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Maharshi Dayanand & Vedas

वेद एवं वैदिक संस्कृति के पुनरुत्थान में महर्षि दयानन्द का योगदान

वेद भारतीय संस्कृति अथवा आर्य संस्कृति के आधार ग्रन्थ हैं। भाषा विज्ञान की शब्दावली में वेद भारतीय परिवार (Indo-European Family) के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। समस्त उत्तरवैदिक साहित्य वेदों के व्याख्या ग्रन्थ हैं। ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, वेदांग, उपवेद, षड्‌दर्शन, सूत्रग्रन्थ, स्मृतियॉं तथा प्रातिशाख्य आदि सबका सम्बन्ध वेद से जोड़ा गया है। मनुस्मृति वेद को परम प्रमाण मनाती है तथा वेद से भूत, भविष्यत्‌, वर्तमान सब कुछ सिद्ध हो सकता है। कवि कुलगुरु कालिदास का कहना है कि यह वेदवाणी ओंकार से आरम्भ होती है तथा उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित तीन भेद से इसका उच्चारण होता है। विभिन्न भारतीय भाषाओं में भी अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। भारत में उद्‌भूत दर्शन एवं सम्प्रदाय या तो वैदिक कोटि में माने गए हैं या अवैदिक। वैसे प्रत्येक सम्प्रदाय अपने को वैदिक ठहराने का प्रयास करता है। वेद का इतना महत्व है कि इसके ज्ञान को नित्य माना गया है। इसकी शब्दानुपूर्वी (Word order) को भी नित्य माना गया। इसीलिए सम्भवत: वेदमन्त्रों की श्रुतिपरम्परा से जिस तरह रक्षा की गई, वैसी आज तक समस्त वैदिक, लौकिक संस्कृत अथवा भारतीय भाषा-साहित्य में किसी भी ग्रन्थ की रक्षा नहीं की गई। हजारों वर्षों से वेदमन्त्रों को कण्ठस्थ किया जाता रहा है और आज भी यह परम्परा अपने मूल में अक्षुण्ण है, यह वेदपाठियों का दावा है। उसका एक भी अक्षर इधर से उधर नहीं हुआ। विश्व के इतिहास में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता। इस परम्परा को अक्षुण्ण (ज्यों का त्यों) बनाए रखने के लिए ऋषियों ने अनेक उपाय किए। प्रत्येक मन्त्र में ऋषि, देवता, छन्द और स्वर का विधान किया गया। अष्ट विकृतियों अर्थात्‌ एक मन्त्र का आठ प्रकार से पाठ करने की प्रणाली चालू की गई और उनमें किसी-किसी पाठ के तो आगे 25 भेद हैं। फिर वेदमन्त्रों के अध्यात्म, अधिदैवत, अधिभूत से तीन-तीन अर्थ होते हैं। वेदार्थ के लिए व्याकरण का अध्ययन आवश्यक है, क्योंकि वेदमन्त्रों में सभी लिंगों एवं विभक्तियों का उल्लेख नहीं मिलता। निरुक्त के अनुसार वेदार्थ के लिए ऋषि, तपस्वी एवं विद्वान होना आवश्यक है। उसका राग और द्वेष तथा पक्षपात से रहित होना भी अपेक्षित है।

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ऐसे गम्भीर और जटिल विषय का फल क्या है? महामुनि पतंजलि के शब्दों में वेद का एक शब्द भी, यदि उसको अच्छी तरह समझकर जीवन में ढाल लिया जाए तो लोक और परलोक की सिद्धि करने हारा है। बिना अर्थज्ञान के वेदार्थं को हृदयंगम किए बिना वेद को पढना व्यर्थ में भार ढोने के समान है। वेदार्थ को जानने हारा सकल कल्याण को प्राप्त करता है। वेदमन्त्र नारियल के समान बाहर दुर्गम एवं कठोर है, परन्तु भीतर उनमें जीवन रस भरा हुआ है। उसको फाड़कर ही, वेदमन्त्रों को समझकर ही वह रस चखा जा सकता है। वह रस चखा कैसे जाए? मन्त्रों का मनन करने से, केवल पढने से नहीं, काम-क्रोध-राग-द्वेष से रहित होकर मनन-चिन्तन करने से।

इस प्रकार का है यह वेद का जगत्‌ जो आश्चर्यजनक भी है, सूक्ष्म और गम्भीर भी है। सर्वजनहिताय है, सर्वभूत मैत्रीप्रतिपादनीय है। विश्व के समस्त अमृतपुत्रों, अमर मानवों के लिए है। समस्त पृथिवी इसका क्षेत्र है। वेदान्तदर्शन के शब्दों में जगत्‌ और ब्रह्मा के बीच समन्वय-स्थापक है, जो कुछ जगत ये है उसका वर्णन वेद में है। प्राचीन काल से लेकर आज तक वेद को समझने का प्रयास होता रहा है। पाश्चात्य एवं पौर्वात्य विद्वान्‌ (Indologists or Sanskritists of the East and the West) वेद को समझने का यत्न करते रहे हैं। परन्तु वेद अब भी रहस्य बने हुए हैं।

इन्हीं वेदों के लिए यतिवर दयानन्द ने अपना जीवन लगाया तथा उनके द्वारा प्रवर्तित आर्यसमाज ने विगत 140 वर्षों में इसके प्रचार और प्रसार का यत्न किया। एक वाक्य में आर्यसमाज के पिछले एक सौ चालीस वर्षों की कहानी वेदों के प्रचार की कहानी है। इसमें उसे कितनी सफलता मिली, यह निर्णय करना सुविज्ञ पाठकों पर है। भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के पुनर्जागरण (Revival) में अनेक महान्‌ आत्माओं ने अपना योगदान दिया है। परन्तु इसके मूल उत्स या प्रेरणास्रोत वेद की ओर हमारा ध्यान किसने खींचा, इसका निर्णय स्वयं पाठक करें। दयानन्द इसलिए महान्‌ नहीं कि वे आर्यसमाज के संस्थापक थे, अपितु इसलिए कि उन्होंने वेद का उद्धार किया तथा वैदिक संस्कृति का पुनरुत्थान किया। जैसे कभी मण्डनमिश्र के द्वार पर शुकसारिकाओं में वेद के स्वत: प्रमाण अथवा परत: प्रमाण होने के बारे में चर्चा होती थी, वैसे ही विगत 140 वर्षों में आर्य समाज के मंच से विभिन्न रूपों में वेदों की चर्चा रही है और आज इसी का परिणाम है कि "आक्सफोर्ड हिस्ट्री आफ इण्डिया" में विन्सैण्ट स्मिथ ने आर्यसमाज के वेद-विषयक मत का उचित उल्लेख किया है। अन्य किसी संस्था या सम्प्रदाय को यह श्रेय नहीं मिला। महर्षि दयानन्द ने वेद में ही मानव की सब समस्याओं का समाधान ढूंढा तथा वेद में ही सब ज्ञान-विज्ञान को बताया। बर्तानिया ज्ञान का विश्वकोष इस बात को स्वीकार करता है-

