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Arya Samaj Indore - 9302101186. Arya Samaj Annapurna Indore |  धोखाधड़ी से बचें। Arya Samaj, Arya Samaj Mandir तथा Arya Samaj Marriage Booking और इससे मिलते-जुलते नामों से Internet पर अनेक फर्जी वेबसाईट एवं गुमराह करने वाले आकर्षक विज्ञापन प्रसारित हो रहे हैं। अत: जनहित में सूचना दी जाती है कि इनसे आर्यसमाज विधि से विवाह संस्कार व्यवस्था अथवा अन्य किसी भी प्रकार का व्यवहार करते समय यह पूरी तरह सुनिश्चित कर लें कि इनके द्वारा किया जा रहा कार्य पूरी तरह वैधानिक है अथवा नहीं। "आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी अन्नपूर्णा इन्दौर" अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट द्वारा संचालित इन्दौर में एकमात्र मन्दिर है। भारतीय पब्लिक ट्रस्ट एक्ट (Indian Public Trust Act) के अन्तर्गत पंजीकृत अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट एक शैक्षणिक-सामाजिक-धार्मिक-पारमार्थिक ट्रस्ट है। आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी के अतिरिक्त इन्दौर में अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट की अन्य कोई शाखा या आर्यसमाज मन्दिर नहीं है। Arya Samaj Mandir Bank Colony Annapurna Indore is run under aegis of Akhil Bharat Arya Samaj Trust. Akhil Bharat Arya Samaj Trust is an Eduactional, Social, Religious and Charitable Trust Registered under Indian Public Trust Act. Arya Samaj Mandir Annapurna is the only Mandir in Indore controlled by Akhil Bharat Arya Samaj Trust. We do not have any other branch or Centre in Indore. Kindly ensure that you are solemnising your marriage with a registered organisation and do not get mislead by large Buildings or Hall.
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  • आर्यसमाज का मूल मन्तव्य

    आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द का जन्म 1824 को टंकारा (गुजरात) में हुआ। आपके बालपन का नाम मूलशंकर था। 14 वें वर्ष बालक मूल अपने पिता के साथ शिवरात्रि की कथा सुनने के लिए गया। शिव की वीरता और व्रत की महिमा सुनकर मूल ने व्रत रखा, रात को मन्दिर में शिवपिण्डी पर चूहों को दौड़ते व भोग को खाते हुए देखकर पिताजी को जगाया और अनेक प्रश्न पूछे। उत्तर से जब मूल के मन को सन्तोष न हुआ तो मूल अनुमति लेकर घर लौट आया तथा सच्चे शिव के दर्शन का व्रत लिया। 

    बहिन और चाचा की मृत्यु से वैराग्य की भावना उभरी और मूल ने मृत्यु-विजय की ठानी। जब घर में अपने विवाह की तैयारियां देखीं, तो इक्कीस वर्षीय शिक्षित युवक मूल एक दिन घर से निकल पड़ा। योग सिखाने वाले गुरु की खोज में लगातार 14 वर्ष जंगलों, पहाड़ों, मैदानों की खाक छानता रहा और जहॉं भी किसी योग सिखानेवाले का पता चला, वहीं मूल से शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी और फिर दयानन्द संन्यासी बनकर पहुंचा। अन्त में मथुरा आकर ब्रह्मर्षि गुरु विरजानन्द दण्डी से लगभग तीन वर्ष अध्ययन किया। जब स्वामी दयानन्द ने जीवन साधना की सिद्धि के लिए गुरु से विदा मांगी तो गुरु ने पूर्व प्रतिज्ञाओं को परोक्ष में करके आर्षज्ञान ज्योति जगाने की प्रेरणा दी।गुरु आज्ञानुसार कार्य करते हुए महर्षि ने अनुभव किया कि केवल कुछ बता देने से लक्ष्य सिद्ध न होगा। एतदर्थ जनता का संगठन बनाना आवश्यक है, तभी स्थायित्व आ सकता है। अत: 1875 में आर्यसमाज की स्थापना की। आर्यसमाज प्रचारात्मक धार्मिक संगठन है।

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    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    दूसरों के रास्ते से काँटों को हटाना धर्म।
    Ved Katha Pravachan - 102 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    भारतीय जीवन में धर्म सबसे प्रमुख है। दूसरी सामाजिकआर्थिकराजनीतिक व्यवस्थायें भी धर्म पर निर्भर हैं। धार्मिक दृष्टि से हमारे यहॉं अनेक विचारसिद्धान्त तत्व हैं। जैसे कि ईश्वरजीवप्रकृतिभाग्यवर्ण-आश्रम व्यवस्थाकर्मफल आदि। इन सारे तत्त्वों में से सबसे अधिक प्रमुख बात कौनसी हैजिसके साथ दूसरे तत्त्व भी जुड़े हुए हैं?

    यदि इस दृष्टि से हम भारतीय विचारधारा तथा जीवन पद्धति पर विचार करते हैं तो विचार करने पर ऐसा तत्त्व कर्मफल-व्यवस्था ही सिद्ध होता है। अन्य जितने भी विचार हैं वे सारे इसी विचार अर्थात्‌ कर्मफल-व्यवस्था के साथ ही जुड़े हुए मिलते हैं तथा इसी कर्मफल व्यवस्था की कड़ियॉं ही सिद्ध होते हैं।

    इसीलिए ही हम भारतीय चाहे दो-चार भी कहीं इकट्ठे होते हैंतो जीवन व्यवहार से जुड़ी हर बात को भाग्य से जोड़कर ही मानते हैं। जैसे कि यदि किसी का वैवाहिक सम्बन्ध जुड़ता हैकिसी के यहॉं कोई नया शिशु जन्म लेता है या किसी की कहीं नौकरी लगती है अथवा कोई किसी प्रकार का नया कारोबार करता है। किसी प्रकार के सुख-दु:ख की बात होती है या हानि-लाभ की या सफलता-असफलता की चर्चा होती है तब प्राय: कहा जाता है:- "हानि-लाभजीवन-मरणयश-अपयश विधि हाथ।" और तो क्या यदि कोई रुग्ण होता हैतो हमारे यहॉं प्राय: तब भी यही कहा जाता हैयह सब भाग्य का चक्र है। यह तो होनी हैऐसा ही होना थायह तो विधि-विधान है। इसको कौन बदल सकता है। क्योंकि:- "सकल पदारथ हैं जग मांहि। कर्म (भाग्य) हीन नर पावत नांहि।"

    अत: भारतीय विचारधारा को समझने के लिए हमारा ध्यान स्वाभाविक रूप से भाग्यविधिदैवहोनीलेख शब्दों पर जाता है और इन शब्दों को समझ लेने पर ही भारतीय भावना स्पष्ट होती है। भाग्य शब्द भाग से बनता है। भाग का अर्थ है=हिस्सा । अत: भाग्य का अर्थ हुआ हिस्से का अर्थात्‌ बांटने पर हिस्से में आनेवाला। हर हिस्सा किसी न किसी के आधार पर होता हैजैसे कि कुछ मिलकर किसी कार्य को करते हैं। उस कार्य के करने जो फललाभ प्राप्त होता है अर्थात्‌ जो कमाई होती हैउसके एक निश्चित व्यवस्थासमझौते के आधार पर भागहिस्से बंटते हैं। भाइयों में भी हिस्से बंटते हैं। वे एक पिता के पुत्र होने से अपना-अपना भागभाग्य प्राप्त करते हैं। अत: हिस्से कर्म और जन्म के आधार होते हैं। हॉंइस प्रकरण में भाग्य का अर्थ हैपिछले कर्मों का फल।

    विधि शब्द विधाननियम के साथ इसके कर्त्ता के लिए भी प्रयुक्त होता है। देव शब्द से दैव बनता हैजिसका भाव हैदेव द्वारा किया गया या देव द्वारा प्राप्त होनेवाला। अत: इन शब्दों का प्रकरण के अनुसार अभिप्राय हुआ कि एक ऐसा देव है जिसके विधि-विधान के अनुरूप जो जैसा कर्म करता हैवह उन-उन कर्मों के आधार पर अपना-अपना भाग्य प्राप्त करता हैं।

    ये शब्द कर्मफल व्यवस्था से सम्बद्ध हैं। अत: इन शब्दों का पूर्ण स्वारस्य समझने के लिए कर्मफल व्यवस्था को हृदयंगम करने हेतु इन शब्दों को स्पष्ट करना होगा। जैसे कि- कर्म किसको कहते हैंवह कितने प्रकार का हैं?  कर्म का कर्त्ता कौन है वह कर्म करने में कितना कहॉं स्वतन्त्र है कर्म करने के साधन क्या-क्या हैं किस कर्म का फल कैसा होता हैकर्म किन-किन पड़ावों से होकर फल के रूप में परिणत होता हैंकर्मों का फल कौन देता है कर्म स्वयं या ईश्वरकर्म का कर्त्ता कर्मफल प्राप्त करने में स्वतन्त्र है या परतन्त्रकर्मफल दाता क्या दयाक्षमा भी करता है अर्थात्‌ वह कितना दयालु और न्यायकारी हैकर्मफलदाता फल क्या किसी की सहायता से देता है कर्मफल व्वस्था क्या अटलअटूूट है या इसमें रिश्वतपहुंच आदि से अन्तर आ जाता हैयह व्यवस्था क्या आज की राजनीति की तरह मुख देखकर चलती है 

    आर्यसमाज का मूल मन्तव्य वस्तुत: कर्मफल व्यवस्था ही है। इसका स्पष्ट और सुनिश्चित रूप ही आर्यसमाज को दूसरों से अलग करता है। जैसे कि कर्मफल से बचने के लिए आज अनेकों ने अनेक ढंग अर्थात्‌ इष्टदेव का दर्शन-पूजननामस्मरणतीर्थयात्रास्नान समझ लिये गये हैं। आज का धर्म इसी प्रकार के कर्मकाण्डों का रूप ही बनकर रह गया है। जबकि व्यवहार में मन्त्र-तन्त्र आदि के बर्तने पर भी पाप का परिणाम दु:ख दूर होता नहीं है। जैसे औषधि लेने पर रोग का कष्ट दूर हो जाता है।

    वस्तुत: आर्यसमाज को पूरी तरह से समझने के लिए कर्मफल व्यवस्था को पूरी तरह से समझना जरूरी है। लेखक - प्रा. भद्रसेन 

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    A feeling of disinterest emerged from the death of the sister and uncle, and the original decided death-victory. When he saw the preparations for his marriage at home, the twenty-one-year-old educated young man left the house one day. For 14 consecutive years in search of a teacher who taught yoga, he searched the forests, mountains, plains and wherever a teacher of yoga was found, from the original, pure Chaitanya came as a brahmachari and then Dayanand a sannyasi.

     

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  • आर्यसमाज का मौलिक आधार

    लेखक - स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती

    सर्वश्रेष्ठ अध्येताओं के अनुसार हिमालय के आस-पास ही मनुष्य का अवतरण हुआ है। वहीं से उसकी संस्कृति का और मानव जाति की यात्रा का प्रारम्भ होता है। वेद के दिव्य वाक्य मानव जाति के जीवन के आधार बने। कुछ काल प्रेम और आनन्द से रहने के बाद यहीं से मनुष्य समस्त संसार में बिखर गये।

  • आहार आरोग्य सूत्र

    बिना कड़ी भूख लगे भोजन न करें। भोजन उतना ही करें कि पेट को बोझ महसूस न हो। कहावत भी है- आधा भोजन, दोगुना पानी, तिगुना श्रम, चौगुनी मुस्कान।

    भोजन करते समय चित्त में प्रसन्नता हो। इस समय बातें बिल्कुल न करें। चिन्ता, क्रोध, ईष्या, द्वेष, घृणा, भय आदि मानसिक उद्वेग के समय भोजन न करें, तो अच्छा है। क्योंकि उस समय किया गया भोजन ठीक से नहीं पचेगा और रोग पैदा करेगा। भोजन को भगवान का प्रसाद मानकर प्रत्येक ग्रास को अमृत-तुल्य और स्वास्थ्यवर्द्धक मानकर ग्रहण करें।

    Ved Katha Pravachan _21 (Introduction to the Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    अनाज को चक्की में अधिक महीन पीसने से तथा तलने-भुनने से उसके स्वाभाविक गुणआवश्यक खनिज लवणविटामिन्स नष्ट हो जाते हैं। अतः स्मरण रहे कि मोटे आटे (चोकर युक्त) की रोटी ही खाएं। भोजन को भाप में पकाकरकम मसालों का प्रयोग करें। घीतेलपचने में भारी होते हैं। अतः दूधदहीअंकुरित अनाज आदि से इसकी पूर्ति कर लेनी चाहिए। अंकुरित अनाज चनामूँगमूँगफलीगेहूँ तथा नारियल आदि में पर्याप्त पोषक तत्व हैं। अंकुरित अन्न में पोषक शक्ति कई गुना बढ़ जाती है। नित्य प्रातः पचास ग्राम अंकुरित अन्न खूब चबा-चबाकर सेवन करना चाहिए।

    सप्ताह में एक दिन पेट को छुट्टी देने के लिए उपवास की आदत डालनी चाहिए। जब सभी कर्मचारियों को नई स्फूर्ति अर्जित करने के लिए साप्ताहिक अवकाश मिलता हैतो पेट को छुट्टी क्यों न मिलेवास्तविक उपवास वह है जिसमें जल की कुछ मात्रा बढ़ाकर उसमें नीम्बू डालकर पिया जाता है। यह न बन पड़े तो दूधछाछफलों का रस लेकर काम चलाना चाहिए। पूरे दिन जिन्हें भूखे रहना कठिन होवे एक समय शाम को तो उपवास कर ही लें। उपवास से पाचन शक्ति बढ़ती है तथा शरीर-शोधन में बड़ा सहयोग मिलता है।

    खाद्य पदार्थों को सीलनसड़ने वाले स्थानों एवं बदबू वाले पात्रों में नहीं रखना चाहिए। चूहेघुनकीड़े आदि उन्हें जहरीला न बना सकेंइसलिए सभी खाद्य पदार्थ ढककर रखने चाहिएं। समय-समय पर धूप में सुखाते रहना चाहिए। पकाने एवं खाने के उपकरण साफ-सुथरे रखने चाहिएंजिससे उनमें विषाक्तता उत्पन्न न हो।

    सभी प्रकार के नशे हानिकारक हैं। उनमें से किसी का भी व्यसन नहीं करना चाहिए। क्षणिक उत्तेजना के लिए शारीरिकमानसिक स्वास्थ्य चौपट करनेअकाल मृत्यु तथा सर्वत्र निन्दित होने एवं परिवार को अस्त-व्यस्त करने वाली इस बुराई से हर किसी को बचना चाहिए। जिन्हें यह लत लगी होउन्हें छुड़ाने का प्रयत्न करना चाहिए।

    सड़े-गले शाक-सब्जीफलमिठाई आदि को खाते रहना बुरी बात है। स्वादनाम या मूल्य के आधार पर नहींबल्कि खाद्य पदार्थों के सुपाच्य और ताजे होने को मुख्यता दी जानी चाहिए। सड़े अंगूरों की तुलना में ताजे टमाटर हजार गुने अच्छे हैं। आवश्यक नहीं कि कीमती मेवाफल या टानिकों पर धन पानी की तरह बहाया जाए और पहलवान बनने का सपना देखा जाए। जिनके पास उतना धन नहीं हैवे अंकुरित अन्न से भी बादाम जैसा पोषण पा सकते हैं। गाजर में उच्चकोटि का विटामिन "एहै। गाजर का रस नित्य पीने से रक्त की शुद्धि होती है। गाजर का रस स्वयं ही एक टॉनिक है। आँवलानीम्बूकेलाअमरूदसेबसन्तरामौसम्मी जैसे मौसमी फलकीमती टॉनिकों से बढ़कर हैं।

    चबा-चबाकर खाने सेकम खाकर भी अधिक तृप्ति मिलती है। मोटापा नियन्त्रित करने के लिए चबा-चबाकर धीरे-धीरे भोजन करना चाहिए। चबाने से खून में सेरीटोनिन नामक हार्मोन की मात्रा बढ़ जाती हैजिससे अनिंद्रातनावमानसिक अवसादसिरदर्द आदि रोग दूर हो जाते हैं।

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    भोजन को ठीक तरह चबाने से आँतों की क्रिया और पचन ठीक होता है। फलस्वरूप डायबिटीज (शुगर)संधिवातगठिया इत्यादि रोग स्वतः ही ठीक होते हैं। हाइपर-एसिडिटी (अति अम्लता) तथा भूख न लगने की शिकायत दूर हो जाती है।

    भोजन के साथ पानी पीने की आदत ठीक नहीं है। भोजन करने के एक घण्टे पूर्व पानी न पीएं तथा भोजन करने के डेढ़ घण्टे बाद पानी खूब मात्रा में पानी पिएं। भोजन को ठीक तरह चबाने पर लार (सलाइवा) के अच्छी तरह मिल जाने से पानी की आवश्यकता नहीं रह जाती है। यदि आवश्यकता नहीं रह जाती है। यदि आवश्यक हो तो 50-100 ग्राम जल पिया जा सकता है।

    सुबह उठकर दो गिलास पानी पीना आँतों की शुद्धि के लिए हितकारक है। दोनों भोजन (सुबह-शाम) के बीच के समय में पर्याप्त पानी पीते रहें। नित्य 2.5 से 3.5 लीटर पानी पीना चाहिए। एक साथ अधिक मात्रा में पानी न पीकर हर घण्टे,आधे घण्टे बाद घूंट-घूंट पानी पीना बेहतर है।

    शीतल पेयफाष्ट-फूटब्रेडबिस्किटपूड़ी,  केककचौरीरंग-बिरंगी मिठाइयॉंटॉफीआइस्क्रीमचाय आदि स्वास्थ्य के लिए अहितकर हैं। मैदा-खाद्य आँतों से चिपककर कब्ज पैदा करती है तथा डिब्बानन्द खाद्य पदार्थ में उनके संरक्षण के लिए कीटनाशक (जहरीले रसायन) मिलाए जाते हैं जो आँतेंगठियायकृतफेफड़े आदि के रोग पैदा करते हैं।

    स्वस्थ रहने के लिए हमारे खून का मिश्रण 80 प्रतिशत क्षारीय एवं 20 प्रतिशत अम्लीय होना चाहिए। अतः क्षारीय खाद्य पदार्थ अधिक सेवन करना चाहिए। क्षारीय खाद्य पदार्थ व अम्लीय खाद्य की संक्षिप्त सूची इस प्रकार है-

    हानिकारक अम्लीय खाद्य- चीनीकृत्रिम नमकमैदापॉलिश हुआ चावल व दालबेसनअचारब्रेडबिस्किटकेकडिब्बाबन्द खाद्य पदार्थमॉंसमिठाइयॉंतेलघी आदि।

    स्वास्थ्य क्षारीय खाद्य- गुड़शहदताजा दूधदहीताजे सभी फल (जो स्वतः पककर मीठे होेते हैं)सभी हरी सब्जियॉंउबला या भुना आलूचोकर युक्त आटाछिलका सहित दालअंकुरित अन्नमक्खनकच्चा नारियलकिशमिशमुनक्काछुआराअंजीर आदि।

    उपरोक्त खाद्य पचकर खून को अम्लीय या क्षारीय बनाने वाले हैं। नीम्बू अम्लीय हैपरन्तु पचकर क्षारीय हो जाता है। अतः नीम्बूसन्तरामौसम्मीअनन्नास आदि क्षारीय की श्रेणी में रखे गए हैं। नीम्बू को भोजन के साथ नहींप्रातः पानी के साथ पीना अधिक लाभप्रद है। भोजन में कार्बोहाईड्रेट होता है। नीम्बू डालने से खटास के कारण अन्न के पाचन में कठिनाई आती हैक्योंकि कार्बोहाइड्रेट (गेहूँचावलआलू) आदि का पाचन क्षारीय माध्यम से होता है। भोजन के दो घण्टे बाद या दो घण्टे पहले नीम्बू को पानी के साथ पी सकते है। नीम्बू कई रोगों से बचाता है। विटामिन "सीकी पूर्ति करता है। रक्त को साफ रखता है। जीवनशक्ति और रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है।

    भोजन के साथ ताजी चटनीटमाटरपालकपोदीनाआँवलानारियल आदि भी ले सकते हैं। परन्तु अचारों से परहेज रखना ही हितकर है

    खाद्य सम्बन्धी इन मामूली सी बातों का ध्यान रखकरइस दुर्लभ मानव शरीर को स्वस्थ रखने का दायित्व हम सबका है। कहा भी कहा है- शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्‌ अर्थात्‌ शरीर को स्वस्थ रखना हमारा प्रथम कर्त्तव्य है। - डॉ. मनोहरदास अग्रावत

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  • ऋषि दयानन्द का शिक्षादर्शन

    ऋषि दयानन्द ने मानव जीवन के सभी क्षेत्रों से सम्बन्ध रखने वाली सभी समस्याओं पर विचार किया है और वेद तथा वेदानुकूल अन्य शास्त्रों के आधार पर उन समस्याओं के इस युग के लिए सर्वथा नवीन और अनूठे समाधान अपने "सत्यार्थ प्रकाश" आदि ग्रन्थों में उपस्थित किये हैं। विभिन्न समस्याओं के सम्बन्ध में ऋषि दयानन्द ने जो विचार और समाधान दिये हैं यदि उनके अनुसार मानव का जीवन बीतने लगे तो धरती स्वर्गधाम बन सकती है और मनुष्य के व्यक्तिगत तथा सामाजिक सब प्रकार के कष्ट-क्लेश दूर होकर यह उन्नति और सुख समृद्धि की चरम सीमा पर पहुंच सकता है।

    शिक्षा समस्या मानव की एक बहुत बड़ी समस्या है। मनुष्य का सब-कुछ उसकी इस समस्या पर निर्भर करता है। मनुष्य का व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन किस प्रकार का होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम अपने बच्चों को किस प्रकार की शिक्षा देते हैं। ऋषि दयानन्द ने शिक्षा के सम्बन्ध में भी सर्वथा नये और निराले विचार दिये हैं। शिक्षा के सम्बन्ध में विचार करते हुए सबसे बड़ा प्रश्न यह उपस्थित होता है कि बालकों की शिक्षा संस्थाएँ किस प्रकार के वातावरण में हों, शिष्य और शिक्षकों के सम्बन्ध किस प्रकार के हों, बालकों को किस प्रकार पढाया जाए, बालकों का रहन-सहन तथा दिनचर्या किस प्रकार की हो और राष्ट्र के प्रत्येक बालक को बिना किसी भेदभाव के ऊंची से ऊंची शिक्षा मिल सके इसके लिए क्या व्यवस्था  की जाये। ऋषि ने शिक्षा विषयक सभी समस्याओं पर अपने ग्रन्थों में विस्तार से विचार किया है। ऋषि के इस सम्बन्ध में जो विचार हैं उनका अति संक्षिप्त उल्लेख किया जा रहा हैं।

