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  • शिव-रात्रि बोध रात्रि

    भारत में शिवरात्रि के पर्व का बहुत महत्व है। शिवरात्रि का अर्थ है- कल्याणकारिणी रात्रि और शिव (महादेव) से सम्बद्ध रात्रि। वर्तमान में हिन्दू समाज इस रात्रि में विशेष रूप से शिवमूर्ति की अर्चना करता है। परन्तु जब तक शिव (महादेव) के साथ इस रात्रि का क्या सम्बन्ध है, यह प्रकट न हो, तक तक यह पर्व मनाना सफल नहीं हो सकता।

    महाभारत में अनेकों स्थानों पर शिव के महत्वपूर्ण कार्यों का वर्णन है। "शिव सहस्त्रनाम स्तोत्र" में तो एक-एक नाम से महात्मा शिव के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं का संकेत है। महात्मा शिव सपत्नीक होते हुए भी पूर्ण ब्रह्मचारी थे। उनका पार्वती के साथ शारीरिक सम्बन्ध हुआ ही नहीं। इस ओर संकेत करने वाले "शिव सहस्त्रनाम" में अनेक नाम हैं। उदाहरण के लिये दो नाम उपस्थित हैं।

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    Ved Katha Pravachan _51 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    उत्तानशय:-इसका अर्थ है सदा सीधा सोने वाला। स्त्री-संसर्ग में पुरुष अधोमुख होता है। अत: यह नाम बताता है कि शिव ने पार्वती के साथ यौन सम्बन्ध नहीं किया था।

    स्थाणु- स्थाणु का अर्थ होता है पुष्प फल से रहित ठूंठ (वृक्ष)। यह नाम बताता है कि इसी आजन्म ब्रह्मचर्य के कारण शिव सन्तानरूपी फल से रहित थे। कार्तिकेय शिव के औरस पुत्र नहीं थेजैसा कि समझा जाता है। वे उनके पालित पुत्र थेजैसे गणेश। इसकी ओर महाभारतस्थ कार्तिकेयोत्पत्ति का प्रकरण भी संकेत करता है।

    ऐसा आजन्म ब्रह्मचर्य और वह भी पत्नी के होते हुए पालन करना अति असम्भव सा कार्य है। परन्तु शिव ने उसे भी सम्भव कर दिखाया। इसीलिये उन्हें कामारि या मदनारि कहते है। शिव का एक महत्वपूर्ण नाम है- अर्धनारीश्वर। इसका भाव यह है कि नारी पार्वती की उपस्थिति वे बाहर न मानकर अपने अर्धभाग में ही स्वीकार करते थे। जो मनुष्य अपने भीतर ही अर्धभाग में नारी की स्थिति जान लेता है वह बाह्य नारी-सम्बन्ध से दूर हो जाता है। शतपथ में कहा है- तावत्‌ पुरुषो अर्धो भवति यावज्जायां न विन्देत अथ जायां विन्दते पूर्णो भवति।

    इसका भाव यह है कि मनुष्य अपने में किसी वस्तु की न्यूनता समझता है और उसे पूर्ण करने के लिये जाया (पत्नी) को प्राप्त करता है। तब वह अपने को पूर्ण समझने लगता है।

    यदि किसी को यह ज्ञान हो जावे कि जिस नारी रूपी बाह्य वस्तु की मैं कामना करता हूँवह तो मेरे भीतर ही अर्धभाग में स्थित हैतब वह अपने आपको पूर्ण जानकर जाया की कामना नहीं करता। यह ज्ञान परम सूक्ष्म है। इसी महत्वपूर्ण ज्ञान को प्राप्त करके शिव अपने में पूर्ण हो गये और अन्य देवों की अपेक्षा महान्‌ हो गयेमहादेव बन गये। यही उनके तृतीय नेत्र (ज्ञान नेत्र) के उद्‌घाटन का भाव है। इसी विवेक नेत्र से उन्होंने मदन को भस्मीभूत किया था।

    सम्भव है इसी ज्ञान की उपलब्धि उन्हें इस रात्रि में हुई होगी और उन्होंने काम पर विजय पाकर अर्धनारीश्वरत्व को समझा होगा।

    यदि शिवभक्त महात्मा शिव के इस तत्वज्ञान को समझने के लिये कुछ प्रयत्न करेंतो यह रात्रि उनके लिये भी शिव (कल्याण रात्रि बन सकती है)।

    शिवरात्रि महात्मा शिव के वैवाहिक जीवन की प्रथम रात्रि थीसुहाग रात ! तभी असुरों ने देव सेना को ललकारा और तभी देवों के सेनापति रुद्र (शिव) ने असुर और आसुरी सभ्यता के विनाश के लिये अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया। यह था शिव रात्रि व्रत! बज उठा डमरूथिरक उठे पॉंव। सेनापति शिव अब असुर-नाश के रूप में ताण्डव नृत्य कर रहे थे। कैसे खेद का विषय है कि ऐसे योगी और ब्रह्मचारी के नाम पर "शिवलिङ्ग पूजा" का भ्रष्टाचार फैलाया गया है।

    दयानन्द-बोधइसी शिवरात्रि के साथ महान्‌ तत्ववेत्ता ऋषि दयानन्द का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। बालक मूलशङ्कर को इस रात्रि में ही कुल-परम्परा से प्राप्त शिवमूर्ति की पूजा करते हुए इस तत्व का बोध हुआ था कि इतिहास पुराणों में जिस महाबली त्रिपुरारि शिव का वर्णन मिलता हैवह यह प्रस्तरमूर्ति नहीं है। महादेव ने तो बड़े-बड़े बलवान्‌ राक्षसों को मारा था और यह महादेव जिसकी पूजा मैं कर रहा हूँवह तो अपने ऊ पर से नैवेद्य को खाने वाले चूहों को भी हटाने में असमर्थ है। इसीलिये मैं उस सच्चे शिव-महादेव की खोज करूँगाजिसका वर्णन शास्त्रों में मिलता है। इस प्रकार मूलशंकर के लिए यह रात्रि वास्तव में शिव-कल्याण की रात्रि बन गई।

    मूलशंकर ने इस रात जो शिव संकल्प लियाउसके लिए उन्होंने वैभवपूर्ण घर का त्याग करके सच्चे शिव की खोज में अपना सारा जीवन अर्पित कर दिया। सच्चे शिव के दर्शन के लिये योग की आवश्यकता का अनुभव होने पर योगियों की खोज मे अर्वली (आबू) पर्वतहिमालय के हिमाच्छादित शिखरों एव विन्ध्याचल की दुर्गम पर्वत श्रेणियों और जङ्गलों की रोमांचकारी यात्रायें की। "जिन खोजा तिन पाइयांगहरे पानी पैठ" की उक्ति के अनुसार उन्हें कुछ योगीजनों के दर्शन हुए। उनसे योगविद्या सीखी और समाधि पर्यन्त उत्कृष्ट सफलता प्राप्त की।

    परन्तु अभी उन्हें विद्या के क्षेत्र में न्यूनता अखरती थी। यद्यपि उन्होंने अपने दीर्घकालीन भ्रमण में जहॉं भी कोई विद्वान्‌ मिलाउससे शिक्षा ग्रहण करने का पूरा यत्न कियातथापि उन्हें कोई गुरु नहीं मिलाजो शास्त्रज्ञान प्राप्त कर लेने पर भी हृदय में अविद्या की गॉंठ रह जाती हैउसे खोलकर शास्त्रों का तत्वज्ञान कराये। अन्त में उन्हें इसमें भी सफलता मिली और मथुरा निवासी प्रज्ञाचक्षु गुरुवर दण्डी विरजानन्द ऐसे सद्‌गुरु प्राप्त हुए।

    यद्यपि गुरुवर विरजानन्द के चरणों में बैठकर लगभग तीन वर्ष ही विद्याध्ययन किया और वह भी व्याकरण शास्त्र का ही। तथापि गुरुवर विरजानन्द ने व्याकरणशास्त्र के अध्यापन के व्याज से उन्हें उस मूल तत्व ज्ञान से भी सम्पन्न कर दिया जिसके सहारे से दयानन्द शास्त्रों के तत्वज्ञान की उपलब्धि में समर्थ हुए। वह तत्व ज्ञान है आर्ष ग्रन्थों को पढो-पढाओअनार्ष ग्रन्थों का परित्याग करो।

    इतना ही नहींगुरुवर विरजानन्द ने दयानन्द को एक महती शिक्षा यह दी कि अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट मत होवो। अज्ञानान्धकार में भटकती भारतीय जनता को सुमार्ग दर्शाकर उसके दु:खों को दूर करो। देशवासियों की उन्नति में अपनी उन्नति समझो।"

    इस गुरुमन्त्र को पाकर दयानन्द ने अपने व्यक्तिगत मोक्ष के साथ-साथ दया से परिपूर्ण होकर भारतीय जनता के अज्ञानान्धकार जिसके कारण भारतवासी दु:खीहीन दरिद्र और पराधीन थेको दूर करके उन्हें सुमार्ग दर्शाया। अपने इस उद्‌देश्य की पूर्ति के लिये उन्होंने सर्वस्व समर्पित कर दिया। इसी हेतु आर्यसमाज बनाया।

    इस दृष्टि से शिवरात्रि में शिवार्चन करते हुए बालक मूलशंकर को जो बोध हुआ उसी की यह महिमा है कि मूलशंकर स्वयं सच्चे शिव को पाने में जहॉं समर्थ हुएवहॉं उन्होंने भारतीय जनता में व्याप्त अज्ञान मतमतान्तर के विरोध एवं पराधीनता से व्याप्त दु:ख दारिद्रय को दूर करने का सच्चा मार्ग बताकर सभी भारतवासियों को शिव (कल्याण) के मार्ग पर चलने में समर्थ बनाया।

    प्रत्येक भारतीय को मिथ्या मतों को त्याग शिव (कल्याण) के मार्ग (वैदिक सत्य मार्ग) पर चलने का शिवसंकल्प ग्रहण करना चाहिए। इस शिवसंकल्प से जहॉं हमारी व्यक्तिगत उन्नति होगीवहॉं देश और संसार के भी कष्ट दूर होंगे।

    गुरुवर विरजानन्द ने अपने शिष्य को जिस शास्त्रीय तत्व ज्ञान को बोध कराया और दयानन्द ने अपने जीवन में जिसका प्रचार किया, उसे हम प्राय: भुलाते जा रहे है। हमारे अध्ययन-अध्यापन में से उत्तरोत्तर आर्ष ग्रन्थों का लोप होता जा रहा है। इस क्षेत्र में आर्ष ग्रन्थों की नई व्याख्याओं के प्रकाशन का कार्य तो प्राय: अवरुद्ध ही हो गया है, प्राचीन व्याख्यायें भी अप्राप्त हो गई हैं।

    आज वस्तुत: आत्म-निरीक्षण का समय है। अपनी कमियों को पूरा करने के लिये किसी शिव संकल्प को धारण करने का है। यदि आर्य जनता "आर्ष ग्रन्थों के स्वाध्याय का शुभ संकल्प लेवे" और स्वाध्याय में प्रयत्नशील होवे तो उनके लिये यह वस्तुत: शिवस्वरुप हो सकता है। (तपोभूमि मथुराफरवरी 1994)

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    The Mahabharata describes Shiva's important works at many places. In the "Shiva Sahastranam Stotra", each name indicates the important events of Mahatma Shiva's life. Mahatma Shiva was a complete celibate despite being a son. He did not have a physical relationship with Parvati. "Shiva Sahastranama" has many names pointing towards this. For example two names are present.

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  • शूद्र को ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन अधिकार

    जैमिनि मत समीक्षा

    वेद के सांख्यदर्शन आदि छह उपांग हैं। उनमें वेदान्तदर्शन छठा उपांग माना जाता है। यह ब्रह्मविद्या का ग्रन्थ है। इसके रचयिता वेदों के महाविद्वान्‌ श्री वेदव्यास हैं। वेदव्यास के पिता पाराशर और माता सत्यवती थी, जो एक मल्लाह की लड़की थी। श्री वेदव्यास का नाम कृष्णद्वैपायन था और वेदाभ्यास के कारण उनका नाम "वेदव्यास" प्रसिद्ध हुआ। उनका गौत्र-नाम "बादरायण" है।

    श्री वेदव्यास जी ने वेदान्तदर्शन प्रथमाध्याय के तृतीय पाद में प्रसङ्गवश शूद्रों को ब्रह्मविद्या एवं वेद पढने के अधिकार की चर्चा की है जिसका यहॉं सूत्रनिर्देश पूर्वक उल्लेख किया जाता है -

    जैमिनि का मत- 1. मध्वादिष्वसम्भावदनधिकारं जैमिनि:।। वेदान्त दर्शन 1.3.31

    अर्थ- (मधु-आदिषु) मधुच्छन्दा आदि वैदिक ऋषि हैं, जिनका संहिता-ग्रन्थों में मन्त्रों के साथ उल्लेख किया जाता है । उन वैदिक ऋषियों में (असम्भवात्‌) किसी शूद्र का उल्लेख न होने से (अनधिकारं जैमिनि:) जैमिनि शूद्र को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं मानते हैं।

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    महाभारत युद्ध एवं भारत देश की गुलामी के कारण

    Ved Katha Pravachan _47 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    2. ज्योतींषि भावाच्च।। वेदान्त 1.3.32।।

    अर्थ- (च) और ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन में ब्राह्मणक्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्णों का ही अधिकार है। जैसे कि यजुर्वेद में (ज्योतिष भावात्‌) तीन ज्योतियों का ही वर्णन है-

    यस्मान्न जात: परोऽन्योऽस्ति
    य आविवेश भुवनानि विश्र्वा।
    प्रजापति: प्रजया संरराण:
    त्रीणि ज्योतींषि सचते स षोडशी।।8.36।।

    अर्थ- जिससे पर= महान्‌ कोई नहीं हैजो सब भुवनों= लोकों में व्यापक हैप्रजापति परमेश्र्वर जो कि 16 सोलह कला सम्पन्न हैवह प्रजा को कर्मफल प्रदान करता हुआ तीन ज्योतियों से अर्थात्‌ ब्राह्मणक्षत्रियवैश्य से संयुक्त रहता हैचतुर्थ शूद्र से नहीं।

    अन्यत्र वेद में भी लिखा है- स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्‌। (अथर्ववेद 9.71.1) अर्थात्‌ ऋषि कहता है कि मैंने वर प्रदान करने वाली वेदमाता की स्तुति की हैजो कि उत्तम प्रेरणा करने वाले द्विजों अर्थात्‌ ब्राह्मणक्षत्रियवैश्य को ही पवित्र करने वाली हैशूद्रों को नहीं।

    वेदव्यास का मत- 1. भावं तु बादरायणोऽस्ति हि।। वेदान्त दर्शन 1.3.32।।

    अर्थ- (भावं तु बादरायण:) बादरायण अर्थात्‌ वेदव्यास ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन मेंे अधिकार का भाव मानते हैं (अस्तिहि) क्योंकि मधुच्छन्दा आदि वैदिक ऋषियों में शूद्र ऋषियों का भी अस्तित्व है। जैसे दासीपुत्र कवष-ऐलूष अपोनप्त्रीय सूक्त का ऋषि है (ऐतरेय ब्राह्मण 2.3.1) और वेद में शूद्रों को वेदाध्ययन का स्पष्ट उल्लेख है-

    यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य:,
    ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च
    स्वाय चारणाय च ।। यजुर्वेद 26.2।।

    अर्थ- वेद उपदेश करता है- हे मनुष्यो! जैसे मैं तुम्हें इस कल्याणी वाणी वेद का सब मनुष्यों के लिये उपदेश करता हूँ वैसे तुम भीब्राह्मणक्षत्रियअर्य=वैश्यशूद्रस्व= अपने सेवक और अरण=जंगली मनुष्यों को भी वेद का उपदेश किया करो।

    2. शुगस्य तदनादरश्रवणात्‌ तदाद्रवणात्‌ सूच्यते हि।। वेदान्त दर्शन 1.3.34।।

    अर्थ- (शुक्‌ अस्य तदनादरश्रवणात्‌) इस जानश्रुति नामक शूद्र का ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन में अनादर सुनाई देने से वह शुक्‌=शोक से व्याकुल हो गया है वह शुक्‌=शोक से आद्रवित होने से ब्रह्मविद्या के उपदेश के लिये रैक्व नामक गुरु के पास द्रुत गति से गया (सूच्यते हि) इससे सूचित होता है कि वह जानश्रुति शोक से द्रवित होने से शूद्र है- शुच्‌+द्रव: =शू+द्र=शूद्र है। उस शूद्र को रैक्व ऋषि ने ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया। अत: शूद्र को भी ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन का अधिकार है। (द्रष्टव्य छान्दोग्य उपनिषद 4.1.1) और ये शूद्र आदि शब्द गुणवाचक हैंजातिवाचक नहींजैसे कि महाभाष्यकार पतञ्जलि लिखते हैं- सर्व एते शब्दा गुणसमुदायेषु वर्त्तन्ते ब्राह्मण: क्षत्रियो वैश्य: शूद्र:। (महाभाष्य 5.1.115) अर्थात्‌ ब्राह्मणक्षत्रियवैश्य और शूद्र ये गुणसमुदायविशेष के वाचक हैंजातिवाचक नहीं। पढना-पढाना आदि गुणसमुदाय का नाम ब्राह्मण है। ऐसे ही सभी वर्णों में समझें।

    3. क्षत्रियत्वगतेश्र्चोत्तरत्र चैत्ररथेन लिङ्गात्‌ ।। वेदान्त 1.3.35।।

    अर्थ- (अत्तरत्र क्षत्रियगते: च) जानश्रुति पौत्रायण पहले शूद्र थाकिन्तु गुण और कर्म के कारण वह फिर क्षत्रिय गति को प्राप्त हो गया। इससे यह सूचित होता है कि शूद्र आदि वर्ण गुण और कर्म से सिद्ध होते हैं और शूद्र को भी ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन का अधिकार है।

    यह क्या पता कि जानश्रुति पौत्रायण गुण और कर्म से क्षत्रिय हो गया थाइसका उत्तर यह है-(चैत्ररथेन लिङ्गात्‌) जानश्रुति के पास चैत्ररथ था- अश्र्वतर (खच्चर) वाला रथ चैत्ररथ कहलाता हैजो कि क्षत्रिय के पास ही होता है।

    यदि शूद्र का ब्रह्मविद्या में अधिकार है तो उस जानश्रुति का उपनयन-संस्कार क्यों नहीं कियाइसका उत्तर यह है-

    4. संस्कारपरामर्शात्‌ तदभावाभिलापात्‌।। (वेदान्तदर्शन 1.3.36)

    अर्थ- (संस्कार-परामर्शात्‌) शास्त्र के अध्ययन में उपनयन-संस्कार का सम्बन्ध बतलाया जाता हैइसलिये यह विचार उत्पन्न हुआकिन्तु (तदभाव-अभिलापात्‌) कहीं उस उपनयन-संस्कार के अभाव का भी कथन मिलता है। जैसे- तं होपनिन्ये (शतपथ 1.5.3.13) यहॉं उपनयन-संस्कार का विधान है और तान्‌ हानुपनीयैतदुवाच......। (छान्दोग्य उपनिषद्‌ 5.11.7) अर्थात्‌ प्राचीन शाल आदि ब्राह्मणों को कैकेय अश्र्वपति ने वैश्र्वानर-विद्या का उपनयन-संस्कार के बिना ही उपदेश किया था। अत: उपनयन-संस्कार के बिना भी ब्रह्मविद्या की शिक्षा की जा सकती है। अत: ब्रह्मविद्या के अधिकार में उपनयन-संस्कार का कोई प्रतिबन्ध नहीं है।

    गुण और कर्म ही उच्च और अवच का कारण हैंजन्म नहीं। जैसे-

    5. तदभावनिर्धारणे च प्रवृत्ते:।। (वेदान्तदर्शन 1.3.37)

    अर्थ- (तदभावनिर्धारणे च) और उस वेदाध्ययन विरोधी गुण और कर्म के अभाव का निर्धारण=निश्र्चय हो जाने पर (प्रवृत्ते:) वेद-अध्यापन की प्रवृत्ति दिखाई देती है। क्योंकि गुण और कर्म ही उच्च और अवच वर्ण का कारण है। जैसे कि छान्दोग्य उपनिषद्‌ में लिखा है- सत्यकाम जाबाल हारिद्रुमत गौतम के पास जाकर बोला- मैं आपके पास ब्रह्मचारी रहूंगायदि आपकी आज्ञा हो तो मैं आपके पास रहूं। आचार्य गौतम ने पूछा- हे सोम्य! तेरा क्या गोत्र हैवह कहने लगा- मेरा क्या गोत्र हैयह मैं नहीं जानता। मैंने अपनी माता जबाला से पूछा थाउसने कहा- मैं अनेक लोगों की परिचारिणी (सेविका) रही हूं और यौवनकाल में मैंने तुझे प्राप्त किया हैइसलिये मैं नहीं जानती कि तेरा क्या गोत्र हैहे गुरुवर ! इसलिये मैं तो सत्यकाम जाबाल हूँ। गुरु गौतम ने कहा- यह बात कोई अब्राह्मण नहीं कह सकताअर्थात्‌ तू ब्राह्मण है। हे सौम्य ! तू समिधा ले आमैं तुझे अपने समीप रखूंगा- तुझे वेद की शिक्षा करूँगाक्योंकि तू सत्यभाषण से विचलित नहीं हुआ है।

    इस प्रकार यहॉं अज्ञात कुल शिष्य का भी वेद अध्ययन में अधिकार का विधान किया गया है। सत्यभाषण के गुण से ही अज्ञात कुल सत्यकाम जाबाल को वेदाध्ययन का अधिकार प्राप्त हुआ।

    वेदाध्ययन में चारों वर्णों के बालकों का अधिकार हैकिन्तु गुण-कर्म से हीन का नहीं। जैसे-

    6. श्रवणाध्ययनप्रतिषेधात्‌ स्मृतेश्र्च।। (वेदान्तदर्शन 1.3.38)

    अर्थ- (श्रवणाध्ययनप्रतिषेधात्‌) गुण और कर्म से हीन किसी को भी वेद श्रवण और अध्ययन का प्रतिषेध किया गया है। जैसे-

    1. नाप्रशान्ताय दातव्यं नापुत्रायाशिष्याय वा पुन:। (श्वेताश्वतरोपनिषद्‌ 6.22) अर्थात्‌ अप्रशान्त चित्तवाले पुरुष को ब्रह्मविद्या का दान नहीं करना चाहिये।

    2. विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगामगोपाय मां शेवधिष्टेऽहमस्मि।
    असूयकानृजवेऽयताय न मा ब्रूयां वीर्यवती यथा स्याम।। (निरुक्त 2.14)

    अर्थ- विद्या ब्राह्मण विद्वान्‌ के पास आई और कहने लगी- तू मेरी रक्षा करमैं तेरी शेवधि=खजाना हूँ। तू असूयक=निन्दकअनृजु=कुटिलअयत=असंयमी जन को मेरा उपदेश मत करनाजिससे मैं सदा वीर्यवती=बलशालिनी बनी रहूँ।

    3. पृथिवीमिमां यद्यपि रत्नपूर्णां दद्यान्न देयं त्विदमसंयताय।। (महाभारत शान्तिपर्व)

    अर्थ- रत्नों से पूर्ण इस पृथिवी का दान कर देवेकिन्तु असंयत=असंयमी जन को ब्रह्मविद्या का उपदेश न करे।

    भाव यह है कि ब्रह्मविद्या और वेदाध्ययन का अधिकार चारों वर्णों का हैकिन्तु गुणहीन जन का नहीं। जैसे- एतरेय महीदास शूद्र थाकिन्तु उसने ऋग्वेद को पढकर ऐतरेय ब्राह्मण नामक ग्रन्थ की रचना कीजो ऋग्वेद की सर्वप्रथम व्याख्या है।

    महर्षि दयानन्द ने ब्रह्मा से लेकर जैमिनि मुनि तक ऋषियों के मतों का सम्मान किया हैकिन्तु यहॉं ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन विषयक जैमिनि मुनि का मत वेदविरुद्ध होने से माननीय नहीं है। वेदव्यास और ऋषि दयानन्द के अनुसार चारों वर्णों के गुणवान्‌ बालकों को ब्रह्मविद्या और वेदाध्ययन का अधिकार हैगुणहीन को नहीं।  - पण्डित सुदर्शन देव आचार्य (सर्वहितकारी 14 अप्रेल 2004) 

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    The Vedas have six verses. Vedantadarshana is considered the sixth appendage among them. This is the book of theology. Its author is Sri Ved Vyasa, the great scholar of the Vedas. Ved Vyas's father was Parashar and mother Satyavati, a seafaring girl. Sri Ved Vyasa's name was Krishnadvaipayan and his name "Ved Vyas" became famous due to Vedabhyas. His gotra-name is "Badarayan".

