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  • मजहब ही सिखाता है आपस में बैर करना

    आचार्य डॉ. संजयदेव के प्रवचनों से संकलित 

    आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्‌। जैसा व्यवहार हम अपने साथ चाहते हैं, वैसा ही व्यवहार दूसरों के साथ करें। जैसा व्यवहार हम अपने साथ नहीं चाहते, उससे विपरीत व्यवहार दूसरों के साथ भी न करें । यदि मैं चाहता हूँ कि कोई मेरी मॉं-बहिन- बेटी को बुरी दृष्टि से न देखे, तो मैं भी किसी की मॉं-बहिन-बेटी को बुरी दृष्टि से न देखूं । क्योंकि जैसे कोई मेरी मॉं-बहिन-बेटी को बुरी दृष्टि से देखता है तो मुझे दुःख होता है, मुझे कष्ट होता है। ऐसे ही यदि मैं किसी की मॉं-बहिन-बेटी को बुरी दृष्टि से देखता हूँ तो उसके भी पिता, भाई या पुत्र को कष्ट होता है । धर्म की सबसे बड़ी कसौटी यही है कि हम सबके साथ अपनी आत्मा के साथ जैसा व्यवहार चाहते हैं, वैसा व्यवहार करें। आत्मवत्‌ सर्वभूतेषु पश्यति स पश्यति।  जो अपनी आत्मा के अनुकूल सबके साथ व्यवहार करता है, वही वास्तव में देखने वाला होता है। और जो ऐसा व्यवहार करता है, वही अपने जीवन में आत्यन्तिक सुख की प्राप्ति कर सकता है । त्रासदी यह है कि दुनिया के लोग दुःख से तो बचना चाहते हैं, परन्तु दुःखों के कारण पाप को छोड़ना नहीं चाहते । 

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    मनुष्य जन्म अत्यन्त दुर्लभ है

    Ved Katha Pravachan _57 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    दुनिया के लोग सुख प्राप्त करना तो चाहते हैं परन्तु सुख देने वाले 
    धर्म का आचरण करना नहीं चाहते। सुख के कारण धर्म को अपने जीवन में ढालोगे, धर्म का अपने जीवन में आचरण करोगे, तभी सुख प्राप्त होगा। नहीं तो सुख प्राप्त नहीं होगा। और यह भी निश्चित रूप से जान लीजिए कि मरने के बाद धर्म ही साथ जाता है। जैसा कि महर्षि कणाद कहते हैं वैशषिक दर्शन में- यतो अभ्युदय निःश्रेयस सिद्धि स धर्मः। जिससे इस लोक में और परलोक में उन्नति हो वो धर्म होता है । इस लोक में जैसे धर्म से उन्नति होती है, धर्म से ही परलोक में भी अभ्युदय होता है। मरने के बाद जो हमारे अच्छे-बुरे कर्म हैं, वही हमारे साथ जाएंगे। और हमारा कल्याण, हमारा उत्थान, हमारा उद्धार हमारे अच्छे कर्मों से ही होगा, जिसे शास्त्रों में धर्म कहा गया है। वेद से लेकर महर्षि वेदव्यास पर्यन्त, शंकराचार्य और दयानन्द पर्यन्त जितने भी ग्रन्थ और महापुरुष तथा ऋषि हुए हैं, उन सबका यह मानना है कि मरने के बाद धर्म ही एक साथी होता है। महर्षि मनु कहते हैं-

    एक एव सुहृद धर्मो निधनेऽप्युनुयाति यः।
    शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यद्धि गच्छति।।

    एक ही जो धर्म है वही अपना सगा होता है, वही अपना परम मित्र होता है, जो मरने के बाद भी साथ जाता है। अन्य सब कुछ तो यहीं रह जाता है। जब यक्ष युधिष्ठिर से पूछते हैं महाभारत में, प्रश्न करते हैं कि मरने के बाद कौन मित्र होता है, मरने के बाद भी कौन साथ जाता है ? युधिष्ठिर कहते हैं मरने के बाद धर्म साथ जाता है। मरने के बाद धर्म ही सहयोगी होता है। जो हमारे अच्छे-बुरे कर्म हैं, जो हमारे द्वारा किया हुआ धर्म और अधर्म है, वो मरने के बाद साथ जाएगा और उन धर्म-अधर्म मेें से धर्म हमारा सहयोगी होगा। धर्म हमारा परम मित्र होगा। वही हमारा साथ देगा । कहते हैं -

    धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे नारी गृहद्वारि जनाः श्मशाने।
    देहश्चितायां परलोक मार्गे धर्मानुगो गच्छतिजीव एक।।

    धनानि भूमौ। जो आपने धन-धान्य कमाया है, वैभव-सम्पत्ति एकत्रित की है, वो सब या तो बैंकों में रखा रह जाएगा या भूमि में आपने गा़ड़ा है अथवा दबाया है वहॉं रखा रह जाएगा । आपके साथ नहीं जाएगा। पशवश्च गोष्ठे। और जो आपके पास गा़डियॉं-घोड़े, कारें या अन्य अच्छे-अच्छे वाहन हैं या पशु आदि हैं, वो सब जो आपकी जगह है गाड़ियों को रखने की या पशुशाला है वहीं रह जाएंगे। वो भी साथ नहीं जाएंगे। और नारी गृहद्वारि जनाः श्मशाने। यहॉं तक कि आपकी जो पत्नी है वह भी घर के दरवाजे तक साथ जाएगी। पत्नी भी घर के दरवाजे से आगे जाने वाली नहीं है। जिसको आपने प्राणों से प्यारी कहा है या जिसने आपको प्राणों से प्यारा कहा है, जिसने आपको प्राणप्रिय कहा है, वह भी मरने के बाद घर के दरवाजे तक ही साथ जाएगी। आगे नहीं जाएगी। और जनाः श्मशाने। जिनके लिए हम जान छिड़कते थे, जिनके लिए हम रात को दो बजे भी आने के लिए तैयार होते थे, वो लोग भी श्मशान तक ही साथ देंगे। आगे साथ नहीं देंगे। यावत्‌ जीवेत्‌ सुखं जीवेत्‌, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्‌। इस सिद्धान्त को लेकर के हम आगे बढ़े हैं कि जब तक जियें सुख से जियें, ऋण लेकर भी घी पीयें। इसको मानकर के हमने अपने शरीर को मोटा-तगड़ा बनाया है। ये शरीर भी हमारे साथ नहीं जाएगा। इसलिए कहते हैं देहश्चितायाम्‌। ये शरीर भी जलने तक, अग्नि तक साथ रहेगा। साथ में ये भी नहीं जायेगा। धर्मानुगो गच्छति जीव एक। केवल धर्म ही एक वो तत्व है जो जीव के साथ जाता है, मनुष्य के साथ जाता है। इसलिए कहते हैं-

    कमा ले धर्म-धन प्यारे साथ तेरे जो जाएगा।
    धन-वैभव और माल खजाना धरा यहीं रह जाएगा।।

    जो भी कुछ आपने कमाया है वह सब यहीं रखा हुआ रह जाएगा। यदि आपने अपने सब कर्त्तव्यों का निर्वहन धर्म के साथ किया है, धर्म के साथ अपने सब कर्त्तव्यों को पाला है तो वह धर्म निश्चित रूप से आपके अन्त समय में साथी होगा। आचार्य चाणक्य जिनका मैंने उदाहरण दिया था वो भी यही कहते हैं-

    विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च।
    व्याधिस्तस्योषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च।।

    यदि हम प्रदेश में है जहॉं हमारा कोई परिचय नहीं है, तो विद्या हमारी मित्र होती है। यदि हम विद्वान हैं, ज्ञानवान हैं तो विद्या हमारा साथ देती है। भार्या मित्रं गृहेषु च। घर में पत्नी मित्र होती है। व्याधिस्तस्योषधं मित्रम्‌। यदि हम बीमार हो जाते हैं तो उस अवस्था में औषधि हमारी मित्र होती है और क्या कहते हैं! मनु महाराज द्वारा और अन्य ग्रन्थों में जो कहा गया है, उनके स्वर मेें स्वर मिलाकर चाणक्य भी यही कहते हैं। दुनिया के सबसे बड़े अर्थशास्त्री, जिन्होंने धन-वैभव कमाने का अच्छा रास्ता दुनिया को बताया था, जिनका अर्थ-प्रबन्धन पर सबसे प्राचीन ग्रन्थ है अर्थशास्त्र। वो भी यही कहते हैं धर्मो मित्रं मृतस्य च। मरने के बाद तो धर्म ही मित्र होता है। इसलिए हमारे जितने भी शास्त्र हैं, धर्मग्रन्थ हैं, वो सब यही उपदेश देते हैं कि क्योंकि मरने के बाद धर्म ही साथ जाता है, इसलिए प्रयत्न से धर्म का संचय करो। 

    धर्म के मार्ग पर चलने के लिए और धर्म के लक्षणों में ईश्वर को मानना अनिवार्य शर्त नहीं है। ये बात ध्यान में रख लेना । ईश्वर को मानना धर्म के लिये अनिवार्य शर्त नहीं है। परन्तु ईश्वर को मानने से धर्म का जो मार्ग है वो सुगम हो जाता है। यह अवश्य है। यदि हम ईश्वर पर विश्वास करेंगे, यदि हममे आस्तिक भावना होगी, तो धर्म पर चलने में हमारा रास्ता सुगम हो जाएगा। धर्म पर चलने में हमें सहयोग मिलेगा। जो व्यक्ति ईश्वर को सर्वव्यापक मानता है, कोई भी कार्य करने से पहले जिसको ये मालूम है कि परमात्मा सर्वव्यापक है और मैं जो भी कार्य कर रहा हूँ वो सब देख रहा है। 

    क्योंकि जो व्यक्ति यह मान लेता है कि ईश्वर सब जगह है, जहॉं भी हम पाप कर्म करते हैं वो हमें सब जगह साक्षी भाव से देख रहा है, तो हम पाप कर्म से बच जाते हैं और अच्छे मार्ग की ओर चल पड़ते हैं। ईशोनिषद्‌ यजुर्वेद का अन्तिम अध्याय है। उसमें यही कहा गया है कि परम पिता परमात्मा को सब जगह व्यापक मानते हुए अपने कर्मों का निर्वहन करो, अपने कर्त्तव्यों को करो, तो जीवन में कभी भी दुःख नहीं उठाना पड़ेगा। ईशावास्यम्‌ इदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्‌। इस संसार में जो कुछ भी है वो सब ईश्वर से ढका हुआ है। सब स्थानों में ईश्वर है। इसलिए यदि ईश्वर को साक्षी मानकर कर्म करोगे तो तुम कभी भी सन्देह भाव में नहीं पड़ोगे। 

    अगला मन्त्र यह कहता है कि ईश्वर को साक्षी मान करके-

    कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।
    एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।

    वेदोक्त धर्मयुक्त कर्मों को करते हुए सौ वर्ष तक जीने का प्रयास करो।  कैसे कर्म करो? धर्मयुक्त करो। वेदोक्त कर्म करो। उन कर्मों को करते हुए ही सौ वर्ष तक जीने का प्रयास करो। धर्मयुक्त कर्म करोगे, तो जैसे मैं अपने साथ व्यवहार करता हूँ वैसा ही दूसरों के साथ करूँ, तो दूसरे लोग भी मेरे साथ अच्छा व्यवहार करेंगे, मुझे अच्छा लगेगा,मुझे सुख मिलेगा। और मुझे सुख मिलेगा तो मेरी आयु भी सौ वर्ष हो जाएगी। क्योेंकि सब दृष्टियों से चाहे प्राकृतिक पदार्थों में सन्तुलन करने की दृष्टि हो, चाहे अन्य जल-वायु आदि पदार्थों में सन्तुलन करने की दृष्टि हो, चाहे प्राणियों के प्रति, मनुष्यों के प्रति मित्र की भावना की दृष्टि हो, सब दृष्टियों से हम धर्म का पालन करेंगे, तो उस धर्म का पालन करने से हमें सुख मिलता है।  दुनिया के जितने भी आज तक वेद से लेकर धर्मग्रन्थ हुए हैं वो सब धर्मयुक्त कर्म करने का उपदेश देते हैं। 

