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भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-11

लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

वेदोद्धारक दयानन्द- वेदों के सम्बन्ध में भ्रान्तियॉं महाभारत-काल से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व उत्पन्न होने लगीं थीं। किन्तु तत्कालीन ऋषियों की जागरूकता के कारण अभी उनका विस्तार नहीं हुआ था। तत्पश्चात्‌ भी कुछ समय तक भगवान्‌ वेदव्यास और उनकी शिष्य-परम्परा वैदिक ज्ञान को कुछ काल तक अपने स्वरूप में सुरक्षित रखने में प्रयत्नशील रही। जैमिनि वेदव्यास के साक्षात्‌ शिष्य थे। शायद इसी कारण स्वामी दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में अनेकत्र "ब्रह्मा से जैमिनि पर्यन्त" शब्दों का प्रयोग किया है। वैदिक वाड्‌मय के कतिपय महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ जो सम्प्रति उपलब्ध हैं, उसी काल के हैं। यह स्थिति जैसे-तैसे महाभारत-काल के सौ-दौ सौ वर्षों तक बनी रही। तत्पश्चात्‌ वैदिक युग तेजी से समाप्ति की ओर बढने लगा। परिणामत: मानवजाति शतश: मत-मतान्तरों में विभक्त होने लगी। सायणाचार्य से पूर्ववर्ती आचार्यो के वेदार्थ को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि यास्क आदि आप्त ऋषियों के वेदार्थ की परम्परा न्यूनाधिक रूप में उन आचार्यों तक बनी रही। मध्यकाल तक आते-आते वेदों का प्रयोजन द्रव्यमय यज्ञों के अनुष्ठान तक सीमित हो गया और इस प्रकार आर्ष परम्परा धीरे-धीरे ह्रासोन्मुख होकर लुप्तप्राय-सी हो गई।

जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
मानवता ही मनुष्य का धर्म
Ved Katha Pravachan -19 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


शताब्दियों तक वैदिक साहित्य याज्ञिक कीली के ईर्द-गिर्द घूमता रहा। सायण के काल तक ऐसी स्थिति हो गई कि आध्यात्मिक तत्त्वों का स्पष्ट निर्देश करनेवाले मन्त्रों को भी पकड़-पकड़कर बलात्‌ यज्ञप्रक्रिया में घसीटा जाने लगा। यहॉं तक कि शतपथ आदि वेद के व्याख्यान-ग्रन्थों तक में प्रक्षेप कर उन्हें दूषित करने की चेष्टा की जाने लगी। मांसभक्षण, मदिरापान, पशुबलि, गुप्तेन्द्रियपूजन आदि आसुरी दुष्प्रवृत्तियों का "ब्राह्मण" आदि ग्रन्थों में प्रक्षेप कर दिया गया और उन्हें भी "वेद" संज्ञा देकर अपनी मान्यताओं की वेद के नाम पर पुष्टि कर दी गई।

राजा कालस्य कारणम्‌- "शासन-व्यवस्था का प्रभाव छोटे-बड़े सभी पर पड़ता है।" सायण विजयनगरम्‌ राज्य के प्रधानमन्त्री थे। वह यज्ञप्रधान युग था और यज्ञों में पशुबलि अनिवार्य मानी जाती थी। उसी के आधार पर उसने वेदों का भाष्य किया। जब सायणाचार्य के मन में यह धारणा काम कर गई कि वेदा यज्ञार्थं प्रवृत्ता:, अर्थात्‌ वेदमन्त्र याज्ञिक प्रक्रिया का ही प्रतिपादन करते हैं तो यह स्वाभाविक था कि वह अपना समस्त बौद्धिक वैभव याज्ञिक प्रक्रिया में समर्पित कर बैठते। वेदार्थ की त्रिविध प्रक्रिया में याज्ञिक प्रक्रिया भी एक है। तद्‌नुसार भी मन्त्रार्थ किया जा सकता है, पर सायणाचार्य ने पूर्ववर्ती आचार्यों की परम्परा का सर्वथा परित्याग करके वेदमन्त्रों का केवल याज्ञिक प्रक्रिया-परक अर्थ ही किया। अथर्ववेद के नवम काण्ड का चतुर्थ सूक्त बड़े-बड़े चौबीस मन्त्रों का है। इसमें गोवंश की उन्नति और उसके कृषि में उपयोग से सम्बन्धित अनेक बातों का विशेषत: उत्तम कोटि के बछडे उत्पन्न करने का उल्लेख हुआ है, परन्तु सायण आदि ने वेद के इस सूक्त को बैल को मारकर उसके मांस से यज्ञ करने में लगाया है। सूक्त के चतुर्थ मन्त्र में बैल को पिता वत्सानां पतिरघ्न्यानाम्‌, उत्तम बछड़े-बछड़ियों का पिता और गौओं का पति बतलाते हुए, त्वष्टा रूपाणां जनिता पशूनाम्‌, सुन्दर-सुडौल सन्तान पैदा करनेवाला और आज्यं बिभर्ति घृतमस्य रेत:, घी-दूध के घड़े भरनेवाला कहा है। जब किसी के घर में उत्तम कोटि का बछड़ा उत्पन्न हो जाए तो उसे ग्राम या नगर की उत्तम गौओं से उत्तम सन्तान उत्पन्न करने के लिए सॉंड के रूप में राष्ट्र के निमित्त दान कर देना चाहिए। मन्त्र-गत "जुहोति" क्रिया की "हु" धातु का अर्थ दान भी होता है। प्रकरणश एव तु निर्वक्तव्या:, यास्क के इस निर्देश के अनुसार, "प्रकरण के अनुकूल ही निर्वचन होने चाहिएँ।" कृषि के प्रसङ्ग में "हु" धातु का "दान" अर्थ ही संगत होगा। काटकर होम किये हुए बैल से न खेती होगी और न उसके द्वारा घी-दूध प्राप्त होगा, पर कर्मकाण्ड की भंवर में फॅंसे होने के कारण वेदार्थ-विषयक मूलभूत सिद्धान्तों की अवहेलना करके पूर्वापर प्रसङ्ग पर विचार किये बिना, यहॉं तक कि गौ के "अघ्न्या" नाम की चिन्ता किये बिना सायण ने होमपरक अर्थ करके बैल के विभिन्न अंगों को काट-काटकर आग में झोंकने का विधान कर डाला।