     

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  • श्री और लक्ष्मी में अन्तर

    श्री को छोड़ हमारे प्यार जा पहुंचे लक्ष्मी के द्वारे

    श्री व लक्ष्मी इन दोनों शब्दों की गरिमा के अन्तर को स्पष्ट करने से पूर्व मॉं एवं जननी तथा प्रजा एवं जनता के अन्तर को ही समझ लेते हैं।

    माँ-माता निर्माता होती है। वह सन्तान को जन्म देने के साथ-साथ उसका ऐसा निर्माण करती है कि वह संसार में श्रेष्ठ कार्यों के द्वारा स्वयं का, माता का और धरती "माता" का  यश सारे विश्व में युग युगान्तर के लिए स्थापित कर देती है। इसके लिए माता कौशल्या, माता देवकी, माता यशोदा, माता जीजाबाई, माता अमृतावेन को त्याग-तपस्या करके मर्यादा पुरुषोत्तम राम, योगिराज कृष्ण, बलराम, छत्रपति शिवाजी, वेदोद्धारक दयानन्द को जन्म देकर तदनुरूप निर्माण भी करना पड़ता है। जहॉं तक जननी की बात है, वह सन्तान को मात्र जन्म देती है, किसी व्रत-संकल्प के आधार पर उसके निर्माण में उसकी कोई भूमिका नहीं होती है। खाना-पीना-सोना-जान बचाना तथा आगे-आगे सन्तान को जन्म देते जाना ही इनका जीवन चक्र होता है। पशु-पक्षी योनियों की जननी बड़ी संख्या में अपने बच्चों को जन्मती है। सर्पणी बड़ी संख्या में बच्चे देती है और उन्हें अपना आहार बनाने लगती है, जो उसके घेरे से बाहर आ जाते हैं, वही बच्चे बच पाते हैं। बिच्छू बच्चे जन्मते ही अपनी जननी को ही आहार बना लेते हैं। अब तो मानव-नारियॉं भी पशुओं की भॉंति कई-कई बच्चे जन्म देने लगी हैं। कस्बा अवागढ के नगला गलुआ निवासी नेत्रपाल की पत्नी सर्वेश ने एटा जनपदीय चिकित्सालय में पॉंच बच्चों को जन्म दिया। जननी सहित बच्चे ठीक ठाक हैं। यह बात अप्रैल 09 की है। अगस्त 2007 में लन्दन के प्रसूति ग्रह में अमण्डा इलेरलन ने 2 फीट लम्बे तथा 7.5 पाउण्ड भार के असामान्य बच्चे को जन्म दिया था। देखें अमर उजाला 12 अगस्त 2007।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    भारत की गुलामी का कारण कुत्ता मनोवृत्ति
    Ved Katha Pravachan _49 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    कौशल्या ने राम को जन्म दिया और उनका निर्माण भी किया। जन्म न देकर भी माता सुमित्रा एवं कैकेयी ने राम के आदर्श निर्माण मेंयशोदा ने जन्म न देते हुए भी बलराम-कृष्ण के अद्‌भुत निर्माण में अपने तपस्वी जीवन के प्रत्येक क्षण को न्योछावर किया। पाठकगण। जैसे माता एवं जननी में अन्तर है वैसे ही प्रजा और जनता में भी सूक्ष्म अन्तर है। केवल भूमि का भार बढाने के लिए नहींप्रत्युत्‌ व्रत-प्रकल्प एवं अभिलाषा से प्रकृष्ट रूप में जिसका जन्म होवह प्रजा है। काम न काज के दुश्मन ढाई मन अनाज के। भोगाकांक्षी जन्मते व मरते रहने वाले लोग जनता या जनसाधारण कहे जाते हैं। शिक्षक आचार्यराजा-रईससेठ-साहूकार ही उच्च प्रजा वर्ग में नहीं आते हैअपितु इनकी सेवा में रहने वाले परिवारों को भी मानपूर्वक प्रजा या परजा कहा जाता है। वे भी राष्ट्र-संचालकरक्षक-पोषक जनों की सेवा के द्वारा राष्ट्र-कल्याण-उत्थान में योगदान करके अपने जन्म को प्रकृष्ट रूप प्रदान करते हैं। परिवेश की पवित्रता में महत्तर (अति महत्त्वपूर्ण) सहयोगी मेहतरवस्त्रों की स्वच्छता में सहयोगी बरेहा (वरिष्ठ)शारीरिक स्वच्छता में सहायक नापितजल व्यवस्था में कहारपुष्प श़ृंगार में तथा पाकशाला के बर्तन व भोजन-निर्माण में एवं बच्चों के लालन-पालन में सहयोगी धाय इत्यादि प्रजावर्ग का भाग हर फसलोत्पादन व संस्कार के अवसर पर उन्हें अवश्य ही नियमित रूप से निरन्तर मिलता था। लेखक ने यह सब अपने बचपन में होते देखा है। वह धाय जिसने हम बच्चों को जन्मने में सहायता की थीजब घर में आती थींतो बच्चों को देखकर न केवल प्रसन्न होती थींगर्व भी करती थीं कि इन्हें मैंने जन्म दिया हैबलइयॉं लेतींशुभकामनायें देतीं और घर से भरपूर उपहार लेकर ही वापस लौटती थीं। अपनत्व के नाते का सुन्दर स्वरूप देखने को मिलता था। आज के प्रसूति गृहों में जन्मने वाले बच्चों का अभिलेख मोटी-मोटी पंजिकाओं में भले लिख जाता हैअपनत्व के हृदयों में उनका रेखांकन नहीं होने पाता। इस प्रकार प्रजा व जनता का अन्तर बतलाते हुए लेखक ने परिवार-समाज-राष्ट्र के लिए प्रजा के प्रखर रूप का यहॉं पर चित्रण किया है।

    जननी सन्तान के जन्म के साथ उसके संस्कार-जागरण के लिए तत्पर रहती है तो वह माता-निर्माता बन जाती है। राष्ट्र में उत्पन्न होने वाली जनता जब निज कर्त्तव्य पालन में जागरूक रहती है तो वही प्रजा का उत्कृष्ट रूप धारण करती है। पाठकगण ! अब तो आप "श्री" एवं "लक्ष्मी" के अन्तर को जानने के लिए अवश्य उत्सुक होंगेआइये इस अन्तर को पहले वेद माता से पूछते हैंफिर अपनी बात कहते हैं-

    श्रीणामुदारो धरूणो रयीणां
    मनीषाणां प्रापण: सोमगोपा।
    वसु: सुनु: सहसो अप्सु
    राजा विभात्यग्र उषसामिधान:।। ऋग्वेद 10.45.5।।

    अर्थात्‌ परमेश प्रभु श्री का स्वामी और दाता है। साधनापूर्वक कोई राजा व विद्वान भी श्री का अधिकारी बन जाता है। श्री वह ऐश्वर्य है जो आश्रितों की उन्नति करता है। वह अनेकश: धनों का धारण कराता है-

    गोधन गजधन वाजधन और रत्नधन खान,
    जब आये सन्तोष धनसब धन धूरि समान।

    जिससे उत्तम बुद्धि मिलती है तथा जो सौमनस्य पूर्वक वीर्य-पराक्रम का रक्षण करती है। यह ऐश्वर्य आश्रितों को उजाड़ता नहीं बसाता है। इसे धारणकर्ता स्वयं तो साहसी होता ही है, उसकी सेना भी बलायुध पूर्ण होती तथा आप सन्मार्ग पर चलती है और सभी को चलाती भी है। अपनी प्रजा के मध्य यह तेजस्वी राजा उसी प्रकार देदीप्यमान होता है, जैसे प्रभात वेला में सूर्य शोभायमान रहता है। यही मन्त्र यजुर्वेद अध्याय 12 मन्त्र संख्या 22 में आया है, जिसमें महर्षि दयानन्द सरस्वती ने श्रीणाम्‌ का अर्थ "सब उत्तम लक्ष्मियॉं" बताया है। संसार के श्रेष्ठतम कर्म यज्ञ के अवसर पर तीसरा आचमन करते समय हम बोलते हैं- ओ3म्‌ सत्यं यश: श्रीर्मयि: श्री: श्रयतां स्वाहा (तै.आ.प्र. 10.35) अर्थात्‌ हे सर्वरक्षक प्रभो ! सत्याचरण, यश-प्रतिष्ठा, विजयलक्ष्मी, शोभा हो, आत्म गौरव के साथ धन-ऐश्वर्य मुझमें स्थित हो, यह मैं सत्यनिष्ठापूर्वक प्रार्थना करता हूँ। हिन्दी शब्दकोश में श्री के अर्थ शोभा, कान्ति, सेवा, विजयलक्ष्मी, प्रतिष्ठा, गौरव, समृद्धि, सौभाग्य, श्रेष्ठता, कोमलता, मधुरता, सुन्दरता, ऐश्वर्य, सम्पत्ति, राज्य लक्ष्मी व शक्ति अंकित हैं, जो सभी "श्री" के सकारात्मक स्वरूप को प्रदर्शित करते हैं।

    शब्दकोश में तो "लक्ष्मी को भी "श्री" का पर्यायवाची कह दिया गया हैकिन्तु वेद-भगवती इससे सहमत नहीं हैं। आइए देखें इस तथ्य के रहस्य को। यहॉं पर अथर्ववेद (7.115,2 एवं 4) के दो मन्त्र प्रस्तुत हैं-

    या मा लक्ष्मी: पतयालूरजुष्टाभि चस्कन्द वन्दनेव वृक्षम्‌।
    अन्यत्रास्मत्‌ सवितस्तामितो धा: हिरण्यहस्तो वसुनो रराण:।

    प्रथम मन्त्र का मनन है कि असेवितासुकाम में न आने वाली व दुराचार में गिराने वाली जो लक्ष्मी मुझसे चिपटी हुई हैवह वैसी ही है जैसे वन्दना बेल वृक्ष पर चिपटकर उसे सुखा देती है। हे प्रेरक परमेश्वर! ऐसी लक्ष्मी को तू मुझ से पृथक कर देऔर हिरण्यहस्त- तेजस्वी चमकते कर्त्तव्यशील हाथ से तू हमें निरन्तर ऐश्वर्य प्रदान कर। दूसरा मन्त्र मनन से आगे कठोर निर्णय कुछ यों प्रस्तुत कर रहा है -

    एता एना व्याकरं खिले गा विष्ठिता इव।
    रमन्ती पुण्या लक्ष्मीया: पापीस्ता अनीनशम्‌।।

    अर्थात्‌ इन उन अपने जीवन में आने वाली सैकड़ों प्रकार की लक्ष्मियों का मैं विवेकपूर्वक पृथक्करण करता हूँजैसे व्रज में विविध प्रकार की आ बैठी गौओं का गोपाल पृथक्करण किया करता है। जो पुण्य लक्ष्मीअच्छी कमाई की सम्पदा हैवही मेरे यहॉं रमण करेजो पाप से कमाई है उसे मैं आज ही विनष्ट किये देता हूँ। इन मन्त्रों में बता दिया गया कि लक्ष्मी पुण्यशीला व पापलीला दोनों प्रकार की हो सकती है- अर्थात्‌ सकारात्मक व नकारात्मक। इनमें से जो सकारात्मक लक्ष्मी है वही "श्री" श्रेणी में आती है और श्री सदैव शाश्वत सकारात्मक ही रहती है। श्रम-स्वेदकी चाशनी में पक कर आने वाला लाभ ही शुद्ध स्वादिष्ट "श्री" की महत्ता प्रदान करता है।

    एक नमूना देखिये। पॉंच ग्राम लोहे को आकर्षक ढंग से गोलाकार ढालकर उसके एक ओर भारत वर्ष का मानचित्र व "सत्यमेव जयते" का तथा दूसरी ओर एक सौ रुपये का अंकन करके राष्ट्र-शासन ने एक मुद्रा प्रचलित कर दी। इस मुद्रा का विनिमय करके एक सौ रुपया या इतने मूल्य का कोई पदार्थ क्रय किया जा सकता है। यदि इसी मुद्रा के दोनों ओर के चित्रांकन व मूल्यांकन विनष्ट हो जाएंतो शेष बचा मात्र पॉंच ग्राम लोहाअब इसका मूल्य एक सौ रुपये के स्थान पर एक रुपया भी नहीं रह गया। यह हुआ अस्थिर लक्ष्मी का स्तर कभी तिल तो कभी ताड़। दूसरा नमूना यों देखिये। अंग्रेजों ने अपने शासनकाल में एक रुपये मूल्य की चॉंदी की मुद्रा चलायी थी। उनके भारत छोड़ने से बहुत पहले ही इसका प्रचलन बन्द हो गया था। पर सौ रुपये से कहीं अधिक मूल्यवत यह चॉंदी की मुद्रा किसी भी मान्य स्त्री-पुरुष को सम्मान स्वरूप रजत पदक के रूप में प्रदान की जाती है। अब की बनाई गई गणेश-लक्ष्मी की रजत प्रतीक की तुलना में इन पुरानी मुद्राओं की परिशुद्धता कहीं अधिक विश्वसनीय होती है। यह हुआ "श्री" का एक सुसंगत स्वरूप।

    एक कहावत है- भगवान भक्त के वश में होते हैं। उसी के अनुरूप लेखक भी पाठक के वश में होता है। पाठकगण ने शंका प्रकट की तो श्री एवं लक्ष्मी के अन्तर को स्पष्ट करने में ही प्रचुर समय चला गया। "श्री को छोड़ हमारे प्यारे जा पहुँचे लक्ष्मी के द्वारे" की यात्रा की झलक भी देते चलिये लेखक जी! ठीकतो लीजिये इसे भी सुन लीजिये। पहले तो ऐसी अवांछित घटनायें यदा-कदा होती थींअब तो सर्वत्र-सर्वदा ही होती दिखाई दे रही हैंइसलिए आपको समझने में देर नहीं लगेगी। पहले कल्पनाओं का सहारा लेकर बाल-युवा-प्रोढों को सावधान करने के लिए ऐसी कहानियॉं गढी जाती थीं। अब पश्चिम की हवा ऐसी बही कि हम अपना ही दामन बचाना भूल गयेयुवक हमारे अपसंस्कृति में झूल गये। बालक-बालिका माता-पिता की अतुल आकांक्षाओं के साथ जन्म लेते हैं। वे सुन्दर व आकर्षण से परिपूर्ण घर-परिवार-समाज-राष्ट्र के राजदुलारे अपने उत्तम कार्यों के द्वारा बन जाते हैं। किसी भी श्रेणी का विद्यालय होजब वे लेखन-भाषण-चित्रकारी-खेल में कोई पुरस्कार जीतकर घर आते हैं तो उनके मुख पर एक कान्ति उभर आती है और इसी कान्ति का प्रतिबिम्ब घरवालों के चेहरों पर हंसता-मुस्कराता दमकता दिखाई देता है। यही बच्चे जब ऊँचे से ऊँचे स्तर पर किसी भी क्षेत्र में कोई और उच्च पुरस्कार लेकर आते हैं तो न केवल अपने राष्ट्र मेंअपितु विश्व में उनकी यशोपताका फहराने लगती है। मानो कान्ति श्री की वर्षा चहुँ ओर से उन पर होने लगी हो। हार्दिक सम्मान स्वरूप लोग उनके नाम से मैत्री-संघ बनाते हैंउन पर अपना प्यार लुटाते हैंसमाज व राष्ट्र उनको बड़ी-बड़ी धन राशियों के पारितोषिक प्रदान करते हैं। वे कार-बंगला-सर्व सुविधा-अभिनन्दन से मालामाल होते जाते हैं। उत्पादक तथा व्यवसायी उनके मुख से अपने माल की प्रशंसा कराते हैं। माल चाहे जैसा हो उसकी खपत खूब होती है। व्यवसायीगण इस विज्ञापन का मूल्य करोड़ों की राशि में उस प्रिय पात्र को चुकाते हैं। कुछ तो हमारे प्यारे पात्र इन उपलब्धियों के बोझ से दबकर नम्र हो जाते हैं और कुछ "थोथा चना बाजे घना" के अनुरूप अहंकार में चूर होते जाते हैं। अति साधारण से असाधारण बने खेल जगत के हमारे प्यारे प्यारे दो खिलाड़ी युवक महेन्द्र सिंह एवं हरभजन सिंह हैं। इन्हें दुलार में लोग धोनी और भज्जी नेह नाम से पुकारते हैं। पद्म-अलंकरण वर्ष 2009 के लिए ये दोनों राष्ट्रपति भवन न पहुँचकर अपने व्यावसायिक विज्ञापन कार्यक्रम में ही लगे रहे। चर्चा किये जाने पर मुँहफट भज्जी ने कहा चलिये अगली बार हम दो दिन पहले राष्ट्रपति भवन पहुँच जायेंगे। जैसे यह सम्मान उनका आरक्षित उत्तराधिकार है। इनके प्रशंसकों ने इस राष्ट्रीय अवमानना के दुष्कृत्य के विरुद्ध गहनतम आक्रोश व्यक्त करते हुए मुजफ्फरपुर की अदालत में मुकदमा दायर कर दिया। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध प्राध्यापक पुष्पेश पन्त जी के द्वारा सर्वाधिक कठोर प्रतिक्रिया व्यक्त की गई । खेल के मैदान में कलाबाजी करतब दिखाने वाले करोड़पति नहींअरबपति कुबेर बन बैठते हैं और इसके साथ ही इतने मगरूर हो जाते हैं कि राष्ट्रीय सम्मान को कबूलने की फुर्सत अपनी धन कमाऊ दिनचर्या से निकाल पाना नाजायज और नामुमकिन समझने लगते हैं। इनकी कदाचारिता को न तो अनदेखा किया जा सकता है और न ही माफ किया जाना चाहिए।

    पद्म-अलंकरण की पात्रता कमल में निहित है। कमल कीचड़ में उगकर कीचड़ से ऊपर उठ जाता है और सूर्य के संस्कार से जुड़ जाता है। सूर्योदय पर खिलता सूर्यास्त पर मुद जाता है। ऐसी सूर्य-आभा से सज्जित व्यक्ति पद्म श्री अलंकरण के अधिकारी होते हैं। जो लक्ष्मी सम्मान को अपमान में बदल दे वह "श्री" नहीं हो सकती है। ई. श्रीधरन ने दिल्ली महानगर की यातायात व्यवस्था को मेट्रो द्वारा सुचारू कर दिया और हर व्यक्ति के हृदय में श्रीधरन का नाम अंकित हो गया। भारत राष्ट्र ने पद्म विभूषित कियाइससे तो इस सम्मान का ही मान बढ गया। अधिकतर लोग लक्ष्मी को कुलक्ष्मी बनाते हैं और कोई व्यक्ति ही लक्ष्मी को सुलक्ष्म- श्री बना पाता है। वही श्रीधरन अथवा श्रीपति-लक्ष्मीपति कहलाने का सुपात्र अधिकारी होता है। साफ्टवेयर कम्पनी इनफोसिस के मुख्य संरक्षक एन.आर. नारायणमूर्ति और उनकी पत्नी प्रेरक पद्म श्रेणी में आते हैंजिन्होंने अपनी सारी आय जनसेवा में लगाने के निर्णय से अपने जीवन को नई गरिमा दे दी है। वे कम्पनी के शेयरों से प्राप्त होने वाला सारा डिवीडेण्ड (लाभांश राशि) समाज के स्वास्थ्यशिक्षापोषण पर व्यय करेंगे। वे चाहते तो  कम्पनी के अध्यक्ष पद का त्याग न करते और प्रभूत लाभ-राशि के निवेश से और अधिक ऐश्वर्य का अर्जन करते रहते। लोकसभा के महानिर्वाचन में खड़े होने वाले प्रत्याशी अपनी सम्पत्ति को करोड़ों में घोषित तो करते  हैंपर वे उसे लक्ष्मी से बढकर "श्री" सम्मान की गौरव गरिमा प्रदान करते दिखाई नहीं दे रहे हैं। हमारे राष्ट्र नागरिक धनवान तो बनें पर श्रीमान भी बनेंयही कामना है।-पं. देवनारायण भारद्वाज

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    Mother - Mother is the creator. Along with giving birth to a child, she creates such a way that through the best works in the world, she establishes the fame of herself, mother and the earth "mother" for all the ages in the world. For this, Mata Kaushalya, Mata Devaki, Mata Yashoda, Mata Jijabai, Mata Amruthaven have to be sacrificed and give birth to Maryada Purushottam Rama, Yogiraj Krishna, Balaram, Chhatrapati Shivaji, Vedodharaka Dayanand and build accordingly.

     

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  • श्रीराम के सच्चे अनुयायी - केवल आर्य समाजी

    आर्य समाज के बारे में बहुत सी भ्रान्तियॉं पौराणिक पुरोहितों, पुजारियों एवं विद्वानों ने अपने स्वार्थ हित साधारण हिन्दू जनता में फैला रखी हैं। एक गलतफहमी यह भी प्रचलित है कि आर्यसमाजी तो श्रीराम और कृष्ण को मानते ही नहीं। वास्तविक स्थिति यह है कि भले ही वेदों की शिक्षानुसार हम इन महापुरुषों, युगपुरुषों को ईश्वर या ईश्वर का अवतार नहीं मानते, तथापि हम उनका अत्यन्त आदर करते हैं, उनको आर्यों का प्रतीक मानते हैं, उनके आदर्शों पर तथा उनके मार्ग पर चलने का प्रयास करते हैं, जबकि सनातनी (पौराणिक) बन्धु स्वयं उन युग पुरुषों के सन्देश का सम्भवत: सही अर्थ नहीं समझते। इन महापुरुषों को कई चमत्कारों, भ्रमजालों, विसंगतियों और सृष्टिक्रम विरुद्ध मान्यताओं से ओतप्रोत कर रखा है। यदि आज श्रीराम और श्रीकृष्ण स्वयं भी आ कर देखें, तो वे इन मनगढन्त, अव्यावहारिक एवं कपोलकल्पित कथाओं का अनुमोदन नहीं करेंगे, क्योंकि वे महान्‌ वैदिक धर्मी थे और ऐसी तिलिस्मी करामातों में विश्वास नहीं रखते थे।

    Ved Katha Pravachan - 94 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    श्रीराम के समय न गीता थी, न महाभारत लिखी गई थी, न अभी रामायण ही पूरी हूई और न एक भी पुराण था। पुराण ईसा की आठवीं से दसवीं शताब्दी के बीच लिखे गये, यह अन्वेषणों से सिद्ध किया जा चुका है। उनके लेखक ऋषि नहीं थे, उनका नाम श्रद्धालु जनता को भ्रमित करने के लिए लिखा जाता है । प्रश्न यह है कि श्रीराम कौन से धार्मिक ग्रन्थ पढते थे? वह वेद, उपवेद, दर्शन, उपनिषद्‌ ही पढते थे और आज इस वैदिक धरोहर का अध्ययन सनातनी भाई तो नहीं करते दिखाई देते एकाध को छोड़ कर। हॉं, आर्य समाजी अवश्य करते हैं। श्रीराम प्रतिदिन नियमपूर्वक सन्ध्या तथा हवन वेद मन्त्रों के उच्चारण से करते थे। आज उन्हीं वेद मन्त्रों से आर्य समाजी सन्ध्या और हवन अपने घरों/मन्दिरों में करते हैं, पौराणिक नहीं। वे तो आरती बोलते हैं और हवन में नौ ग्रहों की पूजा, गणेश पूजा आदि कराते हैं, जिनका वेदों में जिक्र तक नहीं है। जब आर्य समाजी उन्ही मन्त्रों और उन्हीं धार्मिक ग्रन्थों को आज भी पढते हैं, जिन्हें श्रीराम पढते थे, तो वे राम के सच्चे पथगामी हुए या नहीं? राम तो यज्ञ की रक्षा करने ऋषि विश्वामित्र के साथ वन में गये और मुनियों को अभय किया। सन्त शिरोमणि तुलसीदास रामचरितमानस में लिखते हैं:

    प्रात कहा मुनि सन रघुराईनिर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई।
    होम करन लागे मुनि झारीआपु रहे मख की रखवारी।।

    आज वही वैदिक यज्ञ आर्यसमाजी करते हैं, अत: वही राम के सच्चे अनुयायी हैं। 

    आर्य मन्दिरों में विवाह वैदिक विधि से होता है, परन्तु अपने आपको राम भक्त कहने वाले सनातनी आज ऐसा विवाह कराना पसन्द नहीं करते, जबकि आर्य समाजी करते हैं। बताइये! श्रीराम के पद चिन्हों पर चलने वाले आर्य समाजी हुए या सनातनी? सीता जी के कन्यादान का वर्णन रामचरित मानस में इन शब्दों में किया गया है-

    सुख मूल दूलहु देखि दम्पति पुलक तन हुलस्यो हियो।
    करि लोक वेद विधानु कन्यादानु नृपभूषण कियो।

    और

    क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावंरी।
    करि होमु विधिवत्‌ गांठि जोरी होन लागी भावंरी।।

    अर्थात्‌ रामजी का विवाह और फेरे हवन कुण्ड के चारों ओर हुए और सीता का कन्यादान वेद विधान से हुआ।

    श्रीराम की फैलाई चेतनता से लाखों वर्ष बाद भी विश्व में चेतनता है। उनके आदर्शों के लिए आर्य ही नहीं, समस्त संसार सदैव के लिए ऋणी रहेगा, क्योंकि उनके आदर्श, उनकी मर्यादाएं मानव मात्र पर लागू होती हैऔर उनसे किसी भी मनुष्य का विरोध हो ही नहीं सकता। परन्तु पौराणिकों की लीला तो देखिये कि उस जन जन को चेतनता प्रदान करने वाले महामानव को उनकी जड़ मूर्ति बना कर अपने मन्दिरों के छोटे से किसी कमरे मेंे बन्द कर रखा है और आगे से लोहे की ग्रिल लगा रखी है, मानो श्रीराम कोई कैदी हों। कहते यह हैं कि राम की कृपा से सब को खाने-पहनने को मिलता है, परन्तु राम को प्रतिदिन दो समय खाना खिलाने का नाटक करते हैं। अच्छा है नाश्ता नहीं करवाते, दूध फल आगे रखते हैं, मगर मुंह में नहीं डालते। यह दूसरी बात है कि राम कभी खाते नहीं। रामजी को स्नान करवाते हैं, वस्त्र बदलते हैं, आराम करवाते हैं, गहने पहनाते हैं। जब सबको देने वाले राम ही हैं, तो फिर यह दिखावा क्यों?

