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आर्य समाज की स्थापना का महत्व

सन्‌ 1875 (संवत्‌ 1932 विक्रमी) में चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को आर्य समाज की स्थापना हुई थी। इतिहासकार इस घटना को उतना महत्व नहीं देते, जितना महत्व दिया जाना चाहिये। इसका मुख्य कारण यह है कि अधिकांश इतिहासकार घटनाओं को पाश्चात्य विद्वानों के दृष्टिकोण से देखने के आदी हो गए हैं। इसलिए वे हिन्दी प्रधान और राष्ट्रीयता प्रधान आन्दोलनों की प्राय: उपेक्षा कर देते हैं।

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सन्‌ 1857 की राज्य क्रान्ति के विफल कर दिये जाने के बाद देश में दो प्रकार की प्रतिक्रियायें हुई। शासकों ने तो उसके बाद अपना सारा जोर इस बात पर लगाया कि किसी तरह भारतवासियों को बौद्धिक और मानसिक दृष्टि से इतना गुलाम बना दिया जाये कि वे अंग्रेजों के राज को अपने लिए वरदान समझने लगें। दूसरी और राष्ट्र भक्त मनीषियों में राष्ट्र को समाज सुधार और राजनैतिक चैतन्य की दृष्टि से आगे बढाने के लिये अनेक छोटे-बड़े आन्दोलन किए। इन आन्दोलनों में ब्राह्म समाजप्रार्थना समाज और देव समाज मुख्य हैं। ये तीनों देश के बुद्धिजीवियों द्वारा संचालित सुधारवादी आन्दोलन थेपरन्तु इनका क्षेत्र बहुत सीमित था। ब्राह्म समाज देश के पूर्वी भाग तकप्रार्थना समाज देश के पश्चिमी भाग तक और देव समाज उत्तर भारत के बहुत थोड़े से भाग तक सीमित होकर रह गया। ये आन्दोलन न केवल स्थान की दृष्टि से सीमित थेपरन्तु अपनी विचारधारा और बुद्धिजीवियों के विशेष वर्गों से सम्बन्द्ध होने के कारण जन साधारण को प्रभावित करने में असमर्थ थे। ये आन्दोलन सामाजिक कुरीतियों के निवारण के लिये तो किसी हद तक सजग थेपरन्तु उनकी सजगता भी पश्चिमी विचारों से प्रभावित थी। इसीलिये वे भारतीय अस्मिता के सशक्त वाहन नहीं बन सके।

उक्त तीनों आन्दोलन आर्य समाज की स्थापना से पूर्व विद्यमान थे। एक सीमा तक यह स्वीकार किया जा सकता है कि आर्य समाज में समाज शब्द इन्हीं पूर्व आन्दोलनों की प्रेरणा का परिणाम है। उन्हीं वर्षों में ऋषि दयानन्द भी भारत की तात्कालिक दुर्दशा से मर्माहत होकर तीव्र मानसिक वेदना से गुजर रहे थे। उनके मन में कैसा अन्तर्द्वन्द्व रहा होगाइसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। जो व्यक्ति भरी जवानी की अवस्था में अहर्निश ज्ञान की खोज में देश के विभिन्न भू-भागों का परिभ्रमण करता रहता है और उसके इस परिभ्रमण से न सघन वन छूटते हैं न हिमाच्छादित पर्वत छूटते हैं और न ही सन्तप्त बीहड़ मरुस्थल छूटते हैंउस अवधूत संन्यासी की मानसिक बैचेनी की कल्पना तो करिये। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने इस अवधूत संन्यासी से भेंटने के पश्चात अपने हृदय का उद्‌गार इस रूप में प्रकट किया था-"इस अद्‌भुत व्यक्ति से भेटने पर लगा जैसे कि इसके हृदय में दिन-रात राष्ट्रप्रेम की ज्वाला धधकती रहती है।" यह उद्‌गार ऋषि की अन्तर्वेंदना की एक झॉंकी देने के लिये पर्याप्त है। सचमुच ही उस युग में इस अवधूत संन्यासी को छोड़कर कोई और ऐसा विद्वानमनीषी और समाज सुधारक दृष्टिगोचर नहीं होता जो सचमुच ही दिन रात राष्ट्र की दुर्दशा और परवशता से विक्षुब्ध हो और उसको स्वतन्त्र तथा उसके अतीत गौरव के अनुकूल उसे सर्वशिरोमणि देखने को लालायित हो।

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किसी लक्ष्य के लिये लालायित होना अलग बात है किन्तु उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये कोई रचनात्मक उपाय खोज पाना सहज नहीं। उस दुष्कर कार्य को सहज बनाने के लिये जो दृढ आधार चाहिये- शारीरिक भीबौद्धिक भी और मानसिक भी- वह उस युग के अन्य किसी नेता में दिखाई नहीं देता। ऋषि दयानन्द ने न केवल सकल देश का परिभ्रमण कियाअपितु जहॉं कहीं पता लगा कि अमुक विद्वानज्ञानी और योगी विद्यमान हैवहॉं उसकी सेवा में उपस्थित होकर विभिन्न शास्त्रों को अवगाहन किया और योग के विविध अंगों का अभ्यास भी किया। उस अद्‌भुत संन्यासी को इस प्रकार घूमते-घूमते देश की दुर्दशा का जो साक्षात्कार हुआउससे वह रचनात्मक उपाय की खोज के लिए और अधिक व्यग्र हो उठा।