    मैंने बताया था कि धर्म का मतलब सम्प्रदाय, मजहब या पन्थ नहीं है। सम्प्रदाय, मजहब और पन्थ तो अनेकोें हो सकते हैं। परन्तु धर्म एक ही होता है।  और वो ईश्वर प्रणीत होता है। धर्म, सम्प्रदाय और पन्थ तो व्यक्ति स्थापित करते हैं। और धर्म को स्वयं ईश्वर स्थापित करते हैं। हमारे अन्तःकरण में धर्म के पालन की प्रेरणा देते हैं। हम जब कोई गलत काम करते हैं तो हमारे हृदय में जो आवाज आती है, भय, शंका और लज्जा उत्पन्न होती है, वह परमपिता परमात्मा की ओर से होती है। और जब हम कोई अच्छा कार्य करते हैं तो आनन्द और उत्साह की वृद्धि होती है। वह भी परमपिता परमात्मा की ओर से होती है। 

    धर्म में और सम्प्रदाय में मूलभूत अन्तर है। आज ये जो कहा जा रहा है कि संसार में धर्म के नाम पर लड़ाई-झगड़े हो रहे हैं, होते रहेंगे या होंगे, यह मिथ्या है। वर्तमान में लोगों को धर्म की परिभाषा समझ में ही नहीं आ रही है । धर्म क्या होता है यह जानते ही नहीं। और एक और बात का जोरों से प्रचार होता है। मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना। एक तरफ तो यह कहते हैं कि धर्म के नाम से झगड़े होते हैं और एक तरफ उससे विपरीत बात कहते हैं कि मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना। 

    जबकि तथ्य यह है कि मजहब ही सिखाता आपस में बैर करना। दुनियॉं में जितनी भी लड़ाईयां हुई हैं या हो रही हैं या होंगी आगे भी, वो सब अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए होती हैं। अपनी बात को मनवाने के लिए होती हैं। और अपनी बात को मनवाने की जहॉं बाध्यता होती है, अपनी बात को मनवाने का जहॉं आग्रह होता है, अपनी विचारधारा की कट्‌टरता को जहॉं फैलाने की बात होती है, वही सम्प्रदाय होता है, वही मजहब होता है, वही पन्थ होता है। उसे ही मत कहा जाता है। यही कारण था कि हमारे देश भारतवर्ष में विदेशी लोग अपने एक हाथ में अपने सम्प्रदाय की पुस्तक को लेकर के और एक हाथ में तलवार लेकर के यहॉं आए थे। उस तलवार के बल पर और अपने उस सम्प्रदाय की पुस्तक के बल पर सारे देश को अत्याचार से युक्त कर दिया था।  सारे देश पर अन्याय ढाया था। वो धर्म के नाम पर नहीं हुआ, सम्प्रदाय के नाम पर हुआ। 

    धर्म तो यह सिखाता है, धर्म तो यह कहता है कि हे प्रभो! धर्म का अनुयायी, वेद का अनुयायी, सनातनधर्मी प्रातः उठते ही मैंने बताया था, कामना करता हैकि- हे प्रभो! सर्वे भवन्तु सुखिनः। सब सुखी रहें। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। सब अच्छा देखें, सर्वे सन्तु निरामयाः। सब निरोग हों। मा कश्चिद्‌ दुःखभाग्‌ भवेत्‌। किसी को कोई दुःख नहीं हो। सनातनधर्मी तो यह मानता है कि चाहे वेद को मानने वाला हो या न हो, आस्तिक हो या नास्तिक हो, राम को मानने वाला हो या रहीम को मानने वाला हो, कृष्ण को मानने वाला हो या अल्लाह को मानने वाला हो, हे प्रभो! सबका कल्याण करना। सनातन धर्म के जितने भी ग्रन्थ हैं, वो सब इसी धर्म पर चलने का उपदेश देते हैं। जब अत्याचार और अन्याय उत्पन्न होता है, जब अत्याचार और अन्याय का इस धरती पर प्रार्दुभाव होता है, तो इसी धर्म की रक्षा के लिए हमारे महापुरुष अवतरित होते हैं। गीता का आरम्भ तो धर्म से ही हुआ है। धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः, मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय। धर्मक्षेत्र में, कुरुक्षेत्र में पाण्डवों ने और कौरवों ने इकट्‌ठे होकर क्या किया, हे संजय! मुझे बताओ। धर्म से प्रारम्भ हुआ। क्योेंकि अन्याय और अत्याचार किया जा रहा था। कर्त्तव्यों का ठीक-ठीक पालन नहीं हो रहा था। दूसरे के भाग को, दूसरे के हिस्से को हड़पा जा रहा था। द्वेषाग्नि सुलग रही थी। भगवान कृष्ण ऐसी स्थिति में ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त होकर अवतरित हुए थे। और क्या कहते हैं गीता में- 

    परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌।
    धर्मसंस्थापनार्थायसम्भवामि युगे युगे।।

     

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    There is a fundamental difference between religion and community. Today it is being said that in the name of religion in the world, there are fights and fights taking place in the name of religion, whether it will happen or will happen, it is false. Presently people do not understand the definition of religion. They do not know what religion is. And another thing is propagated loudly. Religion does not teach hating each other. On the one hand it is said that there are quarrels in the name of religion and on the one side it says the opposite thing that religion does not teach hating one another.

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  • मत-पंथों का कारण

    आज देश में जो नाना प्रकार के मत पन्थ चल रहे हैं उनका मूल कारण क्या है। यह क्रम कहीं पर भी रुका नहीं अपितु निरन्तर प्रवाहमान नदी की भांति आज भी चल रहा है और निरन्तर नये-२ मत-सम्प्रदाय जन्म ले रहे हैं। सदियों से चले आ रहे इस मानसिक रोग ने समाज की वह शक्ति छीन ली है कि जिसके विकलांगता के कारण लोग यह समझ ही नहीं पा रहे कि उनका हित किसमें है। आपको मेरे शब्द 'मानसिक विकलांग' पर कुछ अपनी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, व्यावसायिक समस्याओं का समाधान केवल इस बात में पाते हो कि 'अच्छा यह बताओ समोसा खाया था?' जी हां. खाया था। कब खाया था' जी एक सप्ताह पहले खाया था।' श्लाल की चटनी के साथ खाया था या हरी के साथ? 'जी लाल के साथ खाया था।' अच्छ जाओ अब हरी के साथ खाओ तुम्हारी सारी समस्यायें दूर हो जायेगी। ' अब ऐसे लोगों को (गुरु और चेले दोनों को) मानसिक विकलांग न कहें तो की कहें? जहां पर माता-पिता अपनी सन्तान को तांत्रिकों के कहने पर बलि तक देने को तैयार रहते हों, जहां पर प्रतिदिन नवयौवनाओं का बाबा लोग शारीरक शोषण करते हों, जहां पर धर्म के नाम पर कुछ भी चल सकता हों, ऐसे समाज को मानसिक विकलांग न कहें तो क्या कहें?

    Motivational speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
    Greatness of Vedas & India | गौरवशाली महान भारत - 2

    यह तो एक बहुत ही सामान्य सा उदहारण हमने दिया है जो समाज में ऐसी बातों की भरमार है कि जहां पर अशिक्षित मनुष्य तो क्या अपितु उच्च शिक्षा से प्राप्त एवं उच्च अधिकार प्राप्त लोग भी बुद्धि को ताक पर रखकर अनेकों ऐसे कर्म करते हुए देखे जा सकते है जो उनकी अन्धश्रद्धा का परिचय देने के लिए पर्याप्त हैं। 

    स्मरण रखना चाहिये कि कोई भी घटना अचानक नहीं होती। अचानक दुर्घटनाएं हुआ करती हैं। प्रत्येक घटना की भूमिका हमारे मस्तिष्क में विचार रूप में जन्म ले चुकी होती है और जब हमें विश्वास हो जाता है तो फिर वह घटना क्रियारूप में आ जाती है। इसी प्रकार से लोगों की तर्कशून्यता, विचारशून्यता, केवल आज के परिवेश का परिणाम नहीं है अपितु वर्षों से भूमिका तैयार हो चुकी है, वही उसका कारण है। उदारण के लिये मैं जन्माष्टमी के दिन श्रीकृष्ण जी महाराज के जीवन पर व्याख्यान दे रहा था। पौराणिक जगत में जो उनका प्रचलित रूप है उस पर बोलते हुए मैनें कहा कि श्रीकृष्ण जी महाराज एक अद्विदित्य महापुरुष थे। अजेय योद्धा, बहुत उच्च कोटि के विद्वान्, योगी, धर्मात्मा, नीतिवान, कुशल राजनीतिज्ञ, दूरदर्शी, स्पष्टवादी, वेद भक्त, गोभक्त, ईश्वर भक्त अदि-२ अनेक गुणों से युक्त ऐसे महापुरुष थे जिनकी जितनी बड़ाई की जाये, कम है।

    भागवतादि पुराण बनाने वालों ने उनको कहीं का न छोडा। मनमाने दोष लगाकर ईश्वर तो क्या साधारण मनुष्य भी रहने दिया। जब व्याख्यान समाप्त हुआ तो एक खड़ा हो गया और बोला कि मेरी कुछ शंकायें हैं। मैनें कहा कि बोलो क्या हैं? कहने लगा की श्रीकृष्ण तो ईश्वर थे, उनकी सोलह हजार एक सौ आठ रानियां थी, वे सभी के साथ एक ही समय में रह सकते थे, क्योंकि जो ईश्वर होता है वह कुछ भी कर सकता है उसे कोई दोष भी नहीं लगता लगता आदि। आप समझ सकते हैं कि ये विचार कहां से उदय हुए। उस व्यक्ति का इसमे उतना दोष नहीं है जितना दोष इन लोगों से उनकी बुद्धि हरने वालों का है। छल से, चालाकी से अर्थों के अनर्थ करके जो कुछ समाज के भोले-भोले लोगों के सामने परोसा, युगों तक परोसा गया लोगों ने उसका भरपूर स्वाद चखा और यह विष उनके गले से उतर कर उनके रक्त में सम्मिलित हो गया। अब यदि कोई उस विष की चिकित्सा करे तो शल्यक्रिया के समान कष्टदायक लगता है, यह है अनर्थों का बोझ। महर्षि दयानन्द जी महाराज ने इसी वेदना को अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में कुछ इन शब्दों में व्यक्त किया है, 'इस देश को रोग हुआ है, जिसका औषध तुम्हारे पास नहीं' (अर्थात् मेरे पास है) (सत्यार्थ प्रकाश ग्यारहवां सम्मुलास) वह रोग कौन सा है और उनका ओषध क्या है, इस पर फिर कभी स्वतन्त्र रूप से लिखने का यत्न करेगें। यहां हमारा अभिप्राय यह दिखाने का है कि धूर्त लोगों द्वारा चलाई गई अनुचित बातों ने समाज की मानसिकता ही बदल डाली। जन्मना जाति-पांति, छुआ-छूत, मूर्तिपूजा, भूत-प्रेत, अवतारवा, फलित ज्योतिष, चमत्कार, टोने-टोटके, मृतक श्राद्ध आदि-२ के विकृत साहित्य द्वारा जो जन साधारण की वृति बनी उसके प्रकाश में हम यह बलपूर्वक कह सकते है कि यह अर्थों के अनर्थ होने के कारण हुआ। जब तक लोगों की बुद्धि पर इन अनर्थों का बोझ रहेगा तब तक श्रेष्ठ समाज का निर्माण स्वप्न ही रहेगा। - रामफल सिंह आर्य

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    What is the root cause of the many different types of schools of thought going on in the country today. This sequence has not stopped anywhere, but is still going on like a flowing river and new 2 schools are taking birth continuously. This mental disease that has been going on for centuries has taken away the power of society that due to disability people are unable to understand what is in their interest.

