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शूद्र को ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन अधिकार

जैमिनि मत समीक्षा

वेद के सांख्यदर्शन आदि छह उपांग हैं। उनमें वेदान्तदर्शन छठा उपांग माना जाता है। यह ब्रह्मविद्या का ग्रन्थ है। इसके रचयिता वेदों के महाविद्वान्‌ श्री वेदव्यास हैं। वेदव्यास के पिता पाराशर और माता सत्यवती थी, जो एक मल्लाह की लड़की थी। श्री वेदव्यास का नाम कृष्णद्वैपायन था और वेदाभ्यास के कारण उनका नाम "वेदव्यास" प्रसिद्ध हुआ। उनका गौत्र-नाम "बादरायण" है।

श्री वेदव्यास जी ने वेदान्तदर्शन प्रथमाध्याय के तृतीय पाद में प्रसङ्गवश शूद्रों को ब्रह्मविद्या एवं वेद पढने के अधिकार की चर्चा की है जिसका यहॉं सूत्रनिर्देश पूर्वक उल्लेख किया जाता है -

जैमिनि का मत- 1. मध्वादिष्वसम्भावदनधिकारं जैमिनि:।। वेदान्त दर्शन 1.3.31

अर्थ- (मधु-आदिषु) मधुच्छन्दा आदि वैदिक ऋषि हैं, जिनका संहिता-ग्रन्थों में मन्त्रों के साथ उल्लेख किया जाता है । उन वैदिक ऋषियों में (असम्भवात्‌) किसी शूद्र का उल्लेख न होने से (अनधिकारं जैमिनि:) जैमिनि शूद्र को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं मानते हैं।

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Ved Katha Pravachan _47 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


2. ज्योतींषि भावाच्च।। वेदान्त 1.3.32।।

अर्थ- (च) और ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन में ब्राह्मणक्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्णों का ही अधिकार है। जैसे कि यजुर्वेद में (ज्योतिष भावात्‌) तीन ज्योतियों का ही वर्णन है-

यस्मान्न जात: परोऽन्योऽस्ति
य आविवेश भुवनानि विश्र्वा।
प्रजापति: प्रजया संरराण:
त्रीणि ज्योतींषि सचते स षोडशी।।8.36।।

अर्थ- जिससे पर= महान्‌ कोई नहीं हैजो सब भुवनों= लोकों में व्यापक हैप्रजापति परमेश्र्वर जो कि 16 सोलह कला सम्पन्न हैवह प्रजा को कर्मफल प्रदान करता हुआ तीन ज्योतियों से अर्थात्‌ ब्राह्मणक्षत्रियवैश्य से संयुक्त रहता हैचतुर्थ शूद्र से नहीं।

अन्यत्र वेद में भी लिखा है- स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्‌। (अथर्ववेद 9.71.1) अर्थात्‌ ऋषि कहता है कि मैंने वर प्रदान करने वाली वेदमाता की स्तुति की हैजो कि उत्तम प्रेरणा करने वाले द्विजों अर्थात्‌ ब्राह्मणक्षत्रियवैश्य को ही पवित्र करने वाली हैशूद्रों को नहीं।

वेदव्यास का मत- 1. भावं तु बादरायणोऽस्ति हि।। वेदान्त दर्शन 1.3.32।।

अर्थ- (भावं तु बादरायण:) बादरायण अर्थात्‌ वेदव्यास ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन मेंे अधिकार का भाव मानते हैं (अस्तिहि) क्योंकि मधुच्छन्दा आदि वैदिक ऋषियों में शूद्र ऋषियों का भी अस्तित्व है। जैसे दासीपुत्र कवष-ऐलूष अपोनप्त्रीय सूक्त का ऋषि है (ऐतरेय ब्राह्मण 2.3.1) और वेद में शूद्रों को वेदाध्ययन का स्पष्ट उल्लेख है-

यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य:,
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च
स्वाय चारणाय च ।। यजुर्वेद 26.2।।

अर्थ- वेद उपदेश करता है- हे मनुष्यो! जैसे मैं तुम्हें इस कल्याणी वाणी वेद का सब मनुष्यों के लिये उपदेश करता हूँ वैसे तुम भीब्राह्मणक्षत्रियअर्य=वैश्यशूद्रस्व= अपने सेवक और अरण=जंगली मनुष्यों को भी वेद का उपदेश किया करो।

