हैं। अपने पूर्व मीमांसा दर्शन में भी जैमिनि ने कहीं भी शूद्र का वेदाध्ययन अधिकार निषिद्ध नहीं किया। जैमिनि स्पष्ट रूप से मनुष्यमात्र के लिये कर्म और फलों का विधान करते हैं। वेदाध्ययन भी एक कर्म है और उसका भी कोई फल होता है। अत: वह भी मनुष्यमात्र के लिये हैउसमें शूद्र आदि का कोई भेद नहीं है। जैमिनि मुनि ही अपने सूत्रों के अनुसार वेदमन्त्र की व्याख्या करके वेदाध्ययन को सबका धर्म घोषित करते हैं।

    मेरा विद्वानों से नम्र निवेदन है कि शास्त्र की व्याख्या बड़ी सावधानी से करेंउसकी टीका की बजाय मूल को खोजें। इन्हीं भूलों से सभी आर्षशास्त्रों का मूल अभिप्राय नष्ट हो गयाइसी भूल से वेद का अनर्थ हुआ और इसी भूल से सावधान करते हुये ऋषि दयानन्द ने स्वत: प्रमाण और परत: प्रमाण की कसौटी दी जो वेद के अतिरिक्त वैदिक शास्त्रों पर भी लागू होती हैजिनमें ऋषियों के शुद्धपवित्रसरलवास्तविक और मानवमात्र का कल्याण करने वाले भाव छुपे हुये हैं। किसी ऋषि पर इतना गम्भीर निराधार आरोप लगाना बड़ा जघन्य अपराध हैब्रह्महत्या है। (सर्वहितकारी - 21 अप्रैल 2004) - डॉ. महावीर मीमांसक

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  • श्री और लक्ष्मी में अन्तर

    श्री को छोड़ हमारे प्यार जा पहुंचे लक्ष्मी के द्वारे

    श्री व लक्ष्मी इन दोनों शब्दों की गरिमा के अन्तर को स्पष्ट करने से पूर्व मॉं एवं जननी तथा प्रजा एवं जनता के अन्तर को ही समझ लेते हैं।

    माँ-माता निर्माता होती है। वह सन्तान को जन्म देने के साथ-साथ उसका ऐसा निर्माण करती है कि वह संसार में श्रेष्ठ कार्यों के द्वारा स्वयं का, माता का और धरती "माता" का  यश सारे विश्व में युग युगान्तर के लिए स्थापित कर देती है। इसके लिए माता कौशल्या, माता देवकी, माता यशोदा, माता जीजाबाई, माता अमृतावेन को त्याग-तपस्या करके मर्यादा पुरुषोत्तम राम, योगिराज कृष्ण, बलराम, छत्रपति शिवाजी, वेदोद्धारक दयानन्द को जन्म देकर तदनुरूप निर्माण भी करना पड़ता है। जहॉं तक जननी की बात है, वह सन्तान को मात्र जन्म देती है, किसी व्रत-संकल्प के आधार पर उसके निर्माण में उसकी कोई भूमिका नहीं होती है। खाना-पीना-सोना-जान बचाना तथा आगे-आगे सन्तान को जन्म देते जाना ही इनका जीवन चक्र होता है। पशु-पक्षी योनियों की जननी बड़ी संख्या में अपने बच्चों को जन्मती है। सर्पणी बड़ी संख्या में बच्चे देती है और उन्हें अपना आहार बनाने लगती है, जो उसके घेरे से बाहर आ जाते हैं, वही बच्चे बच पाते हैं। बिच्छू बच्चे जन्मते ही अपनी जननी को ही आहार बना लेते हैं। अब तो मानव-नारियॉं भी पशुओं की भॉंति कई-कई बच्चे जन्म देने लगी हैं। कस्बा अवागढ के नगला गलुआ निवासी नेत्रपाल की पत्नी सर्वेश ने एटा जनपदीय चिकित्सालय में पॉंच बच्चों को जन्म दिया। जननी सहित बच्चे ठीक ठाक हैं। यह बात अप्रैल 09 की है। अगस्त 2007 में लन्दन के प्रसूति ग्रह में अमण्डा इलेरलन ने 2 फीट लम्बे तथा 7.5 पाउण्ड भार के असामान्य बच्चे को जन्म दिया था। देखें अमर उजाला 12 अगस्त 2007।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    भारत की गुलामी का कारण कुत्ता मनोवृत्ति
    Ved Katha Pravachan _49 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    कौशल्या ने राम को जन्म दिया और उनका निर्माण भी किया। जन्म न देकर भी माता सुमित्रा एवं कैकेयी ने राम के आदर्श निर्माण मेंयशोदा ने जन्म न देते हुए भी बलराम-कृष्ण के अद्‌भुत निर्माण में अपने तपस्वी जीवन के प्रत्येक क्षण को न्योछावर किया। पाठकगण। जैसे माता एवं जननी में अन्तर है वैसे ही प्रजा और जनता में भी सूक्ष्म अन्तर है। केवल भूमि का भार बढाने के लिए नहींप्रत्युत्‌ व्रत-प्रकल्प एवं अभिलाषा से प्रकृष्ट रूप में जिसका जन्म होवह प्रजा है। काम न काज के दुश्मन ढाई मन अनाज के। भोगाकांक्षी जन्मते व मरते रहने वाले लोग जनता या जनसाधारण कहे जाते हैं। शिक्षक आचार्यराजा-रईससेठ-साहूकार ही उच्च प्रजा वर्ग में नहीं आते हैअपितु इनकी सेवा में रहने वाले परिवारों को भी मानपूर्वक प्रजा या परजा कहा जाता है। वे भी राष्ट्र-संचालकरक्षक-पोषक जनों की सेवा के द्वारा राष्ट्र-कल्याण-उत्थान में योगदान करके अपने जन्म को प्रकृष्ट रूप प्रदान करते हैं। परिवेश की पवित्रता में महत्तर (अति महत्त्वपूर्ण) सहयोगी मेहतरवस्त्रों की स्वच्छता में सहयोगी बरेहा (वरिष्ठ)शारीरिक स्वच्छता में सहायक नापितजल व्यवस्था में कहारपुष्प श़ृंगार में तथा पाकशाला के बर्तन व भोजन-निर्माण में एवं बच्चों के लालन-पालन में सहयोगी धाय इत्यादि प्रजावर्ग का भाग हर फसलोत्पादन व संस्कार के अवसर पर उन्हें अवश्य ही नियमित रूप से निरन्तर मिलता था। लेखक ने यह सब अपने बचपन में होते देखा है। वह धाय जिसने हम बच्चों को जन्मने में सहायता की थीजब घर में आती थींतो बच्चों को देखकर न केवल प्रसन्न होती थींगर्व भी करती थीं कि इन्हें मैंने जन्म दिया हैबलइयॉं लेतींशुभकामनायें देतीं और घर से भरपूर उपहार लेकर ही वापस लौटती थीं। अपनत्व के नाते का सुन्दर स्वरूप देखने को मिलता था। आज के प्रसूति गृहों में जन्मने वाले बच्चों का अभिलेख मोटी-मोटी पंजिकाओं में भले लिख जाता हैअपनत्व के हृदयों में उनका रेखांकन नहीं होने पाता। इस प्रकार प्रजा व जनता का अन्तर बतलाते हुए लेखक ने परिवार-समाज-राष्ट्र के लिए प्रजा के प्रखर रूप का यहॉं पर चित्रण किया है।

    जननी सन्तान के जन्म के साथ उसके संस्कार-जागरण के लिए तत्पर रहती है तो वह माता-निर्माता बन जाती है। राष्ट्र में उत्पन्न होने वाली जनता जब निज कर्त्तव्य पालन में जागरूक रहती है तो वही प्रजा का उत्कृष्ट रूप धारण करती है। पाठकगण ! अब तो आप "श्री" एवं "लक्ष्मी" के अन्तर को जानने के लिए अवश्य उत्सुक होंगेआइये इस अन्तर को पहले वेद माता से पूछते हैंफिर अपनी बात कहते हैं-

    श्रीणामुदारो धरूणो रयीणां
    मनीषाणां प्रापण: सोमगोपा।
    वसु: सुनु: सहसो अप्सु
    राजा विभात्यग्र उषसामिधान:।। ऋग्वेद 10.45.5।।

    अर्थात्‌ परमेश प्रभु श्री का स्वामी और दाता है। साधनापूर्वक कोई राजा व विद्वान भी श्री का अधिकारी बन जाता है। श्री वह ऐश्वर्य है जो आश्रितों की उन्नति करता है। वह अनेकश: धनों का धारण कराता है-

    गोधन गजधन वाजधन और रत्नधन खान,
    जब आये सन्तोष धनसब धन धूरि समान।

    जिससे उत्तम बुद्धि मिलती है तथा जो सौमनस्य पूर्वक वीर्य-पराक्रम का रक्षण करती है। यह ऐश्वर्य आश्रितों को उजाड़ता नहीं बसाता है। इसे धारणकर्ता स्वयं तो साहसी होता ही है, उसकी सेना भी बलायुध पूर्ण होती तथा आप सन्मार्ग पर चलती है और सभी को चलाती भी है। अपनी प्रजा के मध्य यह तेजस्वी राजा उसी प्रकार देदीप्यमान होता है, जैसे प्रभात वेला में सूर्य शोभायमान रहता है। यही मन्त्र यजुर्वेद अध्याय 12 मन्त्र संख्या 22 में आया है, जिसमें महर्षि दयानन्द सरस्वती ने श्रीणाम्‌ का अर्थ "सब उत्तम लक्ष्मियॉं" बताया है। संसार के श्रेष्ठतम कर्म यज्ञ के अवसर पर तीसरा आचमन करते समय हम बोलते हैं- ओ3म्‌ सत्यं यश: श्रीर्मयि: श्री: श्रयतां स्वाहा (तै.आ.प्र. 10.35) अर्थात्‌ हे सर्वरक्षक प्रभो ! सत्याचरण, यश-प्रतिष्ठा, विजयलक्ष्मी, शोभा हो, आत्म गौरव के साथ धन-ऐश्वर्य मुझमें स्थित हो, यह मैं सत्यनिष्ठापूर्वक प्रार्थना करता हूँ। हिन्दी शब्दकोश में श्री के अर्थ शोभा, कान्ति, सेवा, विजयलक्ष्मी, प्रतिष्ठा, गौरव, समृद्धि, सौभाग्य, श्रेष्ठता, कोमलता, मधुरता, सुन्दरता, ऐश्वर्य, सम्पत्ति, राज्य लक्ष्मी व शक्ति अंकित हैं, जो सभी "श्री" के सकारात्मक स्वरूप को प्रदर्शित करते हैं।

    शब्दकोश में तो "लक्ष्मी को भी "श्री" का पर्यायवाची कह दिया गया हैकिन्तु वेद-भगवती इससे सहमत नहीं हैं। आइए देखें इस तथ्य के रहस्य को। यहॉं पर अथर्ववेद (7.115,2 एवं 4) के दो मन्त्र प्रस्तुत हैं-

    या मा लक्ष्मी: पतयालूरजुष्टाभि चस्कन्द वन्दनेव वृक्षम्‌।
    अन्यत्रास्मत्‌ सवितस्तामितो धा: हिरण्यहस्तो वसुनो रराण:।

    प्रथम मन्त्र का मनन है कि असेवितासुकाम में न आने वाली व दुराचार में गिराने वाली जो लक्ष्मी मुझसे चिपटी हुई हैवह वैसी ही है जैसे वन्दना बेल वृक्ष पर चिपटकर उसे सुखा देती है। हे प्रेरक परमेश्वर! ऐसी लक्ष्मी को तू मुझ से पृथक कर देऔर हिरण्यहस्त- तेजस्वी चमकते कर्त्तव्यशील हाथ से तू हमें निरन्तर ऐश्वर्य प्रदान कर। दूसरा मन्त्र मनन से आगे कठोर निर्णय कुछ यों प्रस्तुत कर रहा है -

    एता एना व्याकरं खिले गा विष्ठिता इव।
    रमन्ती पुण्या लक्ष्मीया: पापीस्ता अनीनशम्‌।।