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  • मन की दिव्यशक्ति

    ओ3म्‌ वयं सोम व्रते तव मनस्तनूषु बिभ्रतः।
    प्रजावन्तः सचेमहि।। ऋग्वेद 10.57.6

    ऋषिः बन्धुः सुबन्धु आदयः।। देवता विश्वेदेवाः।। छन्दः-गायत्री।। 

    विनय - हे सोम! तुम्हारा दिया हुआ तुम्हारी महाशक्ति का अंशभूत मन हमारे शरीरों में विद्यमान है। इस मन का, इस तुम्हारी अमूल्य देन का हमें गर्व है। इस मन के कारण ही हम मनुष्य हैं। इस मनशक्ति के कारण ही हम पशुओं से ऊँचे हुए हैं। तो क्या अपने शरीरों में मन जैसी प्रबल शक्ति को धारण किये हुए भी हम लोग तुम्हारे व्रत में न रह सकेंगे? बेशक तुम्हारे व्रत का पालन करना बड़ा कठिन है। तुमने जगत्‌ में जो उन्नति के नियम बनाये हैं, ठीक उनके अनुसार चलना बड़ा दुःसाध्य है। पर जहॉं तुमने ये कठिन नियम बनाये हैं, वहॉं तुमने ही हममें मन की अतुल शक्ति भी दी है। अतः हमारा दृढ़ निश्चय है कि हम अपनी मनःशक्ति के प्रयोग द्वारा सदा तुम्हारे व्रत में ही रहेंगे, कभी इसको भंग न करेंगे। कठिन से कठिन प्रलोभन व विपत्ति के समय में भी मनःशक्ति द्वारा हम व्रत में स्थिर रहेंगे। 

    Ved Katha Pravachan _89 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    पर यह सब व्रतपालन किसलिए है? यह तुम्हारी सेवा के लिए है। यह तुम्हारा दिया मन इसी काम के लिए है। हम चाहते हैं कि केवल यह हमारा मन ही नहीं, किन्तु हमारे मन की प्रजा भी तुम्हारी सेवा में ही काम आवे। मन में जो एक रचनाशक्ति है, उस द्वारा प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह कुछ रचना कर जावे, कुछ निर्माण कर जावे। यह रचना ही मन की प्रजा है। यदि हम, हे सोम! सर्वथा तुम्हारे व्रत में होंगे तो हमारी यह रचना (प्रजा) भी निःसन्देह तुम्हारी सेवा के लिए ही होगी, इसी में व्यय होगी। इस प्रकार हम और हमारी प्रजा सदा तुम्हारी सेवा में रहें, तुम्हारी सेवा में ही अपना जीवन बिता देवें। अब यही संकल्प है, यही इच्छा है, यही प्रार्थना है। 

    शब्दार्थ - सोम=हे सोमदेव! तनूषु=अपने शरीरों में मनः=मन को, मनःशक्ति को बिभ्रतः=धारण किये हुए वयम्‌=हम लोग तव व्रते=तुम्हारे व्रत में हैं, तुम्हारे व्रत का पालन करते हैं और प्रजावन्तः=प्रजा-सहित हम लोग सचेमहि=तुम्हारी सेवा करते रहें। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

    आत्म जीवन निर्माण

    ओ3म्‌ अहमिद्धि पितुष्परि मेधामृतस्य जग्रभ।
    अहं सूर्य इवाजनि।। (ऋग्वेद 8.6.10, साम. पू. 2.2.6.8, अथर्व. 20.11.1)

    ऋषिः काण्वो वत्सः।।देवता इन्द्रः।।छन्दः गायत्री।। 

    विनय - मैं सूर्य के सदृश हो गया हूँ। मैं अनुभव करता हूँ कि मैं मनुष्यों में सूर्य बन गया हूँ। मुझ सूर्य से सत्यज्ञान की किरणें सब ओर निकल रही हैं। जैसे इस हमारे सूर्य से प्राणिमात्र को ताप, प्रकाश और प्राण मिल रहा है, सबका पालन हो रहा है, इसी प्रकार मैं भी ऐसा हो गया हूँ कि जो कोई भी मनुष्य मेरे सम्पर्क में आता है उसे मुझसे ज्ञान, भक्ति और शक्ति मिलती है। मैं कुछ नहीं करता हूँ, पर मुझे अनुभव होता है कि मुझसे स्वभावतः जीवन की किरणें चारों ओर निकल रही हैं तथा चारों ओर के मनुष्यों को उच्च, पवित्र और चेतन बना रही हैं। इसमें मेरा कुछ नहीं है। मैंने तो प्रभु के आदित्य (सूर्य) रूप की ठीक प्रकार से उपासना की है। अतः उनका ही सूर्यरूप मुझ द्वारा प्रकट होने लगा है। मैंने बुद्धि द्वारा सूर्य की उपासना की है। मनुष्य का बुद्धिस्थान (सिर) ही मनुष्य में द्युलोक (सूर्य का लोक) है। मैंने अपनी बुद्धि द्वारा सत्य का ही सब ओर से ग्रहण किया है और ग्रहण करके इसे धारण किया है। धारण करने वाली बुद्धि का नाम ही "मेधा' है। इस प्रकार मैंने मेधा को प्राप्त किया है। द्युलोक के साथ अपना सम्बन्ध जोड़कर द्युलोक को अपने में ग्रहण किया है। इसीलिए मैं सूर्य के समान हो गया हूँ। द्युलोक में स्थित प्रभु का रूप ऋतरूप है, सत्यरूप है। मैंने अपनी सब बुद्धियॉं, सब ज्ञान, उन सत्यस्वरूप पिता से ही ग्रहण किये हैं। मैंने इसका आग्रह किया है कि मैं सत्य को ही, केवल सत्य को ही अपनी बुद्धि में स्थान दूँगा। इस तरह मैंने प्रभु के द्युरूप की सतत उपासना की है, ऋत की मेधा का परिग्रह किया है। इस सत्यबुद्धि के धारण करने के साथ-साथ मुझमें भक्ति और शक्ति भी आ गई है। मेरा मन और शरीर भी तेजस्वी हो गया है। पालक पिता के सब गुण मुझमें प्रकट हो गये हैं। मैं सूर्य हो गया हूँ। हे मुझे सूर्यसमान करने वाले मेरे कारुणिक पिताः! तुझ ऋत की मेधा को सब प्रकार से पकड़े हुए मैं तेरे चरणों में पड़ा हुआ हूँ। 

    शब्दार्थ - अहम्‌ इत्‌=मैंने तो हि=निश्चय से पितुः=पालक पिता ऋतस्य=सत्यस्वरूप परमेश्वर की मेधाम्‌=धारणावती बुद्धि को परिजग्रभ=सब ओर से ग्रहण कर लिया है, अतः अहम्‌=मैं सूर्यः इव=सूर्य के समान अजनि=हो गया हूँ। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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    राष्ट्रीय प्रशासनिक मुख्यालय
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    दशहरा मैदान के सामने
    अन्नपूर्णा, इंदौर (मध्य प्रदेश) 452009
    दूरभाष : 0731-2489383, 9302101186
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    National Administrative Office
    Akhil Bharat Arya Samaj Trust
    Arya Samaj Mandir Annapurna Indore
    Narendra Tiwari Marg
    Near Bank of India
    Opp. Dussehra Maidan
    Annapurna, 
    Indore (M.P.) 452009
    Tel. : 0731-2489383, 9302101186
    www.aryasamajindore.org  

     

    Vinay- I have become like the sun. I feel that I have become the sun in humans. The rays of Satyagyan are emanating from me all over the sun. Just like this our sun is getting heat, light and life, all are being followed, similarly I have also become such that any person who comes in contact with me gets knowledge, devotion and strength from me. I do not do anything, but I feel that the rays of life are naturally coming out from me and making the people around them higher, pure and conscious. I have nothing in it. I have worshiped Lord Aditya (Sun) form properly.

     

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  • मन्यु का पात्र

    ओ3म्‌ समस्य विशो विश्वा नमन्त कृष्टयः।
    समुद्रायेव सिन्धवः।। (ऋग्वेद 8.6.4 साम. पू. 2.1.5.3. अथर्व. 20.107.1)

    ऋषिः काण्वो वत्सः।।देवता इन्द्रः।। छन्दः गायत्री।। 

    विनय - इन्द्र परमेश्वर जहॉं हमारे पिता हैं, उत्पादक और पालक हैं, वहॉं वे हमारे कल्याण के लिये रुद्र भी हैं, संहारकर्त्ता भी हैं। जब जगत्‌ में किसी स्थान पर संहार की आवश्यकता आ जाती है तो प्रभु अपने मन्यु को प्रकट करते हैं। मानो अपना तीसरा नेत्र खोल देते हैं, अपने तीसरे रूप को प्रकाशित करते हैं। उस कल्याणकारी शिव के मन्यु का तेज जब देदीप्यमान होने लगता है, तो नाश होने योग्य सब संसार पतङ्गे की भॉंति आ-आकर उसमें भस्म होने लगता है। मन्यु का पात्र कोई भी व्यक्ति इससे बच नहीं सकता, सब बहे चले आते हैं। देखो, समय-समय पर बड़े-बड़े संग्राम, दुष्काल या महामारी आदि रूपों में प्रभु का वह महाबलवाला मन्यु जगत्‌ में प्रकट होता रहता है। 

    सब मनुष्य अपने विनाश की ओर खिंचे चले जा रहे होते हैं, पर उन्हें यह मालूम नहीं होता। जैसे सब नदियॉं समुद्र की ओर बही चली जा रही हैं व उसमें जाकर समाप्त हो जाएँगी, लीन हो जाएंगी, उसी प्रकार प्रभु का मन्यु काल-समुद्र बनकर उन सब प्राणियों को अपनी ओर खींचता जा रहा है, जिनका कि समय आ गया है। मनुष्यों के किये हुए पाप उन्हें विनाश की ओर वेग से खींचे ले जा रहे हैं। जिन्होंने इस संसार को जरा भी तह के अन्दर घुसकर देखा है, वे देखते हैं कि किस-किस विचित्र ढंग से मनुष्य अपने मृत्युस्थल की ओर खिंचे चले जा रहे हैं। धन्य होते हैं अर्जुन जैसे दिव्यदृष्टिपात पुरुष जिन्हें कि काल का यह आकर्षण दिखाई दे जाता है और जो देखते हैं- यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति। तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति।। हम लोग तो मौत के मुँह में घुसे जा रहे होते हैं, पर कुछ पता नहीं होता। हममें से अपनी शक्तियों का बड़ा गर्व करने वाले बड़े-बड़े प्रख्यात लोग जिस समय संसार को जितने अभिमान के साथ अपना पराक्रम दिखा रहे होते हैं, उसी समय वे उतने ही वेग से मृत्यु की ओर दौड़े जा रहे होते हैं, पर उन्हें कुछ पता नहीं होता है। जब उनका सब ठाठ एक क्षण में गिर पड़ता है, सामने मौत खड़ी दिखती है, तब जाकर प्रभु का रूद्ररूप उन्हें दीख पड़ता है। प्यारो! तब तुम अभी से क्यों नहीं देखते कि उसके मन्यु के सामने जब संसार झुका पड़ा है। पापी होकर कोई भी मनुष्य उसके सम्मुख खड़ा नहीं रह सकता, जिससे तुम अभी से उसके मन्यु का पात्र न बनने की समझ पा सको। 

    शब्दार्थ - अस्य = इस परमेश्वर की मन्यवे = मन्यु, "क्रोध', दीप्ति के सामने विश्वा विशः = सब प्रजाएँ कृष्टयः = सब मनुष्य सं नमन्त = ऐसे झुक जाते हैं समुद्राय इव सिन्धवः = जैसे कि नदियॉं समुद्र में समा जाने के लिए उधर स्वयं बही जाती है। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

    arya samaj annapurna indore mp

    हे नाथ !