सन्तप्त हृदयों की आन्तरिक ज्वाला को शान्त कर आत्म समर्पण द्वारा प्रभु प्रेम में असीम आस्था का अनूठा दृश्य उपस्थित करनेवाला ऋग्वेद का एक अत्यन्त हृदयग्राही मन्त्र है, यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि। तवेत्तत्‌ सत्यमङ्गिर:। (1.1.6) हे प्रियतम देव ! शरणागत का कल्याण करना तुम्हारा नियम है। मन्त्र के इस भावनापूर्ण अर्थ का दर्शन न करके सायण यजमान के लिए "वित्त-गृह-प्रजा-पशुरूपं कल्याणम्‌" की प्रार्थना करते हैं और वह भी परमेश्वर से नहीं जड़ भौतिक अग्नि से। वस्तुत: यज्ञपरक उपर्युक्त मिथ्या धारणा के पूर्वाग्रह ने सायण को वेदमन्त्रों में निहित अर्थ तक पहुँचने ही नहीं दिया।

इसमें सन्देह नहीं कि सायण ने अपने समय में वैदिक साहित्य में महान्‌ श्रम किया। वेदों, ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यकों और उपनिषदों पर भाष्य लिखे। अन्य अनेक विषयों पर भी बहुत से प्रौढ ग्रन्थ लिखे या लिखवाये। उनके वेदभाष्य में व्याकरण आदि का प्रयोग पर्याप्त मात्रा में हुआ है। सायण के इस प्रयास के लिए हम उन्हें साधुवाद दिये बिना नहीं रह सकते, परन्तु मूल धारणा के भ्रान्त होने के कारण उन्होंने स्वयं ही अपने किये-कराये पर पानी फेर दिया। महीधर आदि का भाष्य तो पूरी तरह वाममार्ग के रंग में रंगा है। इन भाष्यों को पढने के बाद कौन कणाद के बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे, वैशेषिक दर्शन 6.1.1 या मनु के सर्वज्ञानमयो हि स:, सर्वं वेदात्‌ प्रसिध्यति और प्रमाणं परमं श्रुति:, इत्यादि वचनों पर विश्वास कर सकता है? इन सबने मिलकर वेद के प्रति श्रद्धा के मार्ग में पथरीली चट्‌टानें खड़ी कर दीं। वेदार्थ के विषय में भ्रान्ति पैदा करके संसार को वेद से विमुख करने में सबसे बड़ा हाथ सायण का है। सायण का नाम बार-बार इसलिए आता है कि वेदों और ब्राह्मण ग्रन्थों पर सबसे अधिक भाष्य उन्हं के हैं और उन्हीं के आधार पर आगे लोगों ने अन्यान्य भाषाओं में अनुवाद आदि कार्य किया।

क्या वेदों में वही कुछ है जो सायण, महीधर आदि ने बताया है? यदि इसका उत्तर "हॉं" में है तो महात्मा बुद्ध के स्वर-में-स्वर मिलाकर हम भी यही कहने को विवश होंगे कि ऐसे वेदों से दूर ही भले, हम ऐसे वेदों को नहीं मानते और यदि वे ईश्वरप्रदत्त हैं तो हम ऐसे ईश्वर को नहीं मानते। इन तथाकथित वेदाचार्यों द्वारा किये गये वेदभाष्यों के आधार पर होनेवाले कुकृत्यों को देखकर चारवाक चिल्ला पड़े, त्रयो वेदस्य कर्त्तारो, धूर्त्तभण्डनिशाचरा:। वेदों के नाम पर प्रसारित अधर्ममूलक दुष्प्रवृत्तियों से जनसाधारण में जो प्रतिक्रिया हुई उसी के फलस्वरुप चारवाक, जैन और बौद्ध मतों का प्रादुर्भाव हुआ। चारवाकों ने ईश्वर और वेदों के परित्याग के साथ-साथ आत्मा की सत्ता को भी नकार दिया। वेदों के नाम पर ब्राह्मणों द्वारा यज्ञों में मूक प्राणियों की हिंसा से दयार्द्र महावीर और बुद्ध ने परम धर्म के नाम पर अहिंसा को प्रतिष्ठित किया। वेद के नाम पर होने वाली हिंसा, पाखण्ड, जन्मना वर्ण-व्यवस्था को या ऊँच-नीच, मृतक श्राद्ध, स्त्रियों और शूद्रों पर होनेवाले अमानुषिक अत्याचार आदि को सहन न कर सकने के कारण चारवाकों, जैनों और बौद्धों ने वेदों पर भीषण प्रहार किये। साधारण जनता वेदानुयायी-ब्राह्मणों के कदाचारों से तंग आ चुकी थी। अत: महावीर और बुद्ध के उपदेशों से प्रभावित होकर वह जैन और बौद्ध मतों में दीक्षित होने लगी। वेदों से घृणा हो जाने के कारण वैदिक धर्म विलुप्त होने लगा।

arya samaj dayanand saraswati

ऐसी अवस्था में कुमारिल भट्‌ट और शंकराचार्य ने वेदों को पुन: प्रतिष्ठित करने का बीड़ा उठाया। किंवदन्ती प्रसिद्ध है कि बौद्ध मतानुयायियों द्वारा वेदों पर किये गये भीषण प्रहारों से त्रस्त कोई वेदानुयायी राजकुमारी अपने महल पर खड़ी आँसू बहा रही थी। महल के नीचे से जा रहे कुमारिल भट्‌ट के ऊपर गरम-गरम आँसुओं की बूदें पड़ीं तो उन्होंने सिर उठाकर ऊपर की ओर देखा और राजकुमारी से उसके रोदन का कारण पूछा। राजकुमारी बोली, किं करोमि क्व गच्छामि? को वेदानुद्धरिष्यति? इस करुणक्रन्दन को सुनकर राजकुमारी को ढाढस बॅंधाते हुए कुमारिल ने उच्च स्वर से कहा, मा बिभेषी वरारोहे! भट्टाचार्योस्ति भूतले, हे देवि ! रो मत। वेद के उद्धार के लिए इस धरती पर भट्टाचार्य विद्यमान है। परन्तु कुमारिल यज्ञिय कर्मकाण्ड की प्रतिपादक शाखाओं और ब्राह्मण ग्रन्थों में ही उलझकर रह गये। मूल संहिताओं का उन्होंने स्पर्श तक नहीं किया।