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    राम की महानता का कोई पारावार नहीं। उनके आदर्श, मान्यताएं, मर्यादाएं, विकट से विकट परिस्थितियों में भी सम रहने की क्षमता, उदारता, सहनशीलता एक अलग ही कोटि की हैं। उन जैसा माता-पिता का आज्ञाकारी, उन जैसा स्नेही भाई, उन जैसा प्रजापालक और धर्म रक्षक राजा, उन जैसा तपस्वी, त्यागी, धर्मात्मा आज तक कभी नहीं हुआ है। काश, कि पौराणिक हिन्दू जगत्‌ उनकी इस महानता को समझता।

    बेशक आर्य समाज मन्दिरों में राम की प्रतिमा का पूजन न होता हो, उनको भोग न लगाया जाता हो, किन्तु उनके प्रिय वेदों और आर्ष ग्रन्थों का पाठ अवश्य होता है । उनको प्रिय सन्ध्या और हवन रोज होते हैं तथा उनके आदर्शों पर चलने की शिक्षा अवश्य दी जाती है।  मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जयघोष अवश्य होता है। रामनवमी, विजयादशमी तथा दीपावली के पावन पर्वों पर राम के आदर्शों का गुणगान भी होता है। इस प्रकार आर्य समाज राम की सच्ची पूजा करता है, जैसे माता-पिता और गुरुओं की जाती है।  -विशम्भरनाथ अरोड़ा (आर्यजगत्‌ दिल्ली, 9 अप्रेल 2000)

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    Many misconceptions about Arya Samaj, mythological priests, priests and scholars have spread their selfish interests to the ordinary Hindu people. A misconception is also prevalent that Aryasamaji does not believe in Shriram and Krishna. If Sri Ram and Shri Krishna come and see themselves today, they will not approve these fabricated, impractical and fanciful stories, because they were great Vedic righteous and did not believe in such religious creations.

     

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  • सत्य और न्याय के पोषक-ऋषि दयानन्द

    ऋषि दयानन्द अपने युग की महान विभूति थे। उनके व्यक्तित्व में तेजस्विता, अखण्ड ब्रह्मचर्य, अपूर्व क्रान्ति, योगानुभूति, चुम्बकीय प्रभाव आदि गुण थे। भीष्म पितामह के बाद उनसे बड़ा कोई ब्रह्मचारी नहीं हुआ। जगत्‌ गुरु शंकराचार्य के पश्चात उनसे बड़ा कोई विद्वान्‌ नहीं हुआ। वे सत्य के पुजारी थे। सत्य के लिए ही जिये और सत्य के लिए ही उन्होंने प्राणों की आहुति दी। उन्होंने सत्य के विरुद्ध कभी समझौता नहीं किया। उन्हें सत्य से कोई डिगा नहीं सका। सत्य की रक्षा के लिए उन्हें अनेकों बार जहर पीना पड़ा। वे जीवित शहीद थे। सत्य की यज्ञाग्नि में उन्होंने अपना सर्वस्व होम कर दिया था। गुरुडम और मूर्तिपूजा का खण्डन न करने के लिए उन्हें एकलिंग की गद्दी व अपार धन-ऐश्वर्य का प्रलोभन दिया गया। किन्तु वह निराला तपस्वी, त्यागी, यति अपने ध्येय से टस से मस नहीं हुआ। काशी के विद्वानों ने लालच दिया कि यदि आप मूर्तिपूजा व ब्राह्मणवाद के विरोध में बोलना बन्द कर दें तो हम आपकी हाथी पर सवारी निकाल कर आपको अवतार घोषित कर सकते हैं। किन्तु सत्य के उद्धारक ऋषिवर अपने संकल्प से किंचित विचलित नहीं हुए। सत्यासत्य के प्रकाश के लिए उन्होंने सत्यार्थप्रकाश की रचना की। संसार की आंखों पर पड़ी अज्ञान, अन्धकार, असत्य, पाप-पाखण्ड आदि की पट्टी को खोलकर सबको सत्य मार्ग दिखाया। उनका संकल्प था- ऋतं वदिष्यामि,सत्यं वदिष्यामि। इस व्रत  को उन्होंने जीवन पर्यन्त निभाया। सच्चे शिव की खोज में वे घर से निकले थे। सत्य रूप शिव को उन्होंने पाया और उसको संसार को दिखाया।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    मनुष्य बनने के साधन एवं सूर्य के गुण
    Ved Katha Pravachan -9 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    ऋषि की सत्यनिष्ठा- वह पुण्यात्मा संसार में सत्य की नई रोशनी लेकर आया था। सत्य के प्रकाश के मार्ग में जो पाखण्डआडम्बररूढियॉंअवतारपीर पैगम्बरमसीहामहन्त आदि आएउन्हें तर्क प्रमाण व युक्ति से परास्त किया और "सत्यमेव जयते" के आर्ष वाक्य को जीवित रखा। वे सत्य के कथन में कठोर थे। सत्य के आगे किसी से डरे नहीं और समाज के नियमों में सत्य को पांच बार दोहराया। उनकी दृष्टि में सत्य सर्वोपरि था। वे संसार में सत्य-सनातन वैदिक धर्म प्रचारित एवं प्रसारित करने आए थे। सत्य की रक्षा के लिए उन्होंने ईंटपत्थर तथा गालियॉं खाई। वे इस भूली-भटकी मानव जाति को सत्य पथ दिखाने के लिए संसार में आए थे। इसीलिए वे सदा सत्य के उद्‌घोषक रहे। उनके जीवनव्यवहार और कथन में सत्य ही निकलता था। बरेली के व्याख्यान में कलेक्टर व कमिश्नर को डांटते हुए सम्बोधन में कहा- लोग कहते हैं कि सत्य को प्रकट न करोकलेक्टर क्रोधित होगाकमिश्नर अप्रसन्न होगागवर्नर पीड़ा देगा। अरे! चक्रवर्ती राजा क्यों न अप्रसन्न होहम तो सत्य ही कहेंगे। ऐसी थी उस सत्यवादी ऋषि की निर्भीकता। एक बार सहारनपुर में जैनियों ने कुपित होकर विज्ञापन निकाला। एक भक्त ऋषि के पास आए। बड़े दुखी मन से कहा कि महाराज जैन मत वाले आपको जेल में बन्द कराना चाहते हैं। स्वामी जी ने कहा- भाई! सोने को जितना तपाया जाता हैउतना ही कुन्दन होता है। विरोध की अग्नि में सत्य और चमकता है। दयानन्द को यदि कोई तोपों के मुख के आगे रखकर भी पूछेगा कि सत्य क्या हैतब भी उसके मुख से सत्य और वेद की श्रुति ही निकलेगी। वे सत्य के उपासक थे। जोधपुर जाते समय लोगों ने कहा- स्वामी जी आप जहॉं जा रहे हैं वहॉं के लोग कठोर प्रकृति के हैं। कहीं ऐसा न हो कि सत्योपदेश से चिढकर वे आपको हानि पहुंचाएं। प्रभु विश्वासी ऋषि ने कहा- यदि लोग हमारी उंगलियों की बत्ती बनाकर जला दें तो कोई चिन्ता नहीं। मैं वहॉं जाकर अवश्य उपदेश दूंगा। वह निडर संन्यासी सत्य के पालन के कारण जीवन भर अपमानविरोध और जहर पीता रहा। उन्होंने मृत्यु को हंसते-हंसते वरण किया। वे कभी भी अन्यायअसत्य व अधर्म की ओर नहीं झुके।

    असत्य से समझौता नहीं- ऋषि की वाणी में अद्‌भुत शक्ति और प्रभाव था। जिसने भी उन्हें सुना और उनके सम्पर्क में आया वह प्रेरित होकर लौटा। न जाने कितने मुंशीरामअमीचन्द और गुरुदत्तों को उन्होंने नये जीवन दिए। उनके तप: पूत जीवन से निकली पवित्र वाणी लोगों के जीवन में चमत्कार का कार्य करती थी।

    जोधपुर प्रवास में एक दिन ऋषिवर महाराजा यशवन्त सिंह के दरबार में पहुंचे। महाराजा ऋषि का बड़ा आदर सम्मान करते थे। उस समय महाराजा के पास नन्हीं बाई वेश्या आई हुई थी। ऋषि के आगमन से महाराज घबरा गए। वेश्या की डोली को स्वयं कन्धा लगाकर जल्दी से उठवा दिया। किन्तु इस दृश्य को देखकर पवित्रात्मा ऋषि को अत्यन्त दु:ख हुआ। उन्होंने कहा- राजन्‌ ! राजा लोग सिंह समान समझे जाते हैं। स्थान-स्थान पर भटकने वाली वेश्या कुतिया के सदृश होती है। एक सिंह को कुतिया का साथ अच्छा नहीं होताइस कुव्यसन के कारण धर्म-कर्म भ्रष्ट हो जाता है। मान-मर्यादा को बट्टा लगता है। इस कठोर सत्य से राजा का हृदय परिवर्तन हो गया। नन्हीं बाई की राजदरबार से आवभगत उठ गई। उसे बड़ी गहरी ठेस पहुंची। उसने षड्‌यन्त्र रचा। इस षड्‌यन्त्र में ऋषि के विरोधी भी सम्मिलित हो गए। स्वामी जी के विश्वस्त पाचक को लालच देकर फोड़ा गया। पाचक ने रात्रि को दूध में हलाहल घोलकर पिला दिया। सत्य का पुजारी सत्य पर शहीद हो गया। वह युग पुरुष शारीरिक कष्ट वेदना सहता हुआघोर अंधेरी अमावस्या की रात में संसार को ज्ञान व प्रकाश की दीपावली देता हुआ सदा के लिए विदा हो गया। इसलिए दीवाली का पर्व ऋषि भक्तों और आर्य विचारधारा वालों के लिए विशेष सन्देश व प्रेरणा लेकर आता है। हर साल दीवाली आती हैधूम-धड़ाकेखान-पानमेले व श्रद्धाञ्जलि तक सीमित रह जाती हैऋषि की व्यथा-कथा को कोई नहीं सुन पाता है।

    हम और हमारी श्रद्धाञ्जलि- ऋषि भक्तो ! आर्यो ! उठो ! जागो ! आंखें खोलो ! सोचो ! हृदय की धड़कनों पर हाथ रखकर अपने से पूछो हम दयानन्द और उनके मिशन आर्य समाज के लिए क्या कर रहे हैंहम उस ऋषि के कार्य को कितना आगे बढा रहे हैंउसके प्रचार-प्रसार के लिए कितना योगदान दे रहे हैंउस योगी की आत्मा जहॉं भी होगी हमसे पूछ रही होगी- आर्यो ! मैंने जो सत्य-सनातन वैदिक धर्म की मशाल तुम्हारे हाथों में दी थीउसे तुम समाज मन्दिर में बने स्कूलदुकानबारातघर और औषधालय के कोने में रखकर वेद की ज्योति जलती रहेओ3म्‌ का झण्डा ऊंचा रहे बोलकर शान्ति पाठ कर रहे होमैंने जिन बातों का विरोध किया थाजिस पाखण्डगुरुडमअज्ञान आदि को दूर करने के लिए मैं जीवन भर जहर पीता रहावही सब कुछ तुम जीवन में घर और मन्दिरों में कर रहे हो। जिस सहशिक्षा और अंग्रेजियत की शिक्षा का मैं विरोधी रहावही सब कुछ तुम समाज मन्दिरों में महापुरुषों के चित्रों के नीचे कव्वालियॉं और लड़के-लड़कियों के नाच करा रहे हो। मेरे नाम को व्यापार बनाकर धन बटोरकर मौजमस्ती ले रहे होमैंने तुम्हें जीवन जगत्‌ के लिए श्रेष्ठ सीधा सच्चा व सरल मार्ग दिखाया था। जो प्रभु का आदेशउपदेश और सन्देश वेदवाणी है उसका तुम्हें आधार दिया था। उसके प्रचार-प्रसार का कार्य छोड़कर तुम भी भवनोंदुकानोंस्कूलों और एफडियों की लाइन में लग रहे होपदमानमहत्त्व और सत्ता के लिए ऐसे लड़ने लगे हो जैसे परस्पर पशु लड़ते हैं। तुम्हारी इस चुनावी जंग को देखकर

    श्रद्धालु भावनाशील और विचारों व सिद्धान्तों को प्यार करने वाले लोग तुमसे अलग होते जा रहे हैं। जो मैंने तुम्हें आर्य समाज के माध्यम से श्रेष्ठतम विचारों का चिन्तन दिया थाउसे तुमने इतना संकीर्णसीमित बना दिया है कि अनुयायियों व प्रभाव की दृष्टि से राष्ट्रीय स्तर पर कोई विशेष महत्त्व नहीं रखता है। समाज मन्दिरों को जलसेजलूस व लंगरों तक सीमित करते जा रहे हो। समाज मन्दिरों की दशावातावरणपरिस्थिति आदि को देखकर रोना आता है। क्या मेरे किए हुए कार्यों का यही प्रतिदान हैयही स्मरण हैयही श्रद्धाञ्जलि हैयदि यही है तो आर्यों ! मुझे माफ करो ! मैंने आर्य समाज को बनाकर बड़ी भूल कीमुझे ये उम्मीद न थी जिस रूप में आज समाज है और जिस दिशा में जा रहा है।

    ऋषि के बलिदान दिवस पर शान्त भाव से सच्चाई को समझकर यदि कुछ हम जीवन और आर्य समाज के लिए सोच सकेंकुछ अपने को बदल सकेंकुछ दिशाबोध ले सकेंऋषि के दर्द को समझ सकेंमिशन के लिए तपत्यागसेवा का भाव जगा सकें तो ये लिखी पंक्तियां सार्थक समझी जाएंगी। डॉ. महेश विद्यालंकार

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    There is no compromise with untruth - the sage's voice had amazing power and influence. Whoever heard them and came in contact with them returned inspired. Do not know how many Munshiram, Amichand and Gurudattas gave them new life. The sacred voice that came out of his tenacity and life was a miracle in people's lives.

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  • सत्यार्थप्रकाश की प्रासंगिकता

    ऋषि दयानन्द जिस समय सन्‌ 1860 में गुरु विरजानन्द जी के पास विद्याध्ययन के लिये पहुँचे, उस समय उनकी आयु 36 वर्ष की थी। 1863 में उन्होंने अपने गुरु से दीक्षा ली और उनके पास से अध्ययन समाप्त कर जीवन-क्षेत्र में उतर पड़े। इस समय वे 39-40 वर्ष के हो चुके थे। विरजानन्द जी के पास उन्होंने जो कुछ सीखा वही उनकी वास्तविक शिक्षा थी। क्योंकि इससे पहले वे जो कुछ पढ आये थे, उसे विरजानन्द जी ने भुला देने की उनसे प्रतिज्ञा ली थी। इस प्रकार ऋषि दयानन्द जी की यथार्थ शिक्षा 1960 से 1963 तक अर्थात्‌ कुल तीन वर्ष हुई थी। उन्होंने पीछे चलकर अपने जीवनकाल में जितने व्याख्यान दिये, जितने ग्रन्थ लिखे, जितने शास्त्रार्थ किये, वह इन तीन वर्षों के अध्ययन का ही परिणाम था। इसी से स्पष्ट होता है कि इन तीन सालों में उन्होंने जो पाया था वह कितना मूल्यवान था।

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    Ved Katha Pravachan _35 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    अपने गुरु विरजानन्द जी से ऋषि दयानन्द ने जो गुर पाया था वह आर्ष तथा अनार्ष ग्रन्थों में भेद करना था। 36 वर्ष की आयु से पहले उन्होंने जो कुछ पढा था वह अनार्ष ग्रन्थों का अध्ययन था। आर्ष ग्रन्थों के अध्ययन ने उनके जीवन, उनके विचारों में जो क्रान्ति उत्पन्न कर दी उससे भारत के पिछले वर्षों का इतिहास बन गया।

    इस क्रान्ति का मूल स्रोत सत्यार्थ प्रकाश है। सत्यार्थप्रकाश 1874 में लिखा गया। मुरादाबाद के राजा जयकृष्णदास जी काशी में डिप्टी कलेक्टर थे तब ऋषि दयानन्द काशी पधारे। राजा जयकृष्ण दास ने ऋषि से कहा कि आपके उपदेशामृत से वे ही व्यक्ति लाभ उठा सकते हैं जो आपके व्याख्यान सुनते हैं। जिन्हें आपके व्याख्यान सुनने का अवसर नहीं मिलता उनके लिए अगर आप विचारों को ग्रन्थ रूप में लिख दें, तो जनता का बड़ा उपकार हो। ग्रन्थ के छपने का भार राजा जयकृष्णदास ने अपने ऊपर ले लिया। यह आश्चर्य की बात है कि यह बृहत्कार्य तथा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ, जिसे पं. गुरुदत्त विद्यार्थी ने 14 बार पढकर कहा कि हर बार के अध्ययन से उन्हें नया रत्न हाथ आता है, कुल साढे तीन महीनों में लिखा गया।

    केवल साढे तीन मास में- सत्यार्थप्रकाश का गहराई से अध्ययन करने पर पता चलता है कि इसमें 377 ग्रन्थों का हवाला है। इस ग्रन्थ में 1542 वेद-मन्त्रों या श्लोकों के उद्धरण दिये गये हैं। चारों वेद, सब ब्राह्मण ग्रन्थ, सब उपनिषद्‌, छहों दर्शन, अट्‌ठारह स्मृति, सब पुराण, सूत्रग्रन्थ, जैन-बौद्ध ग्रन्थ, बायबल, कुरान इन सबके उद्धरण ही नहीं, उनके रेफरेंस भी दिये गये हैं। किस ग्रन्थ में कौन-सा मन्त्र या श्लोक या वाक्य कहॉं है, उसकी संख्या क्या है यह सब कुछ इस साढे तीन महीनों में लिखे ग्रन्थ में मिलता है। आज का कोई रिसर्च स्कालर अगर किसी विश्वविद्यालय की संस्कृत की अप-टु-डेट लायब्रेरी में, जहॉं सब ग्रन्थ उपलब्ध हों, इतने रेफरेंस वाला कोई ग्रन्थ लिखना चाहे तो भी उसे सालों लग जायें, जिसे ऋषि दयानन्द ने साढे तीन महीनों में तैयार कर दिया था। साधारण ग्रन्थ की बात दूसरी है। सत्यार्थप्रकाश एक मौलिक विचारों का ग्रन्थ है। ऐसा ग्रन्थ जिसने समाज को एक सिरे से दूसरे सिरे तक हिला दिया। जिन ग्रन्थों ने संसार को झकझोरा है उनके निर्माण में सालों लगे हैं। कार्ल मार्क्स ने 34 वर्ष इंग्लैण्ड में बैठकर "कैपिटल" ग्रन्थ लिखा था जिसने विश्व में नवीन आर्थिक दृष्टिकोण को जन्म दिया।  मार्क्स के ग्रन्थ ने यूरोप का आर्थिक ढॉंचा हिला दिया तथा ऋषि दयानन्द के ग्रन्थ ने भारत का सांस्कृतिक तथा सामाजिक ढॉंचा हिला दिया।

    क्रान्तिकारी विचारों का खजाना- सत्यार्थप्रकाश चुने हुए क्रान्तिकारी विचारों का खजाना है। ऐसे विचारों का जिन्हें उस युग में कोई सोच भी नहीं सकता था। समाज की रचना जन्म के आधार पर नहीं होनी चाहिए, सत्यार्थ-प्रकाश का यही एक विचार इतना क्रान्तिकारी है कि इसके व्यवहार में आने से हमारी 60 प्रतिशत समस्याएँ हल हो जाती हैं। ऐसे संगठन में जन्म से न कोई ऊँचा, न कोई नीचा, जन्म से न कोई गरीब, न कोई अमीर, जो कुछ हो कर्म हो। ऐसी स्थिति में कौन-सी समस्या है जो इस सूत्र से हल नहीं हो जाती।

    शिक्षा क्षेत्र में गुरुकुल शिक्षा- प्रणाली का विचार सत्यार्थप्रकाश की ही देन है, जिसे पकड़ कर उत्तर भारत में जगह-जगह गुरुकुलों का जाल बिछ गया। आज भी हमारी शिक्षा-प्रणाली की जो छीछालेदार हो रही है, उसका इलाज गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली में ही निहित है।

    लोकमान्य तिलक ने कहा था-"स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।" दादा भाई नौरोजी ने भी "स्वराज्य" शब्द का प्रयोग किया था। इन सबसे पहले ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के 8वें समुल्लास में लिखा था-"कोई कितना ही कहे, परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है।" ऋषि दयानन्द के ये वाक्य उस जगत्‌-प्रसिद्ध अंग्रेजी वाक्य से जिसमें कहा गया था- “Good government is no substitute for self-government”  से इतने मिलते-जुलते हैं कि 1874 में अंग्रेजों के राज्य में कोई व्यक्ति यह लिखने का साहस कर सकता था, यह जानकर आश्चर्य होता है।

    आज जिन समस्याओं को लेकर हम उलझे हैं, हरिजनों की समस्या, स्त्रियों की समस्या, गरीबी की समस्या, शिक्षा की समस्या, राष्ट्र-भाषा की समस्या, चुनाव की समस्या, नियम तथा व्यवस्था की समस्या, गोरक्षा की समस्या आदि कौन सी समस्या है जिसका हल सत्यार्थप्रकाश में मौजूद नहीं है और कौन-सा ऐसा हल आज के राजनीतिज्ञों ने ढूँढ निकाला हे, जो सत्यार्थ प्रकाश में पहले से नहीं है।

    वेदों के नाम पर-हिन्दू-समाज की सबसे बड़ी समस्या वेदों की थी। यहॉं हर-कोई हर बात के लिए वेदों का नाम लेता था। स्त्रियों तथा शूद्रों को वेद पढने का अधिकार क्यों नहीं? क्योंकि वेदों में लिखा है- "स्त्री शूद्रौ नाधीयताम्‌।" बाल-विवाह क्यों नहीं होना चाहिए? क्योंकि वेदों में लिखा है- "अष्टवर्षा भवेत्‌ गौरी नववर्षा च रोहिणी। पिता चैव ज्येष्ठो भ्राता तथैव च, त्रयस्ते नरकं यान्ति दृष्टवा कन्यां रजस्वलाम्‌।" जन्म से वर्णव्यवस्था क्यों मानें? क्योंकि वेद में लिखा है- "ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्‌" - ब्राह्मण परमात्मा के मुख और शूद्र उसके पॉंव से उत्पन्न हुए हैं। जैसे मुख बाहु और बाहु मुख नहीं बन सकता, इसी प्रकार  ब्राह्मण शूद्र तथा शूद ब्राह्मण नहीं बन सकता। जब ऋषि दयानन्द ने यह देखा कि वेदों का नाम लेकर हर संस्कृत वाक्य को वेद कहा जा रहा है और वेदों का उद्धरण देकर वेद-मन्त्रों का अनर्थ किया जा रहा है, तब उन्होंने निश्चय कर लिया कि वेदों को ही केन्द्र बनाकर हिन्दू-समाज की रक्षा की जा सकती है और वह रक्षा तभी की जा सकती है, जब जन-साधारण की समझ में आ जाये कि वेदों में क्या कहा गया है।