    ओ3म्‌ नामानि शतक्रतो विश्वाभिर्गीर्भिरीमहे।
    इन्द्राभिमातिषाह्ये।।ऋग्वेद3.37.3, अथर्व. 20.19.3।।

    ऋषिः गाथिनो विश्वामित्रः।। देवता इन्द्र ।। छन्दः गायत्री।।

    विनय - हे परमेश्वर! मुझे यह वाणी तेरे नामोच्चारण के लिए ही मिली है। मैं निरन्तर तेरे पवित्र नामों का उच्चारण करता रहता हूँ। तेरी दी हुई इस वाणी से मैं अन्य कुछ कर ही नहीं सकता। कोई भी निरर्थक बात, कोई भी अनीश्वरीय बात मेरी वाणी से नहीं निकल सकती। मेरे एक-एक कथन में तेरी ही धुन होती है, तेरा ही निवास होता है। हे इन्द्र! मैं इस प्रकार अपनी सब वाणियों से नानारूप में तेरे ही नामों का कीर्त्तन करता रहता हूँ। यदि मैं ऐसा न करूँ तो मैं अपने शत्रुओं को कैसे पराजित कर सकूँ? उनसे कैसे रक्षित रहूँ? तेरा पवित्र नामोच्चरण करता हुआ ही मैं निरन्तर सब शत्रुओं पर विजयी हुआ हूँ और हो रहा हूँ। मेरा सबसे बड़ा शत्रु "अभिमाति' है, अभिमान है। आजकल इस महाशत्रु को मार डालने के लिए विशेषतया तेरा नाम मेरा महा-अस्त्र हो रहा है। जब मनुष्य के काम-क्रोध आदि अन्य शत्रु जीते जा चुके होते हैं, मनुष्य आत्मिक उन्नति की ऊँची अवस्था को पहुँचा होता है, तब भी यह अभिमान, अस्मिता, अहंकार मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ता। यही है जो अविद्या का कुछ अंश शेष रहने तक भी आत्मा का मुकाबला करता रहता है। यही है जो कि हे मेरे परमेश्वर! मुझे अन्त तक तुमसे जुदा किए रहता है। जब मनुष्य खूब उन्नत हो जाता है, तब उसे और कुछ नहीं तो अपनी उन्नतावस्था का, अपने पुण्यात्मा होने का अभिमान हो जाया करता है। यह अभिमान ही मनुष्य को बिल्कुल पतित कर देने के लिए पर्याप्त होता है। इसीलिए हे शतक्रतो! हे अनन्तवीर्य! हे अनन्तप्रज्ञ! इसीलिए मैं निरन्तर तेरे नाम को जपता रहता हूँ, जीभ पर तेरा परमपवित्र नाम रक्खे फिरता हूँ। जब जरा भी अभिमान मन में आता है कि ""यह बड़ा भारी काम मैं कर रहा हूँ'', "यह मैंने किया'' तो तुरन्त मेरे हाथ जुड़ जाते हैं और मुख से तेरा नाम निकल पड़ता है। इस तरह इस महाशत्रु से मेरी रक्षा हो जाती है। तेरा नाम मुझे तुरन्त नमा देता है। तेरा स्मरण आते ही मैं अवनत-शिर होकर भूमि पर मस्तक टेक देता हूँ। तब उस महाबली अभिमान को क्षणभर में विलीन हो चुका पाता हूँ, चारों ओर कोसों दूर तक उसका पता नहीं होता, सब पृथिवी पर तुम ही तुम होते हो और मैं तुम्हारे चरणों में। मैं उस समय तेरे पृथिवीरूप विस्तृत चरणों में लगी हुई धूल का एक परम तुच्छ कण बनकर निरभिमानता के परम-पावन सात्त्विक सुख का उपभोग पाता हूँ। हे नाथ ! तेरे नाम की अपार महिमा का मैं क्या वर्णन करूँ ! 

    शब्दार्थ - शतक्रतो = हे अनन्तकर्म ! हे अनन्त प्रज्ञ ! विश्वाभिः गीर्भिः = मैं अपनी सब वाणियों से ते नामानि = तेरे नामों को ईमहे = लेता रहता हूँ। इन्द्र = हे परमेश्वर ! अभिमातिषाह्ये = शत्रु का, अभिमानरूपी शत्रु का पराभव करने के लिए तेरा नाम लेता हूँ। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

    Ved Katha Pravachan _88 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


     

    Vinay- Indra Parmeshwar, where our father is our producer and foster, he is also Rudra for our welfare, also a savior. When there is a need to kill at some place in the world, God reveals his mind. As if we open our third eye, we publish our third form. When the glory of that welfare Shiva's manu becomes resplendent, then all the world that is perishable begins to devour in it like the husband. No person can avoid Manu, all of them come away. See, from time to time, in the form of big battles, droughts or epidemics etc., that great power of Lord Manu continues to appear in the world.

     

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  • महर्षि दयानन्द की धर्म सम्बन्धी देन

    धर्म के सम्बन्ध में अज्ञान अभिशाप बन जाता है। यदि अशिक्षित व्यक्ति बिना जाने धर्म को ग्रहण करता है तो अन्ध विश्वासी बन जाता है और यदि शिक्षित व्यक्ति बिना जाने धर्म को ग्रहण करता है तो वह सर्वथा अविश्वासी नास्तिक बन जाता है। ऋषि दयानन्द के आगमन से पहले धर्म की यही दशा थी। एक ओर धर्म के नाम पर आडम्बर एवं पाखण्ड पनप रहे थे तो दूसरी ओर नास्तिकता फैल रही थी। धर्म के अनुयायियों में विशेष दोष यह आ गया था कि उन्होंने धर्म को आत्मा से सर्वथा दूर कर दिया था। सीधे रूप में यह कहा जा सकता है कि धर्म पालन के लिये आचरण आवश्यक नहीं रह गया था और उसे एक व्यापारिक वस्तु बना दिया गया था।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    कोई भी राष्ट्र धर्म निरपेक्ष नहीं हो सकता -2

    Ved Katha Pravachan -6 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    जैसे व्यापार में पैसे से कोई चीज खरीदी जा सकती है या एजेन्टों के द्वारा सारा कारोबार चलता हैठीक इसी प्रकार पैसे से धर्म उपार्जन किया जा सकता है या स्वयं कुछ न करके अन्यों के द्वारा किया जा सकता है। धनिक लोग मद्य मांस तथा वेश्यागमन आदि पाप करते हुए भी दक्षिणा से खरीदे ब्राह्मणों के द्वारा यज्ञ तथा जप आदि कराते थे और उन धनक्रीत धर्माध्यक्षों के द्वारा धर्म के संरक्षक भी घोषित किये जाते थे। इस प्रकार टकों से धर्म संग्रह की सम्भावना बढ जाने पर क्यों कोई झंझट में पड़े तप या साधना के। धर्म के धन का दास बन जाने की एक प्रतिक्रिया हुई कि पापों के क्षमा हो जाने की व्यवस्था चल पड़ी। इतना दान-पुण्य करो और पाप से छुटकारा पा जाओ। इससे कर्म फल व्यवस्था का आधार ही नष्ट हो गया और धर्म की तो जड़ ही कट गई। समाज में कदाचार तथा कुप्रवृत्तियों का बोल-बाला हो गया। चोर डाकू आदि भी देवताओं से वरदान पाने लगेनिज कार्य की सिद्धि के लिये उनकी उपासना आराधना करने लगे। प्रत्येक जघन्य कर्म देव स्तुति से आरम्भ होने लगा। धर्म के नाम पर वाममार्ग की प्रतिष्ठा हो गयी। धर्म के सम्बन्ध में आचरण का जो अंश बचा था वह भी इतना उलझा दिया गया कि किसी भी मनुष्य के लिये उसका पालन सम्भव न रहा। उदाहरण के लिये साल भर में एक नैष्ठिक हिन्दू को 2000 व्रत उपवास करने होते थे। प्रतिदिन 6-7 का औसत पड़ता है। क्या कोई व्यक्ति ऐसे धर्म का अनुष्ठान करते हुए संसार का या अपना कोई अन्य कार्य भी कर सकता है?

    जब धर्म का आचरण अथवा आत्मा से सम्बन्ध विच्छिन्न हो गया तो एक और भारी बुराई पैदा हो गई। जन्म के आधार पर लोग धर्म के ठेकेदार बन गये। ब्राह्मण के घर में जन्म लेने मात्र से काला अक्षर भैंस बराबर व्यक्ति भी समाज में गुरुवत्‌ पूजा जाने लगा और शूद्र के घर में जन्मा विद्वान तथा पवित्राचरणशील व्यक्ति भी अनादर एवं दुर्व्यवहार का भाजन हो गया। इससे सारी सामाजिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयीसामाजिक मूल्य नष्ट हो गये। धर्माधिकारियों ने अपनी गद्दियों को सुरक्षित रखने के लिये ऐसे षडयन्त्र रचे कि अधिकांश जनता को अज्ञानान्धकार के गर्त में फेंक दिया गया। एक ने स्त्री जाति को शिक्षा के अधिकार से वंचित किया तो दूसरे ने शूद्रों की शिक्षा पर प्रतिबन्ध लगा दिये। अवस्था यहॉं तक पहुँची कि कुछ लोगों से धन मिल गया तो उन्हें उच्च कुलीनक्षत्रियवैश्य आदि घोषित कर दिया गया और जिनसे धन की प्राप्ति न हुईउन्हें नीच कुलीन शूद्र पतित आदि की क्षेणियों में धकेल दियागया।

    वैदिक संस्कृति तथा समाज का नारा था- धर्मादर्थश्च कामश्च। अर्थात्‌ धर्मपूर्वक अर्थ और काम की सिद्धि श्रेयसी होती है। अब इसके विपरीत होगा- अर्थाद्‌धर्मश्च कामश्च। धन से ही धर्म तथा काम की सिद्धि सुगम है। क्रान्तदर्शी ऋषि के सात्विक हृदय पर इस वाम मार्ग ने कड़ा आघात किया। उन्हें लगा कि सब अनर्थों का मूल धर्म सम्बन्धी अज्ञानता है। धर्म के वास्तविक स्वरूप को लोग भूल चुके हैंमूल धर्म से समाज का सूत्र विच्छिन्न हो गया है। ईश्वर और धर्म के वास्तविक स्वरूप का प्रतिपादन हुए बिना अविद्याग्रस्त मानव का कल्याण असम्भव है। इसी लगन और धुन में वे घर परिवार छोड़कर सच्चे ईश्वर की प्राति में जुट गए। निरन्तर 18 वर्ष की दीर्घ तपस्या तथा कठोर साधना के फलस्वरूप उन्होंने अपने अभीष्ट को पा लिया और फिर मानव कल्याण के लिए प्रचार में लग गये। अकाट्य तर्कों तथा युक्ति प्रमाणों के आधार पर सिद्ध किया कि ईश्वर एकनिराकारनिर्विकारसर्वज्ञसर्वव्यापक हैउसी की उपासना करनी चाहिये। जीव अल्पज्ञ हैकर्म करने में स्वतन्त्र हैपरन्तु फल भोग में पराधीन है। फल की व्यवस्था ईश्वराधीन है। ईश्वर भी न्यायकारी हैजीव के कर्मों के अनुसार ही सुख दु:ख रूपी फल देता है। बिना कर्म किए फल नहीं मिल सकता और जो कर्म किया है उसके फल से किसी भी प्रकार छुटकारा नहीं हो सकता। किसी दूसरे के किये हुए कर्म का किसी को कोई फल नहीं मिल सकता। 

    यद्यपि सन्त सुधारक इस देश में 14 वीं से 17 वीं शताब्दी तक अनेक हुए,जिन्होंने हिन्दू धर्म में सुधार तथा संशोधन के लिए सराहनीय प्रयत्न किये। परन्तु यह  तथ्य है कि वे समाज एवं जाति की धारा को न मोड़ सके। इसका कारण यही रहा कि वे जाति की ज्ञान चक्षुओं को न खोल सके। ऋषि दयानन्द की अपनी दो विशेषतायें थीं- अखण्ड ब्रह्मचर्य तथा अगाध विद्वत्ता। इन दोनों शक्तियों के बल पर उन्होंने सोये समाज को झिंझोड कर जगाया। संसार के सारे देशी-विदेशी मत-मतान्तरों का तर्क की कसौटी पर विश्लेषण किया। कोई भी धर्म पुस्तक या धर्म प्रवर्तक न बचा,जिसके ऊपर ऋषि की लेखनी न चली हो। ऐसा निर्भीक आचार्य सम्भवत: भूतल पर दूसरा नहीं उतरा जिसने इस प्रकार निर्मम शल्यक्रिया की हो। धर्म के क्षेत्र में श्रद्धा तथा विवेक का ऐसा सामंजस्य कहॉं देखने को मिलेगा,जैसा ऋषि दयानन्द में मिलता है। इसके साथ ही एक बहुत बड़ा उपकार उन्होंने यह किया कि धर्म तथा दर्शन की गूढतम गुत्थियों को जनता की सरल भाषा में ऐसा निबद्ध किया कि उनके महान ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश को पढकर ही मनुष्य धर्म एवं ईश्वर के सम्बन्ध में सब कुछ जान सकता है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं कि सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन से ही साधारण कृषक या दुकानदार धर्म के ऐसे व्याख्याता बन गये कि दूसरे मतों के अच्छे-अच्छे विद्वान्‌ भी उनके मुकाबले में न ठहर सकते थे। सार यह कि ऋषि दयानन्द ने धर्म और ईश्वर के नाम पर चलने वाले आडम्बर-पाखण्डों को छिन्न-भिन्न किया,अनर्थों का निराकरण किया। साथ ही इन दोनों का बुद्धिसम्मत तथा तर्कानुगत स्वरूप इस प्रकार जन भाषा में प्रस्तुत किया कि बुद्धिवादी लोग धर्म का आदर करने लगे और धर्म कुछ विशेष साधन सम्पन्न अथवा सुविधा प्राप्त लोगों की वस्तु न रहकर सर्व साधारण की धरोहर बन गया। उसका सम्बन्ध सीधा आत्मा से जुड़ गया और आचार के आधार पर वह पुन: प्रतिष्ठित हो गया। अन्ध विश्वास और नास्तिकता दोनों पर एक साथ प्रहार हुआ। यह धर्म के सम्बन्ध में ऋषि दयानन्द की देन है। आर्य समाज की स्थापना इसी देन के सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक प्रचार के लिए हुई है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिये विद्या का प्रचार और अविद्या का नाश करने तथा सत्य के ग्रहण करने और असत्य के परित्याग में प्रत्येक को सदैव समुद्यत रहना चाहिये। -रघुवीर सिंह शास्त्री