    अर्थात्‌ इन उन अपने जीवन में आने वाली सैकड़ों प्रकार की लक्ष्मियों का मैं विवेकपूर्वक पृथक्करण करता हूँजैसे व्रज में विविध प्रकार की आ बैठी गौओं का गोपाल पृथक्करण किया करता है। जो पुण्य लक्ष्मीअच्छी कमाई की सम्पदा हैवही मेरे यहॉं रमण करेजो पाप से कमाई है उसे मैं आज ही विनष्ट किये देता हूँ। इन मन्त्रों में बता दिया गया कि लक्ष्मी पुण्यशीला व पापलीला दोनों प्रकार की हो सकती है- अर्थात्‌ सकारात्मक व नकारात्मक। इनमें से जो सकारात्मक लक्ष्मी है वही "श्री" श्रेणी में आती है और श्री सदैव शाश्वत सकारात्मक ही रहती है। श्रम-स्वेदकी चाशनी में पक कर आने वाला लाभ ही शुद्ध स्वादिष्ट "श्री" की महत्ता प्रदान करता है।

    एक नमूना देखिये। पॉंच ग्राम लोहे को आकर्षक ढंग से गोलाकार ढालकर उसके एक ओर भारत वर्ष का मानचित्र व "सत्यमेव जयते" का तथा दूसरी ओर एक सौ रुपये का अंकन करके राष्ट्र-शासन ने एक मुद्रा प्रचलित कर दी। इस मुद्रा का विनिमय करके एक सौ रुपया या इतने मूल्य का कोई पदार्थ क्रय किया जा सकता है। यदि इसी मुद्रा के दोनों ओर के चित्रांकन व मूल्यांकन विनष्ट हो जाएंतो शेष बचा मात्र पॉंच ग्राम लोहाअब इसका मूल्य एक सौ रुपये के स्थान पर एक रुपया भी नहीं रह गया। यह हुआ अस्थिर लक्ष्मी का स्तर कभी तिल तो कभी ताड़। दूसरा नमूना यों देखिये। अंग्रेजों ने अपने शासनकाल में एक रुपये मूल्य की चॉंदी की मुद्रा चलायी थी। उनके भारत छोड़ने से बहुत पहले ही इसका प्रचलन बन्द हो गया था। पर सौ रुपये से कहीं अधिक मूल्यवत यह चॉंदी की मुद्रा किसी भी मान्य स्त्री-पुरुष को सम्मान स्वरूप रजत पदक के रूप में प्रदान की जाती है। अब की बनाई गई गणेश-लक्ष्मी की रजत प्रतीक की तुलना में इन पुरानी मुद्राओं की परिशुद्धता कहीं अधिक विश्वसनीय होती है। यह हुआ "श्री" का एक सुसंगत स्वरूप।

    एक कहावत है- भगवान भक्त के वश में होते हैं। उसी के अनुरूप लेखक भी पाठक के वश में होता है। पाठकगण ने शंका प्रकट की तो श्री एवं लक्ष्मी के अन्तर को स्पष्ट करने में ही प्रचुर समय चला गया। "श्री को छोड़ हमारे प्यारे जा पहुँचे लक्ष्मी के द्वारे" की यात्रा की झलक भी देते चलिये लेखक जी! ठीकतो लीजिये इसे भी सुन लीजिये। पहले तो ऐसी अवांछित घटनायें यदा-कदा होती थींअब तो सर्वत्र-सर्वदा ही होती दिखाई दे रही हैंइसलिए आपको समझने में देर नहीं लगेगी। पहले कल्पनाओं का सहारा लेकर बाल-युवा-प्रोढों को सावधान करने के लिए ऐसी कहानियॉं गढी जाती थीं। अब पश्चिम की हवा ऐसी बही कि हम अपना ही दामन बचाना भूल गयेयुवक हमारे अपसंस्कृति में झूल गये। बालक-बालिका माता-पिता की अतुल आकांक्षाओं के साथ जन्म लेते हैं। वे सुन्दर व आकर्षण से परिपूर्ण घर-परिवार-समाज-राष्ट्र के राजदुलारे अपने उत्तम कार्यों के द्वारा बन जाते हैं। किसी भी श्रेणी का विद्यालय होजब वे लेखन-भाषण-चित्रकारी-खेल में कोई पुरस्कार जीतकर घर आते हैं तो उनके मुख पर एक कान्ति उभर आती है और इसी कान्ति का प्रतिबिम्ब घरवालों के चेहरों पर हंसता-मुस्कराता दमकता दिखाई देता है। यही बच्चे जब ऊँचे से ऊँचे स्तर पर किसी भी क्षेत्र में कोई और उच्च पुरस्कार लेकर आते हैं तो न केवल अपने राष्ट्र मेंअपितु विश्व में उनकी यशोपताका फहराने लगती है। मानो कान्ति श्री की वर्षा चहुँ ओर से उन पर होने लगी हो। हार्दिक सम्मान स्वरूप लोग उनके नाम से मैत्री-संघ बनाते हैंउन पर अपना प्यार लुटाते हैंसमाज व राष्ट्र उनको बड़ी-बड़ी धन राशियों के पारितोषिक प्रदान करते हैं। वे कार-बंगला-सर्व सुविधा-अभिनन्दन से मालामाल होते जाते हैं। उत्पादक तथा व्यवसायी उनके मुख से अपने माल की प्रशंसा कराते हैं। माल चाहे जैसा हो उसकी खपत खूब होती है। व्यवसायीगण इस विज्ञापन का मूल्य करोड़ों की राशि में उस प्रिय पात्र को चुकाते हैं। कुछ तो हमारे प्यारे पात्र इन उपलब्धियों के बोझ से दबकर नम्र हो जाते हैं और कुछ "थोथा चना बाजे घना" के अनुरूप अहंकार में चूर होते जाते हैं। अति साधारण से असाधारण बने खेल जगत के हमारे प्यारे प्यारे दो खिलाड़ी युवक महेन्द्र सिंह एवं हरभजन सिंह हैं। इन्हें दुलार में लोग धोनी और भज्जी नेह नाम से पुकारते हैं। पद्म-अलंकरण वर्ष 2009 के लिए ये दोनों राष्ट्रपति भवन न पहुँचकर अपने व्यावसायिक विज्ञापन कार्यक्रम में ही लगे रहे। चर्चा किये जाने पर मुँहफट भज्जी ने कहा चलिये अगली बार हम दो दिन पहले राष्ट्रपति भवन पहुँच जायेंगे। जैसे यह सम्मान उनका आरक्षित उत्तराधिकार है। इनके प्रशंसकों ने इस राष्ट्रीय अवमानना के दुष्कृत्य के विरुद्ध गहनतम आक्रोश व्यक्त करते हुए मुजफ्फरपुर की अदालत में मुकदमा दायर कर दिया। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध प्राध्यापक पुष्पेश पन्त जी के द्वारा सर्वाधिक कठोर प्रतिक्रिया व्यक्त की गई । खेल के मैदान में कलाबाजी करतब दिखाने वाले करोड़पति नहींअरबपति कुबेर बन बैठते हैं और इसके साथ ही इतने मगरूर हो जाते हैं कि राष्ट्रीय सम्मान को कबूलने की फुर्सत अपनी धन कमाऊ दिनचर्या से निकाल पाना नाजायज और नामुमकिन समझने लगते हैं। इनकी कदाचारिता को न तो अनदेखा किया जा सकता है और न ही माफ किया जाना चाहिए।

    पद्म-अलंकरण की पात्रता कमल में निहित है। कमल कीचड़ में उगकर कीचड़ से ऊपर उठ जाता है और सूर्य के संस्कार से जुड़ जाता है। सूर्योदय पर खिलता सूर्यास्त पर मुद जाता है। ऐसी सूर्य-आभा से सज्जित व्यक्ति पद्म श्री अलंकरण के अधिकारी होते हैं। जो लक्ष्मी सम्मान को अपमान में बदल दे वह "श्री" नहीं हो सकती है। ई. श्रीधरन ने दिल्ली महानगर की यातायात व्यवस्था को मेट्रो द्वारा सुचारू कर दिया और हर व्यक्ति के हृदय में श्रीधरन का नाम अंकित हो गया। भारत राष्ट्र ने पद्म विभूषित कियाइससे तो इस सम्मान का ही मान बढ गया। अधिकतर लोग लक्ष्मी को कुलक्ष्मी बनाते हैं और कोई व्यक्ति ही लक्ष्मी को सुलक्ष्म- श्री बना पाता है। वही श्रीधरन अथवा श्रीपति-लक्ष्मीपति कहलाने का सुपात्र अधिकारी होता है। साफ्टवेयर कम्पनी इनफोसिस के मुख्य संरक्षक एन.आर. नारायणमूर्ति और उनकी पत्नी प्रेरक पद्म श्रेणी में आते हैंजिन्होंने अपनी सारी आय जनसेवा में लगाने के निर्णय से अपने जीवन को नई गरिमा दे दी है। वे कम्पनी के शेयरों से प्राप्त होने वाला सारा डिवीडेण्ड (लाभांश राशि) समाज के स्वास्थ्यशिक्षापोषण पर व्यय करेंगे। वे चाहते तो  कम्पनी के अध्यक्ष पद का त्याग न करते और प्रभूत लाभ-राशि के निवेश से और अधिक ऐश्वर्य का अर्जन करते रहते। लोकसभा के महानिर्वाचन में खड़े होने वाले प्रत्याशी अपनी सम्पत्ति को करोड़ों में घोषित तो करते  हैंपर वे उसे लक्ष्मी से बढकर "श्री" सम्मान की गौरव गरिमा प्रदान करते दिखाई नहीं दे रहे हैं। हमारे राष्ट्र नागरिक धनवान तो बनें पर श्रीमान भी बनेंयही कामना है।-पं. देवनारायण भारद्वाज

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    Mother - Mother is the creator. Along with giving birth to a child, she creates such a way that through the best works in the world, she establishes the fame of herself, mother and the earth "mother" for all the ages in the world. For this, Mata Kaushalya, Mata Devaki, Mata Yashoda, Mata Jijabai, Mata Amruthaven have to be sacrificed and give birth to Maryada Purushottam Rama, Yogiraj Krishna, Balaram, Chhatrapati Shivaji, Vedodharaka Dayanand and build accordingly.