    वैदिक वाड्‌मय के सम्बन्ध में ऋषि दयानन्द की खोज यह थी कि हर संस्कृत वाक्य तथा हर संस्कृत ग्रन्थ वेद नहीं है। ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिषद्‌, स्मृति, पुराण, सूत्र-ग्रन्थ ये सब वेद नहीं हैं। इन ग्रन्थों में जो कुछ लिखा है वह अगर वेद-विरुद्ध है तो वह त्याज्य है, जो वेदानुकूल है वही  स्वीकार करने योग्य है। ऋषि दयानन्द का हिन्दू-समाज को कहना यह था कि अगर वेद को तुम अपनी संस्कृति का आधार मानते हो, तो इस पैमाने को लेकर चलना होगा। तुम जो चाहो वह वेद नहीं है, वेद जो है वह मानना होगा। इस कसौटी पर कसने से हिन्दू-समाज की 60 प्रतिशत रुढियॉं अपने आप गिर जाती हैं। इस विचारधारा को प्रकट करने के लिए उन्होंने दो शब्दों का प्रयोग किया-आर्ष ग्रन्थ तथा अनार्ष ग्रन्थ। अब तक संस्कृत साहित्य में इस दृष्टि को किसी ने नहीं अपनाया था। संस्कृत के हर ग्रन्थ में जो कुछ लिखा मिलता था वह प्रामाणिक मान लिया जाता था। ऋषि दयानन्द ने इस विचार को ध्वस्त कर दिया।

    वेदों के शब्द रूढिज नहीं- वेदों के सम्बन्ध में ऋषि दयानन्द की दूसरी खोज यह थी कि वेदों के शब्द रूढिज नहीं, यौगिक हैं। यद्यपि यह विचार नया नहीं था, निरुक्तकार का भी यही कहना था। तो भी वेदों के सभी भाष्यकारों ने वैदिक शब्दों के रूढि अर्थ ही किये थे। सायण, उव्वट, महीधर तथा उनके पीछे चलते हुए पाश्चात्य विद्वानों मैक्समूलर, राथ, विल्सन, ग्रासमैन ने मक्खी पर मक्खी मार अनुवाद किया था। सायण आदि एक तरफ वेदों को ईश्वरीय ज्ञान मानते थे तो दूसरी तरफ उनमें इतिहास भी मानते थे, जो वेदों के ईश्वरीय ज्ञान होने के सिद्धान्त से टकराता था। इस बात की उन्हें कोई चिन्ता नहीं थी। असल में सायण का भाष्य किसी गम्भीर विद्वत्ता से नहीं किया गया था, वह एक विशिष्ट लक्ष्य को सामने रखकर किया गया था। दक्षिण के विजयनगर हिन्दू-राज्य के राजा हरिहर और बुक्का के वे मन्त्री थे। मुस्लिम संस्कृति राज्य में प्रतिष्ठित न हो जाये, इसलिए संस्कृत वाड्‌मय का प्रसार करना मात्र इस भाष्य का उद्देश्य था। यही कारण था कि सायण या महीधर के भाष्य गहराई तक नहीं गये और असंगत बातों के शिकार रहे। वह यज्ञों का समय था। इसलिए भाष्यकार समझते थे कि वेदों के अग्नि, वायु, इन्द्र आदि देवता सचमुच स्वर्ग से यज्ञों में पधारते हैं और दान-दक्षिणा आदि लेकर तथा यजमान को आशीर्वाद देकर स्वर्ग चले जाते हैं। पाश्चात्य विद्वानो को यह बात अपनी विचारधारा के अनुकूल पड़ती थी। उनका विचार विकासवाद पर आश्रित था। आदि में मानव जंगली था। जंगली आदमी सूर्य को, अग्नि को और वायु को देवता समझकर पूजे तो यह युक्तियुक्त प्रतीत होता है। पाश्चात्य विद्वान कहने लगे कि वैदिक ऋषि क्योंकि जंगली थे इसलिए अनेक देवताओं को पूजते थे। इस निष्कर्ष में सायण आदि के भाष्य उनके विचारों की पुष्टि करते थे।

    ऋषि दयानन्द ने इस विचार को भी ठोकर मार कर गिरा दिया। वेदों से ही उन्होंने सिद्ध किया कि अग्नि आदि नाम विभिन्न देवताओं के नहीं अपितु एक ही परमेश्वर के हैं।  ऋग्वेद में लिखा है-एकं सद्‌ विप्रा बहुधा वदन्ति अग्निं यमं मातरिश्वानमाहु। परमात्मा एक है, उसे अनेक नामों से स्मरण किया जाता है। इस एक मन्त्र से सारा का सारा विकासवाद कम-से-कम जहॉं तक वेदों का सम्बन्ध है, ढह जाता है।

    तीन प्रकार के अर्थ- ऋषि दयानन्द का कहना था कि वैदिक शब्दों के तीन प्रकार के अर्थ होते हैं- आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक। उदाहरणार्थ- इन्द्र का आधिभौतिक अर्थ अग्नि, विद्युत, सूर्य आदि है, आधिदैविक अर्थ राजा, सेनापति, अध्यापक आदि दैवीय गुणवाले व्यक्ति हैं, आध्यात्मिक अर्थ जीवात्मा, परमात्मा आदि हैं। इसी प्रकार अन्य शब्दों के विषय में कहा जा सकता है। इस कसौटी को सामने रखकर अगर वेदों को समझा जाये, तो न उनमें इतिहास मिलता है, न बहुदेवतावाद मिलता है, न जंगलीपन मिलता है, न विकासवाद मिलता है।

    वेदों के जितने भाष्यकार हुए हैं, इस देश के तथा विदेशों के उनमें सबसे ऊँचा स्थान ऋषि दयानन्द का है। अगर वेदों को किसी ने समझा तो ऋषि दयानन्द ने। अरविन्द घोष ने लिखा है-

     “In the matter of Vedic interpretation Dayanand will be honoured as the first discoverer of the right clues. Amidst the chaos and obscurity of old ingnorance and agelong misunderstanding, his was the eye of direct vision, that pierced the truth and fastened on that which was essential.”

    इस प्रकार इस युग के महायोगी श्री अरविन्द का कहना है कि जहॉं तक वेदों का प्रश्न है, दयानन्द सबसे पहला व्यक्ति था जिसने वेदों के अर्थों को समझने की असली कुञ्जी खोज निकाली। वेदों का अर्थ समक्षने के लिए सदियों से जिस अन्धकार में हम रास्ता टटोल रहे थे उसमें दयानन्द की दृष्टि ही इस अन्धकार को भेदकर यथार्थ सत्य पर जा पहुँचती थी।

    उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में अनेक समाज सुधारक हुए। ऋषि दयानन्द, राजा राममोहनराय, केशवचन्द्र सेन इसी युग की उपज थे। वे सब एक तरफ हिन्दू-समाज के पिछड़ेपन को देख रहे थे, दूसरी तरफ पश्चिमी देशों की प्रगतिशीलता को देख रहे थे। यह सब देखकर वे हिन्दू-समाज को रूढियों की दासता से मुक्त करना चाहते थे। ऋषि दयानन्द तथा दूसरों की विचारधारा में भेद यह था कि जहॉं दूसरे हिन्दू-धर्म, हिन्दू-संस्कृति तथा हिन्दुत्व को समाप्त करने पर तुल गये, वहॉं ऋषि दयानन्द ने हिन्दुओं को हिन्दु रखते हुए उन्हें नवीनता के नये रंग में रंग दिया। कोई वृक्ष जड़ के बिना नहीं खड़ा रह सकता है। जड़ कट जाये, तो वृक्ष गिर जाता है। जड़ को मजबूत बनाकर जो वृक्ष उठता है, वही टिका रहता है।

    कोई समाज अपने भूत के बिना नहीं जी सकता। भूत में पैर जमाकर भविष्य की तरफ बढना, पीछे भी देखना, आगे भी देखना यही किसी समाज के जीवन का गुर है। ऋषि दयानन्द ने इसी गुर को पकड़ा था। पीछे वेदों की ओर देखो, उसमें जमकर आगे भविष्य की ओर पग बढाओ। भूत को छोड़ दोगे तो वृक्ष की जड़ कट जाएगी। भविष्य की अनदेखी कर उठ नहीं सकोगे। यही सत्यार्थ प्रकाश का सन्देश है। - डॉ. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार 

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    The trick that Rishi Dayanand got from his Guru Virjanandji was to distinguish between joy and non-scripture. What he had read before the age of 36 was the study of non-human texts. The history of the last years of India became a history due to the revolution that arose in his life, his thoughts, by the study of the Aasha texts.

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  • सदाचार की महत्ता

    आचरण की उज्ज्वलता को ही "सदाचार' (सच्चरित्रता) कहते हैं। इस आचरण का ज्ञान हमारे व्यावहारिक जीवन से ही होने लगता है। भारतीय मनीषी महर्षि मनु ने मनुस्मृति में लिखा है कि-

    धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः।
    धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।।

    अर्थात्‌ धर्म के दस लक्षण हैं- (1) धीरज (2) क्षमा (3) मन-नियन्त्रण (4) चोरी न करना (5) पवित्रता (6) इन्द्रिय-संयम (7) बुद्धि (8) विद्या (9) सत्य तथा (1) अक्रोध।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    भारत में जन्म होना सौभाग्य का विषय

    Ved Katha Pravachan _54 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    जिस व्यक्ति में ये विशेषताएँ होंगी, उसे ही सच्चे अर्थों में "सदाचारी' (या सुजन) माना जाता है। इस प्रकार सज्जनता "सच्चिरित्रता' का ही पर्याय है। जिस व्यक्ति में ये गुण नहीं होते, उसे चरित्रहीन तथा नीच कहा जाता है। चरित्रहीन का समाज में कोई स्थान नहीं होता। "सदाचार' ही किसी व्यक्ति को आदर, यश तथा सुख प्रदान करने वाली एकमात्र "कुंजी' है। भोगवादी कभी भी भारतीय संस्कृति को नहीं समझ सकता। विचारक श्री प्रेमस्वरूप गुप्त ने माना है कि- "हर व्यक्ति का अलग-अलग गुण, स्वभाव और सोचने का ढंग होता है। इसे ही उसका चरित्र कहते हैं।'' किसी व्यक्ति का चिन्तन उसकी सच्चरित्रता (या चरित्रहीनता) का परिचय देता है। 

    आज भारत समस्या-प्रधान देश है। आज हमारे देश में भाग्यवादियों एवं कर्महीनों की अधिकता है। मानसिक अपंगता किसी भी व्यक्ति को समस्या-प्रधान बना देती है। समस्या-प्रधान अपने जीवन में आगे नहीं बढ़ पाता। वह अपना विकास नहीं कर सकता। आज हमारे देश में नाना राष्ट्रीय (सामाजिक) समस्याएं पैदा कर दी गयी हैं। जैसे- जातिवाद, नारी-शोषण (भोगवाद), पुत्र की अभिलाषा (कोरा अन्धविश्वास), दहेज-प्रथा, मद्यपान, भ्रष्टाचार, अशिक्षा, गरीबी, जनसंख्या-विस्फोट तथा भक्ति सम्बम्धी अन्धविश्वास आदि। जो व्यक्ति भारत की राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान नहीं दे सकते, वे "सदाचारी' नहीं हैं। जो व्यक्ति "राष्ट्र की अस्मिता' से खेल रहे हैं तथा नाना समस्याएँ पैदा कर रहे हैं, वे "देशद्रोही' (चरित्रहीन एवं संस्कारविहीन) माने जायेंगे। इस सन्दर्भ में भारत के पूर्व महामहिम राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा की यह मान्यता निरापद है कि- "ओछे चरित्र के लोग महान्‌ राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते।'' 

    आज भारत में राष्ट्रीय चरित्र के संकट की समस्या पैदा हो चुकी है। राष्ट्र के हर व्यक्ति का चरित्र राष्ट्रीय चरित्र का मूलाधार है। हर व्यक्ति को अपने आपको "सदाचारी' बनाना चाहिए। सदाचारी का प्रभाव उसके सम्पर्क में आने वाले लोगों पर ही नहीं, वरन्‌ समाज के बहुत बड़े भाग पर पड़ता है और उससे नैतिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय उत्थान सम्भव होता है। ऐसे सदाचारी पर कोई भी जाति या राष्ट्र गर्व के साथ अपना मस्तक ऊँचा कर सकता है। 

    आज शिक्षार्थियों को संस्कारवान बनाने की परम आवश्यकता है। संस्कार युक्त शिक्षा ही जीवन है। शिक्षार्थियों को ऐसी शिक्षा मिलनी चाहिए, जिसमें जीवन मूल्यों का समावेश हो। ये भारतीय जीवन मूल्य हैं- (1) सत्य (2) अहिंसा (3) समता (4) संयम (5) कर्मशीलता (6) अनुशासन (7) संयम (8) सदाचार (9) सहनशीलता (10) विनयशीलता (11) सादगी (12) ईमानदारी (13) धीरज तथा (14) सन्तोष। 

    आज जीवन के हर क्षेत्र में नैतिक शिक्षा की परम आवश्यकता है। नैतिकता से हमारा अभिप्राय है- मानवीय मूल्यों का सम्मान। नैतिक शिक्षा के बिना व्यक्ति अपना मानसिक विकास नहीं कर सकता, यह अटल सत्य है। गांधी जी की यह मान्यता निरापद है कि "सदाचार और निर्मल जीवन सच्ची शिक्षा के आधार हैं।'' भारतीय मनीषी आचार्य चाणक्य ने सदाचार की वकालत करते हुए यह सही लिखा है कि- शीलं भूषयते कुलम्‌।

    इसका अभिप्राय यह है कि सदाचार कुल का अलंकरण है। जिस कुल के सदस्य सदाचारी होते हैं, वह कुल समाज में सुशोभित होता है और जिस कुल के सदस्य सदाचारी नहीं होते (संस्कार विहीन होते हैं), वह कुल समाज में कलंकित होता है। आइए! हम सब भारतीय मनीषी भर्तृहरि की इस मान्यता को "आचरण का विषय' बनाएं- शीलं परं भूषणम्‌। - डॉ. महेशचन्द्र शर्मा, साहिबाबाद

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    Today the problem of national character crisis has arisen in India. The character of every person of the nation is the foundation of the national character. Every person should make himself "virtuous". Ethics has an impact not only on the people who come in contact with them, but on a large part of society and it is possible for moral, social and national upliftment. Caste or nation can raise their head with pride.

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  • सफलता चाहते हैं तो एक लक्ष्य का पीछा करें

    किसी ने खूब कहा है- लक्ष्यरहित जीवन मल्लाहरहित नाव जैसा है। एक लक्ष्य चुनें और उसकी प्राप्ति में जुट जाएँ। ईश्वर-प्रदत्त अमूल्य जीवन को लक्ष्यविहीन रहकर पशुओं की तरह बरबाद कर देना कहॉं की बुद्धिमानी है? जीवन में प्रगति के लिए सबसे पहले एक सुनिश्चित लक्ष्य निर्धारित करना जरूरी है। यदि कोई लक्ष्य नहीं रखा जाता है, तो जीवन का प्रयोजन ही खत्म हो जाता है। जिसने लम्बे समय तक लक्ष्य-प्राप्ति का प्रयत्न किया, वही व्यक्ति अच्छा जीवन जी सकता है।

    Ved Katha Pravachan -12 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    लक्ष्य को चुनते समय एक बात का ख्याल रखें कि यह आपने सोच-समझकर चुना होन कि किसी को देखकर। यदि आपने सोच-समझकर लक्ष्य चुन लिया और लक्ष्यों की मृगतृष्णा में नहीं भटकेतो समझिए आपने आधा कार्य पूरा कर लिया। गाड़ी के लिए सिर्फ गति प्राप्त करना ही कठिन होता है। एक बार गति पकड़ लेने के पश्चात्‌ रास्ता तय करने में कोई खास परेशानी नहीं होती। परन्तु कभी-कभी ऐसा होता है कि अपने बहुमूल्य समय का उपयोग हम व्यर्थ की योजनाएँ बनाने में करने लगते हैं और अनेक लक्ष्य निर्धारित कर लेते हैं। जब हम अनेक लक्ष्य निर्धारित कर लेते हैंतो हमारी हालत उस हिरण के समान हो जाती हैजिसे तपते में भी चारों ओर सरोवर ही दिखाई देता है। अतः एक लक्ष्य सफलता की सीढ़ी है। प्रत्येक युवक को चाहिए कि वह अपने लक्ष्य के अनुरूप वातावरण का निर्माण करे। अच्छे वातावरण में रहना और बुरे वातावरण से बचना सफलता की एक बड़ी आवश्यकता है।

    वातावरण की प्रबलता को मानवीय विवेक और मनोबल से बदला जा सकता है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैंजिनमें कई बार असफल होने वाले लोगों ने लगन तथा सतत पुरुषार्थ के बल पर अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया। पं. मदनमोहन मालवीय ने कहा था कि एक बार लक्ष्य निर्धारित करने पर सफलता अवश्य मिल जाती है। अगर आपका लक्ष्य एक है और उसकी प्राप्ति हेतु की जाने वाली अन्य भी परीक्षाओं में काम आ सकती हैतो विकल्प के रूप में एक जैसी अनेक परीक्षाओं में सफल हुआ जा सकता है। हॉंलक्ष्य के विपरीत मनोभावों की चंचलता के शिकार होकर यदि आप अन्धाधुन्ध या आनन-फानन में परीक्षाओं में बैठेंगेतो नतीजे सकारात्मक आने के अवसर शून्य के बराबर होंगे।

    एक लक्ष्य का निर्धारण ही सफलता तक ले जा सकता है। उदाहरणार्थएक ही स्टेशन से अनेक दिशाओं में गाड़ियॉं जाती हैं। स्टेशन पर उनकी पटरियॉं पास-पास ही होती हैं। किन्तु कुछ ही आगे कई मोड़ आ जाते हैंजो रेलगाड़ियों की दिशाओं को बदल देते हैं। रेलगाड़ियों के गन्तव्य में सैकड़ों किलोमीटर का फासला हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति स्टेशन पर खड़ी रेलगाड़ियों में से बिना अपने गन्तव्य स्थान को ध्यान में रखे किसी भी डिब्बे में बैठेतो वह कहीं भी पहुँच जाएगा। लेकिन यदि वह निश्चित गाड़ी में बैठेगातो निश्चित स्थान पर ही पहुँचेगा। विश्व इतिहास यह बताता है कि कोई भी दुर्भाग्य एक इच्छित लक्ष्य वाले युवकों को सफलता से नहीं रोक सकता। अनेक लक्ष्य उन कामनाओं की तरह होते हैंजो उबलते दूध की तरह खाली बरतन को भी भरा दिखाते हैंकिन्तु उबलता हुआ दूध कुछ समय पश्चात्‌ बैठ जाता है। इसके विपरीत एक लक्ष्य उस बाण की तरह होता हैजो निशाने पर पहुँचकर ही दम लेता है। कार्य कठिन लगे या उसके लिए अधिक परिश्रम करना पड़े तो निराश न हों।

    लक्ष्य तक पहुँचने में आने वाली कठिनाइयों का पूर्ण मनोबल से सामना करें। जो व्यक्ति स्वयं को नकारते हैंवे अपनी असफलता को बुलावा देते हैं। कारणवश असफलता मिल जाएतो भी उत्साह व साहस से इच्छित लक्ष्य की प्राप्ति हेतु संघर्षरत रहें। - कारूलाल जमड़ा

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    Somebody has said a lot - aimless life is like a boat without a boat. Choose a goal and start achieving it. Where is the wisdom of destroying God-given priceless lives like animals without aiming? In order to progress in life it is necessary to first set a definite goal. If no goal is set, then the purpose of life ends. The person who tried to achieve the goal for a long time can live a good life.

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  • सामाजिक उत्थान और आर्यसमाज

    उन्नीसवीं शताब्दी में भारत का अंग्रेजों द्वारा धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक शोषण अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया था। भारतीय समाज दोहरे संकट से गुजर रहा था। एक उसकी स्वयं की दयनीय दशा और दूसरा इस्लाम तथा ईसाइयत का तेजी से बढता हुआ सर्वग्रासी रूप। धर्म का वास्तविक स्वरूप लुप्त हो चुका था। पाखण्ड, आडम्बर, अन्धविश्वास आदि ने धर्म को आच्छादित कर लिया था। धर्म के नाम पर पापाचार पनप चुके थे। जात पांत, छुआछूत, बाल विवाह, दहेज प्रथा जैसी कुरीतियॉं समाज को जर्जर कर रही थीं। सत्ती प्रथा तथा बहुविवाह, दहेज जैसी क्रूरताएं समाज में विद्यमान थीं। समाज में नैतिक अध:पतन हो जाने के कारण स्त्रियों की दशा अत्यन्त दयनीय थी। राजनीतिक स्वतन्त्रता के अभाव में तत्कालीन आर्थिक स्थिति जर्जर हो गई थी। अंग्रेजों की शोषण नीति के फलस्वरूप भारतीय कृषि व्यवस्था और कुटीर उद्योग धन्धे नष्ट हो गए थे। आर्थिक कठिनाइयों से त्रस्त निम्न वर्ग को ईसाई बनाया जा रहा था।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    वेद ज्ञान के आचरण से ही कल्याण।

    Ved Katha Pravachan - 101 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    राष्ट्र का पुनर्जागरण- ऐसे समय में पुनर्जागरण की लहर समाज में आयी। पुनर्जागरण का अर्थ है कुछ समय निद्रा के उपरान्त राष्ट्र के मानस एवं आत्मा का जाग्रत होना। धार्मिक और सुधारवादी आन्दोलनों में ब्रह्मसमाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन, प्रार्थना समाज एवं थियोसोफिकल सोसाइटी प्रमुख हैं। राजा राममोहन राय ने पर्दा प्रथा, बहु विवाह, स्त्रियों में अशिक्षा, सती प्रथा आदि कुरीतियों के निराकरण का प्रयास किया। प्रार्थना समाज ने अवतारवाद, बहुदेववाह, मूर्ति पूजा, पुजारियों की सत्ता के विरोध के साथ-साथ धार्मिक एवं सामाजिक सुधार का प्रयत्न किया, जिससे हिन्दू समाज जाग्रत हो सके । रामकृष्ण परमहंस ने सभी धर्मों को समान बता कर धार्मिक समन्वय पर बल दिया। इसके पश्चात्‌ थियोसोफिकल सोसाइटी ने भारतीय संस्कृति के गौरव ग्रन्थों वेदों, उपनिषदों के अध्ययन एंव धर्माचरण की प्रेरणा दी।            

    वैदिक हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान- धार्मिक नवजागरण का सबसे प्रभावशाली कार्यक्रम आर्यसमाज द्वारा संचालित किया गया। आर्य समाज ने निराकार ब्रह्म की उपासना एवं भारतीय संस्कृति पर आधारित शिक्षा व्यवस्था सुलभ कराने पर बल दिया। धार्मिक पुनर्जागरण में आर्य समाज आन्दोलन ने महत्वपूर्ण कार्य सन्पादित किये। स्वामी दयानन्द सरस्वती उस सुधार और पुनर्गठन के समर्थक थे, जो विभिन्न मजहबों के समन्वय पर आधारित न हो कर शुद्ध हिन्दू परम्पराओं की मान्यताओं पर आधारित था। स्वामी दयानन्द का उद्देश्य धर्म निरपेक्षता अथवा ईसाई, इस्लामी धर्मों की मान्यताओं की एकता की खोज न करके वैदिक धर्म का पुनरुन्नयन करना है। स्वामी जी का विचार था कि हिन्दू धर्म में नवजीवन तभी आ सकता है, जब समाज में व्याप्त रूढियों, अन्धविश्वासों तथा निर्मूल परम्पराओं को समाप्त करके वैदिक धर्म की स्थापना की जाए।        

    वेद ज्ञान का मूल स्रोत- महर्षि दयानन्द ने हिन्दू समाज को संगठित करने का प्रयास किया। महर्षि दयानन्द के प्रेरणास्रोत वेद एवं अन्य प्राचीन ग्रन्थ थे। उन्होनें वेदों को समस्त ज्ञान का भण्डार सिद्ध किया और वैदिक ज्ञान के आलोक में भारतीय जनमानस में व्याप्त अज्ञानजनित अन्धकार को दूर करने का सार्थक प्रयास किया। स्वामी दयानन्द मुख्यत: धार्मिक सुधारक थे। उन्होंने स्त्री और शूद्रों को वेदाध्ययन का अधिकारी बनाया और निम्न वर्ग पर हो रहे अत्याचारों की निन्दा की। अपनी वाणी, लेखनी, व्याख्यान, शास्त्रार्थ द्वारा हिन्दू समाज को जाग्रत करने का प्रयास किया ।

