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संस्कृति विमर्श-1

संस्कृति के प्राणाधार हैं संस्कार। संस्कार वह क्रिया कलाप है जिसके द्वारा किसी वस्तु, भाषा, व्यक्ति को संस्कृत किया जाता है। संस्कारों के इसी सार समुच्चय को संस्कृति कहते हैं। जिस प्रकार किसी अज्ञात पदार्थ के आविष्कार से उसे संसार के सामने प्रकाश में लाया जाता है, जिस प्रकार किसी अशुद्ध वस्तु का परिष्कार करके उसे परिष्कृत किया जाता है, उसी प्रकार संस्कृति-पर्यावरण, चेतना, पवित्रता व आत्मोत्कर्ष को प्रोत्साहित करती है। संस्कृति हमारे सामाजिक व्यवहार, हमारी भाषा व साहित्य को परिमार्जित करती है। यही नहीं संस्कृति हमारी सूक्ष्म वृत्तियों को विकसित करती है, पाशविकता को मानवीयता की ओर और मानवीयता को देवत्व की ओर अग्रसर करती है। संस्कृति सदैव आदर्श दिशा की ओर इंगित करती है इसमें शुभसकारात्मक ध्वनि ही गुंजरित होती है, अशुभ नकारात्मक ध्वनि को कोई स्थान नहीं है। संस्कृति का शब्द विन्यास संस्कृति-सं+कृति= सम्यक् कृति की फलश्रुति प्रदान करता है। आविष्कार, परिष्कार एवं संस्कार के सुगम त्रैत को उदाहरण से स्पष्ट करते हैं। कोई जौहरी बहुमूल्य मणिरत्नों की खोज में भूमि की खुदाई करता है। दीर्घकाल की खुदाई के बाद भूमि की गहराई में छुपे हुए कुछ रत्नप्रस्तर मिलते हैं, यह हुआ उनका आविष्कार। वह इन प्रस्तरकणों की कटाई, छिलाई एवं घिसाई करता है तो उनके ऊपर के मलनिक्षेप की छंटाई हो जाती है। इस परिष्कार क्रिया से परिष्कृत होकर वे प्रस्तर कण श्‍वेतशुभ्र प्रकाशमान हीरों के रूप में चमकने दमकने लगते हैं। इनका मूल्य लाखों गुणा अधिक हो जाता है।

सामान्यतया आविष्कार एवं परिष्कार की क्रियायें प्रकृति के जड़ पदार्थों तक ही सीमित रहती है। वैज्ञानिक क्षेत्र में भी इनका प्रभाव जगत् को चमत्कृत करता रहता है। जब हम चेतन प्राणिजगत पर दृष्टिपात करते हैं तो वहाँ पर आविष्कार, परिष्कार से कहीं अधिक संस्कार का प्रभावक्षेत्र दृष्टिगत होता है। संसार के असंख्य जीव जन्तुओं की योनियों को तीन श्रेणियों में परिगणित किया जा सकता है। एक वे अधोमुखी हैं जिनके सिर भूमि में गड़े रहते हैं दूसरे वे सममुखी हैं जिनके सिर भूमि के समानान्तर होते हैं तीसरे वे ऊर्ध्वमुखी हैं जिनके सिर आकाश की ओर उठे रहते हैं। प्रथम में समस्त वृक्ष-वनस्पति, द्वितीय में समस्त कीट-पतंग-पशु-पक्षी और तृतीय में समस्त मानव प्राणि आते हैं। प्रथम व द्वितीय कोटि के प्राणि अपने जन्मजात स्वाभाविक ज्ञान के अनुसार अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर लेते हैं। उनके आहार, आराम, आरक्षा, प्रजनन की क्रियायें स्वाभाविक रूप से चलती रहती हैं। ऊर्ध्वमुखी मनुष्य को स्वाभाविक के साथ-साथ ईश्‍वर ने नैमित्तिक ज्ञान का वरदान भी दिया है, जिसकी अपेक्षा से वह रंक से राजा बन सकता है और जिसकी उपेक्षा से वही राजा से रंक हो जाता है।

इसीलिए महर्षि मनु ने कहा है- जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्यते अर्थात सभी मनुष्य शूद्र के रूप में जन्मते हैं किन्तु संस्कारों के द्वारा ही वे द्विज बनते हैं। शूद्र व द्विज शब्दों को किसी जाति विशेष से जोड़ना महर्षि मनु का अभिप्राय नहीं है। शूद्र वही है जो जिस शरीर के साथ जन्म लेता है, उसी के श्रम स्वेद बिन्दुओं से उद्रवित होकर दूसरों की सहायता करता है। स्वल्प भुगतान पर जीवन यापन कर लेता है। द्विज वह है जो एक बार माता-पिता से जन्म लेता है और दूसरी बार संस्कारों के गर्भ से जन्म लेकर संस्कृति के प्रांगण में फलता-फूलता व बीज बिखेरता है। यतोभ्युदय निःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः (वै.दर्शन) अर्थात् जिससे लौकिक सुख व पारलौकिक आनन्द की सिद्धि होती है वह धर्म है। धर्म बेतार का वह तार है जिसमें संस्कृतिरूपी विद्युत प्रवाहित रहती है। धर्म शरीर आवरण के रूप में सृष्टि को धारण करता है तथा संस्कृति आत्मा स्वरूप उसमें संचरण करती है। जैसे साधारण सोने को अग्नि में तपाकर कुन्दर बनाया जाता है वैसे ही शिशुओं को संस्कार की भट्टी के व्रत ताप से उनके दुर्गुणों को दूर कर तथा सद्गुणों को पूर कर संस्कृति का शृंगार बना दिया जाता है।

बात सोलह या न्यूनाधिक संस्कारों की ही नहीं, इनको करके सम्प्रदाय के लोग अपनी सन्तान को श्रेष्ठ बनाने का उपक्रम करते हैं। वास्तव में यह निरन्तर चलने रहने वाली प्रक्रिया है। मनुष्य ज्ञानेन्द्रियों द्वारा हर क्षण अपने मन मस्तिष्क में सूचनाओं का संभरण करता है। वह जैसा देखता, सुनता, सूंघता, खाता, स्पर्श करता है वैसा वह सोचने लगता है। जैसा वह सोचता है वैसे ही उसके विचार बनते हैं जैसे उसके विचार होते हैं, वैसे ही उसके संस्कार बनते हैं, जैसे उसके संस्कार होते हैं वैसा ही उसका व्यवहार होता है, जैसा उसका व्यवहार होता है वैसा ही उसका चरित्र बनता है। मानवीय चरित्र में ही उसकी संस्कृति की झलक दिखायी देती है। मनुर्भव जनया दैव्यंजनम् (ऋ.10.53.6) के अनुसार मननशील मनुष्य दिव्य मनुष्यों को जन्म देते व निर्माण करते हुए संस्कृत करते चले जाते हैं तो यही देश क्षेत्र विशेष की सामूहिक संस्कृति कहलाने लगती है।

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Rites are the foundation of culture. Sanskar is the activity by which an object, language, person is Sanskrit. The same set of rites is called culture. Just as the invention of an unknown substance is brought to light before the world, the way an impure thing is refined and refined, similarly culture-environment encourages consciousness, purity and self-empowerment. Culture refines our social behavior, our language and literature. Not only this, culture develops our subtle instincts, moves bestiality towards humanism and humanism towards divinity.

 

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