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  • अखण्ड भारत के स्वप्नद्रष्टा थे वीर सावरकर

    वीर सावरकर उन दूरदर्शी राजनीतिज्ञों में थे, जो समय से पहले ही समय के प्रवाह को अच्छी तरह समझ जाते हैं। जब भारत विभाजन की चर्चा चल रही थी, तो भारत विभाजन के बाद क्या-क्या परिस्थितियां इस देश को देखनी होंगी, सावरकर जी को इसका अनुमान बहुत पहले था और इसीलिए स्थान-स्थान पर जाकर उन्होेंने हिन्दू महासभा के नेता के रूप में अपने भाषणों में तथा अपनी लेखनी के माध्यम से देश को सावधान किया कि भारत-विभाजन का परिणाम किस रूप में देश को भुगतना पड़ेगा।

    सावरकर जी ने भारत विभाजन का खुलकर विरोध किया था। वे अखण्ड भारत के महान्‌ स्वप्न द्रष्टा थे। वे कांग्रेस को भारत विभाजन का अपराधी मानते थे। कम्युनिष्टों की राष्ट्रद्रोहिता का समय-समय पर उन्होेंने भण्डाफोड़ किया था। चीन भक्त कुछ कम्युनिष्ट भी उनकी राष्ट्रभक्ति पर अंगुली उठाने का दुस्साहस करते रहे हैं।

    Ved Katha Pravachan _81 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    जब सावरकर जी 1857 की क्रान्ति के शताब्दी समारोह में 1957 में दिल्ली पधारे थेतो उस समय हमारे देश के चीन के साथ बड़े भाईचारे के सम्बन्ध थे और "हिन्दी चीनी भाई-भाईका नारा बुलन्द हो रहा था। लेकिन वीर सावरकर की पैनी आंखों ने इसके पीछे झांकते हुए उस दुरभिसन्धि को देखा और एक भयंकर भविष्य की कल्पना की। जब हमने चीन तथा अन्य बौद्ध देशों को अपने निकट लाने के लिए बुद्ध जयन्ती का कार्यक्रम रखा था और उस पर बहुत अधिक व्यय किया था तो वीर सावरकर जी ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एक नारा लगाया था कि ""भारतवासियों को आज यह निर्णय करना है कि उन्हें बुद्ध चाहिए या युद्धहम इन दोनों में से किस एक मार्ग को पकड़कर चलना चाहते हैं?'' 1962 के चीनी आक्रमण और 1964 के पाक आक्रमण के समय हमें यह याद आया कि 1957 में उस दुरदर्शी राजनीतिज्ञ ने जो नारा दिया था "युद्ध या बुद्धकाउसमें कितनी दूरदर्शिता थी कि हमको प्रत्यक्ष उसका अनुभव हुआ।

    वीर सावरकर ने अपनी जिन्दगी का अधिकांश भाग भारतीय स्वाधीनता संग्राम में झोंक देने और अण्डमान की काल कोठरी में यातनाएँ सहन करने के बाद कांग्रेस की तुष्टीकरण और दब्बू नीति के दुष्परिणामों का मुकाबला करने के लिए हिन्दू संगठन को इस युग की भारी आवश्यकता माना तथा इसीलिए उन्होंने हिन्दू महासभा का नेतृत्व स्वीकार कर जहॉं एक ओर 700 वर्षों तक गुलामी में रहे हिन्दू समाज में राजनीतिक चेतना उत्पन्न कीवहीं हिन्दू समाज में व्याप्त अस्पृश्यताछूआछूत तथा अन्य कुरीतियों पर बज्र प्रहार भी किया। अस्पृश्यता निवारण को उन्होंने नारेबाजी का रूप न देकर रचनात्मक रूप दिया।

    वे भारत को हर दृष्टि से शक्तिशाली देखने के इच्छुक थे। इसीलिए उन्होंने सदैव "सैनिकीकरणकी मांग की। उनका यह दृढ़ मत था कि जब तक भारत रूस और अमेरिका की तरह सैनिक दृष्टिकोण से शक्तिशाली न बनेगातब तक उसे बाहरी देश से खतरा बना ही रहेगा। हिन्दू महासभा के प्रत्येक अधिवेशन और सम्मेलनों में उन्होंने भारत का सैनिकीकरण करने तथा विदेश नीति का आधार सुदृढ़ एवं जैसे को तैसा बनाने पर जोर दिया। वे अखण्ड भारत के समर्थक थे। इसीलिए सन्‌ 1965 में भारतीय विजयवाहिनी सेना के लाहौर की ओर कूच करने के समाचार ने रोगशैया पर पड़े इस वयोवृद्ध सेनानी के अन्दर स्फूर्ति उत्पन्न कर दी थी। किन्तु ताशकन्द समझौते ने उनकी आशाओं पर पानी फेर दिया और फिर उनके लिए एक-एक क्षण जीना दूभर हो गया था।

    ऐसे महान्‌ राष्ट्रपुरुष को साम्प्रदायिक बताने वाले तथा उन पर अंगुली उठाने वाले स्वयं देश को साम्प्रदायिकता की आग में झोंकते रहे हैं। 1962 में भारत पर आक्रमण करने वाली चीनी सेना को "मुक्ति सेनाबताने वाले कम्युनिस्टों की दृष्टि में चीन को मुहंतोड़ उत्तर देने के आकांक्षी सावरकर जी खटकने स्वाभाविक ही हैं। सावरकर जी जैसी महान्‌ विभूति पर आरोप लगाने वालों को इतिहास कदापि क्षमा नहीं करेगा। प्रकाशवीर शास्त्री

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    Savarkar ji openly opposed the partition of India. He was the great dreamer of Akhand Bharat. He considered Congress to be the culprit of Partition of India. From time to time he had busted the national treason of the communes. Some devotees of China have also been daring to raise a finger on their patriotism.

     

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  • अजन्मी बेटी की पुकार

    कन्या का वध देख रहा है मौन जगत यह सारा।

    हुआ जमाना आज अजन्मा बेटी का हत्यारा।।

    रोकर कहे अजन्मी बेटी, मुझे न मारो माता।

    मेरे साथ तुम्हारा क्या अब शेष न कोई नाता?

    भूल हुई क्या मुझसे जननी? जो तुम इतना रूठी,

    बान्ध रखी मन में तुमने ऐसी क्या दुविधा झूठी?

    मॉं मैं अंश तुम्हारा हूँ, जीने दो मुझे, न मारो।

    मुझे गर्भ में बढ़ने दो मॉं! प्यार करो पुचकारो।।

    धड़क रहा दिल डर से मेरा, भय से कॉंप रही हूँ।

    अपनी लुटती-पिटती जीवन रेखा नाप रही हूँ।।

    मुझे राह दे दो जीवन की, दे दो तनिक सहारा।

    हुआ जमाना आज अजन्मी बेटी का हत्यारा।।

    प्यारी मॉं! मुझको मत मारो, मुझको भी जीने दो।

    छाती से चिपटाकर मुझको ममतामृत पीने दो।।

    तीन माह बीते हैं मुझको गर्भ तुम्हारे आए।

    भूल हुई क्या मुझसे मॉं? कोई तो मुझे बताए।।

    नहीं बनूंगी बोझ तुम्हारा, जग में नाम करूंगी।

    देखेगी सारी दुनिया, मैं ऐसा काम करूंगी।।

    बेटों को सब दे देना, मैं तुमसे कुछ ना लूंगी।

    किरण, कल्पना, प्रतिभा  सा भारत को गौरव दूंगी।

    बुझे न मेरा जीवन-दीपक, होने दो उजियारा।

    हुआ जमाना आज अजन्मी बेटी का हत्यारा।। 

    तेरे सारे काम करूंगी, बनकर तेरी दासी।

    सह लूंगी सारे दुःख पीड़ा, रहकर भूखी प्यासी।।

    मन्दिर-मेला मुझे घुमाने कभी न लेकर जाना।

    बेटों के संग जाना, मेरी खातिर कुछ न लाना।।

    जो देगी तू खा लूंगी मैं, जो देगी पी लूंगी।

    खेल खिलौने, गुड्‌डा गुड़िया के बिन मैं जी लूंगी।

    किन्तु गर्भ में मुझे न मारो, सुन लो मेरी विनती।

    चाहे मुझए न गिनना, जब होगी बेटों की गिनती।।

    अपना जीवन दान मांगते, मैंने हाथ पसारा।

    हुआ जमाना आज अजन्मी बेटी का हत्यारा।।

    बेटों को बंटवारा देना, मुझे न देना हिस्सा।

    किन्तु पिता! मुझको मत मारो, खत्म करो मत किस्सा।।

    बेटे जब तक साथ रहेंगे, जब तक हैं वे क्वारे।

    जीवन भर जब चाहो मॉं! आना बेटी के द्वारे।।

    साथ तुम्हारे बीस बरस रह, दूर चली जाऊँगी।

    एक साल में एक दिवस को राखी में आऊंगी।।

    तुम्हारे पिता! अजन्मी इस बेटी पर दया दिखाओ।

    मुझे जन्म से पूर्व न मारो, मुझे न दूर हटाओ।।

    डूब रही है मेरी नैया, सूझे नहीं किनारा।

    हुआ जमाना आज अजन्मी बेटी का हत्यारा।। - हरिराम आर्य

     

    Ved Katha Pravachan -7 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

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    Unborn daughter crying and saying, Don't kill me mother, Do you have any relationship with me now?, Did I forget mother? Which you are so angry, Have you kept such a dilemma in mind?, I am your part, let me live, do not kill me, Let me grow in the womb! Love make love, My heart is beating with fear, I am trembling with fear, I am measuring my lost life line, Give me the way of life, give me a little support, Today is the time, the killer of unborn daughter, Dear mother! Do not kill me, let me live also, Let me drink Mamatamrit by sticking it on the chest.

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  • अनर्थों से बोझिल मानसिकता

    साहित्य और समाज में बड़ा गहन सम्बन्ध होता है। साहित्य में वही होता है जो समाज में प्रचलित है और समाज में वही प्रचलित है होता है जो साहित्य में सुरक्षित है। समाज की रीती-रिवाज, परम्परायें, मर्यादायें, मन्यताएँ व्यवहार आदि वे आधार है जिन पर समाज रूपी भवन अवस्थित रहता है। साहित्य वह साधन है जो इस अवस्था को बनाये रखता है। धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक, शैक्षणिक अदि जितने भी क्षेत्र है वे सभी हमारी व्यवस्था के अंश है और इन सभी से हमारा जीवन सदैव प्रभावित भी होता रहता है। न केवल प्रभावित होता है अपितु हमारी मानसिकता, जिसके आश्रय पर हम हमारा जीवन चलाते है, उसका निर्धारण भी होता है। सामाजिक, राजनैतिक, शैक्षणिक अदि व्यवस्थायें कहीं न कहीं हमारे स्वार्थों या आवश्यतकाओं से अधिक जुड़ी होती हैं जबकि धार्मिक व्यवस्था हमारी आस्था से अधिक बंधी होती है। 

    Motivational speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
    Greatness of India & Vedas | गौरवशाली महान भारत -1

    आवश्यकता के साथ नियम की बद्धता अधिक रहती है जबकि धार्मिक क्षेत्र के अपने नियम होते हुए भी वे आस्था के सामने बौने हो जाते है। इसी छूट का लाभ उठाकर ममध्यकाल में स्वार्थी दम्भी और समाज का शोषण करने की वृति वाले लोगों ने जिस साहित्य सृजन किया उसमे उनकी यह मानसिकता तो स्पष्ट रूप से झलकती ही है साथ ही साथ इस उपरोक्त छूट का लाभ भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। क्योंकि संस्कृत उस समय की एक प्रतिष्ठात भाषा होने के साथ-साथ विद्वता की कसौटी भी थी अतः संस्कृत भाषा में ही उस साहित्य का निर्माण हुआ। जन सामान्य की इस धारणा ने कि संस्कृत में जो ग्रन्थ लिखे गए हैं वे ही शास्त्र हैं और शास्त्र कभ झूठे नहीं हो सकते वे सभी के लिए आचरणीय हैं इस कार्य में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

    आज भी कोई गंवार से गंवार एवं शिक्षित से शिक्षित मनुष्य भी उन ग्रन्थों को देखकर एक बार तो चक्कर खा जाता है कि वास्तव में यह सब कुछ लिखा हुआ है। एक अन्य कारण उन ग्रन्थों की मान्यता का यह बना कि धूर्त एवं चालाक लोगों ने उन ग्रन्थों की रचना अपने नाम से न करके ऋषियों के नाम से की और अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए ऋषियों के बनाये हुए ग्रन्थों में भी प्रक्षेप कर दिया कि जिससे उनकी बात की पुष्टि हो सके। पुराण, गृह-सूत्र, विभिन्न ऋषियों के नाम से स्मृतियां, कर्म-काण्ड के विभिन्न ग्रन्थ, सैकड़ों उपनिषदें अदि न जाने कितना विपुल साहित्य रचा गया जिसमें सीधे और सरल वैदिक धर्म के मार्ग को अत्यन्त दुरूह, पेचीदा और उलझन भरा बना दिया। निरंकुशता की इस दौड़ में कोई भी पीछे न रहा और जो कुछ संस्कृत भाषा में लिख जाता रहा लोग अन्धे बन कर उसे अपनाते रहे जिसके फलस्वरूप समाज में अनेकों कुरीतियों ने जन्म लिया और समाज विकृत हो गया। अर्थो के अनर्थ होने से दूषित एवं विकृत मानसिकता का जन्म हुआ जिसे हम आज तक ढो रहे हैं जिसका बोझ भी समाज को दुःखपूर्ण बनाये हुए है। यह बोझ उस फोडे के समान है कि जिसका भार भी उठाना पड़ता है और दर्द भी सहना पड़ता है।

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    विदेशी लोगों ने जिस समय संस्कृत पढ़ी, उपरोक्त कल्पित ग्रंथों को पढ़ा तो बहती गंगा में हाथ दोने से वे भी न चूके। भ्रमित बुद्धि के वेदों के भाष्यकारों सायण, महीधर एवं उव्वट आदि की भाष्यों से उन्हें कर अधिक बल मिला और अपनी बात सिद्ध कनर में उन्हें अधिक कठिनाई नहीं हुई। भारतीय क्योंकि विदेशियों के चंगुल में थे अतः उनके रीती-नीति का प्रभाव पड़ना एक स्वाभाविक सी बात थी। अशिक्षित वर्ग तो यह मान ही चूका था कि विदेशी लोग बड़े विद्वान योग्य एवं समर्थ हैं इसके साथ-साथ शिक्षित वर्ग भी उनकी चमक दमक से प्रभावित होकर उनका अनुचर बन गया। पेटार्थी और धूर्त लोगों को समाज से कुछ लेना देना ही न था उनका तो हलवा मांडा ठीक से चलता रहे, पुरोहिताई का कार्य इसी प्रकार से प्रतिष्ठापूर्वक चलता रहे और लोग ''दादाजी'' के पांव पड़ते रहें यही मानों अन्तिम एवं परम लक्ष्य था। जो कुछ ब्रम्हदेव जी कह रह हैं उसको पलटने की शक्ति तो किसी में न थी फिर सामान्य मनुष्य की तो गाथा ही क्या? यदि कोई स्वतंत्र रूप से सोचना चाहे तो, 'क्या तुम देवताओं से भी बड़े हो, क्या ऋषि-मुनियों से बड़े हो, क्या तुम्हारे पूर्वज इस सनातन धर्म को न मानते थे, क्या शास्त्र झूठे हैं, ''आदि -आदि वाक्य सुनने को मिलते जिसका उनके पास कोई उत्तर न होता।  

    इस सारे वातावरण ने जो कि एक लम्बे समय तक चला, समाज की सोचने की एक ऐसी धारा बना दी जिसने एक कुंठित, दासत्व, अंधविश्वासी और अन्धश्रद्धा वाली मानसिकता को जन्म दिया। यह एक परीक्षित सत्य है कि एक झूट को भी यदि व्यापक स्तर पर बार-बार बोला जाये तो वह सत्य ही प्रतीत होता है। धर्म के नाम पर परोसा जाने वाला अधर्म लोगों के मनों में इस गहराई तक उतरता चला गया उन्होनें तर्क को ताक पर रख दिया और बाबा वाक्यं प्रमाणम' के अनुसार अपने पूर्वजों के कर्मों को अपना कर लकीर के फ़क़ीर बने रहना ही सर्वोत्तम समझा रामफल सिंह आर्य

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    At the time when foreign people read Sanskrit, they read the fictional texts mentioned above, but they could not be missed even with a hand in the flowing Ganges. The Vedas of the illusory intellect of the Vedas, Sayan, Mahidhar and Uvvat, etc., gave them more strength and they did not have much difficulty in their words. Indians were in the clutches of foreigners, so it was a natural thing for their customs to take effect. The illiterate class had only assumed that foreigners are capable and capable of great scholarly, as well as the educated class, influenced by their brightness, became their follower.