वेद के बारे में दयानन्द और उनके आर्यसमाज ने एक शताब्दी पूर्व जो स्थापनाए रखी थीं, वे आज विद्वद्‌जगत्‌ को मान्य हो चली हैं तथा इतिहासकार, वेदविद्‌ तथा संस्कृतज्ञ उनके मत को उचित स्थान देने लगे हैं। प्रश्न केवल निष्पक्ष होकर विचार करने का है। आर्यसमाज मानो रथ है और दयानन्द उस रथ के सारथि हैं और वेद मानो उनका सुदर्शन चक्र था, जिसके द्वारा उन्होंने अज्ञान अविद्या तथा अवैदिक विचारों की कौरव सेना का विध्वंस किया। सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम दस समुल्लासों में दयानन्द ने सनातन वैदिक संस्कृति के सिद्धान्तों का विशद विवेचन प्रस्तुत किया है।

वेद आर्य अथवा भारतीय संस्कृति के उद्‌गम-स्रोत हैं। भारतीय विद्या भवन बम्बई से प्रकाशित History and Culture of Indian people प्रथम खण्ड की भूमिका में डा. मजुमदार इसको स्वीकार करते हैं। वेद ईश्वरीय ज्ञान है, ऋषियों ने तप एवं समाधि के द्वारा वेदमन्त्रों का साक्षात्‌ किया, दयानन्द की यह अगली स्थापना थी। डा. राधाकृष्णन जैसे दार्शनिक इस मत को स्वीकार करने लगे हैं। उनका कहना है कि वेद में वर्णित आध्यात्मिक सत्यों का धर्म एवं तपश्चर्या द्वारा पुन: साक्षात्‌ या प्रत्यक्ष किया जा सकता है।

आर्य लोग बाहर से नहीं आए, दयानन्द की इस मान्यता को कई विद्वान्‌ स्वीकार करने लगे हैं। डा. के. एम. मुन्शी इस मत को मानते हैं तथा स्वतन्त्र लेख को भी इस विषय में History and Culture of Indian people में स्थान दिया गया है।

वेद के विषय में दयानन्द की स्थापनाओं के सन्दर्भ में मैं अपनी ओर से अधिक कुछ न कहकर हिन्दी विश्वकोष को उदधृत करूंगा, जिसे नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी ने प्रकाशित किया है, इसका समस्त व्यय भारत सरकार ने वहन किया है। यह भी एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका की तरह हिन्दी में ज्ञान का विश्वकोष (Encyclopedia Hindi) है। इस विश्वकोष के खण्ड 11 में वेद के विषय में दामोदर सातवलेकर को प्रमाणित मानकर अक्षरश: उद्धृत किया गया है। इससे बढकर दयानन्द की स्थापनाओं की दिग्विजय और क्या हो सकती है? आर्यसमाज के लिए यह गौरव का विषय है कि अन्तत: सुधी विद्वानों ने निष्पक्षभाव से उसकी मान्यताओं का आदर किया है। सातवलेकर के बारे में पाठकों को विदित रहे कि उन्होंने ऋषि दयानन्द द्वारा प्रदर्शित पद्धति का अनुसरण किया है। दयानन्द से पहले आधुनिक समय में किसी ने वेद की ओर हमारा ध्यान नहीं खींचा। सातवलेकर के शब्दों में जो राष्ट्र के लिए श्रेष्ठ सन्देश देता है वह ऋषि कहलाता है। स्वामी दयानन्द सचमुच ऋषि थे, क्योंकि उन्होंने हिन्दुओं के पतन का सच्चा कारण देखा और उन्नति का सच्चा मार्ग भी देखा। यह सत्य दृष्टि ही ऋषि की दृष्टि है। उनके समय में बहुत से नेता थे, वे नेतागण हिन्दुओं के उद्धार का मार्ग भी सोचते थे परन्तु किसी ने वेद का मार्ग देखा नहीं। उस समय शास्त्री पण्डित भी थे, परन्तु वे बेचारे वेद को जान भी नहीं सकते थे, फिर वेद के धर्म से मानवों का त्राण होने की बात जानना और वैसा उपदेश करना तो दूर की बात है। केवल अकेले ऋषि दयानन्द जी के पास ही यह ऋषित्व आता है। इन्होंने ही यह सच्ची रीति से जाना और कहा कि वेदों को पढो और वेदोपदेश को आचरण में लाओ।

विश्वकोष में लिखा है कि यज्ञ में पशुवध नहीं होता, क्योंकि वेद में वध करने का कोई मन्त्र नहीं है-

ओषधे त्रायस्व स्वधिते मैनं हिंसी:। हे औषधि, इसका संरक्षण कर। हे शस्त्र, इसकी हिंसा न कर। मन्त्र का स्पष्ट भाव पशु का संरक्षण करना ही है। गोमेध में गाय का वध उचित नहीं, क्योंकि वेदों में गौ को अघ्न्या (अवध्या) कहा है। अजमेध में बकरे का वध करना अनुचित है, क्योंकि अज एक धान्य का नाम है। कोश में अज के अर्थ अजश्रृंगि-औषधि-प्रेरक-नेता-सूर्य किरण-चन्द्रमा-प्रकृति-माया आदि हैं। राष्ट्र सेवा ही अश्वमेध यज्ञ है- राष्ट्र वा अश्वमेध:। (शतपथ ब्राह्मण)

वैदिक यज्ञों के बारे में यह स्थापना किसने की थी? पाठक स्वयं अनुमान करें।

अथर्ववेद-अथर्ववेद का अर्थ गतिरहितता अर्थात्‌ शान्ति है। सचमुच अथर्ववेद आत्मज्ञान देकर विश्व में शान्ति स्थापना करने का महत्वपूर्ण कार्य करता है।

अथर्वेति गतिकर्मा तत्प्रतिषेधो निपात:। (निरुक्त)

इससे पहले तो अथर्ववेद जादू टोने चमत्कार का ही पिटारा बन गया था। दयानन्द ने उसे वेदत्व का दर्जा दिलवाया, अन्यथा उसके वेद होने को ही नकारा जाने लगा था।