     

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  • श्रीराम के सच्चे अनुयायी - केवल आर्य समाजी

    आर्य समाज के बारे में बहुत सी भ्रान्तियॉं पौराणिक पुरोहितों, पुजारियों एवं विद्वानों ने अपने स्वार्थ हित साधारण हिन्दू जनता में फैला रखी हैं। एक गलतफहमी यह भी प्रचलित है कि आर्यसमाजी तो श्रीराम और कृष्ण को मानते ही नहीं। वास्तविक स्थिति यह है कि भले ही वेदों की शिक्षानुसार हम इन महापुरुषों, युगपुरुषों को ईश्वर या ईश्वर का अवतार नहीं मानते, तथापि हम उनका अत्यन्त आदर करते हैं, उनको आर्यों का प्रतीक मानते हैं, उनके आदर्शों पर तथा उनके मार्ग पर चलने का प्रयास करते हैं, जबकि सनातनी (पौराणिक) बन्धु स्वयं उन युग पुरुषों के सन्देश का सम्भवत: सही अर्थ नहीं समझते। इन महापुरुषों को कई चमत्कारों, भ्रमजालों, विसंगतियों और सृष्टिक्रम विरुद्ध मान्यताओं से ओतप्रोत कर रखा है। यदि आज श्रीराम और श्रीकृष्ण स्वयं भी आ कर देखें, तो वे इन मनगढन्त, अव्यावहारिक एवं कपोलकल्पित कथाओं का अनुमोदन नहीं करेंगे, क्योंकि वे महान्‌ वैदिक धर्मी थे और ऐसी तिलिस्मी करामातों में विश्वास नहीं रखते थे।

    Ved Katha Pravachan - 94 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    श्रीराम के समय न गीता थी, न महाभारत लिखी गई थी, न अभी रामायण ही पूरी हूई और न एक भी पुराण था। पुराण ईसा की आठवीं से दसवीं शताब्दी के बीच लिखे गये, यह अन्वेषणों से सिद्ध किया जा चुका है। उनके लेखक ऋषि नहीं थे, उनका नाम श्रद्धालु जनता को भ्रमित करने के लिए लिखा जाता है । प्रश्न यह है कि श्रीराम कौन से धार्मिक ग्रन्थ पढते थे? वह वेद, उपवेद, दर्शन, उपनिषद्‌ ही पढते थे और आज इस वैदिक धरोहर का अध्ययन सनातनी भाई तो नहीं करते दिखाई देते एकाध को छोड़ कर। हॉं, आर्य समाजी अवश्य करते हैं। श्रीराम प्रतिदिन नियमपूर्वक सन्ध्या तथा हवन वेद मन्त्रों के उच्चारण से करते थे। आज उन्हीं वेद मन्त्रों से आर्य समाजी सन्ध्या और हवन अपने घरों/मन्दिरों में करते हैं, पौराणिक नहीं। वे तो आरती बोलते हैं और हवन में नौ ग्रहों की पूजा, गणेश पूजा आदि कराते हैं, जिनका वेदों में जिक्र तक नहीं है। जब आर्य समाजी उन्ही मन्त्रों और उन्हीं धार्मिक ग्रन्थों को आज भी पढते हैं, जिन्हें श्रीराम पढते थे, तो वे राम के सच्चे पथगामी हुए या नहीं? राम तो यज्ञ की रक्षा करने ऋषि विश्वामित्र के साथ वन में गये और मुनियों को अभय किया। सन्त शिरोमणि तुलसीदास रामचरितमानस में लिखते हैं:

    प्रात कहा मुनि सन रघुराईनिर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई।
    होम करन लागे मुनि झारीआपु रहे मख की रखवारी।।

    आज वही वैदिक यज्ञ आर्यसमाजी करते हैं, अत: वही राम के सच्चे अनुयायी हैं। 

    आर्य मन्दिरों में विवाह वैदिक विधि से होता है, परन्तु अपने आपको राम भक्त कहने वाले सनातनी आज ऐसा विवाह कराना पसन्द नहीं करते, जबकि आर्य समाजी करते हैं। बताइये! श्रीराम के पद चिन्हों पर चलने वाले आर्य समाजी हुए या सनातनी? सीता जी के कन्यादान का वर्णन रामचरित मानस में इन शब्दों में किया गया है-

    सुख मूल दूलहु देखि दम्पति पुलक तन हुलस्यो हियो।
    करि लोक वेद विधानु कन्यादानु नृपभूषण कियो।

    और

    क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावंरी।
    करि होमु विधिवत्‌ गांठि जोरी होन लागी भावंरी।।

    अर्थात्‌ रामजी का विवाह और फेरे हवन कुण्ड के चारों ओर हुए और सीता का कन्यादान वेद विधान से हुआ।

    श्रीराम की फैलाई चेतनता से लाखों वर्ष बाद भी विश्व में चेतनता है। उनके आदर्शों के लिए आर्य ही नहीं, समस्त संसार सदैव के लिए ऋणी रहेगा, क्योंकि उनके आदर्श, उनकी मर्यादाएं मानव मात्र पर लागू होती हैऔर उनसे किसी भी मनुष्य का विरोध हो ही नहीं सकता। परन्तु पौराणिकों की लीला तो देखिये कि उस जन जन को चेतनता प्रदान करने वाले महामानव को उनकी जड़ मूर्ति बना कर अपने मन्दिरों के छोटे से किसी कमरे मेंे बन्द कर रखा है और आगे से लोहे की ग्रिल लगा रखी है, मानो श्रीराम कोई कैदी हों। कहते यह हैं कि राम की कृपा से सब को खाने-पहनने को मिलता है, परन्तु राम को प्रतिदिन दो समय खाना खिलाने का नाटक करते हैं। अच्छा है नाश्ता नहीं करवाते, दूध फल आगे रखते हैं, मगर मुंह में नहीं डालते। यह दूसरी बात है कि राम कभी खाते नहीं। रामजी को स्नान करवाते हैं, वस्त्र बदलते हैं, आराम करवाते हैं, गहने पहनाते हैं। जब सबको देने वाले राम ही हैं, तो फिर यह दिखावा क्यों?

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    राम की महानता का कोई पारावार नहीं। उनके आदर्श, मान्यताएं, मर्यादाएं, विकट से विकट परिस्थितियों में भी सम रहने की क्षमता, उदारता, सहनशीलता एक अलग ही कोटि की हैं। उन जैसा माता-पिता का आज्ञाकारी, उन जैसा स्नेही भाई, उन जैसा प्रजापालक और धर्म रक्षक राजा, उन जैसा तपस्वी, त्यागी, धर्मात्मा आज तक कभी नहीं हुआ है। काश, कि पौराणिक हिन्दू जगत्‌ उनकी इस महानता को समझता।

    बेशक आर्य समाज मन्दिरों में राम की प्रतिमा का पूजन न होता हो, उनको भोग न लगाया जाता हो, किन्तु उनके प्रिय वेदों और आर्ष ग्रन्थों का पाठ अवश्य होता है । उनको प्रिय सन्ध्या और हवन रोज होते हैं तथा उनके आदर्शों पर चलने की शिक्षा अवश्य दी जाती है।  मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जयघोष अवश्य होता है। रामनवमी, विजयादशमी तथा दीपावली के पावन पर्वों पर राम के आदर्शों का गुणगान भी होता है। इस प्रकार आर्य समाज राम की सच्ची पूजा करता है, जैसे माता-पिता और गुरुओं की जाती है।  -विशम्भरनाथ अरोड़ा (आर्यजगत्‌ दिल्ली, 9 अप्रेल 2000)

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    Many misconceptions about Arya Samaj, mythological priests, priests and scholars have spread their selfish interests to the ordinary Hindu people. A misconception is also prevalent that Aryasamaji does not believe in Shriram and Krishna. If Sri Ram and Shri Krishna come and see themselves today, they will not approve these fabricated, impractical and fanciful stories, because they were great Vedic righteous and did not believe in such religious creations.

     

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  • सत्यान्वेषक समाज : आर्यसमाज

    सांस्कृतिक क्रान्ति- मानव चेतना संसार का वह सुन्दरतम वरदान है, जिसने पेट की क्षुधा पर विजय प्राप्त कर सत्य की ज्योति से संस्कृति का निर्माण किया है। मानव सौन्दर्य आत्मिक सौन्दर्य का नाम है, न कि शारीरिक सौन्दर्य का। यही कारण है कि सिन्धु और गंगा की फेनिल लहरों से वेदों की ऋचाओं का जो उद्‌घोष हुआ था, वह मानव की सांस्कृतिक क्रान्ति थी, जिसकी प्रतिध्वनि स्वामी दयानन्द की वाणी से मुखरित हो आर्यसमाज में गूंजी थी। वह नैतिकता और धर्म की अवहेलना करने वाले पश्चिम के भौतिकवाद तथा रूस के साम्यवाद से सर्वथा भिन्न आत्मा का स्वर था। यह भारतीय शरीर में यूरोपीय आत्मा डाल कर अवतारवाद, तीर्थ मन्दिर और मूर्तिपूजा से मुक्त होने का "ब्रह्मसमाजी" प्रयत्न भी नहीं था तथा न ही तत्कालीन सामाजिक कुरीतियों को दूर करने वाला रानाडे का "प्रार्थना समाज" जैसा दुर्बल प्रयत्न। आर्यसमाज एक सांस्कृतिक क्रान्ति है, एक आत्मिक चेतना है। डॉ. राधाकृष्णन का कथन है कि भौतिकता द्वारा मानवता की पराजय मानव का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। आर्यसमाज ने इस दुर्बलता को पहिचाना और उनके निराकरण का सांस्कृतिक प्रयत्न किया।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    यजुर्वेद मन्त्र 1.1 की व्याख्या

    Ved Katha Pravachan - 97 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    दलितोद्धार आर्यसमाज की पहल- पं. विनायकराव विद्यालंकार ने आर्य समाज को उस बैंक के समान कहा है,जिसने मानव निर्माण का कार्य किया है और जिससे निकली मानव पूंजी से सामाजिक व राजनीतिक संस्थाओं ने अपने कारखाने चलाए हैं। स्वामी श्रद्धानन्द और लाला लाजपतराय केवल आर्य समाज की निधि नहीं हैं,अपितु इतिहास के अमर सेनानियों में से हैं,जिन्होंने अपने चरित्र से कांगे्रस के इतिहास को उज्ज्वल किया है। हरिजन व दलितोद्धार कांग्रेस का स्वर नहीं है,अपितु आर्य समाज का स्वर है,जिसने सबसे पूर्व दलितोद्धार सभा बनाई जो स्वामी श्रद्धानन्द के कांग्रेस में पदार्पण के पश्चात्‌ आरम्भ हुआ। स्त्री शिक्षा के प्रसार का श्रेय पाश्चात्य सभ्यता को नहीं है,अपितु आर्य समाज को है,जिसने प्राचीन संस्कृति पर पड़ी "स्त्री शूद्रौ नाधीयताम्‌" की गर्द झाड़ कर मानवीय सन्देश सुनाया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि महात्मा गान्धी भारतीय धमनियों में प्रविष्ट अंग्रेजियत के विष से बेचैन थे,पर क्या यह सत्य नहीं कि उनसे वर्षों पूर्व गुजरात के ही एक महामना ने इस रोग को पहचान लिया था। आर्य समाज ने देश को आत्मिक दासता से मुक्त करने के लिए जगह-जगह गुरुकुल जैसी शिक्षण संस्थाएं चलाई। सत्य और अहिंसा का सहारा लेकर प्राचीन कुरीतियों और रूढिवादियों से मुक्त करने के लिए कहीं अधिक ज्वलन्त रूप में स्वामी दयानन्द की वाणी से आर्यसमाज इस क्षेत्र में उतरा। यह बात क्या किसी से छिपी हुई है कि ईसाइयत और इस्लाम के धार्मिक इतिहास का एक-एक पृष्ठ असहिष्णुता,घृणा और मानव रक्त से रंजित है। किसी ने तलवार की नोक से अपना कलाम लिखा और किसी ने अपने कलाम द्वारा मानव रक्त से अंजलि भरी है। आर्य समाज को छोड़ कर ऐसी कौन सी संस्था है,जिसने धर्म की वेदी पर सैकड़ों पुत्र चढा दिए हों,लेकिन जिसके हाथों पर मानव रक्त की एक बूंद भी न लगी हो।

    सबकी उन्नति- आर्य समाज की स्थापना का उद्देश्य किसी एक जाति या विचारधारा की उन्नति नहीं है। वेद किसी एक जाति की सम्पत्ति नहीं है, अपितु मनुष्य मात्र की सम्पत्ति है। मैक्समूलर के शब्दों में, प्राचीन वैदिक ज्ञान में मानव जाति की शिक्षा का सम्पूर्ण रहस्य निहित है। उन्होंने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में भाषण देते हुए ऋषियों के चरणों में श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा था- "जैसे हम ऐवरेस्ट की ऊंचाई को नाप कर हिमालय की ऊंचाई का अनुमान लगाते हैं, वैसे ही हमें भारत का अनुमान वैदिक गायकों के माध्यम से ही लगाना होगा, उपनिषदों के संत ही हमारा पथ प्रदर्शन करेंगे, वेदान्त और सांख्य दर्शनों के प्रचारक ही हमें भारत विषयक ज्ञान देंगे और प्राचीन स्मृतियों के प्रणेताओं के माध्यम से ही हमें तत्कालीन भारत का ज्ञान होगा।"

