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  • दीवाली, दयानन्द और आर्य समाज

    मानव जीवन बहुमूल्य है। बहु आयामी है। समग्रता से युक्त जीवन, अनेक जीवनों को ज्योतित कर देता है। त्याग, तप और शुद्धाचरण व्यापक प्रभाव छोड़ता  है। देह के विसर्जन होने पर भी अदृश्य देही के गुण शताब्दियों तक नहीं भूलते। क्या अल्पज्ञ जीव जीवन में समग्रता को संजोकर साधना के मार्ग पर तत्परता के साथ जब चलता है तो उसे ही लोकोत्तर कार्य करने के कारण पूर्ण पुरुष कहते हैं। उसी के बतलाए ज्ञान के प्रकाश में जीवन को जीने की कला तो सीखते ही हैंउसको ज्योति स्तम्भ मान कर अपना पथ प्रदर्शक हृदय से स्वीकारते ही नहीं अपितु उसके एक-एक शब्द पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं। सांसारिक दृष्टि से ही नहीं अपितु ऐसी विभूतियॉं आध्यात्मिक दृष्टि से भी सभी की पूज्यार्ह हो जाती हैं। शारदीय नवसस्येष्टि (दीपावली) हजारों वर्षों से अपने नाम को सार्थक करती हुई धूमधाम से मनाई जाती है, परन्तु जो दीपावली सम्वत्‌ 1940 तदनुसार 30 अक्टूबर 1883, मंगलवार को मनाई गई उसकी प्रभा महर्षि दयानन्द सरस्वती की उच्च आत्मा ने नश्वर देह का परित्याग करते हुए गहरे नास्तिक को आस्तिक बनाने का चमत्कार से कम महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं है क्या?

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    सुख-शान्ति का रास्ता एवं सुखी जीवन के वैदिक सूत्र
    Ved Katha Pravachan -11 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    कितनी दीवालियॉं आई और चली गईपरन्तु एक दीपमाला ऐसी भी आई कि एक ज्योति तो देह छोड़ कर जगज्जननी की अमृतमयी क्रोड़ में आनन्द प्राप्ति हेतु समर्पण कर रही है और दूसरी ओर महर्षि दयानन्द के देह त्याग से आकर्षक मुख मण्डल की आभा-प्रभा-प्रसन्नता को देखकर एक सुपठित गुरुदत्त नास्तिकता के गहरे गर्त्त से निकल आस्तिकता की आनन्दमयी लहरों की उत्ताल तरंगों से आप्लावित हो रहा है। ऐसे अवसर के लिये जो सांसारिक मुहावरा बना "जादू वही जो सिर चढ कर बोले" चरितार्थ हो गया। यह विश्व के इतिहास में आश्चर्य चकित करने वाली घटना है। किसी की मृत्यु भी किसी को जीवन दे सकती है। यदि मृत्यु मार्ग दिखा सकती है किसी को तो उसके जीवन में क्या शक्ति रही होगी यह अनुमान लगाना सहज है। ऐसे महापुरुषों का लोकोत्तर जीवन में आना और जाना लोक कल्याण के लिये होता है। चमत्कार में महर्षि दयानन्द सरस्वती को कोई विश्वास नहीं। सांसारिक दृष्टि से महत्ता प्रकट करणार्थ इससे सरल और चिरपरिचित शब्द भी नहीं जो अभिधा में ये अर्थ प्रकट करे।

    मूलशंकर ने एक सामान्य ग्राम टंकारा में जन्म पाया। माता-पिता का आज्ञाकारी पुत्र मूलशंकर रहा। चौदह वर्ष की उम्र में सम्पूर्ण यजुर्वेद स्मरण करना और माता-पिता की आज्ञा मान कर शिवरात्रि में व्रत रख कर मन्दिर में जागरण करना मूलशंकर की मातृ-पितृ भक्ति परायणता का परिचायक है। चौदह वर्ष की बालावस्था में सम्पूर्ण यजुर्वेद स्मरण करना जिसके चालीस अध्याय और एक हजार नौ सौ पिछत्तर मन्त्र हैं। ये उस युग के घरों की शिक्षा का खुला विवरण है। आज हमारे घरों में गृहशिक्षा न के बराबर है। गायत्री मन्त्र भी शायद हमारे बच्चों को नहीं आता। यह विडम्बना कहॉं तक झेलते रहेंगे हमस्वामी दयानन्द जी महाराज से किसी नवयुवक ने पूछा कि आप बड़े विद्वान्‌तार्किकसंस्कृतज्ञत्यागी-तपस्वी एवं वेदों के मर्म को जानने वाले हैं परन्तु आपको अपने जैसा आदमी क्यों नहीं मिलास्वामी जी महाराज का सत्यता से परिपूर्ण सरल यह उत्तर था कि "मैंने जीवन में अपना घर छोड़ कर माता-पिता की आज्ञा के विरुद्ध आचरण किया। अत: मुझे जीवन में मेरे जैसा आदमी नहीं मिला।" यह स्वाभाविक उत्तर स्वामी जी के किसी भाव को इंगित करता है। स्वामी जी के आज के अनुयायियों को सोचना चाहिए। पितृ यज्ञ का पंचमहायज्ञ विधि में नैतिक जीवन के लिये विधान है। हमारे घरों में केवल पितृयज्ञ का पालन कैसा हो रहा हैयह विचारणीय है। स्वामी जी के समस्त साहित्य में जो व्यावहारिक शिक्षाएं हैं वे सर्वोपयोगी सर्वग्राह्य है। आज भौतिकवाद की अन्धी आन्धी ने सबको आँख होते हुए भी अन्धा बना दियाहै। आर्यों के लिये भौतिकवाद की खुली चुनौती है और आर्य समाज मूक दर्शक बना हुआ है। किंकर्त्तव्यविमूढ नेतृत्वहीन और दिशाहीन है।

    आर्य समाज की स्थापना करके महर्षि दयानन्द सरस्वती ने जो स्फूर्ति और जो उर्वरा भूमि आर्य समाज के माध्यम से वेद के रूप में शाश्वत मूल्यों को प्रदान कीजिसमें विश्व के मनीषियों को ज्ञान प्राप्ति के साथ चरित्र के निर्माण हेतु आर्यावर्त्त देश में आकर शिक्षा ग्रहण का सन्देश उच्च स्वर से प्रदान कियाक्या उत्तरदायित्व लेने वाले लोगों ने इसे गम्भीरता से निभायाऐसे अकर्मण्य दिशाहीन वेदविहीन लोगों ने ऋषि की महिमा और उद्देश्य को समझा ही नहीं। अन्धेरे में लाठी चलाने का कोई लाभ नहीं। जगाने वाले गहरी नींद में सो गये। इनको कौन जगाये?

    वेद निर्भ्रान्त नित्यशाश्वतअपौरुषेय और परमात्मा प्रदत्त ज्ञान है। वेद केवल चार हैं। मूल संहिताएं ही वेद हैं। ऋग्वेदयजुर्वेदसामवेदअथर्ववेद इनके नाम हैं। इन वेदों के लिये स्वामी दयानन्द ने कहा "वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढना-पढाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।" आर्य समाज की स्थापना को एक सौ अड़तीस वर्ष हो गए हैं। आर्य समाज के प्रारम्भिक पचास वर्ष को छोड़कर उपरोक्त नियमानुसार कितनी सत्यविद्याओं का प्रकाश आर्य समाज ने कियाशास्त्रार्थ युग में भी सामाजिक क्षेत्र में वेद का नाम लोगों को परिचित कराने का श्रेय आर्य समाज को जाता है। जिस दृढता के साथ स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यान्वेषक बन कर वेद को प्रमाण मान और जनता के बीच में वेद प्रमाण पुस्तक से दिखा कर वेद के लुप्त ज्ञान को जनता से सहज स्वीकार कराया। यह दयानन्द की प्रकट विधि आर्य समाज में दीर्घ जीवी नहीं हो सकी। स्वामी दयानन्द सरस्वती की वेदों के विषय में सत्य घोषणा से प्रभावित हुए अन्य लाखों लोगों ने दयानन्द की विचारधारा को स्वीकारा। स्वामी दयानन्द जी महाराज ने वेदों को सर्वोपरि स्थान देते हुए लिखा-

    "वेदों के जानने वाले ही धर्माधर्म के जानने तथा धर्म के आचरण और अधर्म के त्याग से सुखी होने को समर्थ होते हैं।"

    "कोई भी मनुष्य वेदाभ्यास के बिना सम्पूर्ण सांगोपांग वेद विद्याओं को प्राप्त होने के योग्य नहीं होता।"

    "जो मनुष्य पुरुषार्थीविचारशीलवेद विद्या के जानने वाले हैं वे ही संसार के आभूषण होते हैं।"

    तेरे दीवाने जिस घड़ी दक्षिण दिशा को चल दिये।
    कितने शहीद हो गये कितनों ने सर कटा दिये।।
    अपने लहू से लेखराम तेरी कहानी लिख गये।
    तूने ही लाला लाजपत शेरे बब्बर बना दिये।।

    ये पंक्तियॉं किसी टिप्पणी की अपेक्षा नहीं रखती। ये स्वामी जी का बोलबाला था।

    आज आर्य समाज के पुस्तकालयों में वेद गर्दोगुब्बार के नीचे दबे पड़े हैं। क्योंकि वेद स्वाध्याय का समय नहीं और वेद आर्यों के लिए उपयोगी नहीं। क्योंकि सारी सत्य विद्याओं का भण्डार आर्य समाजी बन गया। पूछो तो वेद का क ख नहीं बता सकते। ये तो पण्डित जी बतायेंगे। पण्डित जी को अपनी रोजी-रोटी से फुर्सत नहीं। क्योंकि आर्य समाज इन अधूरे पण्डितों को रखकर इनकी विवशता का पूरा लाभ उठा कर पण्डितों को गुलाम बना कर वेद प्रचार करना चाहता है। तो पूरी गलफांसी का शिकार है आर्य समाज। जो थोड़े बहुत गुरुकुलोंविद्यालयों या उपदेशक विद्यालयों में सीख कर इस क्षेत्र में आते हैं वे अधिकारियों के दुर्व्यवहार के कारण सड़क पर रहते हैं। लगभग विद्वानों की स्थिति आर्य समाज में भिखारियों जैसी है। आर्य समाज वेद के कार्य में गम्भीर नहीं।

    चरित्र के धनी स्वामी दयानन्द ने चरित्र निर्माण पर सर्वाधिक बल दिया- शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बाह्य शक्ति के साथ अन्तर्तम के साहचर्य से दिव्य पावन प्रकाश के पावन आलोक में मानव का नवोत्थान है। गायत्री मन्त्र का उपदेश शिक्षा के प्रारम्भ में नैतिक शिक्षा का विश्वोपयोगी सूत्र है। बुद्धि की पवित्रता की कामना प्रभु से करे। स्मृति-श्रुति में जिस आचार का उपदेश दिया गयाउसका आचरण करके आत्मवित बनने का प्रयास करे। ब्रह्मचर्य से राजा राष्ट्र की रक्षा कर सकता है। अहिंसासत्यअस्तेयब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन महाव्रतों की व्यावहारिक शिक्षा देने के प्रबल समर्थक थे स्वामी दयानन्द। यही उनकी सफलता का रहस्य था। आर्ष शिक्षा प्रणाली के प्रबल व्यावहारिक समर्थक थे स्वामी जी। शिखा सूत्र भी हमारी शिक्षा के प्रमुख सूत्र थे। इनके नियमों को पालन करते हुए आत्मवित के साथ जीवन के मूल्यों को आचरण में रचा-पचा कर उच्च शिखर पर आरूढ होता था मनुष्य। आचारहीनं न पुनन्ति वेदा:। जिस मनुष्य का आचार ठीक नहीं उसको तो वेद भी पवित्र नहीं कर सकते।

    महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती की सफलता का रहस्य आचार पर ही सर्वथा निर्भर करता था। पांच यम नियम स्वामी जी ने जीवन में रचा-पचा कर ही सभी प्रकार के पाखण्डों से लड़ाई लड़ी। आजकल आचार सदाचार की परिभाषा ही बदल गई है। "लुच्चा सबसे ऊंचा" तो आचार क्या करेगा।-आचार्य हरिदत्त शास्त्री (आर्यजगत्‌ दिल्ली26 अक्टूबर 1997)

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    The secret of success of Maharishi Swami Dayanand Saraswati depended solely on ethics. The five Yama Niyam Swamis fought and fought all kinds of hypocrisies in life. Nowadays the definition of ethics has changed. What will the ethics do if "the scoundrel is the highest"? - Acharya Haridutt Shastri (Aryajagat Delhi, 26 October 1997)

     

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  • धर्म में जनकल्याण की भावना निहित होती है

    "धर्म" के विषय में जन-मानस में अनेक भ्रांन्तियॉं हैं। धर्म अंग्रेजी के रिलिजन अथवा उर्दू के मजहब शब्दों का न तो हिन्दी अनुुवाद है और न ही पर्याय। धर्म किसी सम्प्रदाय का भी पर्यायवाची नहीं है। धार्मिक व्यक्ति का अभिप्राय पूजा-पाठ करने वाला अथवा दिन में पांच बार नमाज अदा करने वाला या फिर चर्च में जाकर ईसा की वन्दना करने वाला कदापि नहीं है। यह सब करने वाला व्यक्ति मजहबी या सम्प्रदायिक तो हो सकता है, किन्तु धार्मिक कदापि नहीं। संस्कृत के एक कवि द्वारा दुर्योधन के मुख से धर्म के विषय में कहलवाया हुआ एक श्लोक है- 

    जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः,जानाम्यधर्मं न चे मे निवृत्ति।
    केनापि देवेन हृदि स्थितेन, यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि।।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    भव सागर से पार होने का रास्ता (वेद कथा)
    Ved Katha Pravachan _59 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    अर्थात्‌ मैं धर्म को जानता तो हूँ किन्तु उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं है और मैं अधर्म को भी जानता हूँ किन्तु उससे मेरी निवृत्ति नहीं है। मेरे हृदय में किसी देवता ने जैसी मेरी नियुक्ति कर दी है, मैं वैसा कर देता हूँ। 

    अधार्मिकता का ऐसा उदाहरण अन्यत्र कहॉं मिलेगा? अर्थात्‌ दुर्योधन अपनी अधार्मिकता के लिये स्वयं को दोषी न मानकर "अपने हृदयस्थित किसी देवता' पर दोषारोपण करके मुक्ति पा लेता है। किसी अधार्मिक वृत्ति के मनुष्य का यह स्पष्ट चरित्र-चित्रण है। मनुष्य के धर्म सम्बन्धी स्वभाव के लिये एक अन्य कवि ने भी कहा है- 

    फलं धर्मस्य चेच्छन्ति धर्मं नेच्छन्ति मानवाः।
    फलं पापस्य नेच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नतः।। 

    अर्थात्‌ मनुष्य धर्म के सुफल की इच्छा तो करते हैं, किन्तु धर्म पालन करने की इच्छा बिल्कुल नहीं करते। इसी प्रकार पाप के कुफल की इच्छा तो नहीं रखते, किन्तु प्रयत्नपूर्वक पाप कर्मों में लिप्त रहते हैं। 

    तो धर्म क्या है? महाभारत में कहा है- "धारणात्‌ धर्म इत्याहुः। धर्मो धारयते प्रजा। अर्थात्‌ धारण करने से इसे धर्म कहा जाता है और धारण किया हुआ धर्म प्रजा अर्थात्‌ धारक की रक्षा करता है। वह धारण किया जाने वाला धर्म क्या है? वह है "करणीय कर्त्तव्य' जो किसी यज्ञ से कम नहीं। करणीय कर्त्तव्य की भावना से ओत-प्रोत व्यक्ति ही धार्मिक कहलाता है, किसी पूजा-पद्धति विशेष का परिपालन करने वाला नहीं। किसी पूजा-पद्धति का पालन करने वाला साम्प्रदायिक कहलाता है, धार्मिक नहीं। जैसे नमाज अदा करने वाला मुसलमान, चर्च की घण्टी बजाने वाला ईसाई और मन्दिर में आरती करने वाला पुराणपन्थी कहलाता है। 

    धर्म को यज्ञ इसलिये कहा गया है, क्योकि धर्म में जनकल्याण की भावना निहित होती है। अन्यथा नीति वचन के अनुसार तो धर्महीन व्यक्ति पशु के समान ही माना गया है। धर्महीनता से राक्षसी वृत्ति हो जाती है। राक्षस और हिंसक पशु में किंचित्‌ भी अन्तर नहीं होता। नीति वचन है- 

    आहारनिद्राभय मैथुनं च सामान्यमेतत्‌ पशुभिर्नराणाम्‌।
    धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीना पशुभिः समानाः।। 

    अर्थात्‌ खाना-पीना, सोना-जागना, डरना और सन्तानोत्पत्ति, ये सब तो पशुओं और मनुष्यों में एक समान ही होते हैं, किन्तु वह धर्म ही है जो मनुष्यों में पशुओं से अतिरिक्त होता है। जो मनुष्य धर्म से रहित हैं वे पशु के समान हैं। संत तुलसीदास जी ने भी इसे इस प्रकार कहा है-

    सुत दारा अरु लक्ष्मी तो पापी के भी होय।
    संत समागम हरिकथा तुलसी दुर्लभ दोय।।

    यहॉं पर तुलसीदास जी ने पापी और धार्मिक (पुण्यात्मा) मनुष्य की तुलना की है। उनकी दृष्टि में धार्मिक मनुष्य वह है जो संतों की संगति में रहता है और परमेश्वर के गुणगान (हरिकथा) पर विश्वास करता हुआ तदनुरूप आचरण करता है। तदनुरूप आचरण और करणीय कर्त्तव्य का पालनही यज्ञ है। ऐसा यज्ञ करने वाला व्यक्ति ही धार्मिक है। जो व्यक्ति अग्निहोत्र (हवन-यज्ञ) तो करता हो, किन्तु सदाचरण न करता हो, वह व्यक्ति धार्मिक नहीं कहला सकता, यज्ञकर्ता नहीं कहला सकता।

    एक लोक कथा के माध्यम से विषय स्पष्ट हो जायेगा। भारत में प्राचीन समय से वर्णाश्रम परम्परा है, जो आज भी आंशिक रूप से प्रचलित है। यहॉं पर यह बात विशेष ध्यान रखने की है कि ये वर्ण जन्म-जात नहीं, अपितु अपने कर्म अथवा उद्योग से माने गये हैं। चारों वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इनमें वैश्य को समाज का भरण-पोषण करने वाला माना गया है। वैश्यों में अपने व्यापार के लाभांश में से कुछ प्रतिशत दान करने के लिये पृथक रखने की प्रथा है। एक अन्न के व्यापारी सेठ अन्न भण्डार गृह में फर्श पर गिरे अन्न कणों को एकत्रित कर उनकी पिसाई कुटाई करके उसकी दाल-रोटी बनवाकर अन्न-सत्र चलाते थे। अन्न-सत्र को सदावर्त भी कहा जाता है, उसमें भिक्षुओं अथवा आगन्तुकों को भोजन दिया जाता है। सेठ को यह भ्रम हो गया कि इस प्रकार अन्न-सत्र चलाकर वह पुण्य लाभ कर रहा है। किन्तु उसकी बहू इसको इस रूप में नहीं मानती थी। उसने किसी प्रकार अपने श्वसुर को समझाने का यत्न किया, किन्तु सेठ ने सुनी-अनसुनी कर दी। बहू को श्वसुर का अनिष्ट होता दिखाई दिया तो उसने एक उपाय किया। उसने अन्न-सत्र से एक रोटी के बराबर आटा मंगवाकर रोटी बनाई और श्वसुर जी जब भोजन करने बैठे, तो उनकी थाली में पहले वही रोटी परोस दी। श्वसुर ने मुंह में रोटी पड़ते ही थूथू करके उसे थूक दिया। उसके मुख का स्वाद बिगड़ गया, तो उसने बहू से इसका कारण पूछा। बहू ने समझाया कि मरणोपरान्त स्वर्ग में सेठ जी को वैसी ही रोटी तो मिलेगी, जैसी उन्होंने अन्न-सत्र के आटे की बनाने का निश्चय किया है। सेठ ने सुना तो उसका माथा ठनका। उसकी समझ में बात आई और उसने तुरन्त अपने अन्न-सत्र में अच्छे अन्न की रोटी बनवानी आरम्भ करके अपने पाप का प्रायश्चित करना चाहा। सेठ जी परिपाटी का पालन तो करते थे, किन्तु उसमें उनकी भावना सदाचरण की नहीं, अपितु केवल परिपाटी पालनमात्र की थी। इस दृष्टि से अन्न-सत्र का संचालन करते हुए भी वे धार्मिक नहीं कहे जा सकते थे। 

    महाभारत में "यक्ष युधिष्ठिर संवाद' प्रसंग में धर्म की चर्चा हुई है। यक्ष ने पूछा- "धर्म का स्थान क्या है?' युधिष्ठिर ने उत्तर दिया- "दक्षता ही धर्म का स्थान है।' दक्षता अर्थात्‌ करणीय कर्त्तव्य में दक्षता। यक्ष ने फिर प्रश्न किया- "कौन सा धर्म सबसे उत्तम है?' युधिष्ठिर ने उत्तर दिया- "सब भूतों (प्राणियों) को अभय देना ही सबसे उत्तम धर्म है।' यक्ष द्वारा एक अन्य प्रश्न के उत्तर में युधिष्ठिर ने बताया, "दया ही परम धर्म है।' इस प्रकार विस्तार से यक्ष और युधिष्ठिर के मध्य धर्म पर चर्चा हुई। संत तुलसीदास जी ने दया को धर्म का मूल मानते हुए कहा है- 

    दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।
    तुलसी दया न छोड़िये, जब लग घट में प्राण।।

    ये उदाहरण स्पष्ट करते हैं कि धर्म पालन में दया का सर्वोच्च स्थान है। दया को परम धर्म माना गया है। एक नीति वाक्य है- "धर्मस्य गहना गतिः।' अर्थात्‌ धर्म की गति बड़ी गहन है। धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति सदा अपना मस्तक ऊंचा करके ही विचरण करेगा। उसे कहीं, किसी बात पर संकुचित अथवा लज्जित होना नहीं पड़ेगा।

    धर्म का किसी मजहब, रिलिजन, पंथ अथवा सम्प्रदाय के कृत्यों से कोई सरोकार नहीं। उसका सम्बन्ध तो मनुष्यमात्र के करणीय कर्त्तव्य से है। वेदशास्त्रों ने इसे ही यज्ञ का नाम दिया है और वेद ने कहा- अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः। अर्थात्‌ यह यज्ञ भुवन की, समस्त संसार की नाभि अर्थात्‌ केन्द्र बिन्दु है। धार्मिकता ही संसार का मुख्य केन्द्र-स्थल है। - आचार्य डॉ. संजयदेव

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    Religion has been called Yajna because the spirit of public welfare is contained in religion. Otherwise, according to the policy promise, a religious person is considered as an animal. Religion leads to demonic instinct. There is also no difference between demons and violent animals.