ये वेद मानव की उन्नति करने का सच्चा धर्म बतलाते हैं। ऋग्वेद (10.111.2) का उपदेश है- संगच्छध्वं संवदध्वं। हम मिलकर चलें, मिलकर बोलें, हमारे मन एक हों। यजुर्वेद (40.1) कहता है कि यह सारा संसार ईश की सत्ता से व्याप्त है, त्याग भाव से इसका उपभोग करो।

दयानन्द की अगली स्थापना थी कि वेद में इतिहास नहीं। सातवलेकर इस सम्बन्ध में लिखते हैं कि वेद में इतिहास-पुराण की कल्पना पृथक्‌ है। भारत के ऋषि-मुनि मानवीय शरीरों की हलचल को इतिहास नहीं मानते। शरीर की हलचल मानसिक विचारों से होती है। वेद में दशरथ, दु:शासन गुणबोधक नाम है। अयोध्या नगरी शरीर को कहा है, जिसमें आठ चक्र और नवद्वार हैं। ये मानवीय भावों और विचारों का शाश्वत और सनातन इतिहास है।

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दयानन्द का उद्देश्य कोई नवीन सम्प्रदाय अथवा मत-मतान्तर चलाने का नहीं था। उन्होंने उसी प्राचीन वेदमार्ग का पुनरुद्धार (Revival) किया जिसको ब्रह्मा से लेकर जैमिनी मुनि पर्यन्त मानते आए हैं। वेद परम प्रमाण हैं। वेद विरुद्ध जितनी भी स्मृतियॉं या ग्रन्थ हैं वे निरर्थंक हैं तथा वेद को पढना ही सबसे बड़ा तप या धर्म है। ऋषि दयानन्द ने मनु की इन धारणाओं को अक्षरश: सत्य चरितार्थ कर दिखाया। इसी कारण उन्होंने मतमतान्तरों की आलोचना की, किसी की हानि या द्वेष के भाव से नहीं।

वर्तमान समय में जब हम एक शताब्दी बाद यतिवर दयानन्द के विचारों का मूल्यांकन (Estimate) करते हैं, तो वेद एवं वैदिक अथवा आर्य संस्कृति अथवा भारतीय संस्कृति के बारे में उनकी मौलिक स्थापनाएं मान्य एवं सत्य हो चली हैं। परन्तु मतमतान्तरों या विभिन्न धर्मों के बारे में उनके विचारों में संशोधन की आवश्यकता है तथा इसी प्रकार का दृष्टिकोण त्याज्य अथवा अपाठ्‌य ग्रन्थों के बारे में अपनाने की आवश्यकता है। विचारों की समय-समय पर पुनर्व्याख्या (Review) पुनरालोचना होती रहने से ही विचार वैज्ञानिक एवं तर्कसंगत बने रहते हैं, अन्यथा वे रूढिग्रस्त (Traditional, old) पुराने तथा असंगत हो जाते हैं। पुनरालोचन से सारतत्व (मुख्य बातें) छंट जाता है तथा गौण बातें त्याग दी जाती हैं। वेद एवं वैदिक संस्कृति का पुनरुद्धार दयानन्द का मुख्य लक्ष्य अथवा साध्य था। मतों की आलोचना तथा त्याज्य ग्रन्थों का उल्लेख यह साधन था। साधन कभी स्थायी नहीं होते, वे देशकालानुसार बदलते रहते हैं। यही दृष्टिकोण (Approach) हमें राग, द्वेष और पक्षपात से रहित होकर अपनाना होगा। विभिन्न भारतीय धर्मों एवं मतों तथा ग्रन्थों में से हम वेदानुकूल को ग्रहण कर लें। दूसरे इन सबमें मूलभूत विचार (Fundamental ideas) तो उसी वैदिक अथवा आर्य संस्कृति के ही हैं।  विभिन्न धर्मों के बारे में विगत एक शताब्दी में काफी शोध (research) कार्य हुआ है। हम नई खोज तथा नए विचारों से लाभ उठाएं।

आज हमें कालिदास, माघ और भारवि के काव्यों को त्यागने की आवश्यकता नहीं है और न ही सांख्यतत्वकौमुदी तथा तर्कसंग्रह से डरने की आवश्यकता है। यही दृष्टिकोण तुलसी-रामायण के बारे में अपनाना है। विगत 60-70 वर्षों में इस पर काफी अनुसन्धान हुआ है। हॉं, हम इन्हें तर्क की कसौटी पर परख लें। इसी प्रकार पुराणों के बारे में भी अनेक आलोचनात्मक अध्ययन (Critical studies) या ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। स्वयं गीता प्रैस गोरखपुर से राधा और कृष्ण की तथा पुराणों में कृष्णलीला की युक्तिसंगत व्याख्या प्रकाशित हुई है। इसी प्रकार का दृष्टिकोण हमें विभिन्न मतों एवं धर्मों के बारे में अपनाने की आवश्यकता है। सब मतों की अच्छी बातें, जो-जो बातें सबके अनुकूल सत्य हैं, उनको हम ग्रहण कर लें और जो एक दूसरे से विरुद्ध हैं उनको हम त्याग दें। हमें सबको अपने साथ लेकर चलना है, समस्त मानव समाज का कल्याण करना है, सबको श्रेष्ठ बनाना है। सबकी उन्नति में हमारी उन्नति है। भारतोद्‌भूत जितने भी धर्म हैं हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख इनका मूलस्रोत तो एक ही है। ये सारे एक सनातन वैदिक धर्म या आर्य धर्म में विलीन हो जाते हैं। इसी प्रकार ईसाई तथा मुस्लिम धर्मों के प्रति भी हमें अपना दृष्टिकोण उदार तथा विस्तृत करना होगा। क्योंकि आज विज्ञान की दुनियां में समस्त मानव समाज एक इकाई (Unit of family) बन गया है।

धर्मों एवं मतान्तरों की आलोचना से ऋषि दयानन्द का तात्पर्य था कि धर्म में तर्कसंगतता (resonability), युक्ति एवं हेतु (argument) की प्रधानता हो, अन्धविश्वास तथा आडम्बर न हो। हम बाबा-वाक्यं को प्रमाण न मानें, सत्य-असत्य की स्वयं परीक्षा तथा छानबीन करें। यही उनकी धर्म को स्थायी देन है। - प्रा. चन्द्रप्रकाश आर्य

 

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राष्ट्रवादी महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज का आन्दोलन

जनवरी सन्‌ 1873 को महर्षि दयानन्द सरस्वती ब्रिटिशों की राजधानी में पहुँचने से पूर्व ही विभिन्न स्थानों पर वैदिक धर्म के सिद्धान्तों और भावनाओं का प्रचार करते हुए कलकत्ता पहुंचे।