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    आर्यसमाज पृथक्‌ पन्थ नहीं- आर्यसमाज कोई एक पृथक्‌ पन्थ नहीं है, अपितु सत्यासत्य की खोज करने वाला समाज है। न्यायपूर्वक आचरण करना, सौन्दर्य से प्रेम करना और सत्य की भावना के साथ विनम्रता पूर्वक व्यवहार करना, यही सबसे ऊंचा धर्म है। इस कसौटी पर कसने पर स्वामी दयानन्द विश्व मानवता के नेता दीखते हैं। उन्होंने स्वयं लिखा है- "मैंने जो जो सब मतों में सत्य बाते हैं, वे-वे सबमें अविरूद्ध होने से उनको स्वीकार करके, जो-जो मत-मतान्तरों में मिथ्या बातें हैं, उन सबका खण्डन किया है।" इस प्रकार जिस वैदिक सत्यज्ञान पर आर्यसमाज की आधारशिला स्थापित की गई है, वह किसी विशेष सम्प्रदाय व धर्म या जनसमुदाय से सम्बन्धित नहीं है, अपितु सार्वभौम है। ऋग्वेद तो कहता ही यह है- सत्येनोत्तभिता भूमि:। इसीलिए आर्यसमाज के नियमों में एक नियम यह भी है- सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए। वैदिक साहित्य मानव की परिमार्जित रुचियों की सबसे सुन्दर अभिव्यंजना है। श्रीमती ऐनी बेसेण्ट ने अपने एक भाषण में कहा था-चालीस वर्षो के सुगम्भीर चिन्तन के बाद मैं यह कह रही हूँ कि विश्व के सभी धर्मों में हिन्दू धर्म से बढ कर पूर्ण वैज्ञानिक, दार्शनिक एवं आध्यात्मिकता से परिपूर्ण धर्म दूसरा नहीं है। उस हिन्दू धर्म पर पड़ी रूढिवादिताओं की राख को झाड़ कर आर्यसमाज ने मानव कल्याण का भव्य मार्ग प्रशस्त किया है।

    तर्क की कसौटी- आर्यसमाज की सबसे बड़ी देन यह है कि उसने तर्क की कसौटी से ईश्वर के सच्चिदानन्द रूप की प्रतिष्ठा की। ऐसा नहीं है कि इसके पूर्व समाज में ईश्वर के स्वरूप को स्थापित करने का प्रयत्न नहीं किया गया। कबीर, दादू, गुरु नानक आदि सन्तों की तीर्थाटन, मूर्तिपूजा, अवतारवार की प्रबल खण्डनात्मक वाणी के पीछे भावना तो एकेश्वरवाद की थी, लेकिन शास्त्रीय प्रामाणिकता तथा प्रबल तर्क के अभाव में उनका मण्डनात्मक पक्ष अति दुर्बल रहा। परिणामत: उनके सत्य के ज्ञान का दीपक टिमटिमाता ही रहा। उसमें सूर्य सा प्रखर तेज नहीं आ सका। पाखण्ड के महावन को जला कर राख करने की क्षमता उसमें नहीं थी। वह समाज को झकझोर नहीं सका।

    बौद्धों का कच्चा विद्रोह- वैदिक यज्ञों में कथित प्रचलित हिंसा तथा ब्राह्मणों के बाह्य कर्मकाण्ड को देखकर बौद्ध धर्म वेदों और ईश्वर की सत्ता को ही अस्वीकार कर बैठा। उसमें यह साहस नहीं था कि वह अपनी स्थापना को तर्क की कसौटी से स्थापित करता। स्वामी दयानन्द पलायनवादी व्यक्ति नहीं थे । अत: उन्होंने और उनकी संस्था ने सामाजिक कुरीतियों को तर्क के बाण से काटा। उन्होंने स्त्री शिक्षा, अस्पृश्यता निवारण, दलितोद्धार, अछूतोद्धार, विधवा विवाह, गोवध निषेध आदि की उपादेयता सामाजिक स्तर पर वेदों के आधार पर सिद्ध की। उन्होंने वर्तमान को वैदिक काल से तर्क की डोर से बान्ध दिया। मनु ने कहा है- यस्तर्केणानुसन्धते स धर्म वेद नेतर:। अर्थात्‌ जो व्यक्ति तर्क द्वारा खोज करता है, धर्म के स्वरूप को वही जान सकता है, अन्य नहीं। तर्क तो ऋषि है, जिसकी सहायता से आर्यसमाज आगे बढा है। जो तर्क को सुने ही नहीं, वह कट्‌टर है। जो तर्क करने का साहस ही न कर सके, वह गुलाम है।

    आर्यसमाज के सिद्धान्त स्थिर हैं- स्वामी विवेकानन्द उन संन्यासियों में से थे, जिनकी भारतीय संस्कृति के रंग में रंगी सशक्त वाणी ने देश के युवकों में नवरक्त का संचार किया और भारतीय आत्मा के सुप्त स्वाभिमान को जगाने का प्रयत्न किया। परन्तु वे भी आर्यसमाज जैसी संस्था नहीं दे पाए, जिसकी वाणी नगरों से खलिहानों तक, अमीर से गरीब तक, महलों से झोंपड़ियों तक पहुंचती। इन्हीं कारणों से हर्बर्ट रिस्ले ने "प्यूपिल ऑफ इण्डिया" में लिखा है कि आर्यसमाज के विस्तार का कारण यह है कि इसके सिद्धान्त स्थिर हैं।

    बाह्य कानून व नियम मनुष्य से काम तो करवा सकते हैं, लेकिन मनुष्य नहीं बना सकते, आत्मा का निर्माण नहीं कर सकते। देवता पद प्राप्त करना सरल है, पर मनुष्य बनना कठिन है। क्या मानव निर्माण स्त्री शिक्षा के बिना भी सम्भव है? महर्षि रमण के शब्दों में, पति के लिए चरित्र, सन्तान के लिए ममता, समाज के लिए शील, विश्व के लिए दया और जीवन मात्र के लिए अपने हृदय में करूणा संजो कर रखने वाले प्राणी का नाम ही नारी है। भारत के अध:पतन की कहानी उस दिन आरम्भ हो गई थी, जिस दिन हम भूल गए कि नारी मात्र स्त्री ही नहीं, वह मॉं भी है। आर्यसमाज ने शिक्षण संस्थाएं खोली! क्या आर्यसमाज को छोड़ कर उस काल में किसी संस्था को विचार आया कि जॉनसार बाबर जैसे पिछड़े प्रदेश में भी सरस्वती का प्रसाद बांटना चाहिए? उसमें मेघ और ओड़ जाति को अपने में मिलाकर उनकी शिक्षा का प्रबन्ध 1899 में उस समय आरम्भ कर दिया था जबकि अभी समाज ने शिक्षा के विषय में सोचना भी शुरू नहीं किया था। लेखक-डॉ. योगेश्वर देव

    Arya Samaj Matrimony Service- Contact for matrimonial services for all Hinducasts (Brahmin, Kshatriya, Vaishya, all Backward Classes and Scheduled Caste etc.),Jain,Bodh & Sikhs. Arya Samaj Matrimony Service, Arya Samaj Mandir, Divyayug Campus,90 bank colony, Annapurna Road,Indore (MP) 0731-2489383, Mob.: 9302101186, website- www.divyamarriage.com

     

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  • सत्यार्थप्रकाश की प्रासंगिकता

    ऋषि दयानन्द जिस समय सन्‌ 1860 में गुरु विरजानन्द जी के पास विद्याध्ययन के लिये पहुँचे, उस समय उनकी आयु 36 वर्ष की थी। 1863 में उन्होंने अपने गुरु से दीक्षा ली और उनके पास से अध्ययन समाप्त कर जीवन-क्षेत्र में उतर पड़े। इस समय वे 39-40 वर्ष के हो चुके थे। विरजानन्द जी के पास उन्होंने जो कुछ सीखा वही उनकी वास्तविक शिक्षा थी। क्योंकि इससे पहले वे जो कुछ पढ आये थे, उसे विरजानन्द जी ने भुला देने की उनसे प्रतिज्ञा ली थी। इस प्रकार ऋषि दयानन्द जी की यथार्थ शिक्षा 1960 से 1963 तक अर्थात्‌ कुल तीन वर्ष हुई थी। उन्होंने पीछे चलकर अपने जीवनकाल में जितने व्याख्यान दिये, जितने ग्रन्थ लिखे, जितने शास्त्रार्थ किये, वह इन तीन वर्षों के अध्ययन का ही परिणाम था। इसी से स्पष्ट होता है कि इन तीन सालों में उन्होंने जो पाया था वह कितना मूल्यवान था।

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    वेद सन्देश- विद्या एवं ज्ञान प्राप्ति के चार चरण
    Ved Katha Pravachan _35 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    अपने गुरु विरजानन्द जी से ऋषि दयानन्द ने जो गुर पाया था वह आर्ष तथा अनार्ष ग्रन्थों में भेद करना था। 36 वर्ष की आयु से पहले उन्होंने जो कुछ पढा था वह अनार्ष ग्रन्थों का अध्ययन था। आर्ष ग्रन्थों के अध्ययन ने उनके जीवन, उनके विचारों में जो क्रान्ति उत्पन्न कर दी उससे भारत के पिछले वर्षों का इतिहास बन गया।

    इस क्रान्ति का मूल स्रोत सत्यार्थ प्रकाश है। सत्यार्थप्रकाश 1874 में लिखा गया। मुरादाबाद के राजा जयकृष्णदास जी काशी में डिप्टी कलेक्टर थे तब ऋषि दयानन्द काशी पधारे। राजा जयकृष्ण दास ने ऋषि से कहा कि आपके उपदेशामृत से वे ही व्यक्ति लाभ उठा सकते हैं जो आपके व्याख्यान सुनते हैं। जिन्हें आपके व्याख्यान सुनने का अवसर नहीं मिलता उनके लिए अगर आप विचारों को ग्रन्थ रूप में लिख दें, तो जनता का बड़ा उपकार हो। ग्रन्थ के छपने का भार राजा जयकृष्णदास ने अपने ऊपर ले लिया। यह आश्चर्य की बात है कि यह बृहत्कार्य तथा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ, जिसे पं. गुरुदत्त विद्यार्थी ने 14 बार पढकर कहा कि हर बार के अध्ययन से उन्हें नया रत्न हाथ आता है, कुल साढे तीन महीनों में लिखा गया।

    केवल साढे तीन मास में- सत्यार्थप्रकाश का गहराई से अध्ययन करने पर पता चलता है कि इसमें 377 ग्रन्थों का हवाला है। इस ग्रन्थ में 1542 वेद-मन्त्रों या श्लोकों के उद्धरण दिये गये हैं। चारों वेद, सब ब्राह्मण ग्रन्थ, सब उपनिषद्‌, छहों दर्शन, अट्‌ठारह स्मृति, सब पुराण, सूत्रग्रन्थ, जैन-बौद्ध ग्रन्थ, बायबल, कुरान इन सबके उद्धरण ही नहीं, उनके रेफरेंस भी दिये गये हैं। किस ग्रन्थ में कौन-सा मन्त्र या श्लोक या वाक्य कहॉं है, उसकी संख्या क्या है यह सब कुछ इस साढे तीन महीनों में लिखे ग्रन्थ में मिलता है। आज का कोई रिसर्च स्कालर अगर किसी विश्वविद्यालय की संस्कृत की अप-टु-डेट लायब्रेरी में, जहॉं सब ग्रन्थ उपलब्ध हों, इतने रेफरेंस वाला कोई ग्रन्थ लिखना चाहे तो भी उसे सालों लग जायें, जिसे ऋषि दयानन्द ने साढे तीन महीनों में तैयार कर दिया था। साधारण ग्रन्थ की बात दूसरी है। सत्यार्थप्रकाश एक मौलिक विचारों का ग्रन्थ है। ऐसा ग्रन्थ जिसने समाज को एक सिरे से दूसरे सिरे तक हिला दिया। जिन ग्रन्थों ने संसार को झकझोरा है उनके निर्माण में सालों लगे हैं। कार्ल मार्क्स ने 34 वर्ष इंग्लैण्ड में बैठकर "कैपिटल" ग्रन्थ लिखा था जिसने विश्व में नवीन आर्थिक दृष्टिकोण को जन्म दिया।  मार्क्स के ग्रन्थ ने यूरोप का आर्थिक ढॉंचा हिला दिया तथा ऋषि दयानन्द के ग्रन्थ ने भारत का सांस्कृतिक तथा सामाजिक ढॉंचा हिला दिया।

