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वीर सावरकरः जीत और हार का एक मूल्यांकन

स्वातन्त्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर हिन्दुस्तानी इतिहास के वे नायक हैं, जो स्वतन्त्रता संग्राम की लड़ाई में सबसे पहले आए और सबसे बाद में गए। यह लड़ाई जिन-जिन रास्तों से आगे बढ़ी, सावरकर जी उन सबमें आगे थे। हिन्दू के ठण्डे खून को गर्म करने के लिये उन्होंने हथियारों का सहारा लिया, जर्जरित समाज को आधुनिक बनाने के लिये उसे वैज्ञानिक दिशा दी, रूढियों से मुक्त करने के लिये अछूतोद्धार का अभियान चलाया, साहित्य एवं पत्रकारिता को आधार बनाकर जन जागृति की लहर पैदा की और इन सबसे बढ़कर हिन्दुओं को हिन्दुत्व के दर्शन कराके उन्हें जीने की शिक्षा दी और यह कहना सिखलाया कि "गर्व से कहो हम हिन्दू हैं।' 

Ved Katha Pravachan _75 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



जो इन्सान सिपाही हो, समाज सुधारक हो, दार्शनिक हो, साहित्यकार हो, पत्रकार हो, राष्ट्रभक्त हो और भरपूर रूप से हिन्दू हो, इतने सारे गुण धराने वाले व्यक्ति का मूल्यांकन कठिन ही नहीं असम्भव लगता है। वे जीवन में जीते या हारे, इसका नतीजा निकाल पाना बड़ा कठिन है। जिस इन्सान ने जीवनभर दिया ही दिया हो, उसका नाप तोल भौतिक आधार पर भला कैसे हो सकता है? ऐसे व्यक्ति को इतिहास विजयी ही नहीं "दिग्विजयी' की संज्ञा देता है। 

हार और जीत की कसौटी यदि किसी व्यक्ति की सफलता और असफलताओं पर आंकी जाए, तो संभवतः फिर इतिहास की धारा को मोड़ना होगा, घड़ी की सुइयों को उल्टा घुमाना होगा। द्वितीय महायुद्ध में इंग्लैण्ड को विजय दिलाने वाले चर्चिल आम चुनाव में हार गए और उनका दल सरकार नहीं बना सका, तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि चर्चिल असफल रहे। सिकन्दर युद्ध के मैदान में अवश्य जीता, मगर इतिहास असली जीत तो पोरस की ही बतलाता है। सिकन्दर की आँख में आँख डालकर वीरता और राष्ट्रभक्ति से पोरस ने अपने देश की रक्षा की, उस हार पर आज भी इतिहास हजारों जीतों को न्यौछावर करता है।

दस हाथ धरती के नीचे चली गई वे ईंटें धन्य हैं, जो नींव की ईंट बनती हैं। क्योंकि कलश और मीनार उसी पर तो खुली हवा में सांस लेते हैं। क्या उन अदृश्य ईंटों को हम व्यर्थ और बेकार की संज्ञा देंगे? स्वातन्त्र्य वीर सावरकर हिन्दुस्तान के स्वतन्त्रता संग्राम की वह नींव की ईंट है, जिस पर 1920 के पश्चात्‌ का भवन खड़ा हो सका, जिसके कन्धों पर चढ़कर कोई राष्ट्रपिता बना है और कोई लोकनायक कहलाया। यह ईंट धंस जाए तो सारा स्वतन्त्रता संग्राम का इतिहास ही धंस जाए, धूल धूसरित हो जाए। 

सावरकर की चिरन्तन प्रासंगिता - भारतीय इतिहास में जितने प्रासंगिक सावरकर रहे और भविष्य में रहेंगे, संभवतः ऐसा नायक ढूंढ पाना कठिन है। यदि हथियारों के दम-खम पर क्षत्रिय बनकर सावरकर ने अंग्रेजों को नहीं ललकारा होता, तो फिर इतिहास भगतसिंह को पैदा नहीं करता और आगे चलकर इस देश में "आजाद हिन्द फौज' की स्थापना नहीं होती। खून देकर आजादी लेने की जिसने आकांक्षा की उन सबके प्रणेता सावरकर रहे।