2. शुगस्य तदनादरश्रवणात्‌ तदाद्रवणात्‌ सूच्यते हि।। वेदान्त दर्शन 1.3.34।।

अर्थ- (शुक्‌ अस्य तदनादरश्रवणात्‌) इस जानश्रुति नामक शूद्र का ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन में अनादर सुनाई देने से वह शुक्‌=शोक से व्याकुल हो गया है वह शुक्‌=शोक से आद्रवित होने से ब्रह्मविद्या के उपदेश के लिये रैक्व नामक गुरु के पास द्रुत गति से गया (सूच्यते हि) इससे सूचित होता है कि वह जानश्रुति शोक से द्रवित होने से शूद्र है- शुच्‌+द्रव: =शू+द्र=शूद्र है। उस शूद्र को रैक्व ऋषि ने ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया। अत: शूद्र को भी ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन का अधिकार है। (द्रष्टव्य छान्दोग्य उपनिषद 4.1.1) और ये शूद्र आदि शब्द गुणवाचक हैंजातिवाचक नहींजैसे कि महाभाष्यकार पतञ्जलि लिखते हैं- सर्व एते शब्दा गुणसमुदायेषु वर्त्तन्ते ब्राह्मण: क्षत्रियो वैश्य: शूद्र:। (महाभाष्य 5.1.115) अर्थात्‌ ब्राह्मणक्षत्रियवैश्य और शूद्र ये गुणसमुदायविशेष के वाचक हैंजातिवाचक नहीं। पढना-पढाना आदि गुणसमुदाय का नाम ब्राह्मण है। ऐसे ही सभी वर्णों में समझें।

3. क्षत्रियत्वगतेश्र्चोत्तरत्र चैत्ररथेन लिङ्गात्‌ ।। वेदान्त 1.3.35।।

अर्थ- (अत्तरत्र क्षत्रियगते: च) जानश्रुति पौत्रायण पहले शूद्र थाकिन्तु गुण और कर्म के कारण वह फिर क्षत्रिय गति को प्राप्त हो गया। इससे यह सूचित होता है कि शूद्र आदि वर्ण गुण और कर्म से सिद्ध होते हैं और शूद्र को भी ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन का अधिकार है।

यह क्या पता कि जानश्रुति पौत्रायण गुण और कर्म से क्षत्रिय हो गया थाइसका उत्तर यह है-(चैत्ररथेन लिङ्गात्‌) जानश्रुति के पास चैत्ररथ था- अश्र्वतर (खच्चर) वाला रथ चैत्ररथ कहलाता हैजो कि क्षत्रिय के पास ही होता है।

यदि शूद्र का ब्रह्मविद्या में अधिकार है तो उस जानश्रुति का उपनयन-संस्कार क्यों नहीं कियाइसका उत्तर यह है-

4. संस्कारपरामर्शात्‌ तदभावाभिलापात्‌।। (वेदान्तदर्शन 1.3.36)

अर्थ- (संस्कार-परामर्शात्‌) शास्त्र के अध्ययन में उपनयन-संस्कार का सम्बन्ध बतलाया जाता हैइसलिये यह विचार उत्पन्न हुआकिन्तु (तदभाव-अभिलापात्‌) कहीं उस उपनयन-संस्कार के अभाव का भी कथन मिलता है। जैसे- तं होपनिन्ये (शतपथ 1.5.3.13) यहॉं उपनयन-संस्कार का विधान है और तान्‌ हानुपनीयैतदुवाच......। (छान्दोग्य उपनिषद्‌ 5.11.7) अर्थात्‌ प्राचीन शाल आदि ब्राह्मणों को कैकेय अश्र्वपति ने वैश्र्वानर-विद्या का उपनयन-संस्कार के बिना ही उपदेश किया था। अत: उपनयन-संस्कार के बिना भी ब्रह्मविद्या की शिक्षा की जा सकती है। अत: ब्रह्मविद्या के अधिकार में उपनयन-संस्कार का कोई प्रतिबन्ध नहीं है।

गुण और कर्म ही उच्च और अवच का कारण हैंजन्म नहीं। जैसे-

5. तदभावनिर्धारणे च प्रवृत्ते:।। (वेदान्तदर्शन 1.3.37)