अंग्रेजी राज्य महर्षि दयानन्द की लोकप्रियता और उनकी प्रसिद्धि से भली प्रकार परिचित हो चुका था। साथ ही उन्हें इस बात का भी पता हो चुका था कि महर्षि जहॉं कहीं भी पहुँचते हैं उन पर आस्था रखने वाले सहस्त्रों की संख्या में नर-नारी उपस्थित होकर उनके विचारों से लाभान्वित होते हैं।

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श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती जब कलकत्ता पहुँचे तो तत्कालीन भारत के वायसराय लार्ड नार्थब्रुक ने उनसे भेंट करने की अपनी आकांक्षा प्रकट की। श्री स्वामी जी ने उनकी इस प्रार्थना को स्वीकृत कर लिया। निश्चित तारीख पर वायसराय महोदय संस्कृत और अंग्रेजी के विशिष्ट अनुवादकर्त्ता के साथ स्वामी जी के पास पहुँचे।

औपचारिक शिष्टाचार और कुशल क्षेम के उपरान्त वायसराय बहादुर ने कहा कि- "मुझे ज्ञात हुआ है कि आप अन्य सम्प्रदायों के सिद्धान्तों और उनके विश्वास की कड़ी आलोचना करते हैं। इससे उनको मानसिक कष्ट होता है। इसके कारण वे आपके शत्रु भी हो सकते हैं। यदि आप आज्ञा करें तो आपकी सुरक्षा का प्रबन्ध किया जाए।" इस पर महर्षि ने कहा कि "अंग्रेजी राज्य में मुझे कोई कष्ट और पीड़ा नहीं। मुझको अपने विचारों की अभिव्यक्ति में पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त है। मैं किसी का शत्रु नहीं हूँ। प्रत्येक सम्प्रदाय में व्याप्त बुराई को हटाना मेरा कर्त्तव्य है।"

लार्ड नार्थ ब्रुक ने श्री स्वामी दयानन्द जी सरस्वती से कहा कि "हमारे राज्य में आपको यदि कोई कष्ट नहीं है तो इस राज्य के भारत में बने रहने के लिए ईश्वर से प्रतिदिन प्रार्थना करें तो उचित होगा।" लार्ड महोदय की इस बात को सुनकर श्री स्वामी जी ने दर्शाया कि आपकी इस बात को मैं कदापि स्वीकार नहीं कर सकता। कारण कि मेरा यह विश्वास है कि मेरे देश की जनता को संसार के अन्य देशों में प्रतिष्ठापूर्ण स्थान प्राप्त करने के लिए शीघ्र स्वतन्त्रता प्राप्त कर लेना आवश्यक है। मैं प्रतिदिन परमेश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि जिस प्रकार भी हो सके शीघ्र विदेशी राज्य की दासता से मेरा देश मुक्त हो जाए। स्वामी जी के इन विचारों को सुनकर वायसराय महोदय का मुख कान्तिहीन हो गया और विद्रोही संन्यासी की इस विद्रोहात्मक भावना को स्पष्ट शब्दों में सुन कर वायसराय महोदय ने गुप्त रूप से ब्रिटिश राज्य को सूचना दी कि "आर्यसमाज का आन्दोलन" जिस विद्रोही संन्यासी ने आरम्भ किया है इससे राज्य को खतरा है और इस पर विशेष रूप से दृष्टि रखनी भी आवश्यक है। भविष्य में यह आन्दोलन राज्य को क्षति पहुँचा सकता है।

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महर्षि दयानन्द का विचार था कि साम्राज्यवादी सरकार को जहॉं समाप्त करना आवश्यक हैउससे कहीं अधिक आवश्यकता है कि राष्ट्रीयता की भावना का देशवासियों में प्रचार किया जाये। स्वामी जी ने अपनी विश्वविख्यात क्रान्तिकारी पुस्तक सत्यार्थप्रकाश में लिखा है कि "देश में अखण्डस्वतन्त्रनिर्भय चक्रवर्ती राज्य की स्थापना हो।" फिरंगी राज्य स्थापित हो जाने के बाद स्वामी दयानन्द ही ऐसे क्रान्ति के अग्रदूत रहे हैं कि जिन्होंने देशवासियों के हृदय में स्वाधीनता और देश प्रेम की ज्योति जागृत की थी।

कहा जाता है कि भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना और उसे सुद्दढ बनाने की दृष्टि से जिस गौरव के साथ "लार्ड क्लाइव" का नाम लिया जाता है उसी प्रकार देश की जनता में देश प्रेम और स्वराज्य की स्थापना की स्वाभाविक भावना को जागृत करके देश भर के बुद्धिवादी वर्ग को सचेत करने का यश स्वामी दयानन्द सरस्वती  को ही है। आप ने जो जनता के हृदय में स्वतन्त्रता की अग्नि प्रदीप्त की थीउसी का ही परिणाम था कि आगे चलकर दीर्घकाल के बाद महात्मा गांधी और स्वतन्त्रता के पुजारियों के महान्‌ बलिदानों और प्रयत्नों से सन्‌ 1947 में अंग्रेजी राज्य का सूर्य जो पश्चिम से उदय हुआ था भारत भूमि के पश्चिम में सदैव के लिए अस्त हो गया।

महर्षि इस बात को भली प्रकार से जानते थे कि अपने देश में स्वराज्य और विदेशी राज्य के होने का क्या उद्देश्य हैस्वामी जी का उद्देश्य कोरा कर्मकाण्डी सम्प्रदाय-स्थापित करना नहीं था। वह राज्य धर्म के सच्चे संस्थापक थे। देश और आर्यावर्त्त की सभ्यता व संस्कृति से आपको कितना प्रेम थाइसका एक उदाहरण यहॉं प्रस्तुत किया जाता है।

घटना इस प्रकार है कि एक बार एक अंग्रेज अधिकारी ने महर्षि से कहा कि "भारत में हमारे राज्य के होने से आपको प्रसन्न होना चाहिए। कारण कि इस देश को उन्नति के मार्ग पर हमने लगाया है। यदि हम यहॉं न आते तो शायद ही हिन्दुस्थान खुशहाल हो पाता।" इस पर महर्षि ने कहा था कि "यह आपकी धारणा भ्रान्तिपूर्ण है। आप जिसको उन्नति और प्रगति मानते हैं वह धोखा और भ्रम है। अन्यों को दास बनाए रखने वाले धर्मभ्रष्ट लोगों ने क्या कभी किसी देशजाति और राष्ट्र का हित किया हैमुझे नहीं जान पड़ता।"