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  • नेताजी सुभाष की अग्नि परीक्षा

    नेताजी सुभाष को अनेक अग्नि परीक्षाओं में से गुजरना पड़ा था। एक बार उन्होंने भारत के सबसे बड़े राजनीतिक नेता महात्मा गान्धी तक को चुनौती दी थी। उनकी इच्छा के विरुद्ध डॉ. पट्टाभिसीतारामैया के मुकाबले में चुनाव लड़ा था और चुनाव जीत गये थे। हाथी ने हिमालय को परे धकेल दिया था। जन साधारण के मानस पर सुभाष के छाये रहने के बाद भी कांग्रेस संगठन पर गान्धी भक्तों की जकड़ पक्की थी। जवाहरलाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि नेता सुभाष के नेतृत्व को सहन नहीं कर पा रहे थे। रामगढ़ कांग्रेस के बाद एक वर्ष तो उन्होंने जैसे-तैसे सुभाष बाबू को सह लिया था, पर त्रिपुरा कांग्रेस में उन्होंने खुल्लमखुल्ला विद्रोह कर दिया। गान्धी जी समेत सभी ने कांग्रेस कार्यसमिति में सम्मिलित होने से इन्कार कर दिया। 

    Ved Katha Pravachan _79 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    पद तभी तक, जब तक आदर से मिले - सुभाष के लिए यह अग्नि परीक्षा की घड़ी थी। अन्त में उन्होंने कांग्रेस-अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया, जिससे कांग्रेस में एकता बनी रहे और स्वाधीनता आन्दोलन में कोई बाधा न पड़े। इस संघर्ष में सुभाष आग की लपट की तरह दमकते रहे, प्रतिद्वन्दियों के हिस्से में केवल राख की कालिमा ही आई।

    ईर्ष्या भुजंगिनी - निःसन्देह वे सभी त्यागी, तपस्वी, बलिदानी देशभक्त थे। परन्तु वे अपने सिवाय अन्य किसी को ऐसा देशभक्त नहीं देखना चाहते थे, जो उनसे बढ़कर हो। यही विडम्बना है! विद्वान किसी को अपने से बड़ा विद्वान्‌ नहीं देखना चाहता, वीतराग संन्यासी-महात्मा किसी को अपने से बड़ा वीतराग नहीं देखना चाहता। बलिदानी अपने से बड़े बलिदानी से खार खाता है। जो खार न खाये, वह देवता होता है। 

    सुभाष की दूसरी अग्निपरीक्षा तब हुई, जब वह न जाने किसी धुन में कालकोठरी (ब्लैकहोल) स्मारक को हटाने के लिए सत्याग्रह कर बैठे। सरकार ने अच्छा बहाना पाकर उन्हें जेल में डाल दिया।

    महापलायन - सुभाष ने कहा कि मैं कुछ व्रत-अनुष्ठान करना चाहता हूँ, इसलिए कुछ दिन बिलकुल एकान्त में रहूंगा, किसी से भी मिलूंगा नहीं। उनका भोजन पर्दे के नीचे से उनके कमरे के दरवाजे पर रख दिया जाता था और बाद में जूठे बर्तन वहीं से उठा लिये जाते थे। इस तरह दो-तीन सप्ताह बीत गये।

    मौलवी जियाउद्दीन - इस अवधि में हुआ यह कि उनकी दाढ़ी बढ़ गई। उनकी शक्ल बदल गई। एक रात वह मुसलमान मौलवी का वेश बनाकर बाहर निकल गये। पुलिस और गुप्तचर धोखा खा गये। कलकत्ते से 120 किलोमीटर कार से जाने के बाद एक छोटे से स्टेशन से उन्होंने पेशावर जाने वाली गाड़ी पकड़ी। उस समय के सैकंड क्लास के डिब्बे में वह जियाउद्दीन नाम से मौलवी के भेष में बैठे रहे। एक गुलूबन्द से उन्होंने अपना चेहरा काफी कुछ ढक रखा था। गले में कष्ट है, ऐसा दिखाकर वह बातचीत को टाल देेते थे।

    नया हनुमान भगतराम - पेशावर स्टेशन पर उन्हें लेने के लिए एक आदमी आया हुआ था। अन्य किसी ने उन्हें पहचाना नहीं। भगतराम नामक एक साहसी, सूझबूझ वाले युवक के साथ वह पेशावर से काबुल गये। तब तक कलकत्ते से उनके गायब होने का समाचार रेडियो पर प्रसारित हो चुका था और सारे भारत की पुलिस उनकी खोज में थी। प्रतिपल पकड़े जाने का खतरा था। ऐसी दशा में डेढ़ महीने उन्हें काबुल में रहना पड़ा। अन्त में एक दिन मार्च 1942 में बर्लिन रेडियो से उनकी आवाज सुनाई पड़ी- "मैं सुभाषचन्द्र बोस बर्लिन से बोल रहा हूँ।'' भारतीय जनता यह सुनकर आनन्द से पागल हो उठी। अंग्रेज और कांग्रेसी मन मसोसकर रह गये। सुभाष फिर आगे निकल गया था।

    सिंगापुर में - सुभाष की सबसे बड़ी अग्नि परीक्षा सिंगापुर में हुई। जापानियों ने सिंगापुर पर कब्जा करते समय जो युद्धबन्दी बनाये थे, उनमें 45000 भारतीय सैनिक भी थे। प्रसिद्ध भारतीय क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस ने उन्हें अपने पक्ष में करके एक आजाद हिन्द फौज बनानी चाही थी। पर इस कार्य में उन्हें यथेष्ट सफलता नहीं मिली थी। उधर सुभाष ने जर्मनी में एक आजाद हिन्द फौज बनाने का यत्न किया था। वहॉं लीबिया और मिस्र की लड़ाइयों में पकड़े गये भारतीय सैनिक जर्मनों के कब्जे में थे। बाद में यह उचित समझा गया कि सुभाष पनडुब्बी से जापान जायें और वहॉं आजाद हिन्द फौज बनाकर भारत को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने का यत्न करें।

    नमकहलाल युद्धबन्दी - सुभाष सिंगापुर पहुंचे। वहॉं उन्होंने भारतीय युद्धबन्दियों से बात की। ये इंग्लैड के राजा के प्रति निष्ठा की शपथ से बन्धे हुए लोग थे। ये जिसका अन्न खाया है, उसके लिए खून बहाने को उद्यत लोग थे। भारत की स्वतन्त्रता के लिए आन्दोलन करने वालों को ये बागी और गद्दार समझते थे। यदि इनके हाथ में हथियार होते, तो अफसर का आदेश होते ही ये बागी सुभाष को गोली से उड़ा देने में एक क्षण का विलम्ब न करते। और अफसर, गोली मारने का आदेश देने से पहले एक पल सोचते तक नहीं। "आल इंडिया रेडियो' दिन-रात सुभाष को बागी और गद्दार कह-कहकर कोसता था।

    नेहरू जी का ऐलान - इन सैनिकों का ही क्या दोष था, जब जवाहरलाल नेहरू तक ने घोषणा की थी, "यदि सुभाष ने जापानी सेना की सहायता से भारत पर आक्रमण किया, तो मैं तलवार लेकर उससे लडूंगा।'' 

    बेचारे नेहरू जी! तलवार उन्होंने देखी अवश्य होगी, परन्तु यह उन्हें पता नहीं होगा कि उसे पकड़ा किधर से जाता है और चलाया कैसे जाता है? फिर वे कांगे्रस के सदस्य होने के नाते अहिंसा की शपथ से बन्धे थे, गान्धी जी की अहिंसा की शपथ से- "कोई तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल उसके आगे कर दो। पलटकर प्रहार करने का विचार भी मन में मत लाओ।" यह उनका सौभाग्य था कि कभी किसी ने उन्हें थप्पड़ नहीं मारा। इसलिए यह पता नहीं चल सका कि वे अहिंसा व्रत पर कितने दृढ़ हैं। फिर, उनकी वह अहिंसा केवल अंग्रेजों के लिए थी। सरकार के सुर में सुर मिलाकर अनेक कांग्रेसी नेता चिल्ला रहे थे- "सुभाष बागी है, सुभाष देशद्रोही है।'' यह शोर इतना मचा कि आखिर गान्धी जी को कहना पड़ा- "सुभाष की देशभक्ति में कोई सन्देह नहीं है। वह हममें से किसी से भी कम देशभक्त नहीं है। पर उसका लड़ने का तरीका गलत है।''

    युद्धबन्दियों का विकट रुख - सिंगापुर के भारतीय युद्धबन्दियों का रवैया इससे कहीं अधिक उग्र था। अफसरों ने देहरादून और सैंडहर्स्ट की रक्षा अकादमियों में शिक्षा पाई थी। अंग्रेजों की कृपा से वे वैभव और प्रभुत्व का जीवन बिता रहे थे। अब बदकिस्मती से वे युद्धबन्दी थे, परन्तु भारतीय वीरों की परम्परा उनके खून में थी- "कट जाये, सिर न झुकना...।" 

    फिर शपथ भंग! राजद्रोह! यह तो सपने में भी सोचने की बात नहीं थी। उन्होंने सुभाष से मिलने और बात करने से ही इन्कार कर दिया। सुभाष को उन्होंने अपने स्तर का ही नहीं माना। सुभाष को अपनी दशा उस हिरन सी लगी, जो अपने सींगों से पहाड़ के टीले को उखाड़ना चाह रहा हो।

    सैनिक समझदार - वह साधारण सैनिकों से मिले और उन्हें अपनी बात समझाई- "तुम कहते हो कि तुमने अंग्रेजों का अन्न खाया है? वह अन्न अंग्रेजों का नहीं था। वह भारत का अन्न था। वह इंग्लैंड में नहीं उपजा था। वह पंजाब, हरियाणा और गंगा-जमना के मैदानों में उपजा था। तुम्हारी निष्ठा भारत के प्रति होनी चाहिए। तुम्हारा देश भारत है। खून बहाना है, तो उसकी आजादी के लिए बहाओ।''

    सैनिकों को सुभाष की बात समझ आ गई। उन्होंने अफसरों को समझाया कि आप लोग नेता जी से बात तो करें। असली सिक्का "खन्‌ खन्‌' बजता है। सुभाष खरा सोना था, बाहर-भीतर एक। उसकी वाणी में सत्य का बल था। शासक की कैद से भागकर जान हथेली पर लिये परदेस में मारा-मारा फिर रहा था। सबको पता था कि उसने आई.सी.एस. की ठाठ की नौकरी को लात मार दी थी। नहीं तो शायद यह आज उन पर ही हुक्म चलाता होता। 

    किसकी शपथ ? कैसी शपथ ! युद्धबन्दी अफसरों ने सुभाष से बात की, तो आग की तपन उन्हें लगी। सुभाष की यह बात उन्हें समझ आ गई कि कोई भी अन्यायपूर्ण, अधर्मपूर्ण शपथ पालने योग्य शपथ नहीं है। अपने देश पर किसी विदेशी का शासन बनाये रखने की शपथ न्यायपूर्ण शपथ नहीं हो सकती। अपनी मातृभूमि की दासता के बन्धनों को काट डालना ही सबसे बड़ा धर्म है। 

    एक बार बान्ध टूटा, तो सारा ही जल प्रवाह उमड़ पड़ा। मेजर जनरल शाहनवाज, सहगल, गुरदयाल सिंह ढिल्लो, कर्नल दारा और गिलानी, दौड़-दौड़कर आजाद हिन्द फौज में सम्मिलित हो गये। वे सुभाष के जितना निकट आते गये, हिमालय के शिखर की भांति वह उन्हें अपने से अधिक और अधिक ऊँचे लगते गये। जब कोहिमा के मोर्चे पर युद्ध शुरू हुआ, तब आजाद हिन्द फौज के हर सैनिक और अफसर ने स्वयं को धन्य माना कि उसे नेताजी सुभाष के नेतृत्व में मातृभूमि की सच्ची सेवा करने का अवसर मिला। -वैद्य विद्यारत्न

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  • प्रखर राष्ट्रभक्त लाला लाजपतराय

    इस युग में देश की श्रद्धा-विभोर जनता ने दो महामानवों को पंजाब केसरी की उपाधि से अलंकृत किया है। उनमें से प्रथम थे महाराज रणजीतसिंह। 18 दिसम्बर 1854 को जन्म हुआ मुन्शी राधाकिशन का, जिनकी प्रथम सन्तान के रूप में पंजाब को अपना दूसरा केसरी प्राप्त हुआ। अपने देश और धर्म के लिए जिस प्रकार का स्वाभिमान, अपने हिन्दूपन के लिए जितनी तड़प और उसका अपमान अथवा हानि होते देखकर जितनी तीव्र प्रतिक्रिया लाला लाजपतराय में जीवन भर होती रही, उसे देखकर यह आश्चर्यजनक लगता है कि उनके पिता अपनी आधी उम्र तक केवल नाम के हिन्दू थे। नहीं तो रमजान के दिनों में रोजे रखने में, हर रोज पॉंच बार नमाज पढ़ने में और कुरान आदि मुस्लिम ग्रन्थों के पारायण में शायद ही कोई मुसलमान उनसे बाजी ले पाता होगा। यह उनके उस्ताद का प्रभाव था, जिसके परिणामस्वरूप उनके अनेक सहपाठी विधिवत्‌ इस्लाम स्वीकार कर चुके थे।

    Ved Katha Pravachan _78 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    मुस्लिम संस्कृति में पोषित पिता - मुन्शी राधाकिशन कलमा पढ़कर बाकायदा मुसलमान नहीं बने। इसका श्रेय बहुत अंश में उनकी पत्नी गुलाब देवी को ही है। मुन्शी जी ने अपने मुसलमान मित्रों को घर पर बुलाकर उनकी इच्छानुसार कई बार मांसादि का भोजन करवाया और कभी-कभी उनके यहॉं से पका हुआ भोजन लाकर खाया। यह सब उनके जैन मत, (अग्रवाल वैश्य) के लिए कितना सह्य था यह तो अलग प्रश्न है। किन्तु इसने उस साध्वी नारी के जीवन को अत्यन्त दुःखित बना रखा था और कई-कई दिन तक उसने गम के सिवा कुछ न खाकर और आंसू पीकर काटे थे। गोद के शिशु पर उसने अपनी ममता भी उंडेली और उसी पर अपनी सारी आशाएं भी केन्द्रित की। परन्तु सारी व्यथा सहकर भी कभी उसने उन्हें छोड़ जाने की कल्पना को पास तक नहीं आने दिया।

    एक बार तो मुन्शी जी ने इस्लाम की दीक्षा लेने का फैसला कर ही डाला और पत्नी व बालक को लेकर मस्जिद में जा पहुंचे। परन्तु सती नारी के अन्तर्मन की पीड़ा उसकी आंखों की मूक वाणी से कुछ ऐसी प्रकट हुई कि बाहर सीढ़ियों पर ही बाल लाजपत चीखकर रोने लग पड़ा। बसइस रुदन से मुन्शी राधाकिशन के दुर्बल मन का अस्थिर निश्चय डगमगा गया और वे लौट आए। आगे चलकर लाला जी ने शुद्धि का जो कार्य करना था उसका भी श्रीगणेश जैसे साक्षात्‌ अपने पिता से शैशवावस्था में ही उन्होंने कर दिया। परन्तु माता के दुःख और पिता के व्यामोह को दूर करने में अभी उन्हें देर लगने वाली थी।

    विद्यार्थी जीवन- लाला लाजपतराय को पढ़ने की लगन पिता से विरासत में मिलीपरन्तु गरीबी के कारण उनका विधिवत्‌ शिक्षण न हो पाया। जहॉं-जहॉं उनके पिता अध्यापक रहेप्रायः उन्हीं स्कूलों में वे पढ़े। शिक्षाकाल में ही वे दो-तीन बार लाहौर आए तो उन्हें दो साथी मिले- गुरुदत्त और हंसराज। कुछ समय पूर्व ही वहॉं आर्यसमाज की स्थापना हो चुकी थी और वे दोनों उस रंग में रंगे हुए थे। इस मैत्री से और इसके द्वारा आर्यसमाज के जो संस्कार लाजपतराय को मिलेउनसे उन्हें देश-जाति की सेवा का संकल्प प्राप्त हुआ। हंसराज में जो सरल सेवा की वृत्ति थीगुरुदत्त में जो बौद्धिक प्रतिभा थी और लाजपतराय में जो उग्र देश-प्रेम तथा करुणा का सागर थाउनके मिश्रण से ये त्रिमूर्ति आर्यसमाज की नींव बन गई। गुरुदत्त तो अकाल मृत्यु के ग्रास बनेपरन्तु लाला लाजपतराय और महात्मा हंसराज की मैत्री आजीवन रही।

    समाज सेवा - लाजपतराय अत्यन्त भावुक प्रकृति के थे। स्वभाव की भावना प्रधानता के कारण उन्हें जहॉं कहीं कष्ट दिखाई पड़ाचाहे वह राजपूताना का अकाल थाचाहे कांगड़ा का भूकम्पवहीं पहुंचे और जन-जन के कष्ट को कम करने में जुटे। पैसा उन्होंने कमाया पर उसमें मन नहीं लगायाउसे जीवनपूर्ति का प्रमुख कार्य नहीं बनाया। यही नहींउन्होंने अन्याय के विरुद्ध सदा आवाज उठाई। कौन कितना बड़ा हैइसकी परवाह किए बगैर उन्होंने अन्यायपूर्ण बात का विरोध किया।

    मुस्लिम कांग्रेस अध्यक्ष को उत्तर - ऐसा ही एक प्रसंग थाजब 1923 में काकीनाडा कांग्रेस के अध्यक्ष पद से मौलाना मुहम्मद अली ने कहा था कि हिन्दू अपनी अछूत जाति की समस्या हल नहीं कर सकते। इसलिए क्यों न उन्हें आधा-आधा बांट लिया जाये! आधे अछूत मुसलमानों को दे दिए जाएं। यह तर्क जितना लचर और निर्लज्ज थाउतना ही हिन्दू भावना पर चोट करने वाला भी था। बाकी लोग भले ही इस अपमान को पी सकेपरन्तु लालाजी की प्रतिक्रिया बहुत तीव्र थी- "यह हमारा घरेलू प्रश्न है। किसी और के दखल की इसमें जरूरत नहीं। हिन्दू ही छूआछूत की समस्या का हल करेंगे। फिर अछूत जातियॉं क्या ढोर पशु हैंजिनके इस तरह बंटवारे की बात की जा रही है?''