    All this environment which lasted for a long time created a stream of thinking of society which gave rise to a dull, slavery, superstitious and superstitious mentality. It is a tested truth that even if a lie is spoken on a wide scale, it appears to be true. The unrighteousness served in the name of religion went down in the minds of the people to this depth, they put the logic on the table and according to Baba Sankam Pramanam, it was best to follow the deeds of their ancestors and keep the line for good - Ramphal Singh Arya 

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  • अमर बलिदानी ऊधम सिंह - १

    जिन बुद्धिजीवियों ने ब्रिटिश कालीन भारतीयों इतिहास का अध्ययन गहरई से किया है वे भली-भांति जानते हैं कि भारत-माता को दासता से मुक्त करने हेतु कुछ लोगों ने संवैधानिक मार्ग अपनाया तो कुछ उत्साहित लोगों ने हिंसात्मक मार्ग अर्थात् ''कांटे को कांटे से ही निकालने'' की नीति के अनुसार इन लोगों ने व्यक्तिगत रूप से ही यह मार्ग स्वीकार कर अपना कार्य स्वयं आरम्भ कर दिया। सर्वधर्म के समभाव के प्रतीक 'राम मोहम्मद सिंह आजाद' नाम धारी प्रसिद्ध क्रांतिकारी भाई ऊधमसिंह आतंक का उत्तर आंतक की भाषा में देते थे। यही एक ऐसे जवां मर्द क्रान्तिकारी थे, जिन्होंने भारत में अत्याचार कर रहे ब्रिटिश अधिकारीयों को उनके गृह-नगर में घुसकर उनके अत्याचार का बदला लेकर यह सिद्ध कर दिया कि भारतीय युवा भी किसी से कम नहीं हैं।

    ''यह काम मैंने इसिलए किया, क्योंकि मुझे उस व्यक्ति से चिढ थी। वह असली अपराधी था, उसके साथ ऐसा ही किया जाना चाहिए था। वह मेरे देश की आत्मा को कुचल देना चाहता था। इसलिए मैंने उसे कुचल दिया। पूरे २९ वर्ष तक मैं बदले की आग में जलता रहा। मुझे खुशी है कि भाइयों के लिए मर रहा हूं। मैं अपने देश के लिए मर रहा हूँ। क्या लार्ड जेटलैंडर मर गया। मैंने उसे भी गोलियां मारी थीं। मैंने अपने देशवासियों को भूखा मरते देखा है। यह मेरा कर्तव्य था। और क्या सम्मान हो सकता है कि मैं मातृ भूमि के लिए मरा।''

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    वेद कथा - 5 | Rashtra | राष्ट्र धर्मनिरपेक्ष नहीं होता -1 | क्रांतिकारी वीरों का धर्म हेतु बलिदान

    हमारे प्रिय चरित्रनायक ऊधम सिंह का जन्म २९ दिसम्बर १८९९ को पंजाब के संगसूर जिले में स्थित सुनाम गाँव में हुआ था। इनके पिता श्री का नाम सरदार टहल सिंह था। दुर्भाग्य वश ऊधम सिंह के बाल्यकाल में ही इनके पिता की मृत्यु हो गई और इनकी सहायता के लिए कोई भी सगा-सम्बन्धी आगे नहीं आया। ये अपने छोटे भाई साधूसिंह के साथ भटकते हुए अमृतसर के पुतलीबर अनाथालय के द्वार के आकर ठिठक गये। यही इनकी एक समाजसेवी ने सहायता की अरु उन्हें ऊतक अनाथालय में रहकर इन्होंने मामूली पंजाबी भाषा एक साथ ही साथ हिन्दी और उर्दू लिखना-पढ़ना सीखा। किशोरावस्था में इन्होंने कुछ शिल्प सीखकर एक कारीगर के रूप में अपना स्वावलंबी जीवन व्यतीत करना प्रारम्भ कर दिया। इसी अवधि में इन्होंने अंगेजी भाषा का ज्ञान प्राप्तकर लिखना-पढ़ना सीख लिया।

    सन् १९१९ की बैसाखी-पर्व इनके जीवन में एक नया मोड़ लाया। उस समय इनकी आयु १९-२० वर्ष की रही होगी। १३ अप्रैल १९१९ को बैसाखी पर मनाने हेतु अमृतसर में हजारों नागरिक इकट्ठे हुए थे। वे सभी नई फसल का उत्सव मनाने हेतु वहां बड़ी धूम-धाम से नाच-गा रहे थे। अमृतसर के जलियावाला बाग में उस दिन प्रायः २० हजार लोगों में श्री हंसराज, डा० सत्यपाल और डा० सैफुद्दीन किचलू के गिरफ्तारी की चर्चा हो रही थे। बड़े जोर शोर से वक्तागण इन नेताओं की गिरफ्तारी के परिणामों की व्याख्या कर रहे थे। ज्ञातव्य है कि जलियांवाला बाग वास्तव में कोई बाग नहीं था वरन् एक विशाल मैदान था। इस मैदान में न तो कोई पेड था और न पानी भरा तालाब था। यहा चारों ओर खूब लम्बी घास उगी हुई थी। सभी लोग वक्ताओं के भाषण सुन रहे थे, सभा में गजब का अनुशासन था।

    जब यह सब कुछ शांत भाव से चल रहा था, तभी जलियांवाला बाग बाजार की तंग गलियों से होते हुए ब्रिटिश सिपाहियों के दो दस्ते बाग एम् पहुँचे। उन्होंने मोर्चा लगाकर भीड़ की ओर राइफलें (बंदूकें) तान लीं और गोली चलाना प्रारम्भ कर दिया। इतने में ब्रिगेडियर जनरल ई०एच०डायर ने सैनकों को और तेजी के साथ फायरिंग करने का आदेश दिया। ऊधम सिंह उस समय वहां उपस्थित थे और उन्होंने डायर को यह आदेश देते समय अपने कानों से सुना था। उस समय शाम के साढ़े पाँच बजे थे और सूर्य आकाश में चमक रहा था। दस मिनट तक ब्रिटिश सैनिकों की गोलियाँ सतत् चलती रहीं। मिनटों में इस बाग में खून की नदियाँ बह निकली और चारो ओर लाशें बिखरी पड़ी थी। थोड़ी देर में रात्रि का काला अंधियारा फैल गया। और..।

    इस नरसंहारक का नायक जनरल डायर था। उसने हण्टर आयोग को बताय कि ''उसने यह फैसला तब लिया, जब वह अपनी मोटरकार से वहाँ पहुँचा, उसने मन में सोचा और देखते-देखते हजारों को मौत की नींद सुला दिया।'' उसने लोगों को चेतावनी भी नहीं दी तथा जिले के डिप्टी कमिश्नर से सलाह लेना भी उचित नहीं समझा। उसने आयोग को बताया कि ब्रिटिश राज्य की जड़ों को मजबूत करना उसका कर्तव्य था। एक भीषण अरु खून भरा निणर्य। वह अमृतसर के लोगों को एक सबक सीखना चाहता था। - मनुदेव 'अभय' विद्यावाचस्पति

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    The famous revolutionary brother Udham Singh used to answer terror in the language of terror. It was such young men who revolutionized the British officers who were being tortured in India by entering their hometown and taking revenge for their atrocities, proving that Indian youth are also no work for anyone.

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  • अमर बलिदानी ऊधम सिंह - २

    उल्लेखनीय है कि हण्टर कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार वहाँ १६५० राउण्ड की गोलियां चलाई गई और ५१३ व्यक्ति मौत के घाट देखते -देखते उतार दिये गये। वह अपने साथ २५ गोरखा जवान, २५ बलूची जवान जो राइफलों लैंस थे, तथा ४० खुकरी लिए गोरखे और बख्तरबन्द गाड़ियां ले गया था। उसके कुकृत्य की सराहना ले० गवर्नर सर माइकेल ओ डायर ने की थी। वह सैनिकों में आत्म विश्वास बढ़ा रहा था। पर परिणाम स्वरूप जालियाँ वाला बाग के ३ प्रमुख खलनायक थे- १. पंजाब का लेफ्टिनेंट गवर्नर सर माइकेल ओ डायर २. सैनिक अधिकारी ब्रिगेडियर जनरल ई.एच.डायर और भारत का सैक्रेटरी ऑफ़ स्टेट ३. लार्ड जैटलैंड। स्मरण रहे, ऊधम सिंह ने जलियाँवाला बाग का हत्याकाण्ड अपनी आँखों से देखा था।

    Motivational speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
    वेद कथा - 6 | राष्ट्र धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकता - 2 | राष्ट्र धर्म हेतु बलिदान देश भक्त क्रांतिकारी

    वीर ऊधम सिंह ने इन तीनों खलनायकों से खून का बदला लेने की प्रतिज्ञा की। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे सर्वप्रथम दक्षिण अफ्रीका गए और फिर वहां से अमेरिका पहुँचे, वहाँ पहुँचकर उन्होंने भारत की आजादी के लिए संघर्षरत क्रांतिकारियों से भेंट की। वे सन् १९२३ में इंग्लैंड गए। सन् १९२८ में भगत सिंह को तुरन्त बुलाये जाने पर वह भारत लौट आये। लौहार पहुँचते ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया और उन्हें आयुध नियम के उल्लघन के में ४ वर्ष की कठोर सजा दी गई। २३ मार्च १९३१ को जब भगत सिंह को फाँसी की सजा दी गई, तब ऊधम सिंह वहीँ दूसरी जेल में थे। वे १९३१ में जेल से रिहा हुए, तो उन्होंने अमृतसर में एक दुकान खोली जिसके साइन बोर्ड पर उनका नाम राम मोहम्मद सिंह आजाद' लिखा हुआ था।

    वे सन् १९३३ में पुलिस को चकमा दे कर जर्मनी चले गये वहाँ से बर्लिन होते हुए लन्दन पहुँचे। यहाँ उन्होंने अपने कई नाम बदले। उनके मन-मस्तिक में जलियाँवाला बाग छाया हुआ था और वह प्रतिशोध की आग में जलते रहे। तब तक जनरल डायर मर चुके थे। परन्तु सर माइकेल ओ डायर और लार्ड जैट अभी जिन्दा थे। बस फिर के क्या था? ऊधम सिंह इन दोनों के पीछे लग गये। उन्होंने एक रिवाल्वर खरीदा और उसकी सफाई करते रहे। वे उसमे बराबर तेल डालते रहते थे। उसे गोलियों से भरकर सदा पास रखते और मौके की ताक में रहते थे।

    ३१ मार्च १९४० का वह महान दिन आ ही गया, जब वह अपने उद्देश्यों में सफल हो गये। कहते है कि मौत अपना भोजन स्वयं ढूँढ लेती है। इस दिन सर माइकेल ओ डायर और लार्ड जैट लैन्ड को कन-स्टन हॉल में रॉयल सेन्ट्रल एशिया सोसाइटी तथा ईस्ट इंडिया एसोसिएशन द्वारा आयोजित एक गोष्ठी में भाग लेना था। इसकी अध्यक्षता लार्ड जेट लैण्ड को करनी थी। ऊधम सिंह चुपके से जाकर मंच से कुछ दुरी पर जाकर बैठ गए। सर माइकेल ओ डायर ने एक उत्तेजक भाषण दिया। उसने भारत के विरुद्ध विष वमन किया और कठोर नीति अपनाए जाने की वकालत की। जैसे ही वह बैठने के लिए मुड़ा और सचिव धन्यवाद करने के लिए खड़ा हुआ ऊधमसिंह ने रिवाल्वर ने निकाल कर माइकेल पर गोली दाग दी। वह वही ढेर हो गया। उस समय शाम के साढ़े चार बज रहे थे। लार्ड जेट लैण्ड का भाग्य अच्छा था कि वह घायल हो कर रह गया। बस फिर क्या था, हॉल में भगदड़ मच गई और ऐसे में ऊधम सिंह वहाँ से बच निकलने में सफल हो सकते थे परन्तु वे वहाँ सीना तान कर खड़े रहे। उन्होंने गरजते हुए कहा- ''माइकेल को मैंने मारा है, दूसरों को घबराने की जरूरत नहीं है।''

    उन्हें वहीँ गिरफ्तार कर लिया गया तथा २ अप्रैल १९४० को न्यायालय में प्रस्तुत किया गया। ऊधम सिंह के जीवन का वह स्वर्णिंम दिन था, जब उन्होंने ब्रिटिश मजिस्ट्रेट के सामने बयान दिया- ''यह काम मैंने इसलिए किया, क्योंकि मुझे उस व्यक्ति से चिढ थीं। वह असली अपराधी था, उसके साथ ऐसा ही किया जाना चाहिए था। वह मेरे देश की आत्मा को कुचल देना चाहता था। इसलिए मैंने उसे कुचल दिया। (टिट फोर टैट) पूरे २१ वर्ष तक मैं बदले की आग में जलता रहा। मुझे खुशी है कि मैंने यह काम पूरा किया। मैं अपने भाइयों के लिए मर रहा हूं, मैं अपने देश के लिए मर रहा हूँ। क्या लार्ड जेटलैंड मर गया। मैंने उसे भी गोलियां मारी थीं। मैंने ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन भारत में अपने देशवासियों को भूखा मरते देखा है। यह मेरा कर्तव्य था। और क्या सम्मान हो सकता है कि मैं मातृ भूमि के लिए मरा।''

    जब मजिस्ट्रेट ने उनका नाम पूछा तो कहा कि - मेरा नाम ऊधम सिंह नहीं है, मेरा नाम राम मोहम्मद सिंह आजाद है। राम हिन्दू, मोहम्मद मुसलमान, सिंह सिक्ख और आजाद का अर्थ है- भारत की आजादी। फिर ऊधम ने कहा कि ''मुझे किसी भी सजा पर अफसोस न होगा।'' उन्हें मृत्यु दण्ड दिया गया।

    ऊधम सिंह को लन्दन में ब्रिस्टन जेल में रखा गया। ब्रिस्टन जेल से उन्हें पेंटोविले जेल भेज दिया गया और ३१ जुलाई १९४० को उन्हें फांसी दे दी गई। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् पंजाब सरकार और केन्द्र सरकार के लगातार प्रयत्नों के फलस्वरूप उनके अवशेषों को ससम्मान उतारा गया। ५ दिन तक दिल्ली में रखने के पश्चात् उन्हें गंगा में हरिद्वार के निकट प्रवाहित कर दिया गया। भारत माता के इस महान सपूत, को इस नर-नाहर को हम सब देशवासियों सहित सादर विनम्र प्रणाम। - मनुदेव 'अभय' विद्यावाचस्पति

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    When the magistrate asked his name, he said - My name is not Udham Singh, my name is Ram Mohammad Singh Azad. Ram Hindu, Mohammed Musalman, Singh Sikh and Azad means freedom of India. Udham then said, "I will not regret any punishment." He was given the death penalty. 

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  • असफलता से निराश न हो

    प्रायः लोगों को यह कहते सुना जाता है- 

    * जीवन नीरस और उबाऊ हो गया है। * जीवन में कुछ मजा नहीं बचा है। * जीवन स्थिर और यांत्रिक हो गया है। * लोग स्वार्थी और धन लोलुप हो गए हैं। * मैं जो कहता हूँ, लोग उसे समझते नहीं। * जीवन तनावपूर्ण हो गया है। काम में तनाव बढ़ गया है। 

    इसी तरह की बहुत सी टिप्पणियॉं लोग करते हैं। यह आम धारणा है और अक्सर हम सभी ऐसी बातें कहते हैं। जब हम लोगों की बात करते हैं तो हमेशा खुद को छोड़ देते हैं। हम भूल जाते हैं कि लोगों में हम भी तो हैं। सामूहिक रूप से हम ही 'लोग' हैं। हमें लोगों से काफी शिकायते हैं, इसी तरह दूसरों को हमसे शिकायतें हैं। 

    Ved Katha Pravachan -6 (Rashtra & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    जब हम लोगों की बात करते हैं, तो खुद को कैसे छोड़ सकते हैं? और हम जीवन की बात करते हैं तो जन्म, विकास, वृद्धि या जीवन के अन्य पहलू वहीं रहते हैं। जीवन तो एक धारा है और हम सब इस धारा का एक भाग हैं। प्रकृति ने जन्म, विकास, वृद्धि के लिए हमें सब कुछ दिया है। उसने हमें काम करने, निर्णय करने व अन्य गतिविधियों के लिए मस्तिष्क दिया है। हम अपने मस्तिष्क से सोचते हैं और अपने हाथों से काम करते हैं तथा अपने पैरों पर चलते हैं। 

    हम भूल यह जाते हैं कि हर व्यक्ति अपने अच्छे व बुरे गुणों के साथ जन्मा है। हर व्यक्ति की कुछ कमियॉं हैं। सभी व्यक्ति सम्पूर्ण नहीं हैं। हर व्यक्ति के गुणों में सकारात्मक व नकारात्मक पहलू होते हैं। सकारात्मक पहलुओं पर ध्यान देना बेहतर है। 

    असफलता को परिणाम के आधार पर देखा जाना चाहिए और इसका सामाना एक सबक के रूप में करना चाहिए। जब आपको असफलता मिलती है तो उसके कारणों का विश्लेषण कीजिए। इससे आपको सुधार के बिन्दु मिलेंगे। यदि किसी व्यक्ति को अपनी क्षमता पर सन्देह है, तो उसके सामने निश्चय ही अवरोध आएगा और वह असफल होगा। 

    एक अँग्रेज दार्शनिक के शब्दों में '"कोई कार्य करने की कोशिश तब तक मत करो, जब तक कि आपका खुद पर विश्वास न हो। लेकिन इसे इसलिए भी मत छोड़ो कि किसी दूसरे का आप पर विश्वास नहीं है।'' सकारात्मक सोचो। अपनी क्षमताओं के बारे में सोचो। अपनी क्षमताओं को उजागर करो। असफलता पर खुद को बधाई दो, क्योंकि इससे आपको असफलता के कारणों का विश्लेषण करने का अवसर मिलता है। और यह असफलता ही आपको सफलता के मार्ग पर ले जाती है। क्या आप अपनी हर असफलता पर खुद को बधाई देने को तैयार हैं? यदि ऐसा है तो सफलता आपकी मुट्‌ठी में है। वाई.एम. अग्रवाल

    उपलब्ध संसाधनों का समुचित उपयोग

    सफलताएँ और उपलब्धियॉं किसी को भी अनायास नहीं मिलतीं। उन्हें प्राप्त करने के लिए एक सुनिश्चित योजना तैयार करनी पड़ती है तथा उन्हीं उपलब्ध संसाधनों के सर्वोत्तम उपयोग का निर्धारण करना होता है, जो हमारे पास होते हैं। सफलता एक संयोजना है। समस्त उपलब्ध मानवीय, प्राकृतिक तथा भौगोलिक संसाधनों की संयोजना के अन्तिम परिणाम के रूप में सफलता हमारे सामने आती है। मात्र भाग्य के सहारे शीर्ष पर पहुँचे लोग व्यावहारिक रूप से किसी के आदर्श नहीं बन सकते, न उनसे प्रेरणा लेकर कोई व्यक्ति अपने पुरुषार्थ को सार्थक कर सकता है। सफलता का सम्बन्ध संघर्षों से है तथा संघर्षों के उपरान्त अर्जित तथा संयोजित उन उपलब्धियों से है, जो किसी व्यक्ति को सफल बनाती हैं। 

    मात्र भाग्य से अर्जित उपलब्धियॉं किसी भी परिभाषा में सफलता के अन्तर्गत नहीं आती हैं। कर्मयोगी के लिए कुछ भी कर गुजरना असम्भव नहीं है तथा वह प्रत्येक उपलब्धि जो संसाधनों के ढेर पर बैठे मनुष्यों के लिए सुरक्षित समझी जाती है, कर्मसाधकों के लिए उसे हस्तगत करना असम्भव नहीं है। संघर्ष बहुत कुछ देते हैं, यदि वे सार्थक पथ की तलाश से जुड़े हैं। साधनों की अधिकता का अर्थ सफलता नहीं है, बल्कि कभी-कभी साधनों की अधिकता व्यक्ति विशेष की एकाग्रता तथा लक्ष्यबद्ध सफलता के परिणामों पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली साबित होती है। यदि अपने पास मौजूद संसाधनों की समग्र शक्ति पर विश्वास करके उन्हें अपने लक्ष्यप्राप्ति का माध्यम बनाएँ, तो सफलता आपके निकट खड़ी होगी।