लार्ड एटली के अनुसार ब्रिटिशों को भारत छोड़ने की मजबूरी इसलिये है कि अब हिन्दुस्तान की फौज उनकी अपनी नहीं रही। बिना फौज के सात समन्दर पार से भारत पर राज करना आसान नहीं है और न ही हमारे पास इतनी विशाल सेना है कि उसे भारत की धरती पर भेजकर अपना साम्राज्य कायम रख सकें। अंग्रेजों को इस स्थिति में किसने पहुँचाया और भारतीय सिपाहियों के मन में आजादी की ललक किसने पैदा की? अपनी भूमि की खातिर परायों से विद्रोह करने की प्रेरणा किसने दी? इन सबके पीछे सावरकर छुपे हुए हैं। उनकी अदृश्य प्रतिभा, आग उगलने वाली लेखनी और अंगारे बरसाने वाले भाषणों ने उस वर्ग को पैदा किया, जो मैदान में उतरकर हार-जीत का फैसला कर लेना चाहते थे।

भविष्य में देश की सुरक्षा के प्रति कितनी चाहत कि जब काले पानी की सजा भोगने के लिये अण्डमान पर पहुंचते हैं, तो उसे देखकर गदगद हो उठते हैं और कहते हैं कि भारतीय नौसेना के लिये यह टापू अभेद्य किला बनेगा जो पूर्व से आने वाले दुश्मन के लिये चुनौती होगा। सैनिक द्रष्टा के रूप में सावरकर के विचार कितने यथार्थवादी थे, इसका पता आज लगता है कि जब हमारी नौसेना ने पूर्व की रक्षा के लिए अण्डमान टापू को आधार बनाया है। जो इन्सान भविष्य के हिन्दुस्तान की जीत की अण्डमान में आधारशिला रख रहा हो, भला वह योद्धा दुनिया का कोई भी युद्ध कैसे हार सकता है? 

हारा हुआ इन्सान इतिहास की धारा नहीं मोड़ सकता। सावरकर तो इतिहास के निर्माता थे। आज तक अंग्रेज जिस हिन्दुस्तान आन्दोलन को "गदर' और विद्रोह कहकर राष्ट्रभक्तों का अपमान करते रहे, उन्हें समाज और इतिहास का खलनायक बतलाते रहे, सावरकर ने उस संघर्ष का नाम 'स्वतन्त्रता युद्ध' दिया और इस लड़ाई में अपना तन-मन-धन फूंक देने वालों को वीर, बहादुर, राष्ट्रभक्त और हीरों की संज्ञा से विभूषित किया। इस परिवर्तन से हिन्दुस्तानी जनता ने अपने स्वाभिमान को पहचाना। 

सावरकर ने यह समस्त काम केवल कथनी के आधार पर नहीं किया, बल्कि उसे क्रियान्वित करने के लिये स्वयं सबसे पहले आगे आए। लड़ाई का मैदान अपने देश की भूमि को नहीं बनाया, अपितु उन अंग्रेजों के देश में जाकर अपनी स्वतन्त्रता की मशाल जलाई। ब्रिटिश साम्राज्य की आँख में आँख डालकर उन्हीं की धरती पर ललकारा। "इण्डिया हाउस' की गतिविधियों ने "बंकिघम' पैलेस की दीवारें हिला दी, टेम्ज नदी के पानी में तूफान उठ खड़ा हुआ। मदन ढींगरा की गोलियों से जब कर्जन वायली ढल पड़ा, तब उन्होंंने मौन भाषा में कहा कि यह अंग्रेज नहीं ढला है, बल्कि उसके साम्राज्य के ढलने की शुरूआत हो गई है। 

सावरकर का यह जोश कभी बूढ़ा नहीं हुआ। मरते दम तक वे वीर सिपाही की तरह लड़ने को तत्पर रहे अण्डमान से छूटकर भारत आने पर अपने सम्मान में आयोजित किये गये स्वागत के अवसर पर मुम्बई में जो कुछ उन्होंने कहा और 1957 में दिल्ली में आयोजित स्वतन्त्रता संग्राम शताब्दी के अवसर पर व्यक्त की गई भावना इसके जीवित सबूत हैं। 

एकमेव रास्ता 'हिन्दुत्व' - अपने ग्रन्थ "हिन्दुत्व' के लेखक के रूप में सावरकर जितने प्रासंगिक और व्यावहारिक उस समय थे, उतने ही आज भी हैं। 