    हिन्दू भाव उनके हृदय में क्यों रहता थाइसका उत्तर उन्हीं के शब्दों में यह है- "यदि स्वराज्य लेने के लिए हमारी आतुरता हमें धर्म बदलने की प्रेरणा दे और हम ईसाई बनेंतो यह एक प्रकार की स्वतन्त्रता अंग्रेज हमें देंगे। परन्तु स्वराज्य तो सच्चे अर्थों में तभी होगाजब हम अपने स्वरूप में स्थिर रहकर राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करें। हमारा स्वरूप है हमारा धर्महमारी संस्कृति और हमारी अपनी देशगतजातिगत भावनाएं। उन्हें त्याग कर मिलने वाला स्वराज्यस्वराज्य नहीं है।''

    जब वे कांग्रेस में रहे तो ऐसे उत्साह के साथ जो सरल व सच्चे हृदयों में ही हो सकता है और जो हर कदम पर हानि-लाभ का विचार करने का अभ्यस्त नहीं होता। वह "आग से खेलता है तो झुलस जाने के लिए तैयार भी रहता है।'' और इसमें कोई दो मत नहीं कि ब्रिटिश सरकार के साथ संघर्ष में इन प्रश्नों पर उलझने के अवसर उनके लिए अनेक आए।

    हिन्दूपन का भाव - राजनैतिक क्षेत्र में पदार्पण से लाला लाजपतराय के जीवन का दूसरा चरण प्रारम्भ होता है। कांग्रेस की स्थापना के समय से ही अलीगढ़ के सर सैयद अहमद ने मुसलमानों को उससे अलग रखने का झण्डा उठा लिया था। उनके लेखों के उत्तर में अनेक पत्र उन्हीं के पुराने विचारों के हवाले से छपे। चाहे वे पत्र गुमनाम थेपरन्तु अधिक दिन तक यह छिपा न रहा कि वे किस लेखनी का प्रसाद थे। उनके कारण लाला जी की जो प्रसिद्धि हुईउसका परिणाम यह था कि कांग्रेस के संस्थापक श्री ह्यूम और पण्डित मालवीय आदि ने प्रयाग कांग्रेस के समय उनका स्वयं स्टेशन पर स्वागत किया और श्री ह्यूम ने उन चिट्ठियों का स्वयं सम्पादन करके पुस्तकाकार में प्रकाशित किया। लाला जी सम्भवत पहले व्यक्ति थेजिन्होंने तब अंग्रेजी में काम करने वाली कांगे्रस के अधिवेशन में हिन्दी में भाषण दिया। उनकी असाधारण वक्तृत्व शक्ति ने उन्हें शीघ्र ही संस्था की चोटी के नेताओं की श्रेणी में ला खड़ा किया।

    बंग-भंग आन्दोलन में - और तब 1905 में आया बंग-भंग का वह निर्णयजिसके विरोध में 'लाल-बाल-पालकी त्रिमूर्ति गरम दल के रूप में देश के उद्‌गारों का प्रतिनिधित्व करने लगी। प्रिंस ऑफ वेल्स के स्वागत के प्रश्न पर बनारस अधिवेशन में कांग्रेस के नरम और गरम दलों में टक्कर हो गई। इसके बाद जागृति की जो लहर देश भर में चली वह मीठे-मीठे भाषणोंसरकार के नाम भेजे गये आवेदन पत्रों और 'गॉड सेव द किंगके गायन की मर्यादाओं को ध्वस्त करके 'स्वराज्यस्वदेशी और बहिष्कारके मन्त्रों के रूप में चारों दिशाओं में व्यापक हो गई। इस नए जागरण के निर्माता यदि महाराष्ट्र में लोकमान्य तिलक और इनका 'केसरीथेतो पंजाब में लाजपत राय और उनका 'पंजाबीतथा बंगाल में विपिनचन्द्र पाल और अरविन्द घोष के सम्पादन में चलने वाला 'वन्देमातरम्‌'। लाला जी की वाणी में ओज तो था हीअब वह आग बरसाने लगी। नौकरशाही इस ताक में रहने लगी कि उनको किस प्रकार रास्ते से हटाए। तभी पंजाब में नहरी आबादियों के कानून के विरुद्ध आन्दोलन चला। सही या गलत यह धारणा कृषकों में घर कर गई कि अंग्रेज कानून द्वारा उत्तराधिकार के नियम को बदलने की तैयारी में है। लाला जी आन्दोलन के समर्थक तो थेपर उसमें सक्रिय नहीं हुए। किन्तु चाहते हुए भी वे खिंचकर उसमें उलझ ही गए। लायलपुर की एक सभा में वे अध्यक्ष बनाए गए। वहीं भगतसिंह के चाचा अजीत सिंह ने भाषण दियाजो काफी विद्रोहपूर्ण था।

    नरम और गरम दल - अजीत सिंह और लाजपतराय दोनों को 1818 के पुराने रेगुलेशन के अधीन निर्वासन का दण्ड दिया गया। 6 महीने की कैद के बाद लाला जी मांडले जेल से रिहा होकर लौटे। इस कैद ने उनकी कीर्ति को दिग्‌दिगन्त तक फैला दिया। उसके शीघ्र बाद ही सूरत कांग्रेस का अधिवेशन था। जनता के हृदयों पर तो लाला जी का शासन था और तिलक भी चाहते थे उन्हीं को अध्यक्ष बनाना। परन्तु लाला जी दलबन्दी में पड़ना न चाहते थे। अधिवेशन तो मार-पिटाई और उछलते जूतों की गड़गड़ में समाप्त हो गया। साथ ही यह स्पष्ट हो गया कि नरम और गरम दल वालों के रास्ते बिलकुल फट गये हैं। लाला जी ने कांग्रेस को छोड़ा तो नहीं पर विरक्ति उन्हें अवश्य हो गईकांग्रेस से ही नहीं राजनीति से भी। कुछ काल के लिए उन्होंने फिर आर्यसमाज के क्षेत्र को अपना लिया। 1914 में वे इंग्लैंड चले गये। वे वहीं थे जब महायुद्ध शुरू हो गया।

    युद्ध नीति - अब भारतीयों और कांग्रेस के सामने यह प्रश्न था कि उनकी नीति युद्ध के बारे में क्या होगांधी जी बिना किसी शर्त के सरकार की सहायता करने के पक्ष में थे। लाला जी का दृष्टिकोण क्या था? "मैं युद्ध में अंग्रेजों की सहायता के विरोध का आन्दोलन चलाने के पक्ष में तो नहीं था। मैं तो उनकी युद्ध नीति का समर्थन करने को भी उद्यत थायदि उसमें हमारे युवकों को भी सेना में प्रतिष्ठित पदों की प्राप्तिशस्त्रास्त्र के प्रयोग तथा युद्धकला में निपुणता प्राप्त करने का अवसर मिल जाता। सरकार ने ये दोनों बातें अस्वीकार कर दीं।.... इस दशा में मैं बिना किसी शर्त के युद्ध में भर्ती होने को तैयार नहीं था। परन्तु मेरे देश के शिक्षित नेताओं का मत इससे भिन्न था।'' लाला जी व तिलक जी दोनों का दृष्टिकोण एक ही था जो कि गांधी जी तुलना में यथार्थवादी भी था और जो कम से कम आज तो स्वीकार किया जा सकता है। अधिक दूरदर्शिता पूर्ण भी था। लाला जी और तिलक जी का दृष्टिकोण! इसी दूरदर्शिता ने लाला जी को देश न लौटने तथा कहीं नजरबन्द हो जाने के स्थान पर बाहर रहने के लिए प्रेरित किया। वे फरवरी 1920 तक नहीं लौटे।

    निरंकुश लाठियॉं - लौटे तो ब्रेडला हाल के पीछे मैदान में उनका पहला भाषण हुआ। उसमें उनकी अंग्रेजों को चुनौती थी- "खिचड़ी पक रही है। न खाएंगे न खाने देंगे। न सोएंगेन सोने देंगे! मंजिल पर पहुंचे बिना चैन न लेंगे।'' और सच में वह महापुरुष न सोया न उसने प्रतिपक्षी को सोने दियाजब तक निरंकुश शासकों की लाठियों ने उसे सदा की नींद न सुला दिया। उन लाठियों के विषय में लाला जी के शब्द किसी भी क्रांति की चिनगारी से कम ज्वलन्त नहीं थे- "हम पर की गई एक-एक चोट ब्रिटिश साम्राज्य के कफन में एक-एक कील सिद्ध होगी!'' उन्होंने यह भी कहा कि ''यदि मैं मर गया और जिन नवयुवकों को मैंने काबू में रखा हुआ थाउन्होंने शांतिपूर्ण उपायों के अतिरिक्त अन्य मार्ग ग्रहण करने का निश्चय कियातो मेरी आत्मा उनके कार्य को आशीर्वाद देगी!''

    अपने निर्वांण समय के निकट मद्रास समुद्र तट पर हुई एक विशाल सभा में जो कुछ लाला जी ने कहावह उनके जीवनभर के भावों को अत्यन्त सुन्दर ढंग से प्रकट करता है- "अब जब जीवन की संध्या होते देखता हूँ और सिंहावलोकन करता हूँ तो खेद होता है कि जिस माता की कोख से जन्माजिसकी गोद को मलमूत्र से अपवित्र कियाजिसका स्तन पियावह माता बन्धन में ही है और मेरे जीवन के सूर्य का अस्ताचल की ओर प्रयाण तीव्रगति से हो चला है। माता के बन्धन तोड़ने के लिए मैंने कुछ नहीं कियाइसी की तीव्र वेदना मुझे व्यथित करती रहती है।''

    आज जब माता के बन्धन टूट चुके हैंलाला लाजपतराय और उनके अन्य साथियों के आदर्श कहॉं तक पूरे हो रहे हैंआज की राजनीति की ऊहापोह में मन खोजता है ऐसे साहसी व उदात्त चरित्रों कोजिन्होंने आदर्शवाद से प्रेरित होकर जीवन को यज्ञ बनाया होजिनके श्वासों में देशप्रेम होजिनकी धड़कनों में राष्ट्र की व्यथा हो। कहॉं हैं ऐसे राजनीतिज्ञ जो स्वयं को उन महापुरुषों के उत्तराधिकारी कह सकेंजिन्होंने पत्थर बनकर स्वातन्त्र्य मन्दिर की नींव को भरा था?

    यदि स्वराज्य लेने के लिए हमारी आतुरता हमें धर्म बदलने की प्रेरणा दे और हम ईसाई बनें तो यह एक प्रकार की स्वतन्त्रता अंग्रेज हमें देंगे। परन्तु स्वराज्य तो सच्चे अर्थों में तभी होगा जब हम अपने स्वरूप में स्थिर रहकर राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करें। हमारा स्वरूप है हमारा धर्महमारी संस्कृति और हमारी अपनी देशगतजातिगत भावनाएँ। उन्हें त्यागकर मिलने वाला स्वराज्यस्वराज्य नहीं है। -डॉ. भाई महावीर (पूर्व राज्यपालम.प्र.)

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  • प्रभु से मांगना सीखिए

    हम सब याचक हैं, मांगते हैं। मांगना, याचना करना हमारी आदिम मनोवृत्ति है। परमपिता परमात्मा से, परमशक्ति से मांगना मानव की आदिम प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से सिद्ध है। हम आपस में मांगते हैं तो छोटे-बड़े आदि का भेद होता है। पर परमात्मा से मांगने में हम सब एक हैं। वहॉं ऊँच-नीच, अमीर-गरीब का कोई भेद नहीं। सब अपने-अपने स्तर के अनुसार अपनी मनोकामना याचना के रूप में प्रभु के समक्ष प्रस्तुत कर देते हैं। चूँकि प्रभु चैतन्य हैं, अन्तर्यामी हैं अत: सबकी याचनाएँ उनके द्वारा प्रस्तुत करने के पूर्व ही जान लेते हैं। सरल भाषा में कहें तो सबकी प्रार्थनाएँ सुन लेते हैं।

    Ved Katha Pravachan _103 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    सृष्टि रचयितानियन्ता एवं सर्वशक्तिमान प्रभु की सत्ता समझने से पहिले जरा कुछ दृश्य देखिए । विश्व की अथाह सम्पदा के ज्ञात धनाढ्‌यों में बिल गेट्‌सअरब अमीरात के सुल्तानलक्ष्मी मित्तल और भारत के अम्बानी बन्धुटाटाबिड़ला। इनमें से कोई एक धनपति प्रात: कालीन सूर्योदय की स्वर्णिम प्रभा का आनन्द उठाने कन्याकुमारी के तट पर भ्रमण कर रहा है। शीतल मन्द समीर ने वातावरण को बहुत ही सुखद बना दिया है। इस वातावरण ने कुछ समय के लिये ही सहीउसकी चिन्ताओं का भार हल्का कर दिया है। मन प्रफुल्ल है। इतने में ही एक भिखारी टकरा गया। बाबाभीख दोबाबा नाम से सम्बोधित धनिक ने पूछाक्या चाहिएउत्तर मिलाचवन्नी का जमाना चला गया। एक रूपया लूंगा। बाबा ने कहा- कुछ औरभिखारी समझा कुछ नहीं देना चाहता इसलिए कुछ और कह रहा है। कहा- मैं एक रुपया मांगता हूँदेना हो तो दे दो। लक्ष्मी-मित्तलबिल गेट्‌स सोचता है कि इस अज्ञानी को मालूम नहीं कि मैं कौन हूँक्या कुछ दे सकता हूँऔर यह एक रुपया ही मांग रहा है। यह तो आज की स्वर्णिम बेला में कुछ भीलाख दो लाख मांगता तो भीमैं एक क्षण सोचे बिना इसे दे देता। बाबा ने एक रुपया दे दिया। मांगने वाला खुशदेने वाला नाखुश। प्रभु से मांगने में हम समस्त मानवों की यही स्थिति रहती है। हम सब अपनी-अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिये ही प्रभु से याचना करते हैं और नहीं जानते कि वह क्या कुछ दे चुका है अथवा दे सकता है।

    प्रभु के समक्ष हम मानव क्या याचना करते हैंजरा देखिए तो-

    कुम्हार याचना करेगासूरज तपता रहे। जितना ज्यादा तपेगा उतनी जल्दी उसके मिट्‌टी के बर्तन सूखेंगे। किसान प्रभु से मांगेगा कि घनघोर वर्षा होउसकी जोती-बोई फसल लहलहा जावे। मुकदमे के दोनों पक्षधर मांगेंगे उसकी विजय हो। हत्याबलात्कारजघन्य सामूहिक हत्याओं के जिम्मेदार निरंकुश तानाशाह भी अपनी जिन्दगी की भीख मांगते होंगेआजकल के राजनेता बड़े जोश-खरोश से यज्ञ-यागभजन-पूजन कर याचना करते हैं कि प्रभु उनकी पार्टी की जीत हो और उन्हें जनता का खून-चूसने का मौका एक बार और मिले। सन्तानहीन महिला लड़ाई होने पर पड़ोसन की नवागता पुत्रवधु को शाप देती हुई प्रभु से प्रार्थना करेगी कि यह निपूती मर जायेइसके वंश का नाश हो जाये। विद्यार्थी अध्ययन न करने पर भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने की मांग रखेंगे। हिन्दू मंगतों की स्थिति बड़ी दयनीय है । वह यह भी नहीं देखते कि किस देवता से क्या मांगना चाहिए। यदि युवतियॉं हनुमान जी से प्रेम में सफलता या उत्तम वर पाने की मांग रखें तो हनुमान जी ऐसे संकट में पड़ेंगे कि संकटमोचन उपाधि तत्काल उतारने को जी चाहेगा। यही स्थिति तब भी होगी जब कोई विवाहिता महिला उनसे पुत्र मांग बैठे।

    यही नहीं किसी एक देवता पर भी हिन्दू भक्त को विश्वास नहीं है। यदि हनुमान जी प्रसन्न नहीं होंगे तो राम जीयदि राम जी भी नहीं तो सीताराधाकृष्णशिव-पार्वती कोई तो होगातैंतीस करोड़ हैं। यदि इनसे भी काम नहीं बना तो पीर साहब हैंवह (हिन्दू भक्त) यह भी नहीं सोचता कि जिन पीर साहब से वह मांग रहा हैउनका शव तो खुद कब्र में पड़ा कयामत का इन्तजार कर रहा है। बहुतायत हिन्दू मूर्तिपूजक तो हैं हीशव पूजक भी सिद्ध हैं। गुरुद्वारे में भी तो अरदास लगाई जा सकती है। जालंधर के एक गुरुद्वारे में विदेश यात्रा के इच्छुक भक्तों को सौ रुपये से लेकर पांच सौ तक का वायुयान चढावे में देने पर गुरुग्रन्थ साहिब अवश्य मनोकामना पूरी करेंगे- आश्वासन दिया जा रहा है। प्रेम-प्रसंगों की बात ही छोड़िए ऐसी असंख्य मांगें प्रभु के सामने प्रस्तुत की जाती हैं।

    ऐसी मांगों की पूर्ति के करने के लिये भगवान को रिश्वत देने का प्रस्ताव भी बड़ी सुन्दरता से किया जाता है। यह तो आम प्रार्थना है। हे प्रभु ! यदि आप मेरी याचना स्वीकार कर लेंगे तोमांग पूरी कर देंगे तो आपको सवा किलो का प्रसाद चढाऊँगा/चढाऊँगी। यह सवा किलो से सवा मनफिर प्रसाद का प्रकार परिवर्तन चढावा-चादर से लेकर चांदीअपार सम्पत्ति इकट्‌ठी होती जा रही है। भगवान के पास पहुँचती नहीं दिखती। ठीकउसी प्रकार जिस प्रकार श्राद्ध पक्ष में पण्डितोंकौवों को खिलाया हुआ पितरों तक स्वर्ग पहुँचता नहीं दिखता।

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    हमारे में से कुछेक की मनोकामना पूरी हुई तो हजार मुख से प्रचारित होगा कि ऐसी उल्टी-सीधी मनोकामना की पूर्ति भी भगवान करता हैयदि यह कामना/याचना "सच्चे मन" से की जावे। "सच्चे मन का तत्व" इसलिये प्रविष्ट करा दिया जाता है कि यदि कामना की पूर्ति नहीं हुई तो आरोप जड़ा जा सकता है कि तुम्हारा मन "सच्चा" नहीं था। गणेश जी ने भी दुग्धपान किसी आर्यसमाजी से नहीं किया होगाक्योंकि इस काम के लिये उसका मन सच्चा नहीं माना जायेगा। यह व्यक्ति आर्यसमाजी हैजानकर किसी गणेश भक्त ने उस आर्यसमाजी से अनुरोध भी नहीं किया होगा कि वह गणेश प्रतिमा को दुग्धपान करावे। गणेश जी ने दुग्धपान किया थाइसका कारण र्डीीषरलश ींशपीळेप को बताते हुए वैज्ञानिक आधार प्रदान करने का प्रयास जिस भारतीय वैज्ञानिक ने किया था वह भी संस्कारवश पौराणिक परिवार में ही उत्पन्न हुआ होगा।

    थोड़ा व्यतिरेक हो गया दिखता हैलेकिन ऊटपटांग कामनाओं की पूर्ति ईश्वर करता है या नहींइसका स्पष्ट विवेचन आवश्यक प्रतीत हुआ। वास्तविकता ऐसी नहीं है। वेद का ईश्वर यदि पौराणिकों के ईश्वर की तरह किया करता तो मुस्कराता और कहता- ये याचक न मुझे समझते हैं और न मेरी रचना सृष्टि को। इस सम्पूर्ण सृष्टिकेवल यह पृथ्वी ही नहींचॉंद-सितारेअसंख्य सूर्यअसंख्य आकाश गंगाएँइन सबका रचयितानियन्ता मैंसर्वशक्तिमाननिराकार परब्रह्म हूँ। समस्त कार्य-व्यापारों का नियम न्यायपूर्वक करता हूँ। ईश्वर के इस स्वरूप को न समझते हुए हम मांगते हैं- धन-दौलतमोटरमकानपुत्र-पुत्रीमुकदमे में जीतशत्रु का विनाशदैहिक प्रेम में सफलता आदि- आदि।

    ईश्वर कहता है - सुख-समृद्धि और ये समस्त याचना की गई वस्तुओं को देने का एक मैकेनिज्मएक विधि समस्त मानवों के लिये मैंने निर्धारित कर दी है। मेरे अनन्त वैभव सेअपार क्षमता सेसर्वशक्तिमत्ता से तुम भरपूर लाभ उठा सकते हो। लेकिन माध्यम वही तरीका होगा जिसे विद्वान लोग "कर्मफल सिद्धान्त" के रूप में निरूपित करते हैं। और इसी सिद्धान्त के अनुसार तुम्हारे अनन्त जन्मों केअनन्त पाप-पुण्यों के कर्मों के लेखे अनुसार जो तत्व शेष रहता है उसे "प्रारब्ध" के रूप में परिभाषित करते हैं। सौभाग्य ऐसी कुछ चीज नहीं है जिसे मैं कुछ को देता हूँ और कुछ को नहीं देता।

    महाकवि तुलसीदास का यह वचन सत्य नहीं है- "रहिए जिस विध राम रचि राखा"। रचा तुमने हैकर्म तुमने किए हैंकेवल फल का निर्धारण राम (परमात्मा) ने अपने पास सुरक्षित रखा है। और उस कर्मफल-भाग्य के सहारे मनुष्य कैसे-कैसे नाच नाचता है। इस कर्मफल सिद्धान्त का नियमन परम दयालु परमात्मा अत्यन्त कठोर प्रतीत होने वाली न्याय प्रक्रिया द्वारा करता है।

    मानवतू मेरी रचना है। मैंने तुझे देह देकर सृष्टि के समस्त भौतिक सुखों का आनन्द लेने के लिएमेरी रचना सामर्थ्य देखने के लिये तेरा निर्माण किया है । पर तेरी यह देह भौतिक सुखों के उपभोग के अतिरिक्त और कुछ कर्म-सुकर्म करने के लिये भी दी है। दिए हैं तुझे कुल सौ वर्ष। भोगयोनि से पृथक्‌ करने के लिये "बुद्धि" दी है। तू मुझे व मेरी रचना को समझ। सत्‌ चित्त से आनन्द की ओर अग्रसर करने के लिये ही यह "धी" तुझे दी है। तुझे स्वत: ज्ञान नहीं दियापरन्तु समस्त ज्ञान-विज्ञान के भण्डार वेद तुझे उपलब्ध करा दिए हैं।

    तू अल्पज्ञ हैइसलिये मैं तुझे यह भी बताता हूँ कि तुझे मुझसे क्या मांगना चाहिए। हे देहधारी मनुष्य ! कामक्रोधलोभमोहमदमत्सर में तू सभी अन्य जीवधारियों के सदृश है। इनसे युक्त कार्य-व्यवहार में अन्य जीवधारियों से तुझमें रंचमात्र भी भेद नहीं रखा। इनसे जनित कामनाओंवासनाओं की पूर्ति भी इन जीवधारियों के समान ही तू भी करेगा- परतुझे दी है बुद्धि और विवेक। यही अच्छे-बुरे कर्म का निर्णय करेगी। तेरी सहायता के लिये ही तो मैं तेरे हृदय स्थल में विराजमान हूँ। बुरा काम करने के पहिले चेतावनी दूँगा- भयशंका व लज्जा तेरे मन में उत्पन्न करुँगा- अच्छा काम-सत्कार्य करने पर तेरा मन आनन्दअल्हाद से भर दूँगा। होगा यह क्षण मात्र में ही। मान या न मान तेरी मर्जी। और इस प्रकार विवेक/अविवेक से किए गए कर्मतेरा कर्मफल-भाग्य या दुर्भाग्य निर्धारित करेंगे और तदनुसार ही तुझे सुख-दु:ख मिलेंगे।

    इसलिए तुझे बताता हूँ कि तू मुझसे क्या मांग-

    1. धियो यो न: प्रचोदयात्‌।
    2. दुरितानि परासुव।
    3. उर्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्‌।
    4. सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।

       सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित्‌ दु:ख भाग्‌भवेत्‌।
    5. द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षं शान्ति: पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिब्रह्म शान्ति: सर्वं शान्ति:। शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि।

    सम्पूर्ण वेद में अपनी तथा समस्त सृष्टि के कल्याण की कामना के अनेक मन्त्र मिल जायेंगेवही मांग और कुछ मांगने योग्य नहीं। अभिमन्यु कुमार खुल्लर

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    In order to fulfill such demands, a proposal to bribe God is also made with great beauty. This is a common prayer. Oh God ! If you accept my petition, then if you fulfill the demand, then I will offer you a prasad of 1.25 kg. This change from a quarter to a quarter to a quarter to a quarter, then from offerings to silver, immense wealth is being collected. Do not appear to reach God. Exactly, in the same way that heaven does not appear to the ancestors and crows fed to the fathers in the Shraddha Paksha.