शंकराचार्य वेद आदि शास्त्रों में निष्णात थे। उनकी तर्कशक्ति बड़ी प्रबल थी। उन्होंने अकेेले ही वेदविरोधी चारवाकों, जैनों और बौद्धों से लोहा लिया। बड़े-बड़े शास्त्रार्थ हुए। वे शंकर के प्रचण्ड तर्कों का सामना न कर सके। धीरे-धीरे इन मतों का वर्चस्व मन्द पड़ गया। शंकराचार्य के काल तक वैदिक शाखाओं, ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यकों और उपनिषदों की भी "वेद" संज्ञा प्रचलित हो चली थी। अध्यात्मप्रवण शंकर ने "वेदान्त" नाम से अध्यात्मप्रधान उपनिषदों पर अपने अद्वैत मत को स्थापित किया। इस मत का आधारभूत सिद्धान्त है, ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या। "जगमिथ्या" का आधार है शंकराचार्य के दादागुरु गौड़पादाचार्य द्वारा प्रतिपादित वह सिद्धान्त कि आदावन्ते च यन्नास्ति, वर्तमानेऽपि तत्तथा, अर्थात्‌ "यह जगत्‌ उत्पत्ति से पहले नहीं था और प्रलय होने पर नहीं रहेगा, इसलिए इस समय भी नहीं है।" मूल संहिताओं का स्पर्श शंकर ने भी नहीं किया। उनके सम्पूर्ण साहित्य में वेद के कहीं दर्शन नहीं होते। वैदिक संहिताओं की उपेक्षा उन्होंने इसलिए की क्योंकि उनके काल तक वेद केवल अपरा-विद्या के ग्रन्थ माने जाने लगे थो। वेदों का प्रयोजन केवल कर्मकाण्ड तक सीमित था। परा-विद्या अथवा ज्ञानकाण्ड के ग्रन्थों के रुप में उपनिषदों की मान्यता थी। प्रस्थान-त्रयी के जिन वचनों में द्वैतवाद का स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है, उनका भी शंकराचार्य ने अद्वैतपरक व्याख्यान किया है।

सर्वं खल्विदं ब्रह्म (छान्दोग्य) का नारा लगानेवाले शंकर को शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:, (श्रीमद्‌भगवद्‌गीता) के अनुसार मनुष्यमात्र को ही नहीं प्राणिमात्र को आत्मवत्‌ समझना चाहिए था, परन्तु वेदान्तदर्शन के "अपशूद्राधिकरण" में मात्र वेद को सुनने के तथाकथित अपराधी शूद्र के कानों में गरम-गरम सीसा या लाख उँडलने का निर्देश करके "प्रश्नोत्तरी" में नारी को नरक का द्वार बतलाकर और काशी में सामने से आ रही शूद्रा को परे हटने का आदेश देकर अपने मनस्यन्यद्‌ वचस्यन्यत्‌ कर्मण्यन्यत्‌ का उदाहरण उपस्थित कर "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" के याथार्थ्य का भाण्ड़ा फोड़ दिया। डॉ. राधाकृष्णन्‌ द्वारा वेदान्तदर्शन का अंग्रेजी में किया गया भाष्य शंकराचार्य के भाष्य का अंग्रेजी में अनुवाद मात्र है, सर्वथा उसके अनुकूल है, परन्तु 1.3.38 श्रवणाध्ययनार्थप्रतिरोधात्‌ स्मृतेश्च के अपने भाष्य में वे शंकर से अपना मतभेद प्रकट किये बिना न रह सके। वहीं उन्होंने लिखा हैं-

‘But the restricitons imposed with regard to Vedic study cannot be defended. If we take our stand on the potential divinity of all human beings, whatever be their caste or class. race or religion, sex or occupation, the methods for gaining release should be open to all.’  

अर्थात्‌ "वेदाध्ययन पर लगाये गये प्रतिबन्धों की वकालत असम्भव है। यदि हम अपना पक्ष सब मनुष्यों की निहित दिव्यता पर आधारित करते हैं, भले ही उनकी जाति या श्रेणी नस्ल या धर्म, लिङ्ग या धन्धा कुछ भी हो, तो मोक्षप्राप्ति के उपाय सबके लिए अगोप्य होने चाहिएँ।" परन्तु शंकर ने कलम की एक नोक से मानवसमाज के तीन चौथाई भाग (स्त्री-रूप आधा+शूद्र-रूप अन्य अर्द्ध) को वेदाध्ययन से वञ्चित कर दिया और रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, वल्लभाचार्य, निम्बार्काचार्य आदि सभी आचार्यों ने उनका आँख मून्दकर समर्थन कर दिया। यह कैसा वेदोद्धार था और कैसा अद्वैतवाद? वस्तुत: यह सब इन आचार्यों की वेदार्थ सम्बन्धी भ्रान्तियों से उत्पन्न अवैदिक विचारधारा का परिणाम था।

अहं ब्रह्मास्मि के मिथ्या भूत के कारण शंकर के लिए वेद गौण हो गये और वेदान्त मुख्य। यही कारण है कि उनके ग्रन्थों में ढूँढने पर भी वेदमन्त्र नहीं मिलते। मनु के अनुसार श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेय:, "श्रुति से वेदों (मन्त्रसंहिताओं) का ही ग्रहण होता है", परन्तु शंकर "श्रुति" नाम से ब्राह्मण, उपनिषद्‌, स्मृति आदि को उद्धृत करते हैं। ऐसा लगता है कि शंकर ने केवल वेदविरोधी मतों का खण्डन करने के लिए ही  अद्वैत मत को अपनाया था। इसमें उन्हें सफलता भी मिली। यदि ऐसा न होता तो अपने से भी पहले वेदमत की प्रतिष्ठार्थ प्रयास करनेवाले, किन्तु द्वैतवादी कुमारिल भट्‌ट से शास्त्रार्थ करने प्रयाग न पहुँच जाते।