    पाखण्डों का खण्डन- आर्य समाज आन्दोलन ने व्यापक आन्दोलन का रूप लिया और समाज को नवीन प्रकाश प्रदान किया। महर्षि दयानन्द के अनुसार धर्म का अभिप्राय कर्मकाण्ड के जटिल क्रिया जाल का पालन ही नहीं, अपितु धर्म उन उदात्त गुणों की समष्टि का नाम है, जो मनुष्य के नैतिक संवर्धन तथा आध्यात्मिक उत्थान में सहायक होते हैं। स्वामी दयानन्द ने वेद को धर्म का मूलाधार बताया है। अपने ग्रन्थों द्वारा पाखण्ड एवं अन्धविश्वास दूर करने का प्रयत्न किया।

    आर्य समाज के प्रचार प्रसार में अनेक वीतराग तपस्वी, संन्यासियों, विद्वानों और उत्साही प्रचारकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आज आर्य समाज की अनेक शाखाएं वैदिक संस्कृति का प्रचार कर रही हैं।

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    सामाजिक सुधार- सामाजिक क्षेत्र में स्वामी दयानन्द और आर्य समाज आन्दोलन का अत्यधिक महत्वपूर्ण योगदान है। तत्कालीन समाज में अल्पायु में बालक व बालिकाओं का विवाह कर दिया जाता था। महर्षि दयानन्द ने ब्रह्मचर्य पर बल दिया। विवाह की आयु न्यूनतम 24 वर्ष पुरुष एवं 16 वर्ष कन्या के लिए निर्धारित की। स्वस्थ स्त्री-पुरुष के विवाह से उत्तम सन्तान प्राप्त होती है। महर्षि ने वर एवं कन्या के गुण-कर्म-स्वभाव मिलने पर ही परस्पर विवाह करने का विधान बताया है।     

    आर्य समाज ने विधवाओं के लिए विधवाश्रम, अनाथों के लिए अनाथालयों की स्थापना की। तत्कालीन समाज में व्याप्त भूत प्रेत की पूजा, जादू टोनें में विश्वास, सन्तान प्राप्ति के लिए विविध कर्म, तन्त्र, मन्त्र आदि अन्धविश्वासों को महर्षि ने दूर करने का प्रयास किया। महर्षि ने जन्मगत जाति प्रथा का विरोध करते हुए गुण-कर्म के आधार पर वर्ण-व्यवस्था का पुन: निर्धारण किया। दलितों के उद्धार के लिए दलितोद्धार सभा, अछूतोद्धार सभा, दलितोद्धार संगठन आदि स्थापित किए गए, जिससे निम्न जातियों का उत्थान हो सके।

    वेदाध्ययन का अधिकार- महर्षि दयानन्द ने वेदों के प्रमाण द्वारा सभी को वेदाध्ययन का अधिकार दिया है। नर-नारी शूद्र सहित सभी को वेद पढने का अधिकार प्राप्त है। आर्य समाज के सुधार आन्दोलनों का भारतीय समाज और संस्कृति पर बहुमुखी प्रभाव पड़ा। आर्य समाज के प्रादुर्भाव के समय भारत धार्मिक और नैतिक दृष्टि से पतन की ओर अग्रसर था। समाज में बहुदेवतावाद, अवतारवाद, मूर्तिपूजा के प्रचलन के साथ-साथ धर्मों के नाम पर अनेक कुकर्म हो रहे थे। महर्षि ने निराकार, अजन्मा, परमात्मा की पूजा, आराधना, उपासना तथा सन्ध्या हवन करने की सलाह दी।

    राष्ट्रवादी शिक्षा- भारतवर्ष में राष्ट्रीय शिक्षा के अग्रदूतों में महर्षि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा गान्धी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, मदनमोहन मालवीय और अरविन्द घोष प्रमुख हैं। भारतवर्ष में राष्ट्रीय शिक्षा के प्रर्वतक और उन्नायक महर्षि दयानन्द हैं। उन्होंने प्राचीन संस्कृति पर बल देते हुए गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति की आधारशिला रखी। उन्होंने आदर्शवाद, प्रकृतिवाद, समाजवादी दर्शन को समन्वित करते हुए सत्य, सदाचार एवं ब्रह्मचर्य पर बल दिया। शिक्षा वैयक्तिक एवं सामाजिक उन्नति के लिए है।        

    भारतवर्ष में स्त्री शिक्षा के उन्नायक महर्षि दयानन्द को माना जा सकता है। उन्होंने जाति भेदमूलक शिक्षा व्यवस्था का विरोध किया और स्त्रियों तथा शूद्रों को वेद पढने का अधिकार प्रदान किया। संस्कृत भाषा के ज्ञान के बिना शिक्षा अपूर्ण है। स्वामी जी का विचार है कि स्वावलम्बन की भावना शिक्षा के मूल में होनी चाहिए। उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति के शिक्षित होने पर बल दिया। वर्तमान समय में गुरुकुल, कन्या गुरुकुल, डी.ए.वी. कालेज, आर्य बाल विद्या मन्दिर, आर्य माडल स्कूल, आर्य पब्लिक स्कूल आदि में परम्परागत भारतीय संस्कृति और नवीन पाश्चात्य ज्ञान के समन्वय के आधार पर इस समय शिक्षा दी जा रही है। पांच हजार से भी अधिक शिक्षा संस्थाएं देश विदेशों में आर्य समाज द्वारा संचालित की जा रही हैं।            

    स्वराज्य का मन्त्र- महर्षि ने राजनीतिक और आर्थिक सुधारों पर बल दिया। स्वराज्य का मन्त्र सर्वप्रथम महर्षि द्वारा उद्‌घोषित किया गया। महर्षि दयानन्द ने भारत को राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक रूप में एक सूत्र में बान्धने का प्रयास किया। उन्होंने स्वदेश, स्वधर्म, स्वजाति, स्वसंस्कृति और स्वभाषा का प्रबल समर्थन करके भारतवासियों में राष्ट्रीय भावना का संचार किया।   

    आर्थिक चिन्तन- आर्य समाज ने आर्थिक सुधारों पर भी ध्यान दिया। स्वामी जी का मत है कि करों का उद्देश्य प्रजा का सुख है। महर्षि ने बीस प्रतिशत बजट शिक्षा, बीस प्रतिशत धन स्थिर कोष, बीस प्रतिशत राज्य, तीस प्रतिशत रक्षा व्यवस्था के लिए निर्धारित किया है। महर्षि द्वारा प्रतिपादित अर्थव्यवस्था आज भी प्रासंगिक है। आर्य समाज ने सामाजिक, धार्मिक, नैतिक सुधार, जातिवादी परम्पराओं में सुधार, शिक्षा के क्षेत्र में सुधार तथा राजनीतिक, आर्थिक सुधारों द्वारा हिन्दुओं की क्षीण शक्ति को पुनजीर्वित किया और समाज को नई दिशा प्रदान की। महर्षि दयानन्द का स्पष्ट मत है कि मानसिक, सामाजिक, राजनीतिक सभी प्रकार की दासता से मुक्ति प्राप्त होनी चाहिए। अपने स्थापनाकाल से आज तक आर्य समाज विविध सुधार कार्यों में सफलतापूर्वक अग्रसर होता रहा है। इसके प्रगतिशील विचार और मानवतावादी सन्देश समाज को नई दिशा प्रदान करते हैं। महर्षि दयानन्द को भारत के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक सुधार के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। लेखक- डा. आर्येन्दु द्विवेदी

    राष्ट्रीय प्रशासनिक मुख्यालय
    अखिल भारत आर्य समाज ट्रस्ट
    आर्य समाज मन्दिर अन्नपूर्णा इन्दौर
    नरेन्द्र तिवारी मार्ग
    बैंक ऑफ़ इण्डिया के पास
    दशहरा मैदान के सामने
    अन्नपूर्णा, इंदौर (मध्य प्रदेश) 452009
    दूरभाष : 0731-2489383, 9302101186
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    Arya Samaj Mandir Annapurna Indore
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    Near Bank of India
    Opp. Dussehra Maidan
    Annapurna, 
    Indore (M.P.) 452009
    Tel. : 0731-2489383, 9302101186
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    Renaissance means awakening the psyche and soul of the nation after sleeping for some time. Among the religious and reformist movements, Brahmas Samaj, Arya Samaj, Ramakrishna Mission, Prarthana Samaj and Theosophical Society are prominent. Raja Rammohun Roy attempted to remove the evil practices like purdah, polygamy, illiteracy in women, sati etc. The Prarthana Samaj tried incarnation, polytheism, idol worship, opposition to the authority of priests as well as religious and social reforms to awaken the Hindu society.

    Arya Samaj Sanskar Kendra & Arya Samaj Marriage Service- Contact for intercast marriage & arrange marriage. Marriage by Arya Samaj is Legal and Valid under Hindu Marriage Act. 1954-1955 & Arya Marriage Validation Act. 1937. Also contact for all religious services- havan, grah-pravesh,vastu-poojan, namkaran-mundan vivah, pravachan, katha etc. Arya Samaj Sanskar Kendra & Arya Samaj Marriage Service, Arya Samaj Mandir, Divyayug Campus, 90 Bank colony, Annapurna Road,Indore (MP) 0731-2489383, Mob.: 9302101186Social Development and Arya Samaj | Arya Samaj Indore | Arya Samaj Mandir Indore | Arya Samaj Marriage Indore | Arya Samaj Mandir Marriage Indore | Arya Samaj  Annapurna Indore | Arya Samaj Mandir Indore Madhya Pradesh | Arya Samaj Mandir Helpline Indore for for Barwani - Beed - Bhandara - Barmer - Bharatpur - Balaghat | Official Web Portal of Arya Samaj Mandir Indore | Maharshi Dayanand Saraswati | Vedas | Arya Samaj Marriage Helpline Indore India | Aryasamaj Mandir Helpline Indore | inter caste marriage Helpline Indore | inter caste marriage promotion for prevent of untouchability in Indore | inter caste marriage promotion for national unity by Arya Samaj indore Bharat | human rights in india | human rights to marriage in india | Arya Samaj Marriage Guidelines India | inter caste marriage consultants in indore | court marriage consultants in india | Arya Samaj Mandir marriage consultants in indore | arya samaj marriage certificate Indore | Procedure Of Arya Samaj Marriage in Indore India. 

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  • साम्प्रदायिकता की समस्या और ऋषि दयानन्द

    साम्प्रदायिकता भारतीय समाज की चिर-परिचित समस्याओं में से प्रमुख विचारणीय समस्या रही है। वर्तमान युग में तो इस समस्या का राजनीतिकरण हो जाने के कारण यह अत्यधिक जटिल एवं चिन्तनीय हो गई है। साम्प्रदायिक विद्वेष, दंगे, उग्रवाद, आतंकवाद और अल्पसंख्यकवाद तथा बहुसंख्यकवाद की राजनीति ये समस्या के जाने-पहचाने चेहरे हैं, जो समय-समय पर राष्ट्रीय परिदृश्य में दृष्टिगोचर होते रहते हैं। कभी आक्रामक रूप में तो कभी सामान्य रूप में ये सामाजिक शान्ति, प्रगति और स्थायित्व के राष्ट्रीय तन्त्र को प्रभावित करते हैं।

    इस समस्या के समाधान हेतु समय-समय पर विभिन्न विचारकों ने समाधान भी प्रस्तुत किये हैं, जिनमें महात्मा गांधी का "आदर्शवादी समाधान" विशेष प्रसिद्ध है, जिसे "सर्वपन्थ समभाव" के रूप में जाना जाता है। स्वामी विवेकानन्द और सर्वपल्ली राधाकृष्णन प्रभृति दार्शनिकों का भी यही मन्तव्य है। इस दृष्टिकोण के अनुसार सभी पन्थ ईश्वर की ओर ले जाने वाले कल्याण-मार्ग हैं। इसलिए मानव-मात्र को सभी पन्थों के प्रति समान आदर भाव प्रदर्शित करना चाहिए। यह समाधान सभी पन्थों में निहित सत्य, परोपकार, पवित्रता, सेवा, करुणा जैसे उदात्त मूल्यों पर बल देता है। परन्तु इस "समभाव" से इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं मिलता है कि विभिन्न धार्मिक सम्प्रदाय परस्पर टकराते क्यों हैं? और इस टकराव में वे क्यों एक दूसरे का अस्तित्व मिटाने के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं। साम्प्रदायिक टकराव से कैसे बचा जा सकता है, जिसकी सामाजिक समरसता, शान्ति और स्थायित्व के लिए आज नितान्त आवश्यकता है।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    बालक निर्माण के वैदिक सूत्र एवं दिव्य संस्कार-3

    Ved Katha Pravachan -14 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    ऋषि दयानन्द ने इस जटिल समस्या के ऊपर आदर्श और यथार्थ- दोनों दृष्टियों से विचार किया हैजो प्रस्तुत निबन्ध का प्रतिपाद्य विषय भी है। आदर्शवादी दृष्टिकोण को अपनाते हुए उन्होंने विभिन्न मत-पन्थों में निहित शाश्वत मूल्यों एवं सिद्धान्तों को न केवल स्वीकार किया हैवरन्‌ उनके आधार पर समाज के पुन: संगठन पर बल भी दिया है। उनके शब्दों में, "आजकल बहुत विद्वान्‌ प्रत्येक मतों में हैंवे पक्षपात छोड़ सर्वतन्त्र सिद्धान्त अर्थात्‌ जो-जो बातें सबके अनुकूल हैंउनका ग्रहण करना और जो-जो बातें एक दूसरे के विरुद्ध हैंउनका त्याग कर प्रीति से बर्तें तो जगत्‌ का पूर्ण हित होेवे" (सत्यार्थ प्रकाश-भूमिका)

    ऋषि का यह सुविचारित मत है कि उन शाश्वत मूल्यों एवं सिद्धान्तों का मूल स्रोत "वेद" हैजो ईश्वरीय ज्ञान होने के कारण निर्भ्रान्त है। अतएव मानव-मात्र के लिए वेदों में प्रतिपादित धर्म-आचार अनुपालनीय एवं रक्षणीय है। दयानन्द इस देश के सांस्कृतिक इतिहास पर दृष्टिपात करते हुए भी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि पॉंच हजार वर्ष से पूर्व वेद मत से भिन्न संसार में दूसरा कोई मत न था। क्योंकि वेदोक्त सब बातें विद्या से अविरुद्ध हैं। वेदों की अप्रवृत्ति होने के कारण महाभारत का युद्ध हुआ। उसके उपरान्त संसार में सर्वत्र अज्ञानान्धकार व्याप्त हो गया। मनुष्य की बुद्धि भ्रमित होने से जिसके मन में जैसा आया मत चलायाजिनकी संख्या आज सहस्त्र से कम नहींपरन्तु अध्ययन-मनन की सुविधा की दृष्टि से उन्हें चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- पुराणीजैनीकिरानी और कुरानी। (सत्यार्थ प्रकाश-एकादश समुल्लासअनुभूमिका)

    ऋषि दयानन्द ने इन चार वर्गों पर विचार करते हुए यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाया है और उन कारणों की पहचान करने का प्रयास किया हैजिनके कारण एक सम्प्रदाय दूसरे से टकराता है। वे कारण हैंविभिन्न सम्प्रदायों की मिथ्या वेद-विरुद्ध मान्यताएं एवं अन्धविश्वास यथा मूर्तिपूजाअवतारवादपैगम्बरवादचमत्कारपाप-क्षमाश्राद्ध-तर्पणतीर्थ-महात्म्यगुरुडमवादनाम-स्मरणग्रहवाद आदि-आदि। साम्प्रदायिक संघर्ष की जड़ें इन भिन्न मान्यताओं में हैं। इसीलिए स्वामी दयानन्द अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के उत्तरार्द्ध की रचना करके विभिन्न सम्प्रदायों की असंगतता को सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैंजो संक्षेप में इस प्रकार है-

    ऋषि दयानन्द ने पुराणी वर्ग के अन्तर्गत वाममार्गियों से लेकर ब्रह्मसमाजियों तथा प्रार्थना समाजियों तक का उल्लेख किया है। पुराणी वर्ग के अन्तर्गत आने वाले सम्प्रदायों की प्रमुख मान्यताएं हैं- अवतारवादगुरुडमवादभाग्यवादमूर्तिपूजाश्राद्ध-तर्पणव्रततीर्थाटनगंगा-स्नानपाप-क्षमा और नाम-स्मरण आदि। ये वेदों को प्रमाण रूप में तो स्वीकार करते हैंकिन्तु तन्त्र-साहित्यपुराणउपपुराण आदि इनके मुख्य ग्रन्थ हैं। अत: इन्हें ही विशेष मान्यता प्रदान करते हैं। पुजारीमहन्तसाधुतान्त्रिकओझा और पण्डित आदि इन पौराणिक सम्प्रदायों के धर्म-गुरु तथा व्यवस्थापक माने जाते हैं। मूर्तिपूजा इनकी आय का नियमित स्रोत होता है तथा श्राद्ध-तर्पणव्रत-अनुष्ठान आदि आय के अन्य आवश्यक साधन माने जाते हैं।

    जैनी वर्ग के अन्तर्गत दयानन्द ने वेद-विरोधी चार्वाकजैनोंबौद्धों का समावेश किया है। उन्होंने इनकी समीक्षा "सत्यार्थप्रकाश" के द्वाद्वश समुल्लास में विशेष रूप से की है। दयानन्द के मतानुसार इन वेद विरोधी मतों का जन्म वैदिक धर्म में विकृति आने के कारण उसकी प्रतिक्रियास्वरूप हुआ। इन्होंने वैदिक साहित्य तथा परम्परा के समानान्तर अपने स्वतन्त्र साहित्य तथा परम्परा की रचना की। ऋषि दयानन्द के अनुसार यही कारण है कि पौराणिकों की भॉंति इन सम्प्रदायों में साधु-साध्वी आदि भी दृष्टिगोचर होते हैं। दयानन्द के मतानुसार मूर्तिपूजा जैनियों से प्रचलित हुई और बौद्धों तथा पौराणिकों में उत्कर्ष पर पहुँच गयी।

    किरानी वर्ग के अन्तर्गत दयानन्द ने यहूदी तथा ईसाई मजहबों का उल्लेख किया है जिनमें से दयानन्द युगीन भारतवर्ष में ईसाई धर्म अंग्रेज शासकों के धर्म के रूप में प्रतिष्ठापित था। जबूरतौरेत तथा इंजील इनकी धार्मिक पुस्तकें हैं। पैगम्बरवादपाप-क्षमाचमत्कार आदि इनकी प्रमुख धार्मिक मान्यताएं हैं।पादरीपोप आदि इनके धर्म-गुरु समझे जाते हैं। अनुयाइयों द्वारा दान इनकी आय का प्रमुख स्रोत होता है।

    इनके अलावा कुरानी वर्ग के अन्तर्गत दयानन्द ने शियासुन्नी आदि सम्प्रदायों का उल्लेख किया है। इस वर्ग में मुसलमान आते हैंजिनमें भारतवर्ष के सभी मुस्लिम सम्प्रदायों का समावेश हो जाता है। कुरान-मजीदहदीस आदि इनकी धार्मिक पुस्तकें मानी जाती हैं। पैगम्बरवादपाप-क्षमाचमत्कारवाद आदि इनकी भी प्रमुख धार्मिक मान्यताएं हैं। इमाममुल्लामौलवीहाफिज आदि इनके धर्म-गुरु समझे जाते हैं। इस वर्ग की आय का प्रमुख साधन मुसलमानों से समय-समय पर प्राप्त आय समझी जाती है।

    दयानन्द इन सभी मत-पन्थों/सम्प्रदायों का गहराई से अध्ययन-मनन करने के उपरान्त सहजत: इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि विभिन्न सम्प्रदायों का आधार सम्प्रदायजनित अन्धविश्वास तथा भ्रान्त धारणाएं हैंजन-साधारण में व्याप्त अज्ञानता में ही जिनकी जड़े हैं। इसलिए साम्प्रदायिक गुरुओं और प्रवक्ताओं के सभी दावों तथा आश्वासनों को जन-साधारण समुचित परीक्षा किये बिना ही स्वीकार करने लगते हैं और इसी कारण साम्प्रदायिक आग्रहों में फॅंसी साधारण जनता अपनी-अपनी साम्प्रदायिक मान्यताओं और आस्थाओं को दूसरों से श्रेष्ठ समझने लगती हैजो कालान्तर में अन्य सम्प्रदायों के प्रति असहिष्णुता या कट्‌टरता तथा ईर्ष्या-द्वेष के रूप में सामने आती है। दयानन्द विभिन्न सम्प्रदायों के बीच टकराव तथा ईर्ष्या-द्वेष के लिए धर्म-गुरुओं को उत्तरदायी ठहराते हैं। उनके शब्दों में, "विद्वानों के विरोध ने सबको विरोध-जाल में फॅंसा रखा है। यदि ये लोग अपने प्रयोजन में न फॅंसकर सबके प्रयोजन को सिद्ध करना चाहें तो अभी एक मत हो जायें" (सत्यार्थ प्रकाश-अनुभूमिकाएकादश समुल्लास)। इसलिए वे साम्प्रदायिक एकता स्थापित करने के लिए विभिन्न सम्प्रदायों के आचार्यों से मानवीय-मूल्यों तथा समस्याओं के आधार पर एकता स्थापित करने की अपील भी करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं।

    दयानन्द विभिन्न सम्प्रदायों के बीच तनाव तथा संघर्ष को साम्प्रदायिक गुरुओं का निहित स्वार्थ मानते हैं। उनके अनुसार अलग-अलग "साम्प्रदायिक प्रभु" भोली-भाली अनपढ जनता का आर्थिकधार्मिक तथा सामाजिक शोषण करने के लिए नित नये-नये हथकण्डे खोजते हैंइनसे उन्हें धन तथा कामोपभोग की नित्य प्रति प्रचुर सामग्री प्राप्त होती रहती है। यही कारण है कि दयानन्द साम्प्रदायिकता के मनोवैज्ञानिक आधार पर चोट करने के लिए जन-जन में व्याप्त अज्ञानतामिथ्या विश्वासों तथा अन्धश्रद्धा पर चोट करते हैंजिनमें अवतारवादगुरुडवादपैगम्बरवादभाग्यवादपाप-क्षमाकालवाद आदि प्रमुख हैंवहॉं इसी के साथ साम्प्रदायिकता के आर्थिक स्रोतों को बन्द करने के लिए उसके सामाजिक तथा धार्मिक आधार को छिन्न-भिन्न करने का प्रयत्न करते हैंजिनके अन्तर्गत मूर्तिपूजाव्रततीर्थकुपात्रों को दान आदि का खण्डन विशेष रुप से उल्लेखनीय है।

    दयानन्द विभिन्न सम्प्रदायों में व्याप्त अन्धविश्वास तथा रूढियों काजिन्हें वे प्राय: पाखण्ड के नाम से सम्बोधित करते दृष्टिगोचर होते हैंका खण्डन करने के लिए शास्त्रार्थ प्रणाली को आधार बनाते हैंजिनमें वे सभी अवैदिक मत-पन्थों तथा उनकी आधारभूत मान्यताओं की अवैज्ञानिकता तथा तर्कहीनता का प्रतिपादन प्रतिपक्षी की उपस्थिति में करते हैं। प्राय: जन-साधारण के सम्मुख इस प्रकार के तर्कीय आयोजनों का परिणाम यह होता है कि जन-साधारण असंगततर्क-विरुद्ध अन्धविश्वासों का परित्याग करने लगते हैं और दयानन्द द्वारा प्रतिपादित वैदिक मान्यताओं की सुगमता को स्वीकार करने के लिए उद्यत हो जाते हैं। दयानन्द द्वारा प्रवर्तित पाखण्ड-खण्डन के आन्दोलन की प्रासंगिकता को इसी आधार पर भलीभॉंति समझा जा सकता है।

    दयानन्द की दृष्टि में साम्प्रदायिकता साम्प्रदायिकता हैफिर चाहे वह कथित वैदिक नाम पर हो अथवा अ-वैदिकवह भारतीय हो अथवा अभारतीय। जन-जन में व्याप्त अज्ञानतामिथ्या विश्वास तथा पूजा-पाठी वर्ग का निहित स्वार्थउसके ये दो प्रमुख संघटक तत्व होते हैं। इसीलिए दयानन्द इन दोनों ही तत्वों के खण्डन के लिए प्राणपण से संकल्पवान्‌ जान पड़ते हैंजो उनके मण्डनात्मक या विधायी पक्ष को मूर्तरूप प्रदान करने के लिए आवश्यक प्रतीत होता है।

    दयानन्द के साम्प्रदायिकता-विरोधी दृष्टिाकोण को समुचित रूप में समझने के लिए धर्म तथा साम्प्रदायिकता में भी अन्तर करना आवश्यक प्रतीत होता है। दयानन्द के मतानुसार धर्म का अभिप्राय सत्यन्यायपरोपकारपवित्रता आदि उन शाश्वत मानवीय-मूल्यों से हैजिनका व्यक्ति और समाज की उन्नति तथा मुक्ति के लिए पालन करना आवश्यक है। उनके शब्दों में, "जो पक्षपात-रहित न्यायाचरणसत्य भाषणादि युक्त ईश्वराज्ञा वेद से अविरुद्ध है उसको धर्म...... मानता हूँ।" किन्तु साम्प्रदायिकता का आधार संकुचितनिहित स्वार्थ तथा अज्ञानता से है। दयानन्द के अनुसार विभिन्न सम्प्रदायों के अन्तर्गत सत्यन्यायपवित्रतापरोपकारअहिंसा और शान्ति आदि मानवीय मूल्यों को किसी न किसी रूप में अवश्य स्वीकार किया जाता हैअन्यथा समाज में अस्तित्व बनाये रखना असम्भव हो जायेगातथापि अपने निहित स्वार्थों को प्रमुखता और वरीयता प्रदान करने के कारण ही विभिन्न सम्प्रदायों में परस्पर इतने विभेदझूठ तथा ईर्ष्या-द्वेष उत्पन्न हो गये हैं कि उन्हें धार्मिक तो क्या सहजत: सामाजिक संगठन स्वीकार करने में भी कठिनाई का अनुभव होने लगता है। इसलिए दयानन्द जहॉं एक ओर समाज में प्रचलित विभिन्न सम्प्रदायों में व्याप्त अज्ञानताभ्रान्त धारणाओंअन्धविश्वासों तथा पाखण्डों का खण्डन करते हैंवहीं दूसरी ओर वैदिक धर्मत्रैतवादवैदिक कर्मफलवादपुरुषार्थ चतुष्टयसंस्कार आदि का मण्डन भी करते दृष्टिगोचर होते हैं जो उनकी दृष्टि में सबसे प्राचीन सत्य मानवतावादी धर्म है।

    अन्त में निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि दयानन्द साम्प्रदायिकता की समस्या दूर करने के लिए विभिन्न धार्मिक मत-पन्थ में निहित शाश्वत महत्व के तत्वों, मूल्यों की एकता पर बल देते हैं। उनके रक्षण, पल्लवन के लिए वैदिक धर्म के संस्थापन का लक्ष्य सामने रखते हैं, जो न केवल विश्व का प्राचीनतम धर्म है, वरन्‌ सभी शाश्वत मूल्यों का सार्वभौम स्रोत भी है। इसी के साथ-साथ विभिन्न साम्प्रदायिक, अन्धविश्वासों एवं भ्रान्त मान्यताओं से मानव-मात्र को मुक्ति दिलाने हेतु उनकी अतार्किकता, अवैदिकता एवं असत्यता का भी सफलतापूर्वक प्रतिपादन करते हैं, जिसकी वर्तमान भूमण्डलीयकरण के दौर में महती आवश्यकता है। -डॉ. सोहनपाल सिंह आर्य

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    In Dayanand's view, communalism is communalism, be it in the alleged Vedic name or non-Vedic, be it Indian or non-Indian. Ignorance prevailing among the people, false belief and vested interest of the class of worship are its two major constituents. That is why Dayanand appears determined to rebut both these elements, which seems necessary to give a tangible or legislative aspect.