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  • महर्षि दयानन्द के उपकार-1

    मानव इतिहास का अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि इस भूमण्डल पर वैदिक युग की समाप्ति के पश्चात्‌ प्रचलित हुए वेद विरुद्ध विभिन्न मतों-पन्थों ने सद्‌ज्ञान रूपी सूर्य को ढक दिया था, जिसके परिणामस्वरूप लगभग पॉंच सहस्त्र वर्षों तक सम्पूर्ण मानव समुदाय अज्ञानान्धकार में भटकता रहा । उस अन्तराल में जो तथाकथिक गुरु-आचार्य, सन्त-महात्मा, सर्वज्ञ, ईश्वर, पुत्र तथा सन्देश वाहक आदि कहलाये वे संसार का अधिक हित नहीं कर सके। क्योंकि उनके द्वारा मनुष्यों को शाश्वत सत्य का बोध नहीं हो पाया। अर्थात्‌ उनमें से किसी ने भी ईश्वरीयज्ञान "वेद" का प्रचार नहीं किया। वे महानुभाव तो केवल स्वकल्पित  मतों को मनवाने में ही लगे रहे।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    बालक निर्माण के वैदिक सूत्र एवं दिव्य संस्कार-2
    Ved Katha Pravachan -13 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    उनके अनुयायियों में से किसी ने कहा कि हमारे धर्मशास्त्र स्वयं ईश्वर ने मनुष्य का तन धारण करके अपने हाथ से लिखे हैं। किसी ने अपने मान्य आचार्यों द्वारा लिखित ग्रन्थों को सर्वज्ञों की कृति बताया। किसी ने गुरुओं की वाणी को स्वीकारने पर बल दिया। किसी ने प्रभु के पुत्र द्वारा प्रदत्त विचारों की महानता पर विश्वास दिलाने का यत्न किया तो किसी ने अपनी मान्य पुस्तक के माध्यम से ईश्वरीय सन्देश की पुष्टि की, इत्यादि.. जबकि आदि सृष्टि में उत्पन्न हुए अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा नामक उपाधिधारी ऋषियों से लेकर महाभारतकालीन जैमिनि ऋषि तक की अवधि के सभी ऋषियों ने सत्य-शाश्वत वेद और वेद प्रतिपादित मान्यताओं को ही प्राणीमात्र के लिये कल्याणकारी माना था।

    महर्षि जैमिनि के पश्चात्‌ सर्वप्रथम आर्ष शैली में वेद का प्रचार-प्रसार करने वाले महर्षि दयानन्द ही थे। इतिहासविद्‌ यह भली भॉंति जानते हैं कि महर्षि दयानन्द से पूर्व हुए मध्यकालीन विद्वान्‌ सायणमहीधरउबट आदि ने मद्यपानमांसाहारव्यभिचारयज्ञ में पशुबलि जैसे पापोंभूत-प्रेतजादू-टोनों जैसे अन्धविश्वासों और सृष्टिक्रम के विरुद्ध मान्यताओं को वेद सम्मत बताया। इसलिये उस काल में हुए लगभाग सभी मनीषी वेद के विरोधी बन गये। वर्तमान में भी उपर्युक्त  विद्वानों की मान्यताओं पर आधारित पश्चिमी और पूर्वी लेखकों द्वारा किया गया वेदार्थ जिन विद्यालयों में पढाया जाता है उससे वहॉं के अधिकांश विद्यार्थियों के हृदय में वेद के प्रति जो चाहिये वह श्रद्धा नहीं हो पा रही है।

    वेद प्रचारक महर्षि दयानन्द-  महर्षि दयानन्द ने वेदमन्त्रों के अर्थ परम्परागत ऋषि शैली में करके वेद विषयक फैली भ्रान्तियों को मिटा दिया और वेद को ईश्वरीय ज्ञान तथा स्वत: प्रमाण बताते हुए दृढता पूर्वक कहा-"वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है, वेद का पढना पढाना और सुनना सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।" (आर्यसमाज का तीसरा नियम) उन्होंने वेद के सम्बन्ध में अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा-"चारों वेदों (विद्या धर्मयुक्त ईश्वर प्रणीत संहिता मन्त्र भाग) को निर्भ्रान्त स्वत: प्रमाण मानता हूँ।  वे स्वयं प्रमाण रूप हैं कि जिनके प्रमाण होने में किसी अन्य ग्रन्थ की अपेक्षा नहीं। जैसे सूर्य वा प्रदीप स्वरूप के स्वत: प्रकाशक और पृथिव्यादि के भी प्रकाशक होते हैं वैसे चारों वेद है।".

    इसी प्रकार से वे स्वरचित आर्योद्‌देश्य रत्नमाला के 15 वें "रत्न" में भी यही स्पष्ट करते हैं कि-"जो ईश्वरोक्तसत्य विद्याओं से युक्त ऋक्‌ संहितादि चार पुस्तक हैंजिनसे मनुष्यों को सत्यासत्य का ज्ञान होता हैउसको वेद कहते हैं।" महर्षि दयानन्द ने आर्ष शैली में वेद का प्रचार कियाउससे वेद के विषय में अनर्गल प्रलाप करने वालों के मुँह बन्द हो गये। अनेक वेद निन्दक वेद के समर्थक बने और वेदों को गडरियों के गीत बताने वाले लज्जा की अनुभूति करने लगे।

    आर्ष पद्धति को अपना कर किया विश्व में वेद प्रचार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    वेद ही ईश्वरीय ज्ञान हैइस मान्यता की पुष्टि करते हुए महर्षि दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश के सातवें समुल्लास में लिखते हैं-

    (1)  "जैसा ईश्वर पवित्र, सर्व विद्यावित्‌, शुद्धगुणकर्मस्वभाव, न्यायकारी, दयालु आदि गुण वाला है, वैसे जिस पुस्तक में ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के अनुकूल कथन हो, वह ईश्वरकृत, अन्य नहीं।

    (2)  और जिसमें सृष्टिक्रम, प्रत्यक्षादि प्रमाण, आप्तों के और पवित्रात्मा के व्यवहार से विरुद्ध कथन न हो, वह ईश्वरोक्त।

    (3)  जैसा ईश्वर का निर्भ्रम ज्ञान वैसा जिस पुस्तक में भ्रान्ति रहित ज्ञान प्रतिपादन हो, वह ईश्वरोक्त।

    (4)  जैसा परमेश्वर है और जैसा सृष्टिक्रम रक्खा है, वैसा ही ईश्वर, सृष्टि, कार्य, कारण और जीव का प्रतिपादन जिसमें होवे।

    (5) और जो प्रत्यक्षादि प्रमाण विषयों से अविरुद्ध शुद्धात्मा के स्वभाव से विरुद्ध न हो, वह परमेश्वरोक्त पुस्तक होता है।"

    महर्षि दयानन्द ने ऋक, यजु, साम और अथर्व नामक चार सहिताओं को ही वेद माना है, पौराणिक विद्वानों की भॉंति ब्राह्मणग्रन्थादि को नहीं। उन्होंने स्वलिखित ग्रन्थ "ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका" के वेद संज्ञा विचार में स्पष्ट कर दिया-"ब्राह्मणग्रन्थ वेद नहीं हो सकते, क्योंकि उन्हीं का नाम इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा और नाराशंसी भी है। वे ईश्वरोक्त नहीं हैं..।" अपने इस कथन की पुष्टि हेतु प्रमाण प्रस्तुत करते हुए वे आगे लिखते हैं- "ब्राह्मणग्रन्थों की वेदों में गणना नहीं हो सकती, क्योंकि इषे त्वोर्जे त्वा. इस प्रकार से उनमें मन्त्रों की प्रतीक धर-धर के वेदों का व्याख्यान किया है। और मन्त्र भाग संहिताओं में ब्राह्मणग्रन्थों की एक भी प्रतीक कहीं नहीं देखने में आती। इससे जो ईश्वरोक्त मूलमन्त्र अर्थात्‌ चार संहिता है वे ही वेद है, ब्राह्मणग्रन्थ नहीं।"

    यह भी जानने योग्य है कि महर्षि दयानन्द ने वेद के अतिरिक्त अन्य किसी भी ग्रन्थ को स्वत: प्रमाण नहीं माना।  इस सम्बन्ध में उन्होंने यह लिख कर "स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश" में अपना मत व्यक्त किया है-"चारों वेदों के ब्राह्मण (ऐतरेय, शतपथ, साम और गौपथ), छ: अंग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष), छ: उपांग (मीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य और वेदान्त), चार उपवेद (आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद और अर्थवेद) और 1127 (ग्यारह सौ सत्ताइस) वेदों की शाखा जो कि वेदों के व्याख्यान रूप ब्राह्मादि महर्षियों के बनाये ग्रन्थ हैं, उनको परत: प्रमाण अर्थात्‌  वेदों के अनुकूल होने से प्रमाण और जो इन में वेद विरुद्ध कथन है उनका अप्रमाण करता हूँ।"

    ज्ञान शाश्वत बता ईशका किया वेद मत का विस्तार |
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    महर्षि दयानन्द ने वेद के प्रचार का कार्य आरम्भ कियाउस समय तक पौराणिक विद्वान्‌ वेदमन्त्रों का उपयोग केवल तथाकथित पूजा पाठ के लिये ही करते थे। अर्थात्‌ उनकी मान्यतानुसार वेदमन्त्रों के उच्चारण का उद्‌देश्य मात्र स्वकल्पित देवी-देवताओंं को रिझाना था। वेद में ईश्वर की ओर से हम मनुष्यों के लिये कोई आदेशनिर्देशउपदेशसन्देशसम्मतिसत्प्रेरणादि भी हैंउनमें से अधिकांश महानुभावों को यह जानकारी नहीं थी। इसके अतिरिक्त वेद को वे जन्मजात ब्राह्मण समुदाय तक ही सीमित मानते थे। स्त्रियों और शूद्रों को तो उन्होंने वेद सुनने तक से वञ्चित कर दिया था। ऐसी दुरावस्था में महर्षि दयानन्द ने यजुर्वेद के 26 वें अध्याय का यह दूसरा मन्त्र-यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य:।ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च चारणाय।।  उद्‌धृत करते हुए "सत्यार्थ प्रकाश" के तृतीय समुल्लास में लिखा -"परमेश्वर कहता है कि (यथा) जैसे मै (जनेभ्य:) सब मनुष्यों के लिये (इमाम्‌) इस (कल्याणीम्‌) कल्याण अर्थात्‌ संसार और मुक्ति के सुख देनेहारी (वाचम्‌) ऋग्वेदादि चारों वेदों की वाणी का (आ वदानि) उपदेश करता हूँ वैसे तुम भी किया करो।"...