    क्रान्तिकारी विचारों का खजाना- सत्यार्थप्रकाश चुने हुए क्रान्तिकारी विचारों का खजाना है। ऐसे विचारों का जिन्हें उस युग में कोई सोच भी नहीं सकता था। समाज की रचना जन्म के आधार पर नहीं होनी चाहिए, सत्यार्थ-प्रकाश का यही एक विचार इतना क्रान्तिकारी है कि इसके व्यवहार में आने से हमारी 60 प्रतिशत समस्याएँ हल हो जाती हैं। ऐसे संगठन में जन्म से न कोई ऊँचा, न कोई नीचा, जन्म से न कोई गरीब, न कोई अमीर, जो कुछ हो कर्म हो। ऐसी स्थिति में कौन-सी समस्या है जो इस सूत्र से हल नहीं हो जाती।

    शिक्षा क्षेत्र में गुरुकुल शिक्षा- प्रणाली का विचार सत्यार्थप्रकाश की ही देन है, जिसे पकड़ कर उत्तर भारत में जगह-जगह गुरुकुलों का जाल बिछ गया। आज भी हमारी शिक्षा-प्रणाली की जो छीछालेदार हो रही है, उसका इलाज गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली में ही निहित है।

    लोकमान्य तिलक ने कहा था-"स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।" दादा भाई नौरोजी ने भी "स्वराज्य" शब्द का प्रयोग किया था। इन सबसे पहले ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के 8वें समुल्लास में लिखा था-"कोई कितना ही कहे, परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है।" ऋषि दयानन्द के ये वाक्य उस जगत्‌-प्रसिद्ध अंग्रेजी वाक्य से जिसमें कहा गया था- “Good government is no substitute for self-government”  से इतने मिलते-जुलते हैं कि 1874 में अंग्रेजों के राज्य में कोई व्यक्ति यह लिखने का साहस कर सकता था, यह जानकर आश्चर्य होता है।

    आज जिन समस्याओं को लेकर हम उलझे हैं, हरिजनों की समस्या, स्त्रियों की समस्या, गरीबी की समस्या, शिक्षा की समस्या, राष्ट्र-भाषा की समस्या, चुनाव की समस्या, नियम तथा व्यवस्था की समस्या, गोरक्षा की समस्या आदि कौन सी समस्या है जिसका हल सत्यार्थप्रकाश में मौजूद नहीं है और कौन-सा ऐसा हल आज के राजनीतिज्ञों ने ढूँढ निकाला हे, जो सत्यार्थ प्रकाश में पहले से नहीं है।

    वेदों के नाम पर-हिन्दू-समाज की सबसे बड़ी समस्या वेदों की थी। यहॉं हर-कोई हर बात के लिए वेदों का नाम लेता था। स्त्रियों तथा शूद्रों को वेद पढने का अधिकार क्यों नहीं? क्योंकि वेदों में लिखा है- "स्त्री शूद्रौ नाधीयताम्‌।" बाल-विवाह क्यों नहीं होना चाहिए? क्योंकि वेदों में लिखा है- "अष्टवर्षा भवेत्‌ गौरी नववर्षा च रोहिणी। पिता चैव ज्येष्ठो भ्राता तथैव च, त्रयस्ते नरकं यान्ति दृष्टवा कन्यां रजस्वलाम्‌।" जन्म से वर्णव्यवस्था क्यों मानें? क्योंकि वेद में लिखा है- "ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्‌" - ब्राह्मण परमात्मा के मुख और शूद्र उसके पॉंव से उत्पन्न हुए हैं। जैसे मुख बाहु और बाहु मुख नहीं बन सकता, इसी प्रकार  ब्राह्मण शूद्र तथा शूद ब्राह्मण नहीं बन सकता। जब ऋषि दयानन्द ने यह देखा कि वेदों का नाम लेकर हर संस्कृत वाक्य को वेद कहा जा रहा है और वेदों का उद्धरण देकर वेद-मन्त्रों का अनर्थ किया जा रहा है, तब उन्होंने निश्चय कर लिया कि वेदों को ही केन्द्र बनाकर हिन्दू-समाज की रक्षा की जा सकती है और वह रक्षा तभी की जा सकती है, जब जन-साधारण की समझ में आ जाये कि वेदों में क्या कहा गया है।

    वैदिक वाड्‌मय के सम्बन्ध में ऋषि दयानन्द की खोज यह थी कि हर संस्कृत वाक्य तथा हर संस्कृत ग्रन्थ वेद नहीं है। ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिषद्‌, स्मृति, पुराण, सूत्र-ग्रन्थ ये सब वेद नहीं हैं। इन ग्रन्थों में जो कुछ लिखा है वह अगर वेद-विरुद्ध है तो वह त्याज्य है, जो वेदानुकूल है वही  स्वीकार करने योग्य है। ऋषि दयानन्द का हिन्दू-समाज को कहना यह था कि अगर वेद को तुम अपनी संस्कृति का आधार मानते हो, तो इस पैमाने को लेकर चलना होगा। तुम जो चाहो वह वेद नहीं है, वेद जो है वह मानना होगा। इस कसौटी पर कसने से हिन्दू-समाज की 60 प्रतिशत रुढियॉं अपने आप गिर जाती हैं। इस विचारधारा को प्रकट करने के लिए उन्होंने दो शब्दों का प्रयोग किया-आर्ष ग्रन्थ तथा अनार्ष ग्रन्थ। अब तक संस्कृत साहित्य में इस दृष्टि को किसी ने नहीं अपनाया था। संस्कृत के हर ग्रन्थ में जो कुछ लिखा मिलता था वह प्रामाणिक मान लिया जाता था। ऋषि दयानन्द ने इस विचार को ध्वस्त कर दिया।

    वेदों के शब्द रूढिज नहीं- वेदों के सम्बन्ध में ऋषि दयानन्द की दूसरी खोज यह थी कि वेदों के शब्द रूढिज नहीं, यौगिक हैं। यद्यपि यह विचार नया नहीं था, निरुक्तकार का भी यही कहना था। तो भी वेदों के सभी भाष्यकारों ने वैदिक शब्दों के रूढि अर्थ ही किये थे। सायण, उव्वट, महीधर तथा उनके पीछे चलते हुए पाश्चात्य विद्वानों मैक्समूलर, राथ, विल्सन, ग्रासमैन ने मक्खी पर मक्खी मार अनुवाद किया था। सायण आदि एक तरफ वेदों को ईश्वरीय ज्ञान मानते थे तो दूसरी तरफ उनमें इतिहास भी मानते थे, जो वेदों के ईश्वरीय ज्ञान होने के सिद्धान्त से टकराता था। इस बात की उन्हें कोई चिन्ता नहीं थी। असल में सायण का भाष्य किसी गम्भीर विद्वत्ता से नहीं किया गया था, वह एक विशिष्ट लक्ष्य को सामने रखकर किया गया था। दक्षिण के विजयनगर हिन्दू-राज्य के राजा हरिहर और बुक्का के वे मन्त्री थे। मुस्लिम संस्कृति राज्य में प्रतिष्ठित न हो जाये, इसलिए संस्कृत वाड्‌मय का प्रसार करना मात्र इस भाष्य का उद्देश्य था। यही कारण था कि सायण या महीधर के भाष्य गहराई तक नहीं गये और असंगत बातों के शिकार रहे। वह यज्ञों का समय था। इसलिए भाष्यकार समझते थे कि वेदों के अग्नि, वायु, इन्द्र आदि देवता सचमुच स्वर्ग से यज्ञों में पधारते हैं और दान-दक्षिणा आदि लेकर तथा यजमान को आशीर्वाद देकर स्वर्ग चले जाते हैं। पाश्चात्य विद्वानो को यह बात अपनी विचारधारा के अनुकूल पड़ती थी। उनका विचार विकासवाद पर आश्रित था। आदि में मानव जंगली था। जंगली आदमी सूर्य को, अग्नि को और वायु को देवता समझकर पूजे तो यह युक्तियुक्त प्रतीत होता है। पाश्चात्य विद्वान कहने लगे कि वैदिक ऋषि क्योंकि जंगली थे इसलिए अनेक देवताओं को पूजते थे। इस निष्कर्ष में सायण आदि के भाष्य उनके विचारों की पुष्टि करते थे।

    ऋषि दयानन्द ने इस विचार को भी ठोकर मार कर गिरा दिया। वेदों से ही उन्होंने सिद्ध किया कि अग्नि आदि नाम विभिन्न देवताओं के नहीं अपितु एक ही परमेश्वर के हैं।  ऋग्वेद में लिखा है-एकं सद्‌ विप्रा बहुधा वदन्ति अग्निं यमं मातरिश्वानमाहु। परमात्मा एक है, उसे अनेक नामों से स्मरण किया जाता है। इस एक मन्त्र से सारा का सारा विकासवाद कम-से-कम जहॉं तक वेदों का सम्बन्ध है, ढह जाता है।

    तीन प्रकार के अर्थ- ऋषि दयानन्द का कहना था कि वैदिक शब्दों के तीन प्रकार के अर्थ होते हैं- आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक। उदाहरणार्थ- इन्द्र का आधिभौतिक अर्थ अग्नि, विद्युत, सूर्य आदि है, आधिदैविक अर्थ राजा, सेनापति, अध्यापक आदि दैवीय गुणवाले व्यक्ति हैं, आध्यात्मिक अर्थ जीवात्मा, परमात्मा आदि हैं। इसी प्रकार अन्य शब्दों के विषय में कहा जा सकता है। इस कसौटी को सामने रखकर अगर वेदों को समझा जाये, तो न उनमें इतिहास मिलता है, न बहुदेवतावाद मिलता है, न जंगलीपन मिलता है, न विकासवाद मिलता है।

    वेदों के जितने भाष्यकार हुए हैं, इस देश के तथा विदेशों के उनमें सबसे ऊँचा स्थान ऋषि दयानन्द का है। अगर वेदों को किसी ने समझा तो ऋषि दयानन्द ने। अरविन्द घोष ने लिखा है-

     “In the matter of Vedic interpretation Dayanand will be honoured as the first discoverer of the right clues. Amidst the chaos and obscurity of old ingnorance and agelong misunderstanding, his was the eye of direct vision, that pierced the truth and fastened on that which was essential.”

    इस प्रकार इस युग के महायोगी श्री अरविन्द का कहना है कि जहॉं तक वेदों का प्रश्न है, दयानन्द सबसे पहला व्यक्ति था जिसने वेदों के अर्थों को समझने की असली कुञ्जी खोज निकाली। वेदों का अर्थ समक्षने के लिए सदियों से जिस अन्धकार में हम रास्ता टटोल रहे थे उसमें दयानन्द की दृष्टि ही इस अन्धकार को भेदकर यथार्थ सत्य पर जा पहुँचती थी।

    उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में अनेक समाज सुधारक हुए। ऋषि दयानन्द, राजा राममोहनराय, केशवचन्द्र सेन इसी युग की उपज थे। वे सब एक तरफ हिन्दू-समाज के पिछड़ेपन को देख रहे थे, दूसरी तरफ पश्चिमी देशों की प्रगतिशीलता को देख रहे थे। यह सब देखकर वे हिन्दू-समाज को रूढियों की दासता से मुक्त करना चाहते थे। ऋषि दयानन्द तथा दूसरों की विचारधारा में भेद यह था कि जहॉं दूसरे हिन्दू-धर्म, हिन्दू-संस्कृति तथा हिन्दुत्व को समाप्त करने पर तुल गये, वहॉं ऋषि दयानन्द ने हिन्दुओं को हिन्दु रखते हुए उन्हें नवीनता के नये रंग में रंग दिया। कोई वृक्ष जड़ के बिना नहीं खड़ा रह सकता है। जड़ कट जाये, तो वृक्ष गिर जाता है। जड़ को मजबूत बनाकर जो वृक्ष उठता है, वही टिका रहता है।

    कोई समाज अपने भूत के बिना नहीं जी सकता। भूत में पैर जमाकर भविष्य की तरफ बढना, पीछे भी देखना, आगे भी देखना यही किसी समाज के जीवन का गुर है। ऋषि दयानन्द ने इसी गुर को पकड़ा था। पीछे वेदों की ओर देखो, उसमें जमकर आगे भविष्य की ओर पग बढाओ। भूत को छोड़ दोगे तो वृक्ष की जड़ कट जाएगी। भविष्य की अनदेखी कर उठ नहीं सकोगे। यही सत्यार्थ प्रकाश का सन्देश है। - डॉ. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार 

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    The trick that Rishi Dayanand got from his Guru Virjanandji was to distinguish between joy and non-scripture. What he had read before the age of 36 was the study of non-human texts. The history of the last years of India became a history due to the revolution that arose in his life, his thoughts, by the study of the Aasha texts.