इस प्रकार वेदमत के उद्धार के लिए कृतसंकल्प शंकर उपनिषदों से आगे नहीं बढे। ऐसी अवस्था में मनु आदि द्वारा वेद के लिए कहे गये सर्वज्ञानमयो हि स:, सर्वं वेदात्‌ प्रसिध्यति और नि:सृतं सर्व शास्त्रं तु वेदशास्त्रात्‌ सनातनात्‌, इत्यादि कथन जो वेद को सब विद्याओं का आकर ग्रन्थ बताते हैं, निरर्थक हो गये। वस्तुत: कमारिल और शंकर ने अपने वेदोद्धार के कार्य के निमित्त तेभ्य एतं तर्कमृषिं प्रायच्छन्मन्त्रार्थचिन्ताभ्यूहमभ्यूढम्‌, (निरुक्त 13.12) के "मन्त्रार्थ के सत्यमार्गदर्शक, ऋषिभूत तर्क" का आश्रय नहीं लिया। ऐसा न कर पाने के कारण वे वेदों को मनुष्य के लिए अपेक्षित सम्पूर्ण ज्ञान के भण्डार के रूप में प्रस्तुत न कर सके। पॉंच सहस्त्र वर्षों के पश्चात्‌ प्रज्ञाचक्षु गुरु विरजानन्द की प्रेरणा से प्राप्त इस दिव्यास्त्र का प्रयोग करके संसार में व्याप्त अविद्यान्धकार को दूर करने का श्रेय महर्षि दयानन्द को मिला।

वेदोद्धार का जो महत्तम कार्य महर्षि स्वामी दयानन्द ने किया वह पूर्वकाल के कुमारिल और शंकर के काम से कहीं अधिक क्लिष्ट और दुरूह था। इन दोनों आचार्यों ने जिन चारवाक, जैन और बौद्ध मतों का खण्डन किया वे मूलत: वैदिक और भारतीय थे। स्वामी दयानन्द के काल में पूर्वोक्त अवैदिक मतों के अतिरिक्त कुकुरमुत्तों की भॉंति अनेक मत-मतान्तर उत्पन्न हो गये थे जो अपने को वैदिक मतानुयायी कहते हुए भी वास्तव में अवैदिक थे। स्वयं शंकराचार्य द्वारा प्रवर्तित अद्वैतवाद भी उन्हीं में से एक था। अवतारवाद, बहुदेवतावाद, मूर्तिपूजा, जन्मगत ऊँच-नीच आदि अनेकविध अवैदिक मान्यताअें से ग्रस्त समाज बड़ी तेजी से पतन की ओर बढ रहा था। जिस सच्चिदानन्दस्वरूप ब्रह्म की राम और कृष्ण उपासना करते थे, उसे छोड़कर उसके उपासक स्वयं राम और कृष्ण को उपास्य मानकर उन्हें वस्त्राभूषणों से सुसज्जित कर उन्हीं की धूप और नैवेद्य आदि से पूजा करने लग गये थे। श्रीमद्भगवद्‌गीता ने कहा था, ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन! तिष्ठति। (17.61) परन्तु भक्तजनों ने उन्हें अपने हृदय-मन्दिरों से निकालकर गली-कूचों में बने ईंट-पत्थरों के मन्दिरों में कैद कर दिया था। "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" की मनमानी व्याख्या करके ईश्वर के नाम पर निरीह पशुओं और कभी-कभी मानव-शिशुओं की बलि देकर तथाकथित भक्तजन खुशी में पागल होकर नाचते-कूदते थे। गुण-कर्म-स्वभाव पर आश्रित वर्णव्यवस्था का स्थान जन्ममूलक दूषित जातिप्रथा ने ले लिया था। दुधमुँहे बच्चों के विवाह कर दिये जाते थे। परिणामत: लाखों बाल-विधवाएँ अभिशप्त जीवन व्यतीत करने को विवश थीं। पुरोहित-वर्ग पति की मृत्यु पर पत्नी को स्वर्ग-प्राप्ति का प्रलोभन देकर अथवा सामाजिक दण्ड और अत्याचार का भय दिखाकर सती के नाम पर उसे जीवित ही आग में झोंक देता था। ब्राह्मणवर्ग तरह-तरह के पाखण्ड रचकर जनता को लूटता था। रोगों को भूत-प्रेत की लीला बताकर जहॉं एक ओर अपनी जेबें गरम की जाती थी वहॉं दूसरी ओर रोगी को समुचित चिकित्सा से वंचित कर मौत के मुँह में धकेल दिया जाता था। तीर्थस्थान व्यभिचार के अड्डे बने हुए थे। "स्त्रीशूद्रौ नाधीयाताम्‌" का मिथ्या प्रचार करके देश की आधी से अधिक आबादी को शिक्षा से वंचित कर दिया गया था। इस प्रकार भारत अनपढ, गॅंवारों का देश बनकर रह गया था और यह सब वेदों के नाम पर हो रहा था।