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    वैदिक विद्वानों की तपस्या के कारण वेद में प्रक्षेप नहीं हैं
    Ved Katha -15 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    शिक्षा संस्थाएँ नगरों से दूर प्राकृतिक सौन्दर्य से युक्त स्थानों में बनाई जानी चाहिएँ। जहॉं स्वाभाविक प्राकृतिक सौन्दर्य न हो वहॉं सुन्दर लता, वृक्षादि लगाकर शिक्षणालय के स्थान को हरा-भरा और शोभाशाली बना लेना चाहिए। जिसमें बालकों का शारीरिक स्वास्थ्य भी ठीक रहे और मानसिक भी। बच्चों को नगर का धुआँ, धूल-धमक्कड़ और दुर्गन्ध से भरी हवा में सांस न लेना पड़े और वे नगर निवासी गृहस्थों के शान-शौकत तथा श़ृंगार से भरे जीवन से भी पृथक रहें और इस प्रकार गृहस्थों के विलासमय जीवन को देखकर कच्ची उमर में ही उनके मन में विलास-प्रियता के निकम्मे विचार न उठने लगें। बालक शिक्षा समाप्ति से पूर्व नगरों में अपने घरों में नहीं जा सकेंगे। ये चौबीस घण्टे अपने गुरुओं के साथ शिक्षा संस्थाओं के आश्रमों में ही रह सकेंगे।

    गुरु और शिष्य एकान्त में रहेंगे। शिष्यों के चौबीस घण्टों के जीवन पर गुरुओं की दृष्टि रहेगी। गुरु शिष्यों के साथ रहकर उनके जीवन का निर्माण करेंगे। गुरु लोग शिष्यों को उनके हाल पर छोड़कर नगरों में रहने के लिए नहीं जा सकेंगे। गुरुओं का अपने शिष्यों के साथ इतना घनिष्ठ सम्बन्ध होगा जितना मॉं का अपने गर्भ में प़ल रहे बच्चे के साथ होता है। मॉं को अपने गर्भ में स्थित बच्चे के प्रति जितना प्यार और हितकामना होती है उतना ही प्यार और हितकामना गुरु में शिष्य के प्रति होनी चाहिए। मॉं को अपने गर्भ में स्थित बच्चे के प्रति जितनी एकात्मकता होती है उतनी ही एकात्मकता गुरु की शिष्य के प्रति होनी चाहिए। जिस प्रकार मॉं के गर्भ में स्थित बच्चे पर मॉं के अतिरिक्त बाहर का किसी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ सकता, उसी प्रकार गुरुओं के अतिरिक्त शिष्यों पर बाहर के लोगों का कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। गुरु लोग बाहर के जिन लोगों को व्याख्यान आदि के लिए बुलाना आवश्यक समझें उन्हीं का प्रभाव उनपर पड़ना चाहिए। जिस प्रकार मॉं को अपने गर्भ में बच्चे को सब प्रकार से श्रेष्ठ और बढिया बनाने की ही चिन्ता रहती है उसी प्रकार गुरुजनों को अपने छात्रों को सब प्रकार से श्रेष्ठ और उत्तम बनाने की चिन्ता रहती है।

    जब गुरुओं की शिष्यों के साथ इतनी गहरी घनिष्ठता होगी और वे शिष्यों की मॉं की तरह हित-कामना करेंगे तो शिष्य सदैव उनकी आज्ञाओं का पालन करेंगे और छात्रों में आज की सी अनुशासनहीनता की समस्या उत्पन्न नहीं होगी।

    बालकों को क्या पढना चाहिए, इस सम्बन्ध में भी ऋषि ने बड़े विस्तार से विचार किया है। सत्यार्थ प्रकाश, संस्कार विधि और ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में किस प्रकार के ग्रन्थ पढने चाहिएँ और किस प्रकार के नहीं, इस विषय विस्तृत प्रकाश डाला है। ऋषि की उस पाठविधि का ध्यान से विश्लेषण करने पर एक बात तो यह स्पष्ट रूप से सामने आती है कि ऋषि की सम्मति में पाठविधि में भौतिकविद्याविज्ञान (फिजिकल साईंस) और आध्यात्मिक (स्प्रिचूवल साईंस) दोनों का ही समावेश होना चाहिए। ऋषि ने जिन ग्रन्थों का उल्लेख किया है उनमें रसायन, भौतिक, गणित, ज्योतिष, अर्थशास्त्र, राजनीति, युद्ध-विद्या, शिल्पकला, आयुर्वेदादि भौतिकविद्या विज्ञानों का भी वर्णन है। उस पाठविधि में संगीत के अध्ययन की व्यवस्था भी है। संस्कृत भाषा और उसके उच्च अध्ययन की व्यवस्था तो है ही, ऋषि दयानन्द ने यह भी लिखा है कि प्रारम्भ से ही बल्कि पाठशाला में जाने से पहले ही घर में ही बालकों को विदेशी भाषाओं का सिखाना आरम्भ कर देना चाहिए। इससे यह संकेत मिलता है कि विदेशी भाषा मे जो ज्ञान विज्ञान है उस के पठन-पाठन के पक्षपाती ऋषि दयानन्द भी थे। ऋषि दयानन्द की पाठविधियों में तर्क और दर्शनशास्त्र को पढाने की व्यवस्था है। चारों वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ और उपनिषदों के पठन-पाठन की व्यवस्था भी वहॉं है। वेदों में भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की विद्याओं की व्यवस्था है। दर्शनों में, उपनिषदों में आध्यात्मिक विद्याओं का वर्णन है। इस प्रकार ऋषि की सम्मति में भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की विद्याएँ साथ-साथ पढाई जानी चाहिएँ। तभी मानव का सन्तुलित विकास हो सकेगा। किसी एक प्रकार की ही विद्या को पढने-पढाने से व्यक्ति एकांगी हो जाएगा। इसके कारण व्यक्ति और समाज दोनों को हानि होगी। आज के संसार में जो कलह, लड़ाई-झगड़े, युद्ध, अशान्ति दिखाई देती है, वह शिक्षा में आध्यात्मिक विद्याओं को स्थान न देने का ही परिणाम है। ऋषि दयानन्द ने जो विस्तृत पाठविधि दी है वह सब विद्याओं के ज्ञाता, उच्चकोटि के महाविद्वान्‌ व्यक्ति के तैयार करने की दृष्टि से दी है। "सत्यार्थप्रकाश" के तृतीय समुल्लास के अन्त में उन्होंने एक न्यूनतम पाठविधि की ओर भी संकेत किया है। उन्होंने लिखा है कि जैसे पुरुषों को व्याकरण, निरुक्त, धर्म और अपने व्यवहार (आजीविकोपार्जन) की विद्या न्यून से न्यून अवश्य सीखनी चाहिए, वैसे ही स्त्रियों को भी व्याकरण, धर्म, वैद्यक, गणित, शिल्प विद्याएँ तो अवश्य सीखनी चाहिए। सुविधानुसार पाठविधि में अधिक से अधिक विषयों को पढाने की व्यवस्था की जानी चाहिए।

    maharshi dayanand saraswati

    ऋषि दयानन्द छात्रों में वासनाओं को भड़काने वाले काव्य, नाटक, उपन्यास आदि पढाने के घोर विरोधी थे। वे छात्रों के जीवन में ब्रह्मचर्य, संयम और पवित्रता पर अधिक बल देते हैं। ग्रीस के प्राचीन महान्‌ दार्शनिक प्लेटो ने भी इस प्रकार के कामोत्तेजक साहित्य को पढाने का घोर विरोध किया है। इसी प्रकार आधुनिक विद्वान एल्डस हक्सले ने भी इस प्रकार के साहित्य को पढाने का घोर विरोध किया है। इसी प्रकार ऋषिदयानन्द ने श्राद्ध, मूर्त्तिपूजा, अवतारवाद, भूत और प्रेतादि तथा अन्धविश्वास की शिक्षा देने वाले साहित्य का भी तीव्र विरोध किया है।

    बालकों को अन्य विषयों की शिक्षा के साथ-साथ योग की शिक्षा भी प्रारम्भ से ही देनी चाहिए। योगदर्शन आदि योग-विषयक साहित्य भी पढाया जाना चाहिए और योग के यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि इन आठ अंगों का क्रियात्मक अभ्यास भी कराना चाहिए। आसनों और प्राणायाम  के अभ्यास से उनमें मानसिक और आत्मिक पवित्रता उत्पन्न होगी, जिसके कारण वे सब प्रकार की बुराइयों और दोषों से बचे रहेंगेतथा योग के निरन्तर अभ्यास से वे परमात्मा के दर्शन के अधिकारी भी एक दिन हो जाएंगे। 

    योग के यम  नियमों में शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ये पॉंच नियम कहलाते हैं। इन नियमों के पालन से छात्र (1) शरीर और वस्त्र की दृष्टि से स्वच्छ रहना सीखेंगे। (2) सफलता और असफलता में एकरस रहना सीखेंगे। (3) साज-सिंगार तथा बनाव-ठनाव से दूर रहकर सादगी और कष्ट सहने की तपस्या का जीवन बिताना सीखेंगे। (4) उनमें उत्तम और ज्ञानवर्द्धक ग्रन्थों के अध्ययन की क्षमता जाग्रत होगी। (5) वे ईश्वर के उपासक बनेंगे। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पॉंच यम कहलाते हैं। उन पॉंच यमों के पालन से छात्र (1) अपने स्वार्थ के लिए किसी प्राणी को किसी प्रकार का भी कष्ट नहीं देंगे, प्रत्युत दूसरे के कष्टों को दूर करने का भाव अपने अन्दर जाग्रत करेंगे। (2) सत्य का पालन करना और असत्य से दूर रहना सीखेंगे। (3) किसी भी प्रकार की चोरी की वृत्ति से पृथक्‌ रहना सीखेंगे। (4) मन और इन्द्रियों को वश में रखकर अपनी जननेन्द्रियों को वश में रखने वाले संयमी बनेंगे। (5) वे लोभ और लालच से परे रहने वाले और आवश्यकता से अधिक धन अपने पास न रखने की वृत्ति वाले बनेंगे। ये दशों बातें जिन छात्रों के जीवन में ढल जाएँगी उनके जीवन में आगे चलकर किसी प्रकार के पाप या बुरे कार्य नहीं होंगे और आज के समाज में जो घोर चरित्रभ्रष्टता पाई जाती है वह चरित्रभ्रष्टता इस प्रकार की शिक्षा-दीक्षा में पले युवकों से बने समाज में कभी दिखाई नहीं देगी। ऋषि दयानन्द ने अपनी शिक्षा-पद्धति में इन यम-नियमों का पालन एक आवश्यक अंग रखा है। - आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति

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    When the gurus will have such deep intimacy with the disciples and they wish the disciples like their mother, the disciples will always obey their commands and the problem of indiscipline will not arise in the students today.

     

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  • ऋषि बोध पर्व को सांस्कृतिक पृष्ठभूमि

    वैदिक काल के इतिहास से प्रकट है कि हिमाचल प्रदेश कभी देवलोक या देवभूमि के रूप में था। वहॉं देवराज्य था। देवजाति में भी यक्ष, किन्नर, गन्धर्व आदि अनेक वर्ग थे। देवराज्य के सभापति का नाम विष्णु, प्रशासक का नाम इन्द्र, कोषाध्यक्ष का कुबेर और सेनापति का नाम रुद्र या शिव था।

    रुद्र और शिव समानार्थक हैं। रुद्र का अर्थ है- पापियों को रुलाने वाला और शिव का अर्थ है कल्याण करने वाला। जिस राज्य का सेनापति अपने कर्त्तव्य के प्रति सजग होकर दृष्टों को रुलाता हैं, उसी राष्ट्र का कल्याण होता है।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    धन वैभव को दौलत क्यों कहते हैं
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    शिवरात्रि का सम्बन्ध शिवजी के जीवन की एक विशेष घटना से है। युवा सेनापति शिव का विवाह सौन्दर्य और सद्‌गुणों की प्रतिमूर्ति पार्वती देवी के साथ सम्पन्न हुआ था। सुहाग रात्रि के दिन अनायास ही सूचना मिलती है कि असुरों ने देवराज्य पर आक्रमण कर दिया। देव सेनापति शिव के लिए यह सब कुछ अप्रत्याशित था। वे ठगे से रह गये। पर वे योगी थे। कुछ क्षणों को वे समाधिस्थ हुए। उन्होंने अपना तृतीय नेत्र=विवेक नेत्र (ज्ञान नेत्र) खोला और कामदेव की वाण वर्षा को निरस्त करके उसे भस्मसात्‌ कर दिया। रात्रि का अन्धकार गहन था। पर उस निबीड़ अँधियारी रात्रि में शिवजी का आत्मा जागरूक थावह निरन्तर जागरूक रहा और अन्तत: वासना पर विवेक की विजय हुई। देव सेनापति ने घोषणा की- "जब तक असुर सेना पर हम विजय नहीं प्राप्त कर लेंगे तब तक हमारी अखण्ड ब्रह्मचर्य साधना चलेगी।" देवसेना एक प्रकार के जादू से सम्मोहित हो उत्साह से भर उठी। शिव का डमरू बज उठापग थिरक उठेप्रलयङ्कर ताण्डव नृत्य का दृश्य उपस्थित हो उठा।

    पार्वती श़ृंङ्गार-सज्जित बैठी रही और जब उसे वास्तविकता का ज्ञान हुआ तो उसने भी "पति लोकं गमेयम्‌" इस आदर्श को चरितार्थ करते हुए शिवजी के इस रात्रि जागरण के व्रत में दीक्षा ले ली। यों संयम और साधना द्वारा देवत्व प्राप्ति के लक्ष्य को सार्थकता प्रदान की और भारतीय देवियों में अमर पद प्राप्त किया। तभी से यह रात्रि "महाशिरात्रि" बन गई।

    वाम मार्ग काल में तो सभी कुछ उलट गया। शिव का डमरु-वादनताण्डवनृत्यरात्रि जागरणत्रिनेत्रभाल में चन्द्र स्थिति आदि सभी अलङ्कारिक प्रयोगों का सौष्ठव नष्ट कर दिया गया। शिवलिङ्ग पूजा का महाभ्रष्ट क्रम चल पड़ा। कामारि शिव के नाम पर घोर घिनौनी कथायें घड़ ली गईभाङ्ग-धतूरा आदि को शिवजी की प्रिय वस्तु बना दिया गया। मानव पतन की यह पराकाष्ठा थी। ईश अनुकम्पा से इसी शिवरात्रि को फिर एक बालक ने अज्ञान की अँधियारी रात्रि में जागरण की साधना की और अखण्ड ब्रह्मचर्य की साधना का व्रत लेकर बालक मूलशङ्कर ने भोगवाद और असंयम से संतप्त विश्र्व पर दया और आनन्द की वर्षा कर "दयानन्द" संज्ञा को सार्थक किया।

    यों शिवरात्रि और बोध रात्रि का एक ही सन्देश है- हम जागते रहें। जागने का अर्थ प्रकृति नियम विरुद्धस्वास्थ्य नियम विरूद्ध रात्रि भर जागने का नाटक करना नहीं है। वरन्‌ जागने का अर्थ है अपने विवेक को जागरूक रखनाजिससे हम मानव-जीवन के उद्‌देश्य के प्रति जागरूक रहें। हममे प्रतिक्षण यह जागरूकता रहे कि जीवन का उद्‌‌‌देश्य प्रकृति के सदुपयोग द्वारा सच्चिदानन्द स्वरूप परमेश प्रभु कि प्राप्ति है। हमें बोध रहे कि भौतिक सुख साधन तो हैं पर साध्य परमात्मा है। हमें बोध रहे कि हम त्यागपूर्वक भोगेंसंयमशील बनें। इसका अर्थ है कानों से वही सुनें जो सुनना चाहिएआंखों से वही देखें जो देखना चाहियेहाथों से वही करें जो करणीय है आदि। हमें बोध रहे कि प्रभु की प्रजा की सेवा ही सच्ची ईश्वर आराधना है। हमें बोध रहे कि स्वयं अपने प्रतिपरिवारसमाजराष्ट्रविश्र्व मानव और प्राणिमात्र के प्रति कर्त्तव्य पालन ही प्रभु का प्यार पाने का साधन है। तो आयें हम शिव रात्रि को बोध रात्रि बनायेंबोध रात्रि को शिव रात्रि बनायें और आत्म-कल्याण के साथ ही अन्यों के कल्याण का साधन बनें। अब तक जो कुछ भी हुआ सो हुआपर अब आगे हम बोध पर्व पर इस विवेचन के प्रकाश में आत्म-जागरण और परिवार के वैदिकीकरण का व्रत लें। यही शिवरात्रि व्रत का रहस्य है। यही बोधपर्व का सन्देश है। -महात्मा प्रेमभिक्षु (तपोभूमिफरवरी 1997)

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    The history of Vedic period reveals that Himachal Pradesh was once in the form of Devaloka or Devbhoomi. He was the kingdom of Dev. In Devajati also there were many classes like Yaksha, Kinnar, Gandharva etc. The name of the Chairman of Devrajya was Vishnu, the administrator's name Indra, the treasurer's Kubera and the commander's name was Rudra or Shiva.

     

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  • कर्म-फल

    ओ3म्‌ न किल्विषमत्र नाधारो अस्ति न यन्मित्रैः समममान एति।
    अनूनं निहितं पात्रं न एतत्‌ पक्तारं पक्वः पुनराविशाति।।
    (अथर्व.13.3.38)

    शब्दार्थ - (अत्र) इसमें, कर्मफल के विषय में (किल्विषम्‌ न) कोई त्रुटि, कमी नहीं होती और (न) न ही (आधारः अस्ति) किसी की सिफारिश चलती है (न यत्‌) यह बात भी नहीं है कि (मित्रैः) मित्रों के साथ (सम्‌ अममानः एति) सङ्गति करता हुआ जा सकता है (नः एतत्‌ पात्रम्‌) हमारा यह कर्मरूपी पात्र (अनूनम्‌ निहितम्‌) पूर्ण है, बिना किसी घटा-बढ़ी के सुरक्षित रक्खा है (पक्तारम्‌) पकाने वाले को, कर्म-कर्त्ता को (पक्वः) पकाया हुआ पदार्थ, कर्मफल (पुनः) फिर (आविशाति) आ मिलता है, प्राप्त हो जाता है। 

    Ved Katha Pravachan _94 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    भावार्थ - मन्त्र में कर्मफल का बहुत ही सुन्दर चित्रण किया गया है। कर्म का सिद्धान्त इस एक ही मन्त्र में पूर्णरूप से समझा दिया गया है- 

    1. कर्मफल में कोई कमी नहीं हो सकती। मनुष्य जैसे कर्म करेगा उसका वैसा ही फल उसे भोगना पड़ेगा। 

    2. कर्मफल के विषय में किसी की सिफारिश नहीं चलती। किसी पीर, पैगम्बर पर ईमान लाकर मनुष्य कर्मफल से बच नहीं सकता। 

    3. मित्रों का पल्ला पकड़कर भी कर्मफल से बचा नहीं जा सकता। 

    4. किसी भी कारण से हमारे कर्मफल-पात्र में कोई कमी या बेशी नहीं हो सकती। यह भरा हुआ और सुरक्षित रक्खा रहता है। 

    5. कर्मकर्त्ता जैसा कर्म करता है, वैसा ही फल उसे प्राप्त हो जाता है। यदि संसार से त्राण पाने की इच्छा है, तो शुभकर्म करो। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

    पापी के पास ही लौटा आता है पाप

    ओ3म्‌ असद भूम्याः समभवत्‌ तद्‌ द्यामेति महद्‌ व्यचः।
    तद्‌ वै ततो विधूपायत्‌ प्रत्यक्‌ कर्तारमृच्छतु।। (अथर्ववेद 4.16.6)

    शब्दार्थ - (असत्‌) असद्‌ व्यवहार, पाप, अधर्म (भूम्याः) भूमि से (समभवत्‌) उत्पन्न होता है और (तत्‌)  वह (महत्‌ व्यचः) बरे रूप में, अत्यन्त विकसित होकर (द्याम्‌ एति) द्युलोक तक पहुंच जाता है फिर (ततः) वहॉं से (तत्‌ वै) वह पाप निश्चयपूर्वक (विधूपायत्‌) सन्ताप कर्म करने वाले को (ऋच्छतु) आ पड़ता है।

    भावार्थ - मन्त्र में पापकर्म-कर्ता का सुन्दर चित्र खींचा गया है -

    1. मनुष्य पाप करता है और समझता है कि किसी को पता नहीं चला। परन्तु यह बात नहीं है। पाप जहॉं से उत्पन्न होता है वहीं तक सीमित नहीं रहता, अपितु शीघ्र ही सर्वत्र फैल जाता है। 

    2. फैलकर पाप वहीं नहीं रह जाता, अपितु पापी को कष्ट देता हुआ उसके ऊपर वज्र-प्रहार करता हुआ वह पापी के पास ही लौट आता है। 

    3. पाप का फल पाप होता है और पुण्य का फल पुण्य। उन्नति के अभिलाषी मनुष्यों को चाहिए कि अपनी जीवनभूमि से पाप, अधर्म, अन्याय और असद्‌-व्यवहार के बीजों को निकालकर पुण्य के अंकुर उपजाने का प्रयत्न करें। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

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    पुनर्जन्म

    ओ3म्‌ पुनर्मनः पुनरायुर्म आगन्‌ पुनः प्राणः पुनरात्मा 
    म आगन्‌ पुनश्चक्षुः पुनः श्रोत्रम्म आगन्‌।
    वैश्वानरो अदब्धस्तनूपा अग्निर्नः पातु दुरितादवद्यात्‌।।(यजुर्वेद 4.15) 

    शब्दार्थ- (मे) मुझे (मनः पुनः) मन फिर से (आगन्‌) प्राप्त हुआ है (प्राणः पुनः) प्राण भी फिर से प्राप्त हुए हैं (चक्षुः पुनः) नेत्र भी नूतन ही मिले हैं (श्रोत्रम्‌ मे पुनः आगन्‌) कान भी मुझे फिर से प्राप्त हुए हैं (आत्मा मे पुनः आगन्‌) आत्मा भी मुझे फिर से प्राप्त हुआ है। अतः (मे पुनः आयुः आगन्‌) मुझे पुनः जीवन, पुनर्जन्म प्राप्त हुआ है। (वैश्वानरः) विश्वनायक, सर्वजनहितकारी (अदब्धः) अविनाशी (तनूपाः) जीवनरक्षक (अग्निः) परमतेजस्वी, सर्वोन्नति-साधक परमात्मा (दुरितात्‌ अवद्यात्‌) बुराई और निन्दा से, दुराचार और पाप से (नः पातु) हमारी रक्षा करें।

    भावार्थ - जो लोग यह कहते हैं कि वेद में पुनर्जन्म का उल्लेख नहीं है, वे इस मन्त्र को ध्यानपूर्वक पढ़ें। इस मन्त्र में पुनर्जन्म का स्पष्ट उल्लेख है। देह के साथ आत्मा के संयोग को पुनर्जन्म कहते हैं। मन्त्र के पूर्वार्द्ध में कथन है कि मुझे नूतन मन, प्राण, चक्षु, श्रोत्र और आत्मा मिला है। अतः मेरा पुनर्जन्म हुआ है। यह स्पष्ट रूप से पुनर्जन्म का वर्णन है। 