महर्षि की इस यथार्थ बात को सुनकर अंग्रेज अधिकारी के नेत्र क्रोध से लाल हो गए और कांपते होठों से कहा कि "धर्मभ्रष्ट से आपका क्या अभिप्राय है?" स्वामी जी ने उच्च स्वर में निर्भीकता से उत्तर दिया कि "अपने पास जो कुछ है उसको ही सब कुछ समझना और उसी पर निर्भर रहनादूसरों के देश पर छल-बल से अधिकार कर अपना लाभ उठाएवह धर्मभ्रष्ट है। इन बातों से जो मुक्त रहता हैवह धर्मात्मा है।"

महर्षि न केवल धार्मिक-सामाजिक सुधारक और भारतीय सभ्यता और संस्कृति के पोषक व प्रचारक थेअपितु  वह राष्ट्रीयता के भी अग्रदूत थे। यदि महर्षि ने इन राष्ट्रीय विचारों को भारतीय जनता में जागृत न किया होता तो स्वतन्त्रता का प्राप्त कर लेना इतना सरल और सुगम न था।

महर्षि के द्वारा स्थापित आर्यसमाज ने न केवल भारत में ही स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष किया और जनता को तैयार कियाअपितु दास बनाकर विदेशों को ले जाए जाने वाले भारतीयों के मन में भी स्वाभिमान व जागृति के भाव उत्पन्न किए। इसके परिणामस्वरूप ही अन्य देशों में बसने वाले भारतीयों ने शानदार ढंग से वहॉं के स्वाधीनता आन्दोलनों में अपना योग प्रदान किया। यह विश्वव्यापी सफलता आर्य समाज के आन्दोलन की विश्व को बहुत बड़ी देन है।

आज की परिस्थिति में आर्यसमाजियों को आस्था के साथ संकल्प करना होगा कि समाज के भीतर प्रविष्ट सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध आवाज उठाकर समाज को दृढ और युवकों को वैचारिक और चरित्र की दृष्टि से श्रेष्ठ बनाकर प्राप्त स्वतन्त्रता को अक्षुण्ण बनाए रखें। - स्वामी सोमानन्द सरस्वती

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When Shri Swami Dayanand Saraswati reached Calcutta, the then Viceroy of India Lord Northbrook expressed his desire to meet him. Shri Swami Ji accepted his prayer. On a certain date, the Viceroy reached Swamiji with a special translator of Sanskrit and English.

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महर्षि दयानन्द की धर्म सम्बन्धी देन

धर्म के सम्बन्ध में अज्ञान अभिशाप बन जाता है। यदि अशिक्षित व्यक्ति बिना जाने धर्म को ग्रहण करता है तो अन्ध विश्वासी बन जाता है और यदि शिक्षित व्यक्ति बिना जाने धर्म को ग्रहण करता है तो वह सर्वथा अविश्वासी नास्तिक बन जाता है। ऋषि दयानन्द के आगमन से पहले धर्म की यही दशा थी। एक ओर धर्म के नाम पर आडम्बर एवं पाखण्ड पनप रहे थे तो दूसरी ओर नास्तिकता फैल रही थी। धर्म के अनुयायियों में विशेष दोष यह आ गया था कि उन्होंने धर्म को आत्मा से सर्वथा दूर कर दिया था। सीधे रूप में यह कहा जा सकता है कि धर्म पालन के लिये आचरण आवश्यक नहीं रह गया था और उसे एक व्यापारिक वस्तु बना दिया गया था।

जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
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कोई भी राष्ट्र धर्म निरपेक्ष नहीं हो सकता -2

Ved Katha Pravachan -6 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

जैसे व्यापार में पैसे से कोई चीज खरीदी जा सकती है या एजेन्टों के द्वारा सारा कारोबार चलता हैठीक इसी प्रकार पैसे से धर्म उपार्जन किया जा सकता है या स्वयं कुछ न करके अन्यों के द्वारा किया जा सकता है। धनिक लोग मद्य मांस तथा वेश्यागमन आदि पाप करते हुए भी दक्षिणा से खरीदे ब्राह्मणों के द्वारा यज्ञ तथा जप आदि कराते थे और उन धनक्रीत धर्माध्यक्षों के द्वारा धर्म के संरक्षक भी घोषित किये जाते थे। इस प्रकार टकों से धर्म संग्रह की सम्भावना बढ जाने पर क्यों कोई झंझट में पड़े तप या साधना के। धर्म के धन का दास बन जाने की एक प्रतिक्रिया हुई कि पापों के क्षमा हो जाने की व्यवस्था चल पड़ी। इतना दान-पुण्य करो और पाप से छुटकारा पा जाओ। इससे कर्म फल व्यवस्था का आधार ही नष्ट हो गया और धर्म की तो जड़ ही कट गई। समाज में कदाचार तथा कुप्रवृत्तियों का बोल-बाला हो गया। चोर डाकू आदि भी देवताओं से वरदान पाने लगेनिज कार्य की सिद्धि के लिये उनकी उपासना आराधना करने लगे। प्रत्येक जघन्य कर्म देव स्तुति से आरम्भ होने लगा। धर्म के नाम पर वाममार्ग की प्रतिष्ठा हो गयी। धर्म के सम्बन्ध में आचरण का जो अंश बचा था वह भी इतना उलझा दिया गया कि किसी भी मनुष्य के लिये उसका पालन सम्भव न रहा। उदाहरण के लिये साल भर में एक नैष्ठिक हिन्दू को 2000 व्रत उपवास करने होते थे। प्रतिदिन 6-7 का औसत पड़ता है। क्या कोई व्यक्ति ऐसे धर्म का अनुष्ठान करते हुए संसार का या अपना कोई अन्य कार्य भी कर सकता है?

जब धर्म का आचरण अथवा आत्मा से सम्बन्ध विच्छिन्न हो गया तो एक और भारी बुराई पैदा हो गई। जन्म के आधार पर लोग धर्म के ठेकेदार बन गये। ब्राह्मण के घर में जन्म लेने मात्र से काला अक्षर भैंस बराबर व्यक्ति भी समाज में गुरुवत्‌ पूजा जाने लगा और शूद्र के घर में जन्मा विद्वान तथा पवित्राचरणशील व्यक्ति भी अनादर एवं दुर्व्यवहार का भाजन हो गया। इससे सारी सामाजिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयीसामाजिक मूल्य नष्ट हो गये। धर्माधिकारियों ने अपनी गद्दियों को सुरक्षित रखने के लिये ऐसे षडयन्त्र रचे कि अधिकांश जनता को अज्ञानान्धकार के गर्त में फेंक दिया गया। एक ने स्त्री जाति को शिक्षा के अधिकार से वंचित किया तो दूसरे ने शूद्रों की शिक्षा पर प्रतिबन्ध लगा दिये। अवस्था यहॉं तक पहुँची कि कुछ लोगों से धन मिल गया तो उन्हें उच्च कुलीनक्षत्रियवैश्य आदि घोषित कर दिया गया और जिनसे धन की प्राप्ति न हुईउन्हें नीच कुलीन शूद्र पतित आदि की क्षेणियों में धकेल दियागया।