    हिन्दुस्तान हिन्दुस्तानियों के लिए के उद्‌घोषक

    महर्षि दयानन्द ही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने "हिन्दुस्तान हिन्दुस्तानियों के लिए" का नारा लगाया था। स्वामी दयानन्द ने वेदों तथा उपनिषदों द्वारा भारत के प्राचीन गौरव को सिद्ध करके बता दिया और संसार को दिखा दिया कि भारतवर्ष दर्शन-शास्त्र तथा आध्यात्मिक विद्या की खान (भण्डार) है। भारत में रहने वाले लोग मानते है कि भारत की प्राचीन महिमा तथा गौरव पागलों का प्रलाप नहीं, परन्तु सत्य है। आर्यसमाज के लिये मेरे हृदय में शुभ इच्छाएं हैं और उस महान्‌ पुरुष ऋषि दयानन्द के लिये जिसका आज आर्य आदर करते हैं, मेरे हृदय में सच्ची पूजा की भावना है।-भारत-भक्त नेत्री एनी बीसेन्ट

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  • सार्थक लक्ष्य

    युवा-प्रेरणा

    हे मानव !
    जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहॉं,
    फिर जा सकता वह सत्त्व कहॉं?
    तुम स्वत्व सुधा-रस पान करो,
    उठ के अमरत्व विधान करो।

    राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त इन पंक्तियों के माध्यम से मनुष्य को जागृत करते हुए कह रहे हैं कि समस्त प्राणी जगत्‌ में सर्वश्रेष्ठ मानव जीवन दिशाहीन न हो, लक्ष्य से विचलित न हो। जीवन में सफलता पाने के लिये एक सार्थक लक्ष्य होना चाहिए। लक्ष्य के अभाव में जीवन बिना पतवार की नाव के समान होता है। लक्ष्य अपनी इच्छा और प्रतिभा के अनुरूप होना चाहिए। इसे पाने के लिए आपका तन-मन जुट जाए। इसके लिये कठोर से कठोर श्रम भी थकाए नहीं। बेचैन न करे। लक्ष्य को पाने पाने के लिये जो हर कठिनाई हंसते-खेलते झेल लेता है, उदासीनता, निराशा उसके पास नहीं फटकती। ऐसे पुरुषार्थी अपना लक्ष्य पा लेते हैं।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    सब जगह शान्ति ही शान्ति (वेद का दिव्य सन्देश)
    Ved Katha Pravachan _62 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    लक्ष्य को लांघने वाला व्यक्ति भूत और भविष्यकाल के बारे में चिन्ता नहीं करता। क्योंकि वर्तमान से ही भविष्य को खरीदा जा सकता है, वह उसे कल पर टालता नहीं है। जीवन के प्रति सदैव आशावान रहना चाहिये। कठिनाइयॉं और संघर्ष हमें निराश करने नहीं आते, बल्कि हममें साहस और शक्ति का संचार करने आते हैं। इसलिये उनसे निराश होकर जीवन की खुशी खोना नहीं है। जीवन जीने की कला हम जान लें तथा सकारात्मक सोच रखें, तो जीवन एक मुस्कुराहट भरा गीत बन जाएगा।

    नकारात्मक सोच रखने वाला व्यक्ति हर स्थिति में अपने को हारा हुआ मानता है। अच्छी से अच्छी परिस्थिति में भी पहले उसकी नजर, उसकी दृष्टि नकारात्मक पहलू पर ही पड़ती है। वह सकारात्मक पहलू पर ध्यान जाने से पूर्व ही निस्तेज हो जाता है। मनोवैज्ञानिक भी इसे मानने लगे हैं। वस्तुतः सभी के अन्दर कोई न कोई शक्ति छिपी है। बस उसे जागृत करने की आवश्यकता होती है और इसके लिये आवश्यकता है प्रेरणा की। प्रेरणा से प्रतिभा का उदय होता है और प्रतिभा परिश्रम के लिये व्यक्ति को मानसिक रूप से तैयार करती है।

    कई बार हम सफल इसलिये नहीं होते, क्योंकि हम अवसर को गम्भीरता से नहीं लेते। जैसे ही हम अवसर पर ध्यान देना शुरू करते हैं, जीवन मेें परिवर्तन घटित होने लगते हैं। तब हम अमूल्य समय को गंवाते नहीं हैं, नष्ट नहीं होने देते। क्योंकि हम यह समझ जाते हैं कि यदि वह समय गंवा दिया, तो पुनः लौटकर नहीं आएगा। फलस्वरूप लक्ष्य पा लेते हैं।

    सार्थक लक्ष्य पाने के लिये जीवन में अनुशासन का भी बहुत महत्व है। एक बार आचार्य सुमेध अपने शिष्यों के साथ गंगा नदी के किनारे टहल रहे थे। शिष्य वरतन्तु ने पूछा "आचार्य! विद्याध्ययन अथवा किसी लक्ष्य की प्राप्ति का आधार बौद्धिक प्रखरता है तो फिर कठोर अनुशासन की क्या आवश्यकता है?''

    आचार्य ने मुस्कुराकर पूछा- "अच्छा बताओ, यह गंगा नदी कहॉं से आ रही है और कहॉं तक जाएगी।'

    वरतन्तु ने कहा- "गंगा गोमुख से चलकर गंगासागर में मिल जाती है।''

    आचार्य ने पूछा- "यदि इसके दोनों किनारे न हों तो?''

    शिष्य ने कहा- "तब तो इसका जल दोनों तरफ बिखर जाएगा, बह जाएगा तथा कहीं बाढ़ और कहीं सूखा पड़ जाएगा और यह अपने लक्ष्य गंगासागर तक तो पहुंच ही नहीं पाएगी, बीच में ही खत्म हो जाएगी।'' आचार्य ने कहा- "हॉं, इसी तरह अनुशासन के अभाव में विद्यार्थी या लक्ष्यार्थी की जीवन-ऊर्जा बंट जाएगी, बिखर जाएगी, क्योंकि एक लक्ष्य नहीं होगा, अनेक सोच होंगे। लक्ष्य प्राप्ति में रुकावट आने पर शरीर और मन निस्तेज हो जाएंगे। फलस्वरूप जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति असम्भव हो जाएगी। अनुशासन, विद्याध्ययन या किसी भी उद्देश्य को प्राप्त करने व उसे आत्मसात्‌ करने का सूत्र है।

    सफलता पाने के बाद उसके सुख और यश को स्थायी रखने के लिये आवश्यक है विनय और अहंकारशून्यता। ज्ञानी जन कहते हैं कि ज्ञान, धन, पद, यश, प्रभुता आदि पाकर मनुष्य में अहंकार पैदा हो जाता है। महर्षि आरुणि के पुत्र श्वेतकेतु अत्यन्त वेद ज्ञानी ऋषि थे। वे जब गुरुकुल से वेदाध्ययन करके लौटे, तब उन्हें अपने पाण्डित्य पर इतना अभिमान हो गया था कि घर आकर उन्होंने अपने पिता महर्षि आरुणि को प्रणाम भी नहीं किया। अपने पुत्र का अभिमान देखकर पिता अत्यन्त दुखी हुए। उन्होंने अपने पुत्र से कहा- "वत्स! तुमने ऐसी कौन सी ज्ञान की पुस्तक पढ़ ली है, जो बड़ों का सम्मान करना भी नहीं सिखाती? यह ठीक है कि तुम बहुत बड़े विद्वान हो, वेद-ज्ञान भी प्राप्त कर लिया है। किन्तु क्या तुम यह भी नहीं जानते कि विद्या का सच्चा स्वरूप विनय है? वत्स! जिस विद्या के साथ विनय नहीं रहती, वह न तो फलीभूत होती है और न ही विकसित होती है।''

    पिता की इस मर्मयुक्त वाणी को सुनकर श्वेतकेतु को अपनी भूल ज्ञात हुई। उन्हें स्मरण हो आया जब उनके गुरु जी ने भी एक दिन कहा था- "वत्स श्वेतकेतु! जिस प्रकार फल आने पर वृक्ष की डालियॉं झुक जाती हैंउसी प्रकार ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात्‌ हमें भी अधिक विनम्र और शालीन हो जाना चाहिये। "विद्या ददाति विनयम्‌के इस सिद्धान्त से प्रकाश पाकर ही तुम जीवन मेें सफल हो सकते हो।'' अपनी अहंकारजनित भूल से लज्जित श्वेतकेतु पिता के चरणों में सर झुकाकर क्षमा मांगने लगे। महर्षि ने उन्हें गले लगा लिया और बोले- "अभिमान तो पुत्र की विद्वत्ता पर मुझे होना चाहियेवत्स!''

    अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
    चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्‌।।

    विद्या विनय सिखाती है। बड़ों का सम्मान करने वाले तथा सदा सत्य का आचरण करने वाले विनयी और शीलवान व्यक्ति के आयु, विद्या, यश और बल- पराक्रम बढ़ते हैं। वह स्वयं शक्तिशाली बनकर समाज और देश को भी उन्नत करता है, क्योंकि वह जानता है कि- जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः ध्रुवं जन्म मृतस्य च। तथा स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम्‌।।

    इस संसार में अनेकों प्राणी जीवन धारण करते हैं और अपनी जीवन लीलाओं को समाप्त कर इस संसार से विदा हो जाते हैं। परन्तु जीवन वही जीवन है जो अपने कुल, वंश, समाज और राष्ट्र का नाम उज्ज्वल करता है।

    राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियॉं कितने सुन्दर शब्दों में स्वाभिमान को जागृत करती हैं-

    निज गौरव का नित ज्ञान रहे,
    हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे।

    सब जाये अभी पर मान रहे,
    मरणोत्तर गुंजित गान रहे।।

    कुछ होन तजो निज साधन को,
    नर होन निराश करो मन को।।

    तात्पर्य यह है कि अन्तःप्रेरणा से प्राप्त सार्थक लक्ष्य की प्राप्ति के लिये अवसर की गम्भीरता को समझना अर्थात्‌ वर्तमान क्षण का सदुपयोग करनासकारात्मक सोचअनुशासन और लक्ष्य के प्रति सचेत रहते हुए आशावान रहना जितना आवश्यक हैउतना ही उस सफलता की आत्मतुष्टि को चिरस्थायी रखने के लिये आवश्यक हैं आत्मविश्वासनिरभिमानिता और सज्जनता।- रोचना भारती

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    Discipline is also very important in life to achieve meaningful goals. Once Acharya Sumedha was walking along the banks of the river Ganges with his disciples. The disciple Varatantu asked, "Acharya! Intellectual intelligence is the basis of learning or the attainment of a goal, so what is the need for rigorous discipline?"

     

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  • सूर्य और चन्द्रमा की राह पर चलो

    ओ3म्‌ स्वस्ति पन्थामनुचरेम सूर्याचन्द्रमसाविव।
    पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि।।
    (ऋग्वेद 5.51.15) 

    अर्थ - (सूर्याचन्द्रमसाविव) सूर्य और चन्द्रमा की तरह (स्वस्ति) कल्याण के (पन्थाम्‌) मार्ग पर (अनुचरेम) चलते रहें (पुनः) और (ददता) दान करने वाले (अघ्नता) अहिंसा-स्वभाव वाले (जानता) ज्ञानी पुरुषों की (संगमेमहि) संगति करते रहें। 

    हम सूर्य और चन्द्रमा की तरह कल्याण के मार्ग पर चलते रहें। सूर्य और चन्द्रमा कल्याण के मार्ग पर चलते हैं। हमें भी उन्हीं की तरह कल्याण की राह पर चलना चाहिये। सूर्य और चन्द्र का मार्ग कल्याण का मार्ग किस कारण बन जाता है? इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि सूर्य-चन्द्र की गति नियमित है। इतनी नियमित कि वर्षों पहले सूर्य और चन्द्र-ग्रहणों का पता लग जाता है। सूर्य-चन्द्रादि पिण्ड यदि नियमित गति से न चलें, तो परस्पर टकराकर ब्रह्माण्ड नष्ट-भ्रष्ट हो जाये। इनकी नियमित गति के ही कारण वर्ष में छः ऋतुएं बनती हैं। सरदी, गरमी और वर्षायें आती हैं। और दूसरे यह कि सूर्य-चन्द्र अपनी नियमित गति से समय-समय पर जो ऋतुएँ बनाते हैं, उनका फल लोक-कल्याण होता है। हर एक ऋतु से खास-खास प्रकार के लाभ संसार को मिलते हैं। सूर्य-चन्द्र का प्रकाश और गरमी, उनका आकर्षण और विकर्षण सब संसार के कल्याण के लिये ही होते हैं। 

    Ved Katha Pravachan _96 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    हमें भी सूर्य-चन्द्र की तरह "स्वस्ति' के, कल्याण के मार्ग पर चलना चाहिए। हमारा जीवन नियमित हो, हममें समय पर सब कार्य करने की क्षमता हो और हमारी सब शक्तियॉं संसार का कल्याण करने वाली हों। 

    सूर्य प्रकाश पुञ्ज है। उसमें असीम प्रकाश है। इस असीम प्रकाश के कारण ही सूर्य के जीवन में स्वस्ति है। सूर्य की भॉंति हमें भी अपने भीतर असीम प्रकाश भरना चाहिए। हमें महाज्ञानी बनना चाहिये। हमें तृण से लेकर ईश्वर-पर्यन्त सब पदार्थों के सम्बन्ध में भांति-भांति के विद्या-विज्ञान सीखने चाहियें। सूर्य में असीम गरमी है। इस गरमी के कारण ही उसके जीवन में स्वस्ति है। हमें भी सूर्य की भांति अपने जीवन में गरमी भरनी चाहिए। हमारे जीवन में उत्साह, बल, स्फूर्ति, तेजस्विता और आगे बढ़ने की भावनाओं की गरमी रहनी चाहिए। चन्द्रमा में शीतलता, सौम्यता, शान्ति और आह्लादकता का असीम गुण है। इसके कारण ही उसके जीवन में स्वस्ति है। हमारे जीवन में भी यह गुण असीम मात्रा में होना चाहिए। हमारे जीवन में सूर्य की उष्णता और चन्द्रमा की शीतलता का समन्वय होना चाहिए। और हमें अपने प्रकाश-गुण से, ज्ञान-गुण से, अपनी समझ से भली-भांति विचार करके निश्चय करना चाहिए कि हमें जीवन में कब गरमी का परिचय देना है और कब शीतलता का। अपने प्रकाश, उष्णता और शीतलता के ये तीनों गुण हमें संसार के कल्याण में ही लगाने चाहियें। 

    पर हमारे अन्दर वह शक्ति ही कैसे आए, जिसका हमें सूर्य-चन्द्र की तरह संसार के कल्याण में व्यय करना है। इसका उत्तर मन्त्र के उत्तरार्द्ध में दिया गया है। हमें अपने अन्दर योग्यता हासिल करने के लिये ऐसे पुरुषों का संग करना चाहिए जो दानी हों, अपनी शक्तियों को संसार के उपकार में लगाते हों, जो अहिंसाशील हों, संसार के प्राणियों के दुःख-दर्द मिटाने की भावना से जो कर्म करते हों, जो ज्ञानी होकर तरह-तरह की विद्याओं के तत्व का उपदेश कर सकते हों। ऐसे लोगों की संगति में रहने से हमें शक्ति प्राप्त होती है, जिसका हम सूर्य-चन्द्र की तरह लोक-कल्याण में व्यय कर सकेेंगे। 

    मनुष्य! सत्पुरुषों की संगति में बैठना सीख, उनसे शक्ति प्राप्त कर और फिर उस शक्ति को सूर्य-चन्द्र की तरह से लोक-कल्याण में लगा दे। इसी से तेरा जीवन स्वयं भी स्वस्ति (सु अस्ति) अर्थात्‌ उत्तम सत्ता वाला हो सकेगा। कल्याण का यही मार्ग है। - आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति

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    Humans! Learn to sit in the company of Satpurus, get power from them and then put that power in the public welfare like Surya-Chandra. With this, your life itself will also be healthy (su asti), that is, with good power. This is the path to welfare. - Acharya Priyavrat Vedavachaspati

     

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  • स्वतंत्रता के महान योद्धा नेताजी सुभाषचंद्र बोस - ३

    कलकत्ता के रास्तों का अंग्रेजी नाम बदलकर भारतीय रखे- २० जुलाई १९२१ को सुभाष बाबू की मुलाकात महात्मा गाँधी से हुई। उन्होंने उनकी मुलाकात कलकत्ता के मेयर दास बसु से कराई। दास बाबू सुभाष के विचारों से इतने प्रभावित हो गये कि उन्होंने सुभाष को कार्यकारी अधिकारी के रूप में नियुक्त कर लिया। सुभाष बाबू तो अंग्रेजों से चिढ़ें हुए थे उन्होंने जितने भी कलकत्ता में अंग्रेजों के नाम से रास्ते थे, लगभग उन सबके भारतीय नाम रख दिये और अंग्रेजी नाम हटा दिये।

    चितरंजन दास जी को अपना राजनैतिक गुरु बनाना - बंगाल के वरिष्ठ नेता देशबंधु श्री चितरंजनदास जी ने अपनी लाखों रुपयों की वकालत को ठोकर मार दी। उनके इस त्याग से प्रभावित होकर, उनमें श्रद्धाभाव रखते हुए उन्हें अपना राजनैतिक गुरु मानना स्वीकार कर लिया। त्यागी गुरु का शिष्य भी त्यागी होना चाहिए। यह बात सुभाष ने सिद्ध कर दी।

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    Explanation of Vedas & Dharma | मरने के बाद धर्म ही साथ जाता है - 2

    आई.सी.एस की नौकरी छोड़ दी- एक धनी परिवार में जन्म लेने के बावजूद सांसारिक धन-वैभव, पदवी की ओर झुकाव नहीं था। मित्रगण उसे सन्यासी कहते थे। अंग्रेज सरकार की दमनकारी एवं अन्यायपूर्ण नीति के विरोध में आई.सी.एस की परीक्षा उत्तीर्ण करके भी सरकारी नौकरी छोड़ दी। स्वयं ब्रिटिश सर्कार के भारत मंत्री के समझाने के बावजूद भी कलेक्टर और कमिश्नर बनने की बजाय मातृभूमि का सेवक बनना स्वीकार किया।

    बंगाल की भयंकर बाढ़ - बंगाल की भयंकर बाढ़ में फंसे लोगों की भरपूर सहायता की। सामाजिक कार्य निरंतर चलते रहे। इसके लिए युवक दल की स्थापना की ताकि कृषक समाज की सहायता की जा सके।

    यतीन्द्रनाथ की शवयात्रा में भारतियों में जोश भरा- क्रांतिकारी यतीन्द्रनाथ ने जैल में ६३ दिनों की भूख हड़ताल इसलिए की कि वहाँ क्रांतिकारियों के साथ बहुत ही दुर्व्यवहार किया जाता था। वहीं उनका निधन हो गया। उनकी शवयात्रा सरकार के विरोध के बावजूद निकली। अंग्रेजों के विरुद्ध जितना जोशीला भाषण दे सकते थे, दिया। अंग्रेज सरकार ने उन्हें पुनः गिरफ्तार कर लिया।

    ब्लैक हाल स्मारक को हटाना - अंग्रेजों ने भारतीयों को अपमानित करने के लिए एक ब्लैक हाल स्मारक बनवाया। सुभाष इसे देश व भारतीयों का अपमान समझते थे। उन्होंने अंग्रजों के विरुद्ध समझौता विरोधी कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया। चाहे अंग्रेज सरकार ने उन्हें पुनः गिरफ्तार कर लिया परन्तु सुभाष के प्रभाव से भयभीत होकर ब्लैक हाल स्मारक को हटा दिया गया।

    गाँधी जी से मतभेद- रविंद्रनाथ टैगोर, प्रबुल्लचंद्र राय, मेघनाथ साहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाष की कार्यशैली से सहमत थे परन्तु गाँधी जी उनकी कार्यशैली को पसंद नहीं करते थे। चाहे गाँधी जी के सहयोग से १९३१ में वे कांग्रेस के अध्यक्ष बने। गाँधी जी उन्हें अपनी शैली के अनुसार चलाना चाहते थे परन्तु वन का यह सिंह पिंजरे कैसे बंद रह सकता था? उन्होनें कांग्रेस पार्टी ही छोड़ दी क्योंकि गांधी जी की नीति अंग्रजों को सहयोग करके स्वराज्य पाने की थी जबकि सुभाष यह जानते थे कि वे अंग्रेज स्वार्थी, विश्वासघाती एवं अन्यायी लोग हैं, यह शान्ति से हमें आजादी नहीं देंगे। इसके लिए सशस्त्र क्रांति करनी होगी। गान्धी जी से मतभेद हो गये और उनसे अलग हो गये।

    पंडित मोतीलाल नेहरू एवं जवाहरलाल नेहरू से संबन्ध - सुभाष जी की कार्यनिष्ठा, नायकत्व, देशप्रेम, लगन व उच्च चरित्र की प्रशंसा करते हुए प. मोतीलाल नेहरू ने गद्गद् कंठ से कहा था - सुभाषचंद्र बोस मुझे अपने लड़के की तरह प्यारे हैं। परन्तु इस देश का दुर्भाग्य है कि जिस सुभाष को जवाहरलाल नेहरू का पिता अपने लड़के के समान मानता है वहां पं. मोतीलाल नेहरू का पुत्र जवाहरलाल नेहरू सुभाषचंद्र बोस के जीवन से सम्बंधित फाइलों को गुम करा देता है।

    सफलता के लिए ईश्वर का सहारा - दक्षिण पूर्व एशिया के भारतियों ने सिंगापूर में एक ऐतिहासिक सम्मेलन किया। उस सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए सुभाष ने कहा था- भारत की स्वाधीनता आन्दोलन का नेता चुनकर आपने जो सम्मान प्रदान किया है उसके लिए मैं आपका अपनी अंतरात्मा से धन्यवाद करता हूँ कि परमात्मा मुझे अपना कर्त्तव्य पूर्ण करने की शक्ति प्रदान करे, जिससे मैं अपने देशवासियों को पूर्ण संतुष्ट कर सकूँ।

    सैनिकों के लिए आदेश - सिंगापूर में आजाद हिंद फौज के सैनिकों को सम्बोधित करते हुए कहा- भारत की स्वाधीनता सेना के सिपाहियों! आज मैं अपार गौरव तथा अदभुत आनंद का अनुभव कर रहा हूँ कि भारत की भावी सेना का निर्माण भी करेगी। सैनिक होने के नाते आपको सदा तीन आदर्श अपने सामने रखने चाहिएं- १. विश्वाशपात्रता, २. कर्त्तव्य, ३. बलिदान। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं सदैव आपके साथ रहूँगा। इस समय मैं आपको भूख, प्यास और संघर्ष के सिवाय कुछ नहीं दे सकता। यह कोई नहीं जनता कि देश को स्वतन्त्र कराने के लिए हम में से कौन जीवित बचेगा? परन्तु इतना निश्चित है कि हमारा संघर्ष रंग लायेगा। हमारा देश स्वतंत्र होगा परन्तु इसके लिए हमें सर्वात्मना समर्पित होना होगा।

    स्वतंत्रता का सेवक - सिंगापूर में जापान के जनरल तोजो उपस्थित थे। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा- मुझे विश्वास है कि सुभाषचन्द्र बोस स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति होंगे। जापान को भारत पर किसी राष्ट्रपति को लादने का अधिकार तो नहीं है, परन्तु हम इस महामानव को इस योग्य समझते हैं। सुभाषचंद्र बोस ने जनरल तोजो की इस बात का खण्डन करते हुए कहा था- स्वतंत्रता का सेवक मात्र हूँ। - कन्हैयालाल आर्य

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    Removal of Black Hall Memorial - British built a Black Hall Memorial to humiliate Indians. Subhash considered it an insult to the country and Indians. He organized an anti-compromise conference against the British. Although the British government arrested him again, but the fear of Subhash's influence, the Black Hall memorial was removed.