    मन्त्र के उत्तरार्द्ध में प्रभु से एक सुन्दर प्रार्थना की गई है कि हे प्रभो! हमें दुराचार और पाप से बचा। दुराचार और पाप से बचकर जब हम शुभ-कर्म करेंगे, तो नीच योनियों में न जाकर हमारा जन्म श्रेष्ठ योनियों में होगा अथवा हम मुक्ति को प्राप्त करेंगे। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

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    In the latter part of the mantra, a beautiful prayer has been made to the Lord that, O Lord! Saved us from mistreatment and sin. When we do auspicious work by avoiding misconduct and sin, then we will not be born in lowly yonies or we will be born in the best yonies or we will achieve salvation. - Swami Jagadishwaranand Saraswati

     

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  • क्या आप बहू को अपनी बेटी बना सकती हैं

    बहू तुम अपनी तैयारी कर लो। रवि के कपडे भी रख लेना। सुबह की गाड़ी से तुम दोनों चले जाओ। बुखार से कराहती मेरी सास ने मुझसे कहा तो सभी एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। थोड़ी देर खामोशी छाई रही, फिर मेरे ससुर ने ही मेरी सास से कुछ सोच-विचार के बाद कहा, तुम्हें इतना तेज बुखार है। डॉक्टर ने हिलने-डुलने तक को मना किया है, टाइफाइड का संदेह है। बहू को भेज दोगी तो तुम्हारी देखभाल कौन करेगा? मेरी चिंता न करो बहू के मायके से फोन आया है। समधिन की तबियत ज्यादा ही खराब होगी, तभी फोन किया है। बेचारी के पास तीनों में से एक बेटी नहीं है बेटा तो है नहीं जो बहू का सुख देखती। बहू को ऐसे वक्त पर नहीं भेजेंगे तो फिर कब भेजेंगे? रवि के चले जाने से उन्हें बहुत सहारा मिलेगा।

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    मैं सास के सिरहाने बैठी उनका सिर दबा रही थी। मैंने भर्राए हुए स्वर में कहा, मां जी आप भी तो बीमार हैं। आप ज्याद बीमार हो गई तो मुझे दुःख होगा कि मैं आपको ऐसी हालत में छोड़कर क्यों गई। मां की चिंता तो मुझे है परन्तु यहां से जाकर आपकी चिंता में भी तो दुःखी रहूंगी। मेरी चिंता बिल्कुल मत करना बेटी। मुझे टाइफाइड वगैरह कुछ नहीं है। थोड़ी सर्दी लगी है तो बुखार आ गया। एक दो दिन में उतर जाएगा और हां, बच्चों को साथ न ले जाना वरना तुम उन्हीं में उलझी रहगी। अपनी मां की देखभाल क्या कर पाओगी? मेरी ह्रदय गदगद हो उठा। कोई भी अवसर आए, मेरी सास हमेशा ही अपनी सहृदयता का परिचय देती हैं।

    सास के इस आग्रह ने तो मुझे जन्मभर के लिए अपने मोहपाश में बांध लिया। मेरी पड़ोसन ने जब खोद-खोदकर इसका राज जानना चाहा तो मेरी सास ने नम आंखों से बताया कि निःसंदेह जिस दिन से बहू हमारे घर में आई हमें बेटी की कभी कमी महसूस नहीं हुई। बहू को मैंने मां का प्यार दिया तो उसने भी मुझे अपनी मां के समान ही आदर व स्नेह दिया परन्तु यदि मैं उससे यह अपेक्षा करूं कि वह अपनी मां की उपेक्षा करके मुझे उसका दर्जा दे तो यह मेरी भारी भूल होगी। मैं जानती हूं कि वह अंश तो अपने माता-पिता का ही है। अतः मुझे पहले उसके माता-पिता को बराबरी का दर्जा देना होगा, तभी बहू भी मुझे उनके बराबर सम्मान देगी। अन्यथा मैं कभी उसकी मां नहीं बन पाउंगी। बस उसकी सास ही रह जाऊंगी और आप तो जानती ही हैं कि सास-बहू के संबंध की क्या छीछालेदर की जाती है।

    मेरी एक सहेली के बेटे ने अपनी पसंद की लड़की से शादी की। लड़की के परिवार में जरा भी समानता नहीं थी। केवल लड़की गुणवती और सुन्दर थी। ये लगो सात लोगों की बारात लेकर गए और लड़की ब्याह लाए परन्तु लोग तो जानबूझकर दूसरों की स्थिति का जायजा लेते हैं। बहू के आने पर अनेक प्रश्नों की बौछार हो गई। क्या-क्या लाई है बहू? सोना कितने तोला हैं ? आपके लिए तो बहू के मायके वालों ने बहुत ही कीमती साड़ी दी होगी.... देखें तो कैसी है? पता नहीं लोग अपनी आदतें क्यों नहीं छोड़ते? दूसरों को ऐसी स्थिति में डाल देते हैं कि कोई जवाब देते नहीं बनता। वे झल्लाते हुए बता रही थी, सबको यह कहूं कि कुछ नहीं मिला तो बहू कैसा महसूस करेगी? ये लोग इतना भी नहीं समझते कि मैं बेटे को ब्याहने गई थी, न की अपने लिए कीमती साड़ी लेने। मैंने तो कभी बहू के मायके वालों से यह अपेक्षा नहीं की कि वे मेरे घर के अन्य सदस्यों के लिए कुछ दें।

    हमें तो केवल ऐसी लड़की चाहिए थी जो घर में आते ही हिल-मिल जाए, बड़ों को आदर दे व बराबर वालों को स्नेह। लोगों की टिका-टिप्पणी से बहू को सुरक्षित रखने के लिए वह कभी बहू द्वारा लाए गए वस्त्रों को भी नुमाइश नहीं लगातीं। जितने लोग देखते हैं उतनी ही बातें बनाते हैं। कुछ लोगों को तो यह एक आंख नहीं सुहाता कि किसी घर में सास-बहू शांति से रहें। अतः ऐसी स्थिति से बचना ही उचित है।

    इसके विपरीत बहू के आने से पहले ही लोग उससे क्या-क्या अपेक्षाएं लगाए रखते हैं। जो सामान इस मंहगाई के युग में वे स्वयं खरीदने में असमर्थ हैं, उसी की आशा वे बहू के मायके वालों से लगाए रखते हैं। ननदों देवरों के लिए भी बढ़िया से बढ़िया वस्त्रों की आशा की जाती है। यहां तक कि अन्य रिश्तेदारों के लिए भी जोड़ों की मांग की जाती है। इतना बोझ पड़ने पर बहू के मायके वाले यदि कुछ सस्ता कपड़ा खरीद लेते हैं तो सबके चेहरे बिगड़ जाते हैं। बहू के सामने ही आलोचना शुरू हो जाती है। क्या इसका स्पष्ट तौर पर यह अर्थ नहीं होता कि अपेक्षा कपड़ों को अधिक महत्व दिया जा रहा है, फिर बहू का मन जीतने की आशा ही ससुराल वाले कैसे कर सकते हैं? बदलते समय के साथ हमें अपने सिद्धांत और मान्यताएं बदलनी पड़ेगी। बहू को बहू बनाना तो सभी जानते हैं परन्तु बहू को बेटी बनाना और सास को मां बनाने वालों के पास ही गृह शांति और परस्पर प्रेम की कुंजी होती है।

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    We only wanted such a girl who gets shaken as soon as she comes home, gives respect to elders and affection to equal ones. To protect the daughter-in-law from people's comments, she never shows off the clothes brought by her daughter-in-law. The more people see, the more things they make. Some people do not have an eye to see that mother-in-law live peacefully in a house. Therefore it is advisable to avoid such situation.

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  • क्या वेदों में दूरदर्शन का सिद्धान्त है?

    वेदों को सभी सत्य विद्याओं की पुस्तक माना गया है और इसका पढना-पढाना, सुनना-सुनाना प्रत्येक भारतीय का धर्म माना गया है। इस वाक्य को अगर ब्रह्म वाक्य मानकर पालन किया जाये तो हमारे मन में अनेक प्रश्न उठते हैं। प्राय: पूछा जाता है कि क्या वेदों में आधुनिक ज्ञान-विज्ञान है या नहीं और ऐसे प्रश्न वेदों के स्वाध्याय के समय और जहॉं वेदों की चर्चा मिलती है वहॉं अक्सर उठते हैं और कई बात तो वार्त्तालापों में निरुत्तर हो जाते हैं और कई विद्वान्‌ उपदेशकों का मजाक भी बना दिया जाता है।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    गायत्री से सुप्रेरणा, बुद्धि प्राप्ति व दुःख निवारण
    Ved Katha Pravachan _44 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    18वीं और 19वीं सदी में जब वेदों का पाश्चात्य जगत्‌ को परिचय हुआ जिसमें मैक्समूलरविल्सन आदि विद्वान्‌ थे। उन्होंने वेदों के तत्कालीन अनुवाद और भाष्यों को देखकर कह दिया कि वेद "गडरियों के गीत हैं" और तत्कालीन भारतीय विद्वानों ने भी उनका अनुसरण किया। पश्चिमी प्रकृति के अनुसार वेदों में इतिहास भी खोजा जाने लगा। लेकिन आर्य समाज के प्रवर्त्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने कठिन परिश्रम और स्वाध्याय के बाद दावे से कहा कि वेद सभी सत्य विद्याओं का पुस्तक है। उन्होंने वेदों का भाष्य करने से पूर्व ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका लिखी। उन्होंने वेदों में जिन विषयों की चर्चा की हैबताया है। उनके अनुसार वेदों में ईश्वरवेद उत्पत्तिदेवता विषययज्ञकर्मकाण्डसृष्टि उत्पत्तिवेदोक्त धर्मतार विद्यागणितपुनर्जन्मप्रकाश विषयअग्निहोत्र आदि विषय हैं। महर्षि दयानन्द की यह मान्यता थी कि विदेशी आततायियों ने भारत का बहुत नुकसान किया। इसी के साथ यहॉं के निवासियों की फूटअविद्याअज्ञानता ने सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। उनके अनुसार वेदों में इतिहास नहीं हैवरन्‌ वेदों में सामाजिकआर्थिकराजनैतिक एवं विज्ञान के नियम हैं। उनका यह भी दावा था कि वेदों की उत्पत्ति मनुष्य उत्पत्ति के साथ ही हुई थी। यह सत्य है कि गणित में सवाल दिये जाते हैं तथा उनके नियम दिये जाते हैंलेकिन उनको हल करना हमारा कर्त्तव्य है। प्रश्नों के उत्तर खोजना मनुष्य का काम है। वेदों में राज व्यवस्था दी हैलेकिन वह राज व्यवस्था कैसे करनाउनका क्रियान्वयन कैसे किया जाए यह तो मनुष्य के हाथ में है। वेदों में नियमों को संचित किया गया है और इन नियमों की सत्यता को खोजकर जनमानस के सामने लानेवाले ऋषि कहलाये। वर्तमान में हम जो कुछ देख रहे हैंवह सब कुछ सृष्टि में पहले से ही मौजूद है। परमाणु शक्ति की खोज के पूर्व क्या वह नहीं थीयह प्रश्न उठता है। उत्तर यही है कि- मौजूद थी। वे नियम भी मौजूद थे लेकिन उनका हल किया जाना शेष थाजो वर्तमान में खोजा जा रहा है। महर्षि दयानन्द ने जो वेदों का भाष्य कियाउन्होंने उसका आधार व्याकरणनिरुक्तअलंकारकल्पब्राह्मण ग्रन्थआयुर्वेदछन्दज्योतिष आदि आर्षग्रन्थों को आधार मानकर और जहॉं जिन मन्त्रों और ऋचाओं में शब्द आये हैं और उन मन्त्रों की संगति देखकर उनका भाष्य किया। यह हमारा दुर्भाग्य था कि वे वेदों का पूरा भाष्य नहीं कर पाये। उनकी शैली और मार्गदर्शन के आधार पर अन्य विद्वानों ने वेदों के भाष्य किये।

    इतनी बड़ी भूमिका लिखना इसलिए आवश्यक थाक्योंकि किसी बात को सिद्ध करने से पूर्व भूमिका लिखी जाना आवश्यक है और रहता हैताकि कोई सिद्धान्त भली प्रकार सिद्ध हो सके। वेदों का मुख्य विषय ही है कि हम प्राकृतिक शक्तियों को पहिचानें और धर्माधर्म को पहिचान कर सुखी हो सकें।

    वर्तमान सृष्टि में हमें जो कुछ दिखाई दे रहा है वह विकारित सृष्टि है और तेजोमय ब्रह्म ही सबका कारण है। यह वेद मानता है और प्रकृति में जब गति पैदा होती है तब स्थावर-जंगम की उत्पत्ति होती है। सबसे पहले प्रकृति से महत्तत्व प्रकट होता है और उसी से स्थूल सृष्टि का आधारभूत मन प्रकट होता है और यह मन नाना प्रकार के आकार धारण करता है। मन का लक्षण बताते हुए यजुर्वेद में आया है-

    यज्जाग्रातो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवेति।
    दूरङ्गमं ज्यौतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु।।

    यह मन दिव्य शक्तियों वाला है और जो संकल्प तथा विकल्प करता है और जाग्रत अवस्था में दूर-दूर तक चला जाता है और सोने की दशा में भी दूर-दूर चला जाता है। यही मन हमारी इन्द्रियों का प्रकाशक है। जब यह मन कल्याणकारी संकल्प वाला होता हैतब यही मन अनेक शक्तियों को प्राप्त कर लेता है। मन की शक्तियों को प्रकट करने वाले अनेक मन्त्र हैं। मन हमारा आन्तरिक दूरदर्शन है जो शारीरिक उष्मा से जाग्रत रहता है और व्यक्ति जब इस मन को स्थिर रखकर स्थितप्रज्ञ हो जाता है तब योगी बनकर भूतभविष्यवर्तमान को जान सकता है।

    वेदों में अग्नि की पहिचान कराने वाले अनेक मन्त्र दिये हैं तथा अग्नि की उत्पत्ति का क्रम बताया गया है। जब मन नाना प्रकार के आकार धारण करता है । उससे शब्द गुणवाले आकाश की उत्पत्ति होती है । आकाश का गुण शब्द है। जब आकाश में विकार उत्पन्न होता हैतब उससे वायु प्रकट होती है और वायु का गुण स्पर्श ज्ञान है। वायु के विकृत होने पर अग्नि उत्पन्न होती है और अग्नि का गुण रूप है। अर्थात्‌ अग्नि के प्रकाश से ही रूपदर्शन होता है और हम दूर-दूर तक की वस्तुओं का ज्ञान कर सकते हैं। जब व्यक्ति पर प्रकाश की किरणें पड़ती हैं तो उसकी छाया भी दूर-दूर तक चली जाती है और उसका रूपदर्शन करा देती है। वैसे ही इस मूल वैदिक सिद्धान्त को विकसित कर दूरदर्शन की कल्पना को साकार किया गया है और वेदों में स्थान-स्थान पर जल और अग्नि शक्ति के उपयोग के आदेश दिये गये हैं और मनुष्य अपनी उत्पत्ति से आज तक प्रकृति की सुसुप्त शक्तियों की पहिचान कर रहा है। अग्नि के तेज में जब विकार उत्पन्न होता हैतब जल की उत्पत्ति होती है और ये शक्तियॉं क्रमश: सभी धारण किये रहती हैं।

    जल में विद्युत शक्ति हैयह आज प्रकट है । बड़े-बड़े बान्धों से उत्पन्न विद्युत हमारे घरों में विराजमान है। आज बिजली गायब होती है तो सब ओर अन्धकार छा जाता है। अग्नि का कार्य रूप को प्रकट करना है और अग्नि रूप की उष्मा है । उसी को धातुओं के तन्तुओं (तारों) में प्रवाहित किया जाता है। तब वह सूक्ष्म होने के कारण धातु के कण-कण में समाहित हो जाती है। उस उष्मा (करण्ट) से सारे कार्य सम्पादित किये जाते हैं। जिस प्रकार वायु सम्पूर्ण आकाश में छायी हैप्रत्येक वस्तु में आकाश है उसी प्रकार तन्तुओं में अग्नि का प्रवाह उष्मा रोकने पर उसका रूप समाप्त हो जाता है। वेदों में इन्द्र अर्थात्‌ विद्युत का स्थान-स्थान पर वर्णन मिलता है और उसकी शक्ति को पहिचानने का निर्देश दिया गया है। यजुर्वेद के अष्टादश अध्याय में अनेक विद्युत शक्तियों का वर्णन किया गया हैजिसका भावार्थ मनुष्य प्राण और बिजली की विद्या को जान और इनकी सब ओर से व्याप्ति को जानकर बहुत दीर्घ जीवन को सिद्ध करे। मनुष्य के लिए कहा है कि मनुष्य जब तक लोकों तथा पृथ्वी आदि पदार्थों में ठहरी हुई बिजली (विद्युत) को नहीं जानतेतब तक ऐश्वर्य को प्राप्त नहीं कर सकते। इसलिए वैज्ञानिकों को निर्देश दिये गए हैं कि अग्नि की शक्तियों को पहिचानें। आज वायुयानराकेटअन्तरिक्षयान आदि सभी अग्नि से ही चलते हैं। अणु-परमाणु के घर्षण से भी विद्युत तरंगें ही तो उठती हैं। वेदों में इन्द्र अर्थात्‌ बिजली और इलेक्ट्रोनिक्स इन्द्रशक्ति के प्रयोग से ही संसार की उन्नति हो सकती है और हो रही है और उसमें जल विद्युत अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही है। आज अगर जल परियोजनाएं या परमाणु परियोजनाएं अस्त-व्यस्त हो जाएं तो क्या हम जो उन्नति कर रहे हैं और जो दिख रही है वह दिखेगीइसलिए ऋग्वेद का प्रथम मन्त्र कहता है-

    अग्निमीडे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्‌। होतारम्‌ रत्नधातमम्‌।।

    इस विवेचन से यह प्रमाणित होता है कि वेदों में मूल सिद्धान्त प्रत्येक विद्या के दिये हैं। अब हमारे सामने यह प्रश्न आता है कि जब वेदों में सब कुछ दिया है तो भारतवासियों द्वारा यह सभी आविष्कार क्यों नहीं कियेउसका एकमात्र उत्तर भारतीयों द्वारा वेद विमुख हो जाना है। समाज में वेदविरुद्ध मतमतान्तरों का जाल बिछ जानावेदों की विदेशी व देशी विद्वानों की व्याख्यावेदों को पश्चिमी चश्में से देखना और विदेशी-मुस्लिम व यूनानी आक्रमणकारियों द्वारा देश के बड़े-बड़े पुस्तकालयों को जलाकर खाक करना जिनमें वेदों की अनेक शाखाओं और उनकी संहिताओं का नष्ट होनाभारतवासियों का प्रमादआलस्य और वेदविमुख हो वेदों के अलावा अन्यत्र शोध करना भी इसके कारण हैं। आज पुन: आवश्यकता है वेदों की ओर आने कीताकि हम पुन: अपना गौरव प्राप्त कर सकें और उसी अनुसार हम अपनी सामाजिक व्यवस्थाएं भी कर सकें। - सुखदेव व्यास

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    Water has electric power, it is manifest today. The power generated by big binds sits in our homes. Today, lightning disappears, darkness envelops everywhere. The function of fire is to manifest form and the heat of form is fire. The same is carried in the fibers (wires) of metals. Then, due to being subtle, it gets absorbed into the particle of the metal. All works are performed with that heat. Just as the air is covered in the entire sky, every object has a sky, similarly the fire stops flow in the fibers, its form ends.

     

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  • क्रान्तिकारी पं.रामप्रसाद बिस्मिल

    जिस भारत में आज हम सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे हैं, इस भारत की गुलामी की बेड़ियॉं काटने के लिये अनेक वीरों और रणधीरों ने अपने जीवन को बलिदान किया। वे हंसते-हंसते फॉंसी के फन्दे पर झूल गए या जेलों में सड़ते रहे। अपने आपको आजादी के लिए बलिदान देने वालों में पं. रामप्रसाद बिस्मिल भी एक थे।

    पं. रामप्रसाद का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी सं. 1897 को शाहजहॉंपुर के मुरलीधर तिवारी के यहॉं हुआ। वह आरम्भ से ही बुरी संगत में फंसकर बुरी आदतों यथा चोरी, धूम्रपान, भांग पीना, गन्दे उपन्यास पढ़ना आदि में समय नष्ट करने लगे। पकड़े जाने पर तथा सहपाठी के सुयोग्य मार्गदर्शन से इन गन्दी आदतों से छुटकारा मिला। मुन्शी इन्द्रजीत की प्रेरणा से आर्यसमाज के साथ जुड़े तथा नियमित आसन-प्राणायाम भी करने लगे। इससे आत्मविश्वास बढ़ा व शरीर भी बलिष्ठ हुआ। आर्य कुमार सभा के माध्यम से बच्चों को देशभक्ति की प्रेरणा दी जाने लगी।

    Ved Katha Pravachan _80 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    इस सभा से युवकों को आत्मरक्षा हेतु शस्त्र चलाना भी सिखाया जाता था। इसके साप्ताहिक अधिवेशनों में वाद-विवाद व भाषण के अतिरिक्त धार्मिक पुस्तकों को पढ़ा भी जाता था। इसी सभा के माध्यम से उन्होंने अपने प्रायः सभी साथियों को देशभक्त बना लिया। इन्हीं दिनों आर्यसमाज के एक संन्यासी स्वामी सोमदेव जी से इनका सम्पर्क हुआ। इन्हीं के मार्गदर्शन में आजादी के दीवाने क्रान्तिकारी युवकों का संगठन बनाया, इसमें पं. गेंदालाल दीक्षित उनके सहयोगी व मार्गदर्शक बने। इनसे न केवल बन्दूक इत्यादि चलाना सीखा, अपितु स्वाधीनता व क्रान्ति सम्बन्धी अनेक पुस्तकें भी पढ़ीं।

    क्रान्ति के लिए भारी धन की आवश्यकता थी, जिससे शस्त्र खरीदे जा सकें। इसलिए काकोरी के पास गाड़ी में जा रहा सरकारी खजाना लूटा गया तथा इस पैसे से शस्त्र खरीदकर क्रान्ति की गतिविधियॉं तेज कर दी। सरकार के लाख यत्न करने पर भी वह न पकड़े जाते, यदि उनमें से ही एक साथी दुष्ट बनवारीलाल देशद्रोही बनकर भेद न खोलता। परिणामस्वरूप केवल एक चन्द्रशेखर आजाद को छोड़कर सभी दस से दस देशभक्त दीवाने पकड़े गये। पुलिस अमानवीय अत्याचार करके भी कुछ उगलवा न सकी। न्याय का ढोंग अवश्य रचा गया तथा पूर्व निर्धारित दण्डस्वरूप फांसी की सजा सुना दी गई।

    जेल में फांसी की कोठरी में भी वीर बिस्मिल ने अपनी दिनचर्या को बनाए रखा। प्रतिदिन प्रातः उठना, दण्ड-बैठक निकालना, सन्ध्या-हवन इत्यादि नियमित दिनचर्या थी। इतना ही नहीं, इस अवसर पर उन्होेंने अपनी आत्मकथा भी उन्हीं दिनों लिख डाली। उनकी यह आत्मकथा जेल में फांसी की कोठरी में लिखी गई। कुल दो प्रथम आत्मकथाओें में से सम्भवता प्रथम आत्मकथा है, जो हिन्दी की न केवल श्रेष्ठ आत्मकथाओं में से एक है, बल्कि फांसी से मात्र तीन दिन पूर्व किस प्रकार जेल से बाहर भेज दी गई, यह विदेशी भी देखकर भोंचक्के रह गए। 19 दिसम्बर 1927 में फांसी देते समय जब अन्तिम इच्छा पूछी गई तो वीर बिस्मिल ने दहाडते हुए कहा कि "अंग्रेजी साम्राज्य का नाश हो, यही मेरी अन्तिम अभिलाषा है।'' वे हंसते हुए स्वयं रस्सी गले में डाल विदा हुए। जाते जाते भी सन्देश दे गए कि कट-कटकर मरें, फिर भी सन्ध्या-हवन आदि दिनचर्या को न छोड़ें। उनको सच्चे मन से यदि हम याद करना चाहते हैं, तो उनकी अन्तिम इच्छा की पूर्ति के लिए अपने जीवन को यज्ञमय बनाते हुए बुराइयों के नाश के लिए डट जावें। डॉ. अशोक आर्य 

    जिन्दगी के नियम

    सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी रामप्रसाद बिस्मिल को जिस दिन फांसी दी जानी थीउस दिन सुबह जल्दी उठकर वह रोज की तरह व्यायाम करने लगे। जेलर ने पूछा, "आज तो आपको कुछ समय बाद फांसी लगने वाली हैफिर व्यायाम से लाभ?'