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  • सदाचार की महत्ता

    आचरण की उज्ज्वलता को ही "सदाचार' (सच्चरित्रता) कहते हैं। इस आचरण का ज्ञान हमारे व्यावहारिक जीवन से ही होने लगता है। भारतीय मनीषी महर्षि मनु ने मनुस्मृति में लिखा है कि-

    धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः।
    धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।।

    अर्थात्‌ धर्म के दस लक्षण हैं- (1) धीरज (2) क्षमा (3) मन-नियन्त्रण (4) चोरी न करना (5) पवित्रता (6) इन्द्रिय-संयम (7) बुद्धि (8) विद्या (9) सत्य तथा (1) अक्रोध।

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    भारत में जन्म होना सौभाग्य का विषय

    Ved Katha Pravachan _54 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    जिस व्यक्ति में ये विशेषताएँ होंगी, उसे ही सच्चे अर्थों में "सदाचारी' (या सुजन) माना जाता है। इस प्रकार सज्जनता "सच्चिरित्रता' का ही पर्याय है। जिस व्यक्ति में ये गुण नहीं होते, उसे चरित्रहीन तथा नीच कहा जाता है। चरित्रहीन का समाज में कोई स्थान नहीं होता। "सदाचार' ही किसी व्यक्ति को आदर, यश तथा सुख प्रदान करने वाली एकमात्र "कुंजी' है। भोगवादी कभी भी भारतीय संस्कृति को नहीं समझ सकता। विचारक श्री प्रेमस्वरूप गुप्त ने माना है कि- "हर व्यक्ति का अलग-अलग गुण, स्वभाव और सोचने का ढंग होता है। इसे ही उसका चरित्र कहते हैं।'' किसी व्यक्ति का चिन्तन उसकी सच्चरित्रता (या चरित्रहीनता) का परिचय देता है। 

    आज भारत समस्या-प्रधान देश है। आज हमारे देश में भाग्यवादियों एवं कर्महीनों की अधिकता है। मानसिक अपंगता किसी भी व्यक्ति को समस्या-प्रधान बना देती है। समस्या-प्रधान अपने जीवन में आगे नहीं बढ़ पाता। वह अपना विकास नहीं कर सकता। आज हमारे देश में नाना राष्ट्रीय (सामाजिक) समस्याएं पैदा कर दी गयी हैं। जैसे- जातिवाद, नारी-शोषण (भोगवाद), पुत्र की अभिलाषा (कोरा अन्धविश्वास), दहेज-प्रथा, मद्यपान, भ्रष्टाचार, अशिक्षा, गरीबी, जनसंख्या-विस्फोट तथा भक्ति सम्बम्धी अन्धविश्वास आदि। जो व्यक्ति भारत की राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान नहीं दे सकते, वे "सदाचारी' नहीं हैं। जो व्यक्ति "राष्ट्र की अस्मिता' से खेल रहे हैं तथा नाना समस्याएँ पैदा कर रहे हैं, वे "देशद्रोही' (चरित्रहीन एवं संस्कारविहीन) माने जायेंगे। इस सन्दर्भ में भारत के पूर्व महामहिम राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा की यह मान्यता निरापद है कि- "ओछे चरित्र के लोग महान्‌ राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते।'' 

    आज भारत में राष्ट्रीय चरित्र के संकट की समस्या पैदा हो चुकी है। राष्ट्र के हर व्यक्ति का चरित्र राष्ट्रीय चरित्र का मूलाधार है। हर व्यक्ति को अपने आपको "सदाचारी' बनाना चाहिए। सदाचारी का प्रभाव उसके सम्पर्क में आने वाले लोगों पर ही नहीं, वरन्‌ समाज के बहुत बड़े भाग पर पड़ता है और उससे नैतिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय उत्थान सम्भव होता है। ऐसे सदाचारी पर कोई भी जाति या राष्ट्र गर्व के साथ अपना मस्तक ऊँचा कर सकता है। 

    आज शिक्षार्थियों को संस्कारवान बनाने की परम आवश्यकता है। संस्कार युक्त शिक्षा ही जीवन है। शिक्षार्थियों को ऐसी शिक्षा मिलनी चाहिए, जिसमें जीवन मूल्यों का समावेश हो। ये भारतीय जीवन मूल्य हैं- (1) सत्य (2) अहिंसा (3) समता (4) संयम (5) कर्मशीलता (6) अनुशासन (7) संयम (8) सदाचार (9) सहनशीलता (10) विनयशीलता (11) सादगी (12) ईमानदारी (13) धीरज तथा (14) सन्तोष। 

    आज जीवन के हर क्षेत्र में नैतिक शिक्षा की परम आवश्यकता है। नैतिकता से हमारा अभिप्राय है- मानवीय मूल्यों का सम्मान। नैतिक शिक्षा के बिना व्यक्ति अपना मानसिक विकास नहीं कर सकता, यह अटल सत्य है। गांधी जी की यह मान्यता निरापद है कि "सदाचार और निर्मल जीवन सच्ची शिक्षा के आधार हैं।'' भारतीय मनीषी आचार्य चाणक्य ने सदाचार की वकालत करते हुए यह सही लिखा है कि- शीलं भूषयते कुलम्‌।

    इसका अभिप्राय यह है कि सदाचार कुल का अलंकरण है। जिस कुल के सदस्य सदाचारी होते हैं, वह कुल समाज में सुशोभित होता है और जिस कुल के सदस्य सदाचारी नहीं होते (संस्कार विहीन होते हैं), वह कुल समाज में कलंकित होता है। आइए! हम सब भारतीय मनीषी भर्तृहरि की इस मान्यता को "आचरण का विषय' बनाएं- शीलं परं भूषणम्‌। - डॉ. महेशचन्द्र शर्मा, साहिबाबाद

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    Today the problem of national character crisis has arisen in India. The character of every person of the nation is the foundation of the national character. Every person should make himself "virtuous". Ethics has an impact not only on the people who come in contact with them, but on a large part of society and it is possible for moral, social and national upliftment. Caste or nation can raise their head with pride.

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  • सफलता चाहते हैं तो एक लक्ष्य का पीछा करें

    किसी ने खूब कहा है- लक्ष्यरहित जीवन मल्लाहरहित नाव जैसा है। एक लक्ष्य चुनें और उसकी प्राप्ति में जुट जाएँ। ईश्वर-प्रदत्त अमूल्य जीवन को लक्ष्यविहीन रहकर पशुओं की तरह बरबाद कर देना कहॉं की बुद्धिमानी है? जीवन में प्रगति के लिए सबसे पहले एक सुनिश्चित लक्ष्य निर्धारित करना जरूरी है। यदि कोई लक्ष्य नहीं रखा जाता है, तो जीवन का प्रयोजन ही खत्म हो जाता है। जिसने लम्बे समय तक लक्ष्य-प्राप्ति का प्रयत्न किया, वही व्यक्ति अच्छा जीवन जी सकता है।

    Ved Katha Pravachan -12 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    लक्ष्य को चुनते समय एक बात का ख्याल रखें कि यह आपने सोच-समझकर चुना होन कि किसी को देखकर। यदि आपने सोच-समझकर लक्ष्य चुन लिया और लक्ष्यों की मृगतृष्णा में नहीं भटकेतो समझिए आपने आधा कार्य पूरा कर लिया। गाड़ी के लिए सिर्फ गति प्राप्त करना ही कठिन होता है। एक बार गति पकड़ लेने के पश्चात्‌ रास्ता तय करने में कोई खास परेशानी नहीं होती। परन्तु कभी-कभी ऐसा होता है कि अपने बहुमूल्य समय का उपयोग हम व्यर्थ की योजनाएँ बनाने में करने लगते हैं और अनेक लक्ष्य निर्धारित कर लेते हैं। जब हम अनेक लक्ष्य निर्धारित कर लेते हैंतो हमारी हालत उस हिरण के समान हो जाती हैजिसे तपते में भी चारों ओर सरोवर ही दिखाई देता है। अतः एक लक्ष्य सफलता की सीढ़ी है। प्रत्येक युवक को चाहिए कि वह अपने लक्ष्य के अनुरूप वातावरण का निर्माण करे। अच्छे वातावरण में रहना और बुरे वातावरण से बचना सफलता की एक बड़ी आवश्यकता है।

    वातावरण की प्रबलता को मानवीय विवेक और मनोबल से बदला जा सकता है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैंजिनमें कई बार असफल होने वाले लोगों ने लगन तथा सतत पुरुषार्थ के बल पर अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया। पं. मदनमोहन मालवीय ने कहा था कि एक बार लक्ष्य निर्धारित करने पर सफलता अवश्य मिल जाती है। अगर आपका लक्ष्य एक है और उसकी प्राप्ति हेतु की जाने वाली अन्य भी परीक्षाओं में काम आ सकती हैतो विकल्प के रूप में एक जैसी अनेक परीक्षाओं में सफल हुआ जा सकता है। हॉंलक्ष्य के विपरीत मनोभावों की चंचलता के शिकार होकर यदि आप अन्धाधुन्ध या आनन-फानन में परीक्षाओं में बैठेंगेतो नतीजे सकारात्मक आने के अवसर शून्य के बराबर होंगे।

    एक लक्ष्य का निर्धारण ही सफलता तक ले जा सकता है। उदाहरणार्थएक ही स्टेशन से अनेक दिशाओं में गाड़ियॉं जाती हैं। स्टेशन पर उनकी पटरियॉं पास-पास ही होती हैं। किन्तु कुछ ही आगे कई मोड़ आ जाते हैंजो रेलगाड़ियों की दिशाओं को बदल देते हैं। रेलगाड़ियों के गन्तव्य में सैकड़ों किलोमीटर का फासला हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति स्टेशन पर खड़ी रेलगाड़ियों में से बिना अपने गन्तव्य स्थान को ध्यान में रखे किसी भी डिब्बे में बैठेतो वह कहीं भी पहुँच जाएगा। लेकिन यदि वह निश्चित गाड़ी में बैठेगातो निश्चित स्थान पर ही पहुँचेगा। विश्व इतिहास यह बताता है कि कोई भी दुर्भाग्य एक इच्छित लक्ष्य वाले युवकों को सफलता से नहीं रोक सकता। अनेक लक्ष्य उन कामनाओं की तरह होते हैंजो उबलते दूध की तरह खाली बरतन को भी भरा दिखाते हैंकिन्तु उबलता हुआ दूध कुछ समय पश्चात्‌ बैठ जाता है। इसके विपरीत एक लक्ष्य उस बाण की तरह होता हैजो निशाने पर पहुँचकर ही दम लेता है। कार्य कठिन लगे या उसके लिए अधिक परिश्रम करना पड़े तो निराश न हों।

    लक्ष्य तक पहुँचने में आने वाली कठिनाइयों का पूर्ण मनोबल से सामना करें। जो व्यक्ति स्वयं को नकारते हैंवे अपनी असफलता को बुलावा देते हैं। कारणवश असफलता मिल जाएतो भी उत्साह व साहस से इच्छित लक्ष्य की प्राप्ति हेतु संघर्षरत रहें। - कारूलाल जमड़ा

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    Somebody has said a lot - aimless life is like a boat without a boat. Choose a goal and start achieving it. Where is the wisdom of destroying God-given priceless lives like animals without aiming? In order to progress in life it is necessary to first set a definite goal. If no goal is set, then the purpose of life ends. The person who tried to achieve the goal for a long time can live a good life.

