घर-परिवार
शीर्षक में इंगित समस्या आज की ही नहीं , पुरातन काल से चली आ रही है , भले पहले अतिन्यून हो , अब अत्यधिक है। महर्षि दयानन्द सरस्वती से पूर्ण प्रभावित होकर छलेसर के रईस ठाकुर मुकुन्दसिंह ने उनको आग्रहपूर्वक अपने गॉंव में आमन्त्रित किया। हाथी-घोड़ा-पालकी-सैनिक व विशाल जन-समूह के साथ उनका स्वागत किया। उनके प्रवास के लिये नवीन भवन बनवाया। विशेष यज्ञ रचाया। पण्डित व प्रजाजन की वहॉं भीड़ लगी रही। इतने कोलाहल में भी ठाकुर मुकुन्दसिंह के पुत्र कुँअर चन्दनसिंह का मौन महर्षि को बहुत अखर रहा था। कारण कुछ भी हो , पिता-पुत्र की बोलचाल बन्द थी। ग्राम में कुम्भ जैसा मेला और उसका शोर , फिर भी पिता-पुत्र में मनोमालिन्य बना रहे , महर्षि इस पीड़ा को सहन नहीं कर सके। इन दोनों के सम्मुख वे बोले और ऐसा बोले कि पिता ने निज पुत्र के लिए अपनी बाहें फैला दी तथा उसे अपनी गोदी में बैठा लिया और मन का मैल सदा-सदा के लिये धुल गया।
जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों। तेतीस कोटि देवताओं का स्वरूप-1
Ved Katha Pravachan _65 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
VIDEO परमपिता परमात्मा अपने प्रतिनिधि पुत्र सन्तरूप में भेजकर समाज में श्रेष्ठ वार्तालाप का वातावरण बनाते रहते हैं। जब यही तथाकथित सन्त स्वार्थी हो जाते हैं , तो समाज में संवाद समाप्त होकर विवाद-परिवाद की वायु बहकर सन्ताप उत्पन्न कर देती है।
विवाह संस्कार के कारण श्रीमती सहित एक उस नगर में जाने का अवसर मिला , जहॉं हम कभी 49 वर्ष पहले गये थे। श्रीमती जी अपनी दूर की दादी से मिलना चाहती थी और मुझे अपने समवयस्क मित्र से मिलने का आकर्षण था। मित्र मिले। वे उतने ही प्रतिष्ठित व लोकप्रिय मिले , जितने राजासाहब सम्बोधन से जाने जाने वाले उनके पिता थे। जितनी अधिक उनकी भूमि-भवन-धन की सम्पदा थी , उतनी ही उनकी सुकीर्ति मान्यता भी थी। उन्होंने सर्वत्र मुझको भ्रमण कराया और ले जाकर खड़ा कर दिया अपने एक पुत्र के प्रभूत प्रतिष्ठान पर और लगे उससे मेरा परिचय कराने। वह अच्छा खासा समझदार पुत्र न उनसे बोला और न मुझसे नमस्ते तक की। मित्र तो खड़े के खड़े ही रह गये। किन्तु मुझसे वहॉं नहीं रुका गया और मैं उनका हाथ पकड़कर आगे बढ़ा लाया। मार्ग में उन्होंने बताया कि इस पुत्र को मुझसे यह आपत्ति है कि पिता की इतनी उच्च मान-प्रतिष्ठा होेते हुए भी मेरे लिए कुछ नहीं किया।
यह तो रही मेरी भेंट मित्र से , अब श्रीमती जी की दूर की दादी की कहानी सुनिये। मिलने पहुँची तो उनको घर से बाहर एक टूटी-टाटी खाट पर पड़ा पाया। देखकर उठी। इनको अपने हृदय से चिपटा लिया। दादी के स्वावलम्बी पुत्र का बाल-बच्चों वाला परिवार! किन्तु दादी से कोई बोलता नहीं।