     

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  • प्रभो ! मुझे वाणी की मधुरता प्रदान कीजिये

    ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय।
    औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।।

    ऋग्वेद के दूसरे मण्डल के इक्कीसवें सूक्त के छठे मन्त्र में जहॉं अपने उल्लासमय जीवन के लिये अनेक प्रार्थनायें की गई हैं, वहीं "वाचः स्वाद्‌मानं धेहि' कहते हुए वाणी की मधुरता प्रदान करने की भी प्रार्थना परमात्मा से की गई है।

    मनुष्य जीवन में वाणी का बड़ा महत्व है। वाणी को मनुष्य का सबसे बड़ा आभूषण कहा गया है। नीति-शतक के एक श्लोक का सारांश है कि मनुष्य को उसकी सुसंस्कृत वाणी ही अंलकृत करती है। अन्य आभूषण तो क्षीयमान हैं। किन्तु वाणी रूपी आभूषण ही वास्तव में मनुष्य का आभूषण है। रहीम ने भी कहा है- रहिमन कटुक वचन ते दुख उपजत चहुं ओर।

    Ved Katha Pravachan _93 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    महाभारत युद्ध के अनेक कारणों में से एक कारण वाणी का दुरुपयोग भी है। दुर्योधन प्रकृत्या महत्वाकांक्षी और ईर्ष्यालु तो था ही, किन्तु बिना सोचे-समझे द्रोपदी, अर्जुन, कृष्ण, नकुल, सहदेव और भीम के वचन तथा उपहासपूर्ण व्यवहार ने उसकी ईर्ष्याग्नि में घृत का कार्य किया था। युधिष्ठिर के अश्वमेघ यज्ञ के समय उसको भण्डारगृह का अधिपति बनाया गया था। विभिन्न देशों के राजा-महाराजाओं द्वारा दी जाने वाली भेंट और सम्पत्ति, धन-दौलत, आभूषण आदि एकत्रित हो गये थे कि दुर्योधन की आँखें चौंधिया गई और वह ईर्ष्या से दहकने लगा था तथा इससे उसका मानसिक संतुलन बिगड़ने लगा था।

    उसकी ऐसी दशा देखकर मामा शकुनि ने धृतराष्ट्र से इसका वर्णन किया तो धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को बुलाकर कहा, '"पुत्र ! तुम्हारे पास भी किसी वस्तु की कमी तो है नहीं। तम्हारे लिये भी पाण्डवों जैसा सभागार बनवाया जा सकता है। अतः तुम पाण्डवों की समृद्धि को देखकर अपना मन छोटा मत करो।'' यह सुनकर दुर्योधन अपनी व्यथा का बखान करते हुए बोला, "तात ! युधिष्ठिर के सभा-भवन को बहुमूल्य रत्नों से, जिनके ऊपर स्फटिक मणि भी लगी हुई थी, ऐसा रचा है कि उसका फर्श मुझे कमलों से सजी पानी से लबालब भरी वापी (बावड़ी) प्रतीत हुई। मैंने उसे पानी से भरी बावड़ी समझकर उधर से जाते हुए अपने कपड़े ऊपर को उठा लिये तो भीम खिलखिला कर हंस पड़ा। उसके हंसने का एक भाव यह भी था कि उसके पास अपार ऐश्वर्य है और मैं निरैश्वर्य हूं। उस समय मन में आया कि उसका वहीं पर गला घोंट दूँ। किन्तु तभी मेरी समझ में आ गया कि यदि मैंने ऐसा किया, तो मेरी भी वही गति होगी जो गति कृष्ण ने शिशुपाल की की थी। शत्रु द्वारा किया गया इस प्रकार का उपहास मुझे जलाये डाल रहा है। मैंने आगे चलकर फिर देखा कि वैसी ही कमलों से सजी एक अन्य बावड़ी है। मैंने पहले के समान उसे भी रत्नकमल जटिल पत्थर ही समझा और मैं आगे बढ़ा तो पानी में गिर पड़ा। यह देखकर कृष्ण और अर्जुन ठहाका मारकर हंसे, तो द्रोपदी भी अपनी सखियों के साथ खिलखिला पड़ी। इस उपहास से मुझे मर्मान्तक वेदना हुई। पाण्डवों के सेवकों ने मेरे लिये अन्य वस्त्रों की व्यवस्था कर दी। हे राजन ! और भी जो धोखा हुआ वह भी सुनिये। एक दीवार पर द्वार सा प्रतीत होता था। जब मैं उससे निकलने लगा तो मेरा मस्तक दीवार से टकराकर चौटिल हो गया। नकुल सहदेव ने यह देखकर मुझे अपनी बाहों में थामते हुए खेद व्यक्त किया और बोले राजन्‌ ! द्वार यह है वह नहीं। उसी समय उच्च स्वर में हंसते हुए भीम ने कहा, धृतराष्ट्रपुत्र! द्वार यह है, वह नहीं। धृतराष्ट्रपुत्र कहकर प्रकारान्तर से उसने मुझे अन्धा कह दिया।'' 

    इस सारे प्रकरण से स्पष्ट है कि पाण्डवों का गर्व मिश्रित यह उपहास और उसे धृतराष्ट्र-पुत्र कहकर पुकारना, जिससे दुर्योधन को अन्धा कहना ध्वनित होता है, साधारण बात नहीं अपितु व्यावहारिक दृष्टि से यह बहुत बड़ी भूल थी। कटु और व्यंग्यात्मक वाणी तथा मधुर वाणी में यही अन्तर है। नम्र वाणी तो जादू का सा प्रभाव डालती है। इस प्रकार महाभारत युद्ध का एक कारण कटुवाणी भी थी, जिसने दुर्योधन को विचलित कर दिया और उसने युधिष्ठिर की उस सम्पत्ति को हड़पने के उपाय में पाण्डवों को वनवास तक दिला दिया।

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    इसके विपरीत महाभारत का ही वह प्रसंग भी है जब महाभारत युद्ध आरम्भ ही होने वाला था और समुद्र के समान विशाल सेनायें युद्धभूमि पर खड़ी थी, तब युधिष्ठिर अपने शस्त्रास्त्र अपने रथ पर रखकर हाथ जोड़ता हुआ शत्रु सेना की ओर बढ़ चला। उसे इस प्रकार जाता देखकर अर्जुन भी उसी प्रकार उसके पीछे-पीछे चलने लगा, तो कृष्ण सहित सभी पाण्डव भी चलने लगे। पर कहॉं और क्यों जा रहे हैं, यह किसी को ज्ञात नहीं था। उनकी यह दशा देखकर कृष्ण ने कहा, '"भैया युधिष्ठिर सर्वप्रथम भीष्म, द्रोण, कृप और शल्य की अनुमति लेकर शत्रु से युद्ध करेंगे।''

    उधर युधिष्ठिर को कौरव सेना की ओर जाता देखकर कौरवों के सैनिक यह अनुमान करने लगे कि हमारी सेना की विशालता को देखकर युधिष्ठिर युद्ध न करने का विचार व्यक्त करने आ रहा है। इस प्रकार चलते हुए युधिष्ठर ने शस्त्रास्त्र से सज्जित भीष्म के सम्मुख जाकर उनके चरण पकड़कर कहा, '"तात! आपसे आपके विरुद्ध युद्ध करने की अनुमति लेने के लिए हम लोग आपकी सेवा में उपस्थित हुए हैं। कृपया आज्ञा और आशीर्वाद देकर हमें अनुग्रहित कीजिये।'' भीष्म, युधिष्ठिर के श्रद्धापूर्ण तथा स्नेहिल वनचों को सुनकर गद्‌गद्‌ हो गये और बोले, '"पुत्र ! मैं प्रसन्न हुआ।

    तुम युद्ध करो और विजय प्राप्त करो।'' इसी प्रकार युधिष्ठिर द्रोण, कृप और शल्य के पास गये तो उन सब पर भी उसकी वाणी का वही प्रभाव हुआ जो भीष्म पर हुआ था और उन्होंने भी उसी प्रकार आशीर्वाद देकर उसके विजय की कामना की। उसके बाद युधिष्ठिर कौरव सेना की ओर उन्मुख होकर बोले, "जो योद्धा हमें न्याय के मार्ग पर समझकर हमारी सेना में आना चाहता हो हम उन्हें गले लगाने को उद्यत हैं।'' यह सुनकर दुर्योधन का सहोदर भाई "युयुत्सु' बोला, "यदि आप मुझे अपना सकें तो मैं आपकी ओर से कौरवों से लड़ने को उद्यत हूँ।'' युधिष्ठिर ने उसे गले लगाया और कहा कि प्रतीत होता है युद्धोपरान्त धृतराष्ट्र के नामलेवा तुम ही रहोगे।

    यह बात दूसरी है कि यदि भीष्म आदि इस परिस्थिति के उपस्थित होने से पूर्व ही दुर्योधन को उसके कुमार्ग से हटाने का यत्न करते तो कदाचित महाभारत युद्ध न होता और 18 अक्षोहिणी सेना नष्ट न होती और महिलायें विधवा तथा उनके बाल-बच्चे अनाथ न होते एवं युद्धोपरान्त कुछ काल के पश्चात जो दुराचार और अनाचार देश में फैला वह भी न फैलता।

    इसी प्रसंग में दुर्योधन की कुटिल मृदुभाषिता का भी एक उदाहरण यह है कि लोलुपता और चाटुकारिताप्रिय मद्रनरेश जो नकुल और सहदेव का सगा मामा था, दुर्योधन की नम्रता और सद्‌व्यवहार पर मुग्ध होकर उसकी ओर से युद्ध करने के लिये उद्यत हो गया था। दुर्योधन के उस अभिनय को लोलुप शल्य समझ नहीं पाया था। पाण्डवों का सगा मामा विरोधी पक्ष में हो जाए, यह मीठी वाणी और सद्‌व्यवहार का ही तो चमत्कार था। 

    मृदु वाणी और कटु एवं व्यंग्यात्मक वाणी के प्रभाव तथा दुष्प्रभाव से सम्बन्धित महाभारत युद्ध के ये प्रसंग मनुष्य की आँखें खोलते हुए इस लक्ष्य की ओर संकेत करते हैं कि मृदु वाणी ही सफल एवं स्वच्छ जीवन का सार है। महाभारत के ही एक अन्य प्रसंग में महात्मा विदुर ने वाणी के विषय में एक सुन्दर उदाहरण देेते हुए कहा है कि बाणों से बीन्धा हुआ घाव भर जाता है, कुल्हाड़ी से काटा गया वृक्ष अथवा वन पुनः हराभरा हो जाता है, किन्तु कटु वाणी द्वारा बीन्धा गया व्यक्ति का घाव कभी नहीं भरता। 

    कागा किससे क्या लेत है, कोयल किसको क्या देत।
    मधुर वचन बोल के, जग अपनो करि लेत।।आचार्य डॉ. संजयदेव

     

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    Voice has great importance in human life. Vani has been called the greatest jewel of man. The summary of one verse of Niti-century summarizes that man is his cultured voice. Other ornaments are dilapidated. But speech ornament is really a human ornament. Rahim has also said - Rahiman katuk vaan te dukh upjat chahinder

     

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  • प्रान्तीयता घातक है

    विनायक दामोदर सावरकर ने सन्‌1911 में अण्डमान (कालापानी) की जेल में अमानवीय यातनाएं सहन कर रहे थे। तेल पेरने जैसे मशक्कत के कठोर काम से छूट मिलते ही वे कैदियों को हिन्दी सिखाने के काम में लग जाते थे। उन्होंने हिन्दी की पुस्तकें मंगवाई तथा उन्हें जेल के पुस्तकालय में रखवाया, जिससे कैदी रामायण, गीता तथा अन्य हिन्दी पुस्तकों का अध्ययन कर सकें।

    Ved Katha Pravachan -10 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    एक दिन सावरकर जी ने गैर हिन्दी भाषी अपने साथी बन्दियों के बीच कहा- "बंगलामराठीतेलगू आदि सभी भाषाएँ प्रान्तीय हैं। उनका विशेष महत्व है। किन्तु तमाम भारत को अटक से लेकर कटक तक कन्याकुमारी से कश्मीर तक को जोड़ने की सामर्थ्य केवल हिन्दी भाषा में है। बद्रीनाथ-केदारनाथ तीर्थयात्रा के लिये आने वाले दक्षिण भारत के लोग भी हिन्दी सहजता से समझ लेते हैं। संस्कृत के शब्दों की अनेक प्रान्तीय भाषाओं में बहुतायत है। संस्कृत हिन्दी तथा अन्य अनेक भाषाओं की जननी है। इसलिए हिन्दी ही सम्पूर्ण राष्ट्र की भाषा कहलाये जाने की क्षमता रखती है।''

    एक दिन जेल सुपरिण्टेण्डेण्ट बारी ने कुछ बन्दियों को बरगलाया कि सावरकर हिन्दी की आड़ में बंगालीपंजाबी आदि को खत्म करना चाहते हैं। सावरकर जी ने उन्हें समझाया कि "मैं स्वयं मराठी भाषी हूँफिर भी हिन्दी के महत्व को समझता हूँ। आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने गुजराती भाषी होते हुए भी हिन्दी में "सत्यार्थ प्रकाशलिखा।'' उन्होंने हिन्दी पढ़ानी जारी रखी।

    सन्‌ 1915 में सावरकर जी के भाई बाल ने उन्हें कुछ पत्र-पत्रिकाएं व साहित्य भेजा। एक पत्रिका में 'आन्ध्र माता की जयशीर्षक देखकर उन्होंने अपना विचार व्यक्त करते हुए कहा- "इस प्रकार की प्रान्तीयता की भावना से राष्ट्रीय एकता कमजोर होगी। हम सब मराठियोंबंगालियोंतमिल वासियों सभी को अपने-अपने प्रान्तों पर गर्व करते हुए हिन्दी को एकता का सूत्र मानकर "भारत-राष्ट्रकी भावना पुष्ट करनी चाहिए। हमें "बंग आमारकी जगह "हिन्दी आमारका गीत गाना चाहिए।'' 

    "महाराष्ट्र में केवल "मराठी चलेगीका दुराग्रह  करने वालों को महाराष्ट्र में जन्मे सावरकर जी के उपरोक्त विचारों से शिक्षा होनी चाहिए। शिवकुमार गोयल

     

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    One day Jail Superintendent Bari tricked some prisoners that Savarkar wants to end Bengali, Punjabi etc. under the guise of Hindi. Savarkar ji explained to him that "I myself am Marathi speaking, yet I understand the importance of Hindi. The founder of Arya Samaj Swami Dayanand Saraswati wrote" Satyarth Prakash "in Hindi despite being Gujarati speaking." He continued to teach Hindi.

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  • प्रेरक प्रसंग

    हिन्दवी साम्राज्य का सेनापति

    स्वातन्त्र्यवीर सावरकर तात्या टोपे को छत्रपति शिवाजी के समान महान्‌ सेनापति मानते हैं। सावरकर जी लिखते हैं- "श्री तात्या टोपे मानो पराभूत शिवाजी थे। छत्रपति शिवाजी महाराज के प्रयत्न को यश नहीं मिला, इतना ही दोनों में अन्तर था। किन्तु सेनापतित्व से दोनों समान थे।''

    युद्ध क्षेत्र में होने वाली उनकी गतिविधियॉं इतनी वेगवान थीं कि बड़े-बड़े सेनापति दॉंतों तले उंगली दबाते थे। ब्रिगेडियर राबर्ट्‌स ने तात्या टोपे पर जब आक्रमण किया तो वे दहाड़कर बोले, "हिन्दवी साम्राज्य का मैं सेनापति हूँ।''

    तात्या की बहादुरी देख अंग्रेज हैरान हो गए।18 अप्रैल1859 को तात्या टोपे को फॉंसी की सजा दी गई।

    Ved Katha Pravachan _82 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    धीरज

    भगवान बुद्ध भ्रमण कर रहे थे। लम्बा सफर तय करने के उपरान्त उन्हें मार्ग में प्यास लगी। उन्होंने आनन्द से समीपस्थ झरने से पानी लाने के लिए कहा। जबकि उन्होंने देखा कि कुछ समय पूर्व ही वहॉं से बैलगाड़ियॉं गुजरी थीं तथा बैलों ने सारा जल गन्दा कर दिया था। उसके बावजूद भी बुद्धदेव ने आनन्द से वहीं से जल लाने को कहा।

    आनन्द जल लेने चले गएकिन्तु कुछ ही देर बाद वे आए और बुद्धदेव से बोले- "यहॉं का जल गन्दा है। मार्ग में हमें जो नदी मिली थीमैं वहॉं का जल लाता हूँ।'' किन्तु बुद्धदेव बोले- "झरने से ही जल ले आओ।'' आनन्द जब झरने के पास गए तो उन्होंने देखा कि जल अभी भी साफ नहीं हुआ है। वे वापस आ गए और बुद्धदेव से उन्होंने फिर जल के गन्दे होने की बात बताई। बुद्धदेव ने उन्हें पुनः झरने का ही जल लाने भेजा। किन्तु गन्दा जल देख आनन्द की इच्छा न हुई कि उसे अपने स्वामी को पिलाया जाए। वे लौट आए और बुद्धदेव ने पुनः उन्हें वापस भेजा। ऐसा तीन बार हुआ। चौथी बार जब आनन्द वहॉं गए तो देखा कि मिट्टी और सड़े-गले पत्ते नीचे बैठ चुके हैं तथा पानी आईने की भॉंति चमक रहा है। इस बार वे जल लेकर लौटे।

    तब बुद्धदेव बोले- "आनन्द! जीवनरूपी जल को भी कुविचारूपी बैल प्रतिदिन गन्दा करते रहते हैं और तब हम जीवन से पलायन करते हैं। किन्तु हमें भागना नहीं चाहिएबल्कि मनरूपी झरने के शान्त होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। इसके लिए धीरज की आवश्यकता है। तभी सब कुछ स्वच्छ दिखाई देगाठीक इस झरने की तरह।''

    अब जाकर आनन्द की समझ में आया कि बुद्धदेव क्यों बार-बार उसे झरने का ही जल लाने के लिए कह रहे थे। धीरज रखने से ही गुरु द्वारा ज्ञान की प्राप्ति होती है।

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    Lord Buddha was traveling. After traveling a long way, he got thirsty on the way. He asked Anand to bring water from the nearby waterfall. While he saw that some time ago bullock carts had passed from there and the bulls had messed up all the water. Even then, Buddhadev asked Anand to bring water from there.