    रामप्रसाद बिस्मिल ने मुस्कुरा कर उत्तर दिया, "जीवन आदर्शों व नियमों से पूर्ण रूप से बन्धा हुआ है। जब तक शरीर में सांस चल रही हैतब तक नियमों में व्यवधान आने देना उचित नहीं हैमैं अपना धर्म निभाने में लगा हूँ। कुछ देर बाद आप अपना कर्त्तव्य पूरा करना।'' जेलर बिस्मिल की बात सुन ठगा-सा खड़ा रह गया। -प्रस्तुतिः कु. विनीता

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    The famous revolutionary Ramprasad Bismil, who was to be hanged, got up early in the morning and started exercising as usual. The jailer asked, "Today you are going to be hanged after some time, then benefit from exercise?"

     

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  • खोजिए रामराज्य के आधार-सूत्र

    महात्मा गांधी जी का स्वप्न था, आजादी के बाद भारत में रामराज्य की स्थापना। बासठ वर्ष का लम्बा समय व्यतीत हो चुका है स्वतन्त्रता प्राप्ति को। परन्तु रामराज्य तो दूर की बात है, वर्तमान में तो उसके विपरीत विभिन्न क्षेत्रों में चरित्रहीनता का नग्न-नृत्य ही दिखाई दे रहा है। देशभक्ति और राष्ट्रीय चरित्र का कहीं दूर तक पता ही नहीं है। नेताओं से पूछने पर उत्तर मिला कि वे अपनी पार्टी के प्रति वफादार हैं। पार्टी ही राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण करती है। खैर जाने दीजिए। वर्तमान के सन्दर्भ में तो डॉ. राधाकृष्णन के शब्द पूर्णतः सही स्थिति प्रस्तुत करते हैं। उनका कथन था, "वर्तमान स्थिति को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि या तो मानव इतिहास का अन्त आ गया है अथवा यह नई करवट लेने को है। जब तक प्रकाश शेष है, परिवर्तन लाने के लिए जुट जाएं, अन्यथा.....।'' अधिक कहने की आवश्यकता नहीं, वर्तमान तो हम सबके सामने है। 

    Ved Katha Pravachan -3 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    भ्रष्टाचार, मिलावट, रिश्वतखोरी तो है ही, परन्तु इससे भी अधिक चिन्ता का विषय है राष्ट्र और राष्ट्रीय संस्कृति की रक्षा के प्रति उदासीनता। प्राथमिकता के आधार पर इस दिशा में चिन्तन करने वाले देशभक्तों की प्रमुख चिन्ता है- "परिवर्तन लाना'। परिवर्तन आवश्यक है। अन्यथा देश की स्वतन्त्रता के अस्त होने के साथ इतिहास सहित आर्यजाति का लोप हो जाना सम्भव है। 

    परिवर्तन की प्रक्रिया के आधारबिन्दु अर्थात्‌ वैचारिक पृष्ठभूमि क्या हो सकती है, इस पर वेद तत्वान्वेषक एवं भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ विद्वानों से चर्चा की गई। एक विद्वान ने अथर्ववेद का उदाहरण देते हुए बतलाया कि पृथ्वी सात गुणों को धारण करती है। मानव धरती-माता का पुत्र है। इसलिए उसमें भी इन्हीं सात गुणों का होना अनिवार्य है। अथर्ववेद के अन्तर्गत "भूमिसूक्त' है। इसमें उल्लेखित है- माता भूमि पुत्रोऽहं पृथिव्या। अर्थात्‌ माता भूमि है और मैं उस माता का पुत्र हूँ। ये सात गुण इस प्रकार हैं- सत्य (मन, वचन एवं कर्म में), सरलता (अभिवादन, विनम्रता, वृद्धसेवा आदि), तेजस्विता (पराक्रम, शौर्य, साहस आदि) दृढ़ संकल्प (निश्चयात्मक बुद्धि) तितिक्षा, ज्ञान  (विज्ञान सहित ज्ञान, तत्वदर्शिता, यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे का ज्ञान), यज्ञ (राष्ट्र तथा लोकोपकार हेतु सर्वस्व का त्याग करने की उत्कट अभिलाषा)। भारतीय चिन्तन के अनुसार देशभक्त में इन गुणों का होना आवश्यक है। धरती माता की अपने पुत्रों से ये ही उत्कट अभिलाषा है। इन्हें धारण करने वाला व्यक्ति सही अर्थों में आर्य है। यही आर्यत्व, मानवता, पुरुषत्व, हिन्दुत्व है। ऐसे गुणसम्पन्न व्यक्ति से किसी भी प्रकार के भ्रष्टाचार का होना सम्भव नहीं है। ऐसे ही चरित्रसम्पन्न व्यक्तियों के द्वारा राष्ट्र-हित में सकारात्मक परिवर्तन लाया जा सकता है। इस आधार पर रामराज्य पर विचार करते हैं। राजा देशरथ के चारों पुत्र राम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न इन्हीं गुणों से विभूषित थे। इन्हीं चारों के संयुक्त प्रयास का परिणाम था रामराज्य-कहेऊ मुनि यह हृदय विचारी, वेदतत्व नृप तव सुत चारी'। (रामचरित मानस)। अथर्ववेद का "पृथिवी सूक्त' इसी दिशा में हमारा मार्गदर्शन कर सकता है। यदि परिवर्तन लाने की उत्कट अभिलाषा हो तो इस ज्ञान की ओर लौटना होगा। ऊपरवर्णित गुण जब व्यवहार में लाए जाएंगें, तभी राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण सम्भव है। आज हमारी राष्ट्रीय अस्मिता और उसका अस्तित्व उस चौराहे पर पहुँच गया है, जहॉं विनाश उसे खोज रहा है। जब तक प्रकाश शेष है अर्थात्‌ अवसर मिल रहा है, परिवर्तन लाने के लिए आपसी भेदभाव भुलाकर सुदृढ़ एकता के साथ प्रयास में जुट जाएं, अन्यथा हमारे पूर्वज और राष्ट्रीय संस्कृति का निर्माण करने वाले ऋषिगण हमें क्षमा नहीं करेंगे। इन गुणों के आधार पर कर्मसाधना अपेक्षित है और तभी, हॉं! तभी भारत के प्रांगण में सच्ची स्वतन्त्रता का सूर्योदय हो सकेगा। यही साधना हमें ऋषिऋण से उऋण कर सकेगी। यही साधना हमें रामराज्य के स्वर्णिम युग में प्रविष्ट करेगी। 

    यह तो हमने सोचा है। आप भी सोचिए और अपने चिन्तन से हमें अवगत कराइए। हम सबने आपस में मिलकर राष्ट्र की झकोले खाती हुई डगमगाती नाव को बचाना है। - आचार्य डॉ.संजयदेव

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    What could be the basis of the process of change, that is, the ideological background, was discussed with the Vedic commentators and the learned scholars of Indian culture. A scholar cites the Atharvaveda as saying that the earth bears seven qualities. Man is the son of Mother Earth. Therefore, it is mandatory to have these seven qualities also. Under the Atharvaveda is "Bhumisukta". It mentions - Mother land sons and earth

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  • घरेलू इलाज

    श्वास रोग अस्थमा के लिए

    बढ़ते प्रदूषण और घटती रोग प्रतिरोधक क्षमता के चलते आजकल अस्थमा की बीमारी से कई लोग जूझ रहे हैं। महंगी दवाइयॉं और इलाज के बावजूद कई बार लोगों को इस बीमारी में लाभ नहीं मिलता। इन्हेलर होें, गोलियॉं हों या इंजेक्शन, कई बार मौसम की चपेट और मरीज की कमजोरी के आगे यह सब फालतू सिद्ध तो होता ही है, साथ ही मिलते हैं हॉस्पिटल के बिल और डॉक्टर के पास जाने की चक्करबाजी। इसीलिए प्रस्तुत हैं अस्थमा के लिए कुछ फायदेमन्द और आसान से घरेलू इलाज-

    Ved Katha Pravachan _19 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    1. एक चम्मच शहद में आधा चम्मच दालचीनी पावडर मिलाकर सेवन करने से अस्थमा में लाभमिलता है।
    2. जिन लोगों में इस बीमारी का शरुआती दौर है,उन्हें 8-10 लहसुन की कलियों को आधे कप दूध में उबालकर रात को पीने से काफी फायदा होता है।
    3. गरम पानी में एक चम्मच शहद मिलाकर सोने से पहले एक-एक घूंट पीएं। इससे लाभ होगा।
    4. एक कप पानी में रातभर एक चम्मच मेथीदाना भिगो दें। उसमें एक चम्मच अदरक का रस और एक चम्मच शहद मिलाकर सुबह-शाम सेवन करें।

    गठिया का घरेलू इलाज

    बढ़ती उम्र के साथ जोड़ों के दर्द की समस्या भी आम हो जाती है। डॉक्टरी इलाज के साथ-साथ इसके दर्द के लिए घर पर भी आप कुछ सामान्य इलाज कर सकते हैं।

    नागौरी असगन्ध की जड़ - नागौरी असगन्ध की जड़ और खाण्ड दोनों समान मात्रा में लेकर कूट-पीसकर कपड़े से छानकर बारीक चूर्ण बना लें और किसी कांच के बरतन में रख लें। रोज सुबह और शाम 6 ग्राम चूर्ण गरम दूध के साथ लें। आवश्यकतानुसार तीन सप्ताह से छः सप्ताह तक लें। इस योग से गठिया का वह रोगी भी ठीक हो जाता हैजिसने बिस्तर पकड़ लिया हो। इससे कमर दर्दहाथ-पांवजंघाओं का दर्द और दुर्बलता मिटती है। यह एक अच्छा टॉनिक है।

    बथुआ के पत्ते से इलाज- प्रतिदिन बथुआ के ताजा पत्तों का रस पीने से गठिया दूर होता है। इस रस में नमकचीनी आदि न मिलाएं। रोज सुबह या फिर शाम के चार बजे खाली पेट इसके रस का सेवन करें। इसका रस लेने के दो घण्टे पहले या बाद में कुछ न लें। इस रस का सेवन कम से कम दो माह तक करें।

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    Root of Nagauri Fragrance- Take equal amount of root and khand of Nagauri Fragrance, after grinding, make a fine powder by filtering it with a cloth and keep it in a glass vessel. Take 6 grams of powder with hot milk every morning and evening. Take from three weeks to six weeks as needed. This yoga also cures the arthritis patient who has held the bed. This erases backache, extremities, thigh pain and weakness. It is a good tonic.

     

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  • घरेलू नुस्खे

    दांत दर्द-दांत में चाहे थोड़ा सा भी दर्द हो, इसके उपचार में देर नहीं लगानी चाहिए। अन्यथा अन्य दॉंतों को रोग लग जाने का भय होता है। दॉंत में दर्द प्रायः रोटी के टुकड़ों आदि के सड़ जाने या कीटाणुओं से होता है। दॉंतों के उपचार में सबसे अधिक ध्यान देने योग्य बात स्वच्छता है। दिन में दो बार दॉंतों को कीटाणुनाशक मंजन आदि से साफ करना चाहिए। गरम पानी में नमक या अन्य कीटाणुनाशक औषधि मिलाकर कुल्ले करने चाहिएं। कैल्शियम की भी ऐसे रोगी को अधिक आवश्यकता होती है। पीड़ा के स्थान पर इन औषधियों में से किसी एक का प्रयोग किया जा सकता है- लौंग का तेल, क्लोरोफाम, पीपरमेन्ट का तेल या क्लोडियन। यदि दॉंत में कीड़ा लगा हो, तो उस स्थान को साफ करवाकर भरवा देना चाहिए। अन्यथा सारे दॉंत को हानि पहुँचने का भय है।

    Ved Katha Pravachan _18 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    उँगलियों में खुजली- यदि हाथ या पांव की उंगलियों में खुजली होती होतो रात को सोते समय हल्के गरम पानी में थोड़ा सा नमक मिलाकर न केवल उँगलियों को धोना ही चाहिएअपितु कुछ समय तक उन्हें पानी में डूबी रहने देना चाहिए। इसके पश्चात्‌ उँगलियों को अच्छी तरह पोंछकर किसी गरम वस्त्र से लपेट दें।

    प्राकृतिक औषधि जल

    पानी के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। शरीर को जिन्दा रखने के लिए हवा के बाद दूसरा स्थान पानी का है। पंचतत्वों से निर्मित मानव शरीर में जल का सबसे अधिक महत्व है। हमारे शरीर में लगभग दो तिहाई मात्रा सिर्फ पानी की है। जब किन्ही कारणों से शरीर में पानी का अंश कम हो जाता है तब शुष्कताथकानबेचैनी तथा अन्य कठिनाइयॉं उत्पन्न होने लगती हैं। ठण्डे पानी से स्नान करने से शरीर निरोग रहता है।

    दो चम्मच जीरा एक गिलास में उबाल लें। ठण्डा होने पर छानकर इससे चेहरा तथा गर्दन धोयें। लगातार एक मास तक यह प्रयोग करने से त्वचा मुलायम होती है और रंग साफ होता है।

    प्रतिदिन सुबह-शाम आँखों पर ठण्डे पानी के छींटे मारें। इससे आँखों को ताजगी मिलती हैनेत्र-ज्योति बढ़ती है और आँखें चमकदार होती हैं।

    साबुन के घोल वाले गुनगुने पानी में पैर भिगोने से नाखून मुलायम हो जाते हैं। फिर उन्हें आसानी से आकार दिया जा सकता है।

    125 ग्राम पानी उबालकर ठण्डा करें। फिर इसमें 15 ग्राम नीम्बू का रस और 15 ग्राम शहद मिलाकर शरबत बना लें। सुबह खाली पेट यह शरबत पीने से मोटापा दूर होता हैअनावश्यक चर्बी घटकर शरीर सुडौल बनता है। दो माह के नियमित सेवन से ही फर्क दिखाई पड़ने लगेगा।

    आँखों के नीचे काले धब्बे या झुर्रियॉं पड़ जाने पर ताजे ठण्डे पानी में नीम्बू का रस व नमक मिलाकर दिन में दो-तीन बार पीयें। लाभ होगा।

    नहाने के बाद एक मग गुनगुने पानी में कुछ बून्दें नारियल के तेल की डालकर पूरे बदन पर इसी पानी को छिड़क लें और फिर तौलिये से थपथपाकर सुखा लें। प्रतिदिन ऐसा करने से सम्पूर्ण शरीर की त्वचा चिकनी व कोमल बनेगी।

    हाथ-मुंह धोते समय मुहॅं में दो घूंट पानी रखकर आँखों में पानी के छींटे दें। रोज ऐसा करने से आँखों की रोशनी बढ़ जाती है।

    त्वचा की कांति और चेहरे की चमक के लिए प्रातःकाल खाली पेट एक गिलास गुनगुने पानी में आधा नीम्बू निचोड़कर पीना चाहिए।

    स्तनों की पुष्टता के लिए एक बर्तन में गर्म तथा दूसरे बर्तन में ठण्डा पानी लेकर उनमें एक-एक तौलिया भिगो लें। स्तनों को वस्त्रविहीन करके पहले गर्म पानी में भीगे तौलिये को लेकर स्तनों पर फैला दें। कुछ देर बाद जब तौलिया ठण्डा हो जायेतब हटाकर ठण्डे पानी से भीगे तौलिये को फैलायें। ऐसा कई बार बदल-बदलकर करें। इससे स्तनों का रक्त संचार बढ़ेगा और स्तन पुष्ट और सुडौल बनेंगे।

    बालों को लम्बा करने के लिए पचास ग्राम कलौंजी को पानी में पीसकर एक लीटर पानी में मिला लें। इस पानी से प्रतिदिन सिर धोयें। इससे बाल एक माह में ही लम्बे हो जाते हैं।

    60 ग्राम इमली लेकर 250 ग्राम पानी में फूलने दें। फिर उसको मसलकर चटनी के समान बनाकर सारे शरीर में मलकर पन्द्रह मिनट बाद स्नान करें। उससे त्वचा का सांवलापन दूर होगा।

    बाल धोने के बाद अन्त में एक मग ठण्डे पानी में एक नीम्बू का रस निचोड़कर बाल धो लें। इससे बाल रेशन जैसे मुलायमचमकदार और स्वस्थ होते हैं।

    दोमुंहे बाल और बाल झड़ने की समस्या आजकल आम हो गई है। इसके लिए तीन बड़े चम्मच समुद्री नमक एक लीटर पानी में उबालकर ठण्डा करके बोतल में रख लें। जिस दिन बालों में शैम्पू करना होउस दिन इस पानी को बालों की जड़ों में लगाकर अच्छी तरह मालिश करें। ऐसा करने से बाल स्वस्थ व मजबूत होते हैं। आनन्द कुमार

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    दूध से निखारें सौन्दर्य

    पौष्टिकता में संसार के किसी भी आहार की तुलना दूध से नहीं हो सकती है। प्रोटीन के अतिरिक्त दूध अन्य पौष्टिक तत्वों जैसे कैल्शियमफास्फोरसविटामिन का भी उत्तम साधन है। दूध को एक सम्पूर्ण आहार भी माना जाता है। दूध मनुष्यों के लिए पूर्ण भोजन ही नहीं हैरोगों की औषधि भी है। दूध तो अमृत आहार है। वास्तव में दूध ऐसा आहार है जो कमजोर काया को नवीन जीवनी शक्ति प्रदान कर सकता है। रात को सोते समय दूध में थोड़ी मात्रा में शहद मिलाकर सेवन करना गुणकारी बताया गया है। इसे भोजन के तुरन्त बाद न लेंवरन्‌ भोजन करके 2-3 घण्टे बाद सेवन करना चाहिए। दूध में मिठास होती हैजिसे हम "लैक्टोजके नाम से जाना जाता है।

    दूध केवल पीने-पिलाने एवं व्यंजन बनाने के काम नहीं आताबल्कि सौन्दर्य निखारने में भी यह काफी सहायक होता है। सौन्दर्य विशेषज्ञों ने दूध तथा दही में तमाम सौन्दर्य बढ़ाने वाले गुणों की चर्चा की है। वास्तव में दूध शारीरिक सौन्दर्य बढ़ाने एवं रूप को निखारने के लिए सबसे सरल व सस्ता साधन है। चेहरे की सफाई के लिए दूध का प्रयोग अच्छा रहता है। दूध सबसे बेहतरीन क्लीजिंग एजेण्ट है। यहॉं दूध के कुछ सौन्दर्यवर्धक गुणों के बारे में जानकारी दी जा रही है-

    1. त्वचा को कान्तिमय और आकर्षक बनाने के लिए थोड़ा सा कच्चा दूध लीजिए। उसमें शहद मिला लीजिए। डबल रोटी के टुकड़े को इस मिश्रण में भिगोकर त्वचा पर मलिए। यह बहुत लाभप्रद है।

    2. गर्दन और हाथ-पैरों को सुन्दर व स्वच्छ रखने के लिए गाय के कच्चे दूध में ऊन का फाहा डुबोकर उससे गर्दन व हाथ-पैरों पर पुचारा दीजिए। बाद में रगड़कर धो लीजिए। ये उपाय बड़े ही कारगर पाये गए हैं।

    3. चेहरे का रूखापन समाप्त करने के लिए संतरे के सूखे हुए छिलके को कच्चे दूध में भिगो देंफिर उसे पीस लें। इस लेप को चेहरे पर उबटन की भांति प्रयोग करें।

    4. नहाने से पूर्व एक भाग बेसन को दो भाग दूध में मिलाकर यह लेप शरीर में साबुन के स्थान पर लगाया जायेतो शरीर की चिकनाहट और मुलायमित बनी रहती है।

    5. थोड़े से कच्चे या गुनगुने दूध में रूई या ऊनी कपड़े के एक टुकड़े को चेहरे और हाथों पर तथा शरीर के अन्य भागों पर धीरे-धीरे मलें। 8-10 मिनट बाद पानी से धो डालें। इससे त्वचा मुलायम और चिकनी हो जाएगी। साथ ही चेहरे की झुर्रियॉं आदि भी समाप्त हो जाएगी।

    6. रात को सोने से पहले मुलहठी का चूर्ण 5 ग्रामआधा चम्मच शुद्ध घी तथा डेढ़ चम्मच शहद मिलाकर चाटेंऊपर से दूध पी लें। हर आयु के व्यक्ति का शरीर इस उपाय से पुष्टसुड़ौल व शक्तिशाली बनता है।

    7. प्रातःकाल उठकर सबसे पहले चेहरे को कच्चे दूध से साफ करें। फिर चन्दन का पेष्ट (चन्दन पाउडर न लेकर यदि चन्दन की लकड़ी को घिसकर उसका इस्तेमाल करेंतो ज्यादा बेहतर होगा) बनाकर चेहरे पर 10 या 15 मिनट तक लगा रहने दें। सूखने पर धो लें। ऐसा नियमित करने से चेहरा चमक उठेगा।