यह जो हमने दूर के नगर में जाकर देखा , वह हमारे नगर में आस-पास भी घटता दिखाई देता रहता है। हम दो ऐसे बच्चों को जानते हैं। एक दूसरे ही वर्ष में चलने और बोलने लगा तथा दूसरे बच्चे ने इन दोनों कार्यों में कई-कई वर्ष लगा दिए। जब यह चलता-बोलता नहीं था , तो माता-पिता-परिजन सब व्याकुल रहते थे। उपचार-उपाय खोजते व चिन्तित रहते दिन कटते थे। जिन माता-पिता-अभिभावकों ने उन्हें बोलने में समर्थ बना दिया , बड़े होकर वही बच्चे अन्य सबसे तो बोलते हैं पर अपनों से ही नहीं बोलते हैं , तो उनका हृदय टूट जाता है। इसका दूरगामी दुष्प्रभाव ऐसी सन्तानों पर पड़ने से कोई रोक नहीं सकता है। माता-पिता ही क्या उस परमेश प्रभु के साथ भी ऐसे लोगों का यही व्यवहार होता है , जो माता-पिता दोनों के रूप में जन्म देकर पालन-पोषण करता है। प्रभुदेव सविता अग्नि के समक्ष शान्त शीतल जलाञ्जलि पूर्वक व्यक्ति मांग करता है- वाचस्पतिर्वाचं ना स्वदतु (यजुर्वेद 30.1) अर्थात् हे वाणी के स्वामी परमेश्वर! आप हमारी वाणी को मधुर बना दीजिये।
जीभ तो मानव-पशु सबके पास है। पशुओं की जीभ तो सदा समान रहती है, किन्तु मनुष्यों की जीभ अपने स्वाद बदलती रहती है। कभी कड़वी कभी मीठी। कड़वी हुई तो मानो कटार हो गयी। दिल के आर-पार हो गई। अतः इसका कोमल व मधुर रहना ही ठीक है। प्रभु से यही मांग है। इसी क्रम में अभिभावकों की उत्कट कामना द्रष्टव्य है-ओ3म् उप नः सूनवो गिरः श़ृण्वन्त्वमृतस्य ये। सुमृडीका भवन्तु नः।। सामवेद 1595।।
अर्थात् हमारे पुत्रगण अविनश्वर परमेश्वर की वाणी सुनें और हम लोगों को सुखी करें। परमेश प्रभु की वाणी वेद का कितना मधुर सन्देश है-
ओ 3म् उत ब्रुवन्तु जन्तव उदग्निर्वृत्रहाजनि। धनज्जयो रणे रणे।। सामवेद 1382।।
मन्त्र-भावार्थ देखिये-
क्षण क्षण सम्मुख रण आते हैं। धन-जय प्रभु ही दिलवाते हैं।।
प्रभु हमको शक्ति विमल देते ,हम जिससे शत्रु मसल देते।
प्रभु ने जीवन धाम दिया है ,प्रभु ही इसको चमकाते हैं।।
जीवन्त प्राणधारी आओ ,प्रभु से सम्मति ले आओ।
बैठो प्रभु से करो वार्ता ,सन्मार्ग वही दिखलाते हैं।।
जिसने निज को उत्कृष्ट किया ,हर कष्ट सहन कर पुष्ट किया।
वे नर जीवन संग्रामों में ,प्रभु की सहाय पा जाते हैं।।
क्षण क्षण सम्मुख रण आते हैं। धन-जय प्रभु ही दिलवाते हैं।।
"सामश़्रद्धा ' के देवातिथि द्वारा रचित सामगीत में यही सन्देश निहित है कि जिस प्रभु से हम हर संग्राम में विजय व वैभव प्राप्त करने की कामना करते हैं और वह हमें सुलभ भी हो जाता है। इस ऋद्धि-सिद्धि-उपलब्धि के बाद अधिकांश व्यक्ति इसी में रम जाते हैं। इसकी ही बात करते रहते हैं। प्रभु से बात करने का उनके पास समय ही नहीं बचता है। मन्त्र का मृदुल आदेश है कि इसे मांगने व मिल जाने के बाद भी प्रभु से बात करते रहो। स्तुति करके धन्यवाद देते व आशीर्वाद लेते रहो।
परमेश प्रभु की ही भॉंति हमारे पितरजन भी हमें सब कुछ देते हैं। तन देते हैं , सुसंस्कृत मन देते हैं , यथासम्भव धन देते हैं , विद्या और गुण देते हैं। फिर भी हम सर्वसमृद्ध होकर जरा सी बात पर उनसे बोलना ही बन्द कर देते हैं। वे तो वयोवृद्ध हैं। अपने समस्त उत्तराधिकार देकर हमें समृद्ध करके चिर-विदा लेकर चले ही जाने वाले हैं। फिर हम उनसे बात न करें तो इसे हमारा अधर्माचरण ही कहा जायेगा। यहॉं पर हिन्दी के प्रसिद्ध रसिक कवि बिहारी जी का एक दोहा उद्धृत किया जा रहा है , जो इस प्रकार से दो अर्थ प्रस्तुत करता है कि एक ओर तो वे अपने आराध्य श्रीकृष्ण का तथा दूसरी ओर अपने वंश व पिता का स्मरण भी कर लेते हैं। लीजिए पढ़िये-
प्रगट भए द्विजराज-कुल , सुबस बसे ब्रज आइ। मेरे हरो कलेस सब , केसव केसवराइ।।