     

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  • बढ़ती संस्कार-हीनता का कारणः विभक्त परिवार

    समाज की सबसे छोटी ईकाई परिवार है, जहॉं किसी भी बच्चे को उचित संस्कार में ढालकर मनुष्य बनाया जाता है। भारतीय समाज कृषिप्रधान रहा है। कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था होने के कारण संयुक्त परिवारों का वर्चस्व प्राचीनकाल से ही रहा है। ग्रामीण जनजीवन में आज भी संयुक्त परिवार की प्रासंगिकता मौजूद है। आधुनिक औद्योगीकरण का परिणाम संयुक्त परिवारों का विघटन है। कृषि के प्रति मोहभंग होना और गॉंवों से शहरों की ओर पलायन ही संयुक्त परिवार के विघटन और एकल परिवारों के जन्म का कारण है। 

    Ved Katha Pravachan -1 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    संयुक्त परिवारों में जहॉं व्यक्ति एक साथ एक छत के नीचे रहकर एक-दूसरे का दुःख-दर्द बांटते हैं, उनमें सहयोगी की भावना पनपती है, वहीं भारतीय धर्म, संस्कृति और संस्कारों का जितना सतर्कता से पालन किया जाता है, उतना आज टुकड़ों में बंटे एकांगी परिवारों में नहीं। संयुक्त परिवारों में आज के परिष्कृत, महंगे मनोरंजन के साधनों का उपयोग स्वयं को बहलाने के लिए कम ही होता देखा जाता है। निकट के संबंधों में आपसी सौहार्द और परस्पर सहयोग की भावना अधिक पायी जाती है। जबकि एकांगी (टूटे हुए) परिवारों में घर के सदस्य अपना अधिकांश समय या तो क्लबों में बिताते हैं या टेलीविजन के सामने मूकदर्शक बने उसकी क्रियाओं से स्वयं को आनन्दित करते हैं। एकांगी परिवारों के बच्चे अपना अधिकांश समय टेलीविजन के सामने ही बिताते हैं। संयुक्त परिवारों में बच्चे अपने बड़े-बूढ़ों के सामने वार्तालाप करते थे, हंसी-मजाक होता था। दादा या दादी द्वारा कुछ ज्ञानवर्द्धक कथाएं भी कही जाती थीं, जिनसे बच्चों का नैतिक विकास व उनके ज्ञान में वृद्धि होती थी।

    परिवार के सदस्यों के अन्दर के विचार समझ में आते थे कि वे किस हाल में हैं? भविष्य में क्या करना है? बड़े एकांगी परिवारों में यह सब कुछ लुप्त हो गया। छोटा परिवार और सुखी परिवार की प्रासंगिकता के कारण परिवार के सदस्य कम हुए। पति-पत्नी का अधिकांश समय दफ्तर या बाहर गुजारा करता है। बच्चों को या तो आया संभाला करती है या वो सारा दिन घर में अकेले पड़े टेलीविजन वीडियो गेम में खोये रहते हैं। टेलीविजन ने एक ऐसी पाश्चात्य मूल्यों पर आधारित संस्कृति को जन्म दिया है, जो मात्र उपभोक्तावाद को बढ़ावा दे सकती है। एकांगी परिवारों के बच्चे जब जवानी में कदम रखते हैं, तो अनायास ही जिन्दगी की मायूसियों को मिटाने के लिये गलत चीजों का सहारा लेते हैं, जो उन्हें अपराध करने के लिए प्रेरित करती हैं।

    संयुक्त परिवार अपने वर्चस्व के कारण परिवारों में गलत कार्यों को होने नहीं देते थे। बुजुर्गों की मान-मर्यादा, उनका स्नेह और सहयोग से भरा नियन्त्रण संस्कृति के पतन को रोके रखता था। वे संयुक्त परिवार की प्रथाएं एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित करते रहे हैं। अब एकांगी परिवारों में इन मूल्यों का अभाव है, तो वे उन्हें हस्तांतरित करने में भी असमर्थ हैं। आधुनिक एकांगी परिवारों में सहयोग तो नाममात्र का भी देखने को नहीं मिलता है। इन परिवारों के बच्चे तनावग्रस्त रहने के कारण प्रायः भावनाशून्य हो जाया करते हैं। भावनाशून्य मनःस्थिति व्यक्ति को अपराधों की ओर ले जाती है। 

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    आज के परिवार बिना कमाण्डर की सेना के समान हैं। उद्देश्यहीन पाश्चात्य संस्कृति का एक झोंका उन्हें जिस ओर मोड़ देता है, वो उसी ओर चल पड़ते हैं। जिन परिवारों में आदर्श का अभाव हो, भावनाहीन व नियन्त्रण से परे हों, वे भला क्या दे पायेंगे इस समाज को? कौन-सी पौध वे तैयार करेंगे समाज और राष्ट्र के लिए? 

    आज एकांगी परिवारों की कोई निश्चित आचार संहिता नहीं है। एक सदस्य पूर्व की ओर भाग रहा है, तो दूसरा पश्चिम की ओर। इसका कारण है भोगवादी सुख की चाह तथा स्वयं की इच्छा के सामने बड़ों की आज्ञा को नकार देना। पति और पत्नी के मध्य बढ़ते तनाव का कारण भी यही है। छोटी सी घर-गृहस्थी चलाने में परिवार को ही तबाह कर लेना कितना उचित है? आज बड़े नगरों, महानगरों में शादीशुदा महिलाओं पर चढ़ता प्रेम का बुखार अपने स्वर्ग जैसे घर को तबाह करने का एक और रास्ता है। इस मानसिकता की जड़ भी एकांगी परिवारों से ही उपजी है, जिसका नयी पीढ़ी पर कुप्रभाव पड़ रहा है। 

    आज जो मानसिकता बनती जा रही है, हम या आप चाहकर भी उसे परिवर्तित नहीं कर सकते। आज एकांगी परिवार में जन्मा पुत्र शीघ्र ही अपने पैरों पर खड़ा होकर शादी करके स्वयं की दुनिया अलग बसाना चाहता है। ऐसा क्यों? किसी परिवार में अकेला पुत्र होने पर भी वह अपने माता-पिता के साथ कम ही एडजेस्ट होना चाहता है। निःसन्देह भौतिक सुख की चाह ही उसे ऐसा करने के लिए प्रेरित करती है। 'मैं और मेरे बच्चे' जैसी संकुचित मानसिकता की प्रवृत्ति ने परिवारों के बिखराव को हवा दी है। एकांगी परिवार अपने बच्चों को उतना सब कुछ नहीं दे पाते हैं, जितना संयुक्त परिवार। हॉं, भौतिक सुख-सुविधाएं बढ़ सकती हैं। जेब खर्च भी अधिक मिल सकता है, पर नैतिकता के स्तर पर हमें क्या मिला?

    एकांगी परिवारों में पति-पत्नी के मध्य झगड़ों का क्रम भी बात-बात पर बढ़ जाया करता है। आत्महत्या, फांसी, हत्या आदि जघन्य अपराध एकांगी परिवारों में निरन्तर बढ़ रहे हैं, जिनका बच्चों पर कुप्रभाव पड़ता है। बच्चे भी गलत मार्ग की ओर अग्रसर होते हैं। आज के पाश्चात्य संस्कृति प्रधान परिवारों में अपने से बड़ों के लिए छोटों के दिलों में वह सम्मान, आदर विलुप्त हो गया है। चरण स्पर्श की वह परम्परा, जिसमें सिर्फ आत्मिक तरंगों द्वारा बड़ों का आशीर्वाद आत्मा से ग्रहण किया जाता था, वह परम्परा भी विलुप्त होती जा रही है। 

    आज के परिवार नई पीढ़ी को वह सब नहीं दे पाते हैं, जिनकी उन्हें जरूरत है।आवश्यकता है ऐसे स्वस्थ मूल्यों से ओतप्रोत परिवारों के निर्माण की, जो दिव्य समाज का निर्माण कर सकें तथा हमारे आदर्श वैदिक सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा कर सकें, जिनमें हमारा आत्मिक सम्बन्ध सुरक्षित रह सके। आचार्य डॉ.संजयदेव

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    Today's families are like an army without a commander. The purposeless Western culture gusts turn them in the same way, they move in the same direction. What families, who lack the ideal, are emotionless and beyond control, what will they give to this society? Which plant will they prepare for the society and the nation?

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  • बहुआयामी व्यक्तित्व स्वामी श्रद्धानन्द

    बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी स्वामी श्रद्धानन्द का जन्म पंजाब के तलवन नामक गॉंव में 23 फरवरी 1857 को हुआ था। उनका पहला नाम बृहस्पति था, परन्तु बाद में उन्हें मुंशीराम कहा जाने लगा। 1917 में संन्यास के बाद उनका नाम स्वामी श्रद्धानन्द हुआ। उनके पिता नानकचन्द थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा बनारस और लाहौर में हुई। उनका विवाह श्रीमती शिवदेवी से हुआ, जो 35 वर्ष की अवस्था में अपने दो पुत्रों तथा दो पुत्रियों को छोड़कर चल बसी। मुन्शीराम नायब तहसीलदार बने। उन्होंने यह नौकरी छोड़कर फिल्लौर में और बाद में जालन्धर में वकालत शुरू कर दी। यहॉं भी उनका मन नहीं लगा और वे स्वामी दयानन्द की प्रेरणा से आर्यसमाज के क्षेत्र में प्रवृत्त हुए। उन्होंने 4 मार्च 1902 को वैदिक ऋषियों के आदर्शों के अनुरूप राष्ट्र के लिए समर्पित नवयुवक तैयार करने हेतु गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना की।

    Ved Katha Pravachan _77 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    दक्षिण अफ्रीका से लौटकर महात्मा गांधी गुरुकुल कांगड़ी में आए। महात्मा मुन्शीराम से उनका मेलजोल बढ़ा और वे भी देश को स्वाधीन कराने की राह पर चल पड़े। मोहनदास कर्मचन्द गांधी को उन्होंने 'महात्माकी उपाधि से विभूषित किया। 1917 में वे संन्यासी हो गए। वे दिल्ली आकर रहने लगे। यहॉं उन्होंने दलितों और अनाथों के लिए संस्थाएं बनायी। यहॉं से उर्दू में "तेजऔर हिन्दी में "अर्जुननामक समाचार पत्र निकाला। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध हड़तालों तथा धरना-प्रदर्शनों का आयोजन किया। रौलट एक्ट का विरोध किया। सैनिकों की संगीनों का छाती तानकर सामना किया। जामा मस्जिद से व्याख्यान देने वाले वे पहले और आखिरी हिन्दू थे। वे हिन्दुओं तथा मुसलमानों सभी के रहनुमा थेउनका जीवन त्याग और तपस्या से परिपूर्ण था। उन्होंने 23 दिसम्बर 1926 को अन्तिम सांस ली। भारत सरकार ने उनकी स्मृति में 30 मार्च 1970 को एक डाक टिकट जारी किया था। शताब्दी वर्ष 2002 में भारत सरकार ने गुरुकुल कांगड़ी पर डाक टिकट जारी किया। 

    स्वामी श्रद्धानन्द के प्रयास से जलियांवाला बाग काण्ड के बाद अमृतसर में कांग्रेस का महाअधिवेशन हुआ था। उसमें कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता उपस्थित थे। पं. मोतीलाल नेहरू और महामना मदनमोहन मालवीय उस समय कांग्रेस के अग्रणी कार्यकर्त्ता थे। स्वामी श्रद्धानन्द उस समारोह के स्वागताध्यक्ष थे। स्वामी जी ने उस समय देशवासियों को चार परामर्श दिए थे- 

    1. केवल इतनी आवश्यकता है कि आर्य लोग अपने आचरण को उत्तम बनाकर दीपक बनेंताकि उनसे दूसरे दीपक जलाए जा सकें। 

    2. सभी प्रान्तों में मैंने देखा है कि हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे पर सन्देह करने लगे हैं। किन्तु हिन्दू सामाजिक दृष्टि से बिखरे हुए हैं। मेरी सम्मति में इसका उपाय एक ही है कि हिन्दू नेता हिन्दू समाज को सामाजिक दृष्टि से संगठित करें और मुसलमान नेता खिलाफत की अपेक्षा स्वराज्य की प्राप्ति पर अधिक ध्यान दें।

    3. यदि देश और जाति को स्वतन्त्र देखना चाहते हो तो स्वयं सदाचार की मूर्ति बनकर अपनी सन्तान में सदाचार की बुनियाद रखो। जब सदाचारी-ब्रह्मचारी शिक्षक हों और कौमी हो शिक्षा पद्धतितब ही कौम की जरूरत पूरी करने वाले नौजवान निकलेंगे। अन्यथा अपनी सन्तान विदेशी विचारों और विदेशी सभ्यता की गुलाम बनकर रहेगी।

    4. ईसाई मुक्ति फौज भारत के साढ़े छः करोड़ अछूतों को विशेष अधिकार दिलाने के लिए प्रयत्नशील हैै। क्योंकि वे भारत में ब्रिटिश सरकार के जहाज के लिए लंगर के समान हैं। आज से ये साढ़े छः करोड़ हमारे लिए अछूत नहीं रहेबल्कि हमारे भाई-बहन हैंहमारे पुत्र-पुत्रियॉं हैं। उन्हें मातृभूमि के प्रेम जल से शुद्ध करो। उन्हें पाठशालाओं में पढ़ाओ। उनके गृहस्थ नर-नारियों को अपने सामाजिक व्यवहार में सम्मिलित करो। 

    स्वामी जी महाराज ने ये चार परामर्श दिये थे। ये भारतीयता की रक्षा के इतिहास मेंभारतीय गौरव की पुनःस्थापना के इतिहास में तथा वैदिक धर्म के प्रसार के इतिहास में प्रकाश-स्तम्भ के समान हैं। पहली बात में उन्होंने सम्पूर्ण आर्यजाति का आह्वान किया है कि वे दीपक के समान तेजस्वी हों। वे दीपक के समान मार्गदर्शक होकर अपने आपको तिल-तिल करके होम कर देने वाले हों। निश्चय ही उनका अपना जीवन दीपक था। उन्होंने दूसरों को मार्ग दिखाया। उन्होंने अपने आपको दीपक के समान जला दिया। उन्होंने देश और जाति की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व त्याग कर दिया। उन्होंने तो सर्वमेध यज्ञ किया था। वे प्रारम्भिक जीवन में क्या थेसभी जानते हैं। पर आगे चलकर उन्होंने अपने आपको कितना आचारवान्‌ बनायायह भी किसी से छिपा नहीं है। वे सार्वजनिक जीवन के व्यक्ति थे। सार्वजनिक व्यक्ति का कोई व्यक्तिगत जीवन नहीं होता। उसका तो एक-एक क्षण सबके सामने होता है। उसका कोई भी कार्य अपने लिए नहीं होता। उसके सभी कार्य दूसरों के लिए होेते हैं। स्वामी श्रद्धानन्द का जीवन स्वच्छ दर्पण के समान आभासमान था। संस्थाओं के सर्वोच्च अधिकारियों को उनके जीवन से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। उन्हें सदाचारी बनना चाहिए। उन्हें प्रकाशस्तम्भ बनना चाहिए।

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    स्वामी जी महाराज ने हिन्दू जाति के संगठन की बात कही है। यह बात आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। यदि हमें कुछ पाना हैअपने राष्ट्र का उद्धार करना हैआर्य जाति को प्रगति के पथ पर लाना है तथा आर्य जाति को गौरवान्वित करना हैतो हमें संगठित होना ही होगा। संगच्छध्वं  संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्‌का नाद गुंजाना ही होगा। आज हमारे अनेक भाई छोटे-छोटे विवादों में फंसे हैं। वे उस बृहद उद्देश्य को भूल चुके हैंजो ऋषि ने हमें बताया था तथा जिस मार्ग पर स्वामी श्रद्धानन्द चले थे। संगठनात्मक दृष्यि से आज भी सुदृढ़ता की आवश्यकता है। स्वामी श्रद्धानन्द एक शहीद की मौत मरे। हर किसी की कामना हो सकती है कि वह शहीद की मौत मरे। पर शहीद वही होता है जो किसी उद्देश्य के लिए अपने को न्योछावर करे।  स्वामी श्रद्धानन्द ने उसी संगठनात्मक सुदढ़ता और एकता के लिए अपने जीवन का बलिदान किया। वह तो वीर पुरुष थे। वे वीरता की ही मृत्यु को प्राप्त हुए। कायर लोग अपने जीवम में अनेक बार मरते हैं। वे जब भी डरेंगेतभी मरेंगे। परन्तु वे बहादुर ही सदा याद किये जाएंगेजो निर्भीक होंगेअपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होंगे। 

    स्वामी जी ने अपनी सन्तान को सदाचारी बनाने की बात कही है। 'जनया दैव्यम्‌ जनम्‌यह वेद का आदेश है। स्वयं सदाचारी बनो तथा अपनी सन्तति को सदाचारी बनाओ। स्वामी श्रद्धानन्द ने गुरुकुल शिक्षा पद्धति के माध्यम से दिव्य व्यक्तित्वों के निर्माण की बात अपने मन में सोची थी। उनका सपना सच हुआ। गुरुकुल के सैकड़ों स्नातकों ने अपने-अपने क्षेत्र में नए-नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। स्वामी श्रद्धानन्द अपने दोनों पुत्रों हरिश्चन्द्र और इन्द्रचन्द्र को लेकर गंगा के किनारे बीहड़ जंगल में चले गए थे। वहीं पर उन्होंने गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति के अपने सपने को साकार किया। उन्होंने भारतीय इतिहास एवं दर्शन की उन्हें शिक्षा दी। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की उन्हें शिक्षा दी। सदाचार की उन्हें शिक्षा दी। उन्हें अपने देश पर बलिदान होने की शिक्षा दी। उन्हें वीरता एवं निर्भीकता प्रदान की। गुरुकुल का विद्यार्थी "भयकरना नहीं जानता। वह तो साक्षात्‌ "वीरताहै। स्वामी श्रद्धानन्द तो कर्मशूर भी थे। उन्होंने जो कहा वह करके दिखाया। वे केवल भाषण तक सीमित नहीं थे। आज के भाषणकर्त्ताओें का प्रभाव नहीं पड़ताक्योंकि उनकी कथनी और करनी में अन्तर होता है। असली प्रभाव उसी का पड़ता हैजो जैसा कहता है वैसा ही करता भी है। सत्य का उपदेश करने वाले को सत्यवादी होना चाहिए। कर्म का उपदेश करने वाले को कर्मशील होना चाहिए। संयम का उपदेश करने वाले को संयमी होना चाहिए। स्वामी श्रद्धानन्द में ये सभी गुण विद्यमान थे।

    आप अपनी सन्तान को सदाचारी बनाएं। उन्हें देश और जाति पर गर्व करने वाला बनाएं। उन्हें नित्य संध्या और अग्निहोत्र करने वाला बनाएं। तभी देश और जाति की रक्षा हो सकती है। आज के विषाक्त वातावरण में सदाचारी लोगों की आवश्यकता है। 

    स्वामी श्रद्धानन्द का चौथा परामर्श वास्तव में एक चेतावनी है। धर्मान्तरण उस समय भी हो रहा थाआज भी हो रहा है। देश के गरीब लोगों को ईसाई बनाया जा रहा थाआज भी बनाया जा रहा है। उन्हें आज मुसलमान भी बनाया जा रहा है। स्वामी श्रद्धानन्द के हृदय में एक टीस थी। इसीलिए उन्होंने दलितोद्धार सभा बनायी। वे नहीं चाहते थे कि धर्मान्तरण हो। दलितोद्धार का मूल मन्त्र है कि सभी को समानता का अधिकार दिया जाए। सभी जगह समता सम्मेलन आयोजित किए जाएं। जब सभी को समान सम्मान मिलेगाऊँच-नीच का भेद समाप्त हो जाएगासभी को समान अवसर मिलेंगेतो स्वतः ही धर्मान्तरण का चलन समाप्त हो जायेगा। इस कार्यक्रम को वास्तविक व्यवहार में लाने की आज भी उतनी ही आवश्यकता हैजितनी कि स्वामी श्रद्धानन्द के समय थी। स्वामी श्रद्धानन्द का बलिदान दिवस मनाने की सार्थकता इसी बात में है कि भारतवासी उनके सच्चे अनुयायी बनें। अपनी सन्तान को श्रेष्ठ एवं वैदिकधर्मी बनायें तथा सभी को गले लगाएं। अपनी भाषा का प्रयोग करें। मद्यादि व्यसनों से दूर रहें तथा गोरक्षा हेतु प्राण न्योछावर करने के लिए तैयार हों। -डॉ. धर्मपाल

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    The Christian Liberation Army is trying to give special rights to the six and a half crore untouchables of India. Because they are similar to anchors for British government ships in India. From today, these six and a half crores are not untouchables for us, but are our brothers and sisters, our sons and daughters. Cleanse them with the love water of the motherland. Teach them in schools Include their men and women in their social behavior.