वैदिक संस्कृति तथा समाज का नारा था- धर्मादर्थश्च कामश्च। अर्थात्‌ धर्मपूर्वक अर्थ और काम की सिद्धि श्रेयसी होती है। अब इसके विपरीत होगा- अर्थाद्‌धर्मश्च कामश्च। धन से ही धर्म तथा काम की सिद्धि सुगम है। क्रान्तदर्शी ऋषि के सात्विक हृदय पर इस वाम मार्ग ने कड़ा आघात किया। उन्हें लगा कि सब अनर्थों का मूल धर्म सम्बन्धी अज्ञानता है। धर्म के वास्तविक स्वरूप को लोग भूल चुके हैंमूल धर्म से समाज का सूत्र विच्छिन्न हो गया है। ईश्वर और धर्म के वास्तविक स्वरूप का प्रतिपादन हुए बिना अविद्याग्रस्त मानव का कल्याण असम्भव है। इसी लगन और धुन में वे घर परिवार छोड़कर सच्चे ईश्वर की प्राति में जुट गए। निरन्तर 18 वर्ष की दीर्घ तपस्या तथा कठोर साधना के फलस्वरूप उन्होंने अपने अभीष्ट को पा लिया और फिर मानव कल्याण के लिए प्रचार में लग गये। अकाट्य तर्कों तथा युक्ति प्रमाणों के आधार पर सिद्ध किया कि ईश्वर एकनिराकारनिर्विकारसर्वज्ञसर्वव्यापक हैउसी की उपासना करनी चाहिये। जीव अल्पज्ञ हैकर्म करने में स्वतन्त्र हैपरन्तु फल भोग में पराधीन है। फल की व्यवस्था ईश्वराधीन है। ईश्वर भी न्यायकारी हैजीव के कर्मों के अनुसार ही सुख दु:ख रूपी फल देता है। बिना कर्म किए फल नहीं मिल सकता और जो कर्म किया है उसके फल से किसी भी प्रकार छुटकारा नहीं हो सकता। किसी दूसरे के किये हुए कर्म का किसी को कोई फल नहीं मिल सकता। 

यद्यपि सन्त सुधारक इस देश में 14 वीं से 17 वीं शताब्दी तक अनेक हुए,जिन्होंने हिन्दू धर्म में सुधार तथा संशोधन के लिए सराहनीय प्रयत्न किये। परन्तु यह  तथ्य है कि वे समाज एवं जाति की धारा को न मोड़ सके। इसका कारण यही रहा कि वे जाति की ज्ञान चक्षुओं को न खोल सके। ऋषि दयानन्द की अपनी दो विशेषतायें थीं- अखण्ड ब्रह्मचर्य तथा अगाध विद्वत्ता। इन दोनों शक्तियों के बल पर उन्होंने सोये समाज को झिंझोड कर जगाया। संसार के सारे देशी-विदेशी मत-मतान्तरों का तर्क की कसौटी पर विश्लेषण किया। कोई भी धर्म पुस्तक या धर्म प्रवर्तक न बचा,जिसके ऊपर ऋषि की लेखनी न चली हो। ऐसा निर्भीक आचार्य सम्भवत: भूतल पर दूसरा नहीं उतरा जिसने इस प्रकार निर्मम शल्यक्रिया की हो। धर्म के क्षेत्र में श्रद्धा तथा विवेक का ऐसा सामंजस्य कहॉं देखने को मिलेगा,जैसा ऋषि दयानन्द में मिलता है। इसके साथ ही एक बहुत बड़ा उपकार उन्होंने यह किया कि धर्म तथा दर्शन की गूढतम गुत्थियों को जनता की सरल भाषा में ऐसा निबद्ध किया कि उनके महान ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश को पढकर ही मनुष्य धर्म एवं ईश्वर के सम्बन्ध में सब कुछ जान सकता है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं कि सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन से ही साधारण कृषक या दुकानदार धर्म के ऐसे व्याख्याता बन गये कि दूसरे मतों के अच्छे-अच्छे विद्वान्‌ भी उनके मुकाबले में न ठहर सकते थे। सार यह कि ऋषि दयानन्द ने धर्म और ईश्वर के नाम पर चलने वाले आडम्बर-पाखण्डों को छिन्न-भिन्न किया,अनर्थों का निराकरण किया। साथ ही इन दोनों का बुद्धिसम्मत तथा तर्कानुगत स्वरूप इस प्रकार जन भाषा में प्रस्तुत किया कि बुद्धिवादी लोग धर्म का आदर करने लगे और धर्म कुछ विशेष साधन सम्पन्न अथवा सुविधा प्राप्त लोगों की वस्तु न रहकर सर्व साधारण की धरोहर बन गया। उसका सम्बन्ध सीधा आत्मा से जुड़ गया और आचार के आधार पर वह पुन: प्रतिष्ठित हो गया। अन्ध विश्वास और नास्तिकता दोनों पर एक साथ प्रहार हुआ। यह धर्म के सम्बन्ध में ऋषि दयानन्द की देन है। आर्य समाज की स्थापना इसी देन के सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक प्रचार के लिए हुई है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिये विद्या का प्रचार और अविद्या का नाश करने तथा सत्य के ग्रहण करने और असत्य के परित्याग में प्रत्येक को सदैव समुद्यत रहना चाहिये। -रघुवीर सिंह शास्त्री

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When the conduct of religion or the relationship with the soul was severed, another great evil was born. On the basis of birth, people became the contractors of religion. Just by being born in a Brahmin's house, even a person with a black letter buffalo started to worship Guruvata in the society and a scholar and a pious person born in a Shudra's house also became a victim of disrespect and abuse. Due to this, the entire social system was torn apart, social values ​​were destroyed. 