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    किसान की परीक्षा

    बहुत पुरानी बात है। कान्यकुब्ज में एक राजा राज्य करता था। एक बार उसे अपने खजाने की रक्षा के लिये कोषाध्यक्ष की जरूरत पड़ी। राजा चाहता था कि कोई ईमानदार और निर्लोभी व्यक्ति ही इस पद पर रखा जाये। पर ऐसे व्यक्ति को ढूंढना सरल नहीं था। अनेक व्यक्ति राजा द्वारा ली गयी परीक्षा में असफल हो चुके थे। 

    राजभवन से आधा मील दूर एक गरीब किसान रहता था। टूटी-फूटी एक उसकी झोंपड़ी थी। वर्षा ऋतु में जब उससे पानी टपकता था, तो वहॉं बैठना भी दूभर हो जाता था। किसान और उसका परिवार दिन में बस एक बार रूखी-सूखी रोटी खाता था। उसका सारा परिवार फटे-पुराने कपड़े पहनता था। 

    एक दिन किसान सुबह-सुबह अपने खेत पर जा रहा था। सहसा उसकी निगाह झोंपड़ी के द्वार पर पड़ी। उसके पास मिट्टी का एक सुन्दर सा घड़ा रखा था। उसका मुँह कपड़े से ढका था। किसान को बड़ी उत्सुकता हुई कि यह क्या है? उसने घड़े को खोलकर देखा। कपड़ा हटाते ही उसकी आँखें चौंधिया गयीं। घड़ा तो स्वर्ण मुहरों से खचाखच भरा था। 

    किसान उसे लेकर तुरन्त घर में घुस गया। उसने वह घड़ा पत्नी को दिखाया। उसके चारों बच्चे भी वहॉं इकट्‌ठे हो गये थे। बच्चे सोच रहे थे कि अब तो हमारी सारी गरीबी दूर हो जायेगी। हम भी अच्छे कपड़े पहनेंगे, अच्छा खायेंगे। बड़ा बेटा कहने लगा- "पिताजी! इतने ढेर सारे धन से तो अब हमारे सभी के सारे दुःख दूर हो जायेंगे।'' 

    किसान कहने लगा- ""पुत्र! इस धन पर हमारा क्या अधिकार है? इसे तो मैं अभी जाकर राजा के खजाने में जमा ही करा दूंगा। ध्यान रखो! मुफ्त का धन कभी सुख नहीं देता। वह अपने साथ रोग, दुःख और पतन लेकर आता है। ईमानदारी और परिश्रम की कमाई ही फलती है।'' 

    किसान की पत्नी बोली- '"यह तो तुमने बड़ी अच्छी ही बात सोची है। चलो हम दोनों अभी चलकर इसे खजाने में जमा कर आते हैं।'' 

    किसान और उसकी पत्नी दोनों राज-दरबार में पहुँचे। सोने की मुहरों से भरा घड़ा राजा के सामने रखते हुए बोले- "महाराज! यह हमें अपनी झोंपड़ी के द्वार पर पड़ा हुआ मिला है।''

    राजा ने देखा कि एक कृषक अपनी पत्नी के साथ उनके सामने खड़ा यह कह रहा है। राजा ने बड़े गौर से उन्हें देखा। दोनों के शरीर पर पैबन्द लगे मटमैले कपड़े थे। गरीबी उनकी वेषभूषा से साफ झलक रही थी।

    राजा बोला- "क्या तुम्हें धन की जरूरत नहीं?''

    "पर हम ईमानदारी और परिश्रम से धन कमायेंगे। इस धन को मैं कैसे ले लूँ? यह न जाने किसका है? दूसरे के धन पर मेरा क्या अधिकार है? इसलिये मैं इसे राज्य के खजाने में जमा करने आया हूँ।'' किसान यह कह रहा था। 

    राजा कुछ सोने की मुहरें किसान की पत्नी को देता हुआ बोला- 'मैं तुम दोनों की इस ईमानदारी से बहुत खुश हूँ। लो यह कुछ ईनाम ले लो।' 

    'राजन्‌! यह तो हमारा कर्त्तव्य है।' किसान की पत्नी ने कहा और मुहरें लेने से साफ इन्कार कर दिया। किसान भी सिर हिला-हिलाकर "नहीं-नहीं' कह रहा था। 

    अब राजा ने न रहा गया। वह अपने सिंहासन से उतर पड़ा। किसान को गले लगाता हुआ बोला- "मुझे तुम्हारे जैसे ईमानदार कोषाध्यक्ष की ही बहुत जरूरत है। आज से तुम इस राज्य के खजाने की देखभाल करो।'' 

    किसान और उसकी पत्नी ने यह कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि कभी वे इतना बड़ा पद प्राप्त करेंगे। दोनों के मुख प्रसन्नता से चमकने लगे। 

    यह तो उन्हें बहुत बाद में पता लगा कि उनकी परीक्षा के लिये वह घड़ा राजा ने ही रखवाया था। अन्य व्यक्तियों ने तो अपने द्वार पर घड़ा पाकर उसमें से मुहरें निकालकर उन्हें अपने-अपने घरों में छुपा लिया था। राजा ने उन सबको चोरी के आरोप में कड़ी सजा दी थी। घड़े को जमा कराने वाला एकमात्र व्यक्ति किसान ही था। प्रस्तुतिः कु. भावना

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    When we talk about people, how can we leave ourselves? And when we talk about life, then birth, development, growth or other aspects of life remain there. Life is a stream and we are all a part of this stream. Nature has given us everything for birth, development, growth. He has given us the brain to work, make decisions and other activities. We think with our brain and work with our hands and walk on our feet.

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  • आज के जीवन-जगत्‌ को आर्यसमाज की आवश्यकता

    आर्यसमाज की मौलिक विशेषता है सभी क्षेत्रों में वैचारिक क्रान्ति और वैज्ञानिक व व्यावहारिक चिन्तर। जीवन और जगत्‌ की सबसे बड़ी सम्पदा विचार है। विचारों से ही मानव उठता और गिरता है। विचारों से ही मानव देवता और राक्षस बनता है। आज का भौतिक जीवन-जगत्‌ परम सत्ता परमेश्वर पर अनास्था, अश्रद्धा एवं प्रश्नचिह्न लगा रहा है। नवशिक्षित-नवपीढी में नास्तिकता बड़ी तेजी और गहराई से फैलती जा रही है। इसके परिणाम सामने आ रहे हैं अशान्ति, असन्तोष, कोलाहल, अनुशासन-हीनता, अपराध प्रवृत्ति, मारकाठ आदि के रूप में। आर्यसमाज का चिन्तन इस सन्दर्भ में जीवन और जगत्‌ को आस्तिकता का अमर सन्देश दे सकता है। वैदिक विचारधारा में एकेश्वरवाद का सीधा-सच्चा सरल उपाय बताया गया है। जैसा कि वेद उपदेश देता है-ईशावास्यमिदं सर्वं यत्‌किंच जगत्यां जगत्‌। 

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    वेद - गीता का सन्देश - जैसा बोओगे वैसा काटोगे
    Ved Katha Pravachan - 103 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    इस सारे जगत्‌ में परमात्मा सर्वत्र अन्दर-बाहर ओतप्रोत है। उसी को साक्षी मानकर संसार का भोग करो। तभी अपने उद्देश्य तक पहुंचा जा सकता है। आज लोग परमात्मा का रूप-स्वरूप बिगाड़ते जा रहे हैं। संसार में परमात्मा के बारे में बड़ी भ्रान्तियॉं फैली हुई हैं। न जाने कितने पन्थ, पैगम्बर, भगवान पैदा हो रहे हैं। हर कोई अपनी मुट्ठी में परमेश्वर को बताता है। किन्तु ऋषि दयानन्द ने जो परमेश्वर का स्वरूप-चिन्तन, उपासना, प्रार्थना आदि की दृष्टि दी, वह आज के संसार को सत्य धर्म तक पहुंचा सकती है। आस्तिक बनकर ही मनुष्य मानवता के गुणों को धारण करता है। तभी सभी दोषों और बुराइयों से बचा जा सकता है। आज अधिकांश हमारा जीवन-जगत्‌ का प्रत्येक क्षेत्र यूरोपीय विचारधारा से गहराई से प्रभावित हो रहा है। खान-पान, रहन-सहन, घर-परिवार, बोलचाल, रिश्तेदार-सम्बन्ध, साज-सज्जा सभी में आधुनिकता का रोग तेजी से फैल रहा है। महानगरों का जीवन तो और भी अनेक प्रकार की विकृतियों से विकृत हो रहा है। सभी में भोगों के साधन एकत्र करने और भोगने की होड़ लगी हुईहै । सभी और-और के चक्कर में पागल-दौड़ में भागे जा रहे हैं। भोग-विलास और वासना की पूर्ति के नित्य नए साधनों का आविष्कार हो रहा है। फिर भी आज का मानव अतृप्त, असन्तुष्ट और भूखा हो रहा है। ऐसे वातावरण में आर्यसमाज का चिन्तन जीवन-जगत्‌ को वैचारिक प्रेरणा देकर सन्मार्ग दिखा सकता है। जब तक मन को आत्मा और परमात्मा की ओर नहीं मोड़ोगे, तब तक अन्तहीन भोगों की आग तुम्हें चैन नहीं लेने देगी। जितना भोगते जाओगे उतने ही अतृप्त और अशान्त होते जाओगे। शास्त्र कब से पुकार-पुकारकर कह रहे  है:- 
    न जातु काम: कामनामुपभोगेन शाम्यति। 
    हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाऽऽभिवर्धते।।

    विषयों के भोग की इच्छा विषयों के भोग से कभी शान्त नहीं हो सकती हैकिन्तु और भी बढती जाती हैजैसे आग में घी  डालने से आग और बढती है। जब तक ज्ञानविवेकवैराग्य और अभ्यास से मन को संयमित न किया जायेगातब तक न बुझने वाली भोगों की आग में जीवन-जगत्‌ जलता रहेगा। वैदिक-चिन्तन के पास महत्वपूर्ण जीवन दृष्टि हैजो दृष्टि आज के तनाव भरेअशान्तबेचैनअतृप्त मानव जीवन को सुखीशान्त आनन्दमय बना सकती है। हमारे ऋषि-मुनियों और पूर्वजों ने जीवन-जगत्‌ को गहराई से देखा-भोगा व अनुभव किया। तब उन्होंने सारपूर्ण निष्कर्ष दिए। जीवन में अतिभोगवादी दृष्टि खतरनाक है। जीवन में अति त्याग भी हानिकारक है। दोनों का समन्वय करके मध्ययममार्ग अपना लोजीवन सुखी हो जायेगा। ऋषि दयानन्द ने संसार को सन्देश दियाभागो नहीं जागो। शास्त्र कहते हैं  कि विचारों से ही जीवन-जगत्‌ स्वर्ग बन जाता है। विचारों से ही इसे नरक भी बनाया जा सकता है। आज हमारे विचारों में बड़ी तेजी से प्रदूषण फैल रहा हैजो बड़ा घातक बनेगा। चारों ओर पतन के बाजार गर्म हैं। गन्दे दृश्यगन्दे शब्दगन्दे भाव देखने-सुनने पड़ रहे हैं। यह तो तेजी से दिखावटीबनावटी कामवासना भरी कल्चर पनप रही है। यह हमारी संस्कृतिमूल्योंआस्थाओंपरम्पराओं व आदर्शों को गहरा धक्का दे रही है।

    ऐसे विषाक्त वातावरण को आर्य-चिन्तन कुछ ठोस जीवन-मूल्य दे सकता है। मनुर्भव की आदर्श मूलक जीवन-दृष्टि समूचे संसार को मानवता का पाठ पढा सकती है। वैदिक चिन्तन ने प्रत्येक क्षेत्र में बड़ी गहराई और व्यापकता से सोचा है। इसकी सोच व्यावहारिकतर्कसंगतसृष्टिक्रम अनुकूल एवं वैज्ञानिक है। इसीलिए आज की दौड़ में कोई चिन्तन दौड़ सकता है तो वह है वैदिक-विचारधारा का चिन्तन। कोई ऐसा क्षेत्र नहीं जिसमें हमारे पास देने को न हो। किन्तु यह तभी सम्भव होगा जब हम स्वयं सुधरेंगे तो जग सुधरेगा का भाव क्रियात्मक जीवन में लायेंगे।

    भारतीय संस्कृति त्याग-प्रधान रही है। त्याग से ही अमृत्व प्राप्त होता है। रामायण में आदि से अन्त तक त्यागप्रेम और कर्त्तव्य की भावना मिलती है। महाभारत में आदि से अन्त तक अधिकारअहंकार और एकाकी भोगने की प्रबल लिप्सा है। परिणाम हमारे सामने हैं। आज हमारा जीवन-जगत्‌ व्यक्तिपरिवार समाज-राष्ट्र संगठनसंस्थाएं सभी में अंतर्द्वन्द्वविद्रोहझगड़ेकलह व टूटन भरती जा रही है। क्योंकि मूल में भूल हो रही है। सभी एकाकी और अधिक देर तक सब जगह पद-सुविधा तथा अधिकार को भोगना चाहते हैं। झगड़ों की जड़ यह है। चाहे परिवार हो या संगठनमन्दिर हो या गुरुद्वारात्याग छोड़ने का भाव कहीं नहीं है। आर्यसमाज के चिन्तन में त्याग की महत्ता बहुत ऊंची रही है। यदि अतीत के उदाहरण रखे जाएं तो श्रद्धा भक्ति व सम्मान से सिर नत हो जाता है। हमारे मन्तव्यसिद्धान्त और जीवन-मूल्य स्वर्णिम हैं। वे आज भी इस वातावरण को नवजीवन चेतना दे सकते हैं।

    हमारे सभी शास्त्र-धर्मग्रन्थ तथा महापुरुषों के चरित्र जीवन के व्यावहारिक पक्ष से भरे पड़े हैं। निर्माण सदैव त्याग से ही होता है। मां त्याग करती है तो सन्तान का पालन-पोषण व निर्माण हो जाता है। संन्यासी त्याग करता है तो सारा संसार उसके चरणों में झुक जाता है। राजा त्याग करता है तो प्रजा उसकी भक्त बन जाती है। आज के इस वातावरण में त्यागसेवाप्रेम की गहरी आवश्यकता है। जिस परिवार में एक-दूसरे के लिए त्याग भावना हैपरस्पर प्रेम-भाव हैवह परिवार सच्चे अर्थ में स्वर्ग कहलायेगा। आज मन्दिरों में भी पद-लिप्साअधिकार व अहंकार की लड़ाई होने लगी है। झगड़ो से बचने के लिए शान्ति के लिए व्यक्ति मन्दिर में आता है। यदि मन्दिरों में भी झगड़े मिले तो कहॉं जायेगावहॉं तो त्याग व सेवाभाव से जाकर ही कुछ मिल सकता है।

    भारतीय चिन्तन में खान-पानरहन-सहन पर बड़ी बारीकी व गहराई से सोचा गया है। इस बारे में इतने दूर तक यूरोप नहीं सोच सका है। यहॉं के ऋषि-मुनियों ने यही निष्कर्ष निकाला है कि भोजन व रहन-सहन ही हमारे स्वस्थ मन और स्वस्थ विचारों का कारण है। जैसा भोजन होगा वैसा मन तथा विचार बनेंगे। जैसे विचार होंगे वैसा ही आचरण होगा। आज के जीवन-जगत्‌ का खान-पान बहुत ही दूषित,  विकृततामसिक तथा मन-बुद्धि-इन्द्रियों को विकृत करने वाला हो रहा है। इसीलिए रोगियों को लम्बी लाइनें बढती जा रही हैं। हास्पिटल छोटे पड़ते जा रहे हैं। प्रकृति ने मनुष्य को रोगी नहीं बनाया अपितु प्रकृति तो स्वास्थ्य बांट रही है। हमारी संस्कृति होम प्रधान रही हैहोटलप्रधान नहीं। खाने के साथ कपड़ों के बारे में श्रंगार भावना बढ रही है। जहॉं श्रंगार होगा वहॉं वासना जरूर भड़केगी। यह प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। आर्यसमाज का चिन्तन खान-पान के बारे में बड़ा स्पष्ट है। हमारे चिन्तन का मूल आधार ही खान-पान है। शुद्धसात्विकशाकाहारी भोजन ही मनुष्य का असली भोजन है। ऐसा भोजन ही जीवन-जगत्‌ को रोगमुक्तसरलताधार्मिकता व आस्तिकता दे सकता है। इसके प्रचार की बड़ी आवश्यकता है।

    सार रूप में कहा जा सकता है कि जीवन-जगत की इस अन्धी दौड़ में आर्यसमाज का वैचारिक-चिन्तन प्रकाश-स्तम्भ का कार्य कर सकता है। इस घायल कराहती अतृप्त मानवता के लिए वैदिक चिन्तन मरहम का कार्य कर सकता है। वैदिक विचारधारा आबाल-वृद्ध सभी में अपने विचारों की संजीवनी से नव-चेतना का जीवन संचारित कर सकती है। आर्य-चिन्तन जीवन-जगत्‌ के सभी क्षेत्रों में मार्गदर्शन बन सकता है। अन्त में आर्यो से- प्रशस्त पुण्य पंथ हैबढे चलोबढे चलो। लेखक-डॉ. महेश विद्यालंकार

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    There are big misconceptions about God in the world. Do not know how many texts, prophets, God are being born. Everyone tells God in his fist. But the sage Dayanand, who gave the vision of God in the form of thinking, worship, prayer, etc., can lead the world to the true religion. Only by becoming a believer, man bears the qualities of humanity.