    8. चने की दाल को रात भर दूध में भिगोकर सुबह पीस लें। उसमें थोड़ी सी हल्दी मिलाकर चेहरे पर लगाएं। सूखने पर ताजे पानी से चेहरा साफ कर लें। चेहरे में निखार आएगा।

    9. त्वचा की रंगत साफ करने के लिए दूधनीम्बू और सन्तरे का रस मिलाकर चेहरे पर लगाएं। 20 मिनट बाद चेहरा ताजा पानी से साफ कर लें।

    10. दूध व नमक मिलाकर चेहरे पर लगाएं। इसके उपयोग से त्वचा कोमल बनी रहती है।

    11. सरसों को दूध में भिगोकर पीसकर चेहरे पर लगाएं। ये झाइयों को दूध करती है।

    12. एक चम्मच चिरौंजी को 4 चम्मच कच्चे दूध में 12 घण्टे तक भिगोकर उसके बाद पीसकर उसका पेष्ट तैयार कर लीजिए। इस पेस्ट को चेहरे पर आधे घण्टे तक लगा रहने देंउसके बाद ठण्डे से धो देना चाहिए। ऐसा करने से शुष्क त्वचा मुलायम एवं कोमल हो जाती है। 

    13. जायफल को गाय के दूध में पीसकर पेष्ट तैयार कीजिए। इसपेष्टकोप्रतिदिन रात में लगाने से मुहांसेझुर्रियॉं एवं कालापन दूर हो जाता है।

    14. भुने मटर को नारंगी के छिलके के साथ कच्चे दूध में पीसकर चेहरे पर मलने से चेहरे का रंग निखरता है।

    15. शहददूध की क्रीम तथाबेसन मिलाकर उबटन तैयार करें। इसे चेहरे पर लगाने से खुश्की एवं झुर्रियॉं दूर होती हैं।

    16. गर्म दूध की मलाई का लेपकरने से कटे-फटे होंठ लाल गुलाब की पंखुड़ियों की भांति खिल उठते हैं।

    17. शुष्क त्वचा के लिए एक चम्मच ताजी मलाई2-3 बून्दें नीम्बू के रस कीचुटकी भर हल्दी पाऊडर लें। इन सबको मिला लें। इस पेस्ट को चेहरे पर लगा लें। 20 मिनट बाद चेहरा हल्के हाथों से रगड़कर गुनगुने पानी से साफ करें।

    18. यदि त्वचा तैलीय हैतो क्रीम से निकले दूध में 8-10 बून्दें पानी के रस की मिला लें। फिर त्वचा की सफाई करके पानी को धो लें। चेहरा पोंछते समय थपथपा कर सुखाएंरगड़कर न पोछें।

    19. आपको चेहरा मौसम अथवा अन्य किसी कारणवश पीला पड़ जायेतो दूध में कुछ बून्दें नीम्बू की डालें। साथ में एक छोटा चम्मच शहद भी मिला दें। इस लेप को रूई की सहायता से चेहरे पर लगाएं। 30 मिनिट बाद सामान्य पानी से साफ कर लें। इससे त्वचा में कोमलता और कान्ति आएगी।

    20. आँखों के चारों ओर झुर्रियां न पड़ेंइसके लिए आँखों के चारों ओर दूध रोज लगाएँ।

    21. होठों पर स्वाभाविक रंग लाने के लिए केसर और बादाम को दूध में घिसकर रात के समय लगाएं।

    22. बाल ज्यादा खुश्क होंतो धोने के बाद कच्चा दूध दस मिनट तक बालों में लगाए रखें। फिर गुनगुने पानी से धो लें। रूखे व शुष्क बालों के लिए यह अच्छा कंडीशनर है।

    23. प्याज के बीजों को दूध में पीसकर लेप करने से मुख पर सुन्दरता आती है और सिर के बाल नहीं झड़ते। - डॉ. हनुमान प्रसाद उत्तम

     

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    Life cannot be imagined without water. To keep the body alive, water is the second place after wind. Water is of the highest importance in the human body made from the five elements. About two-thirds of our body is water only. When the water content in the body decreases due to any reason, then dryness, fatigue, restlessness and other difficulties begin. Taking a bath with cold water keeps the body healthy. 

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  • जागते रहने वाले को वेद चाहते हैं

    ओ3म्‌ यो जागार तमृचः कामयन्ते यो जागार तमु सामानि यन्ति।
    यो जागार तमयं सोम आह तवाहमस्मि सख्ये न्योकाः।। ऋग्वेद 5.44.14।।

    अर्थ - (ऋचः) ऋग्वेद के मन्त्र (तम्‌) उसको (कामयन्ते) चाहते हैं (यः) जो (जागार) जागता रहता है (उ) और (तम्‌) उसी के पास (सामानि) समावेद के मन्त्र (यन्ति) जाते हैं (यः) जो (जागार) जागता रहता है (यः) जो (जागार) जागता रहता है (तम्‌) उसी को (अयम्‌) यह (सोमः) शान्ति और आनन्द का धाम भगवान्‌ (आह) कहता है कि (अहम्‌) मैं (तव) तेरी (सख्ये) मित्रता में (न्योकाः) नियत रूप से रहने वाला (अस्मि) होता हूँ।

    Ved Katha Pravachan _97 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    मन्त्र में आये 'ऋचः' और 'सामानि' पदों का सामान्य अर्थ ऋग्वेद के मन्त्र और सामवेद के मन्त्र होता है। इन पदों से सूचित होने वाले 'ऋग्वेद' और 'सामवेद' यहॉं शेष दोनों वेदों यजुर्वेद और अथर्ववेद के भी उपलक्षण हैं। अर्थात्‌ ऋग्वेद और सामवेद के निर्देश से चारों वेदों का ही निर्देश समझ लेना चाहिए। वस्तुतः चारों वेदों के मन्त्रों की रचना तीन प्रकार की है। जो मन्त्र छन्दोवद्ध हैं और छन्दों में होने वाली पादव्यवस्था से युक्त हैं उन्हें 'ऋच्‌' या 'ऋचा' कहा जाता है- यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था सा ऋक्‌। (जैमिनीयसूत्र 2.1.35) ऋग्वेद में ऐसे मन्त्रों का बाहुल्य है इसलिए उसे ऋग्वेद कहा जाता है। जब ऋचाओं को ही गीति के रूप में गाया जाता है तो उन्हें 'साम' कहा जाता है- गीतिषु सामाख्या (जैमिनीयसूत्र 2.1.36)। सामवेद में जितने मन्त्र हैं वे भक्तिरस में भरकर गीतिरूप में गाये जाते हैं, इसलिए उसका नाम सामवेद है। जो मन्त्र छन्दोबद्ध नहीं हैं और गीतिरूप में गाये नहीं जा सकते अर्थात्‌ जो मन्त्र पद्य नहीं हैं गद्य हैं, उन्हें 'यजुः' कहते हैं- शेषे यजुः शब्दः (जैमिनीयसूत्र 2.1.37)। यजुर्वेद में ऐसे 'यजुः' मन्त्र अधिक हैं इसलिए उसका नाम यजुर्वेद है। अथर्ववेद में तीनों प्रकार के मन्त्र हैं। क्योंकि चारों वेदों के मन्त्रों की रचना ही तीन प्रकार की है, इसलिए चारों वेदों को त्रयी या तीन वेद कह दिया जाता है। यों वेद चार ही हैं। केवल तीन प्रकार की रचना के कारण उन्हें तीन वेद भी कह दिया जाता है। इन तीन प्रकार की रचनाओं में भी प्राधान्य ऋग्‌ मन्त्रों और साम मन्त्रों का ही है, चारों वेदों की अधिकांश रचना इन्हीं में है। इसलिए इस मन्त्र के 'ऋचः' और "सामानि' ये पद यों भी चारों वेदों का निर्देश करने वाले हो जाते हैं।

    मन्त्र कहता है कि ऋग्वेद उसी की कामना करता है और सामवेद उसी के पास जाता है, जो जागता रहता है। ऋग्वेद और सामवेद से उपलक्षित होने वाले चारों वेदों का अध्ययन कौन कर सकता है ? उनका अध्ययन करके उन्हें भली-भॉंति कौन समझ सकता है ? और उन्हें भली-भॉंति समझकर उनके अनुसार आचरण करके क्रियात्मक जीवन में उनसे लाभ कौन उठा सकता है ? वह जो कि जागता रहता है।

    जो जागता रहता है, जो मुस्तैद और चौकन्ना रहता है, जो सावधान और सतर्क रहता है, जो सोता नहीं रहता, जो आलसी और प्रमादी नहीं बनता, वेद उसी की कामना करते हैं, उसे ही चाहते हैं, उसी के पास जाते हैं। जो व्यक्ति आलस्य और प्रमाद को परे फैंककर, सतर्क और सावधान होकर वेद को पढ़ने और उसका मर्म समझने के लिये भरपूर परिश्रम करता है, वेद उसी के पास जाता है। वेद का गूढ़ रहस्य उसी की समझ में आता है। वेद के गूढ़ रहस्य को समझकर और फिर उसके अनुसार आचरण करके उसके क्रियात्मक जीवन में सब प्रकार के लाभ वही जागरूक वृत्ति वाला व्यक्ति ही उठा सकता है। वेद तो सब प्रकार के वरदानों की, सब प्रकार के मंगलों की खान है। पर वेद से मिलने वाले इन मंगलों को प्राप्त वह कर सकता है, जो जागता रहता है। सोते रहने वाले को वेद के ये मंगल प्राप्त नहीं होते।

    और जो व्यक्ति जागरूक होकर वेद का अध्ययन करता है, उसके मर्म को समझ लेता है और फिर तद्‌नुसार आचरण करके अपने आपको पूर्ण पवित्र और ज्ञानवान्‌ बना लेता है, उसी जागते रहने वाले को भगवान्‌ के भी दर्शन होते हैं। वेद के ऐसे जागरूक विद्यार्थी के आगे भगवान्‌ अपने पट खोल देते हैं और कहने लगते हैं- "हे जागकर वेद का स्वाध्याय करने वाले स्वाध्यायी! मैं सदा तेरी मित्रता में रहूंगा, मेरा निवास सदा नियत रूप से तेरे हृदय में रहेगा।'' भगवान सोम हैं। उनमें चन्द्रमा की-सी शान्तिदायकता और आह्लादकता है। वे शान्ति और आनन्द के धाम हैं। जब वेद के स्वाध्याय से हमें परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान हो जायेगा, जब वेदानुकूल शुभ आचरण से हमारे हृदय निर्मल हो जायेंगे और जब उसके परिणामस्वरूप हमारे हृदयों में प्रभु की ज्योति झलकने लगेगी, तब उस शान्ति और आनन्द के धाम के हमारे हृदयों में निवास से हम भी अवर्णनीय शान्ति और आनन्द के समुद्र में गोते लगाने लगेंगे। तब शान्ति और आनन्द के धाम, रस के समुद्र, भगवान्‌ के इस दर्शन, इस साक्षात्कार से हमें जीवन का चरम लक्ष्य, एकमात्र लक्ष्य प्राप्त हो जायेगा। वेद भी जागते रहने वाले को ही चाहते और प्राप्त होते हैं।

    हे मेरे आत्मा! तू भी जाग और वेद को प्राप्त कर। हे मेरे आत्मा! तू भी जाग तथा 'सोम' के, शान्ति और आनन्द के निधि वेदपति भगवान्‌ को प्राप्त कर। आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति

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    The mantra says that the Rigveda wishes for the same and Samveda goes to him, who remains awake. Who can study the four Vedas arising from the Rigveda and the Samveda? Who can understand them well by studying them? And considering them well and behaving according to them, who can benefit from them in a functional life? The one who keeps awake.

     

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  • जीवन के पंचशील और उनसे आगे-2

    वेद-सन्देश

    5. आस्तिक भावना-

    3म उत स्वया तन्वा संवदे तत्कदान्वन्तर्वरुणो भुवानि।
    किं मे हव्यमहृणानो जुषेत कदा मृलीकं सुमना अभिख्यम्‌।। ऋग्वेद7.86.2।।

    हॉं! मैं अपनी (तनु) देह से संवाद करता हूँ। पूछता हूँ कि ऐ मेरी देह! तु मुझे यह बतला कि कब मैं वरने योग्य, वरने वाले परमात्मा में अपने को विराजमान हुआ देखूं? देह से संवाद इसलिये है कि जो जन्म से मरण पर्यन्त साथ देती है। पर ऐ मेरी देह! एक दिन तू भी मेरा साथ छोड़ देगी। तू तो मेरे रहने की कुटिया है। टूटने-फूटने वाली है। तो अपने टूटने-फूटने के पहले मेरे वरुण के अन्दर मुझे बिठाती जा। वह मेरी किस भेंट को स्वागत से स्वीकार कर सके? मैं कब उस सुखस्वरूपानन्द रूप परमात्मा को अच्छे मन वाला होकर देख सकूं। देह से संवाद क्या करना। इससे तो संघर्ष करना, लड़ना-झगड़ना है। ऐ मेरी देह! क्या तू सदा संसार के भोग विलासों में जहॉं-तहॉं फैलाने के लिये है? नहीं-नहीं, तू इस काम के लिये नहीं है। परन्तु तू उस प्रभु परमात्मा के सत्संग में ले जाने, उसकी शरण में पहुंचाने के लिये है। जिस मनुष्य में उस प्रभु परमात्मा के लिये आस्तिक भाव नहीं है, अपनी आत्मा का झुकाव नहीं है, ऐसा मनुष्य संसार में दस-बीस वर्ष रोटियॉं खाकर चला गया, ऐसा रूखा-सूखा जीवन तो प्राणी मात्र का है। मानव जीवन की सफलता तो इसी में है कि वह पूर्ण आस्तिक बने। और परमात्मा की उपासना करे।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    गाय का घी विष नाशक है

    Ved Katha Pravachan _69 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    मानव जीवन के भी दो विभाग हो जाते हैं। 1. साधारण जीवन और 2. दिव्य जीवन। नक्षत्र-तारा जीवन जो लाखों मनुष्यों में किसी विरले का होता है। उसके अन्दर दिव्यता निहित होती हैजो थोड़े से संस्पर्श या संघर्ष से जाग उठती है। जैसे दयानन्द का जीवन। शिवरात्रि की रात्रि में दयानन्द के सामने छोटी सी घटना आती है। शिवलिङ्ग पर छोटा सा चूहा चढ़ जाता है और खाने-पीने के पदार्थ को खा-पी लेता है तथा ऊपर से मूत्र-पुरीष की भी कुचेष्टा कर जाता है। यह छोटी सी घटना दयानन्द के सामने होती है। दयानन्द सोचते हैं कि कथा में तो सुना था कि शिव संसार का रक्षक है। यह तो चूहे से भी अपनी रक्षा नहीं कर पाता। यह शिव नहीं है। उस रात्रि में दयानन्द जागासचमुच जागा। स्वयं जागा और मानव समाज को भी जगाया।

    जागता वही दीपक है जिसमें जागने की शक्ति हैघृत के रूप में या तेल के रूप में। जिस दीपक में घृत नहींतेल नहीं उसका क्या जागना और जगाना। जगायाकिञ्चित्‌ टिमटिमाया और बुझ गया। ऐसी क्षणिक टिमटिमाहट तो प्रत्येक मनुष्य के अन्दर हो जाती है। जब कोई मनुष्य मर जाता हैउसे श्मशान ले जाते हैंकाष्ठ चिता पर रख देते हैंदाहकर्म आरम्भ हो जाता हैअग्नि की ज्वाला जलने लगती हैउस समय प्रत्येक मनुष्य के अन्दर वैराग्य की टिमटिमाहट हो जाती है। प्रत्येक मनुष्य अनुभव करता हैक्या है इस जीवन का ठिकानादो दिन का जीवन क्यों पाप कमानापरन्तु यह टिमटिमाहट मात्र हैजो घर जाते ही बुझ जाती है।

    एक वह मानव है जो अपने प्रासाद (महल) से गाड़ी में बैठकर चलता है। चलते हुए वह देखता है कि कुछ लोग कुछ उठाये जा रहे हैं। वह सारथि से पूछता है कि ये लोग क्या उठाये लिये जा रहे हैंवह उत्तर देता है कि ये लोग शव अर्थात्‌ मुर्दे को लिए जा रहे हैं। फिर पूछता है कि शव या मुर्दा किसे कहते हैंसारथि उत्तर देता है कि यह मनुष्य मर गया हैयह चल नहीं सकताहाथों से पकड़ नहीं सकताबोल नहीं सकता और समझ नहीं सकता। फिर पूछता है कि इस मुर्दे का क्या बनेगासारथि कहता है कि भस्म बना दी जायेगी। वह फिर पूछता है कि यह स्थिति मनुष्य मात्र की है क्यासारथि कहता है कि जो जन्मा है उसकी अन्तगति यही होती है। फिर वह पूछता है कि क्या मेरे लिए भीसारथि उत्तर देता है कि हॉं आपकी भी अन्तगति यही होगी। फिर वह सारथि से कहता है कि गाड़ी लोटाओमुझे सैर नहीं करनी है। अपने महल पर पहुंचकर उसे सदा के लिए त्यागने की इच्छा पैदा हुई। वे मानव महात्मा बुद्ध थे। उनकी इस वैराग्य की ज्योति पर एक कालिमा की रेखाधुएं की रेखा आ गई। उनका नवजात पुत्र उत्पन्न हुआ थाजिसका आगे राहुल नाम प्रसिद्ध हुआ था। सोचाउसका मुख तो देखता चलूं। पुत्र के मुखदर्शन का सुख गृहस्थों को होता हैयह सब जानते हैं। किन्तु वैराग्य की ज्योति फिर तीव्र हो उठी। उसने धुएं की रेखा को खा लिया। बुद्ध के अन्दर विचार आया कि इस थोड़ी सी बात के लिए अपने लक्ष्य से पीछे हटता हैलौटता है तो फिर न जाने जीवन में कितनी बार लौटना पड़ेगा। इसी प्रकार दयानन्द के जीवन में भी मृत्यु को देखकर वैराग्य की ज्योति जाग गई थी। प्यारी बहन का देहान्त उनके सामने हुआप्यारे चाचा का देहान्त उनके सामने हुआ।

    अन्त समय को देख दयानन्द घर से बन को जाता।
    निश्चय अपना किया जगत्‌ में किससे किसका नाता?

    इस प्रकार दयानन्द के वैराग्य की ज्योति पर कोई धुएं की रेखा नहीं आयी। चलते समय उनके अन्दर यह विचार नहीं आया कि मैं फिर से घर चलूंजैसे ही वैराग्य की ज्योति को धारण करके ग्राम को छोड़ान फिर पीछे मुंह मोड़ा।

    दिव्य जीवन बनाने के लिए वेद का उपदेश है कि मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्‌ (ऋग्वेद 10.53.3) दिव्य जीवन बनाने के लिए तू मनु हो जाअपने मूल में चला जा अर्थात्‌ मननशील हो जा। यह इस प्रकार से दिव्य जीवन बनाने का सन्देश हैजो साधारण लाखों मनुष्यों में किसी का नक्षत्र-तारा जीवन होता है। वेद और भी आगे बढ़ने का सन्देश देता है। लाखों दिव्य जीवनों या नक्षत्र-तारा जीवनों में कोई विरला सोम जीवन होता हैचांद जीवन होता है। वेद में कहा है-

    सुविज्ञानं चिकितुषे जनाय सच्चासच्च वचसी पस्पृधाते।
    तयोर्यत्संत्यं यतरदृजीयस्तदित्सोमोऽवति हन्त्यासत्‌।। (ऋग्वेद-7.104.12, अथर्ववेद 8.4.12)

    समझदार मनुष्य के लिए यह भली-भॉंति समझने योग्य है कि सत्य-असत्य वचन परस्पर स्पर्धा करते हैंएक दूसरे के विरुद्ध चलते हैं। इन दोनों में सत्य वह है जो अत्यन्त ऋजु हैसरल से सरल है। उसकी सोम रक्षा करता है और असत्‌ का हनन करता हैखण्डन करता है। विद्वान के सामने सत्य-असत्य विरोधी प्रतीत होते हैं। जो यह कहते और मानते हैं कि यह धर्म भी सत्य हैवह धर्म भी सत्य हैवे विद्वान नहीं हैं। विद्वानों में भी जो सत्य का रक्षण अर्थात्‌ मण्डन करता है और असत्य का खण्डन करता हैवह उनसे भी ऊंचा है। सोम नाम से कहलाने वाला चन्द्र जीवन है।

    ऐसे विद्वान्‌ भारत और विदेशों में थेजिनके सम्मुख सत्य और असत्य अलग-अलग प्रतीत होते थे। परन्तु वे सत्य को सत्य कहने के लिए और असत्य को असत्य कहने के लिए उद्यत नहीं थे। उनकी वाणी पर पक्ष काभय का और लोभ का ताला लगा हुआ था। किन्तु दयानन्द की वाणी पर पक्षभय और लोभ का ताला नहीं लगा था। उसे किसी पक्ष ने फंसाया नहींकिसी डर ने डराया नहीं और किसी लोभ ने लुभाया नहीं। लाहौर में ब्रह्मसमाजियों ने अपने यहॉं ठहराया। व्याख्यान हुआ वेद के महत्व पर। उन्होंने उनको वहॉं से हटा दिया और कहा कि तुमने हमारे धर्म की प्रशंसा नहीं कीअपितु वेद की प्रशंसा की। फिर डॉ. रहीम खॉं ने उन्हें अपनी कोठी पर ठहराया। भाषण दिया इस्लाम की आलोचना पर। लोगों ने कहा कि आप यह क्या करते हैंइन्होंने आपको स्थान देकर आपका उपकार किया और आप इन्हीं की आलोचना करते हैं। उन्होंने कहा कि ठीक हैइन्होंने मेरे ऊपर उपकार किया। मैं भी प्रत्युपकार करता हूँ। जो मनुष्य अन्धेरे में जा रहा हो उसे हाथ पकड़कर लाना भी मेरा काम है। ईसाई लोग चर्च में बुलाते हैं व्याख्यान देने को। वहॉं वे व्याख्यान देते हैं बाईबिल की आलोचना पर। ऐसा निराला वक्ता जिसे किसी पक्ष ने नहीं फंसायान उनको किसी डर ने डराया। अनेक बार विष के प्याले पिये और प्रहार सहे।

    हमने देखा कि आजकल के जो बड़े-बड़े नेता हैंगुरुकुलादि संस्थाओं में जाते हैं तो सन्ध्या-हवन की आलोचनावेद की आलोचना कर जाते हैं। किन्तु हमने न देखा न सुना कि किसी नेता ने मस्जिद में जाकर नमाज की आलोचना या कुरान की आलोचना कीहो। उन्हें गला कटने का भय और अपने पक्ष में न होने का सन्देह रहा।