founder of arya samaj

उक्त भारतीय मत-मतान्तरों और अवैदिक मान्यताओं के पोषक पौराणिक वेदभाष्यों के अतिरिक्त मैक्समूलर आदि पाश्चात्य विद्वान्‌ जान-बूझकर वेदों को विकृ त रूप में प्रस्तुत करने के लिए कटिबद्ध थे। जैसे हम वेदों को कण्ठस्थ करनेवाले दाक्षिणात्य ब्राह्मणों के ऋणी हैं, वैसे ही पाश्चात्य विद्वानों के भी ऋणी हैं। भारतीय ब्राह्मणों ने यदि वेदों को नष्ट होने से बचाया तो पाश्चात्य विद्वानों ने वेदों को भारत में ही सीमित न रहने देकर उन्हें विश्व की सम्पत्ति बनाया। यूरोपीय विद्वानों के प्रयत्न से वेद सारे संसार में चर्चित होने लगे, किन्तु जैसे सायण आदि का दृष्टिकोण यज्ञपरक था और उनके अनुसार हर मन्त्र का लक्ष्य यज्ञ की किसी क्रिया को सामने रखकर मन्त्र का नियोजन करना था, वैसे ही पाश्चात्य विद्वानों का लक्ष्य वेदभाष्य करते समय ईसाई मतावलम्बी विदेशी सरकार के हितों को ध्यान में रखते हुए उन पर विकासवादी दृष्टिकोण से विचार करना था। मैक्समूलर के भाष्य पर सायण और डार्विन दोनों छाए हुए हैं और उसके भीतर मैकाले की आत्मा विद्यमान है मैक्समूलर ने विकासवाद को सामने रखकर सायण आदि के भाष्यों का अंग्रेजी में रूपान्तर किया। वस्तुत: पाश्चात्य भाष्यकारों की विचारधारा का आधारभूत सिद्धान्त विकासवाद का विचार है। उनके लिए विकासवाद का सिद्धान्त पहले था। उसके बाद जो कुछ आया उसे विकासवाद की कसौटी पर घटाकर देखा गया। विकासवाद की कसौटी पर परखकर ही ये लोग किसी बात को सही या गलत होने का निश्चय करते हैं। मैक्समूलर ने बहुदेवतावाद (पॉलीथीज्म) और एकेश्वरवाद (मोनोथीज्म) के मुकाबले में "हीनोथीज्म" नाम से एक नये मत की कल्पना सिर्फ इसलिए की क्योंकि वह विकासवाद के सिद्धान्त के विपरीत, यह मानने के लिए तैयार नहीं था कि एकेश्वरवाद-जैसा उत्कृष्ट विचार मानव-संस्कृति के प्रारम्भिक काल में किसी मनुष्य के विचार में आ सकता था। जब एकेश्वरवार के विचार की पुष्टि में वेद से "एकं सद्‌ विप्रा बहुधा वदन्ति" वाक्य को उद्‌धृत किया जाता है तो कहते हैं कि यह बहुत बाद का विचार (ऑफ्टर थाट) है। मैक्समूलर के प्रमुख शिष्य मैकडानल ने अपनी पुस्तक "ए वैदिक ग्रामर फॉर स्टूडेण्ट्‌स"  में लिख दिया कि ऋग्वेद के 10 मण्डलों में से 8 मण्डल पहले लिखे गये, तत्पश्चात्‌ नवॉं और अन्त में दसवॉं। उनके कहने का अभिप्राय यह है कि पहले आठ और अगले दो (जिनमें एकेश्वरवाद का प्रतिपादन किया है) मण्डलों के लिखे जाने का समय भिन्न है। जब उन्हें यह बतलाया जाता है कि "एकं सद्‌ विप्रा बहुधा वदन्ति" तो पहले मण्डल में ही आया है, तो वे कहते हैं कि वहॉं यह प्रक्षिप्त है। परन्तु यह वाक्य तो वेद का अभिन्न अंग है जो भिन्न-भिन्न शब्दों में यत्र-तत्र-सर्वत्र ओत-प्रोत है। फिर इसे प्रक्षिप्त या बाद में डाला हुआ कैसे कहा जा सकता है? यह शीर्षासन केवल इसलिए किया जाता है, क्योंकि उनकी विकासवादी विचारधारा में यह फिट नहीं बैठता। इस विषय में योगी अरविन्द ने लिखा है-

“We are aware how modern scholars twist away from the evidence. This hymn (Rg. 1.164.46), they say, was a later production; this loftier idea, which it expresses with so clear a force, rose up somehow in the mind or was borrowed by those ignorant fire-worshippers from their cultured and philosophic Dravidian enemies. But throughtout the Veda we have a large number of conformatory hymns and expressions..... Why should not the foundation of Vedic thought be natural monotheism, rather than this new fangled monstrocity of henothism? Well, because primitive barbarians could not possibly have so risen, you imperil our theory of evolutionary stages of human developmet. Truth must hide itself, common sense disappear from the field so that your theory may flourish. I ask in this point and it is the fundamental point, who deals most forwardly with the text, Dayanand or the Western Schoolars?

इस उद्धरण का अभिप्राय यह है कि यदि "एकं सद्‌ विप्रा बहुधा वदन्ति" से विकासवाद खण्डित होता है तो पाश्चात्य विद्वानों को इसके लिए तैयार रहना चाहिए। सबसे बड़ी बात तो यह है कि अपने अर्थ को स्पष्ट करने के लिए वेद की अन्त: साक्षी प्रमाण होगी या मैक्समूलर, कीथ, ग्रिफिथ आदि जो कहेंगे वह प्रमाण होगा? वेदों का अर्थ यदि वेदों से ही स्पष्ट होता हो तो उस प्रक्रिया का सर्वोच्च स्थान होना चाहिए। परन्तु यदि वेदों का स्वत:-प्रसूत अर्थ विकासवाद को पुष्ट नहीं करता तो पाश्चात्य विद्वान्‌ अर्थों को तोड-मरोडकर अपने अनुकूल बनाने की चेष्टा करते हैं। अरविन्द के अनुसार दयानन्द ऐसा नहीं करते।

यद्यपि पाश्चात्य विद्वानों ने वेदों पर पर्याप्त कार्य किया तो भी वे उनमें निहित ज्ञान की थाह न पा सके। सच्चाई तक पहुँचने में विकासवाद के अतिरिक्त उनका पूर्वाग्रह और स्वार्थ आड़े आया। यूरोपियन समाज भारत में ब्रिटिश सााम्राज्य को स्थायित्व प्रदान करने के लिए भारतीयों को ईसाइयत के सॉंचे  में ढालने के उद्‌देश्य से इस देश के साहित्य और इतिहास को विकृत करने में प्राणपण से जुटा हुआ था। इसीलिए उन्होंने वेदों का ऐसा भाष्य किया जिसे पढने के बाद इस देश के लोग अपनी सांस्कृतिक विचारधारा को घृणा की दृष्टि से देखने लगे। इस अभियान का आरम्भ मैकाले के क्रीतदास मैक्समूलर ने किया। स्वयं मैक्समूलर ने अपने पत्नी के नाम लिखे पत्र में इस तथ्य को स्वीकार किया-

“This edition on mine and the translation of the Veda will, hereafter, tell to a great extent on the fate of India. It is the root of their religion and to show them what the root is. I feel sure, it is the only way of uprooting all that has sprung the last three thousand years.” (Life and Letters of Frederick Max Muller, Vol. I, Ch. XV, P.34)

अर्थात्‌, मेरा यह भाष्य भारत के भाग्य को दूर तक प्रभावित करेगा। यह वेद उनके धर्म का मूल है और उन्हें यह दिखा देना कि उनका मूल कैसा है, उनकी गत तीन हजार वर्षों की उपलब्धि को समूल नष्ट कर देगा।

इसका क्या परिणाम हुआ, यह भारत-सचिव के नाम 16 दिसम्बर 1868 को लिखे मैक्समूलर के निम्न पत्र से स्पष्ट हो जाता है-

“The ancient religion of India is doomed. Now if Christinity does not step in whose fault will it be?” -Ibid, Ch. XVI, P. 378

अर्थात्‌ "भारत का प्राचीन धर्म नष्टप्राय है। अब यदि ईसाइयत उसका स्थान नहीं लेती तो यह किसका दोष होगा?