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स्वामी दयानन्द एवं साम्यवाद

ऋषि राज तेज तेरा चहुं ओर छा रहा है।
तेरे बताए पथ पर संसार चल रहा है।।

उपरोक्त पंक्तियों से ऋषि दयानन्द द्वारा मण्डित वैदिक सनातन धर्म की व्यापकता एवं लोगों के उसके अनुगमन पर प्रकाश पड़ता है। लेकिन अभी भी आशातीत रूप में सफलता हासिल नहीं हो सकी है। स्वामी जी का वैदिक धर्म के प्रति अटूट विश्वास, निष्ठा एवं धर्मानुचरण अनुकरणीय था। वैदिक धर्म के अनुशीलन एवं अनुकरण से ही मानव मात्र का कल्याण सम्भव है। स्वामी जी ने तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों एवं वेद की शिक्षाओं तथा आर्य संस्कृति पर पड़ रहे विजातियों के प्रभावों को बहुत ही नजदीक से समझा, परखा एवं आत्मसात्‌ किया था। यही कारण है कि उनकी शिक्षाएं आए दिन की अग्नि परीक्षाओं में कुन्दन-सी दमकती रही। उनके कटु सत्य से ढोल ढकोसला वाले लोग विचलित हो उठे। यद्यपि उनकी शिक्षाएं मानव मात्र के लिए थी, किसी सम्प्रदाय या धर्म विशेष के लिए नहीं थी।

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Ved Katha Pravachan -5 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

जहॉं स्वामी जी की सत्य ज्ञान गंगा में बहुत लोगों ने अवगाहन किया और अपनी जीवन धारा को ही बदल डालावहीं कुछ ऐसे नासमझ लोग भी थे जिन लोगों ने न स्वामी जी को समझा और न वेद की शिक्षा को। फलस्वरूप लोग वेद से अलग हो गये। सदज्ञान से वंचित रह गए। जो चीज उनके ज्ञान की स्रोत थी उसी चीज से विरक्ति हो गई। जो उनके लिए अमृत लाया था वही उनको कुपथमार्गी दिखने लगा। कवि ने कहा-

पिलाया जहर का प्याला इन्हीं नादान लोगों ने।
जिनके लिए अमृत का प्याला ले के आये थे।

इसका दुष्परिणाम यह निकला कि जिसे लोगों ने ज्ञान समझ रखा था वह अज्ञान साबित हुआ। जिस नींव पर अपने ज्ञान का महल खड़ा किया था वह महल ही धाराशायी हो गया। भौतिक जगत की चमक दमक मन को चैन एवं शान्ति प्रदान नहीं कर सकी। आज न चैन धनवान को हैन बलवान को है और न रूपवान को। धन वाले अलग दुखी हैंनिर्धन अलग। वेद विहित मार्ग पर नहीं चलने से चैन किसी को नहीं है और न था। अगर कहीं सुख दिखाई भी दिया तो वह क्षणिक था।  

हर युग और समय की अपनी समस्याएं होती हैं। राम के सामने समस्या थी रावण पर विजय और कृष्ण के सामने पाण्डवों को राज्य प्राप्त करानेकी। स्वामी जी के सामने कुछ और ही समस्या थी। स्वामी जी के सामने तो एक रावण या एक कौरव कुल नहींहजारों रावण एवं हजारों कौरव कुल थे। उनकी समस्या थी वेदों का प्रचारछुआछूत का अन्तढोंग पाखण्ड का खण्डन एवं स्वराज्य प्राप्ति। लोगों में व्याप्त अनास्था को आस्था में बदलना कोई सरल काम नहीं था। यह समुद्र मन्थन से भी कठिन काम था। जिनके लिए उन्होंने अपना सर्वस्व होम किया वही उन्हें दुश्मन समझते थे।

प्राच्य संस्कृति के धर्मअर्थकाम एवं मोक्ष के महत्व और गहनता से अनभिज्ञ कुछ पाश्चात्य विचारकों ने अर्थ को ही जीवन के सत्य के रूप में प्रतिष्ठित किया। मानव जीवन का चरम लक्ष्य अर्थ प्राप्ति ही माना जाने लगा। आर्थिक समानता के नाम पर नये ढंग से शोषण का सूत्रपात हुआ। साम्यवाद की शिक्षा कहती है कि पूंजीवादी समाज में पूंजीपतियों द्वारा मजदूरों का शोषण होता है। लेकिन उनकी व्यवस्था में सर्वहारा वर्ग के अधिनायकवाद में बहुसंख्यक द्वारा अल्पसंख्यक का शोषण होता है। इस चीज को नजर अन्दाज कर दिया गया। साम्यवादी समानता मात्र आर्थिक समानता तक ही सीमित लगती है।साथ ही मानवीय जीवन के अन्य आदर्श अछूते लगते हैं।

वैदिक समानता का सिद्धान्त अपने आप में निराला है। सभी मानवों के लिए वेदों के ज्ञान ग्रहण की समानता उत्कृष्टतम व्यवस्था का प्रतीक है। साथ ही धनोपार्जन के लिये संयमित प्रयास की आवश्यकतासाधन की पवित्रता एवं साध्य की उत्कृष्टता सम्बन्धी वैदिक सन्देश व्यवस्था वह व्यवस्था है जिसमें गर्भाधान से लेकर मृत्यु पर्यन्त तक के मानवीय व्यवहार को व्यवस्थित करने का प्रावधान है। आचार शुद्धि के बाद ही आर्थिक समानता का वास्तविक लक्ष्य प्राप्त कर सकना सम्भव है।

स्वामी जी के आदर्शों एवं पवित्र निर्देशों के अनुरूप अगर चला जाये तो निस्सन्देह वसुधैव कुटुम्बकम्‌ हो सकता है। लेकिन आज भौतिकवादी चकाचौंध में भूलकर मानव ने अपना स्वरूप ही खो दिया है। आये दिन हो रहे युद्धआतंक और विश्व में हुए व्यवस्था परिवर्तन नि:सन्देह आधुनिक युग में मानव सुख प्राप्ति के लिए हो रहे प्रयास की असफलता की कहानी है। काश !  आज का मानव पुन: एक बार ऋषि के त्याग एवं तपस्या के महत्व को समझ पाता। जिन मूल्यों के लिए उन्होंने अपना बलिदान कियाउन मूल्यों को मानव अपने जीवन का आदर्श बना पाता तो महर्षि का परिश्रम बहुत अंश में आर्थक होता।

सुख चैन चाहते हो तो वेद को देखो।
आनन्द चाहते हो तो दयानन्द को देखो।।-रामचन्द्र सिंह क्रान्तिकारी

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दीवाली का देवता और वेद

दीपमाला का पर्व प्रतिवर्ष आता है। भारतवासी देश में हैं अथवा विदेशों में, अपनी-अपनी भावना व धारणा के अनुरूप इसे अपने-अपने स्थानों पर मनाते हैं। पर्व व्यक्ति, परिवार, समाज एवं राष्ट्र के विशाल शरीर व जीवन में समय-समय पर आने वाली न्यूनता अथवा त्रुटियों को पूर्ण करने का एक मौन सन्देश दे जाता है। इस दिन प्रत्येक अपने बही खाता की जांच पड़ताल करता है कि क्या पाया और गंवाया। जहॉं भी किसी प्रकार की हानि हो उसे नये वर्ष से लाभ में बदलने का संकल्प किया जा सकता है। पर्व जीवन में प्रेरणा व चेतना का सबसे बड़ा साधन है। इस की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। आर्यसमाज भी दीवाली का पर्व यत्र-तत्र-सर्वत्र समारोह से मनाता है।