    दयानन्द को किसी लोभ ने नहीं लुभाया। महाराणा उदयपुर ने कहा कि आप क्यों संसार के साथ अपना मस्तिष्क थकाते-दुखाते फिरते हैंयह लाखों रुपयों का मन्दिर आपका हैइसको सम्भालोबैठो। ऋषि ने उत्तर दिया कि यह मन्दिर तो क्याजितना आपका राज्य हैचाहूं तो मैं एक दौड़ में पार कर सकता हूँ। परन्तु मैं अपने ऊपर उसको राजा मानता हूँ जो विश्वराट्‌ परमात्मा है। उसकी आज्ञा का पालन न करके और सत्य का प्रचार न करके किस कोने में जाऊंगा। इसलिए मुझे मन्दिर नहीं चाहिए। वेद और भी मुझे आगे बढ़ने को कहता है। लाखों चांद जीवनों में कोई बिरला जीवन सूर्य का जीवन होता है। वेद में कहा है कि ब्रह्मचर्य्येण तपसा देवा मृत्युमुपाघ्नत (अथर्व 11.5.19) ब्रह्मचर्य रूप तप से देव लोग मृत्यु को परास्त करते हैं। यह तो हुआ ब्रह्मचर्य का फल। किन्तु के देवाःदेव कौन हैंउत्तर- ये ब्रह्मचर्येण मृत्युमपाघ्नन्ति। जो ब्रह्मचर्य-तप से मृत्यु को परास्त करते हैं वे देव हैं। वेद में सूर्य को ब्रह्मचारी कहा है- ब्रह्मचारीषणं चरति रोदसी उभे तपसा पिपर्ति। (अथर्व. 11.5.1)

    सूर्य ब्रह्मचारी होता हुआ आकाश में विचरता है। द्युलोकपृथ्वीलोक को अपने प्रकाश रूप तप से पूरित करता है। दयानन्द भी आदित्य ब्रह्मचारी थे। उन्होंने घर पर रहते हुए बहन और चाचा की मृत्यु को देखा। घर-परिवार के जन सब रो रहे थे। परन्तु वह नहीं रो रहा था। सब लोग कह रहे थे कि कितना निष्ठुर कठोर बालक हैजरा भी आँखों मेें आंसू नहीं हैं। परन्तु कौन जानता था कि यह बालक अन्दर ही अन्दर रो रहा है और मृत्यु की औषध को खोज रहा है। वेद ने बतायाइसका औषध है "ब्रह्मचर्य'। ऋषि ने इस औषध को वेद से प्राप्त कर गटागट पान कर लिया। उनके जीवन में ब्रह्मचर्य आपूर-भरपूर हो गयाजैसे किसी नदी लहर में जब जल आपूर-भरपूर हो जाता है तो उछल-उछलकर किनारों से बाहर भी बिखरता है। विरोधियों ने एक वेश्या को बहकाकर उनके पास भेजा कि वह उनको पतित करेवेश्या ने कहा कि आप जैसा अपने अन्दर पुत्र चाहती हूँ। ऋषि ने उत्तर दिया- आज से मैं तेरा पुत्र और तू मेरी माता। ऋषि के इतना कहने पर वेश्या के अन्दर ब्रह्मचर्य की धारा दौड़ गईउसकी काया पलट गई। गिड़गिड़ाकर कहने लगी- मैंने अनेक साधु देखेपर तेरे जेसा नहीं। तूने तो मेरा जीवन सुधार दिया। उसने आयु भर वेश्या कर्म छोड़ दिया। ऋषि को ब्रह्मचर्य ने मृत्युञ्जय बना दिया। दिवाली की अमावस्या उनका मृत्युञ्जय दिवस है। उस दिन ऋषि कहते हैं कि एक मास पीछे आज सुख का दिन है।

    संसार से उनके प्रस्थान का दिन है। विष के कारण अंग-अंग में छाले-फफोड़े पड़े हुए थे। आँखों की पुतलियों में छाले-फफोड़े पड़े थे। डाक्टर लोग चकित थे कि इतने अपार दुःख में भी यह साधु हाय-हाय नहीं करता और न ही घबराता है। अजमेर से बाहर के दर्शक और भक्त आये हुए थे। उनमें पं. गुरुदत्त जी वैज्ञानिक विद्वान्‌ थे। उन्होंने ऋषि दयानन्द के सम्मुख ईश्वर सम्बन्धी प्रश्न रखे थे। ऋषि ने उनका उत्तर दिया था। गुरुदत्त ने कहा था कि मेरे सारे प्रश्न हल हो गयेपरन्तु मुझे ईश्वर पर विश्वास नहीं हुआ। ऋषि ने कहा कि मेरा काम तुम्हारे प्रश्न उत्तर देना था। विश्वास तो अन्दर की वस्तु है। अन्दर से ही उपजेगा। पं. गुरुदत्त ऋषि के जीवन काल में ही नास्तिक रहे। प्राणान्त के समय ऋषि ने उन्हें कहा कि तुम ऐसे स्थान पर पर खड़े हो जाओजहॉं तुम मुझे देखते रहो और मैं तुम्हें न देख सकूं। इस प्रकार सब दर्शकों और भक्तों को अन्दर बुलाया और कहा- वैदिक धर्म का कार्य निरन्तर करते रहना। यह बात पं. गुरुदत्त भी सुन रहे थे। आश्चर्य कर रहे थे कि यह बात तो ऐसी है जैसे परदेश जाने वाला पीछे रहने वालों को सन्देश दे जाया करता है। फिर ऋषि मुण्डन कराते हैं। पं. भीमसेन जो उनके लेखक हैंको बुलाते हैं और कहते हैं 200 रुपए और दुशाला तुम्हारे लिये भेंट है। पीछे आनन्द में रहना। फिर आत्मानन्द शिष्य को बुलाते हैं और कहते हैं- बोलोतुम्हें क्या दिया जायेआत्मानन्द कहते हैं- महाराज! आप स्वस्थ हो जायेंमेरी यही इच्छा है। ऋषि ने कहा "यह शरीर क्षणभङ्गुर हैइसका क्या स्वस्थ होना। अब अन्त है।'' ये बातें सुन-सुनकर पं. गुरुदत्त आश्चर्य में पड़ रहे थे। फिर ऋषि ने सबकी ओर दृष्टि डालकर आँखें बन्द कर लीं। समाहित हो गये। ध्यानमग्न हो गये। कुछ देर पश्चात्‌ ऋषि ने संस्कृत में प्रार्थना कीफिर हिन्दी में की। अन्त में बोले- ईश्वर! तूने अच्छी लीला की। क्या तेरी यही इच्छा हैसचमुच तेरी यही इच्छा हैतेरी इच्छा पूर्ण हो। ऐसा कहकर श्वांस को लम्बा करके छोड़ दिया और छोड़ दिया सदा के लिये।

    हंस हंस हंस उड़ा एक उड़ान में।
    परब्रह्म में केवल में व्योम समान में।। 

    पं. गुरुदत्त जी इस दृश्य को देखकर मन में सोचने लगे- क्या यह मृत्यु का अभिनय हैऐसा मरण कभी देखने को नहीं मिला। उनके अन्दर यह भावना आई कि ऋषि दयानन्द जा रहे हैंयह कहते हुए जा रहे हैं- क्यों गुरुदत्त! अब भी ईश्वर है या नहींगुरुदत्त का हृदय भर आया। आंखों से आंसू बहने लगे- ऋषि! ऋषि!! प्यारे ऋषि!!! हॉंमैं समझ गया। हैवह ईश्वर है। वह अमर ज्योति जिसके जीवन वह जो ईष्टदेव होता हैउसका अन्त समय में भी उपदेश देता हुआ चला जाता है।स्वामी ब्रह्ममुनि

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    Awakening is the same lamp that has the power to wake up, in the form of melted butter or oil. What to awaken and awaken in a lamp that has no butter, no oil. Woke up, little flicker and extinguished. Such momentary flicker occurs in every human being. When a person dies, they take him to the crematorium, place the wood on the pyre, the cremation starts, the flame of fire starts burning, at that time there is a flicker of quietness in every human being. Every human feels, what is the whereabouts of this life, why should a two-day life be sinful? But it is just flicker, which is extinguished as soon as we go home.

     

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  • जीवन के पञ्चशील और उनसे आगे -1

    वेद-सन्देश

    सृष्टि के आरम्भ से लेकर आज तक अनेक मत एवं सम्प्रदाय चले, बहुतेरी सभाएं और समितियां बनीं। विविध दल और मण्डल स्थापित हुए। प्रश्न है, क्यों? इन सबका प्रादुर्भाव मनुष्यों के बीच में हुआ। इससे स्पष्ट है कि मानवता के प्रश्न को सुलझाने के लिये, मानव जीवन की समस्याओं को पूरा करने के लिये अर्थात्‌ मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन, गृहस्थ जीवन, सामाजिक जीवन, राष्ट्रीय जीवन और आध्यात्मिक जीवन सुखी बने, श्रेष्ठ हो, ऊँचा उठे, यह है उद्देश्य इन सब मतों, सम्प्रदायों, सभाओं, समितियों, दलों और मण्डलों का। जिसका यह उद्देश्य न हो उसे संसार से समाप्त हो जाना चाहिये।

    जीवन का प्रश्न जिस समय हमारे सामने आता है, हमें सर्वप्रथम संसार में दो प्रकार के जीवन मिलते हैं-1. चेतन जीवन2. जड़ जीवन। चेतन जीवन में मनुष्य, पशु-पक्षी आदि प्राणी वर्ग। जड़ जीवन में वृक्ष, पौधे, लता-तृण आदि वनस्पति जीवन है।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    पर्यावरण के शोधन के लिए यज्ञ अनिवार्य है।

    Ved Katha Pravachan _70 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    प्रथम जड़ जीवन को देखते हैं। कोई वृक्ष जहॉं लगा हैयदि वहॉं उसके लिये खाद्य (खाद) न मिले तो मर जाता है। वर्षा धारा के तीव्र प्रताप से (मुसलाधार वर्षा से) पौधा गल जाता है। गर्मी के तीक्ष्ण ताप से पौधा सूख जाता हैशीत के घोर हिमपात से पौधा पीला पड़ जाता हैमर जाता हैअपने को बचा नहीं सकता। कोई मनुष्य उसका पत्ता तोड़ेफूल तोड़ेशाखा तोड़ेसमूल ही नष्ट कर देउससे भी बचने की उसमें शक्ति नहीं है। यह जड़ जीवन है। जिस व्यक्तिजिस समाज और जिस राष्ट्र में अपने अस्तित्व को बनाए रखने की शक्ति नहींवह जड़निकम्मा और निरर्थक है।

    वियुज्यमाने हि तरौ पुष्पैरपि फलैरपि।
    पतति छिद्यमाने वा तरुरन्यो न शोचते।।

    किसी वृक्ष के फूल आने बन्द हो जाएंफल आने बन्द हो जाएंगिर जाने पर या काट दिये जाने पर पास का खड़ा वृक्ष उसके सम्बन्ध में कुछ सोच नहीं सकताचिन्ता नहीं करता। सहानुभूति हीन जीवन जड़ जीवन हैचाहे वह व्यक्ति होसमाज हो या राष्ट्र हो। जड़ जीवन यानी निष्क्रिय जीवन।

    इसके आगे चेतन जीवन के दो विभाग हैं। 1. मनुष्यों का जीवन। उसे मानव जीवन के नाम से कहेंगे। 2. मानव से अतिरिक्त प्राणियों का जीवन। उसे जान्तव जीवन के नाम से कहेंगे।

    कोई गधाघोड़ा या बैल जहॉं रहता हैयदि उसके लिये वहॉं चारा न मिले तो दूसरे स्थान पर चारा लेता है। दूसरे स्थान पर न मिले तो तीसरे स्थान पर लेता है। यदि वहॉं भी न मिले तो अपने लिए चारे को खेती करके उपजा नहीं सकता। वर्षा से बचनेगर्मी से बचनेठण्डी से बचने के लिये किसी बने-बनाये भवन (मकान) का आश्रय लेकर अपना बचाव कर सकता है। यदि ऐसा स्थान कहीं न मिलेतो मकान बनाने में वह असमर्थ है। कोई आक्रमणकारी आक्रमण करे तो उसका उत्तर सींगदांत और पञ्जों से दे सकता है। दूर खड़े आक्रमणकारी से अपना बचाव नहीं कर सकता। सहानुभूति भी जान्तव जीवन में थोड़ी मात्रा में होती है। जब उसके शिशु (बच्चे) समर्थ हो जाते हैंतब उनसे सहानुभूति भी हटजाती है।

    जान्तव जीवन है सक्रिय जीवन। परन्तु इसकी क्रियाओं के दो विभाग हो जाते हैं। अति दीनता या अति क्रूरता। ग्राम-नगर के पशुओं में अति दीनता पाई जाती है। किसी घोड़ेगधेबैल को लें। उस पर बोझे पर बोझा लादते चले जायें और डण्डे पर डण्डा लगाते चले जायेंवह अतिदीन है। जङ्गल के पशुओं में अतिक्रूरता पाई जाती है। सिंह आदि पशुओं को मार-मारकर खा जाते हैं। यह अतिदीनता मनुष्यों के अन्दर आ जाये तो दास बन जाता है। अतिक्रूरता आ जाये तो दस्यु बन जाता है। मानव को दस्यु और दास नहीं बनना चाहियेन बनने देना चाहिये।

    मानव अपने भोजन (आहार) के लिये पृथ्वी से नाना प्रकार के बीजों का संग्रह करता है। उन्हें कृषिविद्याउद्यानविद्या के द्वारा पुष्ट अन्नों और फलों के रूप में प्राप्त करता है। पाकविधि से भोजन बनाकर स्वास्थ्य सुख का लाभ लेता है। ऋतुओं के कोप से बचने के लिए ऋतु-ऋतु के अनुसार प्रासाद (मकान) बनाकर जीवन यात्रा सुख से निर्वाहित करता है। किसी आक्रमणकारी से बचने के लिए दण्डतलवारबन्दूक आदि से अपने को बचाता है। सहानुभूति भी यदि कहीं पूर्ण स्थान लेती है तो मानव-हृदय में लेती है। जो ग्रह-तारे-नक्षत्र-सितारे इन आँखों से स्पष्ट नहीं दीखतेउन्हें दूरवीक्षण (दूरबीन) से साक्षात करता है। इन्द्रियों का सुख बिना विपत्ति के कैसे मिल सकेइसके लिए भी उपाय करता है। शरीर में क्या रोग हैइसका निदान करके औषधिज्ञान से चिकित्सा करता है। नाना प्रकार की विद्याओं का अध्ययन करके मनोविकास और मानसिक कल्याण को प्राप्त करता है। अध्यात्म मार्ग परमात्मा की उपासना से परमानन्दपरमशान्ति और मोक्ष को पाता है। यह है मानव जीवन। जो अपनी रक्षा में स्वतन्त्र और विकासी जीवन हैऐसे जीवन को परम सफल और श्रेष्ठ बनाने के लिए वेदों में पञ्चशील बताए गए हैं-

    1. स्वावलम्बन की भावना -
    स्वयं वाजिंस्तन्वं कल्पयस्व स्वयं यजस्व स्वयं जुषस्व। महिमा तेऽन्येन न सन्नशे।। यजुर्वेद 23.15।।

    हे (वाजिन्‌) शक्तिशाली जीवात्मन्‌ मनुष्य! (स्वयं तन्वं कल्पयस्व) स्वयं अपने तनु=शरीर को समर्थ बना। शरीर के समस्त साधनों अर्थात्‌ कर्मेन्द्रियोंज्ञानेन्द्रियों और अन्तःकरण को समर्थ बना। पैरों में चलने की शक्ति हैइसे मनुष्य ने स्वयं उत्पन्न किया है। बालक ने उठ-उठकर गिर-गिरकर चल-चलकर स्वयं शक्ति को उत्पन्न किया है। उसके अन्दर उठने और चलने की भीतरी इच्छा और भीतरी प्रयत्न होता था। यदि भीतरी इच्छा और प्रयत्न से काम न लिया जाये तो कोई मनुष्य अपने घर से कहीं भी जाने में समर्थ न होता। यह देखा गया है कि हठयोगी साधु अपनी एक भुजा को ऊपर किये रहते हैं। भीतर इच्छा और भीतरी प्रयत्न से काम नहीं लेतेइसलिए भुजा सूख जाती है। इसी प्रकार नेत्रों में देखने की शक्ति और मन में समझने की शक्ति भी मनुष्य स्वयं उत्पन्न करता है। इन साधनों को समर्थ बनाकर (स्वयं यजस्व) स्वयं किसी कार्य क्षेत्र में लगा। (स्वयं जुषस्व) स्वयं उनका फल प्राप्त कर। जो कर्त्ता है सो भोक्ता है। (महिमा तेऽन्येन) तेरी यह त्रिविध महिमा अन्य के द्वारा (न सन्नशे) नष्ट नहीं की जा सकती।

    जो व्यक्तिजो समाज और जो राष्ट्र स्वावलम्बी होता हैवह संसार में उठ जाता हैउन्नत होता है। जो दूसरे के आश्रय पर निर्भर रहता हैउसका उन्नत होना दुर्लभ है।

    2. आशावाद -

    कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहितः।
    गोजिद्‌ भूयासमश्वजिद्‌ धनञ्जयो हिरण्यजित्‌।।(यजुर्वेद 7.50)

    कर्म मेरे दाएं हाथ मेंजय-विजय फिर बाएं हाथ में हैं। मेरे दोनों हाथ भरे हुए हैंरिक्त नहीं हैंखाली नहीं हैं। शेखचिल्ली की भांति हाथ पर हाथ रखकर बैठने वाला मैं नहीं हूँ। इसलिए मैं गौवों और भूमि का विजेता बनूंघोड़ों और राष्ट्रों का विजेता बनूंधन और सम्पत्ति का विजेता बनूं। इस प्रकार मनुष्य को कर्मशील होते हुए आशावादी होना चाहिए।

    3. कर्मण्यता -

    कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।(यजुर्वेद 40.2)

    मनुष्य को निरन्तर कर्म करते हुए 100 वर्षों और अधिक से अधिक वर्षों तक जीने की इच्छा करनी चाहिए। एक कर्म समाप्त हुआ तो दूसरा आरम्भ कर देना चाहिए। दूसरा समाप्त हुआ तो तीसरा प्रारम्भ कर देना चाहिए। यावज्जीवन निरन्तर काम करते रहने से निष्काम कर्म होगा। सकाम कर्म तब होगा जब कर्म करते हुए रुक जायेगाउसके फल की टटोल में पड़ेगा। कर्म का फल तो ईश्वर की व्यवस्था से अनिवार्य है। निरन्तर कर्म करते हुए जीने की इच्छा करनी चाहिए। मरने की इच्छा करना पाप है। यह इससे सूचित होता है। आत्म-हत्या तो महापाप है।

    मनुष्य दीर्घायु तक जीने के लिए अनेक रसायनों और औषधियों का सेवन करता है। पर यहॉं वेद में औषधि बताई है- निरन्तर कर्म करने की। दो पहिये की सायकिल में जब निरन्तर कर्म अर्थात्‌ क्रिया होती हैतो वह सवार को बिठाये हुए आगे बढ़ती चली जाती है। जब क्रिया बन्द हो जाती है तो सायकिल और सवार धड़ाम से नीचे गिर जाते हैं। निरन्तर कर्म या क्रिया संकट तक से बचाती है। मोटर सायकिल का खेल करने वाला लोहे की पत्तियों के बहुत ऊंचे गोल पिञ्जरे में अपने साथी को नीचे खड़ा करके मोटर सायकिल ऊपर-नीचे चलाता है। उसके पहिए ऊपर की पत्तियों को छूते हैं और सिर नीचे होता हैफिर भी वह गिर नहीं पाता। मोटर सायकिल में निरन्तर कर्म या क्रिया होने से गिरने का अवकाश नहीं है। अपने साथी को नीचे इसलिए खड़ा करता है कि जब गति बन्द करे तब नीचे का पता लग जाए।

    इस मन्त्र में एक विशेष बात कही गई है जो "कुर्वन्‌शब्द से स्पष्ट होती है। यह पद व्याकरण शैली से शतृ प्रत्ययान्त हैजो क्रिया के लक्षण हेतु इन अर्थों में होता है- लक्षणहेत्वौः क्रियायाः (अष्टाध्यायी 3.2.126) जैसे जब यह कहा जाये कि विद्यार्थी खादन्‌ विद्यालयं गच्छतिविद्यार्थी खाता हुआ विद्यालय जाता है। यह 'जानाक्रिया का लक्षण है। और जब यह कहा जाए कि विद्यार्थी पठन्‌ विद्यालयं गच्छतिविद्यार्थी पढ़ने के हेतु विद्यालय जाता है। यह 'हेतुहुआ। ऐसे 'कुर्वन्‌शब्द भी दो अर्थों में आता है। कर्मों को करता हुआ जीने की इच्छा करे। यह जीने की क्रिया का लक्षण हुआ और (शतं समाः जिजीविषेत्‌) मनुष्य 100 और उससे भी अधिक वर्षों तक जीने की इच्छा करे। हेतु क्योंकर्माणि कुर्वन्‌। कर्मों के करने के हेतु। मानव का जीवन जीने मात्र के लिए नहीं हैकिन्तु कर्मों के करने के हेतु है। जीने मात्र के लिए कर्म तो चोरी आदि पाप कर्म भी हो सकते हैं। इसीलिए जीना तो ऊंचे कर्मों के करने के हेतु हैजो मानव को ऊंचे स्तर पर ले जाने वाले हैं। आज के युग में मानव का जीवन जीने मात्र के लिए समझ लिया गया है। इसीलिए सर्वत्र अशान्ति है। जो रोटी मनुष्य के द्वारा खाई जाने वाली थीआज वह मनुष्य को खा जाने वाली हो गई है। इसलिए ऊंचे स्तर पर कर्म करने की शीलता मनुष्य में होनी चाहिए।

    4. यशस्वी होने की भावना -

    यशो मा द्यावापृथिवी यशो मा इन्द्रा बृहस्पती।
    यशो भगस्य विन्दतु यशो मा प्रतिमुच्यताम्‌।
    यशस्वयस्याः संसदो अहं प्रवदितः स्याम।।(सामवेद पूर्वार्चिक 6.3.13.10)

    मेरे माता-पिता मेरे यश का कारण हों। द्यौर्मे पिता माता पृथिवी महीयम्‌। मैं माता पिता की आज्ञा का पालन करूंजिससे मेरा यश हो! मेरा आचार्य मेरे यश का कारण हो। जैसे विरजानन्द का शिष्य विरजानन्द के यश का कारण है। मैं आचार्य के आदेश का ऐसा पालन करूंजैसे स्वामी दयानन्द ने गुरु विरजानन्द के आदेश का पालन किया।

    विद्या समाप्ति पर दयानन्द उनके लिये लौंग ले जाते हैं। विरजानन्द ने पूछा- मेरे लिये क्या भेंट लाये होदयानन्द ने लौंग बताई। विरजानन्द ने कहाअरे! मैंने तुम्हें लौंगों के लिए पढ़ाया था। दयानन्द ने कहा कि मेरे पास तो और कोई वस्तु भेंट देने के लिए नहीं है। विरजानन्द ने कहा कि मैं उस वस्तु को मांगता हूँ जो तुम्हारे पास हैबोलो दोगेदयानन्द ने देना स्वीकार किया। विरजानन्द ने कहासंसार में अवैदिकताअनार्षता और भ्रष्टाचार फैला हुआ है। उसके निवारण के लिये तुम अपने प्राणोें को दे दो। दयानन्द ने इस प्रकार इनके निवारण के लिए प्राण दे दिये। इससे उनका यश है। 