    (ब्रह्म राजन्याभ्याम्‌) हमने ब्राह्मण, क्षत्रिय (अर्य्याय) वैश्य (शूद्राय) शूद्र और (स्वाय) अपने भृत्य वा स्त्रियादि (अरणाय) और अति शूद्रादि के लिये भी वेदों का प्रकाश किया है,... वे आगे लिखते हैं- .. "जो परमेश्वर का अभिप्राय शूद्रादि के पढाने-सुनाने का न होता तो इनके शरीर में वाक्‌ और श्रोत्र-इन्द्रिय क्यों रचता? जैसे परमात्मा ने पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, चन्द्र, सूर्य और अन्नादि पदार्थ सबके लिये बनाये हैं, वैसे ही वेद भी सबके लिये प्रकाशित किये हैं। और जो स्त्रियों के पढने का निषेध करते हो, वह तुम्हारी मूर्खता, स्वार्थता और निर्बुद्धिता का प्रभाव है।"

    आगे उन्होंने शतपथ ब्राह्मण का प्रमाण प्रस्तुत करते हुए बताया कि "भारतवर्ष की स्त्रियों में भूषण रूप गार्गी आदि वेदादि शास्त्रों को पढके पूर्ण विदुषी हुई थी।" महर्षि दयानन्द की कृपा से ही अनेक विदुषी महिलाएं वेदाचार्य की उपाधि प्राप्त कर पाई और शूद्र कुलोत्पन्न अनेकानेक बन्धु वेद के विद्वान्‌ बनकर ईश्वरीय वाणी का प्रचार कर रहे हैं। 

    मनुज मात्र को वेद पठन का पुन: प्राप्त हुआ अधिकार। 
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    ब्र्रह्मवेता महर्षि दयानन्दमहाभारत काल के पश्चात्‌ प्रचलित हुए अवैदिक मत-पन्थों की ओर से ईश्वर के सम्बन्ध में जो कहा और लिखा गया उसे हम कल्पना पर आधारित मानते हैं। इसलिये कि उनके प्रवर्तक वेद के विद्वान्‌ नहीं थे। उन्होंने अध्यात्त्म विषयक जो मत व्यक्त किये वे ऋषियों की (अवैदिक) मान्यता के अनुकूल नहीं हैं।

    यद्यपि उनमें से अनेक महानुभावों ने ऋषियों द्वारा लिखे गये उपनिषदोंदर्शन शास्त्रों आदि को अपने मत की पुष्टि में सहायक बतायाकिन्तु वे उन ग्रन्थकारों की भावनाओं को ठीक से समझ नहीं सके। यही कारण है कि तब से अब तक अध्यात्म के नाम पर जिन मान्यताओं का प्रचार-प्रसार हुआ और हो रहा हैउनमें समानता नहीं पाई जाती।

    यह सर्वविदित है कि अपने आपको अध्यात्म से सम्बन्धित मानने वाले अनेक मत-पन्थ जो ईश्वर को मानते हैंवे उसके स्वरूपनामस्थानकार्य आदि की दृष्टि से परस्पर भिन्न विचार रखते हैं। ये मतभेद प्रमाणित करते हैं कि वेद विरुद्ध मत पन्थों का ईश्वर काल्पनिक हैवास्तविक नहीं। अत: यह निश्चयपूर्वक लिखा जा रहा है कि लगभग पॉंच सहस्त्र वर्षों के पश्चात्‌ मानव समुदाय को वेद में वर्णित ईश्वर सम्बन्धी यथार्थ ज्ञान महर्षि दयानन्द ने ही कराया।

    सदियों के पश्चात्‌ ईश को पुन: जान पाया संसार ।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    "सत्यार्थ प्रकाश" सप्तम समुल्लास का आरम्भ करते हुए महर्षि दयानन्द लिखते हैं जो सब दिव्य गुण-कर्म-स्वभाव विद्या युक्त और जिसमें पृथिवी सूर्यादि लोक स्थित हैं और जो आकाश के समान व्यापकसब देवों का देव परमेश्वर हैउसको जो मनुष्य न जानते न मानते और उसका ध्यान नहीं करते वे नास्तिक मन्दमति सदा दु:ख सागर में डूबे ही रहते हैं।

    महर्षि दयानन्द ने वेद प्रचार का कार्य आरम्भ किया उस समय इस भूमण्डल पर अनेक ईश्वर माने जाते थे। अत: उन्होंने बलपूर्वक यह घोषणा की कि-"चारों वेादें में ऐसा कहीं नहीं लिखा जिससे अनेक ईश्वर सिद्ध हों। किन्तु यह तो लिखा है कि ईश्वर एक ही है ।"

    आगे ईश्वर की सिद्धि के लिये प्रत्यक्षादि प्रमाणों का न्यायदर्शन के एक सूत्र से समर्थन करते हुए वे स्पष्ट करते हैं कि- "जो श्रोत्रत्वचाचक्षुजिह्वाप्राण और मन काशब्दस्पर्शरूपरसगन्धसुखदु:खसत्यासत्य विषयों के साथ सम्बन्ध होने से ज्ञान उत्पन्न होता हैउसको "प्रत्यक्ष" कहते हैंपरन्तु वह निर्भ्रम हो। जैसे चारों त्वचा आदि इन्द्रियों से स्पर्शरूपरस और गन्ध का ज्ञान होने से गुणी जो पृथिवी उसका आत्मा युक्त मन से प्रत्यक्ष किया जाता हैवैसे इस प्रत्यक्ष सृष्टि में रचना विशेष आदि ज्ञानादि गुणों से प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। और जब आत्मा मन इन्द्रियों को किसी विषय में लगाता वा चोरी आदि बुरी वा परोपकार आदि अच्छी बात के करने का जिस क्षण में आरम्भ करता हैउस समय जीव के इच्छा ज्ञानादि उसी इच्छित विषय पर झुक जाते हैं। उसे क्षण में आत्मा के भीतर से बुरे काम करने में भयशङ्क ा और लज्जा तथा अच्छे कामों के करने में अभयनि:शंकता और आन्दोत्साह उठता हैं। वह जीवात्मा की ओर से नहीं किन्तु परमात्मा की ओर से है। और जब जीवात्मा शुद्धान्त:करण से युक्त योग समाधिस्थ होकर आत्मा और परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है तब उसको उसी समय दोनों प्रत्यक्ष होते हैं। जब परमेश्वर का प्रत्यक्ष होता है तो अनुमानादि से परमेश्वर के ज्ञान होने में क्या सन्देह हैक्योंकि कार्य को देख के कारण का अनुमान होता है।"

    ईश्वर निराकार हैइस वैदिक मान्यता की पुष्टि करने के लिये महर्षि दयानन्द ने यह हेतु दिया कि- "जो साकार होता तो व्यापक नहीं हो सकताजब व्यापक न होता तो सर्व ज्ञादि गुण भी ईश्वर में न घट सकते क्योंकि परिमित वस्तु में गुण-कर्म-स्वभाव भी परिमित रहते हैं तथा शीतोष्णक्षुधातृषा और रोगदोषछेदनभेदन आदि से रहित नहीं हो सकता। इससे यही निश्चित है कि ईश्वर निराकार है। जो साकार हो तो उसके नाककानआँख आदि अवयवों का बनाने वाला दूसरा होना चाहिये। क्योंकि जो संयोग से उत्पन्न होता हैउसको संयुक्त करने वाला निराकार चेतन अवश्यक होना चाहिये। जो कोई यहॉं ऐसा कहे कि ईश्वर ने स्वेच्छा से आप ही आप अपना शरीर बना लिया तो भी वही सिद्ध हुआ कि शरीर बनने के पूर्व निराकार था।"

    "जब परमेश्वर के श्रोत्रनेत्रादिइन्द्रियॉं नहीं हैंफिर वह इन्द्रियों का काम कैसे कर सकता हैं?" इस प्रश्न का उत्तर उन्होंने श्वेताश्वतर उपनिषद्‌ के आधार पर यह दिया कि-"परमेश्वर के हाथ नहीं परन्तु अपनी शक्ति रूप हाथ से सबका रचना ग्रहण करतापग नहीं परन्तु व्यापक होने से सबसे अधिक वेगवान्‌चक्षु का गोलक नहीं परन्तु सबको यथावत्‌ देखताश्रोत्र नहीं तथापि सबकी बातें सुनताअन्त:करण नहीं परन्तु सब जगत्‌ को जानता है और उसको अवधि सहित जानने वाला कोई भी नहींउसी को सनातनसबसे श्रेष्ठसबमें पूर्ण होने से "पुरुष" कहते हैं। वह इन्द्रियों और अन्त:करण के बिना अपने सब काम अपने सामर्थ्य से करता है।"

    सप्रमाण कर दिया सिद्ध आकृति रहित है सरजनहार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    ईश्वर अवतार की पौराणिक मान्यता के सम्बन्ध में महर्षि ने अपनी असहमति व्यक्त की और यह पूछे जाने पर कि-"जो ईश्वर अवतार न लेवे तो रावणादि दुष्टों का नाश कैसे हो?" बताया कि-"प्रथम तो जो जन्मा हैवह अवश्य मृत्यु को प्राप्त होता है। जो ईश्वर अवतार शरीर धारण किये बिना जगत्‌ की उत्पत्तिस्थितिप्रलय करता हैउसके सामने कंस और रावणादि एक कीड़ी के समान भी नहीं। वह सर्वव्यापक होने से कंस-रावणादि के शरीरों में भी परिपूर्ण हो रहा हैजब चाहे उसी समय मर्मच्छेदन कर नाश कर सकता है। भला इस अनन्त गुण-कर्म-स्वभाव युक्त परमात्मा को एक शुद्र जीव को मारने के लिए जन्म-मरण युक्त कहने वाले को मूर्खपन से अन्य कुछ विशेष उपमा मिल सकती हैऔर जो कोई कहे कि भक्तजनों के उद्धार करने के लिये जन्म लेता है तो भी सत्य नहींक्योंकि जो भक्तजन ईश्वर की आज्ञानुकूल चलते हैं उनके उद्धार करने का पूरा सामर्थ्य ईश्वर में है। क्या ईश्वर के पृथिवीसूर्यचन्द्रादि जगत्‌ को बनानेधारण और प्रलय करने रूप कर्मों से कंस रावणादि का वध और गोवर्धनादि पर्वतों का उठाना बड़े कर्म हैंऔर युक्ति से भी ईश्वर का जन्म सिद्ध नहीं होता। जैसे कोई अनन्त आकाश को कहे कि गर्भ में आया वा मूठी में धर लियाऐसा कहना कभी सम्भव नहीं हो सकताक्योंकि आकाश अनन्त और सबमें व्यापक है। इससे न आकाश बाहर आता और न भीतर जातावैसे ही अनन्त सर्वव्यापक परमात्मा के होने से उसका आना-जाना कभी सिद्ध नहीं हो सकता। जाना वा आना वहॉं हो सकता हैजहॉं न रहे। क्या परमेश्वर गर्भ में व्यापक नहीं था जो कहीं से नहीं आयाऔर बाहर नहीं था जो भीतर से निकलाऐसा ईश्वर के विषय में कहना और मानना विद्याहीनों के सिवाय कौन कह और मान सकेगा। इसलिये परमेश्वर का आना-जाना जन्म मरण कभी सिद्ध नहीं हो सकता।कमलेश कुमार अग्निहोत्री

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    Although many of them had said that the Upanishads, philosophies etc. written by the sages were helpful in confirming their views, but they could not understand the feelings of those authors properly. This is the reason that since then till now, there is no equality in the beliefs which have been propagated and practiced in the name of spirituality.