     

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  • आर्य समाज और अन्तरजातीय विवाह - वर्तमान परिप्रेक्ष्य में

    मानव-जीवन के चार स्तम्भों में गृहस्थ-जीवन का द्वितीय स्थान है। अन्य तीन आश्रम भी इस पर आश्रित हैं। यह एक उत्तरदायित्वपूर्ण आश्रम है। इसी आश्रम में रहते हुए मानव सन्तानोपत्ति से लेकर पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा, विवाह आदि समस्त दायित्वों को पूर्ण करता है। इन दायित्वों में सबसे महत्त्वपूर्ण है विवाह। यह ऐसा उत्तरदायित्व है जो दो आत्माओं के मिलन का संयोग बैठाता है। परस्पर तालमेल न बैठ पाने के कारण अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने इस दायित्व के निर्वहन का जिक्र सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में किया है। उन्होंने वर्णानुकूल सुन्दर लक्षणयुक्त कन्या से विवाह करने का निर्देश दिया है।

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    यजुर्वेद मन्त्र 1.1 की व्याख्या
    Ved Katha Pravachan - 98 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    जहॉं वर्ण है वहॉं जन्मना जाति नहीं। सत्यार्थ प्रकाश बल देता है कि विवाह गुण-कर्म- स्वाभावानुसार होने चाहिएं। यदि इस तथ्य पर विचार किया जाए तो पता चलेगा कि आर्यसमाजेतर समाजों में विवाह को लेकर अनेक कठिनाइयॉं है। जैसे- जन्मकुण्डली का मिलान, मंगला-मंगली का चक्कर, शिक्षा व रोजगार समस्या, खानपान, रहन-सहन, पारिवारिक स्थितियॉं आदि। यद्यपि आज लड़कियों का अनुपात लड़कों से कम है, फिर भी लड़की वाले बहुत परेशान हैं।

    आर्यसमाज में अधिकतर लोग एक सीमित दायरे में बन्धकर, जन्मपत्री मिलाकर अनमेल विवाह कर डालते हैं, जिसका परिणाम होता है आजीवन संघर्ष। इस समस्या से आर्य समाज के लोग भी नहीं बच पाते। वे सभी जन्मना जाति के प्रभाव में लड़के-लड़कियों का विवाह स्वजाति में करते हैं जिससे अनेक समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं। आर्य समाजी परिवार की लड़की आर्यसमाजेतर  परिवार में जाकर पूरा पौराणिक बन जाती है। यदि वह परिवार मांसाहारी है तो वह उससे भी नहीं बच पाती है। यदि आर्य समाजी परिवार में आर्यसमाजेतर परिवार की लड़की आती है तो आर्य सिद्धान्तों व संस्कारों के अभाव के कारण समायोजन करने में कठिनाई का अनुभव करती है। इससे परिवार में संघर्ष उत्पन्न होता है।

    जिनके घरों में युवा लड़के या लड़कियॉं हैं, उनके माता-पिता से उनके विवाह सम्बन्धी कठिनाई का पता किया जा सकता है। लड़कियॉं35-38-40 साल की हो जाती हैं। अच्छे वर ढूँढने के चक्कर में उम्र समाप्त हो जाती है। यही हाल लड़को में भी मिल जाएगा। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने स्पष्ट लिखा है कि24 वर्ष तक कन्या का विवाह अवश्य हो जाना चाहिए।

    एक तरफ ऐसा स्पष्ट निर्देश और दूसरी तरफ उन्होंने लिखा है- "चाहे लड़का-लड़की मरणपर्यन्त कुमार रहें परन्तु असदृश अर्थात्‌ परस्पर विरुद्ध गुण, कर्म, स्वभाव वालों का विवाह कभी न होना चाहिए।" जब लोग जाति के दायरे में सीमित रहेंगे तो निश्चित ही कठिनाइयॉं बढेंगीं। ऐसे में युवा-युवती का मन दूषित हो सकता है।

    आर्य समाज के लोग यदि इस दिशा में सहयोग करें तो बहुत कुछ लड़के-लड़कियों के विवाह से सम्बन्धित कठिनाई दूर हो सकती है। महर्षि दयानन्द सरस्वती के शब्दों पर विचार करें - "सज्जन लोग स्वंयवर विवाह किया करें। सो विवाह वर्णानुक्रम से करें और वर्णव्यवस्था भी गुण, कर्म, स्वभाव के अनुसार होनी चाहिए।" (सत्यार्थप्रकाश चतुर्थ समुल्लास) । ऋषि के शब्दों में कितनी कल्याण भावना है! वे वर्णव्यवस्था के कितने समर्थक हैं उन्हीं के शब्दों में-"रज वीर्य के योग से ब्राह्मण शरीर नहीं होता।" (सत्यार्थप्रकाश चतुर्थ समुल्लास) वे लड़का-लड़की के गुण-कर्म-स्वभाव के मेल पर बल देते हैं। उन्हीं के शब्दों में, "जब स्त्री-पुरुष विवाह करना चाहें तब विद्या, विनय, शील, रूप, आयु, बल, कुल, शरीर का परिमाण आदि यथायोग्य होना चाहिए। जब तक इनका मेल नहीं होता तब तक विवाह में कुछ भी सुख नहीं होता।" (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास4) इतना ही नहीं उन्होंने विवाह सम्बन्ध दूर करने पर बल दिया है। दूरस्थ विवाह में प्रेम की डोरी बढी रहती है। दोनों पक्ष के लोग एक-दूसरे के गुणावगुणों से अनभिज्ञ रहते हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती के शब्दों में "दूरस्थों के विवाह में दूर-दूर प्रेम की डोरी लम्बी बढ जाती है निकटस्थ विवाह में नहीं।" (स.प्र.4) खानपान, जलवायु आदि की दृष्टि से भी दूरस्थ विवाह उत्तम है। महर्षि जी के शब्दों में, "दूर देशस्थों के विवाह होने में उत्तमता है।" (स.प्र.4) हम आर्य समाज के लोग ऋषि की भावनाओं और उनकी कल्याण-कामना को समझें। आज विवाह की समस्या इतनी विकट होती जा रही है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। इसका समाधान अन्तरजातीय विवाह से ही सम्भव है जो गुण, कर्म, स्वभाव से गृहीत है। यदि अपनी जाति में विवाह होने पर पति-पत्नी में संघर्ष है वह अच्छा है या अन्तरजातीय विवाह में गुण-कर्म-स्वभावानुसार सुखभोग अच्छा है? विपरीत स्वभाव वालों में विवाह का सर्वथा निषेध है। महर्षि दयानन्द के शब्दों में "कन्या को मरने तक चाहे वैसी ही कुमारी रखो, परन्तु बुरे मनुष्य के साथ विवाह न करो।" (उपदेश मंजरी)

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    इस दिशा में हम आर्य समाज के लोग सक्रिय कदम नहीं उठा पा रहें हैं व दु:ख झेल रहें हैं। विरोधाभास साक्षात्‌ देख रहे हैं पर साहस नहीं कर पा रहे हैं। हमारा आर्य समाज एक परिवार है। हम एक दूसरे से भावनात्मक सम्बन्ध से जुड़े हुए हैं। केवल कथनमात्र से कुछ नहीं होता। हमारा कार्य दूसरों के लिए बहुत बड़ा उपदेश है। आचरण और कर्म की भाषा मौन उपदेश देती है जो बहुत प्रभावकारी होती है। आर्यसमाज द्वारा सम्पन्न कराए जाने वाले अन्तरजातीय विवाहों का निश्चय ही भविष्य में अच्छा परिणाम होगा। रोटी और बेटी का सम्बन्ध आर्य समाज के लिए सुखद भविष्य है। इससे समाज का दायरा विस्तृत होगा। हम एक-दूसरे के निकट आएँगे। हमें संस्कारित लड़के-लड़कियॉं मिलेंगे। परिवार में सुख-शान्ति हो इसके अलावा और क्या चाहिए? हमारी जाति आर्य, हमारा धर्म वैदिक, हमारा राष्ट्र आर्यावर्त, हमारा नाम आर्य, हमारा उपास्य देव ओ3म्‌ यही तो हमारी पहचान है, इसे बनाना है। यदि सब लोग परस्पर लड़के-लड़कियों का गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार विवाह करना प्रारम्भ कर दें तो देश में आमूलचूल परिवर्तन आएगा और जन्मना जाति-पॉंति मिट जाएगी। इसे मिटाना अति आवश्यक है अन्यथा हम परस्पर विभक्त होते जाएँगे और हमारी राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ जाएगी। इसके लिए अन्तरजातीय विवाह एक सशक्त माध्यम है।

    आर्य समाज आर्यों का समाज है। हम अपने समाज में विवाह सम्बन्ध करें। इससे रूढियॉं, दिखावा समाप्त होगा। योग्य लड़के-लड़कियों का दायरा बढेगा तो विवाह सम्बन्धी समस्या स्वत: समाप्त हो जाएगी, अमीरी-गरीबी की खाई पटेगी, हमारा परिवार बड़ा होगा, अच्छे सम्बन्धों से मन में प्रसन्नता बढेगी। गृहस्थ जीवन स्वर्ग के समान होगा। गुरुकुलों के आचार्य/आचार्या से निवेदन है कि वे गुरुकुल के स्नातक/स्नातिका का ऐसा सम्बन्ध बनाएँ जिससे गुरुकुल के लड़के-लड़कियों में परस्पर विवाह सम्बन्ध हो सके। वे इस दिशा में मुख्य भूमिका निभा सकते हैं। विवाह में विचारों का मेल परमावश्यक है। यदि गुरुकुलीय शिक्षा प्राप्त युवक का कान्वेण्ट या विद्यालय से शिक्षा प्राप्त पौराणिक लड़की से विवाह होता है तो उसके जीवन में संघर्ष होगा। इसी प्रकार गुरुकुल से शिक्षा प्राप्त लड़की का विवाह यदि कान्वेण्ट/विद्यालय से शिक्षा प्राप्त लड़के से होगा तो उसके भी जीवन में संघर्ष होगा। कारण यह है कि गुण-कर्म-स्वभाव मेल नहीं खाते हैेतो विचारधारा का मेल नहीं खाता है। वैदिक विचारधारा का अधिकाधिक प्रचार-प्रसार हो, इसलिए यह विवाह-सम्बन्ध वैदिक विचारों के अनुरूप होना चाहिए।

    आर्य समाज को आदर्श समाज बनाएँ। योग्य स्त्री-पुरूषों से योग्य आदर्श समाज बनेगा, जिसका माध्यम अन्तरजातीय विवाह है। हमारे सामने कितने ही अन्तरजातीय विवाह सम्पन्न हुए हैं और वे युवक-युवती सुखद जीवन व्यतीत कर रहे हैंऔर कितने ही ऐसे सजातीय विवाह हुए हैं जिनके मध्य संघर्ष है। जन्मकुण्डली, मंगली-मंगला, राशि, गृह, मुहूर्त, शुभवाद, अच्छा-बुरा दिन, नाड़ी-मेल सबको तिलांजलि देकर समाज के समक्ष सत्य को प्रतिष्ठापित करना होगा। यह युग की मॉंग है।

    दि हम महर्षि दयानन्द के मिशन को आगे बढाना चाहते हैं तो अन्तरजातीय विवाह को स्वीकार करना होगा। इससे एक बहुत बड़ी सामाजिक क्रान्ति आएगी। (आर्यजगत्‌, दिल्ली, 29 दिसम्बर2013) 

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    Among the four pillars of human life, householder is the second place of life. The other three ashrams also depend on it. It is a responsible ashram. While living in this ashram, human being fulfills all the responsibilities from parentage to upbringing, education, initiation, marriage etc. The most important of these obligations is marriage. It is a responsibility that coincides with the union of two souls. Many difficulties have to be faced due to lack of coordination. Maharishi Dayanand Saraswati has mentioned the discharge of this responsibility in the fourth group of Satyarth Prakash. He has instructed to marry a girl with a beautiful character.
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  • आर्य समाज का परिचय-1

    लेखक- आचार्य डॉ.संजय देव

    आर्यसमाज की स्थापना सन्‌ 1875 ई. में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने की थी। आर्यसमाज ने आरम्भ से आज तक 138 वर्षो के दीर्घकाल में मानव सेवा, गौ आदि प्राणीमात्र की सेवा, वेद धर्म प्रचार, शिक्षा, वर्णाश्रम धर्म का उद्धार, भारतीय स्वाधीनता संग्राम, सामाजिक-धार्मिक सुधार

  • आर्य समाज का परिचय-2

    लेखक- आचार्य डॉ.संजय देव

    महर्षि स्वामी दयानन्द ने बचाव तो किया ही, साथ ही मुसलमानों और ईसाइयों के मत पन्थों पर प्रहार भी किया। यह हिन्दुत्व का शुद्ध रूप था और महर्षि दयानन्द की वाणी में, लेखों में, पुस्तकों में, शास्त्रार्थ और व्याख्यानों में सुधार की भावना तो थी ही, उन्होंने जागृत हिन्दुत्व का समरनाद घोषित कर दिया।

  • आर्य समाज की स्थापना का महत्व

    सन्‌ 1875 (संवत्‌ 1932 विक्रमी) में चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को आर्य समाज की स्थापना हुई थी। इतिहासकार इस घटना को उतना महत्व नहीं देते, जितना महत्व दिया जाना चाहिये। इसका मुख्य कारण यह है कि अधिकांश इतिहासकार घटनाओं को पाश्चात्य विद्वानों के दृष्टिकोण से देखने के आदी हो गए हैं। इसलिए वे हिन्दी प्रधान और राष्ट्रीयता प्रधान आन्दोलनों की प्राय: उपेक्षा कर देते हैं।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों। गौरवशाली महान भारत -1
    Ved Katha 1 part 1 (Greatness of India & Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    सन्‌ 1857 की राज्य क्रान्ति के विफल कर दिये जाने के बाद देश में दो प्रकार की प्रतिक्रियायें हुई। शासकों ने तो उसके बाद अपना सारा जोर इस बात पर लगाया कि किसी तरह भारतवासियों को बौद्धिक और मानसिक दृष्टि से इतना गुलाम बना दिया जाये कि वे अंग्रेजों के राज को अपने लिए वरदान समझने लगें। दूसरी और राष्ट्र भक्त मनीषियों में राष्ट्र को समाज सुधार और राजनैतिक चैतन्य की दृष्टि से आगे बढाने के लिये अनेक छोटे-बड़े आन्दोलन किए। इन आन्दोलनों में ब्राह्म समाजप्रार्थना समाज और देव समाज मुख्य हैं। ये तीनों देश के बुद्धिजीवियों द्वारा संचालित सुधारवादी आन्दोलन थेपरन्तु इनका क्षेत्र बहुत सीमित था। ब्राह्म समाज देश के पूर्वी भाग तकप्रार्थना समाज देश के पश्चिमी भाग तक और देव समाज उत्तर भारत के बहुत थोड़े से भाग तक सीमित होकर रह गया। ये आन्दोलन न केवल स्थान की दृष्टि से सीमित थेपरन्तु अपनी विचारधारा और बुद्धिजीवियों के विशेष वर्गों से सम्बन्द्ध होने के कारण जन साधारण को प्रभावित करने में असमर्थ थे। ये आन्दोलन सामाजिक कुरीतियों के निवारण के लिये तो किसी हद तक सजग थेपरन्तु उनकी सजगता भी पश्चिमी विचारों से प्रभावित थी। इसीलिये वे भारतीय अस्मिता के सशक्त वाहन नहीं बन सके।

    उक्त तीनों आन्दोलन आर्य समाज की स्थापना से पूर्व विद्यमान थे। एक सीमा तक यह स्वीकार किया जा सकता है कि आर्य समाज में समाज शब्द इन्हीं पूर्व आन्दोलनों की प्रेरणा का परिणाम है। उन्हीं वर्षों में ऋषि दयानन्द भी भारत की तात्कालिक दुर्दशा से मर्माहत होकर तीव्र मानसिक वेदना से गुजर रहे थे। उनके मन में कैसा अन्तर्द्वन्द्व रहा होगाइसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। जो व्यक्ति भरी जवानी की अवस्था में अहर्निश ज्ञान की खोज में देश के विभिन्न भू-भागों का परिभ्रमण करता रहता है और उसके इस परिभ्रमण से न सघन वन छूटते हैं न हिमाच्छादित पर्वत छूटते हैं और न ही सन्तप्त बीहड़ मरुस्थल छूटते हैंउस अवधूत संन्यासी की मानसिक बैचेनी की कल्पना तो करिये। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने इस अवधूत संन्यासी से भेंटने के पश्चात अपने हृदय का उद्‌गार इस रूप में प्रकट किया था-"इस अद्‌भुत व्यक्ति से भेटने पर लगा जैसे कि इसके हृदय में दिन-रात राष्ट्रप्रेम की ज्वाला धधकती रहती है।" यह उद्‌गार ऋषि की अन्तर्वेंदना की एक झॉंकी देने के लिये पर्याप्त है। सचमुच ही उस युग में इस अवधूत संन्यासी को छोड़कर कोई और ऐसा विद्वानमनीषी और समाज सुधारक दृष्टिगोचर नहीं होता जो सचमुच ही दिन रात राष्ट्र की दुर्दशा और परवशता से विक्षुब्ध हो और उसको स्वतन्त्र तथा उसके अतीत गौरव के अनुकूल उसे सर्वशिरोमणि देखने को लालायित हो।

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    किसी लक्ष्य के लिये लालायित होना अलग बात है किन्तु उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये कोई रचनात्मक उपाय खोज पाना सहज नहीं। उस दुष्कर कार्य को सहज बनाने के लिये जो दृढ आधार चाहिये- शारीरिक भीबौद्धिक भी और मानसिक भी- वह उस युग के अन्य किसी नेता में दिखाई नहीं देता। ऋषि दयानन्द ने न केवल सकल देश का परिभ्रमण कियाअपितु जहॉं कहीं पता लगा कि अमुक विद्वानज्ञानी और योगी विद्यमान हैवहॉं उसकी सेवा में उपस्थित होकर विभिन्न शास्त्रों को अवगाहन किया और योग के विविध अंगों का अभ्यास भी किया। उस अद्‌भुत संन्यासी को इस प्रकार घूमते-घूमते देश की दुर्दशा का जो साक्षात्कार हुआउससे वह रचनात्मक उपाय की खोज के लिए और अधिक व्यग्र हो उठा।

    ऊपर जिन आन्दोलनों की हमने चर्चा की है उन आन्दोलनों की वैचारिक दुर्बलताओं का भी ऋषि ने पर्यालोचन किया। अन्त में अपने समस्त अभियान के परिणाम-स्वरूप उसने आर्य समाज की स्थापना करके उसके माध्यम से अपना लक्ष्य प्राप्त करने का स्वरूप देखा। हमने अन्य आन्दोलनों में भारतीय अस्मिता के मूल तत्व के अभाव की बात कही है। ऋषि दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना के द्वारा जैसे भारत की उस अस्मिता का मूल मन्त्र खोज लिया।