    भग ऐश्वर्य मेरे यश का कारण हो। ऐश्वर्य मनुष्य के पास आता और चला भी जाता है। सम्पत्तियॉं गाड़ी के पहिये की भांति आवर्त्तन करती रहती हैं। भूमि बदलती रहती है। आज किसी की सम्पत्ति कल किसी के पास चली जाती है। परसों तीसरे के पास चली जाती है। सम्पत्तियों या ऐश्वर्य का लाभ तो उसका दानादि में सदुपयोग करके यश लेना है। संसार में यह शरीर नहीं रहेगापरन्तु अच्छे कार्यों के कारण नाम रह सकता है। इस समाज का मैं यशस्वी वक्ता बनूं। मेरे मुख से जो कथनवचन और प्रवचन निकलेवह उसके हित में निकले। वेद में उदाहरण के रूप में यश के स्थान बताये गए हैं। इनके द्वारा मनुष्य को यश प्राप्त करना चाहिये। यह मानव जीवन की सफलता है।(जारी) -स्वामी ब्रह्ममुनि

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  • तत्त्ववेत्ता महान क्रान्तिकारी महर्षि दयानन्द सरस्वती

    महर्षि के कार्य क्षेत्र में आने के समय यद्यपि भारत में कई छोटे बड़े सम्प्रदाय काम कर रहे थे, परन्तु सबके सब अपने पुराने आदर्शों से गिर चुके थे। विचार स्वातन्त्र्य का ऐसा तिरोभाव था, मानो उसका कभी प्रादुर्भाव ही नहीं हुआ हो। धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक पराधीनता ने भारत सन्तान को मुर्दा बना दिया था। किसी क्षेत्र में भी भारतवासियों को दासता की जंजीरें काटने का साहस नहीं होता था। ऐसे समय में किसी ऐसे महापुरुष की आवश्यकता थी जो धार्मिक संशोधन के क्षेत्र में मायावाद, प्रकृतिवाद और नैष्कर्म्यवाद तथा शून्यवाद के विभिन्न जालों को छिन्न-भिन्न करके कर्मवाद तथा त्रैतवाद की स्थापना करके समकालीन सब सम्प्रदायों की कमियों को पूरा कर सके।

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    मनुष्य सबसे श्रेष्ठ क्यों और कैसे है
    Ved Katha Pravachan - 8 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    ईश्वरीय नियम में अनुसार जब-जब धर्म पर भारी आपत्ति आती हैतब-तब किसी महान आत्मा का प्रादुर्भाव होकर उसके द्वारा धर्म को शक्ति और बल प्रदान करने वाले अखण्ड स्रोत का मार्ग फिर से बतलाया जाता हैजैसा कि श्रीमद्‌भगवद्‌गीता के निम्नलिखित श्लोक में कहा है-

    यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
    अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌।।

    इसी के अनुसार सन्‌ 1824 में गुजरात स्थित मौरवी राज्य के टंकारा ग्राम में एक औदीच्य ब्राह्मण के घर मूलशंकर नामक एक पुण्य नक्षत्र का उदय हुआ। बाल्यावस्था में ही मूलशंकर ने देखा तथा समझ लिया कि उनके स्वजन झूठे देवों की उपासना करते हैं तथा हानिकारक अन्धश्रद्धा तथा सिद्धान्तों में फंसे हुए हैं। गौतम बुद्ध की भांति मृत्यु आदि के दु:खों को देखकर उन्होंने सच्चे शिव की खोज तथा अपने देश एवं संसार सेवा करने की तैयारी करने के लिए ऐसे स्थान से भागना चाहा जहॉं जीवनावस्था एक मिथ्या कृत्रिम तथा संकीर्ण प्रणाली के सांचे में ढली थी।

    महर्षि ने सत्य की खोज के लिए कठोर परिश्रम किया। देश के भिन्न-भिन्न भागों में उन्होंने भ्रमण कर साधुओं के आश्रमों तथा तीर्थस्थानों को खोजा। एकान्त गुफाओं व निर्जन स्थानों को खोजा। ऋषियों और योगियों की तलाश में वे इस अभिप्राय से घूमे कि उनके सत्संग से अपने को अपने देश तथा संसार की सेवा के योग्य बना सकें। उन्होंने दृढ संयम और वेद विहित सच्चे ब्रह्मचर्य व्रत का पालन अपने गुरु विरजानन्द सरस्वती की अभिलाषा की पूर्तिअपनी मातृभूमि के पुनरुत्थानसत्य के प्रचारज्ञान के प्रसार और धर्म की वृद्धि के निमित्त अपना जीवन अर्पण कर दिया। उन्होंने असत्य के साथ तन-मन से संग्राम करनेरोशनी फैलानेबुराई की जड़ काटने तथा न्यायाचार और धर्म का झण्डा ऊंचा गाड़ देने का पवित्र प्रण किया था।

    महर्षि दयानन्द केवल सुधारक ही नहीं थे। वरन्‌ संसार भर के शिक्षक भी थे। उनकी शिक्षा मनुष्य मात्र के कल्याण और सुधार के लिए थी। न किसी से द्वेष था और न किसी से प्रेम था। आपने देखा कि सत्य ज्ञान के बिना संसार अविद्या और अन्धविश्वास में डूबा हुआस्वार्थ परायणता और पक्षपात में टुकड़े-टुकड़े हो रहा है। व्यक्तिदेश व जाति को अपने उद्धार का मार्ग बतलाने की आवश्यकता है तथा उसकी पूर्ति केवल वेदों का ज्ञान ही कर सकता है। क्योंकि केवल यही ग्रन्थ सत्य विद्याओं का स्रोत है। आपने इसका भाष्य हिन्दी में कियाताकि उस पुष्टिकरप्राणपदबलवर्धक अमृत कुण्ड के आस-पास जो घास-पात उग आया है तथा जिन सड़े-गले प्रक्षिप्त पदार्थों की वृद्धि ने उसे ढांप लिया हैवह हट जावे और उस अमृत कुण्ड तक सबकी पहुँच हो सके। संसार के इतिहास में यह प्रथम अवसर था कि स्वामी जी की कृपा से अमीर-गरीबउच्च-नीचसंस्कारी तथा असंस्कारी सबकी पहुँच वेदों तक हो गई। वेद भाष्य के अतिरिक्त महर्षि ने महान ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाशसंस्कार विधिगौ करुणानिधिआर्याभिविनयऋग्वेदादि भाष्य भूमिका आदि अनेकानेक ग्रन्थ लिखे तथा देश भर में भ्रमण करके उन्होंने सत्य और ज्ञान के प्रकाश को फैलाया। जहॉं कहीं वे गये वहॉं वैदिक सत्य और वैदिक भावों को सार्वजनिक वक्तृताओंव्यक्तिगत सम्भाषणों एवं प्रेमपूर्वक वाद विवादों द्वारा पादरियोंमौलवियों और अन्य मतावलम्बियों पर प्रकट किया। ऐसे ही उन विद्वान ब्राह्मणों को भी समझाया जो कि अन्धविश्वासमूर्ति पूजाहानिकारक प्रथाओंअसदाचार और प्रतिष्ठाहीन बनाने वाले व्यवहारों का आचरण करते थेजिन्होंने कि हिन्दू जाति को इस दीन दशा में पहुँचाकर निर्बल बना दिया था।

    हिन्दू जाति की शक्ति का ह्रास करने वाली अनेक बुराइयॉं उस समय समाज में फैली थीं। महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने उन सबको दूर करने का संकल्प किया। मनुष्यों के उद्धार का कार्य यथेष्ठ रीति से चलाने और अपने प्रचलित किए हुए सुधारों को स्थाई और शाश्वत रूप देने के लिये स्वामी जी ने आर्य समाज का स्थापन किया।

    स्वामी जी संसार को कैद से छुड़ाने आये थे। मानवमात्र की कल्याण कामना के इच्छुक महर्षि जीवन भर सत्य ज्ञान का उपदेश देते रहे।

    महान्‌ पुरुषों का जैसे जीवन अद्‌भुत होता है मृत्यु भी वैसी ही अद्‌भुत होती है। संसार के ऐसे हितैषीवैदिक संस्कृति के पोषकमहान समाज सुधारकराष्ट्र की स्वतन्त्रता के स्वप्नद्रष्टा को विधर्मी मतों के प्रचारकों व फिरंगी शासकों ने एक वेश्या से मिलकर महर्षि के पाचक द्वारा इस युग पुरुष को विष दिलवा दिया। धन्य है क्षमाशील भगवान्‌ दयानन्द जिन्होंने ज्ञात होने पर अपने विष दाता को भी रुपया देकर भगा दिया व फांसी के फन्दे से बचा लिया।

    एक मास तक तीक्ष्ण पीड़ा के पश्चात्‌ कार्तिक संवत 1940 की अमावस्था के सायं दीपावली को ईश्वर प्रार्थना के पश्चात हर्ष सहित गायत्री मन्त्र का पाठ करने लगे। फिर प्रफुल्लित बदन समाधि में रहकर आँखें खोली और प्रेम भरे शब्दों में कहा-

    हे दयामय ! हे सर्व शक्तिमान्‌ ईश्वर ! तेरी यही इच्छा है, तेरी इच्छा पूर्ण हो, अहा तैने अच्छी लीला की। इतना कहकर करवट ली और श्वांस रोककर एक बार ही प्राण त्याग दिये। संसार का प्रकाश स्तम्भ, प्यारा ऋषि जो कि विष पान कर अमृत दान करने आया था, हमसे अलग हो गया। 

    आओ उनके पावन आदर्शों पर चलकर सत्य का प्रचार करते हुए हम ऋषि की धरोहर से लाभ उठावें व उनके भारत को जगद्‌गुरु बनाने के स्वप्न को साकार करें । - जगदीश प्रसाद आर्य

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    Hey Day! O all powerful God! This is your wish, may your wish be fulfilled, aha leela well. Having said this, he took a turn and stopped breathing once and gave up his life. The pillar of light of the world, the lovely sage who came after drinking poison and donating nectar, broke away from us.

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  • तस्य वाचकः प्रणवः का रहस्य

    १/२७ योग के इस सूत्र के वास्तविक अर्थ को समझने में अध्येता प्रायः मूल करते है और केवल शब्दार्थ मात्र को ही फालतार्थ समझ लेते है। यहाँ ओ३म् पर की जगह पुरुष विशेष ईश्वर पद का प्रयोग है। यह है कि उस ओ३म् का वाचक ''प्रणव'' शब्द है तदनुसार उस ईश्वर को ओ३म् कहे या प्रणव कहें बात एक ही है। यहाँ वाचक शब्द सापेक्ष है, वह किसी दूसरे पद की यानी वाच्य है ओ३म् शब्द।

    इस सूत्र में वाच्य ओ३म् पद है और वाचक प्रणव पद है। वाचक का अर्थ वाच्य के स्वरूप को विस्तार कहने वाला है। अतः प्रणव पद का सीमित अर्थ न लेकर, शब्दार्थ-पदार्थ मात्रा न लेकर फलिस्तार्थ - विस्तारित भावार्थ लेना चाहिये। यह विस्तृत भावार्थ यौगिक अर्थ द्वारा जाना जाता है।

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    वेद कथा - 4 | Explanation of Vedas & Dharma | धर्म एवं सम्प्रदाय में अन्तर | धर्म लड़ना नहीं सिखाता

    इसी अभिप्रायः से प्रणव शब्द का प्रयोग महर्षि पतन्जलि ने किया है। प्रणव शब्द की व्युत्पति आदि भी यही बताती है। प्रकर्सेण नूयते स्तूयते अनेनेति प्रणवः, प्रकर्सेध नीति स्तौति इति वा प्रणवः'' प्र उपसर्गपूर्वक णु स्तुतौ अदादि धातु से प्रणव पद निष्पन्न होता है प्रणवैः- ओंकारैः यजुर्वेद १९/२५। यहाँ प्रणव शब्द का का प्रयोग बहुवचन में किया गया है। अमृतं वैप्रणवः गोपथ ब्राह्मण उतर भाग ३/११। ब्रहम वै प्रणवः कौषीत की ब्रहम वै प्रणवः कौषीत की ब्राहमण ११/४ ! इन अर्थो का तात्पर्य समझने का प्रयत्न कीजिये।

    स्तुति परम जिसमें शब्दों द्वारा नम्रता से स्तुति की जाये जिसकी वह प्रणव है। ओ३म् है। अथवा मन्त्र जिसकी उत्तमता से स्तुति करता है, वह प्रणव है। ओ३म् है इन अर्थो को प्रणव पद ही बता सकता है क्यांकि केवल प्रणव पद में ही णु स्तुतौ धामु का प्रयोग है।

    ओ३म् के वाचक अन्य जितने भी पद हैं, वे इस फलितार्थ को प्रकट नहीं करते। इस वाक्य से यहाँ वाक्य ओ३म् को समझना चाहिये। यही फलितार्थ महर्षि दयानन्द जी ने पन्च महायज्ञ विधि में गायत्री मन्त्र की व्याख्या करते समय ओ३म् पद से लिया है। संस्कार विधि में गायत्री मन्त्र की व्याख्या है। पद दो प्रकार के होते है व्युत्पन्न और अव्युत्पन्न ओ३म् शब्द। मैंने यहां ओ३म के साथ एक साथ एक जगह पद शब्द का तथा दूसरी जगह पद की शब्द का प्रयोग किया है ऐसा क्यों किया है यह व्याकरण जानने वाले विद्वाने ही समझ सकते है। अन्य नहीं। सामान्यतया पद की जगह शब्द का और शब्द की जगह पद का प्रयोग किया जाता है।

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    महर्षि दयानन्द ने अ, उ, म, से निष्पन्न ओ३म् शब्द की विस्तृत व्याख्या कि है और परमात्मा के समस्त गुण कार्य स्वभाव वाले सभी पदों से ओ३म् पद में से लिया है। जिसकी विस्तृत व्याख्या आप सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में पढ़ सकती है। यही बात प्रणव पद से भी कही गई है या यों कहिये कि ये सारी बाते कहने एक सामर्थ्य प्रणव पद में है। इसलिए पूर्व वर्णित उस समय ईश्वर का वाचक प्रणवः कहा है।

    यह व्युत्पन्न ओ३म् शब्द का वाचक है, इसी व्युत्पन्न ओ३म् शब्द का वाचक प्रणव शब्द है। इसीलिए सभी शास्त्रों का सार है कि ''ओ३म् इत्येकाक्षरं ब्रह्म'' ब्रहम - ओ३म् इति एक अक्षर वाला है। अ उ म् के संयोग से नहीं बना है। सयुक्त ओ३म् पद तो केवल एकाक्षर ओ३म् को समझने के लिए है।

    ओ३म् के गुणों को कहने वाला वाचक कोई एक पद नहीं है, क्योंकि अनंत गुणों के भंडार ओ३म् का वर्णन किसी एक पद से एक शब्द से किया जा सकता है। जितने भी गुण कथन करने वाले शब्द हैं, वे सब ''प्रणव'' पद में आ जाते है। अतः उस ईश्वर का ओ३म् का वाचक प्रणव पद है।

    यजुर्वेद के मन्त्र ४०/१५ में महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि ''ओ३म् इति सनन्नाम वाच्य ईश्वरम् वाच्य तो केवल अव्युत्पन्न ओ३म् शब्द है अन्य जितने भी नासम परमात्मा के है व र्स्ववाचक है। स्वयम् ओ३म् से निष्पन्न व्युत्पन्न ओ३म् पद की वाचक है अव्युत्पन्न एकाक्षर ओ३म् वाच्य है।-प्रो. रमेशचन्द्र शास्त्री

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    Maharishi Dayanand ji has taken the OM while explaining Gayatri Mantra in Panch Mahayagya method. Gayatri Mantra is explained in Sanskrit method. The terms are of two types, derivative and non-derivative. Here, along with OM, I have used the word 'Pad' in one place and the word 'Pad' in another place, only the scholars who know this grammar can understand it. No other. Generally, the word is used instead of the word and the word is used instead of the word. 

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  • दर्शनों और ब्राह्मण ग्रन्थों में वेद-महिमा

    दर्शनकारों ने मुक्तकण्ठ से वेद की महिमा वर्णित की है। वैशेषिकदर्शन में गया कहा है- तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्‌।। वैशोषिक. 10.1.3 

    ईश्वर द्वारा उपदिष्ट होने से वेद स्वतः प्रमाण हैं। बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे। वैशेषिक. 6.1.1. वेद की वाक्य-रचना बुद्धिपूर्वक है। उसमें  सृष्टिक्रम-विरुद्ध गपोड़े और असम्भव बातें नहीं हैं। अतः वह ईश्वरीय ज्ञान है। सांख्यकार महर्षि कपिल को कुछ लोग भ्रान्ति से नास्तिक समझते हैं। वस्तुतः वे नास्तिक थे नहीं। महर्षि कपिल ने भी वेद को स्वतः प्रमाण माना है- न पौरुषेयत्वं तत्कर्तुः पुरुषस्याभावात्‌।। सांख्य. 5.46

    वेद पौरुषेय (पुरुषकृत) नहीं हैं। क्योेंकि उनका रचयिता कोई पुरुष नहीं है। जीव अल्पज्ञ और अल्पशक्ति होने से समस्त विद्याओं के भण्डार वेद की रचना में असमर्थ है। वेद मनुष्य की रचना न होने से उनका अपौरुषेयत्व सिद्ध ही है।

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    वेद का शान्ति सन्देश (वेद कथा)

    Ved Katha Pravachan _60 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    निजशक्त्यभिव्यक्तेः स्वतःप्रामाण्यम्‌।। सांख्य. 5.51. वेद अपौरुषेयशक्ति से, जगदीश्वर की निज शक्ति से अभिव्यक्त होने के कारण स्वतः प्रमाण हैं। 

    मन्त्र और आयुर्वेद के प्रमाण के समान आप्तजनों के वाक्यों के प्रामाणिक होने से वेद की भी प्रामाणिकता है। परमेश्वर परम-आप्त है तथा वेद असत्य, परस्पर विरोध और सृष्टिक्रम के विरुद्ध बातों से रहित है। अतः वेद परम-प्रमाण है। 

    योगदर्शनकार महर्षि पतञ्जलि का कथन है- स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्‌। योग. 1.26 

    वह ईश्वर नित्य वेद-ज्ञान को देने के कारण सब पूर्वज गुरुओं का भी गुरु है। अन्य गुरु काल के मुख में चले जाते हैं। परन्तु वह काल के बन्धन से रहित है। 

    वेदान्तदर्शन में वेद का गौरव निम्न शब्दों में प्रकट किया गया है- शास्त्रयोनित्वात्‌। वेदान्त. 1.1.3 

    ईश्वर शास्त्र=वेद का कारण है। अर्थात्‌ वेदज्ञान ईश्वर-प्रदत्त है। इस सूत्र पर शङ्कराचार्य का भाष्य पठनीय है। यहॉं उसका हिन्दी रूपान्तर दिया जा रहा है-

    "ऋग्वेदादि जो चारों वेद हैं, वे अनेक विद्याओं से युक्त हैं। सूर्यादि के समान सब सत्यार्थों का प्रकाश करने वाले हैं। उनको बनाने वाला सर्वज्ञत्वादि गुणों से युक्त सर्वज्ञ-ब्रह्म ही है। क्योंकि ब्रह्म से भिन्न कोई जीव सर्वगुणयुक्त इन वेदों की रचना कर सके, ऐसा सम्भव नहीं है।'' 

    एक अन्य सूत्र में कहा गया है- अत एव च नित्यत्वम्‌। वेदान्त. 1.3.29 

    इसी कारण से (परमात्मा से वेद की उत्पत्ति हुई है) वेद नित्य हैं। मीमांसा शास्त्र के कर्त्ता जैमिनि ने तो धर्म का लक्षण ही इस प्रकार किया है- चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः।। मीमांसा. 1.1.3 

    जिसके लिए वेद की आज्ञा हो वह धर्म और जो वेदविरुद्ध हो वह अधर्म है। एक अन्य स्थान पर वे कहते हैं- नित्यस्तु स्याद्दर्शनस्य परार्थत्वात्‌।। 1.3.18 

    शब्द नित्य है, नाशरहित है। क्योंकि उच्चारण क्रिया से जो शब्द का श्रवण होता है वह अर्थ ज्ञान के लिए ही है। यदि शब्द अनित्य होता तो अर्थ का ज्ञान न हो सकता। 

    इस प्रकार समस्त शास्त्र एक स्वर से वेद के गौरव, नित्यता और स्वतः प्रमाणता का वर्णन करते हैं। 

    ब्राह्मणग्रन्थों में अनेक स्थानों पर वेद के महत्व का प्रदर्शन करने वाले स्थल उपलब्ध होते हैं। यहॉं तैत्तिरीयब्राह्मण 3.10.11.3 की एक आख्यायिका दी जा रही है-

    "महर्षि भरद्वाज ने ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए 300 वर्ष पर्यन्त वेदों का गहन एवं गम्भीर अध्ययन किया। इस प्रकार निष्ठापूर्वक वेदों का अध्ययन करते-करते जब भरद्वाज अत्यन्त वृद्ध हो गये, तो इन्द्र ने उनके पास आकर कहा- "यदि आपको सौ वर्ष की आयु और मिले तो आप क्या करेंगे?' भरद्वाज ने उत्तर दिया कि मैं उस आयु को भी ब्रह्मचर्य-पालन करते हुए वेदाध्ययन में ही व्यतीत करूँगा। तब इन्द्र ने पर्वत के समान तीन ज्ञान-राशिरूप वेदों को दिखाया और प्रत्येक राशि में से मुट्‌ठी भरकर भरद्वाज से कहा कि ये वेद इस प्रकार ज्ञान की राशि या पर्वत के समान हैं। इनके ज्ञान का कहीं अन्त नहीं है। अनन्ता वै वेदाः। वेद तो अनन्त हैं। यद्यपि आपने 300 वर्ष तक वेद का अध्ययन किया है, तथापि आपको सम्पूर्ण ज्ञान का अन्त प्राप्त नहीं हुआ। 300 वर्ष में इस अनन्त ज्ञान-राशि से आपने तीन मुट्‌ठी ज्ञान प्राप्त किया है।'' 

    ब्राह्मणकार की दृष्टि में वेदों का क्या महत्व है, यह इस आख्यायिका से स्पष्ट है। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

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    The Vedas are not Pourusheya (maleized). Because their author is not a male. Being a superficial and superfluous person, all the disciplines are unable to create the Veda. Since Vedas are not the creation of humans, their inauspiciousness is proved.