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  • महर्षि दयानन्द के उपकार-2

    ईश्वर के जन्म लेने और गर्भ में आने की पौराणिक साहित्य में पुष्टि-  जो पौराणिक विद्वान्‌ यह कहते हैं कि ईश्वर जन्म नहीं लेता, वह तो प्रकट होता है। उन्हें अपने मान्य ग्रन्थों को ध्यान से पढना चाहिये। उदाहरणार्थ- श्रीरामचरित मानस के बालकाण्ड में गोस्वामी तुलसीदास जी ने शिवजी के मुँह से कहलवाया "जो दिन तें हरि गर्भहिं आए" तथा स्वयं अपने आराध्य देव श्रीराम से बुलवाया- "जन्मे एक संग सब भाई।" इसी प्रकार श्रीमद्‌भगवद्‌गीता चतुर्थ अध्याय श्लोक पॉंच में "बहुनि मे व्यतीतानि तव चार्जुन" आदि अकाट्‌य प्रमाणों से पौराणिक ईश्वर श्रीराम और श्रीकृष्ण के जन्म लेने की पुष्टि होती है।

    बतलाया प्रभु सर्वव्यापक लेता नहीं कभी अवतार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    बालक निर्माण के वैदिक सूत्र एवं दिव्य संस्कार-1
    Ved Katha Pravachan -12 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    "ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा करता हैवा नहीं?" इस प्रश्न का उत्तर महर्षि दयानन्द ने यह लिखकर दिया-"नहीं। क्योंकि जो पाप क्षमा करे तो उसका न्याय नष्ट हो जाये और सब मनुष्य महापापी हो जायें। क्योंकि क्षमा की बात सुन ही के उनको पाप करने में निर्भयता और उत्साह हो जाये। जैसे राजा अपराधियों के अपराध को क्षमा कर दे तो वे उत्साह पूर्वक अधिक-अधिक बड़े-बड़े पाप करें। क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उनको भी भरोसा हो जाये कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेष्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगे। और जो अपराध नहीं करतेवे भी अपराध करने से न डरकर पाप करने में प्रवृत्त हो जायेंगे। इसलिये सब कर्मों का फल यथावत्‌ देना ही ईश्वर का काम हैक्षमा करना नहीं।"

    महर्षि दयानन्द ने ईश्वर को सगुण और निर्गुण  (दोनों गुणों से मुक्त) माना हैं। वे इस वेदोक्त मान्यता के समर्थन में लिखते हैं- "जैसे जड़ के रूपादि गुण हैं और चेतन के ज्ञानादि गुण जड़ में नहीं हैंवैसे चेतन में इच्छादि गुण हैं और रूपादि जड़ के गुण नहीं हैं। इसलिए जो गुण से सहित वह सगुण और जो गुणों से रहित वह "निर्गुण" कहाता है। अपने-अपने स्वाभाविक गुणों से सहित और दूसरे विरोधी के गुणों से रहित होने से सब पदार्थ सगुण और निर्गुण हैं। कोई ऐसा पदार्थ नहीं है कि जिसमें केवल निर्गुणता वा केवल सगुणता हो किन्तु एक ही में सगुणता और निर्गुणता सदा रहती है। वैंसे ही परमेश्वर अपने अनन्त ज्ञान-बलादि गुणों से सहित होने से सगुण और रूपादि जड़ के तथा द्वेषादि जीव के गुणों से पृथक्‌ होने से "निर्गुण" कहाता है।"

    जब उनसे यह कहा गया कि- "संसार में निराकार को निर्गुण और साकार को सगुण कहते हैं।" तो उन्होंने बताया- "यह कल्पना केवल अज्ञानी और अविद्वानों की है। जिनको विद्या नहीं होतीवे पशु के समान यथा-तथा बर्ड़ाया करते हैं। जैसे सन्निपात ज्बरयुक्त मनुष्य अण्डबण्ड बकता हैवैसे ही अविद्वानों के कहे व लेख को व्यर्थ समझना चाहिये।"

    महर्षि दयानन्द ने ईश्वर को न तो रागी माना और न विरक्त। इस सम्बन्ध में उनका मत यह है कि- "राग अपने से भिन्न उत्तम पदार्थों में होता हैसो परमेश्वर से कोई पृथक्‌ वा उत्तम नहीं हैइसलिये उसमें राग का सम्भव नहीं। और जो प्राप्त को छोड़ देवेउसको विरक्त कहते हैं। ईश्वर व्यापक होने से किसी पदार्थ को छोड़ ही नहीं सकताइसलिये विरक्त भी नहीं।"

    ईश्वर में इच्छा है वा नहीं?" इस प्रश्न के उत्तर में वे लिखते हैं कि- "इच्छा भी अप्राप्त उत्तम और जिसकी प्राप्ति से सुख-विशेष होवे उसकी होती हैतो ईश्वर में इच्छा (कैसे) हो सकेन उससे कोई अप्राप्त पदार्थन कोई उससे उत्तम और पूर्ण सुखयुक्त होने से सुख की अभिलाषा भी नहीं हैइसलिये ईश्वर में इच्छा का तो सम्भव नहीं किन्तु ईक्षण अर्थात्‌ सब प्रकार की विद्या का दर्शन और सब सृष्टि का करना कहाता हैवह ईक्षण है।"

    जान स्वरूप सत्य ईश का भ्रम से मुक्त हुए नर नार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार।।

    अध्यात्म सम्बन्धी अनधिकार चेष्टा-  इन्द्रियों का विषय न होने से मध्ययुग में हुए वेद विहीन व्यक्तियों के लिये  ईश्वर पहेली बन गया। अत: अवैदिक मतों के प्रवर्तकों ने अपने-स्तर पर ईश्वर सम्बन्धी विभिन्न कल्पनाएँ की और अध्यात्म प्रेमियों को भटका दिया। अर्थात्‌ किसी ने अपनी कल्पना के आधार पर ईश्वर की सत्ता का निषेध किया तो किसी ने ईश्वर को एकदेशी और साकार बताया।

    जिन्होंने यह कहा कि संसार में ईश्वर नाम की कोई सत्ता नहीं है अथवा ईश्वर एक देशी और साकार हैउनमें से किसी ने भी ईश्वर साक्षात्कार वाला वेदोक्त मार्ग नहीं बताया तथा न ही महात्माभक्त आदि महानुभावों ने महर्षि पतंजलि वाले अष्टांग योग को आचरण से अपना कर ईश्वर विषयक अपना मत व्यक्त किया। उन्होंने तो ईश्वर के सम्बन्ध में अपनी कल्पना से जो निर्णय लियावही माना और मनवाया।

    यह सर्व विदित है कि ऋषियों द्वारा लिखे गये सभी ग्रन्थ संस्कृत भाषा में हैं। जबकि मध्यकालीन अनेक सन्त-महात्मा नामधारियों को संस्कृत भाषा का तनिक भी ज्ञान नहीं था। यही कारण है कि वे अपने मत की पुष्टि प्राचीन शास्त्रों से नहीं कर पाये और अपनी शैक्षणिक अयोग्यता पर पर्दा डालने के लिये वेद विरोधी बन गये। जो संस्कृत भाषा के विद्वान्‌ थे उन्हें ऋषियों की आर्ष परम्परा का बोध नहीं था। अत: वे वेद तथा वैदिक मान्यताओं को ठीक से जानने में असमर्थ रहे और अपने स्तर पर ईश्वर सम्बन्धी की गई कल्पनाओं को उचित मान बैठे। उनकी ये "अध्यात्म सम्बन्धी अनधिकार चेष्टा" थी। भले ही उन महानुभावों की भावनाएँ अच्छी रहीं होंकिन्तु यथार्थ ज्ञान के अभाव में वे संसार का उपकार नहीं कर सके।

    उदाहरण- डॉक्टर से रोगी को यह कहते हुए सुन कर कि मैं गरीब हूँऔषधियों का मूल्य और आपकी फीस देना मेंरे लिये सम्भव नहीं हैकिसी परोपकार प्रिय व्यक्ति को दया आ जावे और वह निर्धनों को नि:शुल्क चिकित्सा सुविधा देने की कामना से नगर में यह विज्ञापन करावे कि "मैं गरीबों का मुफ्त इलाज करूंगाकृपया मुझे सेवा का अवसर दीजियेगा।" जबकि उसे चिकित्सा सम्बन्धी कुछ भी जानकारी नहीं हैतो क्या उसके इस तथा कथित सेवा कार्य को उचित माना जायेगाहॉंयदि कोई दयालु किसी अभावग्रस्त रोगी का सुयोग्य चिकित्सक से अपने व्यय पर उपचार करवादे तो उसे उपकारी समझा जा सकता हैकिन्तु वह स्वयं ही इलाज करने लगे तो यह उसको "अनधिकार चेष्टा" ही कहलायेगी। मध्ययुग में अध्यात्म के नाम पर यही हुआ। जिसके परिणामस्वरूप मानव समुदाय भ्रमित हो गया।

    शिक्षित वर्ग यह जानता है कि अनधिकारी चिकित्सकों को अपराधी मान कर सरकार उन्हें दण्ड देती है। यदि अध्यात्म सम्बन्धी भी ऐसा कोई विधान होता तो ईश्वर के नाम पर परस्पर विरोधी मान्यताओं वाले ये मत-मतान्तर प्रचलित नहीं हो पाते। आश्चर्य है कि जिन्होंने वेदउपनिषद्‌दर्शनशास्त्र देखे तक नहीं उन्होंने आत्मा-परमात्मा से सम्बन्धित जानकारी देने का दुस्साहस कर लिया।

    अनधिकृत अध्यात्मज्ञान को दूषित सिद्ध किया ललकार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार।।

    ईश्वर सम्बन्धी मूल प्रश्न और यथोचित उत्तर-

    (1) ईश्वर की सत्ता है अथवा नहीं ?
    (2) यदि ईश्वर है तो वह कहॉं रहता है?
    (3) ईश्वर कैसा है?
    (4) ईश्वर के साथ हमारा क्या सम्बन्ध है?

    maharshi swami dayanand saraswati

    महर्षि दयानन्द ने इन प्रश्नों का यथोचित उत्तर देकर अध्यात्मप्रेमियों पर महान्‌ उपकार किया है, इस सत्य को सभी निष्पक्ष बुद्धिमान्‌ मनीषी स्वीकारते हैं। आदि सृष्टि से महर्षि दयानन्द द्वारा रचित ग्रन्थों का स्वाध्याय करने से ज्ञात होता है, संसार में दिखाई दे रहे नियम और हो रहे कार्य आदि नियामक, कर्त्ता ईश्वर के अस्तित्व की साक्षी दे रहे हैं। इस प्रथम का उत्तर है। द्वितीय और तृतीय प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने हेतु आर्यसमाज का दूसरा नियम ध्यान से पढना चाहिये। लिखा है, वह-"ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र है।" चतुर्थ प्रश्न के उत्तर से जानकारी मिलती है  कि ईश्वर सृष्टि का निर्माण, पालन, संहार करता और हम जीवों को हमारे शुभाशुभ कर्मों का यथावत्‌ फल देता है। ईश्वर सम्बन्धी पॉंचवें प्रश्न का उत्तर महर्षि दयानन्द ने स्तुतिप्रार्थनोपासना के सातवें मन्त्र से दिया- "वह परमात्मा अपना गुरु, आचार्य, राजा और न्यायाधीश है" तथा "आर्य्याभिविनय" द्वितीय प्रकाश के प्रथम व्याख्यान में उन्होंने ईश्वर को सम्बोधित करते हुए लिखा- "हम आपको ही पिता, माता, बन्धु, राजा, स्वामी, सहायक, सुखद, सुहृद, परम गुरु आदि जानें।"

    उलझन सुलझादी ईश्वर सम्बन्धी करके कृपा अपार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    भगवान्‌ भक्तों के वश में नहीं होता-  मध्ययुग में हुए तथा कथित भगवद्‌ भक्तों के नाम से अवैदिक मतों द्वारा यह प्रचार किया गया कि भक्तभगवान को वश में कर लेते हैं अर्थात्‌ वे भगवान्‌ से अपने इच्छित कार्य करवा सकते हैं। वेद विरुद्ध इस मान्यता की पुष्टि हेतु "भक्तमाल" जैसी पुस्तकों में विभिन्न काल्पनिक कथाएँ लिखी गईजिन्हें पढ-सुन कर भोले नर-नारी भ्रमित हो गये।

    महर्षि दयानन्द ने "सत्यार्थप्रकाश" के सप्तम समुल्लास में स्पष्ट कर दिया कि "कोई ऐसी भी प्रार्थना करेगा- हे परमेश्वर ! आप हमको रोटी बना कर खिलाइयेमकान में झाडू लगाइयेवस्त्र धो दीजिये और खेती बाडी कीजिए। इस प्रकार जो परमेश्वर के भरोसे आलसी होकर बैठे रहते वे महामूर्ख हैं।"

    "भगवान्‌ भक्तों के वश मेंे हो जाता है"इस अन्धविश्वास ने मानव समुदाय का बहुत अहित किया है। भगवान्‌ से किसी के पॉंव दबवानेखेत कटवाने तथा छप्पर बॅंधवाने वाली कल्पित कथाओं के लेखकों को ईश्वर सम्बन्धी कुछ भी ज्ञान नहीं था।

    "भक्त भगवान्‌ से अपने मनमाने कार्य करवा लेते है"इस मान्यता के समर्थन में जो कहानियॉं सुनायी जाती हैं उनमें से उदाहरणार्थ यहॉं एक कहानी का उल्लेख किया जा रहा है। किसी युवक की मृत्यु का दु:ख उसकी माता के लिये असहाय हो गया। वह तथाकथित एक "भगत" के पास जाकर बोली कि आप भगवान्‌ से कहकर मेरे पुत्र को जीवित करवा दीजिएआपकी बड़ी कृपा होगी। भक्त ध्यानावस्थित हो गया और फिर नेत्र खोलकर उस माता से बोला- "मैंने भगवान्‌ से पूछा तो उन्होंने मुझे बतलाया आपके पुत्र की आयु समाप्त हो चुकी हैइसलिये अब यह जीवित नहीं हो पायेगा।" जब "भगत" ने दुखी माता से यह सुना कि यदि भगवान्‌ आपकी इच्छा पूर्ण नहीं करेंगे तो भक्त और भक्ति पर किसी को विश्वास नहीं होगा । उसने पुन: नेत्र बन्द किये और भगवान से कहकर उस मृत युवक को जीवित करवा दिया। मध्ययुग से होती आ रही ऐसी मूर्खतापूर्ण कथाओं ने ईश्वर के न्याय-नियमों पर प्रश्न चिन्ह लगाया। यह ऐतिहासिक सत्य है।