     

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  • स्वतंत्रता के महान योद्धा नेताजी सुभाषचंद्र बोस - ४

    तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा - जापान के सहयोग से आजाद हिंद फौज की स्थापना की। हिटलर से मिले। जर्मनी में 'भारतीय स्वतंत्रता संगठन' तथा 'आजाद हिंद रेडियो' की स्थापना की। जर्मनी से जापान पंहूचकर युवाओं का आह्वान करते हुए यह नारा दिया- 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा' 'जय हिन्द' का नारा भी सुभाष की देंन थी।

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    सबको आकर्षित करने की कला - सुभाष जी केवल मेधावी छात्र रहे हों, अथवा उसमें केवल देशभक्ति ही रही हो, ऐसी बात नहीं थी वरन वह अनेक गुणों का साकार प्रतीक था। उसका चरित्र उस हीरे की भांति था जो किसी भी अग्निपरीक्षा में धूमिल नहीं पड़ता था। उसके आचरण में ऐसी गम्भीरता और संतुलन था जिससे कोई भी व्यक्ति प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था। उसकी आकृति में ऐसा ओज तथा दृढ़ता थी कि लोगों को पल भर में आकर्षित कर लेती थी। 

    आजाद हिंद फौज का गीत -

    कदम-कदम बढ़ाये जो, ख़ुशी के गीत गाये जा।
    ये जिंदगी है कौम की, तू कौम पर लुटाये जा। 

    चलो दिल्ली पुकार के, कौमी निशां सम्भाल के।
    लालकिले पै गाड़ के, फहराये जा फहराये जा।

    यह वह गीत था जिसे सैनिक झूमते-झूमते गाते हुए राष्ट्र की वेदी पर बलिदान हो जाते थे। किन्तु आह! भारतीयों का दुर्भाग्य! देश का दुर्भाग्य! २३ अगस्त १९४५ को टोकियो रेडियो के निम्न समाचार ने भारतीयों पर वज्रपात कर दिया और पूरा विश्व स्तब्ध रह गया। 

    आजाद हिंद की अस्थायी सरकार के सर्वोच्च अधिकारी श्री सुभाषचंद्र बोस कर्नल हबीर्बुरहमान के साथ बैंकांक से टोकियो आ रहे थे......फारमोसा के निकट ताईहोक नामक स्थान पर उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया। उसमे आग लग जाने के कारण नेताजी मृत्यु को प्राप्त हुए।

    इस समाचार को सुनकर सम्पूर्ण भारतीय एवं प्रवासी भारतीय शोकमग्न हो गये। अंग्रेज भी चकित रह गये। उनको इस समाचार पर पूर्ण विश्वास नहीं हो रहा था।वे यह समझ रहे थे कि यह समाचार केवल हम अंग्रेजों को भ्रमित करने के लिए दिया गया है। उनकी मृत्यु एक रहस्य बनकर रह गई। यदि वह सचमुच भारत की आजादी के बाद आ गये होते तो इस देश का इतिहास कुछ और ही होता। यदि वे देश राष्ट्रपति और सरदार पटेल देश के प्रधानमन्त्री बनते तो आज भारत विश्व का सिरमौर राष्ट्र होता परन्तु सभी आशायें धूमिल हो गई। सुभाष जी का कुछ पता न चला। उनकी मृत्यु पर परदा ही रह गया। आजादी के महान योद्धा के जीवन का अंतिम भाग रहस्यमय ही बन गया।

    अब इतना समय बीत गया है कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की कहीं जीवित रहना असम्भव है फिर भी कभी भारत का इतिहास निष्पक्ष ढंग से लिखा गया तो श्री सुभाषचन्द्र बोस जी का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जायेगा। स्वाधीनता के पुजारी, भारत माता की स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने वाले त्याग और बलिदान की इस मूर्ति को शत-शत नमन। - कन्हैयालाल आर्य

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    Now so much time has passed that it is impossible for Netaji Subhash Chandra Bose to survive, yet if the history of India was written objectively, then the name of Shri Subhash Chandra Bose would be written in golden letters. Salute this statue of sacrifice and sacrifice for the freedom of Bharat Mata, the priest of freedom - Kanhaiyalal Arya

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  • स्वतन्त्रता आन्दोलन में आर्यसमाज का योगदान

    सामान्य लोगों में यह भ्रान्त धारणा व्याप्त है कि अंग्रेजों से भारत को स्वाधीनता दिलाने वाली कांग्रेस पार्टी ही है। कांग्रेस की स्थापना सन्‌ 1885 ई. में मि. एलन आक्टेवियन ह्यूम ने की थी। कांग्रेस में शामिल लोग प्रतिवर्ष इकट्ठे होकर अंग्रेजी शासन को वरदान मानकर इसको टिकाये रखने हेतु इसकी प्रशस्ति के प्रस्ताव पारित करते हुए केवल सरकारी नौकरी की मांग करते थे। प्रारम्भ में यह सामान्य भारतीयों की पार्टी भी नहीं थी। अंग्रेजी वेशभूषा में केवल अंग्रेजी बोलते हुए अंग्रेजों की शैली में सरकार को प्रतिनिधि मंडल भेजना इसका प्रमुख कार्य था। बंग भंग आन्दोलन के पश्चात्‌ 1906 ई. में लोकमान्य तिलक ने कांग्रेस के मंच से "स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है" का प्रसिद्ध नारा दिया। 1929 ई. में कांग्रेस ने 1 वर्ष में औपनिवेशिक शासन देने की मांग की और नहीं मिलने पर अन्तत: 1930 ई. में पूर्ण स्वाधीनता की मांग की गई। इसके विपरीत कांग्रेस के भी जन्म से 10 वर्ष पूर्व स्वामी दयानन्द द्वारा स्थापित आर्यसमाज ने धार्मिक समुदाय होते हुए भी क्रियात्मक रूप से भारत में स्वाधीनता आन्दोलन की नींव डाली। इसीलिए बिहार के भूतपूर्व राज्यपाल और भूतपूर्व लोकसभाध्यक्ष ने कहा था कि यदि महात्मा गांधी राष्ट्रपिता हैं तो स्वामी दयानन्द राष्ट्रपितामह हैं। उनके इस कथन में कोई अतिशयोक्ति नहीं है।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    यजुर्वेद मन्त्र 1.1 की व्याख्या

    Ved Katha Pravachan - 96 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    महर्षि दयानन्द के जीवन काल में देश अंग्रेजी की दासता में जकड़ा हुआ था। स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए समय-समय पर भारतीयों ने सशस्त्र संघर्ष किये, जिनमें 1857 ई. का स्वाधीनता संघर्ष सबसे बड़ा था। इसे अंग्रेजों ने निर्दयतापूर्वक दबा दिया था। 1857 ई. के स्वाधीनता आन्दोलन में स्वामी दयानन्द ने भाग लिया था या नही, इस पर पर्याप्त मतभेद है। पर यह निर्विवाद है कि 33 वर्षीय इस युवा साधु दयानन्द ने इसे अपनी आंखों से देखा था और इसका उनके भावी जीवन पर गहरा प्रभाव भी पड़ा था। 1857 ई. के स्वाधीनता संघर्ष की असफलता ने भारतीयों के मनोबल को बुरी तरह तोड़ दिया था। परिव्राजक के रूप में गंगा के तट पर भ्रमण करते हुए युवा दयानन्द ने एक महिला को अपने बच्चे के शव को नदी में चुपचाप छिपाकर बहाते हुए देखा। कफन को धोकर पुन: साड़ी के रूप में उसे पहनकर वह महिला विगलित नयनों में अश्रुकणों को संजोकर आगे बढी। पराधीनता से उत्पन्न निर्धनता का यह नग्नस्वरूप देखकर दयानन्द विचलित हो उठे। दयानन्द का मृत्युपर्यन्त का जीवन इस बात का साक्षी है कि उन्होंने इस दृश्य को कभी नहीं भुलाया। उन्होंने 1875 ई. में आर्यसमाज की स्थापना की। स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज के बारे में श्री पट्‌टाभि सीतारम्मैया ने कांगे्रस के इतिहास में लिखा है:-"स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रवर्तित आर्यसमाज अतीव उग्र राष्ट्रीय आन्दोलन था। यह महान्‌ आन्दोलन स्वामी जी की प्रेरणा से प्रादुर्भाव हुआ था और अपने देशभक्तिपूर्ण उत्साह में इसका स्वरूप आक्रमणात्मक था।"

    स्वामी दयानन्द पहले भारतीय थे जिन्होंने अपनी पुस्तक सत्यार्थप्रकाश में प्रथम बार स्वदेशी और स्वराज्य शब्द का प्रयोग करते हुए लिखा था:- "कोई कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशी राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है अथवा मतमतान्तर के आग्रहरहित अपने और पराये का पक्षपातशून्य, प्रजा पर माता-पिता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायी नहीं है।" कतिपय वेदमन्त्रों का अर्थ करते हुए महर्षि ने यह प्रार्थना भी की थी-"हे महाराजाधिराज परब्रह्म..... अन्य देशवासी राजा हमारे देश में कदापि न हो तथा हम लोग कभी पराधीन न हों।" एक दूसरे वेदमन्त्र का अर्थ करते हुए उन्होंने कहा है:- "मनुष्यों को चाहिए कि पुरूषार्थ करने से पराधीनता छुड़ा के स्वाधीनता निरन्तर स्वीकार करें।" महर्षि ने इन विचारों का प्रतिपादन तब किया था जब कांग्रेस पैदा भी नहीं हुई थी।

    यूरोप में जो कार्य बेकन, दस्कार्ते, स्पिनोजा और वाल्तेयर ने किया वही कार्य भारत में महर्षि दयानन्द ने किया। महर्षि दयानन्द ने देश को जगाने का कार्य अद्‌भुुत रूप से किया। उनका कहना था कि भारतीयों को अंग्रेजों का अनुसरण करते हुए स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना चाहिए। सत्यार्थप्रकाश में अंग्रेजों के स्वदेश-प्रेम की उन्होंने मार्मिक शब्दों में प्रशंसा की है।

    लाहौर में आर्यसमाज ने सर्वप्रथम स्वदेशी वस्तुओं की दुकान खोली थी। 1879 ई. में एक प्रस्ताव पारित कर इसके सभी सदस्य स्वदेशी वस्तु का उपयोग करते थे। 1875 ई. में स्थापित पंजाब नेशनल बैंक के संस्थापकों में बहुसंख्यक आर्यसमाज के सदस्य थे। 1902 ई. में पंजाब नेशनल बैंक का पूर्ण स्वामित्व आर्यसमाजी सदस्यों के हाथों में चला गया था। स्वामी दयानन्द ने स्वदेशी का जिस रूप में प्रतिपादन किया था उसमें केवल स्वदेश में निर्मित वस्तुओं का प्रयोग ही अभिप्रेत नहीं था, अपितु स्वदेशी संस्कृति भी उसके अन्तर्गत थी।

    अत: आर्यसमाज के एक वर्ग ने जहॉं गुरुकुल आन्दोलन के अन्तर्गत लड़कों और लड़कियों के लिए पृथक्‌-पृथक्‌ गुरुकुल खोले, वहॉं दूसरे वर्ग ने डी.ए.वी. आन्दोलन के रूप में यत्र-तत्र-सर्वत्र शिक्षण संस्थाओं का जाल बिछा दिया। स्त्रीशिक्षा के लिए भी सर्वत्र बालिका विद्यालय खोले गये।

    महात्मा गांधी की नेतृत्व में कांग्रेस शनै:-शनै: अहिंसात्मक रीति से देश को आजाद करानेवालों की संस्था के रूप में परिणत होती चली गई। यद्यपि आर्यसमाज संस्थागत रूप में प्रचलित सक्रिय राजनीति के पक्ष में नहीं है। फिर भी राजनीति में रुचि रखनेवाले आर्यसमाजी कांग्रेस में शामिल हो गये। कांग्रेस में ऐसे लोगों का बहुमत था। स्वामी श्रद्धानन्द, आर्य संन्यासी भवानीदयाल और पंजाब केसरी लाला लाजपतराय प्रभृति लोग आर्यसमाज के आन्दोलन से जुड़े हुए थे।

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    भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में क्रान्तिकारियों के योगदान को विस्मृत करना घोर कृतघ्नता होगी। श्री श्याम जी कृष्ण वर्मा क्रान्तिकारी आन्दोलन के जनक थे। ये स्वामी दयानन्द के प्रिय शिष्य थे। यूरोप में इन्होंने होमरूल सोसायटी की स्थापना की थी। उक्त सोसायटी द्वारा उच्च शिक्षा प्राप्त भारतीयों को जो अंग्रेजों की नौकरी नहीं करने का वचन देते थे, उन्हें छात्रवृत्ति प्रदान की जाती थी। स्वातन्त्र्य वीर सावरकर और लाला हरदयाल ने उक्त छात्रवृत्ति प्राप्त कर क्रान्तिकारी आन्दोलन को नई दिशा प्रदान की। भाई परमानन्द और श्री बालमुकुन्द जी लाला हरदयाल के साथी थे। शहीद भगतसिंह स्वयं व उनके पिता सरदार किशनसिंह और उनके चाचा अजीतसिंह सभी आर्यसमाज से प्रभावित थे। मदनलाल ढींगरा, पं. रामप्रसाद बिस्मिल, राजा महेन्द्रप्रताप, पं. गेन्दालाल दीक्षित, मास्टर अमीरचन्द प्रभृति क्रान्तिकारी आर्यसमाज से जुड़े हुए थे। आजाद हिन्द फौज के जिन तीन सैनिक अधिकारियों पर मुकदमा चलाया था उनमें श्री सहगल जी आर्यसमाजी परिवार के थे। आर्यसमाज ने आजाद हिन्द फौज पर मुकदमा चलाने का भी विरोध किया था। लेखक-दयाराम पोद्दार

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    There is a misconception among the common people that it is the Congress party that has given India independence from the British. The Congress was founded in 1885 AD by Mr. Alan Octavian Hume. The people involved in the Congress gathered every year as a boon and passed a resolution praising it for keeping it as a boon and only demanded a government job. Its main function was to send a government delegation in English costumes in the style of British speaking English only.

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  • स्वतन्त्रता प्राप्ति में आर्य समाज का योगदान

    अंग्रेजों के आधीन पराधीन भारत को स्वतन्त्र कराने में आर्य समाज का अमूल्य और अकथनीय योगदान रहा है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का इतिहास लिखने वाले श्री पट्‌टाभिसीतारमैया ने कांग्रेस के इतिहास में लिखा है कि स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लेने वालों में 80 प्रतिशत आर्य समाजी ही आन्दोलनकारी थे। इसी से आर्य समाज द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्ति हेतु किये गये संघर्ष का सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि आर्य समाज को स्वदेश, स्वराज्य, स्वभाषा एवं स्वसंस्कृति से कितना लगाव था और है । हो भी क्यों न क्योंकि आर्यसमाज का जन्म भी इसीलिए हुआ था।

    स्वतन्त्रता महामन्त्र के दाता, युग प्रवर्तक तथा "स्वतन्त्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है" को भारत भू पर घोषणा करने वाले तिलक को स्वतन्त्रता की प्रेरणा देने वाले युग पुरुष आचार्य प्रवर देव दयानन्द स्वदेश, स्वतन्त्रता, स्वराज्य एवं नागरी भाषा तथा वैदिक संस्कृति के प्रबल एवं सर्वप्रथम समर्थकों में अग्रगण्य हैं। कांग्रेस के जन्म से पूर्व ही ऋषि ने अपनी महान रचना "सत्यार्थ प्रकाश" में लिखा कि कोई कितना ही यत्न करे जो स्वदेशी राज्य होता है वह सर्वोपरि होता है। अथवा मतमतान्तर के आग्रह रहित अपने और पराये का पक्षपात शून्य माता-पिता के समान कृपा, न्याय दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    श्रेष्ठ कर्मों से शरीर और मन की स्वस्थता
    Ved Katha Pravachan - 95 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    इलाहाबाद उच्च न्यायालय इस अभियोग का साक्षी हैं कि स्वतन्त्रता का शंखनाद करने वाली तथा आर्यो के सार्वभौम चक्रवर्ती साम्राज्य की प्रार्थना करने वाली ऋषि की अमर अक्षय रचना "आर्याभिविनय" से तत्कालीन अंग्रेजों में भय व्याप्त हो गया। अत: कुटिल अंग्रेजों ने इस पुस्तक पर अभियोग चलाया, पर ऋषि दयानन्द अपने कण्टकाकीर्ण मार्ग से विचलित नहीं हुए। ऋषि ने पं. श्याम जी कृष्ण वर्मा कों इंग्लैण्ड जाकर स्वतन्त्रता हेतु कार्य करने की प्रेरणा दी थी तथा पं. श्याम जी ने इंग्लैण्ड जाकर इण्डिया हाउस की स्थापना की और इसी के माध्यम से भारतीय विद्यार्थियों में स्वतन्त्रता का बीजारोपण किया। फलस्वरूप सावरकर, ढींगरा जैसे एक नहीं अनेक क्रान्तिकारियों का जन्म हुआ, जिन्होंने पराधीनता के प्रबल पाशों में जकड़ी हुई मातृभूमि को स्वतन्त्र कराने का आजन्म व्रत धारण कर अपने तुच्छ सुखों का परित्याग कर भारतीय स्वतन्त्रता के इतिहास में अपना विशेष स्थान बनाया।

    इधर भारत में ऋषि की महान रचनाओं का जिनमें स्वदेश, स्वराज्य, स्वभाषा, स्वाधीनता तथा स्वसंस्कृति की सर्वत्र चर्चा थी, सम्पूर्ण भारत में असर बढा। फलस्वरूप स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपतराय, रामप्रसाद बिस्मिल, सरदार भगतसिंह आदि क्रान्तिकारियों का जन्म हुआ। इन क्रान्तिकारियों के क्रिया-कलापों से अंग्रेज सरकार की जड़ें हिल गयीं। अंग्रेज इनसे अत्यन्त भयभीत हो गए और उन्हें जमे हुए अंगद के पांव उखड़ते नजर आए।

    उस समय स्वामी दयानन्द के अकाट्‌य तर्कों तथा उनकी जादू भरी वाणी से मुन्शीराम जो कि अपने को बड़ा तार्किक मानते थे की वाणी ही न जाने कहॉं खो गयी । ऋषि का उन पर ऐसा जादू चला कि पंडित मुन्शीराम पहले स्वयं पावन और फिर पतित पावन बन गए और फिर देखते-देखते महात्मा से स्वामी श्रद्धानन्द बन गए। स्वामी दयानन्द सरस्वती से ही प्रेरणा प्राप्त कर मुन्शीराम जी ने गुरुकुल खोला और वहॉं पर प्राचीन आर्य शिक्षा प्रणाली पर आधारित शिक्षा देने लगे। इसी शिक्षा के साथ उन विद्यार्थियों में स्वतन्त्रता की भावना भी भरने लगे। स्वामी श्रद्धानन्द जी स्वयं स्वतन्त्रता हेतु कांग्रेस में सम्मिलित हो गए और इसके सक्रिय कार्यकर्ता बन गए।

    जलियॉंवाला बाग के निरीह निहत्थे, निरपराधियों के प्रमुख हत्यारे जनरल डायर के इस अमानवीयता पूर्ण नरसंहार रूपी दुष्कृत्य को देखकर कोई भी कांग्रेसी पंजाब में होने वाले अधिवेशन का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेकर यमराज को आमन्त्रण देना नहीं चाहता था। कांग्रेस का मनोबल पूर्णत: गिर चुका था। ऐसे समय में निर्भीक श्रद्धानन्द ने ही सम्मेलन की अध्यक्षता स्वीकार कर सबको आश्चर्य चकित ही नहीं कर दिया, अपितु अपने पौरुष का परिचय भी दिया था। यह बात अलग है कि मुस्लिमों को पूर्णत: सन्तुष्ट रखने का प्रयास करने वाली कांग्रेस पार्टी से उनका सम्बन्ध अधिक दिनों तक न बना रह सका, तथापि स्वामी जी ने जो अविस्मरणीय कार्य देश की स्वतन्त्रता हेतु किए वह स्वर्णाक्षरों में लेखनीय हैं। गुरुकुल से स्वतन्त्रता की घुट्‌टी पाने के उपरान्त शिक्षित दीक्षित स्नातकों ने स्वतन्त्रता प्राप्ति में अपना अमूल्य एवं अकथनीय योगदान दिया।

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    स्वामी दयानन्द सरस्वती के जीवन में एक नहीं अनेकों उदाहरण ऐसे मिलने हैं कि जिनमें स्वामी जी ने अंग्रेजों के राज्य का सर्वथा विरोध किया है। निर्भीक दयानन्द परमपिता परमात्मा के सिवा अन्य किसी से भय नहीं खाते थे। तभी तो एक अंग्रेज अधिकारी के यह कहने पर कि "आप अंग्रेजों के अखण्ड राज्य के लिए ईश्वर से प्रार्थना करें" स्वामी जी ने जिस निर्भीकता से प्रत्युत्तर दिया था, उसे सुनकर उस अधिकारी ने उन्हें विद्रोही फकीर की संज्ञा दी थी।

    स्वामी जी ने भूमिगत रहकर अनेक स्वतन्त्रता सेनानियों को जो कि सुप्रसिद्ध 1857 की असफल क्रान्ति के पश्चात अंग्रेजों के दमनचक्र से पूर्णत: हताश निराश हो चुके थे, को प्रोत्साहित कर मातृभूमि को मुक्त कराने की प्रेरणा दी थी। तत्कालीन राजवाड़ों में जाकर राजाओं को भी इस पुण्य कार्य में सहयोग देने की प्रेरणा की। जहॉं-जहॉं स्वामी जी गए वहॉं-वहॉं सुप्त प्राय: पराधीन देशवासियों में स्वतन्त्रता का अलख जगाया। परिणामस्वरूप चतुर्दिक्‌ से अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने की प्रतिक्रिया तीव्र हो गई। इधर सुराजप्रिय कांग्रेस पार्टी का उदय हुआ। पश्चात इसकी विचारधारा में परिवर्तन हुआ और यह स्वराज्य के लिए संघर्ष करने लगी।

    आज इतिहास इन सब तथ्यों को नहीं बताता। स्वतन्त्रता प्राप्ति में कांग्रेस का ही सर्वाधिक योगदान इतिहास में उद्‌धृत है और यही हमारे नौ-निहालों को पढाया भी जाता है कि यदि कांग्रेस, गान्धी और नेहरू न होते तो शायद स्वतन्त्रता कभी न मिलती। हमारा अभिप्राय यहॉं यह लेशमात्र भी नहीं है कि कांग्रेस, गान्धी और नेहरू का स्वतन्त्रता प्राप्ति में कुछ भी योगदान नहीं है। इनका भी बहुत योगदान है, परन्तु आज आर्य समाज का उल्लेख इतिहास के पृष्ठों में नगण्य है। "जो जाति अपने इतिहास को भुला देती है,वह पूर्णत: नष्ट होती है" अत: अपने इतिहास को कभी भी विस्मृत नहीं करना चाहिए। यही उन ज्ञात-अज्ञात मातृभूमि को स्वतन्त्र कराने वाले सेनानियों के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी। लेखक - ब्रह्मानन्द आजाद 
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    The Arya Samaj has played an invaluable and inexplicable contribution in making India independent under the British. Mr. Patababhisitaramaiya, who wrote the history of the Indian National Congress, has written in the history of the Congress that 80 percent of the Arya Samajis were the activists among the participants in the freedom movement. From this, it can be easily estimated that the Arya Samaj's struggle for independence, and how much the Arya Samaj was and is attached to indigenous, self-government, self-language and self-culture. Why not because Arya Samaj was also born for this reason.