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वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
मनुष्य सबसे श्रेष्ठ है, मानव निर्माण के वैदिक सूत्र
Ved Katha Pravachan -7 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

इस पर्व का सम्बन्ध आर्य समाज के महान्‌ संस्थापक महर्षि स्वामी दयानन्द जी सरस्वती के साथ है। इस दिन अजमेर नगर में भिनाय भवन में उस देवता ने अपने भौतिक जीवन की आहुति देकर विश्व को एक महान्‌ सन्देश दिया था। वेद में आता है- मा यज्ञादिन्द्र सोमिन:। हे मनुष्यो! उस वेद प्रचार व धर्म प्रसार के महान्‌ यज्ञ से विचलित मत होना। उस वेद प्रचार के पुनीत पथ पर निरन्तर बढते जाना तथा इस वेद प्रसार के महान्‌ यज्ञ में तन-मन-धन व जीवन की हर प्रकार की आहुति श्रद्धा भावना से भरकर देते चले जाना।

उस देवता दयानन्द ने अपना सारा जीवन लगा दिया। गुरु दीक्षा के बाद वह एक ही व्रत के व्रती बन गये। संकल्प के संकल्पी बने। एक ही कल्प के कल्पकार तथा एक ही पथ के पथिक बनकर महान्‌ कार्य क्षेत्र में उतरे। अपने अन्तिम दिन भी सभी को यही दिव्य सन्देश दिया कि आर्यो ! मेरे पीछे खड़े हो जाओ। कभी-कभी ऋषि सरल सूत्र में सारा सन्देश दे जाते हैं। देव दयानन्द ने अपना जीवन जिस महान्‌ मिशन में अर्पित कियावह था वेद का विश्व में प्रचार और वैदिक धर्म का सर्वत्र प्रसार। मथुरा गुरुधाम से बाहर कार्यक्षेत्र में आकर वेद प्रचार का कार्य ही उनके जीवन का व्रत बन गया। इतो वेदा: ततो वेदा: सर्वत्र वेदा: एव। इस दिशा में वेद फैलेउस दिशा में वेद फैल जायेंसभी स्थानों पर वेदों का प्रचार होता जाये- यही उनके जीवन का एकमात्र ध्येय बन गया। यही निष्ठा थीइसी को व्रत का रूप दे दिया। प्रलोभन की चमकीली राहों में तथा लुभाने सुहाने दृश्यों मेंभीषण यातनाओंघोर विपदाओंभारी अपमान के वातावरण में भी उस वेद प्रचारकधर्म प्रसारकविश्व सुधारकव्रतधारकसर्वजीवोपकारकदीन दलितोद्वारक देव दयानन्द का पांव तनिक भी नहीं लड़खड़ाया। न्यायात्पथ: प्रविचलन्ति पदं न धीरा: - के अनुसार न्यायपथ के उस महान पथिक को किसी प्रकार भी विचलित न किया जा सका। ध्रुवस्तिष्ठाविचाचलि: - वेद के शब्दों के अनुसार वह देवता वेद प्रसार के कार्य में अविचल व अविकल अटल रहे।

इस धरती पर समय-समय पर नानाविध व्यक्ति आयेकार्य क्षेत्र में भी उतरे तथा हलचल भी मचाई। किन्तु कुछ समय के बाद पथ से डांवाडोल हो गये। कोई सत्ता के सूत्रों में सम्बद्ध हो गया तो कोई सौन्दर्य का स्तोता बनकर सुन्दरियों का सेवक बन बैठा। कोई गुरुडम का डमरू बजाने लगा। कोई स्वर्ण के भण्डार का भण्डारी बनने में ही मस्त हो गया। कोई भय से ही भाग गया। पर धन्य हैं देव दयानन्द जीवन में जो व्रत लिया उसी पर अटल रहे। उनके सामने काम बेकाम बनकर भागा। सुन्दरियॉं दरियों में जा छिपी। धन का प्रभाव स्वयं प्रभावहीन हो गया। सत्ता अपनी महत्ता समाप्त कर बैठी। दीवाली का देवता दयानन्द अपने वेद प्रचार के महान्‌ पुनीत व्रत में निरन्तर अडिग रहा।

उनका व्रत था वेद का प्रचार। आर्य समाज की स्थापना भी इस महान्‌ कार्य के लिए की गई। पहिले वेद का कोई नाम भी न जानता था। वेद की पवित्र पुस्तक कहीं होगी तो किसी के घर में पता नहीं कहॉं छिपाई थी। वेद मन्त्रों का पाठ व उच्चारण कौन करता थाइस बारे में तो एक धारणा बन गई थी कि वेद को वृत्रासुर ले गया है। अब वेद धरती पर हैं नहीं। अमेरिका में अपने प्रवचनों में स्वामी विवेकानन्द तक ने भी वहॉं की जनता को उत्तर दिया कि वेद तो अब हैं नहींशंकर ने अपने वेदान्त भाष्य में वेदों के सार्वजनिक पठन-पाठनश्रवण-श्रावण पर प्रतिबन्ध लगा दिया था।

दूसरी ओर वेदों को बदनाम करने में भी उस समय के विद्वानों ने कोई भी कसर नहीं उठा रखी थी। यज्ञों में क्या थावेदमन्त्रों को किस-किस प्रसंग में लगा रहे थे। सायण हो या महीधरइन लोगों ने मन्त्रों के भाष्य में वह पाप किया जो रहती दुनिया उनको कलंकित करता रहेगा। ऐसा पापमय भाष्य करते उनको तनिक भी लज्जा नहीं आई। सातों समुद्रों का जल भी उनके इस कलंक को धो नहीं सकेगा।

स्वामी दयानन्द वेदों वाले थे। वेद उनको बहुत प्यारे थे। यह इनकी निष्ठा थी कि वेदों का सर्वत्र प्रचार हो। बाकी सभी बातें गौण थी, पर वेद प्रमुख था। दीवाली पर अन्तिम समय में भी यही सन्देश दिया कि मेरे पीछे खड़े हो जाओ। जो वेद प्रचार का कार्य मैं करता रहा हूँ, उसी को करते जाना। वेद पथ पर चलते रहना। अत: स्वामी दयानन्द जी का सबसे बड़ा यही प्रमुख सन्देश है कि वेदों को घर-घर जन-जन तक पहुँचा दो। वेद के बिना कोई परिवार, कोई संस्था, कोई प्रदेश, मनुष्य न रहे। यह उस देवता दयानन्द का सबसे प्रमुख दिव्य सन्देश है। - त्रिलोक चन्द्र शास्त्री

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