    संक्षेप में हम कह सकते हैं कि न केवल स्वराज्यप्रत्युत स्वदेशस्वधर्मस्वभाषास्वसंस्कृति और स्वसाहित्य की पहचान ही आर्य समाज की पहचान है। भारत जिस किसी माध्यम से अपने "स्व" को और अपने विशिष्ट व्यक्तित्व को व्यक्त कर सकेवही उसकी अस्मिता है। उस अस्मिता का मूल वह वैदिक विचारधारा है जो सृष्टि के आदि से किसी न किसी रूप में निरन्तर प्रवहमान है। ऋषि दयानन्द ने उस प्रवाह के उत्स के रूप में वेद को पहचाना और आर्य समाज रूपी भवन की दृढ आधार शिला उसी अक्षय ज्ञान विधि की शिला पर स्थापित की।

    सन्‌ 1857 से लेकर सन्‌ 1885 तक का जो रिक्त स्थान है उसको सही रूप में यदि किसी ने भरने का प्रयत्न किया तो वे ऋषि दयानन्द थे। वह माध्यम ही आर्य समाज है। आर्य समाज का यह आन्दोलन किसी वर्ग-विशेषकिसी सम्प्रदाय विशेष और किसी स्थान विशेष से सम्बद्ध नहीं था। बल्कि यह सर्वथा असाम्प्रदायिक विशुद्ध राष्ट्रीय अखिल भारतीय मंच था जिसमें भारत के "स्व" की सही रूप में अभिव्यक्ति हुई था। आर्य समाज की स्थापना के दस वर्ष बाद सन्‌ 1885 में अखिल भारतीय कांग्रेस की स्थापना हुईपरन्तु इस कांग्रेस को अखिल भारतीय मंच बनने के लिए भी कम से कम 50 वर्ष तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। सन्‌ 1875 से लेकर सन्‌ 1920 तक भी अगर राष्ट्र की सामाजिकधार्मिकराजनैतिक और शैक्षणिक चेतना का कोई एक मात्र सशक्त आधार था तो वह केवल आर्यसमाज ही थाकांग्रेस नहीं। सन्‌ 1920 के पश्चात्‌ कांग्रेस ने बेशक अखिल भारतीय मंच का रूप धारण किया पर उसमें भी सबसे अधिक योगदान आर्य समाज का ही है। जो आर्य समाज पहले "स्वराज्य" के लिए प्रतिबद्ध थावही अब "सु-राज्य" के लिए प्रसिबद्ध है। वह लक्ष्य अभी तक अप्राप्त है। एक तरह से कहा जा सकता है कि स्वराज्य प्राप्ति के पश्चात्‌ कांग्रेस तो लक्ष्य भ्रष्ट हो गईइसलिये निरुपयोगी भी हो गई। परन्तु आर्यसमाज की चुनौतियां ज्यों की त्यों कायम हैं- जैसे परतन्त्र भारत मेंवैसे ही स्वतन्त्र भारत में भी।

    हमारे बार-बार भारतीय अस्मिता की बात पर जोर देने से पाठक यह न समझें कि यह किसी संकुचित राष्ट्रवाद का प्रचार है। बल्कि भारतीय अस्मिता ही मानवीय अस्मिता की असली सन्देश वाहिका है। इसलिये "कृण्वन्तो विश्वमार्यम्‌" को चरितार्थ करने के लिये सबसे पहले इकाई के रूप में हमें भारत को ही परीक्षण-स्थली बनाना पड़ेगा। इस महान कार्य की पूर्ति की आशा सिवाय आर्य समाज के किसी अन्य संस्थात्मक आन्दोलन से नहीं की जा सकती।

    इस सन्दर्भ को समझे बिना आर्य समाज की स्थापना के महत्व का मूल्यांकन भी नहीं किया जा सकता। पं. क्षितिश वेदालंकार

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    राष्ट्रीय प्रशासनिक मुख्यालय
    अखिल भारत आर्य समाज ट्रस्ट
    आर्य समाज मन्दिर अन्नपूर्णा
    नरेन्द्र तिवारी मार्ग
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    अन्नपूर्णा, इंदौर (मध्य प्रदेश) 452009
    दूरभाष : 0731-2489383, 9302101186
    www.aryasamajindorehelpline.com 

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    National Administrative Office
    Akhil Bharat Arya Samaj Trust
    Arya Samaj Mandir Annapurna
    Narendra Tiwari Marg
    Near Bank of India
    Opp. Dussehra Maidan
    Annapurna, 
    Indore (M.P.) 452009
    Tel.: 0731-2489383, 9302101186
    www.allindiaaryasamaj.com 

     

    To a extent it can be accepted that the term Samaj in Arya Samaj is the result of the inspiration of these earlier movements. In the same years, Rishi Dayanand was also undergoing intense mental anguish, marred by the immediate plight of India. What kind of inner feeling must have been in his mind, it can only be imagined.

     

     

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  • आर्य समाज के गौरव की रक्षा करें

    धर्मशास्त्र का उपदेश देते हुए महर्षि मनु महाराज ने कहा है कि आर्यों के बीच छल-कपट से घुसे हुए अनार्यों को, जिनके असली वर्ण का कोई पता न हो, लेकिन जिनका जन्म निश्चित रूप से किसी नीच कुल में हुआ हो, उनको उनके कर्मों को देख कर पहचानना चाहिए। धोखे से बचने के लिए यह आवश्यक है। अनार्य लोग अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए किसी गुप्त योजना (Hidden Agenda) को लेकर आर्यों की तरह रूप धारण करते हुए (शिखा बन्धन, यज्ञोपवीत धारण आदि द्वारा) आर्यों की तरह यज्ञयागादि करते हुए समाज में अपनी प्रतिष्ठा स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं। स्वभाव से सरल और मुग्ध आर्य स्त्री-पुरुष इन अनार्यों को नहीं पहचान सकते। अत: आत्मीयता के साथ उनको आश्रय देने की भूल कर सकते हैं। इसलिए आर्यों को अनार्यों से हमेशा सावधान रहना चाहिए-
    वर्णापेतमविज्ञातं नरं कलुषयोनिजम्‌।
    आर्यरूपमिवानार्यं कर्मभि: स्वैर्विभावयेत्‌। (मनुस्मृति 10.57)

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    Ved Katha Pravachan - 104 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    आर्यों ने अनार्यों से धोखा खाया - वर्तमान समय में यह बात स्वामी दयानन्द के अनुयायीवेदमार्गीआर्य समाज के निष्ठावान्‌ और श्रद्धालु हर स्त्री पुरुष के लिए बिल्कुल प्रासंगिक हैक्योंकि इन आर्यों ने कई बार अनार्यों से धोखा खाया है। आज भी धोखा खा रहे हैं। अनार्य लोग आर्य समाज की सम्पत्ति को हड़पनेआर्य समाज से राजनीतिक लाभ उठानेझूठी प्रतिष्ठा प्राप्त करनेनेता बननेसंस्कारों का धन्धा चलानेआर्य समाज के संगठन को तोड़ने इत्यादि कई प्रकार के दुरुद्देश्यों को लेकर आर्य समाजों के अन्दर घुस आते हैं या अपने आपको आर्य बता कर अन्य प्रकार से लोगों को ठगते हैं। इन अनार्यों ने अब तक आर्य समाज की प्रतिष्ठा कोउसके संगठन को काफी क्षति पहुंचायी है। आर्यों के अपने आलस्य के कारण या असावधानी के कारण आजकल हर पुराने और बड़े समाजों में तथा अन्य आर्य संस्थाओं में काफी बड़ी संख्या में अनार्य लोग घुसे हुए हैं। इनको पहचानना सचमुच कठिन काम हैलेकिन असम्भव नहीं। क्योंकि सन्दर्भ आने पर ये अपने असली स्वभाव को अवश्य प्रकट करते हैं। वर्णाश्रम धर्मसदाचार के नियम इत्यादि के विरुद्ध  आचरण करनानिष्ठुरताक्रूरतानिकम्मापन इत्यादि अनार्य व नीच लोगों की पहचान है-
    अनार्यता निष्ठुरता क्रूरता निष्क्रियात्मता।
    पुरुषं व्यञ्जयन्तीह लोेके कलुषयोनिजम्‌।।(मनुस्मृति 10.58)

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    मर्यादाओं का पालन -  सब वर्णों के गृहस्थों के लिए पंच महायज्ञों का अनुष्ठान करना अत्यावश्यक है। आश्रम धर्म की मर्यादाओं का पालन करना भी आर्यों का कर्त्तव्य है। लेकिन इन यज्ञों का और इन आश्रम धर्म मर्यादाओं का कितने लोग पालन करते हैंसाधारण सदस्यों की बात छोड़ें। हमारे उपदेशकपुरोहितप्रधानमन्त्रीट्रस्टी प्रभृति लोग आर्य समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। मानव समाज में इनकी अलग पहचान है। लेकिन ये लोग इन बातों का कितना ख्याल करते हैंक्या इन बातों की उपेक्षा करना ठीक हैएक आर्य के लिए किसी के साथ भी अशिष्ट व्यवहार करनाअसभ्य बर्ताव करनानिष्ठुरता या क्रूरता के साथ पेश आनाअपने व्यक्तिगत-पारिवारिक सामाजिक या नागरिक दायित्वों को भूल कर मात्र नाम के लिए प्रधान बनकर निकम्मा कुर्सी से चिपके रहना आदि बातें शोभा नहीं देतीं। क्योंकि ये अनार्यों के लक्षण हैं।

    सदाचार - सदाचार का ही एक दूसरा नाम शिष्टाचार  है। सत्पुरुषसज्जन या शिष्ट पुरुष आर्यों को ही कहते हैं। महर्षि दयानन्द ने हमें सत्यार्थ प्रकाश के अलावा व्यवहारभानु नामक एक ग्रन्थ भी दिया है और महाभारत के उद्योग पर्व तथा शान्ति पर्व को भी पढने को कहा है। क्योंकि इनको पढने से हमें सद्‌व्यवहार और असद्‌व्यवहारों का अच्छा विवेक प्राप्त हो जाता है। अत: महाभारत में भीष्माचार्य ने युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए शिष्ट और अशिष्टों  के जो लक्षण बताये हैंवे हमें विशेष ध्यान देने योग्य हैं।

    शुचिव्रत -  भीष्माचार्य कहते हैं कि शिष्ट पुरुष शुचिव्रत होते हैं। शुचिव्रत तीन प्रकार के होते हैं। यथा- मनवचन और कर्म की पवित्रता। हमारे लिए इस विषय में महर्षि स्वामी दयानन्द जी महाराजस्वामी श्रद्धानन्द महाराज तथा उनके पदचिह्न पर चलने वाले कुछ अन्य महात्मा लोग भी आदर्श प्राय (Role Models) हैं)। शिष्ट पुरुषों को पुनर्जन्म या परलोक का भय नहीं रहता। क्योंकि ये लोग सदा वेदोक्त मार्ग पर चलते हैं और सदा शुभ कर्मों में लगे रहते हैं। इन कर्मों का फल अवश्य शुभ ही होगाऐसा विश्वास इनके मन में रहता है। फिर डर किस बात कापापी और अपराधी स्त्री पुरुष हमेशा भयभीत रहते हैं। इनके पास जनबलधनबलअधिकार बल इत्यादि होते हुए भी आत्मबल की कमी रहती है। शिष्ट व आर्य स्त्री पुरुषों के पास कुछ भी न होने पर भी ये आत्मबल के धनी होते हैं। इनको धनदौलतयशअधिकारसत्ता इत्यादि किन्हीं भी सांसारिक वस्तुओं की ओर आसक्ति नहीं होती। ये अपने प्रियजन और अप्रियजन दोनों तरह के लोगों के साथ न्यायपूर्वक समान बर्ताव करते हैं। किसी के साथ पक्षपात नहीं करते। किसी के साथ भी अन्याय नहीं करते। किसी भी परिस्थिति में ये शिष्टाचार को नहीं भूलते। अत: गुटबाजी आर्योचित व्यवहार नहीं होता।

    पापी को दण्ड भी धर्मानुसार - रामायण में सीता जी हनुमान से कहती हैं कि सत्पुरुष कभी भी पापियों को दण्ड देने के लिए पाप या अन्याय के मार्ग को नहीं अपनाते। शिष्ट पुरुष हमेशा सदाचार को अपना अमूल्य आभूषण समझते हैं। न पर: पापमादत्ते परेषां पापकर्मणाम्‌। समयो रक्षितव्यस्तु सन्तश्चरित्रभूषणा:। (रामायण 6.116.42)। शिष्ट पुरुषों के विद्यादि धन परोपकार के लिए ही होते हैं। इनके अन्दर अहंकार नहीं होता। ये कभी भी धर्म मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करते। ये लोग धन या यश कमाने के लिए धार्मिक कार्य नहीं करते। ये धार्मिक कार्यों को अपना कर्त्तव्य समझ कर ही निष्काम बुद्धि से करते रहते हैं। धर्म की आड़ में अपना स्वार्थ सिद्ध करना शिष्ट व आर्यों का लक्षण नहीं। यह तो पाखण्डियों का लक्षण है। शिष्ट पुरुषों के व्यवहार में कोई गुप्त बात नहीं होती। कालाबाजारी और दो नम्बर के धन्धे करने वाले तथा लालच देकर अपना काम करवाने वाले निश्चित रूप से शिष्ट पुरुष नहीं हैं। लेकिन ऐसे शिष्ट पुरुष दुनियां में बहुत कम होंगे। अधिकांश लोग केवल धर्म की चर्चा करते हैंआचरण नहीं करते। इसलिए ऐसे शिष्ट पुरुषों के पास जाते रहना चाहिएउनका आदर सत्कार करते रहना चाहिए। उनके साथ धर्मचर्चा करते रहना चाहिए- शिष्टांस्तु परिपृच्छेथा यान्‌ वक्ष्यामि शुचिव्रतान्‌। येष्वावृत्तिभयं नास्ति परलोकभयं न च। नामिषेषु प्रसङ्गोऽस्ति न प्रियेष्वाप्रियेषु च। शिष्टाचार: प्रियो येषु दमो येषु प्रतिष्ठित:। दातारो न संग्रहीतारो... ते सेव्या: साधुभिर्नित्यं... ये निर्ममा निरहंकृता:... सुव्रता: स्थिरमर्यादास्तानुपास्व च पृच्छ च... न धनार्थं यशोऽर्थं वा ध्वजिनश्चैव न गुह्यं कञ्चिदास्थिता:... धर्मप्रियांस्तान्‌ सुमहानुभावान्‌ दान्तोऽप्रमत्तश्च समर्चयेथा। दैवात्‌ सर्वे गुणवन्तो भवन्ति शुभाशुभे वाक्‌प्रलापास्तथाऽन्ये।। (महाभारत शान्ति पर्वअध्याय 158)

    इनसे भिन्न अनार्य -  इसका दूसरा अर्थ यही हुआ कि जिन लोगों के आचार-विचार ठीक नहींजो लोग मृत्यु के भय के कारण न्याय्य मार्ग से हटते हैंधन दौलतअधिकार आदि के लोभ में फंसे रहते हैंजिनके व्यवहार में पक्षपातातादि दोष होते हैंजो छोटी-मोटी बातों पर भी शिष्टाचार को भूल जाते हैंजिनके विद्यादि गुण केवल स्वार्थ सिद्धि के लिए ही होते हैंजिनके अन्दर दुरभिमानअहंकार आदि दोष मौजूद हैंजो लोग धर्म मर्यादाओं का पालन नहीं करतेशिष्ट पुरुषों के पास न जातेन उनका आदर करते और जो लोग धन के लोभ से या नाम माने की इच्छा से धार्मिक कार्यों में लगे रहते हैंये लोग निश्चित रूप से शिष्ट पुरुष व आर्य नहीं हो सकते। शिष्ट पुरुषों की इस कसौटी से यदि आज हम लोग आत्म निरीक्षण करेंतो हमें क्या जवाब मिलेगाक्या हम कटु वास्तविकता का सामना करने की हिम्मत रखते हैंआर्य और अनार्यों का भेद बताने वाली रेखा लुप्तप्राय है।

    अधर्मी का विश्वास मित्र भी नहीं करते - महर्षि स्वामी दयानन्द महाराज ने व्यवहारभानु की भूमिका में लिखा है- "जब मनुष्य धार्मिक होता है तब उसका विश्वास और मान शत्रु भी करते हैं और जब अधर्मी होता हैतब उसका विश्वास और मान मित्र भी नहीं करते। इसलिए मैं मनुष्यों को उत्तम शिक्षा के अर्थ सब वेदादि शास्त्र और सत्याचारी विद्वानों की रीति से युक्त इस व्यवहार भानु ग्रन्थ को बनाकर प्रकट करता हूँ कि जिसको देख दिखाकर पढ पढाकर मनुष्य अपने और अपने मित्र तथा विद्यार्थियों का आचार अत्युत्तम करें कि जिससे आप और वे सब दिन सुखी रहें।" तदनुसार स्वामी जी महाराज ने संक्षेप में और अति सरल भाषा में पण्डितों के लक्षणमूर्खों के लक्षणसभा आदि में कैसे वर्तेंराजा-प्रजा और मित्रादि के साथ कैसे वर्तेंन्याय-अन्याय का लक्षणमनुष्यपन के लक्षण इत्यादि विषयों पर प्रकाश डाला है। यद्यपि इन विचारों का सम्बन्ध समस्त मानव समाज से है और इनके नैतिक मूल्य सार्वकालिक हैंतथापि इन विचारों को पूर्ण प्रामाणिकता और श्रद्धा के साथ आचरण में लाना और प्रचार करना आर्य समाज के प्रत्येक सदस्य कास्वामी दयानन्द के हर अनुयायी का मुख्य कर्तव्य है।

    इस दृष्टि से आर्य समाज के हर उपदेशकहर पण्डित (पुरोहित)प्रधान और मन्त्रीट्रस्टी आदि पदाधिकारी इन सबका व्यवहार अन्य लोगों के लिए आदर्श प्राय (Living role model) होना ही चाहिए। नैतिक दृष्टि से इनका जीवन अन्य लोगों की अपेक्षा उच्च स्तर का होना ही चाहिए। इन नैतिक नियमों में कभी भी समझौता नहीं किया जाना चाहिए। इस प्रकार का समझौता करने से बड़े-बड़े दोष उत्पन्न हो जाते हैं।