ऊपर जिन आन्दोलनों की हमने चर्चा की है उन आन्दोलनों की वैचारिक दुर्बलताओं का भी ऋषि ने पर्यालोचन किया। अन्त में अपने समस्त अभियान के परिणाम-स्वरूप उसने आर्य समाज की स्थापना करके उसके माध्यम से अपना लक्ष्य प्राप्त करने का स्वरूप देखा। हमने अन्य आन्दोलनों में भारतीय अस्मिता के मूल तत्व के अभाव की बात कही है। ऋषि दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना के द्वारा जैसे भारत की उस अस्मिता का मूल मन्त्र खोज लिया।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि न केवल स्वराज्यप्रत्युत स्वदेशस्वधर्मस्वभाषास्वसंस्कृति और स्वसाहित्य की पहचान ही आर्य समाज की पहचान है। भारत जिस किसी माध्यम से अपने "स्व" को और अपने विशिष्ट व्यक्तित्व को व्यक्त कर सकेवही उसकी अस्मिता है। उस अस्मिता का मूल वह वैदिक विचारधारा है जो सृष्टि के आदि से किसी न किसी रूप में निरन्तर प्रवहमान है। ऋषि दयानन्द ने उस प्रवाह के उत्स के रूप में वेद को पहचाना और आर्य समाज रूपी भवन की दृढ आधार शिला उसी अक्षय ज्ञान विधि की शिला पर स्थापित की।

सन्‌ 1857 से लेकर सन्‌ 1885 तक का जो रिक्त स्थान है उसको सही रूप में यदि किसी ने भरने का प्रयत्न किया तो वे ऋषि दयानन्द थे। वह माध्यम ही आर्य समाज है। आर्य समाज का यह आन्दोलन किसी वर्ग-विशेषकिसी सम्प्रदाय विशेष और किसी स्थान विशेष से सम्बद्ध नहीं था। बल्कि यह सर्वथा असाम्प्रदायिक विशुद्ध राष्ट्रीय अखिल भारतीय मंच था जिसमें भारत के "स्व" की सही रूप में अभिव्यक्ति हुई था। आर्य समाज की स्थापना के दस वर्ष बाद सन्‌ 1885 में अखिल भारतीय कांग्रेस की स्थापना हुईपरन्तु इस कांग्रेस को अखिल भारतीय मंच बनने के लिए भी कम से कम 50 वर्ष तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। सन्‌ 1875 से लेकर सन्‌ 1920 तक भी अगर राष्ट्र की सामाजिकधार्मिकराजनैतिक और शैक्षणिक चेतना का कोई एक मात्र सशक्त आधार था तो वह केवल आर्यसमाज ही थाकांग्रेस नहीं। सन्‌ 1920 के पश्चात्‌ कांग्रेस ने बेशक अखिल भारतीय मंच का रूप धारण किया पर उसमें भी सबसे अधिक योगदान आर्य समाज का ही है। जो आर्य समाज पहले "स्वराज्य" के लिए प्रतिबद्ध थावही अब "सु-राज्य" के लिए प्रसिबद्ध है। वह लक्ष्य अभी तक अप्राप्त है। एक तरह से कहा जा सकता है कि स्वराज्य प्राप्ति के पश्चात्‌ कांग्रेस तो लक्ष्य भ्रष्ट हो गईइसलिये निरुपयोगी भी हो गई। परन्तु आर्यसमाज की चुनौतियां ज्यों की त्यों कायम हैं- जैसे परतन्त्र भारत मेंवैसे ही स्वतन्त्र भारत में भी।

हमारे बार-बार भारतीय अस्मिता की बात पर जोर देने से पाठक यह न समझें कि यह किसी संकुचित राष्ट्रवाद का प्रचार है। बल्कि भारतीय अस्मिता ही मानवीय अस्मिता की असली सन्देश वाहिका है। इसलिये "कृण्वन्तो विश्वमार्यम्‌" को चरितार्थ करने के लिये सबसे पहले इकाई के रूप में हमें भारत को ही परीक्षण-स्थली बनाना पड़ेगा। इस महान कार्य की पूर्ति की आशा सिवाय आर्य समाज के किसी अन्य संस्थात्मक आन्दोलन से नहीं की जा सकती।

इस सन्दर्भ को समझे बिना आर्य समाज की स्थापना के महत्व का मूल्यांकन भी नहीं किया जा सकता। पं. क्षितिश वेदालंकार

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To a extent it can be accepted that the term Samaj in Arya Samaj is the result of the inspiration of these earlier movements. In the same years, Rishi Dayanand was also undergoing intense mental anguish, marred by the immediate plight of India. What kind of inner feeling must have been in his mind, it can only be imagined.

 

 

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