मैक्समूलर के प्रयासों की सराहना करते हुए उसके घनिष्ठ मित्र ई. बी. पुसे ने अपने एक पत्र में लिखा-

‘Your work will mark a new era in the efforts for the conversion of India.’
अर्थात्‌ आपका कार्य भारतीयों को ईसाई बनाने की दिशा में नवयुग लानेवाला होगा।

भारत को "यावच्चन्द्रदिवाकरौ"दासता की बेड़ियों में जकड़े रखने के लिए बोर्ड ऑफ एजुकेशन के अध्यक्ष लार्ड मैकाले द्वारा निर्धारित शिक्षा-नीति के अनुसार खोले गये स्कूलों और कॉलेजों के लिए जो पाठ्‌यक्रम नियत किया गया वह "मेड इन इंग्लैंड एण्ड फॉर इंगलैंड" था। उसका एकमात्र प्रयोजन पाश्चात्य विचारवाले ऐसे व्यक्ति तैयार करना था जो तन से भले ही काले हों, पर मन से गोरे अर्थात्‌ अंग्रेज बन जाएँ। उस शिक्षा पद्धति के सॉंचे में ढलकर जो भी निकले, डॉ. राधाकृष्णन के शब्दों में "दे वर मोर इंग्लिश दैन द इंग्लिश दैमसैल्व्ज्‌" (इंडियन फिलासफी, वाल्यूम II )। इस शिक्षा-नीति के फलस्वरूप लोकमान्य तिलक जैसे महान्‌ देशभक्त भी वेदों के आधार पर अपने को इस देश में विदेशी मान बैठे, और जब उनसे पूछा गया कि वेदों में यह कहॉं लिखा है तो भेंटकर्त्ता उमेशचन्द्र विद्यारत्न से उन्होंने सहजभाव से कह दिया, "आमि मूल वेद अध्ययन करि नाई, आमि साहिब अनुवाद पाठ करिये छे"। -मानवेर आदि जन्मभूमि पृष्ठ 124 

ऐसे समय में सन्‌ 1824 में स्वामी दयानन्द का प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने बड़ी सूक्ष्मता से इस देश की समस्याओं पर विचार किया। उन्होंने समझ लिया कि रोगी वृक्ष के पत्तों को सींचने से वृक्ष नहीं पनप सकता। उसकी जड़ों में रोगनाशक दवाइयों का प्रयोग कर अपेक्षित खाद-पानी देने से ही वह फलीभूत होगा। विचार के पश्चात्‌ वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इस देश, जाति और समाज की दुर्दशा का मूलकारण वेदविद्या के प्रचार के अभाव में देश में व्याप्त अविद्यान्धकार है। इसलिए जब तक वेदों का उद्धार करके उनको अपने वास्तविक रूप में प्रस्तुत नहीं किया जाएगा तब तक अविद्यान्धकार दूर नहीं होगा। वेदों को पुन: प्रतिष्ठित करने के लिए दयानन्द को भारतीय अवैदिक मत-मतान्तरों के अनुयायियों, विदेश से आयातित अर्थ व बलपूर्वक आरोपित मतों (इस्लाम और ईसाइयत), पाश्चात्य और तद्‌नुयायी भारतीय विद्वानों द्वारा फैलाई गई विविध भ्रान्त धारणाओं से एक-साथ लड़ना पड़ा । वस्तुत: स्वामी दयानन्द भारतीय पुनर्जागरण (रिनेसेंस) के अग्रदूत थे। फ्रॉंस के महान्‌ लेखक रोम्यॉं रोलॉं ने लिखा है-

“This man with the nature of a lion is one of those whom Europe is apt to forget when she judges India, but whom she will probably be forced to remember to her cost; for he was that rare combination, a thinker of action with a genius for leadership. He was a hero with the athletic strength of Herculese who thundered against all forms of thought other than his own, the only true one. He was so successful that in five years the whole of Northern India was completely changed. He possessed unrivlled knowledge of Sanskrit and the Vedas. Never since Shankara had such a prophet of Vedism appeared. Dayananda was not a man to come to understanding with religious philosophers imbued with Western ideas.”

"यह सिंह-सदृश प्रकृतिवाला मनुष्य उनमें से एक था जिसे यूरोप प्राय: उस समय भुला देता है जब वह भारत के सम्बन्ध में अपनी धारणा बनाता है, किन्तु एक-न-एक दिन विवश होकर उसे अपनी भूल मानकर दयानन्द को स्मरण करना होगा, क्योंकि उसमें कर्मयोगी, चिन्तक तथा नेतृत्व के लिए अपेक्षित प्रतिभा का दुर्लभ मिश्रण था। शारीरिक बल में वह हरकूलीस के समान शक्तिशाली था जो सत्य के विपरीत हर प्रकार के विचार के विरुद्ध गर्जता था। अपने प्रयास में वह इतना सफल हुआ कि पॉंच वर्ष के भीतर सारा उत्तर भारत पूरी तरह बदल गया। संस्कृत और वेदों के ज्ञान में उससे बढकर कोई नहीं था। शंकर के बाद दयानन्द के समान वेदों का प्रवक्ता दूसरा नहीं हुआ। पाश्चात्य विचारों से प्रभावित किसी धार्मिक या दार्शनिक विचारधारावालों से उसने कभी समझौता नहीं किया।"