अर्थ- (तदभावनिर्धारणे च) और उस वेदाध्ययन विरोधी गुण और कर्म के अभाव का निर्धारण=निश्र्चय हो जाने पर (प्रवृत्ते:) वेद-अध्यापन की प्रवृत्ति दिखाई देती है। क्योंकि गुण और कर्म ही उच्च और अवच वर्ण का कारण है। जैसे कि छान्दोग्य उपनिषद्‌ में लिखा है- सत्यकाम जाबाल हारिद्रुमत गौतम के पास जाकर बोला- मैं आपके पास ब्रह्मचारी रहूंगायदि आपकी आज्ञा हो तो मैं आपके पास रहूं। आचार्य गौतम ने पूछा- हे सोम्य! तेरा क्या गोत्र हैवह कहने लगा- मेरा क्या गोत्र हैयह मैं नहीं जानता। मैंने अपनी माता जबाला से पूछा थाउसने कहा- मैं अनेक लोगों की परिचारिणी (सेविका) रही हूं और यौवनकाल में मैंने तुझे प्राप्त किया हैइसलिये मैं नहीं जानती कि तेरा क्या गोत्र हैहे गुरुवर ! इसलिये मैं तो सत्यकाम जाबाल हूँ। गुरु गौतम ने कहा- यह बात कोई अब्राह्मण नहीं कह सकताअर्थात्‌ तू ब्राह्मण है। हे सौम्य ! तू समिधा ले आमैं तुझे अपने समीप रखूंगा- तुझे वेद की शिक्षा करूँगाक्योंकि तू सत्यभाषण से विचलित नहीं हुआ है।

इस प्रकार यहॉं अज्ञात कुल शिष्य का भी वेद अध्ययन में अधिकार का विधान किया गया है। सत्यभाषण के गुण से ही अज्ञात कुल सत्यकाम जाबाल को वेदाध्ययन का अधिकार प्राप्त हुआ।

वेदाध्ययन में चारों वर्णों के बालकों का अधिकार हैकिन्तु गुण-कर्म से हीन का नहीं। जैसे-

6. श्रवणाध्ययनप्रतिषेधात्‌ स्मृतेश्र्च।। (वेदान्तदर्शन 1.3.38)

अर्थ- (श्रवणाध्ययनप्रतिषेधात्‌) गुण और कर्म से हीन किसी को भी वेद श्रवण और अध्ययन का प्रतिषेध किया गया है। जैसे-

1. नाप्रशान्ताय दातव्यं नापुत्रायाशिष्याय वा पुन:। (श्वेताश्वतरोपनिषद्‌ 6.22) अर्थात्‌ अप्रशान्त चित्तवाले पुरुष को ब्रह्मविद्या का दान नहीं करना चाहिये।

2. विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगामगोपाय मां शेवधिष्टेऽहमस्मि।
असूयकानृजवेऽयताय न मा ब्रूयां वीर्यवती यथा स्याम।। (निरुक्त 2.14)

अर्थ- विद्या ब्राह्मण विद्वान्‌ के पास आई और कहने लगी- तू मेरी रक्षा करमैं तेरी शेवधि=खजाना हूँ। तू असूयक=निन्दकअनृजु=कुटिलअयत=असंयमी जन को मेरा उपदेश मत करनाजिससे मैं सदा वीर्यवती=बलशालिनी बनी रहूँ।

3. पृथिवीमिमां यद्यपि रत्नपूर्णां दद्यान्न देयं त्विदमसंयताय।। (महाभारत शान्तिपर्व)

अर्थ- रत्नों से पूर्ण इस पृथिवी का दान कर देवेकिन्तु असंयत=असंयमी जन को ब्रह्मविद्या का उपदेश न करे।

भाव यह है कि ब्रह्मविद्या और वेदाध्ययन का अधिकार चारों वर्णों का हैकिन्तु गुणहीन जन का नहीं। जैसे- एतरेय महीदास शूद्र थाकिन्तु उसने ऋग्वेद को पढकर ऐतरेय ब्राह्मण नामक ग्रन्थ की रचना कीजो ऋग्वेद की सर्वप्रथम व्याख्या है।

महर्षि दयानन्द ने ब्रह्मा से लेकर जैमिनि मुनि तक ऋषियों के मतों का सम्मान किया हैकिन्तु यहॉं ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन विषयक जैमिनि मुनि का मत वेदविरुद्ध होने से माननीय नहीं है। वेदव्यास और ऋषि दयानन्द के अनुसार चारों वर्णों के गुणवान्‌ बालकों को ब्रह्मविद्या और वेदाध्ययन का अधिकार हैगुणहीन को नहीं।  - पण्डित सुदर्शन देव आचार्य (सर्वहितकारी 14 अप्रेल 2004) 

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The Vedas have six verses. Vedantadarshana is considered the sixth appendage among them. This is the book of theology. Its author is Sri Ved Vyasa, the great scholar of the Vedas. Ved Vyas's father was Parashar and mother Satyavati, a seafaring girl. Sri Ved Vyasa's name was Krishnadvaipayan and his name "Ved Vyas" became famous due to Vedabhyas. His gotra-name is "Badarayan".

 

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