दोहे में प्रयुक्त "द्विजराज ' शब्द द्वि-अर्थक है। एक चन्द्रमा व दूसरा ब्राह्मण। दोहे का एक अर्थ बनता है कि केशव कृष्ण चन्द्रकुल में जन्म लेकर ब्रज भूमि में बस रहे हैं , वे मेरे सभी कष्टों को दूर करें। दूसरे अर्थ में वे अपने पिताश्री का आराध्यतुल्य स्मरण करते हुए कहते हैं कि मैं भी ब्राह्मण कुल भूषण ब्रजवासी हूँ , मेरे जन्मदाता केशवराय मेरे कष्टों को दूर करें।
कभी-कभी ऐसा कुयोग भी आ जाता है , जब सन्तान से पितर वृद्धजन अपनी ओर से बोलना बन्द कर देते हैं , वह भी जरा से भ्रम के कारण। एक माता के तीन-चार पुत्री एवं एक पुत्र था। किशोरावस्था में पुत्र नहीं रहा। उनका बड़ा दामाद उनका मातृवत सम्मान करने वाला है। एक बार अपना भोजन साथ लेकर वह दामाद के घर गयी। सदैव की भॉंति दामाद ने स्वागत-अभिवादन किया और उनसे भोजन करने के लिये जोरदार आग्रह करने लगा। माता मना करती रही। दामाद के मुख से निकले शब्द- "आपके कोई है नहीं , इसलिए मैं आपसे खाने के लिए कह रहा हूँ , कोई होता तो भला मैं क्यों कहता ''- उस माता के हृदय में ऐसे चुभ गये कि कई महीनों से उस माता ने अपने दामाद से बोलचाल बन्द रक्खी। दामाद को स्थिति का आभास हुआ। अनेक प्रकार से उसने माता से बोलना चाहा , किन्तु माता का मुँह बन्द का बन्द ही रहा। माता ने यह स्थिति मुझे बताकर कुछ परामर्श चाहा , तो मैंने सन्त तुलसीदास के शब्दों को- क्षमा बड़न को चाहिये , छोटन को उत्पात , दोहरा दिया। तभी माताजी ने कहा कि अब तो वे मुझे अपने बच्चों के साथ तीर्थयात्रा पर ले जाना चाहते हैं। ठीक ही है , सुखद अन्तराल में दुःखद बात विस्मृत होना असम्भव नहीं है। धर्म के दस लक्षणों में "क्षमा ' विलक्षण है। और सभी एक पक्षीय हैं , पर क्षमा द्विपक्षीय है। क्षमा मांगने वाला धर्म का पालन करता है और क्षमा करने वाला सद्धर्म का परिपालन करता है। बड़े लोग किसी भी कारण से बोलना बन्द करने के स्थान पर अपनी सकारात्मक सोच विकसित करके प्रकरण की नकारात्मकता को तिरोहित करके अपने छोटों को सन्मार्ग दिखाने का सत्प्रयास कर सकते हैं।
उपरोक्त प्रकरण में घोर निराशा को घनघोर आशा में इन्हीं माताजी के शब्दों ने बदल दिया। वे बोली कि कुछ दिनों के लिए बाहर क्या चली गयी , पड़ोसी बच्चों ने छत पर कूद-फॉंदकर सीमेण्ट उखाड़ दिया। जरा सी वर्षा में छतें टपकने लगती हैं। प्रयोग में न आने से हस्तचालित नल ने पानी देना बन्द कर दिया और शौचालय का पानी निकलता नहीं। एक अकेले के लिये हजारों रूपये व्यय करके ठीक करायें , फिर चलें जायें बाहर तीर्थयात्रा पर। लौटकर आयें तो वही "ढाक के तीन पात '। मैंने उनसे कहा कि यह सब अव्यवस्थायें इसीलिए हुई हैं कि आप दामाद का आमन्त्रण स्वीकार कर कुछ दिन बाहर तीर्थाटन कर आयें। जब लौटकर आएंगी , तो तीन दिन में ही यह सब बिगड़े काम बन जाएंगे और सम्बन्ध स्नेहपूर्ण सामान्य हो जायेंगे। शायद प्रभु भी यही चाहते हैं। माता जी जो सुस्त-मुस्त आयीं थीं , मस्त-चुस्त मुस्काती चली गयीं।
ओ 3म् महो अर्णः सरस्वती प्र चेतयति केतुना। धियो विश्वा वि राजति।। ऋग्वेद 1.3.12।।