पाश्चात्य आधार लेकर आजादी के बाद से हमारा देश आगे बढ़ने का प्रयास कर रहा है। मगर न तो उसकी पंचवर्षीय योजना का लाभ जनता को मिल सका है और न ही विश्व में उसने वह स्थान प्राप्त कर लिया है जिसके जगद्‌गुरु होने का सपना महर्षि अरविन्द ने देखा था। इन सभी बातों से ऊबकर आज के बुद्धिजीवी और राजनैतिक इस नतीजे पर पहुंचे कि हिन्दुस्तान को सोेने की चिड़िया बनाने और विश्व में अध्यात्म का बोलबाला करवाने के लिये केवल हिन्दुत्व ही एकमात्र रास्ता है। इसलिये हम देख रहे हैं कि इन दिनों देश में "हिन्दू लहर', "हिन्दू आदर्श' और "हिन्दू वोट बैंक' की चर्चा है। 

धर्मनिरपेक्षता (पन्थनिरपेक्षता कहें) जो कि हिन्दू के जीवन का अटूट तत्व रहा है, उसे जबरदस्ती राजनीति से जोड़कर जीवन जीने का सर्वोपरि लक्ष्य बना दिया गया। परिणामस्वरूप बहुमत के साथ जुड़ा हुआ हिन्दू आदर्श धुंधला पड़ गया और हमारी सोच का दायरा मानवी मूल्यों से निकलकर शुद्ध रूप से राजनैतिक बन गया। अल्पसंख्यकता के आधार पर की जाने वाली राजनीति ने कुछ दिनों के लिये कुछ लोगों को सत्ता का परवाना तो अवश्य दे दिया, मगर हिन्दू संस्कृति के शक्तिशाली प्रवाह से उसे हमेशा के लिये अलग-थलग कर दिया। 

जब तक देश "हिन्दुत्व' में सांस लेता रहा, वह साधन सम्पन्न बना रहा। इस पथ से ज्यों ही उसके कदम डगमगाए, वह विदेशी साम्राज्य के पंजों में चला गया। सात सौ साल तक यह भटकाव जारी रहा। मगर फिर सन्तों ने हिन्दू आदर्श को भक्ति की वाणी दी। फलस्वरूप महाराष्ट्र में सन्तों की लम्बी श़ृंखला के पश्चात्‌ हिन्दवी साम्राज्य स्थापित करने वाले छत्रपति शिवाजी महाराज ने जन्म लिया। पंजाब में गुरुओं की सतत श़ृंखला के उपरान्त खालसा साम्राज्य की नींव पड़ी। बाद में हिन्दुत्व को मन्त्र बनाकर भारत में एक के बाद एक ऐसे मनीषी और समाज सुधारक जन्म लेते गए, जिन्होंने अपने प्रयासों से इस देश को न केवल रूढ़ियों से और खोखली परम्पराओं से मुक्त कराया, बल्कि उसे शैक्षणिक, राजनैतिक और आर्थिक एवं सामाजिक रूप से भी जागरूक बनाया, जिसमें स्वतन्त्रता आन्दोलन की लहर जन्मी और अन्ततः यह देश आजाद हुआ। आज जब उसे फिर से बनाने और नवनिर्माण करने की आवश्यकता है तो वह भी उसी हिन्दू दर्शन के आधार पर ही सम्भव है। 

वर्षों पूर्व जब सावरकर ने इन विचारों का प्रचार-प्रसार किया था, तब उस द्रष्टा को साम्प्रदायिक और संकुचित होने की संज्ञा दी गई थी। मगर वातावरण में आज गूंज रही हिन्दुत्व की आवाजें इस बात का सबूत हैं कि देश की नाड़ी और धड़कन पर सही हाथ एकमात्र सावरकर का था। देश के असंख्य स्वतन्त्रता सेनानियों ने स्वतन्त्रता संग्राम की लड़ाई में कुछ मोर्चे जीते हैं, मगर सम्पूर्ण युद्ध तो एकमात्र सावरकर ने जीता है। इसलिए सावरकर अजेय हैं, अमिट हैं, और अमर हैं।  -मुजफ्फर हुसैन

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