     

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  • बोलना सिखाया जिन्होंने अब उनसे ही बोलते नहीं

    घर-परिवार

    शीर्षक में इंगित समस्या आज की ही नहीं, पुरातन काल से चली आ रही है, भले पहले अतिन्यून हो, अब अत्यधिक है। महर्षि दयानन्द सरस्वती से पूर्ण प्रभावित होकर छलेसर के रईस ठाकुर मुकुन्दसिंह ने उनको आग्रहपूर्वक अपने गॉंव में आमन्त्रित किया। हाथी-घोड़ा-पालकी-सैनिक व विशाल जन-समूह के साथ उनका स्वागत किया। उनके प्रवास के लिये नवीन भवन बनवाया। विशेष यज्ञ रचाया। पण्डित व प्रजाजन की वहॉं भीड़ लगी रही। इतने कोलाहल में भी ठाकुर मुकुन्दसिंह के पुत्र कुँअर चन्दनसिंह का मौन महर्षि को बहुत अखर रहा था। कारण कुछ भी हो, पिता-पुत्र की बोलचाल बन्द थी। ग्राम में कुम्भ जैसा मेला और उसका शोर, फिर भी पिता-पुत्र में मनोमालिन्य बना रहे, महर्षि इस पीड़ा को सहन नहीं कर सके। इन दोनों के सम्मुख वे बोले और ऐसा बोले कि पिता ने निज पुत्र के लिए अपनी बाहें फैला दी तथा उसे अपनी गोदी में बैठा लिया और मन का मैल सदा-सदा के लिये धुल गया।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    तेतीस कोटि देवताओं का स्वरूप-1

    Ved Katha Pravachan _65 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev 


    परमपिता परमात्मा अपने प्रतिनिधि पुत्र सन्तरूप में भेजकर समाज में श्रेष्ठ वार्तालाप का वातावरण बनाते रहते हैं। जब यही तथाकथित सन्त स्वार्थी हो जाते हैंतो समाज में संवाद समाप्त होकर विवाद-परिवाद की वायु बहकर सन्ताप उत्पन्न कर देती है।

    विवाह संस्कार के कारण श्रीमती सहित एक उस नगर में जाने का अवसर मिलाजहॉं हम कभी 49 वर्ष पहले गये थे। श्रीमती जी अपनी दूर की दादी से मिलना चाहती थी और मुझे अपने समवयस्क मित्र से मिलने का आकर्षण था। मित्र मिले। वे उतने ही प्रतिष्ठित व लोकप्रिय मिलेजितने राजासाहब सम्बोधन से जाने जाने वाले उनके पिता थे। जितनी अधिक उनकी भूमि-भवन-धन की सम्पदा थीउतनी ही उनकी सुकीर्ति मान्यता भी थी। उन्होंने सर्वत्र मुझको भ्रमण कराया और ले जाकर खड़ा कर दिया अपने एक पुत्र के प्रभूत प्रतिष्ठान पर और लगे उससे मेरा परिचय कराने। वह अच्छा खासा समझदार पुत्र न उनसे बोला और न मुझसे नमस्ते तक की। मित्र तो खड़े के खड़े ही रह गये। किन्तु मुझसे वहॉं नहीं रुका गया और मैं उनका हाथ पकड़कर आगे बढ़ा लाया। मार्ग में उन्होंने बताया कि इस पुत्र को मुझसे यह आपत्ति है कि पिता की इतनी उच्च मान-प्रतिष्ठा होेते हुए भी मेरे लिए कुछ नहीं किया।

    यह तो रही मेरी भेंट मित्र सेअब श्रीमती जी की दूर की दादी की कहानी सुनिये। मिलने पहुँची तो उनको घर से बाहर एक टूटी-टाटी खाट पर पड़ा पाया। देखकर उठी। इनको अपने हृदय से चिपटा लिया। दादी के स्वावलम्बी पुत्र का बाल-बच्चों वाला परिवार! किन्तु दादी से कोई बोलता नहीं।

    यह जो हमने दूर के नगर में जाकर देखावह हमारे नगर में आस-पास भी घटता दिखाई देता रहता है। हम दो ऐसे बच्चों को जानते हैं। एक दूसरे ही वर्ष में चलने और बोलने लगा तथा दूसरे बच्चे ने इन दोनों कार्यों में कई-कई वर्ष लगा दिए। जब यह चलता-बोलता नहीं थातो माता-पिता-परिजन सब व्याकुल रहते थे। उपचार-उपाय खोजते व चिन्तित रहते दिन कटते थे। जिन माता-पिता-अभिभावकों ने उन्हें बोलने में समर्थ बना दियाबड़े होकर वही बच्चे अन्य सबसे तो बोलते हैं पर अपनों से ही नहीं बोलते हैंतो उनका हृदय टूट जाता है। इसका दूरगामी दुष्प्रभाव ऐसी सन्तानों पर पड़ने से कोई रोक नहीं सकता है। माता-पिता ही क्या उस परमेश प्रभु के साथ भी ऐसे लोगों का यही व्यवहार होता हैजो माता-पिता दोनों के रूप में जन्म देकर पालन-पोषण करता है। प्रभुदेव सविता अग्नि के समक्ष शान्त शीतल जलाञ्जलि पूर्वक व्यक्ति मांग करता है- वाचस्पतिर्वाचं ना स्वदतु (यजुर्वेद 30.1) अर्थात्‌ हे वाणी के स्वामी परमेश्वर! आप हमारी वाणी को मधुर बना दीजिये।

    जीभ तो मानव-पशु सबके पास है। पशुओं की जीभ तो सदा समान रहती है, किन्तु मनुष्यों की जीभ अपने स्वाद बदलती रहती है। कभी कड़वी कभी मीठी। कड़वी हुई तो मानो कटार हो गयी। दिल के आर-पार हो गई। अतः इसका कोमल व मधुर रहना ही ठीक है। प्रभु से यही मांग है। इसी क्रम में अभिभावकों की उत्कट कामना द्रष्टव्य है-
    ओ3म्‌ उप नः सूनवो गिरः श़ृण्वन्त्वमृतस्य ये।
    सुमृडीका भवन्तु नः।। सामवेद 1595।।

    अर्थात्‌ हमारे पुत्रगण अविनश्वर परमेश्वर की वाणी सुनें और हम लोगों को सुखी करें। परमेश प्रभु की वाणी वेद का कितना मधुर सन्देश है-

    3म्‌ उत ब्रुवन्तु जन्तव उदग्निर्वृत्रहाजनि।
    धनज्जयो रणे रणे।। सामवेद 1382।।

     

    मन्त्र-भावार्थ देखिये-

    क्षण क्षण सम्मुख रण आते हैं।
    धन-जय प्रभु ही दिलवाते हैं।।

    प्रभु हमको शक्ति विमल देते,
    हम जिससे शत्रु मसल देते।

    प्रभु ने जीवन धाम दिया है,
    प्रभु ही इसको चमकाते हैं।।

    जीवन्त प्राणधारी आओ,
    प्रभु से सम्मति ले आओ।

    बैठो प्रभु से करो वार्ता,
    सन्मार्ग वही दिखलाते हैं।।

    जिसने निज को उत्कृष्ट किया,
    हर कष्ट सहन कर पुष्ट किया।

    वे नर जीवन संग्रामों में,
    प्रभु की सहाय पा जाते हैं।।

    क्षण क्षण सम्मुख रण आते हैं।
    धन-जय प्रभु ही दिलवाते हैं।।

    "सामश़्रद्धाके देवातिथि द्वारा रचित सामगीत में यही सन्देश निहित है कि जिस प्रभु से हम हर संग्राम में विजय व वैभव प्राप्त करने की कामना करते हैं और वह हमें सुलभ भी हो जाता है। इस ऋद्धि-सिद्धि-उपलब्धि के बाद अधिकांश व्यक्ति इसी में रम जाते हैं। इसकी ही बात करते रहते हैं। प्रभु से बात करने का उनके पास समय ही नहीं बचता है। मन्त्र का मृदुल आदेश है कि इसे मांगने व मिल जाने के बाद भी प्रभु से बात करते रहो। स्तुति करके धन्यवाद देते व आशीर्वाद लेते रहो।

    परमेश प्रभु की ही भॉंति हमारे पितरजन भी हमें सब कुछ देते हैं। तन देते हैंसुसंस्कृत मन देते हैंयथासम्भव धन देते हैंविद्या और गुण देते हैं। फिर भी हम सर्वसमृद्ध होकर जरा सी बात पर उनसे बोलना ही बन्द कर देते हैं। वे तो वयोवृद्ध हैं। अपने समस्त उत्तराधिकार देकर हमें समृद्ध करके चिर-विदा लेकर चले ही जाने वाले हैं। फिर हम उनसे बात न करें तो इसे हमारा अधर्माचरण ही कहा जायेगा। यहॉं पर हिन्दी के प्रसिद्ध रसिक कवि बिहारी जी का एक दोहा उद्‌धृत किया जा रहा हैजो इस प्रकार से दो अर्थ प्रस्तुत करता है कि एक ओर तो वे अपने आराध्य श्रीकृष्ण का तथा दूसरी ओर अपने वंश व पिता का स्मरण भी कर लेते हैं। लीजिए पढ़िये-

    प्रगट भए द्विजराज-कुलसुबस बसे ब्रज आइ।
    मेरे हरो कलेस सबकेसव केसवराइ।।

    दोहे में प्रयुक्त "द्विजराजशब्द द्वि-अर्थक है। एक चन्द्रमा व दूसरा ब्राह्मण। दोहे का एक अर्थ बनता है कि केशव कृष्ण चन्द्रकुल में जन्म लेकर ब्रज भूमि में बस रहे हैंवे मेरे सभी कष्टों को दूर करें। दूसरे अर्थ में वे अपने पिताश्री का आराध्यतुल्य स्मरण करते हुए कहते हैं कि मैं भी ब्राह्मण कुल भूषण ब्रजवासी हूँमेरे जन्मदाता केशवराय मेरे कष्टों को दूर करें।

    कभी-कभी ऐसा कुयोग भी आ जाता हैजब सन्तान से पितर वृद्धजन अपनी ओर से बोलना बन्द कर देते हैंवह भी जरा से भ्रम के कारण। एक माता के तीन-चार पुत्री एवं एक पुत्र था। किशोरावस्था में पुत्र नहीं रहा। उनका बड़ा दामाद उनका मातृवत सम्मान करने वाला है। एक बार अपना भोजन साथ लेकर वह दामाद के घर गयी। सदैव की भॉंति दामाद ने स्वागत-अभिवादन किया और उनसे भोजन करने के लिये जोरदार आग्रह करने लगा। माता मना करती रही। दामाद के मुख से निकले शब्द- "आपके कोई है नहींइसलिए मैं आपसे खाने के लिए कह रहा हूँकोई होता तो भला मैं क्यों कहता''- उस माता के हृदय में ऐसे चुभ गये कि कई महीनों से उस माता ने अपने दामाद से बोलचाल बन्द रक्खी। दामाद को स्थिति का आभास हुआ। अनेक प्रकार से उसने माता से बोलना चाहाकिन्तु माता का मुँह बन्द का बन्द ही रहा। माता ने यह स्थिति मुझे बताकर कुछ परामर्श चाहातो मैंने सन्त तुलसीदास के शब्दों को- क्षमा बड़न को चाहियेछोटन को उत्पातदोहरा दिया। तभी माताजी ने कहा कि अब तो वे मुझे अपने बच्चों के साथ तीर्थयात्रा पर ले जाना चाहते हैं। ठीक ही हैसुखद अन्तराल में दुःखद बात विस्मृत होना असम्भव नहीं है। धर्म के दस लक्षणों में "क्षमाविलक्षण है। और सभी एक पक्षीय हैंपर क्षमा द्विपक्षीय है। क्षमा मांगने वाला धर्म का पालन करता है और क्षमा करने वाला सद्धर्म का परिपालन करता है। बड़े लोग किसी भी कारण से बोलना बन्द करने के स्थान पर अपनी सकारात्मक सोच विकसित करके प्रकरण की नकारात्मकता को तिरोहित करके अपने छोटों को सन्मार्ग दिखाने का सत्प्रयास कर सकते हैं।

    उपरोक्त प्रकरण में घोर निराशा को घनघोर आशा में इन्हीं माताजी के शब्दों ने बदल दिया। वे बोली कि कुछ दिनों के लिए बाहर क्या चली गयीपड़ोसी बच्चों ने छत पर कूद-फॉंदकर सीमेण्ट उखाड़ दिया। जरा सी वर्षा में छतें टपकने लगती हैं। प्रयोग में न आने से हस्तचालित नल ने पानी देना बन्द कर दिया और शौचालय का पानी निकलता नहीं। एक अकेले के लिये हजारों रूपये व्यय करके ठीक करायेंफिर चलें जायें बाहर तीर्थयात्रा पर। लौटकर आयें तो वही "ढाक के तीन पात'। मैंने उनसे कहा कि यह सब अव्यवस्थायें इसीलिए हुई हैं कि आप दामाद का आमन्त्रण स्वीकार कर कुछ दिन बाहर तीर्थाटन कर आयें। जब लौटकर आएंगीतो तीन दिन में ही यह सब बिगड़े काम बन जाएंगे और सम्बन्ध स्नेहपूर्ण सामान्य हो जायेंगे। शायद प्रभु भी यही चाहते हैं। माता जी जो सुस्त-मुस्त आयीं थींमस्त-चुस्त मुस्काती चली गयीं।

    3म्‌ महो अर्णः सरस्वती प्र चेतयति केतुना।
    धियो विश्वा वि राजति।।ऋग्वेद 1.3.12।।

    इस मन्त्र अनुसार ज्ञान देवी सरस्वती की उपासना से ज्ञान के महासागर का आभास मिलता है। जो माता सरस्वती के ज्ञानध्वज के नीचे आ जाते हैंवे अपनी सब बुद्धियों को विशेषतया दीप्त करके जिस-जिस वस्तु की गहराई में जाना चाहते हैंउस-उस वस्तु के तत्वबोध को प्राप्त कर लेते हैं। गहराई में उतरने वालों को सबकुछ मिल जाता है और किनारे बैठे रहने वाले इधर-उधर ताकते रह जाते हैं। कहा भी है-

    सरस्वती के भण्डार की बड़ी अपूरब बात।
    खर्चे से घटती नहीं बिन खर्चे घटि जात।।

    शून्य से शिखर पर पहुँचने वाले व्यक्तियों की सन्तानें उनकी प्रतिष्ठा को तो देखती हैंउनकी त्याग-तपस्या-श्रम व पुरुषार्थ को नहीं देख पाती हैं। सन्तानों की अभिलाषा रहती है कि वे भी प्रतिष्ठा पायेंपरन्तु अपने बल पर नहीं पूर्वजों की प्रतिष्ठा के बल पर। उदाहरणस्वरूप एक कथानक प्रस्तुत है। पर्वतीय क्षेत्र से एक किशोर प्रयाग आया। श्रम-साधना एवं सद्‌भावना से प्रयाग विश्वविद्यालय में उच्च से उच्चतर शिक्षा प्राप्त की। अनी मेधा के श्रेयस्वरूप उसी विश्वविद्यालय में प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष बना और सेवानिवृत्त हो गया। इस लम्बे अन्तराल में उसके शिष्यों की श़ृंखलायें बढ़ती गयींऔर परिवार की पीढ़ियॉं भी बढ़ती गयीं। महानगर में शिक्षा-सांस्कृतिक व सामाजिक क्षेत्रों में वयोवृद्ध प्राध्यापक की अकूत मान्यता होने लगी। इस मध्य हुआ यह कि उनके पौत्र की उपस्थिति कम होने के कारण परीक्षा में बैठने से रोक दिया गया। पौत्र व घर वालों ने जोर लगाकर देख लियापर उसको परीक्षा में बैठने की अनुमति नहीं मिली। थककर घर वालों ने प्रतिष्ठित पितामह से अनुशंसा करने को कहा। उन्होंने सुनी-अनसुनी कर दी। घर वालों ने उनसे बोलना बन्द कर दिया। अन्ततः प्राध्यापक पितामह पौत्र को लेकर विश्वविद्यालय के तत्सम्बन्धी विभाग में जा पहुँचे। तेजस्वी विभागाध्यक्ष अपने उच्चासन से उठे और वयोवृद्ध प्राध्यापक के चरणस्पर्श करके अपने आसन पर बैठाया। स्वागत करते हुए वे बोल पड़ेप्रोफेसर सर! आज मैं जो कुछ हूँआपके कारण हूँ। उस समय उपस्थिति कम होने पर आप मुझे परीक्षा में बैठने से रोकते नहींतो मैं विशद तैयारी नहीं करताशीर्ष स्थान न पाता और आज विभागाध्यक्ष न होता। वर्तमान विभागाध्यक्ष ने उनके आने का कारण पूछा। उन्होंने कोई अनुशंसा नहीं की। इधर से निकल रहा थासोचा मिलता चलूँ। अच्छा! अब चलता हूँ। पौत्र ने घर आकर सारी बात बतायी। घर वालों को समझाकर सन्तुष्ट कर दिया। आगे की तैयारी के लिये स्वयं को पुष्ट कर लिया। वयोवृद्ध प्राध्यापक से सबके प्रणाम चल निकले और पौत्र का सुनिश्चय उत्कृष्ट हो गया। उसका भी भविष्य समुज्ज्वल हो गया। देवनारायण भारद्वाज

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    According to this mantra, worship of the knowledge goddess Saraswati gives an impression of the ocean of knowledge. Those who fall under the enlightenment of Mother Saraswati, by lighting all their intellects, they attain the essence of the object of which they want to go in depth. Those who get into the depth get everything and those who sit on the sidelines are kept looking around.

     

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  • भक्ति महान्‌ फल देने वाली होती है

    ओ3म्‌ कदु प्रचेतसे महे वचो देवाय शस्यते।
    तदिद्ध्‌यस्य वर्धनम्‌।। साम. पू. 3.1.4.2

    ऋषिः मारीचः कश्यपः।। देवता विश्वदेवाः।। छन्दः गायत्री।। 

    विनय- प्रभु की थोड़ी-सी भक्ति महान्‌ फल देने वाली होती है। हम लोग समझा करते हैं कि थोड़े से सन्ध्या-भजन से या एक-आध मन्त्र द्वारा उसका स्मरण कर लेने से हमारा क्या लाभ होगा, या एक दिन यह भजन छोड़ देने से हमारी क्या हानि होगी, पर यह सत्य नहीं है। हमारी उपासना चाहे कितनी स्वल्प और तुच्छ हो, पर वह उपास्यदेव तो महान्‌ है। ज्ञान और शक्ति में वह हमसे इतना महान्‌ है कि हम कभी भी उसके योग्य उसकी पूरी भक्ति नहीं कर सकते और उसके सामने हम इतने तुच्छ हैं कि वह यदि चाहे तो अपने जरा से दान से हमें क्षण में भरपूर कर सकता है। यह यदि थोड़ी देर के लिए भी उससे अपना सम्बन्ध जोड़ते हैं तो वह महान्‌ देव उस थोड़े से समय में ही हमें भर देता है। सन्त लोग अनुभव करते हैं कि प्रभु का क्षण-भर ध्यान करते ही प्रभु की आशीर्वाद-धारा उनके लिये खुल जाती है और वे उस क्षण भर में ही प्रभु के आशीर्वाद से नहा जाते हैं।

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    एक बार प्रभु का नामोच्चारण करते ही उन्हें ऐसा आवेश आता है कि शरीर रोमांचित हो जाते हैं और आत्मा आनन्दरस से पवित्र और प्रफुल्ल हो जाते हैं। पर यदि हम साधारण लोगों की प्रार्थना-उपासना अभी उस महाप्रभु से इतना ऐश्वर्या नहीं पा सकती है, तब तो हमें उसके थोड़े-से भी भजन की बहुत कद्र करनी चाहिए। एक भी दिन, एक भी समय नागा न करना चाहिए। एक समय भी नागा होने से जो सम्बन्ध विच्छिन्न हो जाता है, वह फिर जोड़ना पड़ता है। यही कारण है कि नागा होने पर प्रायश्चित का विधान है। एक समय नागा होने से एक समय की देरी ही नहीं होती, अपितु वह दुबारा सम्बन्ध जोड़ने जितनी देरी हो जाती है। अतः हम चाहे किसी दिन भजन में बिल्कुल दिल न लगा सकें, तथापि उस दिन भी कुछ न कुछ उपासना जरूर करनी चाहिए, यत्न जरूर करना चाहिए। पीछे पता लगता है कि एक दिन का भी यत्न व्यर्थ नहीं गया। एक-एक दिन की उपासना ने हमें बढ़ाया है, हमारे शरीर, मन और आत्मा को उन्नत किया है। 

    कम से कम यह तो असन्दिग्ध है कि संसार की अन्य बातों में हम जितना समय देते हैं, सांसारिक बातों की जितनी स्तुति-उपासना करते हैं और उससे जितना फल हमें मिलता है, उससे अनन्त गुणा फल हमें प्रभु की (अपेक्षया बहुत ही थोड़ी सी) स्तुति-उपासना से मिल सकता है और मिल जाता है। कारण स्पष्ट है, क्योंकि वह महान्‌ है, ज्ञान का भण्डार है, सर्वशक्तिमान है और ये सांसारिक बातें अल्प हैं, तुच्छ हैं, निस्सार हैं, ज्ञानशक्तिविहीन केवल विकार हैं।

    शब्दार्थ - महे=महान्‌ प्रचेतसे=बड़े ज्ञानी देवाय=इष्टदेव परमेश्वर के लिए कत्‌ उ=कुछ भी, थोड़ा-सा भी वचःशस्यते=वचन स्तुतिरूप में कहा जाए तत्‌ इत्‌ हि=वह ही निश्चय से अस्य=इस वक्ता का वर्धनम्‌=बढ़ाने वाला है। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार
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    हमारी पुकार

    ओ3म्‌ आ घा गमद्यदि श्रवत्‌ सहस्त्रिणीभिरूतिभिः।
    वाजेभिरुप नो हवम्‌।। ऋ. 1.30.8, साम. उ. 1.2.1.1., अथर्व. 20.26.2

    ऋषिः आजीगर्तिः शुनःशेप।।देवता इन्द्र।। छन्दः निचृद्‌गायत्री।। 

    विनयः - वह आ जाता है, निश्चय से आ जाता है, हमारे पास प्रकट हो जाता है यदि वह सुन लेवे। बस, उसके सुन लेने की देर है। उस तक अपनी सुनवाई करना, अपनी रसाई करना बेशक कठिन है। उस तक हमारी पुकार पहुंच जाए, इसके लिए हममें कुछ योग्यता चाहिए, हममें कुछ सामर्थ्य चाहिए, पर इसमें कुछ सन्देह नहीं है कि वह परमात्मदेव यदि पुकार सुन लेवे, यदि हमारी प्रार्थना को स्वीकार कर लेवे तो वह निश्चय से आ जाता है। और तब वह आता है अपनी सहस्रों प्रकार की रक्षा शक्तियों के साथ हमारी रक्षा के लिए मानो वह अनन्त महाशक्ति सेना के साथ आ पहुंचता है। हमारी रक्षा के लिए तो उसकी जरा सी शक्ति ही बहुत होती है, पर तब यह पता लग जाता है कि उसकी रक्षा शक्ति असीम है। वह हमारे "हव' पर, पुकार पर अपने "वाज' के साथ (अपने ज्ञान-बल के साथ) आ पहुंचता है। वह पीड़ितों की रक्षा कर जाता है और हम अज्ञानान्धकार में ठोकरें खाते हुओं के लिए ज्ञान-प्रकाश चमका जाता है, पर यदि वह सुन लेवे। कौन कहता है कि वह सुनता नहीं? बेशक, हमारी तरह उसके कान नहीं, पर वह परमात्मदेव बिना कान के सुनता है। यदि हमारी प्रार्थना कल्याण की प्रार्थना होती है और वह सच्चे हृदय से, सर्वात्मभाव से की गई होती है तो उस प्रार्थना में यह शक्ति होती है कि वह प्रभु के दरबार में पहुँच सकती है। आह! हमारी प्रार्थना भी प्रभु के दरबार में पहुँच सके। हममें इतनी स्वार्थशून्यता, आत्मत्याग और पवित्रता हो कि हमारी पुकार उसके यहॉं तक पहुँच सके। यदि हमारी प्रार्थना में इतनी शक्ति हो, कि हम अन्धकार में पड़े हुए दुःख-पीड़ितों, दुर्बलों के हार्दिक करुण-क्रन्दनों में इतना बल हो कि इन्द्रदेव उसे सुन ले तो फिर क्या है! तब तो क्षण-भर में वे करुणासिन्धु हम डूबतों को बचाने के लिए आ पहुँचते हैं। बस, हमारी प्रार्थना उन तक पहुँचे, हमारी पुकार में इतना बल हो, तो देखो! वे प्रभु अपने सब साज-सामान के साथ, अपने ज्ञान, बल और ऐश्वर्य के भण्डार के साथ, अपनी दिव्य विभूतियों की फौज के साथ हम मरतों को बचाने के लिए, हम निर्बलों में बल संचार करने के लिए, हम अन्धों को अपनी ज्योति से चकाचौंध करने के लिए आ पहुँचते हैं। 

    शब्दार्थ - यदि = यदि नः हवम्‌ = हमारी पुकार श्रवत्‌ = वह इन्द्र सुन लेवे तो वह सहस्त्रिणीभिः ऊतिभिः = अपनी सहस्रों बलशालिनी रक्षा-शक्तियों के साथ और वाजेभिः = सहस्रों ज्ञानबलों के साथ घ = निश्चय से उपागतम्‌ = आ पहुँचता है। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

     

    At least it is unquestionable that the amount of time we spend in other things of the world, the praise of the worldly things and the fruits we receive from it, the infinitely multiplied fruit of the Lord gives us (very rarely) You can and should be praised. The reason is obvious, because it is great, is a storehouse of knowledge, is omnipotent and these worldly things are meager, insignificant, meaningless, lack of knowledge, are just vices.