    विचारों का मूल  आर्य समाज की गौरव गरिमाइसकी प्रतिष्ठा का आधार उसके प्रचारक और कार्यकर्ताओं के आचरण हैंउनका शिष्टाचार है। लेकिन जब से अनार्य लोग आर्य समाजों के अन्दर घुसपैठ करके सरल स्वभाव के श्रद्धालु आर्यों को धोखा देकर पदाधिकारी और नेता बनने लगेतब से आर्य समाज  तथा आर्य संस्थाएं विवादों में फंस गई हैं। जब कोई विवाद उत्पन्न हो जाता हैतब दोनों पक्षों में लोग होते हैं और आजकल बहुमत मूर्खों का होता है। ये लोग अपनी बुद्धि से न सोच कर गलत प्रचारों के प्रवाह में बह जाते हैं। सन्त: परीक्ष्यान्यतरद्‌ भजन्ते मूढ: परप्रत्ययनेय बुद्धि:। Wisemen discern and discriminate, examine and accept what is good. A food is carried away by the conviction of others. अत: सच्चाई सामने नहीं आती।

    आर्य समाज में से अनार्यों की पहचान -  जैसा कि मनु महाराज ने कहा है आर्य रूप धारण किये हुए अनार्यों की पहचान और उनको ठिकाने लगाना यद्यपि कोई सरल कार्य नहींतथापि यह कोई असम्भव कार्य भी नहीं है। लेकिन इस कार्य को कोई वीर पुरुष ही कर सकते हैं। सामान्य स्थिति में कौन क्या हैयह समझाना मुश्किल ही है और इस बात की ओर कोई ध्यान भी नहीं देता। लेकिन जब कोई गड़बड़ अध्याय प्रारम्भ हो जाता हैतब इस विषय पर विचार करना ही पड़ता है। परिस्थिति आने परअनार्यों का अनाड़ीपननिष्ठुरताक्रूरता और निकम्मापन सामने आ ही जाता है। सभाओं के चुनाव उसका एक अच्छा उदाहरण है। अपना बहुमत सिद्ध करने के लिए बोगस मतदाताओं को लाया जाता है। 

    आर्य समाज राजनेताओं के पीछे क्यों गया? आर्य समाजों के उत्सव और सम्मेलनों में ऐसे मन्त्रियों को और राजनेताओं को बुलाकर विशेष सम्मान क्यों दिया जाता हैजिनके आचरण में आर्यत्व का लेश मात्र भी नहींइस प्रश्न का उत्तर स्पष्ट है। आर्य समाजों में ऐसे लोग नेता बनकर आ गये हैंजिनके अन्दर राजनीतिक महत्वाकांक्षा या अपने निजी व्यापार और उद्योग की उन्नति की गुप्त योजना है। ऐसे लोगों में न कोई प्रमाणिकता होती हैन कोई निष्ठा। ये चढते सूरज को नमस्कार करने वाले होते हैं। इस कारण ये लोग राजनैतिक पार्टियों में कभी उस पक्ष के नेताओं के पासकभी इस पक्ष के नेताओं के पास चक्कर काटने में लगे रहते हैं। सिद्धान्त नाम की कोई चीज ही न रही। जिन आर्य समाजों में और सभाओं  के अन्दर गड़बड़ अध्याय चल रहा हैउनके खलनायक ऐसे नेता ही हैं। इनकी योजना आर्य समाज को मजबूत बनाना नहींअपितु अपने हाथअपने समर्थकों की संख्या मजबूत बनाना है। इस योजना के अनुसार ये अशिष्ट और मूर्खों को भी अपने साथ ले लेते हैं और चापलूस पण्डितों को भी पालते हैं। इसके साथ-साथ ये एक दूसरा कार्य भी करते हैं। ये लोग धर्म-अधर्मन्याय-अन्याय का विचार न करते हुए अपनी आलोचना करने वालों को अपना विरोध करने वालों को आर्य समाज सेसभा और अन्य आर्य संस्थाओं से बाहर करने का नीच कार्य करके निष्ठुरता और क्रूरता का परिचय देते हैं। कभी-कभी ये मुसलमान मुल्लाओं की तरह फतवा भी जारी करते हैं। कभी-कभी ये बाइबिल के आदेशों के अनुसार अपना विरोध करने वालों को आजीवन बाहर रखने का भी प्रयास करते हैं। कुरान और बाइबिल को मानने वाले ही ऐसा व्यवहार  कर सकते हैंवेद को मानने वाले ऐसा नहीं कर सकते।ज्येष्ठ वर्मन

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    It is also the duty of the Aryans to follow the limits of Ashram religion. But how many people follow these yagyas and these ashram dharmya dignities? Skip the talk of ordinary members. Our preacher, priest, head, minister, trustee, Prabhriti people represent Arya Samaj. They have a different identity in human society.

     

     

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  • आर्य समाज विवाहों पर लगी शर्तें हटीं

    परिवारजनों की अनुपस्थिति में भी अब विवाह हो सकेंगे

    ग्वालियर । आर्य समाज में होने वाले विवाहों पर लगाई गई शर्तें ग्वालियर स्थित मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की युगल पीठ द्वारा हटा दी गई हैं। अब माता-पिता अथवा परिवारजनों की उपस्थिति के बिना भी आर्य समाज में विवाह हो सकेंगे। बुधवार दिनांक 30 अक्टूबर 2013 को मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की ग्वालियर स्थित युगल पीठ ने आर्य समाज की पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि विधियॉं बनाने का काम न्यायालय का नहीं है।

  • आर्यसमाज का मूल मन्तव्य

    आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द का जन्म 1824 को टंकारा (गुजरात) में हुआ। आपके बालपन का नाम मूलशंकर था। 14 वें वर्ष बालक मूल अपने पिता के साथ शिवरात्रि की कथा सुनने के लिए गया। शिव की वीरता और व्रत की महिमा सुनकर मूल ने व्रत रखा, रात को मन्दिर में शिवपिण्डी पर चूहों को दौड़ते व भोग को खाते हुए देखकर पिताजी को जगाया और अनेक प्रश्न पूछे। उत्तर से जब मूल के मन को सन्तोष न हुआ तो मूल अनुमति लेकर घर लौट आया तथा सच्चे शिव के दर्शन का व्रत लिया। 

    बहिन और चाचा की मृत्यु से वैराग्य की भावना उभरी और मूल ने मृत्यु-विजय की ठानी। जब घर में अपने विवाह की तैयारियां देखीं, तो इक्कीस वर्षीय शिक्षित युवक मूल एक दिन घर से निकल पड़ा। योग सिखाने वाले गुरु की खोज में लगातार 14 वर्ष जंगलों, पहाड़ों, मैदानों की खाक छानता रहा और जहॉं भी किसी योग सिखानेवाले का पता चला, वहीं मूल से शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी और फिर दयानन्द संन्यासी बनकर पहुंचा। अन्त में मथुरा आकर ब्रह्मर्षि गुरु विरजानन्द दण्डी से लगभग तीन वर्ष अध्ययन किया। जब स्वामी दयानन्द ने जीवन साधना की सिद्धि के लिए गुरु से विदा मांगी तो गुरु ने पूर्व प्रतिज्ञाओं को परोक्ष में करके आर्षज्ञान ज्योति जगाने की प्रेरणा दी।गुरु आज्ञानुसार कार्य करते हुए महर्षि ने अनुभव किया कि केवल कुछ बता देने से लक्ष्य सिद्ध न होगा। एतदर्थ जनता का संगठन बनाना आवश्यक है, तभी स्थायित्व आ सकता है। अत: 1875 में आर्यसमाज की स्थापना की। आर्यसमाज प्रचारात्मक धार्मिक संगठन है।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    दूसरों के रास्ते से काँटों को हटाना धर्म।
    Ved Katha Pravachan - 102 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    भारतीय जीवन में धर्म सबसे प्रमुख है। दूसरी सामाजिकआर्थिकराजनीतिक व्यवस्थायें भी धर्म पर निर्भर हैं। धार्मिक दृष्टि से हमारे यहॉं अनेक विचारसिद्धान्त तत्व हैं। जैसे कि ईश्वरजीवप्रकृतिभाग्यवर्ण-आश्रम व्यवस्थाकर्मफल आदि। इन सारे तत्त्वों में से सबसे अधिक प्रमुख बात कौनसी हैजिसके साथ दूसरे तत्त्व भी जुड़े हुए हैं?

    यदि इस दृष्टि से हम भारतीय विचारधारा तथा जीवन पद्धति पर विचार करते हैं तो विचार करने पर ऐसा तत्त्व कर्मफल-व्यवस्था ही सिद्ध होता है। अन्य जितने भी विचार हैं वे सारे इसी विचार अर्थात्‌ कर्मफल-व्यवस्था के साथ ही जुड़े हुए मिलते हैं तथा इसी कर्मफल व्यवस्था की कड़ियॉं ही सिद्ध होते हैं।

    इसीलिए ही हम भारतीय चाहे दो-चार भी कहीं इकट्ठे होते हैंतो जीवन व्यवहार से जुड़ी हर बात को भाग्य से जोड़कर ही मानते हैं। जैसे कि यदि किसी का वैवाहिक सम्बन्ध जुड़ता हैकिसी के यहॉं कोई नया शिशु जन्म लेता है या किसी की कहीं नौकरी लगती है अथवा कोई किसी प्रकार का नया कारोबार करता है। किसी प्रकार के सुख-दु:ख की बात होती है या हानि-लाभ की या सफलता-असफलता की चर्चा होती है तब प्राय: कहा जाता है:- "हानि-लाभजीवन-मरणयश-अपयश विधि हाथ।" और तो क्या यदि कोई रुग्ण होता हैतो हमारे यहॉं प्राय: तब भी यही कहा जाता हैयह सब भाग्य का चक्र है। यह तो होनी हैऐसा ही होना थायह तो विधि-विधान है। इसको कौन बदल सकता है। क्योंकि:- "सकल पदारथ हैं जग मांहि। कर्म (भाग्य) हीन नर पावत नांहि।"

    अत: भारतीय विचारधारा को समझने के लिए हमारा ध्यान स्वाभाविक रूप से भाग्यविधिदैवहोनीलेख शब्दों पर जाता है और इन शब्दों को समझ लेने पर ही भारतीय भावना स्पष्ट होती है। भाग्य शब्द भाग से बनता है। भाग का अर्थ है=हिस्सा । अत: भाग्य का अर्थ हुआ हिस्से का अर्थात्‌ बांटने पर हिस्से में आनेवाला। हर हिस्सा किसी न किसी के आधार पर होता हैजैसे कि कुछ मिलकर किसी कार्य को करते हैं। उस कार्य के करने जो फललाभ प्राप्त होता है अर्थात्‌ जो कमाई होती हैउसके एक निश्चित व्यवस्थासमझौते के आधार पर भागहिस्से बंटते हैं। भाइयों में भी हिस्से बंटते हैं। वे एक पिता के पुत्र होने से अपना-अपना भागभाग्य प्राप्त करते हैं। अत: हिस्से कर्म और जन्म के आधार होते हैं। हॉंइस प्रकरण में भाग्य का अर्थ हैपिछले कर्मों का फल।

    विधि शब्द विधाननियम के साथ इसके कर्त्ता के लिए भी प्रयुक्त होता है। देव शब्द से दैव बनता हैजिसका भाव हैदेव द्वारा किया गया या देव द्वारा प्राप्त होनेवाला। अत: इन शब्दों का प्रकरण के अनुसार अभिप्राय हुआ कि एक ऐसा देव है जिसके विधि-विधान के अनुरूप जो जैसा कर्म करता हैवह उन-उन कर्मों के आधार पर अपना-अपना भाग्य प्राप्त करता हैं।

    ये शब्द कर्मफल व्यवस्था से सम्बद्ध हैं। अत: इन शब्दों का पूर्ण स्वारस्य समझने के लिए कर्मफल व्यवस्था को हृदयंगम करने हेतु इन शब्दों को स्पष्ट करना होगा। जैसे कि- कर्म किसको कहते हैंवह कितने प्रकार का हैं?  कर्म का कर्त्ता कौन है वह कर्म करने में कितना कहॉं स्वतन्त्र है कर्म करने के साधन क्या-क्या हैं किस कर्म का फल कैसा होता हैकर्म किन-किन पड़ावों से होकर फल के रूप में परिणत होता हैंकर्मों का फल कौन देता है कर्म स्वयं या ईश्वरकर्म का कर्त्ता कर्मफल प्राप्त करने में स्वतन्त्र है या परतन्त्रकर्मफल दाता क्या दयाक्षमा भी करता है अर्थात्‌ वह कितना दयालु और न्यायकारी हैकर्मफलदाता फल क्या किसी की सहायता से देता है कर्मफल व्वस्था क्या अटलअटूूट है या इसमें रिश्वतपहुंच आदि से अन्तर आ जाता हैयह व्यवस्था क्या आज की राजनीति की तरह मुख देखकर चलती है 

    आर्यसमाज का मूल मन्तव्य वस्तुत: कर्मफल व्यवस्था ही है। इसका स्पष्ट और सुनिश्चित रूप ही आर्यसमाज को दूसरों से अलग करता है। जैसे कि कर्मफल से बचने के लिए आज अनेकों ने अनेक ढंग अर्थात्‌ इष्टदेव का दर्शन-पूजननामस्मरणतीर्थयात्रास्नान समझ लिये गये हैं। आज का धर्म इसी प्रकार के कर्मकाण्डों का रूप ही बनकर रह गया है। जबकि व्यवहार में मन्त्र-तन्त्र आदि के बर्तने पर भी पाप का परिणाम दु:ख दूर होता नहीं है। जैसे औषधि लेने पर रोग का कष्ट दूर हो जाता है।

    वस्तुत: आर्यसमाज को पूरी तरह से समझने के लिए कर्मफल व्यवस्था को पूरी तरह से समझना जरूरी है। लेखक - प्रा. भद्रसेन 

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    A feeling of disinterest emerged from the death of the sister and uncle, and the original decided death-victory. When he saw the preparations for his marriage at home, the twenty-one-year-old educated young man left the house one day. For 14 consecutive years in search of a teacher who taught yoga, he searched the forests, mountains, plains and wherever a teacher of yoga was found, from the original, pure Chaitanya came as a brahmachari and then Dayanand a sannyasi.

     

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  • आर्यसमाज का मौलिक आधार

    लेखक - स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती

    सर्वश्रेष्ठ अध्येताओं के अनुसार हिमालय के आस-पास ही मनुष्य का अवतरण हुआ है। वहीं से उसकी संस्कृति का और मानव जाति की यात्रा का प्रारम्भ होता है। वेद के दिव्य वाक्य मानव जाति के जीवन के आधार बने। कुछ काल प्रेम और आनन्द से रहने के बाद यहीं से मनुष्य समस्त संसार में बिखर गये।

  • आहार आरोग्य सूत्र

    बिना कड़ी भूख लगे भोजन न करें। भोजन उतना ही करें कि पेट को बोझ महसूस न हो। कहावत भी है- आधा भोजन, दोगुना पानी, तिगुना श्रम, चौगुनी मुस्कान।

    भोजन करते समय चित्त में प्रसन्नता हो। इस समय बातें बिल्कुल न करें। चिन्ता, क्रोध, ईष्या, द्वेष, घृणा, भय आदि मानसिक उद्वेग के समय भोजन न करें, तो अच्छा है। क्योंकि उस समय किया गया भोजन ठीक से नहीं पचेगा और रोग पैदा करेगा। भोजन को भगवान का प्रसाद मानकर प्रत्येक ग्रास को अमृत-तुल्य और स्वास्थ्यवर्द्धक मानकर ग्रहण करें।

    Ved Katha Pravachan _21 (Introduction to the Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    अनाज को चक्की में अधिक महीन पीसने से तथा तलने-भुनने से उसके स्वाभाविक गुणआवश्यक खनिज लवणविटामिन्स नष्ट हो जाते हैं। अतः स्मरण रहे कि मोटे आटे (चोकर युक्त) की रोटी ही खाएं। भोजन को भाप में पकाकरकम मसालों का प्रयोग करें। घीतेलपचने में भारी होते हैं। अतः दूधदहीअंकुरित अनाज आदि से इसकी पूर्ति कर लेनी चाहिए। अंकुरित अनाज चनामूँगमूँगफलीगेहूँ तथा नारियल आदि में पर्याप्त पोषक तत्व हैं। अंकुरित अन्न में पोषक शक्ति कई गुना बढ़ जाती है। नित्य प्रातः पचास ग्राम अंकुरित अन्न खूब चबा-चबाकर सेवन करना चाहिए।

    सप्ताह में एक दिन पेट को छुट्टी देने के लिए उपवास की आदत डालनी चाहिए। जब सभी कर्मचारियों को नई स्फूर्ति अर्जित करने के लिए साप्ताहिक अवकाश मिलता हैतो पेट को छुट्टी क्यों न मिलेवास्तविक उपवास वह है जिसमें जल की कुछ मात्रा बढ़ाकर उसमें नीम्बू डालकर पिया जाता है। यह न बन पड़े तो दूधछाछफलों का रस लेकर काम चलाना चाहिए। पूरे दिन जिन्हें भूखे रहना कठिन होवे एक समय शाम को तो उपवास कर ही लें। उपवास से पाचन शक्ति बढ़ती है तथा शरीर-शोधन में बड़ा सहयोग मिलता है।

    खाद्य पदार्थों को सीलनसड़ने वाले स्थानों एवं बदबू वाले पात्रों में नहीं रखना चाहिए। चूहेघुनकीड़े आदि उन्हें जहरीला न बना सकेंइसलिए सभी खाद्य पदार्थ ढककर रखने चाहिएं। समय-समय पर धूप में सुखाते रहना चाहिए। पकाने एवं खाने के उपकरण साफ-सुथरे रखने चाहिएंजिससे उनमें विषाक्तता उत्पन्न न हो।

    सभी प्रकार के नशे हानिकारक हैं। उनमें से किसी का भी व्यसन नहीं करना चाहिए। क्षणिक उत्तेजना के लिए शारीरिकमानसिक स्वास्थ्य चौपट करनेअकाल मृत्यु तथा सर्वत्र निन्दित होने एवं परिवार को अस्त-व्यस्त करने वाली इस बुराई से हर किसी को बचना चाहिए। जिन्हें यह लत लगी होउन्हें छुड़ाने का प्रयत्न करना चाहिए।