पर शंकराचार्य ने वैदिक ज्ञान में निष्णात होते हुए भी वेदों के सम्बन्ध में कभी कोई बात नहीं की। प्रस्थानत्रयी में उलझकर वह वेदों को मानो भूल ही गये थे। वस्तुत: शंकर के लिए वेद आस्था की वस्तु थे। व्यवहार में उसके लिए कोई स्थान नहीं था। उसके विपरीत दयानन्द ब्रह्मा से लेकर जैमिनि-पर्यन्त जितने भी ऋषि-मुनि-आचार्य हुए और उनके द्वारा प्रोक्त जो वाङ़्‌मय इस समय उपलब्ध है तथा जो वेदानुकूल भारतीय शिष्टाचारान्तर्गत परम्परा है, उस सबको अपने भीतर समेटे हुए थे और उस सबको उन्होंने लोकार्पण करके यत्र-तत्र-सर्वत्र प्रसारित किया। जहॉं "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" के सिद्धान्त के अनुसार प्राणिमात्र को ब्रह्मरूप में माननेवाले शंकर ने वेदमन्त्रों को सुननेवाले शूद्र के कानों में सीसा भरने, पढनेवाले की जिह्वा काटने और याद करनेवालों के शरीर के टुकड़े-टुकड़े करने का आदेश दिया वहॉं दयानन्द ने "यथेमां वाचं कल्याणीमा वदानि जनेभ्य:" (यजुर्वेद 26.2) इत्यादि मन्त्रों के आधार पर मनुष्य-मात्र को वेद के पढने-पढाने और सुनने-सुनाने का अधिकार प्रदान किया। दयानन्द के मत में जैसे ईश्वर की सृष्टि में जल, वायु आदि सब पदार्थ सबके लिए हैं वैसे ही उसका ज्ञान भी सबके लिए है। वह किसी वर्ग-विशेष की धरोहर नहीं है। इस प्रसंग में रोम्यॉं रोलॉं के निम्नलिखित शब्द विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं-

“It was in truth an epoch-making day for India when a Brahman not only acknowledged that all human beings have the right to know the Vedas, whose study had been previously prohibited by orthodox Brahmanas, but duty of every Arya”.

अर्थात्‌, "भारत के इतिहास में वह दिन सचमुच युगान्तरकारी था, जब एक ब्राह्मण ने मनुष्यमात्र को वेदाध्ययन का अधिकारी ही घोषित नही किया, जिस पर पहले कट्‌टरपन्थी ब्राह्मणों ने रोक लगा रक्खी थी, अपितु प्रत्येक आर्य के वेदाध्ययन करने और वेद का प्रचार करने को अपना कर्तव्य समझने पर बल दिया।" इस प्रकार जहॉं तक वेद का सम्बन्ध है, स्वामी दयानन्द का स्थान हर दृष्टि से शंकराचार्य से कहीं ऊँचा है। दयानन्द ने जो किया शंकर उसका दशांश भी नहीं कर पाये।

स्वामी दयानन्द के अनुसार मन्त्रसंहिताओं को छोड़कर सम्पूर्ण वैदिक वाङ्‌मय परत:प्रमाण है। केवल चार संहिताएँ ही स्वत: प्रमाण हैं। वेदार्थ प्रक्रिया में भी दयानन्द का अपना विशिष्ट योगदान है। वेद के सभी शब्दों को उन्होंने यौगिक या योगरूढ माना है। कोई भी शब्द रूढ या यदृच्छा-रूप नहीं है। प्राचीन ऋषि-मुनियों द्वारा निर्दिष्ट त्रिविध प्रक्रिया को स्वीकार करते हुए भी उन्होंने वेदमन्त्रों का व्यावहारिक अर्थ करके वेदों को सर्वजनोपयोगी रूप में प्रस्तुत किया। वेदों के सर्वज्ञानमयत्व और "सर्वं वेदात्‌ प्रसिध्यति" आदि वचनों को सार्थक करनेवाला वेदों का एकमात्र भाष्य दयानन्द-कृत ही है। इसके निदर्शनार्थ उन्होंने "ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका" की रचना की। इस अद्‌भुत ग्रन्थ के अध्ययन का यह परिणाम हुआ कि जिस मैक्समूलर ने सन्‌ 1866 में स्वरचित "चिप्स्‌ फ्रॉम ए जर्मन वर्कशॉप" में लिखा था कि "वैदिक सूक्तों की एक बड़ी संख्या बिल्कुल बचकानी, जटिल, निकृष्ट और अत्यन्त साधारण हैं", उसी ने सन्‌ 1882 में "भारत से हम क्या सीखें?" में लिखा, "वेद में जैसी भाषा पाई जाती है, उसमें जैसा जीवनदर्शन है और जैसे धर्म का दर्शन होता है, उससे जो दृश्यावली दृष्टिगत होती है, वर्षों में तो उसे कोई माप नहीं सकता। वेद में ऐसी भावनाओं का प्रकाश हुआ है जो हम यूरोपियनों को 19वीं शताब्दी में आधुनिक प्रतीत होती हैं। मानव-विचारधारा के इतिहास के विषय में जो जानकारी हमें वेदों से मिलती है वह वेदों की खोज से पूर्व हमारी कल्पना से परे थी" (पृ.130)।

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इतना ही नहीं जिस मैक्समूलर ने दयानन्द के सम्बन्ध में कभी यह लिखा था-

 “He (Dayanand) actually published a commentary in Sanskrit on Rigveda. But in all his writings there is nothing which can be quoted as original, beyond his somewhat strange interpretations of words and whole passages.”-A Real Mahatman.

अर्थात्‌ दयानन्द ने ऋग्वेद पर संस्कृत में एक भाष्य प्रकाशित किया है, पर उसके समस्त लेखन में मौलिक रूप से उल्लेखनीय कुछ भी नहीं है, सिवाय शब्दों और पूरे-पूरे अंशों के उसके अजीब-से अर्थों के।

उसी मैक्समूलर ने "ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका" पढने के बाद दिखा-

 “We may divide the whole of Sanskrit literature beginning with the Rigveda and ending with Dayananda’s ‘Rigvedadibhashya bhumika’ (‘Introduction to his commentary on the Rigveda’).