     

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  • भगत सिंह का मातृप्रेम

    फॉंसी से पूर्व भगतसिंह जेल में बन्द थे। जेल में जो सफाई कर्मचारी काम करती थी, भगतसिंह उसे मॉं कहते थे। उनका कहना था कि बचपन में मेरी मॉं ने मेरी गन्दगी उठायी थी और जवानी में इस मॉं ने उठायी है।

    जब फॉंसी से पूर्व भगतसिंह से उनकी इच्छा पूछी गई, तो उन्होंने मॉं के हाथ की रोटियॉं खाने की इच्छा जाहिर की। जेलर ने इसे उनका मातृप्रेम समझा। किन्तु जब जेलर को पता चला कि भगतसिंह सफाई कर्मचारी के हाथ से भोजन करना चाहते हैं तो वह स्तब्ध रह गया।

    जेलर ने जब उस महिला को भगतसिंह की इच्छा बताई, तो वह भाव विभोर होकर रो पड़ी और बोली, "बेटा, मेरे हाथ ऐसे नहीं है कि उनसे बनी रोटी आप खाएँ।'' भगतसिंह ने प्यार से उनके दोनों कन्धे थपथपाते हुए कहा, "मॉं जिन हाथों से बच्चों का मल साफ करती है, उन्हीं हाथों से तो खाना बनाती है। मॉं, तुम चिन्ता मत करो और रोटी बनाओ।' भगतसिंह ने बड़े चाव से उसके हाथ से बनी रोटियॉं खाई।

    Ved Katha Pravachan _83 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


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    When his wish was asked to Bhagat Singh before Fonsi, he expressed his desire to eat the loaves of mother's hand. The jailer considered it his maternal love interest. But when the jailer came to know that Bhagat Singh wanted to eat from the hand of the sweeper, he was shocked.

     

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  • भारत-भाग्य विधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती - 1.2

    कुछ लोगों का कहना है कि हम मूर्त्तियों को ईश्वर नहीं मानते, हम उन्हें केवल मानसिक विकास का साधन मानते हैं। इस पर राजा राममोहन राय का कहना था-

    “Hindus of the present age have not the least idea that it is the attributes of the Supreme Being as figuratively represented by Shapes corresponding to the nature of those attributes, they offer adoration and worship under the denomination of gods and godesses.

  • भारत-भाग्य विधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती -1.4

    सन्‌ 1857 के संग्राम के बाद ब्रिटिश सरकार ने कूटनीति का सहारा लिया और महारानी विक्टोरिया ने एक घोषणापत्र (Proclamation) जारी किया । उसकी भाषा बडी लुभावनी थी। उसमें कहा गया था-

    “When by the blessings of Providene, internal tranquility shall be restored, it is our earnest desire to stimulate the peaceful industry in India, to promote works of public utility and improvement and to administer its Government for the benifit of all our subjects residents therein.

  • भारत-भाग्य विधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती - 1.1

    राजा राममोहन राय-

    भारत के इतिहास एवं संस्कृति का परिचय देनेवाली पुस्तकें राजा राममोहन राय को आधुनिक भारत के निर्माता के रूप में प्रस्तुत करती हैं । इसमें सन्देह नहीं कि उस युग में राजा राममोहन राय पहले व्यक्ति थे जिन्होंने उस समय प्रचलित कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों पर प्रहार करके समाज-सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। उन्हीं के प्रयत्न के फलस्वरूप सन्‌ 1828 में सतीप्रथा के विरुद्ध कानून बना।

  • भारत-भाग्य विधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती -1.3

    स्वयं मैकाले ने लिखा था-

    “We must do our best to form a class who may be interpreters between us and the millions whom we govern a class of persons Indian in blood and clour, but English in taste, in opinions, words and intellect”.

    अर्थात्‌ हमें इस देश में एक ऐसा वर्ग पैदा करने का यत्न करना चाहिए जो हमारे और हमारे द्वारा शासित करोडों भारतीयों के बीच दुभाषियों का काम कर सके। यह वर्ग हाड़-मांस और रङ्ग से भले ही भारतीय लगे, परन्तु आचार-विचार, रहन-सहन, बोल-चाल और दिल-दिमाग से अंग्रेज बन जाए।

  • भारत-भाग्य विधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती – 2

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    केशवचन्द्र सेन- ऐसे समय में कलकत्ते में बाबू केशवचन्द्र सेन का प्रादुर्भाव हुआ। वे बड़े तीव्र बुद्धि,तार्किक और विद्वान्‌ युवक थे। महर्षि देवेन्द्रनाथ को वे ब्रह्म समाज के लिए बड़े उपयोगी जान पड़े। 1857 में वे ब्रह्म समाज में सम्मिलित हो गये। उन्होंने उत्साहपूर्वक समाज को संगठित करना प्रारम्भ किया और इस कारण महर्षि के कृपापात्र होकर वे शीघ्र ही उसके आचार्य पद पर नियुक्त हो गये,परन्तु केशव बाबू का आना ब्रह्म समाज के संगठन और स्वरूप के लिए अभिशाप बन गया। महर्षि देवेन्द्रनाथ और केशवबाबू के विचार नहीं मिलते थे,परिणामत: ब्रह्म समाज का विभाजन हो गया। मूल ब्रह्म समाज आदि ब्रह्म समाज के नाम से जाना जाने लगा और केशवबाबू का नवगठित समाज भारतवर्षीय ब्रह्म समाज के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

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    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    वेद का सन्देश सबके लिये, मन्त्र व्याख्या - यजुर्वेद 30.3
    Ved Katha Pravachan _37 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    केशव बाबू की शिक्षा-दीक्षा पाश्चात्य संस्कारों के साथ हुई थी। स्वभावत: ईसाइयत के प्रति उनमें अपार उत्साह था। वे ईसा को एशिया का महापुरुष ही नहींसमस्त मानवजाति का त्राता मानते थे और अपने अनुयायियों को ईसाईमत की धार्मिक एवं आचारमूलक शिक्षाओं को खुलेआम अपनाने की प्रेरणा देते थे। ‘Prophets of New India’नामक पुस्तक में रोम्यॉं रोलॉं (Romain Rolland)लिखते हैं- “Keshab Chandra Sen ran counter to the rising tide of national conciousness then feverishly awakening” (P. 97)अर्थात्‌ केशवचन्द्र सेन देश में बड़ी तेजी से उभरती हुई राष्ट्रीय चेतना के विरुद्ध दौड़े। जब नेता में ही देशभक्ति की भावना न हो तो उसके अनुयायियों का क्या कहना ! वस्तुत: केशव बाबू के अपने कोई सिद्धान्त नहीं थे। हिन्दू धर्म की मान्यताओं को नकारने के कारण उनके द्वार सबके लिए खुले थे। किन्तु वे पूरी तरह ईसाइयत के रंग-में-रंगे हुए थे और इस कारण ब्रह्म समाज को ईसाईसमाज का भारतीय संस्करण बनाना चाहते थे। अपनी प्रखर बुद्धि तथा ओजस्वी वाणी के कारण वे बंगाल में ही नहींसमूचे देश में प्रसिद्ध हो गये।

    9 अप्रैल 1879 को कलकत्ता के टाउनहाल में ‘India asks: Who is Christ?’शीर्षक व्याख्यान में केशव बाबू ने अपने हृदय के भावों को इन शब्दों में व्यक्त किया था- “My Christ, my sweet Christ, the brightest jewel of my heart. the necklace of my soul! For twenty years have I cherished him in this my miserable heart.अर्थात्‌ मेरा ईसामेरा प्यारा ईसामेरे हृदय का सर्वाधिक आभावान हीरामेरी आत्मा का कण्ठहार ! बीस वर्ष तक मैंने इसे अपने सन्तप्त हृदय में संजोए रक्खा है। कदाचित इसी को लक्ष्य करके रोम्यॉं रोलॉं ने‘Life of Ramkrishna’में केशवचन्द्र के सम्बन्ध में लिखा- “Christ had touched him and it was to be his mission of life to introdue him to Brahma Samaj. Keshav not only accepted Christianity but extolled it with greatness and was enlightened with it. He called it the loftiest expression of the world’s relegious consciousness.”अर्थात्‌ ईसा ने उसके अन्तस्तल करे स्पर्श किया था और ईसा को ब्रह्म समाज में प्रविष्ट करना केशवचन्द्र के जीवन का लक्ष्य था। केशवबाबू ने ईसाईयत को अंगीकर ही नहीं किया थाप्रत्युत उसे सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया था। वे स्वयं उससे आलोकित थे तथा उसे संसार की धार्मिक चेतना का सर्वोच्च विचार मानते थे। इतना ही नहींरोम्यॉं रोलॉं इससे आगे लिखते हैं- “Did any thing still separate him from Christianity?”अर्थात्‌ क्या अब भी कोई बात उसे ईसाइयत से दूर करती हैफ्रैंच लेखक लिल्लिंगटन ने ‘The Brahma Samaj and the Arya Samaj’नामक ग्रन्थ में लिखा - ‘Let Indian accept Christ’ were the words of Keshav Chandra Sen, one of the leaders of Brahma Samaj of India when he preached to a large congregation at Culcutta in 1879. To christian ears no words were more welcome.” (P. 1)अर्थात्‌ सन्‌ 1879 में कलकत्ता में एक बड़ी सभा में केशवचन्द्र सेन ने कहा था- भारत को ईसा को स्वीकार कर लेना चाहिए। ईसाई कानों को इससे अधिक सुखद शब्द नहीं हो सकते थे । मैक्समूलर ‘Biographical Essays’में पृष्ठ 89 पर पादरी क्लार्क वोयरो का यह प्रमाण उद्धत करता है- “Believers of Keshav Chandra Sen forefieted the name of theists, because their leader has been more and more inclined towards Christianity.”अर्थात्‌ केशवचन्द्र सेन के अनुयायियों को ब्राह्म कहाने का अधिकार नहीं हैक्योंकि उनका नेता ईसाइयत की ओर अधिक-से-अधिक झुक गया है।

    इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि जिस ब्रह्म समाज की आलोचना स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में की हैवह न राममोहन राय का ब्रह्म समाज है और न देवेन्द्रनाथ ठाकुर का। निश्चय ही वह केशवचन्द्र सेन का ब्रह्म समाज है। वहॉं "ईसाई होने से बचाये" यह वाक्य राममोहन राय द्वारा प्रवर्तित ब्रह्म समाज से सम्बन्धित है। केशव बाबू‘Brahmo Marriage Act’ पास कराना चाहते थे। आदि ब्रह्म समाज के लोगों ने उसका विरोध किया। वे अपने-आपको हिन्दू मानते थेइसलिए वे उसे अपने ऊपर लागू करवाना नहीं चाहते थे ! केशव बाबू के परामर्श से ब्रह्म समाज की ओर से जो ज्ञापन सरकार को भेजा गया था उसमें स्पष्ट लिखा था-“The term ‘Hindu’ does not include the Brahmo’s who deny the authority of the Vedas.” अर्थात्‌ हिन्दू शब्द में ब्राह्मों को शामिल नहीं माना जाएगाक्योंकि वे वेद को प्रमाण नहीं मानते। जबकि स्थापना के समय ब्रह्म समाज के मूल ट्रस्टडीड में स्पष्ट लिखा गया था- "वेद और उपनिषदों को मानना चाहिए और मूर्त्तिपूजा वेदविरुद्ध हैइसलिए त्याज्य है।" अन्तत: उक्त बिल 19 मार्च 1872 को "देशी विवाह एक्ट"(Native Marriage Act) के नाम से पास हुआ।

    केशवचन्द्र सेन की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करने के कारण ही परवर्त्ती ब्रह्म समाज का विशाल हिन्दू समाज से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो गया। ब्राह्म लोग अपने आपको हिन्दुओं की मान्यताओं और विश्वासों की मुख्य धारा से पृथक्‌ करते गये। परिणाम यह हुआ कि जिस ब्रह्म समाज की स्थापना हिन्दू धर्म की विकृतियों को दूर करके उसे एक स्वस्थ समाज का रूप देने के लिए की गई थीवह एक संकीर्ण समाज बनकर रह गया।‘Modern Religious movements in India’ के लेखन J.N. Farquhar ने ठीक लिखा है- “The Brahma today is as distinctly outside as the Chritians.” (P. 38) भारत में जन्मेंपले और बढे सभी मतों और सम्प्रदायों ने किसी-न-किसी रूप में वेद के प्रामाण्य को स्वीकार किया है। इसी परम्परा के अनुसार राममोहन राय ने वेदों की अपौरुषेयता को स्वीकार किया था और शास्त्र-प्रमाण-विचार में वेद को सर्वोपरि प्रमाण माना था-“A commonly accepted rule for ascertaining the authority of any book is that whatever book opposes the Veda is destitute of authority.” -The Brahmanical Magazine, No.2, Page 162 किन्तु कालान्तर में इस स्थिति में अन्तर आ गया। देवेन्द्रनाथ ठाकुर के काल में स्थिति कुछ-कुछ बीच की-सी रहीपर केशव बाबू के समय में ब्रह्म समाज ने वेद की प्रामाणिकता को नकार दिया। इस प्रकार अन्तत: Brahmo (Native)विवाह कानून के सन्दर्भ में यह स्पष्ट हो गया कि वेद को मानने वाले हिन्दू होते हैं और न माननेवाले ब्राह्म होते हैं। प्रो. मैक्समूलर ने‘Rammohan to Ramkrishna’ मे लिखा- “Members of the Brahma Samaj, after becoming better acquinted with their own sacred teachings than they ever had before, should solemnly have declared in the year 1850 (17 years after the death of Raja Rammohan Rai) that the claim of being divinely inspired could no longer be maintained in favour of the Brahmans of the Veda.” साथ-साथ यह भी कहना आरम्भ कर दिया कि हमारे लिए बाइबलकुरान आदि सब समान रूप से मान्य हैं। कालान्तर में जब केशव बाबू ने अपनी अल्पवयस्का पुत्री का विवाह कूचबिहार के राजकुमार के साथ करना निश्चित किया और उस अनुष्ठान में भी ब्राह्मविधि का प्रयोग न किया जाकर परम्परागत मूर्त्तिपूजा-प्रधान-संस्कार ही सम्पन्न हुआ तो केशव के रहे सहे साथी थी उनका साथ छोड़ गये। केशव ने अपनी अल्पावस्था पुत्री के विवाह को विधिसम्मत सिद्ध करने के लिए अपने-आपको दैवी आदेश प्राप्त करने वाले सिद्ध पुरुष के रूप में प्रस्थापित किया। मुहम्मद साहब जो कुछ करना चाहते थेउसकी स्वीकृति देने वाली आयत खुदा की ओर से उनपर पहली रात में नाजल हो जाती थी। केशव बाबू की इन्हीं प्रवृत्तियों के कारण तत्कालीन वायसराय लार्ड लारेंस ने उन्हें  भारतीय जनता का उद्धारक कहकर सम्मानित किया था। 

    राममोहन राय तथा उन्हीं के सम्प्रदाय के केशवचन्द्र सेन ने ईसाईमतपाश्चात्य सभ्यतासंस्कृतिभाषाशिक्षा तथा नैतिक मूल्यों से प्रभावित होकर जो कुछ किया उसके कारण भारतीय जनमानस ने उन्हें सदा के लिए नकार दिया। सत्यार्थप्रकाश में ब्रह्म समाज के प्रकरण में स्वामी दयानन्द लिखते हैं- "इन लोगों में स्वदेशभक्ति बहुत कम है। ईसाइयों के बहुत-से आचरण लिये हैं। अपने देश की प्रशंसा और पूर्वजों की बड़ाई करना तो दूर रहाउसके स्थान पर भरपेट निन्दा करते हैं।" 

    "ब्रह्मादि ऋषियों का नाम तक नहीं लेते, प्रत्युत ऐसा कहते हैं कि बिना अंग्रेजों के सृष्टि में आजपर्यन्त कोई विद्वान्‌ ही नहीं हुआ। आर्यावर्त्तीय सदा से मूर्ख चले आये हैं, उनकी उन्नति कभी नहीं हुई।....भला जब आर्यावर्त्त में उत्पन्न हुए हैं और इसी का अन्न-जल खाया-पिया, अब भी खाते-पीते हैं, तब अपने माता-पिता-पितामह आदि का मार्ग छोड़कर दूसरे विदेशी मतों पर झुक जाना ब्रह्म समाजी और प्रार्थनासमाजियों का एतद्देशस्थ संस्कृत विद्या से रहित अपने को विद्वान्‌ प्रकाशित करना, इंगलिश पढके पण्डिताभिमानी होकर एक नया मत चलाने में प्रवृत्त होना बुद्धिमान्‌ का कार्य क्योंकर हो सकता है?"

    "जिनको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है" वे लोग भारत का निर्माण कैसे कर सकते थे?

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    Rammohan Roy and Keshav Chandra Sen of his community, influenced by Christianity, Western civilization, culture, language, education and moral values, rejected the Indian public forever. In the episode of Brahmo Samaj in Satyarth Prakash, Swami Dayanand writes - "These people have very little indoctrination. Many have taken the conduct of Christians. It is far from praising their country and praising their ancestors, they blatantly condemn it"

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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-10.1

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती 

    देशभक्त दयानन्द- जो इस देश को अपना नहीं समझता उससे इसकी उन्नति में प्रवृत्त होने की आशा कैसे की जा सकती है? इसमें सन्देह नहीं कि भारत के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनकी सबसे बड़ी देन है वह नारा जिसने इस आन्दोलन में जान फूँक दी थी। वह नारा था- "स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।" परन्तु लोकमान्य की मान्यता है कि आर्यलोग (अर्थात्‌ इस देश की 80 प्रतिशत आबादी) इस देश के मूल निवासी नहीं हैं। वे विदेशी आक्रमणकारी हैं, जिन्होंने उत्तर ध्रूव से आकर अपनी सैनिक शक्ति के बल पर इस देश पर बलात्‌ अधिकार किया और यहॉं के आदिवासियों को खदेड़कर बाहर किया तथा उनके घर-द्वार पर ही नहीं, उनकी स्त्रियों पर भी अधिकार कर बैठे । क्या इस प्रकार बलात्‌ पराये घर पर अधिकार जमानेवाले लोगों का यह अधिकार है कि वह उस पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार जताएँ? लोकमान्य ने अपने मत का उल्लेख ‘Arctic Home in the Vedas’ में किया था। जब "मानवेर आदि जन्मभूमि" के लेखक बाबू उमेशचन्द्र विद्यारत्न ने पूना जाकर उनसे पूछा कि वेदों में यह कहॉं लिखा है, तो लोकमान्य ने उत्तर दिया-"आमि  मूल वेद अध्ययन करि नाई, आमि साहब अनुवाद पाठ करिये छे" (मैंने मूल वेद नहीं पढे, मैंने तो साहब लोगों (अंग्रेजों) का किया हुआ अनुवाद पढा है)।

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    विद्या प्राप्ति के प्रकार एवं परमात्मा के दर्शन
    Ved Katha Pravachan _21 (Introduction to the Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    "फूट डालो और राज्य करो" (Divide and rule) के सिद्धान्त के अनुसार भारतीयों को भ्रमित करने के विचार से आर्य-द्रविड़ जातियों के सिद्धान्त की कल्पना लण्डन की रॉयल एशियाटिक सोसायटी के बन्द कमरे में 9 अप्रैल 1866 की सभा में की गई थी। रॉयल एशियाटिक सोसाइटी जर्नल (नई मालिका 5, पृ.420 की टिप्पणी) के अनुसार यह सभा राइट ऑनरेबल वाईकाउण्ट स्ट्रांगफील्ड (Viscount Strongfield) की अध्यक्षता में हुई थी। मिस्टर एडवर्ड टामस ने चौथे शीर्षक के अन्तर्गत चर्चा का आरम्भ करते हुए कहा कि "आक्सस नदी से आर्यन आक्रामकों की लहरें अरिमानिया प्रान्त और हिन्दूकुश के मार्ग से भारत में प्रविष्ट हुईं।" तद्‌नुसार भारत में प्राइमरी से लेकर यूनिवर्सिटी स्तर तक की पुस्तकों में पढाया जाने लगा कि आर्यों ने भारत पर आक्रमण किया और यहॉं के मूल (आदि) निवासियों को परास्त कर इस देश पर बलात्‌ अधिकार करके इसके स्वामी बन गये। इस प्रकार इस देश के मूल निवासी आर्य आक्राम के रूप में द्वितीय श्रेणी के नागरिक कहलाने लगे। हम अपने ही घर में पराये बन गये। इसी आधार पर आज यह मॉंग की जा रही है कि अन्य विदेशियों (मुसलमानों तथा अंग्रेजों की भॉंति) आर्यों (हिन्दुओं) को भी, इस देश को आदिवासियों को सौंपकर, जहॉं से आये थे वहॉं लौट जाना होगा। यदि दौ सौ वर्ष पूर्व आनेवाले अंग्रेज विदेशी थे तो तीन हजार वर्ष पूर्व आनेवाले आर्य विदेशी क्यों नहीं? इस सन्दर्भ में ‘Muslim India’ के 27 मार्च 1985 के अङ्क में प्रकाशित यह वक्तव्य द्रष्टव्य है- 

    “This land belongs to those who are its original inhabitants and hence its rightful owners. It is they who built Harappa and Mohenjodaro, the world’s most ancient civilisation. Most of India’s Muslims and Christians are converts from these sons of the soil. They are either Dalits or tribals. In all foreign invasions, it is these people who defended India. They (Aryans) don’t belong to India and hence don’t love India. They are foreigners, the enemy within. As Aryans they are India’s first foreigneres. If Muslims and Christians are foreigners and must get out of India, as India’s first foreigners, the Aryans are duty bound to get out first. Those who came first must leave first.” 