     

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  • स्वस्थ जीवन के लिए उपयोगी बातें

    आदत बनाएँ- सुबह बिस्तर से उठने के बाद पालथी मारकर बैठें और 1-3 गिलास गुनगुना या ठण्डा पानी पिएं। दो-दो घण्टे के अन्तराल पर दिन में कम से कम 8 से 10 गिलास पानी पिएं।

    महत्वपूर्ण कारक- लम्बी सांस लें और कमर सदैव सीधी रखें। दिन में दो बार मल त्याग की आदत डालें। दिन में दो बार ठण्डे या गुनगुने पानी से स्नान करें। दिन में दो बार सुबह और शाम प्रार्थना एवं ध्यान करेंं।

    विश्राम- भोजन करने के बाद मूत्र त्याग करें और 5 से 15 मिनट तक वज्रासन की मुद्रा में बैठें।सख्त या मध्यम स्तर के बिस्तर पर सोएं और पतला तकिया लगाएं। सोते समय अपनी चिन्ताओं को भूल जाएं और अपने शरीर को ढीला छोड़ दें। पीठ के बल या दाहिनी और करवट लेकर सोने की आदत डालें। भोजन और सोने के बीच दो घण्टे का अन्तर रखें।

    Ved Katha Pravachan -14 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    व्यायाम- प्रतिदिन सुबह आधा घण्टे तक तेज सैर या जॉगिंग करें अथवा आसन-प्राणायाम/सूर्य नमस्कार करें अथवा बागवानी करें या कोई खेल खेलें अथवा तैराकी करें।

    भोजन- भोजन अच्छी तरह चबाकर धीरे-धीरे और शान्तिपूर्वक करें। अपनी भूख के मुताबिक भोजन करेंलेकिन अपना तीन-चौथाई पेट ही भरें। दिन में 7 घण्टे के अन्तर से केवल दो बार ही भोजन करें। सुबह नाश्ते में अंकुरित अन्न अथवा रात भर भिगोए हुए मेवे प्रयोग में लें।

    भोजन का एक भाग अनाज एवं एक भाग सब्जियों का रखें। पके हुए एवं कच्चे भोजन को साथ न मिलाएं। असंतृप्त वसायुक्त शुद्ध तेलों का ही प्रयोग करें और वह भी अल्प मात्रा में।

    कच्चे भोजन में अंकुरित अन्नताजी और पत्तेदार सब्जियॉंमौसम के फलसलादरसचटनीनींबूशहद का उपयोग करें। पके हुए भोजन में चोकर समेत आटाबिना पॉलिश किया चावल और दलिए का इस्तेमाल करें। उबले हुए भोजन का इस्तेमाल करें। उबले हुए भोजन और सूप को प्राथमिकता दें। भोजन करने के बाद 15-20 मिनट तक टहलें।

    कम करें- नमकमिठाइयॉंमसालेमिर्चआइस्क्रीमपकाया हुआ भोजनआलू और गिरीदार चीजें कम मात्रा में लें।

    ऊँची एडी के जूतेकठिन व्यायाम और टी.वी. एवं फिल्मों से बचें। धूम्रपानमदिरानशीली दवाएँसॉफ्टडिंरक्सतम्बाकूजर्दाचायकॉफी एवं बुरे व्यसनों से बचें।

    अभ्यास करें- दिन में एक बार नमक मिले गुनगुने पानी से गरारे कीजिए। अपनी आँखों को स्वस्थ व इनकी चमक बनाए रखने के लिए प्रतिदिन सुबह व शाम इन्हें त्रिफला के पानी से धो लीजिए।

    सप्ताह में एक बार वमनधौति (कुंजल/वमन) कीजिए। कब्ज होने पर एनिमा लीजिए। सप्ताह में एक बार मालिश और धूप स्नान लीजिए। प्रतिदिन तालू की हल्की मालिश कीजिए। प्रतिदिन दो बार माथे व आँखों पर पानी छींटिए और मुँह में पानी भरकर रखते हुए थूक दीजिए। प्रतिदिन थोड़ी देर तक हॅंसिए और गाना गाइए।

    सावधानी बरतें- काटने से पहले सब्जियों व फलों को अच्छी तरह धोइए। क्योंकि इन पर कीटनाशक और अन्य दूषित तत्व लगे होते हैं। जहॉं तक संभव हो सकेफलों व सब्जियों को छिलके समेत खाइए। टी.वी. देखते समय समुचित दूरी पर बैठिए। -रामचन्द्र वैष्णव

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    स्वस्थ जीवन चाहने वालों के लिए आवश्यक सन्देश

    1. प्रातः सूर्योदय से एक घण्टा पूर्व उठें। अच्छी तरह दॉंत और जीभ साफ करके एक या दो गिलास ताजा पानी पीयें और कुछ देर बाद शौच इत्यादि नित्य कर्मों से निवृत्त हों। आँखों पर शीतल जल छिटकें।

    2. किसी खुले और स्वच्छ स्थान पर जाकर व्यायाम करें। व्यायाम में टहलनादौड़नाभिन्न-भिन्न प्रकार की कसरत और योगाभ्यास इत्यादि सम्मिलित हैं।

    3. स्नान करने से पूर्व तेल की मालिश करलें तो अत्यधिक लाभ होगा।

    4. नित्य ठण्डे जल से खूब मल-मलकर स्नान करें।

    5. स्नान के पश्चात्‌ कुछ समय स्वाध्याय करें। जीवनोपयोगी उत्तम पुस्तकों या पत्र-पत्रिकाओं का पठन-पाठन करें।

    6. भोजन के साथ पानी पीएं। भोजन के आधा घण्टा पूर्व एक या दो घण्टे पश्चात्‌ पानी पीएं।

    7. भोजन प्रारम्भ करने से पूर्व अच्छी तरह हाथ-पैर धोएँ।

    8. भोजन नियत समय पर करें। बार-बार न खाएं। दो भोजनों के मध्य कम से कम पॉंच घण्टे का अन्तर होना चाहिए। प्रातः भोजन के पश्चात्‌ एक गिलास छाछ (मट्ठा) पीना स्वास्थ्यवर्द्धक है।

    9. भोजन बिना किसी तनाव के प्रसन्नता के साथ करें और अच्छा चबाकर करें।

    10. भोजन सादा और प्रामाणिक रूप से बनाया हुआ होजिसमें पोषक तत्व नष्ट न हुए हों।भोजन हल्का और पौष्टिक करें। यह सन्तुलित होना चाहिए। भोजन बढ़ती हुई अवस्था में कम मात्रा में करना चाहिये।

    11. भोजन के साथ फल और हरी तरकारियॉं प्रचुर मात्रा में खानी चाहिये।

    12. भोजन के साथ दहीअदरकनीम्बूटमाटर का सेवन किसी न किसी रूप से जुड़ा हुआ रखें।

    13.नित्य प्रतिदिन दाल या सब्जी में हींग का प्रयोग अवश्य करें।

    14.फलों का सलाद भोजन के साथ लें।

    15. भोजन के साथ नमक की मात्रा और गरम मसालों की मात्रा अधिक नहीं होना चाहिए।

    16. आंवलानीम्बूहरड़ का नित्य प्रतिदिन सेवन किसी न किसी रूप में अवश्य करें।

    17. भोजन के पश्चात्‌ अवश्य कुछ देर विश्राम करें और कोई भारी परिश्रम का कार्य न करें।

    18. अपने कार्य को नियत समय पर समाप्त करने का प्रयत्न करेंजिससे दूसरे कामों में गड़बड़ी न हो।

    19. दिन भर में इतना काम अवश्य करेंजिससे शाम को कुछ थकावट अनुभव होने लगे। इससे बड़ी मजेदार और मीठी नीन्द आयेगी। परिश्रम करने के पश्चात्‌ थककर सोनायोग-निद्रा के समान है।

    20. शाम का भोजन कुछ हल्का रखें और सोने से कम से कम तीन घण्टे पूर्व भोजन कर लिया करें। भोजन सूर्यास्त के पूर्व ही करना चाहिये।

    21. शाम को भोजन के बाद कुछ देर खुली हवा में अवश्य टहलें।

    22. वस्त्र अधिक कसे हुए न पहनें।

    23. इच्छा शक्ति के साथ अपना कार्य करें।

    24. विचारों को शुद्ध रखें। दिन में काफी हॅंसें और सदा प्रसन्न चित्त रहने का प्रयत्न करें।

    25. रात को सोने से पहले एक गिलास गर्म दूध पीएं और नौ से दस बजे तक सो जायें।

    26. रात को सोते समय हाथपैरमुँह धोना न भूलें।

    27. संयमहीन स्त्री-पुरुषों का जीवन अशान्त तथा गया-बीता समझें। डॉ. मनोहरदास अग्रावत

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    Food- chew food properly and slowly and calmly. Eat according to your hunger, but only fill three-fourths of your stomach. Eat only twice at a time of 7 hours. Use sprouted grains in breakfast in the morning or dry fruits soaked overnight.

     

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  • स्वाधीनता आन्दोलन और आर्य समाज

    आर्य समाज के प्रवर्तक, युगनिर्माता, वैदिक धर्म के पुनरुद्धारक, भारतीय संस्कृति के संवाहक, महर्षि दयानन्द सरस्वती का नाम राष्ट्र निर्माताओं में सदैव आदरपूर्वक लिया जाएगा। महर्षि दयानन्द ने आध्यात्मिक, धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में जागृति का शंखनाद तो फूंका ही था, उन्होंने देशवासियों को स्वराज्य के महत्त्व से भी अवगत कराया था। उस समय की राजनैतिक दासता की स्थिति से उनका हृदय विह्वल था। उन्होंने अपने महान ग्रंथ "सत्यार्थप्रकाश" के आठवें समुल्लास में लिखा है- "अब अभाग्योदय से और आर्यो के आलस्य, प्रमाद, परस्पर विरोध से अन्य देशों के राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनी, किन्तु आर्यावर्त्त में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ भी है सो भी विदेशियों से पादाकान्त हो रहा है। दुर्दिन जब आता है तब देशवासियों को अनेक प्रकार का दु:ख भोगना पड़ता है। कोई कितना ही करे, परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर के आग्रह रहित, माता-पिता के समान कृपा, न्याय औय दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है।

  • स्वामी दयानन्द एवं साम्यवाद

    ऋषि राज तेज तेरा चहुं ओर छा रहा है।
    तेरे बताए पथ पर संसार चल रहा है।।

    उपरोक्त पंक्तियों से ऋषि दयानन्द द्वारा मण्डित वैदिक सनातन धर्म की व्यापकता एवं लोगों के उसके अनुगमन पर प्रकाश पड़ता है। लेकिन अभी भी आशातीत रूप में सफलता हासिल नहीं हो सकी है। स्वामी जी का वैदिक धर्म के प्रति अटूट विश्वास, निष्ठा एवं धर्मानुचरण अनुकरणीय था। वैदिक धर्म के अनुशीलन एवं अनुकरण से ही मानव मात्र का कल्याण सम्भव है। स्वामी जी ने तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों एवं वेद की शिक्षाओं तथा आर्य संस्कृति पर पड़ रहे विजातियों के प्रभावों को बहुत ही नजदीक से समझा, परखा एवं आत्मसात्‌ किया था। यही कारण है कि उनकी शिक्षाएं आए दिन की अग्नि परीक्षाओं में कुन्दन-सी दमकती रही। उनके कटु सत्य से ढोल ढकोसला वाले लोग विचलित हो उठे। यद्यपि उनकी शिक्षाएं मानव मात्र के लिए थी, किसी सम्प्रदाय या धर्म विशेष के लिए नहीं थी।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    कोई राष्ट्र धर्म निरपेक्ष नहीं हो सकता -1

    Ved Katha Pravachan -5 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    जहॉं स्वामी जी की सत्य ज्ञान गंगा में बहुत लोगों ने अवगाहन किया और अपनी जीवन धारा को ही बदल डालावहीं कुछ ऐसे नासमझ लोग भी थे जिन लोगों ने न स्वामी जी को समझा और न वेद की शिक्षा को। फलस्वरूप लोग वेद से अलग हो गये। सदज्ञान से वंचित रह गए। जो चीज उनके ज्ञान की स्रोत थी उसी चीज से विरक्ति हो गई। जो उनके लिए अमृत लाया था वही उनको कुपथमार्गी दिखने लगा। कवि ने कहा-

    पिलाया जहर का प्याला इन्हीं नादान लोगों ने।
    जिनके लिए अमृत का प्याला ले के आये थे।

    इसका दुष्परिणाम यह निकला कि जिसे लोगों ने ज्ञान समझ रखा था वह अज्ञान साबित हुआ। जिस नींव पर अपने ज्ञान का महल खड़ा किया था वह महल ही धाराशायी हो गया। भौतिक जगत की चमक दमक मन को चैन एवं शान्ति प्रदान नहीं कर सकी। आज न चैन धनवान को हैन बलवान को है और न रूपवान को। धन वाले अलग दुखी हैंनिर्धन अलग। वेद विहित मार्ग पर नहीं चलने से चैन किसी को नहीं है और न था। अगर कहीं सुख दिखाई भी दिया तो वह क्षणिक था।  

    हर युग और समय की अपनी समस्याएं होती हैं। राम के सामने समस्या थी रावण पर विजय और कृष्ण के सामने पाण्डवों को राज्य प्राप्त करानेकी। स्वामी जी के सामने कुछ और ही समस्या थी। स्वामी जी के सामने तो एक रावण या एक कौरव कुल नहींहजारों रावण एवं हजारों कौरव कुल थे। उनकी समस्या थी वेदों का प्रचारछुआछूत का अन्तढोंग पाखण्ड का खण्डन एवं स्वराज्य प्राप्ति। लोगों में व्याप्त अनास्था को आस्था में बदलना कोई सरल काम नहीं था। यह समुद्र मन्थन से भी कठिन काम था। जिनके लिए उन्होंने अपना सर्वस्व होम किया वही उन्हें दुश्मन समझते थे।

    प्राच्य संस्कृति के धर्मअर्थकाम एवं मोक्ष के महत्व और गहनता से अनभिज्ञ कुछ पाश्चात्य विचारकों ने अर्थ को ही जीवन के सत्य के रूप में प्रतिष्ठित किया। मानव जीवन का चरम लक्ष्य अर्थ प्राप्ति ही माना जाने लगा। आर्थिक समानता के नाम पर नये ढंग से शोषण का सूत्रपात हुआ। साम्यवाद की शिक्षा कहती है कि पूंजीवादी समाज में पूंजीपतियों द्वारा मजदूरों का शोषण होता है। लेकिन उनकी व्यवस्था में सर्वहारा वर्ग के अधिनायकवाद में बहुसंख्यक द्वारा अल्पसंख्यक का शोषण होता है। इस चीज को नजर अन्दाज कर दिया गया। साम्यवादी समानता मात्र आर्थिक समानता तक ही सीमित लगती है।साथ ही मानवीय जीवन के अन्य आदर्श अछूते लगते हैं।

    वैदिक समानता का सिद्धान्त अपने आप में निराला है। सभी मानवों के लिए वेदों के ज्ञान ग्रहण की समानता उत्कृष्टतम व्यवस्था का प्रतीक है। साथ ही धनोपार्जन के लिये संयमित प्रयास की आवश्यकतासाधन की पवित्रता एवं साध्य की उत्कृष्टता सम्बन्धी वैदिक सन्देश व्यवस्था वह व्यवस्था है जिसमें गर्भाधान से लेकर मृत्यु पर्यन्त तक के मानवीय व्यवहार को व्यवस्थित करने का प्रावधान है। आचार शुद्धि के बाद ही आर्थिक समानता का वास्तविक लक्ष्य प्राप्त कर सकना सम्भव है।

    स्वामी जी के आदर्शों एवं पवित्र निर्देशों के अनुरूप अगर चला जाये तो निस्सन्देह वसुधैव कुटुम्बकम्‌ हो सकता है। लेकिन आज भौतिकवादी चकाचौंध में भूलकर मानव ने अपना स्वरूप ही खो दिया है। आये दिन हो रहे युद्धआतंक और विश्व में हुए व्यवस्था परिवर्तन नि:सन्देह आधुनिक युग में मानव सुख प्राप्ति के लिए हो रहे प्रयास की असफलता की कहानी है। काश !  आज का मानव पुन: एक बार ऋषि के त्याग एवं तपस्या के महत्व को समझ पाता। जिन मूल्यों के लिए उन्होंने अपना बलिदान कियाउन मूल्यों को मानव अपने जीवन का आदर्श बना पाता तो महर्षि का परिश्रम बहुत अंश में आर्थक होता।

    सुख चैन चाहते हो तो वेद को देखो।
    आनन्द चाहते हो तो दयानन्द को देखो।।-रामचन्द्र सिंह क्रान्तिकारी

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  • स्वामी विरजानन्द दण्डी -2

    आदर्श शिष्य द्वारा गुरु सेवा- गुरु-शिष्य सम्बन्ध का यहॉं उल्लेख करना आवश्यक है। दण्डी ऋषि सुष्टु स्वभाव के होते हुए भी वृद्धवस्था के कारण कुछ तीक्ष्ण और क्रोधी वृत्ति के थे। इसके विपरीत दयानन्द अत्यन्त विनम्र, अध्ययनशीन, आज्ञाकारी और गुरु चरणों में अविचल श्रद्धा रखने वाले थे। दण्डी जी शीघ्र ही यह भांप गये थे कि दयानन्द उनके अन्य शिष्यों की तुलना में विशिष्ट और कुछ असाधारण गुणों का पुंज है। दण्डी जी बारहों महीने यमुना नदी के मध्यवर्ती जलधारा से स्नान और उसी का पान करने के अभ्यासी थे। दण्डी जी की सेवा का यह व्रत दयानन्द ने स्वयं ही अपनी इच्छा से सहर्ष स्वीकार किया। लगभग 3 वर्ष तक के अपने शिक्षाकाल में दयानन्द प्रतिदिन भोर बेला में बिना सर्दी-गर्मी, बरसात, आन्धी की परवाह किए यमुना जल के लगभग 15 घड़ों से गुरु जी को स्नान कराते और उनके लिए पेय जल लाते।

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    Ved Katha Pravachan _71 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    गुरु जी का प्रकोप शिष्य द्वारा सेवा पूर्ववत्‌- दण्डी जी के निवास स्थान को दयानन्द प्रतिदिन झाडू देकर साफ करते थे। एक दिन कूड़ा उठाकर उन्होंने कमरे के एक कोने में रख दिया और उसे बाहर उठाकर ले जाने के लिए कुछ चीज खोजने लगे। इतने में गुरु जी टहलते हुए उधर आ निकले। उनका पांव कूड़े पर पड़ गया। अत्यन्त क्रोधावेश में आ गये और स्वामी दयानन्द पर लाठी का प्रहार कर दिया और कठोर वचन भी कहे। स्वामी जी ने गुरु के इस दण्ड को सहर्ष अंगीकार किया। यद्यपि इस मामले में वे दोषी नहीं थे। जिस समय गुरु जी शान्त हुए तो स्वामी दयानन्द ने उनके चरणों और शरीर को श्रद्धा से सहलाना शुरू कर दिया, यह कहते हुए कि "गुरुवर ! मैं तो युवा हूँ पर आप वृद्ध हैं। आपका दण्ड तो मेरे लिए अमृतवत्‌ है। मेरा शरीर कठोर है, पर आपके वृद्ध, जर्जरित अस्थिमात्र शरीर में पीड़ा हो गई होगी, इसलिए मैं मालिश से उसे दूर करता हूँ।" गुरु अपने शिष्य की इस सेवा भावना से गदगद्‌ हो गये। इसी का यह परिणाम था कि गुरु-शिष्य का कई घण्टों तक प्राय: एकान्त में वार्तालाप होता था। निश्चिय ही गुरु जी को यह दृढ विश्वास हो गया था कि दयानन्द शिष्य सामान्य व्यक्ति नहीं है, किन्तु भारत का एक अनोखा रत्न है।

    गुरु से विदाई : गुरु दक्षिणा- लगभग 3 वर्ष तक दण्डी जी के चरणों में अन्तेवासी के रूप में शिक्षा प्राप्त करने के बाद अब शिष्य दयानन्द की विदाई का समय आ गया। स्वामी दयानन्द की प्रबल इच्छा थी कि गुरु जी से प्राप्त शिक्षा को कार्यान्वित करने के लिये देशाटन करूं। पर खाली हाथ गुरु जी से विदा होना भारतीय परम्परा के विरुद्ध था। दयानन्द अत्यन्त विनम्रभाव से कुछ लौंग लेकर गुरुचरणों में उपस्थित हुए और बोले, "भगवन्‌! आपने विद्यादान कर मुझ पर जो उपकार किये हैं, उनसे मैं आजन्म उऋण नहीं हो सकता। पर अपनी हार्दिक श्रद्धा के प्रतीक ये कुछ लौंग आपके श्रीचरणों में समर्पित हैं।" दण्डी जी ने स्मितहास्य के साथ कहा, "वत्स! मैं पार्थिव वस्तु की यह दक्षिणा नहीं चाहता। मैं अन्य वस्तु तुम से मांगता हूं और वह तुम्हारे पास है। तुम्हें कहीं से लानी नहीं पड़ेगी।" दयानन्द ने निवेदन किया, "गुरुदेव! मैं पूर्ण रूप से आपके चरणों में समर्पित हूँ। आज जो आदेश करेंगे, मैं उसे आजीवन निभाऊगां।" गुरु ने कहा, "मैं तुमसे यही दक्षिणा मांगता हूँ कि तुम आजीवन आर्ष ग्रन्थों का प्रचार और अनार्ष ग्रन्थों का खण्डन करते हुए वैदिक धर्म की स्थापना हेतु अपना प्राण तक अगर न्यौछावर करना पड़े तो तुम संकोच नहीं करोगे।" ऋषि दयानन्द ने गुरुदेव के श्रीचरणों को स्पर्श करते हुए कहा, "आपका शिष्य आपके इस आदेश का प्राणपन से पालन करेगा।" गुरुदेव ने अपने स्नेहमय कर कमलों से दयानन्द के सिर पर हाथ फेरते हुए हार्दिक आर्शीवाद दिया। इस प्रकार गुरु-शिष्य का भौतिक सम्बन्ध तो समाप्त हुआ, पर आत्मिक सम्बन्ध आजीवन अटूट रहा।

    ऋषि दयानन्द ने अपने समस्त ग्रन्थों में अपने आपको "विरजानन्द दण्डी शिष्य" इन शब्दों से गौरवान्वित करते हुए अपने आचार्य वर की पुण्यस्मृति को दैदीप्यमान रखा।

    दण्डी जी का स्वर्गवास- दण्डी विरजानन्द का स्वर्गवास लगभग 82 वर्ष की आयु में सम्वत्‌ 1925 आश्विन वदी त्रयोदशी सोमवार (तद्‌नुसार 14 सितम्बर 1868) को हुआ। ऋषिवर दयानन्द ने इस दु:खद समाचार को सुन कर कहा "आज व्याकरण का सूर्य अस्त हो गया।"

    इस वीतराग संन्यासी की पुण्य स्मृति में आर्यसमाज की ओर से करतारपुर में "श्री विरजानन्द स्मारक भवन" स्थापित किया गया है। 14 सितम्बर 1970 को भारत सरकार द्वारा दण्डी जी की पुण्य स्मृति में डाक टिकट जारी किया गया। जब देश में दण्डी विरजानन्द जी जैसे गुरु और स्वामी दयानन्द जैसे शिष्य होंगे तभी देश का कल्याण होगा। - दीनानाथ सिद्धान्तालंकार

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