    सड़े-गले शाक-सब्जीफलमिठाई आदि को खाते रहना बुरी बात है। स्वादनाम या मूल्य के आधार पर नहींबल्कि खाद्य पदार्थों के सुपाच्य और ताजे होने को मुख्यता दी जानी चाहिए। सड़े अंगूरों की तुलना में ताजे टमाटर हजार गुने अच्छे हैं। आवश्यक नहीं कि कीमती मेवाफल या टानिकों पर धन पानी की तरह बहाया जाए और पहलवान बनने का सपना देखा जाए। जिनके पास उतना धन नहीं हैवे अंकुरित अन्न से भी बादाम जैसा पोषण पा सकते हैं। गाजर में उच्चकोटि का विटामिन "एहै। गाजर का रस नित्य पीने से रक्त की शुद्धि होती है। गाजर का रस स्वयं ही एक टॉनिक है। आँवलानीम्बूकेलाअमरूदसेबसन्तरामौसम्मी जैसे मौसमी फलकीमती टॉनिकों से बढ़कर हैं।

    चबा-चबाकर खाने सेकम खाकर भी अधिक तृप्ति मिलती है। मोटापा नियन्त्रित करने के लिए चबा-चबाकर धीरे-धीरे भोजन करना चाहिए। चबाने से खून में सेरीटोनिन नामक हार्मोन की मात्रा बढ़ जाती हैजिससे अनिंद्रातनावमानसिक अवसादसिरदर्द आदि रोग दूर हो जाते हैं।

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    भोजन को ठीक तरह चबाने से आँतों की क्रिया और पचन ठीक होता है। फलस्वरूप डायबिटीज (शुगर)संधिवातगठिया इत्यादि रोग स्वतः ही ठीक होते हैं। हाइपर-एसिडिटी (अति अम्लता) तथा भूख न लगने की शिकायत दूर हो जाती है।

    भोजन के साथ पानी पीने की आदत ठीक नहीं है। भोजन करने के एक घण्टे पूर्व पानी न पीएं तथा भोजन करने के डेढ़ घण्टे बाद पानी खूब मात्रा में पानी पिएं। भोजन को ठीक तरह चबाने पर लार (सलाइवा) के अच्छी तरह मिल जाने से पानी की आवश्यकता नहीं रह जाती है। यदि आवश्यकता नहीं रह जाती है। यदि आवश्यक हो तो 50-100 ग्राम जल पिया जा सकता है।

    सुबह उठकर दो गिलास पानी पीना आँतों की शुद्धि के लिए हितकारक है। दोनों भोजन (सुबह-शाम) के बीच के समय में पर्याप्त पानी पीते रहें। नित्य 2.5 से 3.5 लीटर पानी पीना चाहिए। एक साथ अधिक मात्रा में पानी न पीकर हर घण्टे,आधे घण्टे बाद घूंट-घूंट पानी पीना बेहतर है।

    शीतल पेयफाष्ट-फूटब्रेडबिस्किटपूड़ी,  केककचौरीरंग-बिरंगी मिठाइयॉंटॉफीआइस्क्रीमचाय आदि स्वास्थ्य के लिए अहितकर हैं। मैदा-खाद्य आँतों से चिपककर कब्ज पैदा करती है तथा डिब्बानन्द खाद्य पदार्थ में उनके संरक्षण के लिए कीटनाशक (जहरीले रसायन) मिलाए जाते हैं जो आँतेंगठियायकृतफेफड़े आदि के रोग पैदा करते हैं।

    स्वस्थ रहने के लिए हमारे खून का मिश्रण 80 प्रतिशत क्षारीय एवं 20 प्रतिशत अम्लीय होना चाहिए। अतः क्षारीय खाद्य पदार्थ अधिक सेवन करना चाहिए। क्षारीय खाद्य पदार्थ व अम्लीय खाद्य की संक्षिप्त सूची इस प्रकार है-

    हानिकारक अम्लीय खाद्य- चीनीकृत्रिम नमकमैदापॉलिश हुआ चावल व दालबेसनअचारब्रेडबिस्किटकेकडिब्बाबन्द खाद्य पदार्थमॉंसमिठाइयॉंतेलघी आदि।

    स्वास्थ्य क्षारीय खाद्य- गुड़शहदताजा दूधदहीताजे सभी फल (जो स्वतः पककर मीठे होेते हैं)सभी हरी सब्जियॉंउबला या भुना आलूचोकर युक्त आटाछिलका सहित दालअंकुरित अन्नमक्खनकच्चा नारियलकिशमिशमुनक्काछुआराअंजीर आदि।

    उपरोक्त खाद्य पचकर खून को अम्लीय या क्षारीय बनाने वाले हैं। नीम्बू अम्लीय हैपरन्तु पचकर क्षारीय हो जाता है। अतः नीम्बूसन्तरामौसम्मीअनन्नास आदि क्षारीय की श्रेणी में रखे गए हैं। नीम्बू को भोजन के साथ नहींप्रातः पानी के साथ पीना अधिक लाभप्रद है। भोजन में कार्बोहाईड्रेट होता है। नीम्बू डालने से खटास के कारण अन्न के पाचन में कठिनाई आती हैक्योंकि कार्बोहाइड्रेट (गेहूँचावलआलू) आदि का पाचन क्षारीय माध्यम से होता है। भोजन के दो घण्टे बाद या दो घण्टे पहले नीम्बू को पानी के साथ पी सकते है। नीम्बू कई रोगों से बचाता है। विटामिन "सीकी पूर्ति करता है। रक्त को साफ रखता है। जीवनशक्ति और रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है।

    भोजन के साथ ताजी चटनीटमाटरपालकपोदीनाआँवलानारियल आदि भी ले सकते हैं। परन्तु अचारों से परहेज रखना ही हितकर है

    खाद्य सम्बन्धी इन मामूली सी बातों का ध्यान रखकरइस दुर्लभ मानव शरीर को स्वस्थ रखने का दायित्व हम सबका है। कहा भी कहा है- शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्‌ अर्थात्‌ शरीर को स्वस्थ रखना हमारा प्रथम कर्त्तव्य है। - डॉ. मनोहरदास अग्रावत

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    All forms of intoxication are harmful. Neither of them should be addicted. Everybody should avoid this evil, to destroy physical, mental health, premature death and blasphemy and disturb the family. Those who are addicted should try to get rid of them.

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  • ऋषि दयानन्द का शिक्षादर्शन

    ऋषि दयानन्द ने मानव जीवन के सभी क्षेत्रों से सम्बन्ध रखने वाली सभी समस्याओं पर विचार किया है और वेद तथा वेदानुकूल अन्य शास्त्रों के आधार पर उन समस्याओं के इस युग के लिए सर्वथा नवीन और अनूठे समाधान अपने "सत्यार्थ प्रकाश" आदि ग्रन्थों में उपस्थित किये हैं। विभिन्न समस्याओं के सम्बन्ध में ऋषि दयानन्द ने जो विचार और समाधान दिये हैं यदि उनके अनुसार मानव का जीवन बीतने लगे तो धरती स्वर्गधाम बन सकती है और मनुष्य के व्यक्तिगत तथा सामाजिक सब प्रकार के कष्ट-क्लेश दूर होकर यह उन्नति और सुख समृद्धि की चरम सीमा पर पहुंच सकता है।

    शिक्षा समस्या मानव की एक बहुत बड़ी समस्या है। मनुष्य का सब-कुछ उसकी इस समस्या पर निर्भर करता है। मनुष्य का व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन किस प्रकार का होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम अपने बच्चों को किस प्रकार की शिक्षा देते हैं। ऋषि दयानन्द ने शिक्षा के सम्बन्ध में भी सर्वथा नये और निराले विचार दिये हैं। शिक्षा के सम्बन्ध में विचार करते हुए सबसे बड़ा प्रश्न यह उपस्थित होता है कि बालकों की शिक्षा संस्थाएँ किस प्रकार के वातावरण में हों, शिष्य और शिक्षकों के सम्बन्ध किस प्रकार के हों, बालकों को किस प्रकार पढाया जाए, बालकों का रहन-सहन तथा दिनचर्या किस प्रकार की हो और राष्ट्र के प्रत्येक बालक को बिना किसी भेदभाव के ऊंची से ऊंची शिक्षा मिल सके इसके लिए क्या व्यवस्था  की जाये। ऋषि ने शिक्षा विषयक सभी समस्याओं पर अपने ग्रन्थों में विस्तार से विचार किया है। ऋषि के इस सम्बन्ध में जो विचार हैं उनका अति संक्षिप्त उल्लेख किया जा रहा हैं।

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    वैदिक विद्वानों की तपस्या के कारण वेद में प्रक्षेप नहीं हैं
    Ved Katha -15 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    शिक्षा संस्थाएँ नगरों से दूर प्राकृतिक सौन्दर्य से युक्त स्थानों में बनाई जानी चाहिएँ। जहॉं स्वाभाविक प्राकृतिक सौन्दर्य न हो वहॉं सुन्दर लता, वृक्षादि लगाकर शिक्षणालय के स्थान को हरा-भरा और शोभाशाली बना लेना चाहिए। जिसमें बालकों का शारीरिक स्वास्थ्य भी ठीक रहे और मानसिक भी। बच्चों को नगर का धुआँ, धूल-धमक्कड़ और दुर्गन्ध से भरी हवा में सांस न लेना पड़े और वे नगर निवासी गृहस्थों के शान-शौकत तथा श़ृंगार से भरे जीवन से भी पृथक रहें और इस प्रकार गृहस्थों के विलासमय जीवन को देखकर कच्ची उमर में ही उनके मन में विलास-प्रियता के निकम्मे विचार न उठने लगें। बालक शिक्षा समाप्ति से पूर्व नगरों में अपने घरों में नहीं जा सकेंगे। ये चौबीस घण्टे अपने गुरुओं के साथ शिक्षा संस्थाओं के आश्रमों में ही रह सकेंगे।

    गुरु और शिष्य एकान्त में रहेंगे। शिष्यों के चौबीस घण्टों के जीवन पर गुरुओं की दृष्टि रहेगी। गुरु शिष्यों के साथ रहकर उनके जीवन का निर्माण करेंगे। गुरु लोग शिष्यों को उनके हाल पर छोड़कर नगरों में रहने के लिए नहीं जा सकेंगे। गुरुओं का अपने शिष्यों के साथ इतना घनिष्ठ सम्बन्ध होगा जितना मॉं का अपने गर्भ में प़ल रहे बच्चे के साथ होता है। मॉं को अपने गर्भ में स्थित बच्चे के प्रति जितना प्यार और हितकामना होती है उतना ही प्यार और हितकामना गुरु में शिष्य के प्रति होनी चाहिए। मॉं को अपने गर्भ में स्थित बच्चे के प्रति जितनी एकात्मकता होती है उतनी ही एकात्मकता गुरु की शिष्य के प्रति होनी चाहिए। जिस प्रकार मॉं के गर्भ में स्थित बच्चे पर मॉं के अतिरिक्त बाहर का किसी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ सकता, उसी प्रकार गुरुओं के अतिरिक्त शिष्यों पर बाहर के लोगों का कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। गुरु लोग बाहर के जिन लोगों को व्याख्यान आदि के लिए बुलाना आवश्यक समझें उन्हीं का प्रभाव उनपर पड़ना चाहिए। जिस प्रकार मॉं को अपने गर्भ में बच्चे को सब प्रकार से श्रेष्ठ और बढिया बनाने की ही चिन्ता रहती है उसी प्रकार गुरुजनों को अपने छात्रों को सब प्रकार से श्रेष्ठ और उत्तम बनाने की चिन्ता रहती है।

    जब गुरुओं की शिष्यों के साथ इतनी गहरी घनिष्ठता होगी और वे शिष्यों की मॉं की तरह हित-कामना करेंगे तो शिष्य सदैव उनकी आज्ञाओं का पालन करेंगे और छात्रों में आज की सी अनुशासनहीनता की समस्या उत्पन्न नहीं होगी।

    बालकों को क्या पढना चाहिए, इस सम्बन्ध में भी ऋषि ने बड़े विस्तार से विचार किया है। सत्यार्थ प्रकाश, संस्कार विधि और ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में किस प्रकार के ग्रन्थ पढने चाहिएँ और किस प्रकार के नहीं, इस विषय विस्तृत प्रकाश डाला है। ऋषि की उस पाठविधि का ध्यान से विश्लेषण करने पर एक बात तो यह स्पष्ट रूप से सामने आती है कि ऋषि की सम्मति में पाठविधि में भौतिकविद्याविज्ञान (फिजिकल साईंस) और आध्यात्मिक (स्प्रिचूवल साईंस) दोनों का ही समावेश होना चाहिए। ऋषि ने जिन ग्रन्थों का उल्लेख किया है उनमें रसायन, भौतिक, गणित, ज्योतिष, अर्थशास्त्र, राजनीति, युद्ध-विद्या, शिल्पकला, आयुर्वेदादि भौतिकविद्या विज्ञानों का भी वर्णन है। उस पाठविधि में संगीत के अध्ययन की व्यवस्था भी है। संस्कृत भाषा और उसके उच्च अध्ययन की व्यवस्था तो है ही, ऋषि दयानन्द ने यह भी लिखा है कि प्रारम्भ से ही बल्कि पाठशाला में जाने से पहले ही घर में ही बालकों को विदेशी भाषाओं का सिखाना आरम्भ कर देना चाहिए। इससे यह संकेत मिलता है कि विदेशी भाषा मे जो ज्ञान विज्ञान है उस के पठन-पाठन के पक्षपाती ऋषि दयानन्द भी थे। ऋषि दयानन्द की पाठविधियों में तर्क और दर्शनशास्त्र को पढाने की व्यवस्था है। चारों वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ और उपनिषदों के पठन-पाठन की व्यवस्था भी वहॉं है। वेदों में भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की विद्याओं की व्यवस्था है। दर्शनों में, उपनिषदों में आध्यात्मिक विद्याओं का वर्णन है। इस प्रकार ऋषि की सम्मति में भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की विद्याएँ साथ-साथ पढाई जानी चाहिएँ। तभी मानव का सन्तुलित विकास हो सकेगा। किसी एक प्रकार की ही विद्या को पढने-पढाने से व्यक्ति एकांगी हो जाएगा। इसके कारण व्यक्ति और समाज दोनों को हानि होगी। आज के संसार में जो कलह, लड़ाई-झगड़े, युद्ध, अशान्ति दिखाई देती है, वह शिक्षा में आध्यात्मिक विद्याओं को स्थान न देने का ही परिणाम है। ऋषि दयानन्द ने जो विस्तृत पाठविधि दी है वह सब विद्याओं के ज्ञाता, उच्चकोटि के महाविद्वान्‌ व्यक्ति के तैयार करने की दृष्टि से दी है। "सत्यार्थप्रकाश" के तृतीय समुल्लास के अन्त में उन्होंने एक न्यूनतम पाठविधि की ओर भी संकेत किया है। उन्होंने लिखा है कि जैसे पुरुषों को व्याकरण, निरुक्त, धर्म और अपने व्यवहार (आजीविकोपार्जन) की विद्या न्यून से न्यून अवश्य सीखनी चाहिए, वैसे ही स्त्रियों को भी व्याकरण, धर्म, वैद्यक, गणित, शिल्प विद्याएँ तो अवश्य सीखनी चाहिए। सुविधानुसार पाठविधि में अधिक से अधिक विषयों को पढाने की व्यवस्था की जानी चाहिए।

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    ऋषि दयानन्द छात्रों में वासनाओं को भड़काने वाले काव्य, नाटक, उपन्यास आदि पढाने के घोर विरोधी थे। वे छात्रों के जीवन में ब्रह्मचर्य, संयम और पवित्रता पर अधिक बल देते हैं। ग्रीस के प्राचीन महान्‌ दार्शनिक प्लेटो ने भी इस प्रकार के कामोत्तेजक साहित्य को पढाने का घोर विरोध किया है। इसी प्रकार आधुनिक विद्वान एल्डस हक्सले ने भी इस प्रकार के साहित्य को पढाने का घोर विरोध किया है। इसी प्रकार ऋषिदयानन्द ने श्राद्ध, मूर्त्तिपूजा, अवतारवाद, भूत और प्रेतादि तथा अन्धविश्वास की शिक्षा देने वाले साहित्य का भी तीव्र विरोध किया है।

    बालकों को अन्य विषयों की शिक्षा के साथ-साथ योग की शिक्षा भी प्रारम्भ से ही देनी चाहिए। योगदर्शन आदि योग-विषयक साहित्य भी पढाया जाना चाहिए और योग के यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि इन आठ अंगों का क्रियात्मक अभ्यास भी कराना चाहिए। आसनों और प्राणायाम  के अभ्यास से उनमें मानसिक और आत्मिक पवित्रता उत्पन्न होगी, जिसके कारण वे सब प्रकार की बुराइयों और दोषों से बचे रहेंगेतथा योग के निरन्तर अभ्यास से वे परमात्मा के दर्शन के अधिकारी भी एक दिन हो जाएंगे। 

    योग के यम  नियमों में शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ये पॉंच नियम कहलाते हैं। इन नियमों के पालन से छात्र (1) शरीर और वस्त्र की दृष्टि से स्वच्छ रहना सीखेंगे। (2) सफलता और असफलता में एकरस रहना सीखेंगे। (3) साज-सिंगार तथा बनाव-ठनाव से दूर रहकर सादगी और कष्ट सहने की तपस्या का जीवन बिताना सीखेंगे। (4) उनमें उत्तम और ज्ञानवर्द्धक ग्रन्थों के अध्ययन की क्षमता जाग्रत होगी। (5) वे ईश्वर के उपासक बनेंगे। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पॉंच यम कहलाते हैं। उन पॉंच यमों के पालन से छात्र (1) अपने स्वार्थ के लिए किसी प्राणी को किसी प्रकार का भी कष्ट नहीं देंगे, प्रत्युत दूसरे के कष्टों को दूर करने का भाव अपने अन्दर जाग्रत करेंगे। (2) सत्य का पालन करना और असत्य से दूर रहना सीखेंगे। (3) किसी भी प्रकार की चोरी की वृत्ति से पृथक्‌ रहना सीखेंगे। (4) मन और इन्द्रियों को वश में रखकर अपनी जननेन्द्रियों को वश में रखने वाले संयमी बनेंगे। (5) वे लोभ और लालच से परे रहने वाले और आवश्यकता से अधिक धन अपने पास न रखने की वृत्ति वाले बनेंगे। ये दशों बातें जिन छात्रों के जीवन में ढल जाएँगी उनके जीवन में आगे चलकर किसी प्रकार के पाप या बुरे कार्य नहीं होंगे और आज के समाज में जो घोर चरित्रभ्रष्टता पाई जाती है वह चरित्रभ्रष्टता इस प्रकार की शिक्षा-दीक्षा में पले युवकों से बने समाज में कभी दिखाई नहीं देगी। ऋषि दयानन्द ने अपनी शिक्षा-पद्धति में इन यम-नियमों का पालन एक आवश्यक अंग रखा है। - आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति

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    When the gurus will have such deep intimacy with the disciples and they wish the disciples like their mother, the disciples will always obey their commands and the problem of indiscipline will not arise in the students today.