    इस प्रकार ईसाइयों और मुसलमानों की ओर से यह कहा जा रहा है कि इस देश के मुसलमानों में अधिसंख्य यहॉं की छोटी जातियों- अनुसूचित जातियों, जनजातियों, गिरिजनों आदि में से हैं, क्योंकि यही लोग भारत के मूल निवासी हैं, इसलिए हिन्दू से मूसलमान व ईसाई बने लोग ही इस देश के मालिक हैं, अन्य सब विदेशी हैं। अंग्रेज चले गये, पर भारत पर सबसे पहले आक्रमण करके यहॉं बसे विदेशी आर्य नहीं गये। जो सबसे पहले आये थे उन्हीं को सबसे पहले जाना चाहिए था। 

    आर्यों के विदेशी होने की मान्यता का फलितार्थ विभिन्न रूपों में हमारे सामने आ रहा है। 4 सितम्बर 1977 को संसद्‌ में राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्य फैंक एन्थोनी ने मॉंग की- 

    “Sanskrit should be deleted from the 8th schedule of the constitution of India, because it is a foreign language brought to this country by foreign invaders, the Aryans”. - Indian Express, Sept. 9,1977. 

    अर्थात्‌ विदेशी आर्यों द्वारा लाई गई संस्कृत के विदेशी भाषा होने के कारण उसे भारतीय संविधान के आठवें परिशिष्ट में परिगणित भारतीय भाषाओं की सूची में से निकाल देना चाहिए। सन्‌ 1978 के आरम्भ में भारत ने अपना पहला उपग्रह अन्तरिक्ष में छोड़ा था। उसका नाम भारत के प्राचीन वैज्ञानिक आर्यभट्‌ट के नाम पर रक्खा गया था। 23 फरवरी 1978 को द्रमुक (द्रविड़मुन्नेत्र कड़गम) के प्रतिनिधि लक्ष्मणन ने उस नाम पर आपत्ति करते हुए राज्यसभा में मॉंग की थी कि आर्यभट्‌ट नाम के विदेशी होने के कारण उसके स्थान पर भारतीय नाम रक्खा जाना चाहिए। कई वर्ष पहले तमिलनाडू के सलेम नामक शहर में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आर्य होने के कारण उनकी मूर्ति के गले में जूतों का हार पहनाकर झाडुओं से मारते हुए जलूस निकाला गया। इन सबके मूल में आर्यों के विदेशी होने की मान्यता थी। 

    ऋषि क्रान्तदर्शी होता है। ऋषि दयानन्द पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पाश्चात्यों की इस विनाशकारी कूटनीतिक चाल को समझा और इसके विरुद्ध आवाज उठाई। उन्होंने घोषणा की - 

    "किसी संस्कृतग्रन्थ में वा इतिहास में नहीं लिखा कि आर्य लोग ईरान से आये और यहॉं के जङ्गलियों से लड़कर, जय पाके, उन्हें निकालके इस देश के राजा हुए। पुन: विदेशियों का लेख माननीय कैसे हो सकता है? आर्यलोग सृष्टि के आदि में कुछ काल के पश्चात्‌ तिब्बत से सीधे इसी देश में आकर बसे थे। इससे पूर्व इस देश का कोई नाम भी नहीं था और न कोई आर्यों से पूर्व इस देश में बसते थे।" - सत्यार्थप्रकाश अष्टम समुल्लास

    अपने को आक्रामक मानकर इस देश पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार जताना और अंग्रेजों को निकालकर इस पर शासन करना न्याय नहीं कहा जा सकता। स्वतन्त्रता आन्दोलन का आधार यही है कि यह देश हमारा है, इसलिए इस पर शासन करने का अधिकार हमारा है। इसी से देशप्रेम और देशभक्ति की भावना को बल मिलता है। इस प्रकार दयानन्दकृत "सत्यार्थप्रकाश" तथा "आर्याभिविनय" ही "यतेमहि स्वराज्ये" के आदि प्रेरक हैं। दयानन्द से अतिरिक्त इसमें अन्य कोई भागीदार नहीं है। 

    सन्‌ 1911 की जनसंख्या के अध्यक्ष (सेंसस्‌ कमिश्नर) मिस्टर ब्लण्ट ने आर्यसमाज की समीक्षा करते हुए लिखा था- 

    “The Arya Samajic doctrine has a patriotic has a patriotic side. The Arya doctrine and Arya education alike sing the glories of ancient India and by so doing arouse a feeling of national pride in its disciples, who are made to feel that their country’s history is not a tale of humiliation. Patriotism and politics are not synonymous, but the arousing of an interest in national affairs is a naural result of arosing national pride.” -Census Report of 1911, Vol. XV, Part I, Chap IV, P. 135

    अर्थात्‌ "आर्यसमाज के सिद्धान्तों में स्वदेशप्रेम की प्रेरणा है। आर्य सिद्धान्त और आर्यशिक्षा समान रूप से भारत के प्राचीन गौरव के गीत गाते हैं और ऐसा करके अपने अनुयायियों में राष्ट्र के प्रति गौरव की भावना को जागरित करते हैं। इस शिक्षा के फलस्वरूप वे समझते हैं कि हमारे देश का इतिहास पराभव की कहानी नहीं है। देशभक्ति और राजनीति एकार्थवाची नहीं हैं, किन्तु राष्ट्रीय कार्यों में रुचि या प्रवृत्ति राष्ट्रीय भावना का स्वाभाविक परिणाम है।" 

    ब्लण्ट के अनुसार स्वदेश के प्रति जागरित इस गौरवगान का यह परिणाम हुआ कि लोगों में अपने खोये गौरव को फिर से पाने की लालसा को बल मिला। किसी भी मामले में विदेशियों के सामने सिर झुकाना दयानन्द को सह्य नहीं था। वह लिखते हैं, "जब अपने देश में सब सत्य विद्या, सत्य धर्म और परमयोग की सब बातें थीं और अब भी हैं, तब विचारिए कि थियोसोफिस्टों को स्वदेशवासियों के मत में मिलना चाहिए या आर्यावर्त्तियों को थियोसोफिस्ट बनना चाहिए?"

    ब्राह्मसमाज के खण्डन के प्रकरण में यह बात और भी अधिक स्पष्टता से उभरकर आती है, "इन लोगों में स्वदेश भक्ति बहुत न्यून है। ईसाइयों के बहुत-से आचरण लिये हैं। अपने देश की प्रशंसा और पूर्वजों की बड़ाई करना तो दूर रहा, उसके स्थान में भरपेट निन्दा करते हैं। ब्रह्मादि ऋषियों का नाम भी नहीं लेते प्रत्युत ऐसा कहते हैं कि बिना अंग्रेजों के सृष्टि में आजपर्यन्त कोई विद्वान्‌ ही नहीं हुआ, आर्यावर्त्तीय सदा से मूर्ख चले आये हैं, उनकी उन्नति कभी नहीं हुई।...भला जब आर्यावर्त्त में उत्पन्न हुए हैं, तब अपने माता-पिता, पितामह आदि के मार्ग को छोड़कर दूसरे विदेशी मतों पर झुक जाना ब्राह्मसमाजी और प्रार्थनासमाजियों का एतद्देशस्थ संस्कृतविद्या से रहित अपने को विद्वान्‌ प्रकाशित करना, इंगलिश पढके पण्डिताभिमानी होकर एक नया मत चलाने में प्रवृत्त होना मनुष्यों का बुद्धिकारक काम क्योंकर हो सकता हैं?"

    कितना स्वदेशाभिमानी था दयानन्द ! सन्‌ 1901 में जनसंख्या के अध्यक्ष (सेंसस्‌ कमिश्नर) मिस्टर वर्न थे। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में लिखा- “Dayananda feared Islam and Christianity because he considered that the adoption of any foreign creed would endanger the national feelings he wished to foster.”

    अर्थात्‌ "दयानन्द इस्लाम तथा ईसाइयत के प्रति इसलिए शङ्कित थे, क्योंकि वे समझते थे कि विदेशी मतों के अपनाने से देशवासियों की राष्ट्रीयता की भावना को क्षति पहुँचेगी, जिन्हें वे पुष्ट करना चाहते थे।"

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    According to Blunt, this result of this glorified awareness of home country has resulted in the desire of people to regain their lost glory. In any case, Dayanand was not tolerant to bowing before the foreigners. He writes, "When there was, and still is, all the truth, truth religion, and paramyoga in our country, then should the Theosophists should get the opinion of the indigenous people or should the Aryavartis become theosophists?"

     

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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-10.2

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    इसमें सन्देह नहीं कि हमारी दासता की बेड़ियों को सुदृढ करने में ईसाइयों ने अंगरेजों के कन्धे-से-कन्धा मिलाकर काम किया है। जब तक किसी देश के लोगों में स्वाभिमान की भावना रहती है तब तक विदेशी शासन के स्थायित्व पर प्रश्नचिह्न लगा रहता है। इसी भावना को नष्ट करने के लिए ईसाइयत ने हिन्दुस्तानियों को असभ्य और जंगली बताकर उनमें हीनता की भावना को उभारने का यत्न किया।

    इस्लाम के इतिहास से सभी भली-भॉंति परिचित हैं। यह ठीक है कि भारत में रहने वाले प्राय: सभी मुसलमान मूलत: इसी देश के वासी हैं,किन्तु आठ सौ वर्ष से इस धरती के अन्न-जल से पोषण पाकर भी वे इस देश के नहीं बन सके। भारत के मुसलमानों ने कभी इस देश पर शासन नहीं किया। शासन करनेवाले मुगल,पठान,खिलजीलोधी,गोरी,आदि सभी आक्रमणकारी विदेशी मुसलमान थे,परन्तु जितना गर्व उन्हें इन विदेशी आक्रमणकारियों और इस देश के लोगों पर अत्याचार करनेवालों पर है उतना इस देश में पैदा हुए राम,कृष्ण और ऋषि-मुनियों पर अथवा इस देश के लिए मर मिटनेवाले राणा प्रताप,शिवाजी आदि पर नहीं है।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    धर्म की कसौटी - सबका कल्याण
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    मिस्टर ब्लण्ट ने ही एक बात और लिखी है-‘Dayananda was not merely a religious reformer, he was a great patriot. It would be fair to say that with him religious reform was a mere means to national reform.’

    अर्थात्‌ दयानन्द मात्र धार्मिक सुधारक नहीं था। वह एक महान्‌ देशभक्त था। यह कहना ठीक होगा कि उसके लिए धार्मिक सुधारराष्ट्रीय सुधार का एक उपाय था। ब्लण्ट ने बड़े पते की बात कही है। इसमें सन्देह नहीं कि दयानन्द ने पाखण्डों और परस्पर विरोधी मतों का खण्डन इसलिए किया कि इनके रहते दयानन्द के अपने शब्दों में "परस्पर एकतामेल-मिलाप या सद्‌भाव न रहकर ईर्ष्याद्वेषविरोध और लड़ाई-झगड़ा ही होगा।" यदि ऐसे पाखण्ड न चलते तो आर्यावर्त्त की दुर्दशा क्यों होती?

    दयानन्द ने सबसे अधिक खण्डन मूर्तिपूजा का किया है। इस प्रकरण में उन्होंने मूर्त्तिपूजा से होनेवाली सोलह हानियों का उल्लेख किया हैजिनमें से अधिकतर का सम्बन्ध उसके कारण देश को होनेवाली हानियों से है। वे लिखते हैं, "नाना प्रकार की विरुद्ध स्वरूप-नाम-चरित्रयुक्त मूर्तियों के पुजारियों का ऐक्यमत नष्ट होके विरुद्धमत में चलकर आपस में फूट बढाके देश का नाश करते हैं। जो मूर्ति के भरोसे शत्रु की पराजय और अपना विजय मानके बैठे रहते हैं उनका पराजय होकर राज्यस्वातन्त्र्य और सुख उनके शत्रुओं के अधीन हो जाता हैक्यों पत्थर पूजकर सत्यानाश को प्राप्त हुएदेखोजितनी मूर्तियॉं पूजी हैं उनके स्थान में शूरवीरों की पूजा करते तो कितनी रक्षा होती?"

    राष्ट्रोत्थान के लिए एकता आवश्यक है। दयानन्द ने "सत्यार्थप्रकाश" में अनेकत्र इस बात पर बल दिया है। उनका कहना है, "जब तक एक मतएक हानि-लाभएक सुख-दु:ख न मानें तब तक उन्नति होना बहुत कठिन है।" जब भूगोल में एक मत थाउसी में सबकी निष्ठा थी और एक-दूसरे का सुख-दु:खहानि-लाभ आपस में समान समझते थे तभी तक सुख थापरन्तु दयानन्द के अनुसार "भिन्न-भिन्न भाषापृथक्‌-पृथक्‌ शिक्षाअलग-अलग व्यवहार के विरोध का छूटना अतिदुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है।" एकता-सम्मेलन समझौते का आधार बन सकते हैंएकता का नहीं। समझौतों से सामयिक समस्या का समाधान भले ही हो जाएउसमें स्थायित्व नहीं आ सकता। ऐसे उपायों से रोग दब सकता हैकिन्तु नष्ट नहीं हो सकता। इतना ही नहींकालान्तर में वह और भी उग्र रूप धारण कर सकता है।

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    एक दिन श्री मोहनलाल विष्णुलाल पण्ड्‌या ने स्वामी दयानन्द से पूछाभगवन्‌ ! भारत का पूर्ण हित कब होगायहॉं जातीय उन्नति कब होगीस्वामीजी ने उत्तर दिया, "एक धर्मएक भाषा और एक लक्ष्य बनाए बिना भारत का पूर्ण कित और जातीय उन्नति होना कठिन है। सब उन्नतियों का केन्द्रस्थान ऐक्य है। जहॉं भाषाभाव और भावना में एकता आ जाए वहॉं सागर में नदियों की भॉंति सारे सुख एक-एक करके प्रवेश करने लगते हैं। मैं चाहता हूँ कि देश के राजा-महाराजे अपने शासन में सुधार और संशोधन करें। अपने राज्य में धर्मभाषा और भावों में एकता करें। फिर भारत में आप ही सुधार हो जाएगा।"

    महात्मा गॉंधी ने स्वदेशी के लिए आन्दोलन किया था। उनका वह आन्दोलन स्वदेशी वस्त्रों या खादी तक सीमित था। वर्तमान में एक बार फिर इस प्रकार के आन्दोलन का सूत्रपात हुआ है जिसका लक्ष्य भारत में विदेशी या अर्धविदेशी कम्पनियों द्वारा निर्मित वस्तुओं का बहिष्कार करना बताया जाता है।

    दयानन्द ने अपने समय में देश की आर्थिक समस्याओं पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया। विचार ही नही  किया अपितु निश्चित योजना भी बनाई और तदर्थ विदेशों से पत्र-व्यवहार भी किया। दैवगति से उन्हें अपनी योजनाओं को कार्यान्वित करने का अवसर नहीं मिला। स्वामीजी इस बात को बड़ी पीड़ा के साथ अनुभव करते थे कि विदेशी माल की खपत से कितनी हानि हो रही है। उन्होंने "सत्यार्थप्रकाश" में लिखा, "जब परदेशी हमारे देश में व्यापार करें दो दारिद्र्‌य और दु:ख के बिना दूसरा कुछ भी नहीं हो सकता।" देश की आर्थिक स्थिति को सुधारने के उद्‌देश्य से विदेशी वस्तुओं और रहन-सहन का बहिष्कार करने और स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने की प्रेरणा करते हुए उन्होंने बड़े मर्मभेदी शब्दों में कहा, "इतने से ही समझ लेओ कि अंग्रेज अपने देश के जूते का भी जितना मान करते हैं उतना भी अन्य देशस्थ मनुष्यों का नहीं करते। देखोकुछ सौ वर्ष से ऊपर इस देश में आये यूरोपियनों को हो गये और आज तक ये लोग वैसे ही मोटे कपड़े आदि पहनते हैंजैसेकि स्वदेश में पहनते थेपरन्तु उन्होंने अपने देश का चलन नहीं छोड़ा। तुममें से बहुत-से लोगों ने उनकी नकल कर ली। अनुकरण करना बुद्धिमानों का काम नहीं। इससे तुम निर्बुद्धि और वे बुद्धिमान ठहरते हैं। वे अपने देशवालों को व्यापार में सहायता देते हैंइत्यादि गुणों और अच्छे कर्मों से उनकी उन्नति है।

    "अन्य देशस्थ मनुष्यों का भी उतना मान नहीं करते जितना अपने देश के जूते का" लिखनेवाले के मन में कितनी पीड़ा रही होगीअपने देश की दीन-हीन दशा देखकर कितनी तीव्र घृणा रही होगी उसके हृदय में विदेशी शासन और विदेशी वस्तुओं के प्रयोग के प्रति! छावली निवासी ठाकुर ऊधोसिंह को विदेशी वेशभूषा में देखकर उन्होंने बड़े मार्मिक शब्दों में कहा था, "क्या तुम विदेशी कपड़ों से बने इस नये वेश से विभूषित होकर अपने पिताजी से अधिक सुसंस्कृत हो गये हो।?" -श्रीमद्दयानन्द प्रकाश

    स्वामीजी से प्रेरणा पाकर बड़ी संख्या में आर्यसमाजी स्वदेशी वस्त्रों का प्रेरणा करने लगे थे। लाहौर की आर्य समाज के सभासदों द्वारा अंग्रेजी वस्त्रों का प्रयोग न करने और स्वदेशी वस्त्रों का ही प्रयोग करने के निर्णय का समाचार "स्टेट्‌समैन" के 14 अगस्त 1879 के अंक में इस प्रकार प्रकाशित हुआ था-

    ‘The present condition of India is one of rapidly increasing improverishment. In this condition of the country, there is no public question of such high importance and absorbing interest as the question of the rivival of our trades and industries. The action of the members of Lahore Arya Samaj, founded by the learned Pandit Dayanand Saraswati should, therefore, be hailed with satisfaction by those who have the interest and welfare of this country at heart. They resolved at a meeting held at the premises of the Arya Samaj building to abstain from the use of English clothes. Hence foreward they will stick to the clothes manufactured solely in India. If they can fulfil their promises, and others follow their example, a great object will be gained. This is the only way be which the influence of Manchaster can be counteracted in the Indian market.’

    अर्थात्‌ "भारत की वर्तमान अवस्था तेजी से बढती हुई दरिद्रता की है। देश की इस अवस्था में अपने धन्धों और उद्योगों की पुन: बहाली का प्रश्न जितना महत्त्वपूर्ण और रोचक है उतना अन्य कोई सामाजिक प्रश्न नहीं है। अत: विद्वान्‌ मनीषी दयानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित लाहौर आर्यसमाज के सदस्यों के कदम का सन्तोष के साथ अभिनन्दन उन सब लोगों को करना चाहिए जिनके हृदय में देश का हित है। आर्यसमाज भवन के परिसर में हुई एक बैठक में उन्होंने अंगे्रजी कपड़ों के उपयोग से विरत होने का निश्चय किया है। आगे से वे केवल भारत में बने कपड़ों का हठ रखेंगे। यदि वे अपने वचनों को क्रियान्वित कर सके और अन्य लोग उनके उदाहरण का अनुकरण कर पाये तो एक महान्‌ लक्ष्य पूरा हो जाएगा। भारतीय बाजार में मैंचेस्टर के प्रभाव का जवाब देने का यह एक उपाय हैं।"

    राष्ट्रीय प्रशासनिक मुख्यालय
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    अन्नपूर्णा, इंदौर (मध्य प्रदेश) 452009
    दूरभाष : 0731-2489383, 9302101186
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    Of course, Christians have worked together to strengthen the shackles of our slavery by mixing the shoulders of the British. As long as there is a sense of self-respect among the people of a country, then the stability of foreign rule remains in question. To destroy this sentiment, Christianity tried to instill a sense of inferiority in them by calling Hindustani rude and wild. 

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