अर्थात्‌ ऋग्वेद से आरम्भ होनेवाले और दयानन्द की "ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका" तक समूचे संस्कृत वाङ्‌मय को हम बॉंट सकते हैं।"

इस प्रकार मैक्समूलर ने संस्कृत साहित्य के एक ध्रुव पर ऋग्वेद को रक्खा और दूसरे पर "ऋग्वेदिभाष्यभूमिका" को। ऋग्वेद का सम्बन्ध ब्रह्मा से है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि जिस प्रकार दयानन्द ने अनेकत्र "ब्रह्मा से जैमिनिपर्यन्त" शब्दों का प्रयोग किया है वैसे ही यहॉं "ब्रह्मा से दयानन्दपर्यन्त" कहा गया है।

दयानन्द के वेदभाष्य को लक्ष्य करके श्री अरविन्द ने कहा-

“There is nothing fantasfic in Dayananda’s idea that the Veda contains truths of science as well as truths of religion. I will even add my own conviction that the Veda contains the other truths of seience which the modern world does not at all possess and in that case Dayananda has rather understated than overstated the depth of the range of Vedic wisdom.” -Dayananda and the Veda

"दयानन्द की इस धारणा में कि वेद में धर्म और विज्ञान दोनों सचाइयॉं पाई जाती हैं, कोई उपहासास्पद या कल्पना मूलक बात नहीं है। मैं इसके साथ अपनी यह धारणा भी जोड़ना चाहता हूँ कि वेदों में विज्ञान की वे सचाइयॉं भी हैं जिन्हें आधुनिक विज्ञान अभी तक नहीं जान पाया है। ऐसी अवस्था में दयानन्द ने वैदिक ज्ञान की गहराई के सम्बन्ध में अतिशयोक्ति से नहीं अपितु न्यूनोक्ति से ही काम लिया है।" -दयानन्द और वेद

 “In the matter of Vedic interpretatiohn, I am convinced, whatever may be the final and complete inerpretation of Vedas, Dayananda will be honoured as the first discoverer of the right clues. Amids the chaos and obscurity of old ignorance and agelong misunderstanding, his was the eye of direct vision that pierced to the truth and fastened on to that which was essential. He has found out the keys of the doors that time had closed and rent assunder the seals of the imprisoned fountains.”-Vedic Magazine, Lahore, Nov., 1916. 

"वैदिक व्याख्या के सम्बन्ध में मेरा यह विश्वास है कि वेदों की अन्तिम और पूर्ण व्याख्या चाहे कुछ भी हो, यथार्थ निर्देशों के प्रथम आविर्भावक के रूप में दयानन्द का नाम सदा सम्मान के साथ लिया जाएगा। पुराने अज्ञान और पुराने युग की मिथ्या ज्ञान की अव्यवस्था और अस्पष्टता के बीच यह उनकी अन्तर्दृष्टि थी जिसने सचाई को खोजा और उसे वास्तविकता के साथ जोड़ दिया। समय ने जिन द्वारों को बन्द कर रक्खा था उनकी चाबियों को उसने ढूँढ निकाला और बन्द पड़ें फौवारे की मोहरों को तोड़ फेंका।" (वैदिक मैगजीन, लाहौर, नवम्बर 1916)

यह ध्रुव सत्य है कि गत पॉंच सहस्त्र वर्षों में वेद के वास्तविक स्वरूप को पहचानकर उसे उसी रूप में पुन: प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्प, सर्वात्मना समर्पित व्यक्ति दयानन्द से अतिरिक्त अन्य कोई नहीं हुआ। मनु आदि ऋषियों के "सर्वज्ञानमयो हि स:", सर्वं वेदात्‌ प्रसिध्यति", "नि:सृतं सर्वशास्त्रं तु वेदशास्त्रात्‌ सनातनात्‌", "वेद: प्रमाणं लोकानाम्‌", इत्यादि वाक्यों का मानो भाष्य करते हुए दयानन्द ने "वेद को सब सत्य विद्याओं का पुस्तक" बताया और क्योंकि "धर्मजिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुति:" कहा गया है, इसलिए "वेद का पढना-पढाना और सुनना-सुनाना ही सब आर्यों का परम धर्म" निश्चित किया। जहॉं अन्य समाज-सुधारकों में से किसी ने सत्य को परम धर्म बताया, किसी ने अहिंसा को, किसी ने परोपकार को, वहॉं दयानन्द ने अपने अनुयायियों के लिए वेदाध्ययन को परम धर्म घोषित किया। 10 अप्रेल, 1875 (संवत्‌ 1931-32) को बम्बई में प्रथम आर्यसमाज की स्थापना करते समय उसका उद्‌देश्य इन शब्दों में निश्चित किया गया था- "आ समाजनो मुख्य उद्देश्य ए छे कि वेदधर्मतत्वो प्रत्येक सभासदे मान्य करवां अने देश-विदेश मा तेनो प्रसार करवाने यथाशक्ति प्रयत्न करवो।" इससे स्पष्ट है कि दयानन्द की दृष्टि में आर्यसमाज की स्थापना का प्रयोजन वेदों का प्रचार-प्रसार करना था।

स्वामी दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में जगह-जगह लिखा है, "वेदों की अप्रवृत्ति होने से अविद्यान्धकार के भूगोल में विस्तृत हो जाने से मनुष्यों की बुद्धि भ्रमयुक्त हो जाने के कारण जिसके मन में जैसा आया वैसा मत चलाया।" इस कारण दयानन्द ने प्रमुखरूप से वेदविद्या के पुन: प्रतिष्ठापन के लिए ही आर्यसमाज की स्थापना की। यही उनका मुख्य कार्य था, शेष सब कार्य उसी के अंग-प्रत्यंग-रूप थे। "श्रीमद्भगवद्‌गीता" की शैली में कहा जा सकता है कि "लुप्त हुए वैदिकधर्म संस्थापनार्थाय" ही दयानन्द का अवतरण हुआ था।

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That is, "The day in the history of India was truly epoch-making, when a Brahmin did not declare mankind to be the authority of Vedhyayana, which was previously forbidden by the Katharpanthi Brahmins, but to study every Arya and preach the Veda. Stressed to understand his duty. " Thus far as Vedas are concerned, Swami Dayanand's place is higher than Shankaracharya's in every respect. Shankar could not even tithe what Dayanand did.

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