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  • समय के प्रवाह को बदलने वाले

    लोग कहते हैं कि बदलता है जमाना अक्सर।
    मर्द वो हैं जो जमाने को बदल देते हैं।

    समय के प्रवाह के साथ प्रायः सभी वह जाते हैं। कोई विरला ही ऐसा महामानव होता है, जो समय के प्रवाह को बदलने में समर्थ होता है। ऐसे महामानव इतिहास में अपना नाम अमर कर जाते हैं। "श्रीयुत स्वामी श्रद्धानन्द जी उन महामना मनुष्यधुरीणों में से थे, जो समय की उपज नहीं होते, अपितु समय को बनाया करते हैं। साधारणतया नेता लोकरुचि का प्रवाह देखकर उसमें वेग या प्रचण्डता पैदा करके ख्याति प्राप्त किया करते हैं। श्रद्धानन्द इसका अपवाद हैं।'' ये वाक्य एक अन्य संन्यासी स्वामी वेदानन्द जी तीर्थ के हैं, जो अक्षरशः सत्य हैं। अपने कथन की पुष्टि में श्री स्वामी वेदानन्द जी तीर्थ गुरुकुल स्थापना का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि- "जिस समय महात्मा मुन्शीराम जी ने इसकी स्थापना का संकल्प किया, उस समय लोगों में इसके लिए कोई अनुकूल भावना न थी, कदाचित्‌ प्रतिकूल भावना भी जागृत न थी। श्रद्धानन्द जी को सत्यार्थप्रकाश से गुरुकुल शिक्षा प्रणाली का एक भाव मिला। उसको उन्होंने समय प्रवाह की परवाह न करते हुए मूर्तरूप दे ही डाला। यह  है उनकी निर्माण कुशलता और इसी कारण वे असाधारण महापुरुष की पंक्ति में समादृत हुए हैं और आचन्द्रदिवाकर होते रहेंगे।'' 

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए-
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    जीवन के बाधक दुरितों के निवारण से सुख

    Ved Katha Pravachan _74 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    प्रवाह के विरुद्ध - उस समय गुरुकुल शिक्षा प्रणाली की विचारधारा को क्रियान्वित करना कोई बच्चों का खेल नहीं था। नई कालेजी शिक्षा के बढ़ते काल में प्राचीन गुरुकुल शिक्षापद्धति को प्रचलित करना स्वयं में एक समस्या थी। लोगों के मन में प्रायः यह शंका उठा करती थी कि केवल संस्कृत पढ़ा व्यक्ति अपनी आजीविका कैसे अर्जित कर पायेगा? कोई कहता था कि माता-पिता के बिना बच्चे गुरुकुल में कैसे रह पायेंगे? फिर उसके लिए धन जुटना कोई सरल बात नहीं थी। इस सम्बन्ध में पं. इन्द्र विद्यावचस्पति लिखते हैं कि- "आज तीस हजार रुपये इकट्‌ठा करना बच्चों का खेल मालूम होता है। परन्तु तब गुरुकुल के लिये तीस रुपये भी एकत्र करना असम्भव सा प्रतीत होता था। जब हितैषियों ने पिता जी की बात सुनी तो यह समझा कि इस व्यक्ति का दिमाग फिर गया है। लोग यह भी नहीं जानते थे कि "गुरुकुल' किस चिड़िया का नाम है?'' 

    आर्यसमाज लाहौर के वाषिकोत्सव पर आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब का भी अधिवेशन चल रहा था। उसमें गुरुकुल स्थापना का विषय उपस्थित हुआ। पक्ष-विपक्ष में अनेक वक्ता बोल चुके। किन्तु विवाद था कि समाप्त होने में ही न आ रहा था। इतने में एक सदस्य खोल उठा- "अच्छा प्रधान जी! अब आपकी भी सुननी चाहिए। प्रधान थे श्री स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज। वे अपने आसन से उठे और अति गम्भीर भाव से चारों ओर दृष्टि डालकर ब्रह्मचर्याश्रमपूर्वक गुरुकुल शिक्षा-पद्धति पर प्रकाश डालने लगे। इतने में जनता में से एक धीमी सी आवाज फिर उठी कि- "धन कहॉं से आयेगा?'' बस फिर क्या था, प्रधान जी गरज उठे- '"मुन्शीराम जब तक तीस हजार न जमा कर लेगा, घर में घुसना उसके लिये हराम होगा।'' बस इस घोषणा के साथ समय ने नया मोड़ लिया और यह विवाद कि गुरुकुल खोला जाये या नहीं समाप्त हो गया। फिर भी लोगों के मन में यह शंका बनी रही कि यह वकील साहब इतना धन कैसा इकट्‌ठा कर पायेंगे?

    इस सम्बन्ध में पं. सत्यदेव विद्यालंकार का कथन है कि तीस हजार रुपया इकट्‌ठा करना उस समय मामूली बात न थी। पर वह था धुन का पक्का। उसे यह सवाल हल करना ही था कि "कौमें पागलों के पीछे होती हैं।'' और वस्तुतः गुरुकुल-शिक्षा प्रणाली के लिए पागल उस महामानव ने यह कार्य कर दिखाया। गुरुकुल की स्थापना हुई। अब प्रश्न था कि बच्चे कहॉं से आयेंगे। तब उस दीवाने ने सबसे पहले अपने बच्चे इस कार्य के लिए समर्पित किये और शिक्षक के रूप में भी स्वयं को प्रस्तुत कर दिया। इस प्रकार जो विचार एक स्वप्न सा दिखाई देता था, वह साकार हो उठा और समय मुंह ताकता रह गया। 

    चुनौती का सामना - स्वामी जी के जीवन में एक अवसर और आया, जब उन्होंने समय की चुनौती को स्वीकारा और उसे पराजित करके रख दिया। जलियांवाला बाग में जनरल डायर द्वारा भयंकर नरसंहार के बाद अमृतसर में कांग्रेस का अधिवेशन होना था, जिसकी अध्यक्षता मोतीलाल नेहरू को करनी थी। परन्तु इस भयंकर नरसंहार के बाद अमृतसर की जनता इतनी भयभीत थी कि कोई कांग्रेस का नाम तक लेने को तैयार न था। परिणाम यह हुआ कि स्वागताध्यक्ष बनने को कोई तैयार न हुआ। अन्त में सबकी नजर स्वामी श्रद्धानन्द पर गई और स्वामी जी ने समय की इस चुनौती को स्वीकार कर लिया। 

    एक बड़े से सूखे तालाब के बीचों-बीच गहरे स्थान पर ऊंचा सा मञ्च बनाया गया। चारों ओर दर्शक-दीर्घाएं बनाई गई। एक ओर प्रेस-प्रतिनिधियों के लिए स्थान निर्धारित किया गया । इस प्रकार एक बहुत बड़ा पण्डाल बनकर तैयार हो गया। प्रतिनिधियों और स्वयंसेवकों के निवास के लिए छोलदारियां और तम्बू लगाये गये। अधिवेशन में दो-तीन दिन ही शेष थे कि एक दिन भयंकर तूफान के साथ मूसलाधार वर्षा और आन्धी आ गई, जिससे सारा पण्डाल ध्वस्त हो गया और अधिवेशन स्थल पानी से भर गया। अब और पण्डाल बनाने के लिये न तो समय था और न ही स्थान। ऐसी विषम परिस्थिति में कांग्रेस के अधिकारियों ने यही उचित समझा कि इस वर्ष का अधिवेशन स्थगित कर दिया जाये। 

    पर आपदाओं के साथ टक्कर लेने में अभ्यस्त स्वामी जी इसके लिये तैयार न हुए। उन्होंने घोषणा कर दी कि कांग्रेस का अधिवेशन अवश्य होगा और पूर्व-निर्धारित तिथियों में ही होगा। सभी आश्चर्यचकित थे कि यह कैसा व्यक्ति है, जो परिस्थितियों के आगे झुकना जानता ही नहीं और हर असम्भव बात को सम्भव कर दिखाना बड़ा सहज समझता है। स्वामी जी ने अमृतसरवासियों के नाम एक अपील जारी की और ऐसी विषम परिस्थिति में हरसम्भव सहायता के लिए प्रेरित किया। 

    बस फिर क्या था, नगर के सैकड़ों व्यापारी एवं स्वयंसेवक एकत्र होकर सेवा करने के लिए आगे आये और सबके सब परस्पर कन्धे से कन्धा मिलाकर अधिवेशन को सफल बनाने के काम में जुट गये। 15-20 पम्पसैट लगाकर पण्डाल का सारा पानी निकाला गया, सारे मलबे का ढेर एक ओर हटाकर उस पर सूखी राख बिछा दी गई। दोबारा बृहत्‌ पण्डाल तैयार किया गया और पूरी तैयारी हो गई। लगता था कि जैसे कुछ हुआ ही न हो। केवल प्रतिनिधियों को ठहराने की व्यवस्था शेष रह गई। 

    स्वामी जी ने पुनः एक अपील जारी की कि प्रत्येक अमृतसर निवासी कम से कम एक अतिथि को अपने यहॉं ठहराने और भोजन आदि की व्यवस्था करें। स्वामी जी की इस अपील पर सैकड़ों आर्यसमाजी स्टेशन पर पहुंच गये और अपनी-अपनी सामर्थ्यानुसार अतिथियों को अपने घर लिवा ले गये। इस प्रकार हजारों अतिथियों के निवास, भोजन आदि की व्यवस्था की समस्या का चुटकियों में समाधान हो गया। यह कार्य स्वामी श्रद्धानन्द जी जैसे दृढ़संकल्प वाले व्यक्ति के ही बस का था और उन्होंने इसे करके भी दिखा दिया। लक्ष्य है-

    बहादुर कब किसी का अहसान लेते हैं?
    वही वो कर गुजरते हैं, जो दिल में ठान लेते हैं।

    वस्तुतः स्वामी श्रद्धानन्द समय की हर चुनौती का सामना करने के लिए सदैव समुद्यत रहते थे। वे समय के दास नहीं थे, समय के निर्माता थे। -आचार्य डॉ.संजयदेव

    स्वामी श्रद्धानन्द 

    चरण स्पर्शों से उन्हीं के पूत गंगाधर थी।
    वाणियों से वेद सरिता प्रेम की आगार थी।। 

    ज्ञान से था बुद्ध आत्मा, सत्य से मन शुद्ध था।
    मानवी कल्याण तप से, आत्म तेज प्रबुद्ध था।। 

    सब जनो की उन्नति में, एक उनका ध्यान था। 
    आर्य होवे जगत्‌ सारा, मनुज मात्र समान था।। 

    परम श्रद्धानन्द थे वे, ओज की इक मूर्ति थे। 
    त्याग और बलिदान में भी, आहुति की मूर्ति थे।। 

    देश सेवा जाति सेवा ध्येय था, इक लक्ष्य था। 
    दलित सेवा में बताओ, कौन जो समकक्ष था।। 

    आर्य संस्कृति धर्म वैदिक में उन्हें विश्वास था। 
    दास थे जो मनुजता के, जग उन्हीं का दास था।। 

    - डॉ. इन्द्रसेन जेतली

     

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    Almost all of them go with the flow of time. There is a rare human who is able to change the flow of time. Such great human beings immortalize their names in history. "" Shriyut Swami Shraddhanandji was one of those great people who do not produce time, but make time. Generally, leaders get fame by seeing the flow of public interest and creating velocity or intensity in it. Shraddhanand is an exception to this.