इस मन्त्र अनुसार ज्ञान देवी सरस्वती की उपासना से ज्ञान के महासागर का आभास मिलता है। जो माता सरस्वती के ज्ञानध्वज के नीचे आ जाते हैं , वे अपनी सब बुद्धियों को विशेषतया दीप्त करके जिस-जिस वस्तु की गहराई में जाना चाहते हैं , उस-उस वस्तु के तत्वबोध को प्राप्त कर लेते हैं। गहराई में उतरने वालों को सबकुछ मिल जाता है और किनारे बैठे रहने वाले इधर-उधर ताकते रह जाते हैं। कहा भी है-
सरस्वती के भण्डार की बड़ी अपूरब बात। खर्चे से घटती नहीं बिन खर्चे घटि जात।।
शून्य से शिखर पर पहुँचने वाले व्यक्तियों की सन्तानें उनकी प्रतिष्ठा को तो देखती हैं , उनकी त्याग-तपस्या-श्रम व पुरुषार्थ को नहीं देख पाती हैं। सन्तानों की अभिलाषा रहती है कि वे भी प्रतिष्ठा पायें , परन्तु अपने बल पर नहीं पूर्वजों की प्रतिष्ठा के बल पर। उदाहरणस्वरूप एक कथानक प्रस्तुत है। पर्वतीय क्षेत्र से एक किशोर प्रयाग आया। श्रम-साधना एवं सद्भावना से प्रयाग विश्वविद्यालय में उच्च से उच्चतर शिक्षा प्राप्त की। अनी मेधा के श्रेयस्वरूप उसी विश्वविद्यालय में प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष बना और सेवानिवृत्त हो गया। इस लम्बे अन्तराल में उसके शिष्यों की श़ृंखलायें बढ़ती गयीं , और परिवार की पीढ़ियॉं भी बढ़ती गयीं। महानगर में शिक्षा-सांस्कृतिक व सामाजिक क्षेत्रों में वयोवृद्ध प्राध्यापक की अकूत मान्यता होने लगी। इस मध्य हुआ यह कि उनके पौत्र की उपस्थिति कम होने के कारण परीक्षा में बैठने से रोक दिया गया। पौत्र व घर वालों ने जोर लगाकर देख लिया , पर उसको परीक्षा में बैठने की अनुमति नहीं मिली। थककर घर वालों ने प्रतिष्ठित पितामह से अनुशंसा करने को कहा। उन्होंने सुनी-अनसुनी कर दी। घर वालों ने उनसे बोलना बन्द कर दिया। अन्ततः प्राध्यापक पितामह पौत्र को लेकर विश्वविद्यालय के तत्सम्बन्धी विभाग में जा पहुँचे। तेजस्वी विभागाध्यक्ष अपने उच्चासन से उठे और वयोवृद्ध प्राध्यापक के चरणस्पर्श करके अपने आसन पर बैठाया। स्वागत करते हुए वे बोल पड़े , प्रोफेसर सर! आज मैं जो कुछ हूँ , आपके कारण हूँ। उस समय उपस्थिति कम होने पर आप मुझे परीक्षा में बैठने से रोकते नहीं , तो मैं विशद तैयारी नहीं करता , शीर्ष स्थान न पाता और आज विभागाध्यक्ष न होता। वर्तमान विभागाध्यक्ष ने उनके आने का कारण पूछा। उन्होंने कोई अनुशंसा नहीं की। इधर से निकल रहा था , सोचा मिलता चलूँ। अच्छा! अब चलता हूँ। पौत्र ने घर आकर सारी बात बतायी। घर वालों को समझाकर सन्तुष्ट कर दिया। आगे की तैयारी के लिये स्वयं को पुष्ट कर लिया। वयोवृद्ध प्राध्यापक से सबके प्रणाम चल निकले और पौत्र का सुनिश्चय उत्कृष्ट हो गया। उसका भी भविष्य समुज्ज्वल हो गया। - देवनारायण भारद्वाज
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According to this mantra, worship of the knowledge goddess Saraswati gives an impression of the ocean of knowledge. Those who fall under the enlightenment of Mother Saraswati, by lighting all their intellects, they attain the essence of the object of which they want to go in depth. Those who get into the depth get everything and those who sit on the sidelines are kept looking around.
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