     

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  • ऋषि दयानन्द की सफलता

    ऋषि दयानन्द की सफलता असन्दिग्ध है। कड़े समालोचक भी उससे इन्कार नहीं कर सकते। कोई उस सफलता से प्रसन्न है और कोई नाराज। परन्तु इन्कारी कोई भी नहीं हो सकता। निश्चित सफलता के कारणों पर जब विचार करने लगें तब मतभेद आरम्भ होता है। महात्मा गान्धी से पूछिये तो वह ऋषि की सफलता का एक मात्र कारण ब्रह्मचर्य को बतलायेंगे। एक कट्टर मुसलमान से प्रश्न कीजिये तो वह कहेगा कि एक ईश्वर में दृढ विश्वास ही स्वामी जी की विजय का कारण हुआ। एक आर्य समाजी से पूछिये तो वह वेद पर विश्वास को ही कारण बतलाएगा और एक मनोवैज्ञानिक से सवाल कीजिए तो वह उत्तर देगा कि ऋषि दयानन्द की अद्‌भुत सफलता का प्रधान कारण उनकी प्रतिभा थी। एक इतिहास लेखक सभी प्रकार के विचारकों की सम्मति पर विचार करता है और गुण तथा दोषों को तोलकर देखता है। उसे कोई भी प्रश्न इतना गहन नहीं दिखाई देता कि उसका उत्तर न दे सके और न इतना सरल ही दिखाई देता है कि उसका एक शब्द में चुभता हुआ जवाब दिया जा सके। वह सफलता के सभी कारणों को जोड़ता है और परिणाम निकालता है।

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    शुभ गुणों के लिये दुर्गणोँ का त्याग आवश्यक, यजुर्वेद 30.3

    Ved Katha Pravachan _36 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    ऋषि दयानन्द जी की सफलता में तीन तरह के गुण कारण थे- 1. शारीरिक 2. मानसिक 3. आध्यात्मिक। शारीरिक गुणों हृष्ट-पुष्ट उन्नत शरीर, तेजस्वी चेहरा और सिंह सदृश आँखें। बतलाने की आवश्यकता नहीं कि ऋषि की सफलता में उनके शारीरिक गुणों का एक बड़ा हिस्सा था।

    मानसिक कारणों में से प्रतिभा और स्मृति प्रधान थे। प्रतिभा के कारण बड़े से बड़े वाद में सैकड़ों प्रतिपक्षियों के बीच भी उनकी वाणी अटूट अस्त्रों का प्रयोग करती थी। स्मृति की सहायता के बिना काशी के धुरन्धर पण्डितों को कौन चुप करा सकता था? किताब की विद्या शास्त्रार्थ में काम नहीं देती। वहॉं तो याद ही सबसे बड़ा हथियार है। प्रतिभा और स्मृति ये दोनों स्वामी जी की वशवर्ती होकर काम देती थीं।

    आध्यात्मिक गुणों में से योग, ब्रह्मचर्य और तप ये मुख्य थे। इन तीनों को संक्षेप से कहें तो एक ईश्वर विश्वास और संयम इन दो के अन्तर्गत  जाते हैं। ये दोनों भी एक दूसरे पर आश्रित हैं। ईश्वर विश्वास के बिना पूरा संयम नहीं हो सकता। कर्मशील उग्र आत्मिक भाव ही संयम, योग और तप का आधार है।

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    शरीर की पुष्टि, प्रतिभा और आत्मिकता यह तीन गुण थे, जिनसे ऋषि दयानन्द को अपूर्व सफलता प्राप्त हुई। किसी एक अकेले गुण को तलाश करने में दिमाग न लड़ाकर यदि हम ऋषि के चरित्र पर व्यापक नजर दौड़ायें तो हम इस परिणाम पर पहुँचेगे कि सर्वाङ्गीण उत्कृष्टता ही उनके गौरव का मूल हेतु थी। यही महापुरुष के महत्त्व की निशानी है। जिसमें केवल गुणों का एकदेशी विकास है, वह पूरे महत्व तक नहीं पहुंच सकता। सर्वदेशी विकास ही महत्व का हेतु है। जो केवल शारीरिक या केवल मानसिक गुणों पर भरोसा रखता है वह पूरी सफलता नहीं प्राप्त कर सकता। 

    अपनी सर्वाङ्गीणता के लिए ऋषि का जीवन आदर्श रूप है। उसकी व्यापक ज्योति से सदियों तक प्रजा अपने-अपने दिये जलाया करेगी। (श्री इन्द्र विद्यावाचास्पति कृत दिव्य दयानन्द से साभार) - प्रो. धर्मेन्द्र धींग्रा

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    Pratibha and Smriti Pradhan were among the mental causes. His voice used unbreakable weapons even among the hundreds of contestants in the biggest debate due to talent. Without the help of memory, who could have silenced the pandits of Kashi? The learning of the book does not work in scripture. There, memory is the greatest weapon. Both Pratibha and Smriti used to work under Swami ji.

     

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  • ऋषि बोध पर्व को सांस्कृतिक पृष्ठभूमि

    वैदिक काल के इतिहास से प्रकट है कि हिमाचल प्रदेश कभी देवलोक या देवभूमि के रूप में था। वहॉं देवराज्य था। देवजाति में भी यक्ष, किन्नर, गन्धर्व आदि अनेक वर्ग थे। देवराज्य के सभापति का नाम विष्णु, प्रशासक का नाम इन्द्र, कोषाध्यक्ष का कुबेर और सेनापति का नाम रुद्र या शिव था।

    रुद्र और शिव समानार्थक हैं। रुद्र का अर्थ है- पापियों को रुलाने वाला और शिव का अर्थ है कल्याण करने वाला। जिस राज्य का सेनापति अपने कर्त्तव्य के प्रति सजग होकर दृष्टों को रुलाता हैं, उसी राष्ट्र का कल्याण होता है।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    धन वैभव को दौलत क्यों कहते हैं
    Ved Katha Pravachan _50 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    शिवरात्रि का सम्बन्ध शिवजी के जीवन की एक विशेष घटना से है। युवा सेनापति शिव का विवाह सौन्दर्य और सद्‌गुणों की प्रतिमूर्ति पार्वती देवी के साथ सम्पन्न हुआ था। सुहाग रात्रि के दिन अनायास ही सूचना मिलती है कि असुरों ने देवराज्य पर आक्रमण कर दिया। देव सेनापति शिव के लिए यह सब कुछ अप्रत्याशित था। वे ठगे से रह गये। पर वे योगी थे। कुछ क्षणों को वे समाधिस्थ हुए। उन्होंने अपना तृतीय नेत्र=विवेक नेत्र (ज्ञान नेत्र) खोला और कामदेव की वाण वर्षा को निरस्त करके उसे भस्मसात्‌ कर दिया। रात्रि का अन्धकार गहन था। पर उस निबीड़ अँधियारी रात्रि में शिवजी का आत्मा जागरूक थावह निरन्तर जागरूक रहा और अन्तत: वासना पर विवेक की विजय हुई। देव सेनापति ने घोषणा की- "जब तक असुर सेना पर हम विजय नहीं प्राप्त कर लेंगे तब तक हमारी अखण्ड ब्रह्मचर्य साधना चलेगी।" देवसेना एक प्रकार के जादू से सम्मोहित हो उत्साह से भर उठी। शिव का डमरू बज उठापग थिरक उठेप्रलयङ्कर ताण्डव नृत्य का दृश्य उपस्थित हो उठा।

    पार्वती श़ृंङ्गार-सज्जित बैठी रही और जब उसे वास्तविकता का ज्ञान हुआ तो उसने भी "पति लोकं गमेयम्‌" इस आदर्श को चरितार्थ करते हुए शिवजी के इस रात्रि जागरण के व्रत में दीक्षा ले ली। यों संयम और साधना द्वारा देवत्व प्राप्ति के लक्ष्य को सार्थकता प्रदान की और भारतीय देवियों में अमर पद प्राप्त किया। तभी से यह रात्रि "महाशिरात्रि" बन गई।

    वाम मार्ग काल में तो सभी कुछ उलट गया। शिव का डमरु-वादनताण्डवनृत्यरात्रि जागरणत्रिनेत्रभाल में चन्द्र स्थिति आदि सभी अलङ्कारिक प्रयोगों का सौष्ठव नष्ट कर दिया गया। शिवलिङ्ग पूजा का महाभ्रष्ट क्रम चल पड़ा। कामारि शिव के नाम पर घोर घिनौनी कथायें घड़ ली गईभाङ्ग-धतूरा आदि को शिवजी की प्रिय वस्तु बना दिया गया। मानव पतन की यह पराकाष्ठा थी। ईश अनुकम्पा से इसी शिवरात्रि को फिर एक बालक ने अज्ञान की अँधियारी रात्रि में जागरण की साधना की और अखण्ड ब्रह्मचर्य की साधना का व्रत लेकर बालक मूलशङ्कर ने भोगवाद और असंयम से संतप्त विश्र्व पर दया और आनन्द की वर्षा कर "दयानन्द" संज्ञा को सार्थक किया।

    यों शिवरात्रि और बोध रात्रि का एक ही सन्देश है- हम जागते रहें। जागने का अर्थ प्रकृति नियम विरुद्धस्वास्थ्य नियम विरूद्ध रात्रि भर जागने का नाटक करना नहीं है। वरन्‌ जागने का अर्थ है अपने विवेक को जागरूक रखनाजिससे हम मानव-जीवन के उद्‌देश्य के प्रति जागरूक रहें। हममे प्रतिक्षण यह जागरूकता रहे कि जीवन का उद्‌‌‌देश्य प्रकृति के सदुपयोग द्वारा सच्चिदानन्द स्वरूप परमेश प्रभु कि प्राप्ति है। हमें बोध रहे कि भौतिक सुख साधन तो हैं पर साध्य परमात्मा है। हमें बोध रहे कि हम त्यागपूर्वक भोगेंसंयमशील बनें। इसका अर्थ है कानों से वही सुनें जो सुनना चाहिएआंखों से वही देखें जो देखना चाहियेहाथों से वही करें जो करणीय है आदि। हमें बोध रहे कि प्रभु की प्रजा की सेवा ही सच्ची ईश्वर आराधना है। हमें बोध रहे कि स्वयं अपने प्रतिपरिवारसमाजराष्ट्रविश्र्व मानव और प्राणिमात्र के प्रति कर्त्तव्य पालन ही प्रभु का प्यार पाने का साधन है। तो आयें हम शिव रात्रि को बोध रात्रि बनायेंबोध रात्रि को शिव रात्रि बनायें और आत्म-कल्याण के साथ ही अन्यों के कल्याण का साधन बनें। अब तक जो कुछ भी हुआ सो हुआपर अब आगे हम बोध पर्व पर इस विवेचन के प्रकाश में आत्म-जागरण और परिवार के वैदिकीकरण का व्रत लें। यही शिवरात्रि व्रत का रहस्य है। यही बोधपर्व का सन्देश है। -महात्मा प्रेमभिक्षु (तपोभूमिफरवरी 1997)

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    The history of Vedic period reveals that Himachal Pradesh was once in the form of Devaloka or Devbhoomi. He was the kingdom of Dev. In Devajati also there were many classes like Yaksha, Kinnar, Gandharva etc. The name of the Chairman of Devrajya was Vishnu, the administrator's name Indra, the treasurer's Kubera and the commander's name was Rudra or Shiva.

     

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  • कर्म-फल

    ओ3म्‌ न किल्विषमत्र नाधारो अस्ति न यन्मित्रैः समममान एति।
    अनूनं निहितं पात्रं न एतत्‌ पक्तारं पक्वः पुनराविशाति।।
    (अथर्व.13.3.38)

    शब्दार्थ - (अत्र) इसमें, कर्मफल के विषय में (किल्विषम्‌ न) कोई त्रुटि, कमी नहीं होती और (न) न ही (आधारः अस्ति) किसी की सिफारिश चलती है (न यत्‌) यह बात भी नहीं है कि (मित्रैः) मित्रों के साथ (सम्‌ अममानः एति) सङ्गति करता हुआ जा सकता है (नः एतत्‌ पात्रम्‌) हमारा यह कर्मरूपी पात्र (अनूनम्‌ निहितम्‌) पूर्ण है, बिना किसी घटा-बढ़ी के सुरक्षित रक्खा है (पक्तारम्‌) पकाने वाले को, कर्म-कर्त्ता को (पक्वः) पकाया हुआ पदार्थ, कर्मफल (पुनः) फिर (आविशाति) आ मिलता है, प्राप्त हो जाता है। 

    Ved Katha Pravachan _94 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    भावार्थ - मन्त्र में कर्मफल का बहुत ही सुन्दर चित्रण किया गया है। कर्म का सिद्धान्त इस एक ही मन्त्र में पूर्णरूप से समझा दिया गया है- 

    1. कर्मफल में कोई कमी नहीं हो सकती। मनुष्य जैसे कर्म करेगा उसका वैसा ही फल उसे भोगना पड़ेगा। 

    2. कर्मफल के विषय में किसी की सिफारिश नहीं चलती। किसी पीर, पैगम्बर पर ईमान लाकर मनुष्य कर्मफल से बच नहीं सकता। 

    3. मित्रों का पल्ला पकड़कर भी कर्मफल से बचा नहीं जा सकता। 

    4. किसी भी कारण से हमारे कर्मफल-पात्र में कोई कमी या बेशी नहीं हो सकती। यह भरा हुआ और सुरक्षित रक्खा रहता है। 

    5. कर्मकर्त्ता जैसा कर्म करता है, वैसा ही फल उसे प्राप्त हो जाता है। यदि संसार से त्राण पाने की इच्छा है, तो शुभकर्म करो। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

    पापी के पास ही लौटा आता है पाप

    ओ3म्‌ असद भूम्याः समभवत्‌ तद्‌ द्यामेति महद्‌ व्यचः।
    तद्‌ वै ततो विधूपायत्‌ प्रत्यक्‌ कर्तारमृच्छतु।। (अथर्ववेद 4.16.6)

    शब्दार्थ - (असत्‌) असद्‌ व्यवहार, पाप, अधर्म (भूम्याः) भूमि से (समभवत्‌) उत्पन्न होता है और (तत्‌)  वह (महत्‌ व्यचः) बरे रूप में, अत्यन्त विकसित होकर (द्याम्‌ एति) द्युलोक तक पहुंच जाता है फिर (ततः) वहॉं से (तत्‌ वै) वह पाप निश्चयपूर्वक (विधूपायत्‌) सन्ताप कर्म करने वाले को (ऋच्छतु) आ पड़ता है।

    भावार्थ - मन्त्र में पापकर्म-कर्ता का सुन्दर चित्र खींचा गया है -

    1. मनुष्य पाप करता है और समझता है कि किसी को पता नहीं चला। परन्तु यह बात नहीं है। पाप जहॉं से उत्पन्न होता है वहीं तक सीमित नहीं रहता, अपितु शीघ्र ही सर्वत्र फैल जाता है। 

    2. फैलकर पाप वहीं नहीं रह जाता, अपितु पापी को कष्ट देता हुआ उसके ऊपर वज्र-प्रहार करता हुआ वह पापी के पास ही लौट आता है। 

    3. पाप का फल पाप होता है और पुण्य का फल पुण्य। उन्नति के अभिलाषी मनुष्यों को चाहिए कि अपनी जीवनभूमि से पाप, अधर्म, अन्याय और असद्‌-व्यवहार के बीजों को निकालकर पुण्य के अंकुर उपजाने का प्रयत्न करें। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

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    पुनर्जन्म

    ओ3म्‌ पुनर्मनः पुनरायुर्म आगन्‌ पुनः प्राणः पुनरात्मा 
    म आगन्‌ पुनश्चक्षुः पुनः श्रोत्रम्म आगन्‌।
    वैश्वानरो अदब्धस्तनूपा अग्निर्नः पातु दुरितादवद्यात्‌।।(यजुर्वेद 4.15) 

    शब्दार्थ- (मे) मुझे (मनः पुनः) मन फिर से (आगन्‌) प्राप्त हुआ है (प्राणः पुनः) प्राण भी फिर से प्राप्त हुए हैं (चक्षुः पुनः) नेत्र भी नूतन ही मिले हैं (श्रोत्रम्‌ मे पुनः आगन्‌) कान भी मुझे फिर से प्राप्त हुए हैं (आत्मा मे पुनः आगन्‌) आत्मा भी मुझे फिर से प्राप्त हुआ है। अतः (मे पुनः आयुः आगन्‌) मुझे पुनः जीवन, पुनर्जन्म प्राप्त हुआ है। (वैश्वानरः) विश्वनायक, सर्वजनहितकारी (अदब्धः) अविनाशी (तनूपाः) जीवनरक्षक (अग्निः) परमतेजस्वी, सर्वोन्नति-साधक परमात्मा (दुरितात्‌ अवद्यात्‌) बुराई और निन्दा से, दुराचार और पाप से (नः पातु) हमारी रक्षा करें।

    भावार्थ - जो लोग यह कहते हैं कि वेद में पुनर्जन्म का उल्लेख नहीं है, वे इस मन्त्र को ध्यानपूर्वक पढ़ें। इस मन्त्र में पुनर्जन्म का स्पष्ट उल्लेख है। देह के साथ आत्मा के संयोग को पुनर्जन्म कहते हैं। मन्त्र के पूर्वार्द्ध में कथन है कि मुझे नूतन मन, प्राण, चक्षु, श्रोत्र और आत्मा मिला है। अतः मेरा पुनर्जन्म हुआ है। यह स्पष्ट रूप से पुनर्जन्म का वर्णन है। 

    मन्त्र के उत्तरार्द्ध में प्रभु से एक सुन्दर प्रार्थना की गई है कि हे प्रभो! हमें दुराचार और पाप से बचा। दुराचार और पाप से बचकर जब हम शुभ-कर्म करेंगे, तो नीच योनियों में न जाकर हमारा जन्म श्रेष्ठ योनियों में होगा अथवा हम मुक्ति को प्राप्त करेंगे। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

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    In the latter part of the mantra, a beautiful prayer has been made to the Lord that, O Lord! Saved us from mistreatment and sin. When we do auspicious work by avoiding misconduct and sin, then we will not be born in lowly yonies or we will be born in the best yonies or we will achieve salvation. - Swami Jagadishwaranand Saraswati

     

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