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  • सामाजिक उत्थान और आर्यसमाज

    उन्नीसवीं शताब्दी में भारत का अंग्रेजों द्वारा धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक शोषण अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया था। भारतीय समाज दोहरे संकट से गुजर रहा था। एक उसकी स्वयं की दयनीय दशा और दूसरा इस्लाम तथा ईसाइयत का तेजी से बढता हुआ सर्वग्रासी रूप। धर्म का वास्तविक स्वरूप लुप्त हो चुका था। पाखण्ड, आडम्बर, अन्धविश्वास आदि ने धर्म को आच्छादित कर लिया था। धर्म के नाम पर पापाचार पनप चुके थे। जात पांत, छुआछूत, बाल विवाह, दहेज प्रथा जैसी कुरीतियॉं समाज को जर्जर कर रही थीं। सत्ती प्रथा तथा बहुविवाह, दहेज जैसी क्रूरताएं समाज में विद्यमान थीं। समाज में नैतिक अध:पतन हो जाने के कारण स्त्रियों की दशा अत्यन्त दयनीय थी। राजनीतिक स्वतन्त्रता के अभाव में तत्कालीन आर्थिक स्थिति जर्जर हो गई थी। अंग्रेजों की शोषण नीति के फलस्वरूप भारतीय कृषि व्यवस्था और कुटीर उद्योग धन्धे नष्ट हो गए थे। आर्थिक कठिनाइयों से त्रस्त निम्न वर्ग को ईसाई बनाया जा रहा था।

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    वेद ज्ञान के आचरण से ही कल्याण।

    Ved Katha Pravachan - 101 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    राष्ट्र का पुनर्जागरण- ऐसे समय में पुनर्जागरण की लहर समाज में आयी। पुनर्जागरण का अर्थ है कुछ समय निद्रा के उपरान्त राष्ट्र के मानस एवं आत्मा का जाग्रत होना। धार्मिक और सुधारवादी आन्दोलनों में ब्रह्मसमाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन, प्रार्थना समाज एवं थियोसोफिकल सोसाइटी प्रमुख हैं। राजा राममोहन राय ने पर्दा प्रथा, बहु विवाह, स्त्रियों में अशिक्षा, सती प्रथा आदि कुरीतियों के निराकरण का प्रयास किया। प्रार्थना समाज ने अवतारवाद, बहुदेववाह, मूर्ति पूजा, पुजारियों की सत्ता के विरोध के साथ-साथ धार्मिक एवं सामाजिक सुधार का प्रयत्न किया, जिससे हिन्दू समाज जाग्रत हो सके । रामकृष्ण परमहंस ने सभी धर्मों को समान बता कर धार्मिक समन्वय पर बल दिया। इसके पश्चात्‌ थियोसोफिकल सोसाइटी ने भारतीय संस्कृति के गौरव ग्रन्थों वेदों, उपनिषदों के अध्ययन एंव धर्माचरण की प्रेरणा दी।            

    वैदिक हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान- धार्मिक नवजागरण का सबसे प्रभावशाली कार्यक्रम आर्यसमाज द्वारा संचालित किया गया। आर्य समाज ने निराकार ब्रह्म की उपासना एवं भारतीय संस्कृति पर आधारित शिक्षा व्यवस्था सुलभ कराने पर बल दिया। धार्मिक पुनर्जागरण में आर्य समाज आन्दोलन ने महत्वपूर्ण कार्य सन्पादित किये। स्वामी दयानन्द सरस्वती उस सुधार और पुनर्गठन के समर्थक थे, जो विभिन्न मजहबों के समन्वय पर आधारित न हो कर शुद्ध हिन्दू परम्पराओं की मान्यताओं पर आधारित था। स्वामी दयानन्द का उद्देश्य धर्म निरपेक्षता अथवा ईसाई, इस्लामी धर्मों की मान्यताओं की एकता की खोज न करके वैदिक धर्म का पुनरुन्नयन करना है। स्वामी जी का विचार था कि हिन्दू धर्म में नवजीवन तभी आ सकता है, जब समाज में व्याप्त रूढियों, अन्धविश्वासों तथा निर्मूल परम्पराओं को समाप्त करके वैदिक धर्म की स्थापना की जाए।        

    वेद ज्ञान का मूल स्रोत- महर्षि दयानन्द ने हिन्दू समाज को संगठित करने का प्रयास किया। महर्षि दयानन्द के प्रेरणास्रोत वेद एवं अन्य प्राचीन ग्रन्थ थे। उन्होनें वेदों को समस्त ज्ञान का भण्डार सिद्ध किया और वैदिक ज्ञान के आलोक में भारतीय जनमानस में व्याप्त अज्ञानजनित अन्धकार को दूर करने का सार्थक प्रयास किया। स्वामी दयानन्द मुख्यत: धार्मिक सुधारक थे। उन्होंने स्त्री और शूद्रों को वेदाध्ययन का अधिकारी बनाया और निम्न वर्ग पर हो रहे अत्याचारों की निन्दा की। अपनी वाणी, लेखनी, व्याख्यान, शास्त्रार्थ द्वारा हिन्दू समाज को जाग्रत करने का प्रयास किया ।

    पाखण्डों का खण्डन- आर्य समाज आन्दोलन ने व्यापक आन्दोलन का रूप लिया और समाज को नवीन प्रकाश प्रदान किया। महर्षि दयानन्द के अनुसार धर्म का अभिप्राय कर्मकाण्ड के जटिल क्रिया जाल का पालन ही नहीं, अपितु धर्म उन उदात्त गुणों की समष्टि का नाम है, जो मनुष्य के नैतिक संवर्धन तथा आध्यात्मिक उत्थान में सहायक होते हैं। स्वामी दयानन्द ने वेद को धर्म का मूलाधार बताया है। अपने ग्रन्थों द्वारा पाखण्ड एवं अन्धविश्वास दूर करने का प्रयत्न किया।

    आर्य समाज के प्रचार प्रसार में अनेक वीतराग तपस्वी, संन्यासियों, विद्वानों और उत्साही प्रचारकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आज आर्य समाज की अनेक शाखाएं वैदिक संस्कृति का प्रचार कर रही हैं।

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    सामाजिक सुधार- सामाजिक क्षेत्र में स्वामी दयानन्द और आर्य समाज आन्दोलन का अत्यधिक महत्वपूर्ण योगदान है। तत्कालीन समाज में अल्पायु में बालक व बालिकाओं का विवाह कर दिया जाता था। महर्षि दयानन्द ने ब्रह्मचर्य पर बल दिया। विवाह की आयु न्यूनतम 24 वर्ष पुरुष एवं 16 वर्ष कन्या के लिए निर्धारित की। स्वस्थ स्त्री-पुरुष के विवाह से उत्तम सन्तान प्राप्त होती है। महर्षि ने वर एवं कन्या के गुण-कर्म-स्वभाव मिलने पर ही परस्पर विवाह करने का विधान बताया है।     

    आर्य समाज ने विधवाओं के लिए विधवाश्रम, अनाथों के लिए अनाथालयों की स्थापना की। तत्कालीन समाज में व्याप्त भूत प्रेत की पूजा, जादू टोनें में विश्वास, सन्तान प्राप्ति के लिए विविध कर्म, तन्त्र, मन्त्र आदि अन्धविश्वासों को महर्षि ने दूर करने का प्रयास किया। महर्षि ने जन्मगत जाति प्रथा का विरोध करते हुए गुण-कर्म के आधार पर वर्ण-व्यवस्था का पुन: निर्धारण किया। दलितों के उद्धार के लिए दलितोद्धार सभा, अछूतोद्धार सभा, दलितोद्धार संगठन आदि स्थापित किए गए, जिससे निम्न जातियों का उत्थान हो सके।

    वेदाध्ययन का अधिकार- महर्षि दयानन्द ने वेदों के प्रमाण द्वारा सभी को वेदाध्ययन का अधिकार दिया है। नर-नारी शूद्र सहित सभी को वेद पढने का अधिकार प्राप्त है। आर्य समाज के सुधार आन्दोलनों का भारतीय समाज और संस्कृति पर बहुमुखी प्रभाव पड़ा। आर्य समाज के प्रादुर्भाव के समय भारत धार्मिक और नैतिक दृष्टि से पतन की ओर अग्रसर था। समाज में बहुदेवतावाद, अवतारवाद, मूर्तिपूजा के प्रचलन के साथ-साथ धर्मों के नाम पर अनेक कुकर्म हो रहे थे। महर्षि ने निराकार, अजन्मा, परमात्मा की पूजा, आराधना, उपासना तथा सन्ध्या हवन करने की सलाह दी।

    राष्ट्रवादी शिक्षा- भारतवर्ष में राष्ट्रीय शिक्षा के अग्रदूतों में महर्षि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा गान्धी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, मदनमोहन मालवीय और अरविन्द घोष प्रमुख हैं। भारतवर्ष में राष्ट्रीय शिक्षा के प्रर्वतक और उन्नायक महर्षि दयानन्द हैं। उन्होंने प्राचीन संस्कृति पर बल देते हुए गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति की आधारशिला रखी। उन्होंने आदर्शवाद, प्रकृतिवाद, समाजवादी दर्शन को समन्वित करते हुए सत्य, सदाचार एवं ब्रह्मचर्य पर बल दिया। शिक्षा वैयक्तिक एवं सामाजिक उन्नति के लिए है।        

    भारतवर्ष में स्त्री शिक्षा के उन्नायक महर्षि दयानन्द को माना जा सकता है। उन्होंने जाति भेदमूलक शिक्षा व्यवस्था का विरोध किया और स्त्रियों तथा शूद्रों को वेद पढने का अधिकार प्रदान किया। संस्कृत भाषा के ज्ञान के बिना शिक्षा अपूर्ण है। स्वामी जी का विचार है कि स्वावलम्बन की भावना शिक्षा के मूल में होनी चाहिए। उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति के शिक्षित होने पर बल दिया। वर्तमान समय में गुरुकुल, कन्या गुरुकुल, डी.ए.वी. कालेज, आर्य बाल विद्या मन्दिर, आर्य माडल स्कूल, आर्य पब्लिक स्कूल आदि में परम्परागत भारतीय संस्कृति और नवीन पाश्चात्य ज्ञान के समन्वय के आधार पर इस समय शिक्षा दी जा रही है। पांच हजार से भी अधिक शिक्षा संस्थाएं देश विदेशों में आर्य समाज द्वारा संचालित की जा रही हैं।            

    स्वराज्य का मन्त्र- महर्षि ने राजनीतिक और आर्थिक सुधारों पर बल दिया। स्वराज्य का मन्त्र सर्वप्रथम महर्षि द्वारा उद्‌घोषित किया गया। महर्षि दयानन्द ने भारत को राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक रूप में एक सूत्र में बान्धने का प्रयास किया। उन्होंने स्वदेश, स्वधर्म, स्वजाति, स्वसंस्कृति और स्वभाषा का प्रबल समर्थन करके भारतवासियों में राष्ट्रीय भावना का संचार किया।   

    आर्थिक चिन्तन- आर्य समाज ने आर्थिक सुधारों पर भी ध्यान दिया। स्वामी जी का मत है कि करों का उद्देश्य प्रजा का सुख है। महर्षि ने बीस प्रतिशत बजट शिक्षा, बीस प्रतिशत धन स्थिर कोष, बीस प्रतिशत राज्य, तीस प्रतिशत रक्षा व्यवस्था के लिए निर्धारित किया है। महर्षि द्वारा प्रतिपादित अर्थव्यवस्था आज भी प्रासंगिक है। आर्य समाज ने सामाजिक, धार्मिक, नैतिक सुधार, जातिवादी परम्पराओं में सुधार, शिक्षा के क्षेत्र में सुधार तथा राजनीतिक, आर्थिक सुधारों द्वारा हिन्दुओं की क्षीण शक्ति को पुनजीर्वित किया और समाज को नई दिशा प्रदान की। महर्षि दयानन्द का स्पष्ट मत है कि मानसिक, सामाजिक, राजनीतिक सभी प्रकार की दासता से मुक्ति प्राप्त होनी चाहिए। अपने स्थापनाकाल से आज तक आर्य समाज विविध सुधार कार्यों में सफलतापूर्वक अग्रसर होता रहा है। इसके प्रगतिशील विचार और मानवतावादी सन्देश समाज को नई दिशा प्रदान करते हैं। महर्षि दयानन्द को भारत के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक सुधार के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। लेखक- डा. आर्येन्दु द्विवेदी

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