     

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  • दीवाली, दयानन्द और आर्य समाज

    मानव जीवन बहुमूल्य है। बहु आयामी है। समग्रता से युक्त जीवन, अनेक जीवनों को ज्योतित कर देता है। त्याग, तप और शुद्धाचरण व्यापक प्रभाव छोड़ता  है। देह के विसर्जन होने पर भी अदृश्य देही के गुण शताब्दियों तक नहीं भूलते। क्या अल्पज्ञ जीव जीवन में समग्रता को संजोकर साधना के मार्ग पर तत्परता के साथ जब चलता है तो उसे ही लोकोत्तर कार्य करने के कारण पूर्ण पुरुष कहते हैं। उसी के बतलाए ज्ञान के प्रकाश में जीवन को जीने की कला तो सीखते ही हैंउसको ज्योति स्तम्भ मान कर अपना पथ प्रदर्शक हृदय से स्वीकारते ही नहीं अपितु उसके एक-एक शब्द पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं। सांसारिक दृष्टि से ही नहीं अपितु ऐसी विभूतियॉं आध्यात्मिक दृष्टि से भी सभी की पूज्यार्ह हो जाती हैं। शारदीय नवसस्येष्टि (दीपावली) हजारों वर्षों से अपने नाम को सार्थक करती हुई धूमधाम से मनाई जाती है, परन्तु जो दीपावली सम्वत्‌ 1940 तदनुसार 30 अक्टूबर 1883, मंगलवार को मनाई गई उसकी प्रभा महर्षि दयानन्द सरस्वती की उच्च आत्मा ने नश्वर देह का परित्याग करते हुए गहरे नास्तिक को आस्तिक बनाने का चमत्कार से कम महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं है क्या?

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    सुख-शान्ति का रास्ता एवं सुखी जीवन के वैदिक सूत्र
    Ved Katha Pravachan -11 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    कितनी दीवालियॉं आई और चली गईपरन्तु एक दीपमाला ऐसी भी आई कि एक ज्योति तो देह छोड़ कर जगज्जननी की अमृतमयी क्रोड़ में आनन्द प्राप्ति हेतु समर्पण कर रही है और दूसरी ओर महर्षि दयानन्द के देह त्याग से आकर्षक मुख मण्डल की आभा-प्रभा-प्रसन्नता को देखकर एक सुपठित गुरुदत्त नास्तिकता के गहरे गर्त्त से निकल आस्तिकता की आनन्दमयी लहरों की उत्ताल तरंगों से आप्लावित हो रहा है। ऐसे अवसर के लिये जो सांसारिक मुहावरा बना "जादू वही जो सिर चढ कर बोले" चरितार्थ हो गया। यह विश्व के इतिहास में आश्चर्य चकित करने वाली घटना है। किसी की मृत्यु भी किसी को जीवन दे सकती है। यदि मृत्यु मार्ग दिखा सकती है किसी को तो उसके जीवन में क्या शक्ति रही होगी यह अनुमान लगाना सहज है। ऐसे महापुरुषों का लोकोत्तर जीवन में आना और जाना लोक कल्याण के लिये होता है। चमत्कार में महर्षि दयानन्द सरस्वती को कोई विश्वास नहीं। सांसारिक दृष्टि से महत्ता प्रकट करणार्थ इससे सरल और चिरपरिचित शब्द भी नहीं जो अभिधा में ये अर्थ प्रकट करे।

    मूलशंकर ने एक सामान्य ग्राम टंकारा में जन्म पाया। माता-पिता का आज्ञाकारी पुत्र मूलशंकर रहा। चौदह वर्ष की उम्र में सम्पूर्ण यजुर्वेद स्मरण करना और माता-पिता की आज्ञा मान कर शिवरात्रि में व्रत रख कर मन्दिर में जागरण करना मूलशंकर की मातृ-पितृ भक्ति परायणता का परिचायक है। चौदह वर्ष की बालावस्था में सम्पूर्ण यजुर्वेद स्मरण करना जिसके चालीस अध्याय और एक हजार नौ सौ पिछत्तर मन्त्र हैं। ये उस युग के घरों की शिक्षा का खुला विवरण है। आज हमारे घरों में गृहशिक्षा न के बराबर है। गायत्री मन्त्र भी शायद हमारे बच्चों को नहीं आता। यह विडम्बना कहॉं तक झेलते रहेंगे हमस्वामी दयानन्द जी महाराज से किसी नवयुवक ने पूछा कि आप बड़े विद्वान्‌तार्किकसंस्कृतज्ञत्यागी-तपस्वी एवं वेदों के मर्म को जानने वाले हैं परन्तु आपको अपने जैसा आदमी क्यों नहीं मिलास्वामी जी महाराज का सत्यता से परिपूर्ण सरल यह उत्तर था कि "मैंने जीवन में अपना घर छोड़ कर माता-पिता की आज्ञा के विरुद्ध आचरण किया। अत: मुझे जीवन में मेरे जैसा आदमी नहीं मिला।" यह स्वाभाविक उत्तर स्वामी जी के किसी भाव को इंगित करता है। स्वामी जी के आज के अनुयायियों को सोचना चाहिए। पितृ यज्ञ का पंचमहायज्ञ विधि में नैतिक जीवन के लिये विधान है। हमारे घरों में केवल पितृयज्ञ का पालन कैसा हो रहा हैयह विचारणीय है। स्वामी जी के समस्त साहित्य में जो व्यावहारिक शिक्षाएं हैं वे सर्वोपयोगी सर्वग्राह्य है। आज भौतिकवाद की अन्धी आन्धी ने सबको आँख होते हुए भी अन्धा बना दियाहै। आर्यों के लिये भौतिकवाद की खुली चुनौती है और आर्य समाज मूक दर्शक बना हुआ है। किंकर्त्तव्यविमूढ नेतृत्वहीन और दिशाहीन है।

    आर्य समाज की स्थापना करके महर्षि दयानन्द सरस्वती ने जो स्फूर्ति और जो उर्वरा भूमि आर्य समाज के माध्यम से वेद के रूप में शाश्वत मूल्यों को प्रदान कीजिसमें विश्व के मनीषियों को ज्ञान प्राप्ति के साथ चरित्र के निर्माण हेतु आर्यावर्त्त देश में आकर शिक्षा ग्रहण का सन्देश उच्च स्वर से प्रदान कियाक्या उत्तरदायित्व लेने वाले लोगों ने इसे गम्भीरता से निभायाऐसे अकर्मण्य दिशाहीन वेदविहीन लोगों ने ऋषि की महिमा और उद्देश्य को समझा ही नहीं। अन्धेरे में लाठी चलाने का कोई लाभ नहीं। जगाने वाले गहरी नींद में सो गये। इनको कौन जगाये?

    वेद निर्भ्रान्त नित्यशाश्वतअपौरुषेय और परमात्मा प्रदत्त ज्ञान है। वेद केवल चार हैं। मूल संहिताएं ही वेद हैं। ऋग्वेदयजुर्वेदसामवेदअथर्ववेद इनके नाम हैं। इन वेदों के लिये स्वामी दयानन्द ने कहा "वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढना-पढाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।" आर्य समाज की स्थापना को एक सौ अड़तीस वर्ष हो गए हैं। आर्य समाज के प्रारम्भिक पचास वर्ष को छोड़कर उपरोक्त नियमानुसार कितनी सत्यविद्याओं का प्रकाश आर्य समाज ने कियाशास्त्रार्थ युग में भी सामाजिक क्षेत्र में वेद का नाम लोगों को परिचित कराने का श्रेय आर्य समाज को जाता है। जिस दृढता के साथ स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यान्वेषक बन कर वेद को प्रमाण मान और जनता के बीच में वेद प्रमाण पुस्तक से दिखा कर वेद के लुप्त ज्ञान को जनता से सहज स्वीकार कराया। यह दयानन्द की प्रकट विधि आर्य समाज में दीर्घ जीवी नहीं हो सकी। स्वामी दयानन्द सरस्वती की वेदों के विषय में सत्य घोषणा से प्रभावित हुए अन्य लाखों लोगों ने दयानन्द की विचारधारा को स्वीकारा। स्वामी दयानन्द जी महाराज ने वेदों को सर्वोपरि स्थान देते हुए लिखा-

    "वेदों के जानने वाले ही धर्माधर्म के जानने तथा धर्म के आचरण और अधर्म के त्याग से सुखी होने को समर्थ होते हैं।"

    "कोई भी मनुष्य वेदाभ्यास के बिना सम्पूर्ण सांगोपांग वेद विद्याओं को प्राप्त होने के योग्य नहीं होता।"

    "जो मनुष्य पुरुषार्थीविचारशीलवेद विद्या के जानने वाले हैं वे ही संसार के आभूषण होते हैं।"

    तेरे दीवाने जिस घड़ी दक्षिण दिशा को चल दिये।
    कितने शहीद हो गये कितनों ने सर कटा दिये।।
    अपने लहू से लेखराम तेरी कहानी लिख गये।
    तूने ही लाला लाजपत शेरे बब्बर बना दिये।।

    ये पंक्तियॉं किसी टिप्पणी की अपेक्षा नहीं रखती। ये स्वामी जी का बोलबाला था।

    आज आर्य समाज के पुस्तकालयों में वेद गर्दोगुब्बार के नीचे दबे पड़े हैं। क्योंकि वेद स्वाध्याय का समय नहीं और वेद आर्यों के लिए उपयोगी नहीं। क्योंकि सारी सत्य विद्याओं का भण्डार आर्य समाजी बन गया। पूछो तो वेद का क ख नहीं बता सकते। ये तो पण्डित जी बतायेंगे। पण्डित जी को अपनी रोजी-रोटी से फुर्सत नहीं। क्योंकि आर्य समाज इन अधूरे पण्डितों को रखकर इनकी विवशता का पूरा लाभ उठा कर पण्डितों को गुलाम बना कर वेद प्रचार करना चाहता है। तो पूरी गलफांसी का शिकार है आर्य समाज। जो थोड़े बहुत गुरुकुलोंविद्यालयों या उपदेशक विद्यालयों में सीख कर इस क्षेत्र में आते हैं वे अधिकारियों के दुर्व्यवहार के कारण सड़क पर रहते हैं। लगभग विद्वानों की स्थिति आर्य समाज में भिखारियों जैसी है। आर्य समाज वेद के कार्य में गम्भीर नहीं।

    चरित्र के धनी स्वामी दयानन्द ने चरित्र निर्माण पर सर्वाधिक बल दिया- शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बाह्य शक्ति के साथ अन्तर्तम के साहचर्य से दिव्य पावन प्रकाश के पावन आलोक में मानव का नवोत्थान है। गायत्री मन्त्र का उपदेश शिक्षा के प्रारम्भ में नैतिक शिक्षा का विश्वोपयोगी सूत्र है। बुद्धि की पवित्रता की कामना प्रभु से करे। स्मृति-श्रुति में जिस आचार का उपदेश दिया गयाउसका आचरण करके आत्मवित बनने का प्रयास करे। ब्रह्मचर्य से राजा राष्ट्र की रक्षा कर सकता है। अहिंसासत्यअस्तेयब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन महाव्रतों की व्यावहारिक शिक्षा देने के प्रबल समर्थक थे स्वामी दयानन्द। यही उनकी सफलता का रहस्य था। आर्ष शिक्षा प्रणाली के प्रबल व्यावहारिक समर्थक थे स्वामी जी। शिखा सूत्र भी हमारी शिक्षा के प्रमुख सूत्र थे। इनके नियमों को पालन करते हुए आत्मवित के साथ जीवन के मूल्यों को आचरण में रचा-पचा कर उच्च शिखर पर आरूढ होता था मनुष्य। आचारहीनं न पुनन्ति वेदा:। जिस मनुष्य का आचार ठीक नहीं उसको तो वेद भी पवित्र नहीं कर सकते।

    महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती की सफलता का रहस्य आचार पर ही सर्वथा निर्भर करता था। पांच यम नियम स्वामी जी ने जीवन में रचा-पचा कर ही सभी प्रकार के पाखण्डों से लड़ाई लड़ी। आजकल आचार सदाचार की परिभाषा ही बदल गई है। "लुच्चा सबसे ऊंचा" तो आचार क्या करेगा।-आचार्य हरिदत्त शास्त्री (आर्यजगत्‌ दिल्ली26 अक्टूबर 1997)

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    The secret of success of Maharishi Swami Dayanand Saraswati depended solely on ethics. The five Yama Niyam Swamis fought and fought all kinds of hypocrisies in life. Nowadays the definition of ethics has changed. What will the ethics do if "the scoundrel is the highest"? - Acharya Haridutt Shastri (Aryajagat Delhi, 26 October 1997)

     

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  • धर्म में जनकल्याण की भावना निहित होती है

    "धर्म" के विषय में जन-मानस में अनेक भ्रांन्तियॉं हैं। धर्म अंग्रेजी के रिलिजन अथवा उर्दू के मजहब शब्दों का न तो हिन्दी अनुुवाद है और न ही पर्याय। धर्म किसी सम्प्रदाय का भी पर्यायवाची नहीं है। धार्मिक व्यक्ति का अभिप्राय पूजा-पाठ करने वाला अथवा दिन में पांच बार नमाज अदा करने वाला या फिर चर्च में जाकर ईसा की वन्दना करने वाला कदापि नहीं है। यह सब करने वाला व्यक्ति मजहबी या सम्प्रदायिक तो हो सकता है, किन्तु धार्मिक कदापि नहीं। संस्कृत के एक कवि द्वारा दुर्योधन के मुख से धर्म के विषय में कहलवाया हुआ एक श्लोक है- 

    जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः,जानाम्यधर्मं न चे मे निवृत्ति।
    केनापि देवेन हृदि स्थितेन, यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि।।

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    भव सागर से पार होने का रास्ता (वेद कथा)
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    अर्थात्‌ मैं धर्म को जानता तो हूँ किन्तु उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं है और मैं अधर्म को भी जानता हूँ किन्तु उससे मेरी निवृत्ति नहीं है। मेरे हृदय में किसी देवता ने जैसी मेरी नियुक्ति कर दी है, मैं वैसा कर देता हूँ। 

    अधार्मिकता का ऐसा उदाहरण अन्यत्र कहॉं मिलेगा? अर्थात्‌ दुर्योधन अपनी अधार्मिकता के लिये स्वयं को दोषी न मानकर "अपने हृदयस्थित किसी देवता' पर दोषारोपण करके मुक्ति पा लेता है। किसी अधार्मिक वृत्ति के मनुष्य का यह स्पष्ट चरित्र-चित्रण है। मनुष्य के धर्म सम्बन्धी स्वभाव के लिये एक अन्य कवि ने भी कहा है- 

    फलं धर्मस्य चेच्छन्ति धर्मं नेच्छन्ति मानवाः।
    फलं पापस्य नेच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नतः।। 

    अर्थात्‌ मनुष्य धर्म के सुफल की इच्छा तो करते हैं, किन्तु धर्म पालन करने की इच्छा बिल्कुल नहीं करते। इसी प्रकार पाप के कुफल की इच्छा तो नहीं रखते, किन्तु प्रयत्नपूर्वक पाप कर्मों में लिप्त रहते हैं। 

    तो धर्म क्या है? महाभारत में कहा है- "धारणात्‌ धर्म इत्याहुः। धर्मो धारयते प्रजा। अर्थात्‌ धारण करने से इसे धर्म कहा जाता है और धारण किया हुआ धर्म प्रजा अर्थात्‌ धारक की रक्षा करता है। वह धारण किया जाने वाला धर्म क्या है? वह है "करणीय कर्त्तव्य' जो किसी यज्ञ से कम नहीं। करणीय कर्त्तव्य की भावना से ओत-प्रोत व्यक्ति ही धार्मिक कहलाता है, किसी पूजा-पद्धति विशेष का परिपालन करने वाला नहीं। किसी पूजा-पद्धति का पालन करने वाला साम्प्रदायिक कहलाता है, धार्मिक नहीं। जैसे नमाज अदा करने वाला मुसलमान, चर्च की घण्टी बजाने वाला ईसाई और मन्दिर में आरती करने वाला पुराणपन्थी कहलाता है। 

    धर्म को यज्ञ इसलिये कहा गया है, क्योकि धर्म में जनकल्याण की भावना निहित होती है। अन्यथा नीति वचन के अनुसार तो धर्महीन व्यक्ति पशु के समान ही माना गया है। धर्महीनता से राक्षसी वृत्ति हो जाती है। राक्षस और हिंसक पशु में किंचित्‌ भी अन्तर नहीं होता। नीति वचन है- 

    आहारनिद्राभय मैथुनं च सामान्यमेतत्‌ पशुभिर्नराणाम्‌।
    धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीना पशुभिः समानाः।। 

    अर्थात्‌ खाना-पीना, सोना-जागना, डरना और सन्तानोत्पत्ति, ये सब तो पशुओं और मनुष्यों में एक समान ही होते हैं, किन्तु वह धर्म ही है जो मनुष्यों में पशुओं से अतिरिक्त होता है। जो मनुष्य धर्म से रहित हैं वे पशु के समान हैं। संत तुलसीदास जी ने भी इसे इस प्रकार कहा है-

    सुत दारा अरु लक्ष्मी तो पापी के भी होय।
    संत समागम हरिकथा तुलसी दुर्लभ दोय।।

    यहॉं पर तुलसीदास जी ने पापी और धार्मिक (पुण्यात्मा) मनुष्य की तुलना की है। उनकी दृष्टि में धार्मिक मनुष्य वह है जो संतों की संगति में रहता है और परमेश्वर के गुणगान (हरिकथा) पर विश्वास करता हुआ तदनुरूप आचरण करता है। तदनुरूप आचरण और करणीय कर्त्तव्य का पालनही यज्ञ है। ऐसा यज्ञ करने वाला व्यक्ति ही धार्मिक है। जो व्यक्ति अग्निहोत्र (हवन-यज्ञ) तो करता हो, किन्तु सदाचरण न करता हो, वह व्यक्ति धार्मिक नहीं कहला सकता, यज्ञकर्ता नहीं कहला सकता।

    एक लोक कथा के माध्यम से विषय स्पष्ट हो जायेगा। भारत में प्राचीन समय से वर्णाश्रम परम्परा है, जो आज भी आंशिक रूप से प्रचलित है। यहॉं पर यह बात विशेष ध्यान रखने की है कि ये वर्ण जन्म-जात नहीं, अपितु अपने कर्म अथवा उद्योग से माने गये हैं। चारों वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इनमें वैश्य को समाज का भरण-पोषण करने वाला माना गया है। वैश्यों में अपने व्यापार के लाभांश में से कुछ प्रतिशत दान करने के लिये पृथक रखने की प्रथा है। एक अन्न के व्यापारी सेठ अन्न भण्डार गृह में फर्श पर गिरे अन्न कणों को एकत्रित कर उनकी पिसाई कुटाई करके उसकी दाल-रोटी बनवाकर अन्न-सत्र चलाते थे। अन्न-सत्र को सदावर्त भी कहा जाता है, उसमें भिक्षुओं अथवा आगन्तुकों को भोजन दिया जाता है। सेठ को यह भ्रम हो गया कि इस प्रकार अन्न-सत्र चलाकर वह पुण्य लाभ कर रहा है। किन्तु उसकी बहू इसको इस रूप में नहीं मानती थी। उसने किसी प्रकार अपने श्वसुर को समझाने का यत्न किया, किन्तु सेठ ने सुनी-अनसुनी कर दी। बहू को श्वसुर का अनिष्ट होता दिखाई दिया तो उसने एक उपाय किया। उसने अन्न-सत्र से एक रोटी के बराबर आटा मंगवाकर रोटी बनाई और श्वसुर जी जब भोजन करने बैठे, तो उनकी थाली में पहले वही रोटी परोस दी। श्वसुर ने मुंह में रोटी पड़ते ही थूथू करके उसे थूक दिया। उसके मुख का स्वाद बिगड़ गया, तो उसने बहू से इसका कारण पूछा। बहू ने समझाया कि मरणोपरान्त स्वर्ग में सेठ जी को वैसी ही रोटी तो मिलेगी, जैसी उन्होंने अन्न-सत्र के आटे की बनाने का निश्चय किया है। सेठ ने सुना तो उसका माथा ठनका। उसकी समझ में बात आई और उसने तुरन्त अपने अन्न-सत्र में अच्छे अन्न की रोटी बनवानी आरम्भ करके अपने पाप का प्रायश्चित करना चाहा। सेठ जी परिपाटी का पालन तो करते थे, किन्तु उसमें उनकी भावना सदाचरण की नहीं, अपितु केवल परिपाटी पालनमात्र की थी। इस दृष्टि से अन्न-सत्र का संचालन करते हुए भी वे धार्मिक नहीं कहे जा सकते थे। 

    महाभारत में "यक्ष युधिष्ठिर संवाद' प्रसंग में धर्म की चर्चा हुई है। यक्ष ने पूछा- "धर्म का स्थान क्या है?' युधिष्ठिर ने उत्तर दिया- "दक्षता ही धर्म का स्थान है।' दक्षता अर्थात्‌ करणीय कर्त्तव्य में दक्षता। यक्ष ने फिर प्रश्न किया- "कौन सा धर्म सबसे उत्तम है?' युधिष्ठिर ने उत्तर दिया- "सब भूतों (प्राणियों) को अभय देना ही सबसे उत्तम धर्म है।' यक्ष द्वारा एक अन्य प्रश्न के उत्तर में युधिष्ठिर ने बताया, "दया ही परम धर्म है।' इस प्रकार विस्तार से यक्ष और युधिष्ठिर के मध्य धर्म पर चर्चा हुई। संत तुलसीदास जी ने दया को धर्म का मूल मानते हुए कहा है- 

    दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।
    तुलसी दया न छोड़िये, जब लग घट में प्राण।।

    ये उदाहरण स्पष्ट करते हैं कि धर्म पालन में दया का सर्वोच्च स्थान है। दया को परम धर्म माना गया है। एक नीति वाक्य है- "धर्मस्य गहना गतिः।' अर्थात्‌ धर्म की गति बड़ी गहन है। धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति सदा अपना मस्तक ऊंचा करके ही विचरण करेगा। उसे कहीं, किसी बात पर संकुचित अथवा लज्जित होना नहीं पड़ेगा।

    धर्म का किसी मजहब, रिलिजन, पंथ अथवा सम्प्रदाय के कृत्यों से कोई सरोकार नहीं। उसका सम्बन्ध तो मनुष्यमात्र के करणीय कर्त्तव्य से है। वेदशास्त्रों ने इसे ही यज्ञ का नाम दिया है और वेद ने कहा- अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः। अर्थात्‌ यह यज्ञ भुवन की, समस्त संसार की नाभि अर्थात्‌ केन्द्र बिन्दु है। धार्मिकता ही संसार का मुख्य केन्द्र-स्थल है। - आचार्य डॉ. संजयदेव

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    National Administrative Office
    Akhil Bharat Arya Samaj Trust
    Arya Samaj Mandir Annapurna Indore
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    Near Bank of India
    Opp. Dussehra Maidan
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    Indore (M.P.) 452009
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    Religion has been called Yajna because the spirit of public welfare is contained in religion. Otherwise, according to the policy promise, a religious person is considered as an animal. Religion leads to demonic instinct. There is also no difference between demons and violent animals.

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