    भक्तों के वश हुए प्रभु का करके दिखलाया उद्धार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    ईश्वर अपरिवर्तनीय और एकरस है- परमात्मा की सत्ता को स्वीकारने वाले वेद विरुद्ध मतों से सम्बन्धित अनेक महानुभाव यह मानते और कहते हैं कि ईश्वर अपने भक्तों पर प्रसन्नदुष्टों पर कुपित और प्राणियों के शुभाशुभ कर्मों से प्रभावित होता है। जबकि वैदिक मान्यतानुसार ईश्वर की अवस्था सदैव एक-सी रहती है। उसमें किसी भी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं हुआ करता। अर्थात्‌ पापियों को दण्ड और पुण्यात्माओं को सुख देते समय वह परिवर्तित नहीं होता। हम अपने कर्म-फल उसकी न्याय व्यवस्था के अन्तर्गत भोगते रहते हैंउसके न्याय-नियम कभी नहीं बदलते।

    इसी प्रकार से चाहे कोई उसकी निन्दा करे अथवा स्तुतिवह प्रभावित नहीं होता और सर्दी-गर्मीभूख-प्याससुख-दु:खहानि-लाभअनुकूलता आदि का प्रभाव जीवों की भॉंति ईश्वर पर नहीं होता। अर्थात्‌ हम देखते हैंजड़ से जड़जीव से जीवजड़ से जीव और जीव से जड़ पदार्थ प्रभावित होते हैं। जैसे अग्नि से जललकड़ीवस्त्रादिजल से अग्निमिट्‌टीवनस्पति आदिशेर से हिरनखरगोशमनुष्यादिमनुष्यों से अनेक प्राणीसर्दी-गर्मी-भूख-प्यास आदि से देहधारी आत्माएँ और प्राणी जगत्‌ से जलवायु वस्त्रादि प्रभावित होते हैं ईश्वर नहीं।

    कहा सभी को अटल एक रस अपरिवर्तित है करतार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    कृतज्ञता- इस लेख माला में वैदिक मान्यताओं पर आधारित वेद तथा ईश्वर सम्बन्धी यथार्थ बोध कराने वाले महर्षि दयानन्द के उपकारों का संक्षिप्त उल्लेख किया गया है। ऋषियुग की समाप्ति के पश्चात्‌ आये आचार्ययुग और सन्तयुग ने अध्यात्म को बहुत उलझाया है। अर्थात्‌ श्री आचार्य बृहस्पतिश्री शंकराचार्यश्री रामानुजाचायर्यश्री माधवाचार्यश्री राधवाचार्यश्री बल्लभाचार्य आदि आचार्यों तथा कबीरदासतुलसीदाससूरदासरविदास आदि सन्तों ने वेद एवं ईश्वर विषयक परस्पर विरोधी विचार व्यक्त करके मानव समुदाय को विभिन्न भागों में विभक्त कर दिया।

    लगभग पॉंच हजार वर्षों की अवधि में इस भूमण्डल पर आचार्यगुरुसन्तमहन्त नामधारी तो अनेक हुए किन्तु किसी ने ऋषित्व प्राप्त नहीं किया। अर्थात्‌ आर्ष परम्परा के अनुकूल वेद का महत्व तथा ईश्वर का सत्यस्वरूप कोई भी नहीं जान पाया। इस दृष्टि से सम्पूर्ण मानव समुदाय महर्षि दयानन्द का सदैव ऋणि रहेगा। यदि महर्षि दयानन्द का प्रादुर्भाव नहीं होता तो संसार सद्‌ज्ञान और सच्चे अध्यात्म को नहीं समझ पाता।कमलेश कुमार अग्निहोत्री

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    When he was told that- "In the world, the formless are called Nirguna and the corporeal is called Saguna". So he told- "This imagination is only for the ignorant and ignorant. Those who do not have knowledge, they do it like a beast and waste it. Just as a timid human being bumps, so should the words and articles of the ignorant be considered meaningless. "

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  • महर्षि दयानन्द में शिव के दर्शन

    शिव का सीधा-सादा अर्थ है कल्याणकारी। पुराणों की शिव की कल्पना भी कल्याण की भावना से ही प्रेरित है। शिव सबका कल्याण व हित चाहने वाला देवता है। दूसरों का शुभचिन्तक व हित चाहने वाला व्यक्ति अधिकतर शुद्ध-पवित्र हृदय का तथा भोलापन लिए होता है। इसीलिए शिव को भोला बाबा भी कहा जाता है, जो थोड़ी सी उपासना करने से ही प्रसन्न होकर काफी वरदान देने वाला देवता है। शिव के बारे में अनेकों कहानियॉं व किस्से प्रचलित हैं। वह किसी को दुखी देखता है तो उसे सुखी बना देता है। इसीलिये दुखी को सुखी बना देने वाला देवता ही शिव माना गया है। कल्याण व उपकार सब गुणों में श्रेष्ठ व ज्येष्ठ है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी इसी बात को अपने शब्दों में कहा है- परहित सरिस धर्म नहिं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई। इसीलिये शिव को सब देवी देवताओं से बड़ा देवों का देव महादेव भी कहते हैं। 

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    वेद मन्त्र व्याख्या - यजुर्वेद मन्त्र 25.15

    Ved Katha Pravachan _34 (Vedic Secrets of Happy Life & Happiness) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    बिना स्वार्थ के देने वाले को देव या देवता कहते हैं। देवता दो प्रकार के होते हैं, चेतन और जड़। दूसरे शब्दों में जीवित देव और निर्जीव देव भी कहे जाते हैं। जीवित या चेतन देवों में माता, पिता, आचार्य, विद्वान, वृद्धजन व अतिथि आते हैं, जो हमें उपदेश, सद्‌ज्ञान, अनुभव व आशीर्वाद देकर हमारे जीवन को सुखी व शान्तिप्रद बनाने का प्रयत्न करते हैं। निर्जीव या जड़ देवों में सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी, अन्न, फल व वनस्पति हैं, जिनसे हमारे शरीर को भोजन, गर्मी व शक्ति मिलती है। तभी हमारे शरीर को गति मिलती है और रक्षा होती है। यानी जड़ देवता हमें जीवित रखने में परम सहयोगी हैं। यहॉं प्रसंगवश यह बता देना उचित है कि जैसे हम अपने शरीर के सब अंगों को भोजन व रस पहुँचाने के लिए मुख से भोजन करते हैं, फिर उस भोजन का रस बनकर हमारी नस-नाड़ियों द्वारा शरीर के सभी अंगों को पहुँच जाता है, वैसे ही सभी जड़ देवताओं का मुख अग्नि है। इसीलिये हम यज्ञ द्वारा अग्नि में आहुति देते हैं। यज्ञ में डाली हुई सामग्री व घृत की सुगन्ध हजारों गुणी होकर हवा में फैलकर सब जड़ देवताओं सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, जल, अग्नि व वनस्पतियों को पहुँच जाती है तथा वह शुद्ध व पवित्र होकर प्राणी मात्र का कल्याण करती है और यज्ञ से ही वायुमण्डल हल्का हो जाने से वृष्टि भी होती है। वृष्टि से अन्न, फल व वनस्पतियॉं पैदा होती हैं, जिनको खाकर प्राणीमात्र जीवित रहता है। इसीलिये वेदों में "यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्मः' कहकर यज्ञ की महिमा कही गई है। वेदों में यज्ञ को विश्व की नाभि यानि केन्द्र भी बताया गया है। 

    पुराणों में शिव को सात आभूषणों से विभूषित किया गया है, जो उनके गुणों को प्रदर्शित करते हैं। वे सभी गुण महर्षि दयानन्द सरस्वती के जीवन में भी पूर्णतः घटित होते हैं। शिव की भॉंति ही महर्षि दयानन्द का पूरा जीवन भी परोपकार के लिये बीता। उनको अपना कोई स्वार्थ नहीं था। उन्होंने अपने जीवन में जो ज्ञान, बल व तेज अर्जित किया, वह सब परहित में ही लगा दिया। महर्षि का एक-एक क्षण और एक-एक श्वास प्राणीमात्र की भलाई के लिये ही बीता। ऐसे महान्‌ व्यक्ति का प्रादुर्भाव संसार में युगों के बाद होता है। शिव ने तो देवताओं व राक्षसों के झगड़े को मिटाने के लिये तथा देवी-देवताओं की रक्षा के लिये विषपान किया था और उस विष को गले में ही रोककर पेट में नहीं जाने दिया, जिससे शिव का गला नीला हो गया। इसीलिये शिव का एक नाम नीलकण्ठ भी है। परन्तु महर्षि दयानन्द ने तो प्राणिमात्र के कल्याण के लिये एक बार नहीं, दो बार नहीं, अनेकों बार विषपान किया और उसको न्यौली क्रिया द्वारा बाहर निकालते रहे तथा विष का प्रभाव शिव की भॉंति ही शरीर पर नहीं होने दिया। इस प्रकार शिव ने जो कार्य बड़े रूप में एक बार किया, वही कार्य महर्षि दयानन्द अनेक बार छोटे रूप में करके शिव के तुल्य बनने के पूरे अधिकारी बने। शिव के सातों आभूषण महर्षि के जीवन में कैसे घटित होते हैं, इसका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है- 

    गंगा को जटा में धारण करना- पौराणिक मान्यता के अनुसार भागीरथ की प्रार्थना पर गंगा के वेग को रोकने के लिये शिव ने पहले गंगा को अपनी जटा में धारण किया। फिर जटा से पृथ्वी पर प्रवाहित किया, जिससे पृथ्वीवासियों का कल्याण व हित हुआ। वैसे ही हजारों वर्षों से वेदों को न पढ़ने से वेद ज्ञान प्रायः लुत हो गया था। सिर्फ ग्रन्थों में ही बन्द था। महर्षि दयानन्द ने गुरु विरजानन्द के चरणों में बैठकर सत्य ज्ञान को जाना और अपने परिश्रम से वेद ज्ञान रूपी गंगा को पुनः धरती पर प्रवाहित किया। यानी वेद ज्ञान का प्रकाश किया। यह कार्य शिव के कार्य के समान था। 

    मस्तिष्क में चन्द्रमा का होना- चन्द्रमा शीतलता यानी धैर्य का प्रतीक है। महर्षि दयानन्द महान्‌ धैर्यवान्‌ व्यक्ति थे। इसके अनेकों उदाहरण ऋषि के जीवन में आते हैं। परन्तु यहॉं दो घटनाएं लिखना ही पर्याप्त होगा। एक बार ऋषि कहीं व्याख्यान  दे रहे थे। उस समय एक विरोधी ने कुछ शरारती बच्चों को बुलाकर यह कहा कि तुम स्वामी जी पर ईंटें, पत्थर व धूल फेंको, मैं तुम्हें मिठाई दूँगा। बच्चों ने वही काम किया। ऋषि के भक्तों ने उन बच्चों को पकड़ लिया और ऋषि के पास लाये। ऋषि ने बच्चों से पूछा कि तुम ईंट, पत्थर क्यों फेंक रहे थे? तब बच्चों ने उस व्यक्ति का नाम लेते हुए कहा कि उसने हमें मिठाई का लोभ देकर यह काम करवाया। स्वामी जी ने अपने भक्तों से मिठाई मगंवाकर उन बच्चों को दी और उन्हें पुचकारते हुए जाने को कहा। बच्चे खुशी-खुशी अपने-अपने घर चले गये। यह थी महर्षि की सहनशीलता व धैर्य। 

    दूसरी घटना इससे भी कहीं ज्यादा हृदय को छूने वाली है जो मानव में नहीं, किसी महामानव में ही पाई जा सकती है। वह घटना  उस समय की है, जब ऋषि पुणे में कई दिनों से अपने धारावाहिक प्रवचन कर रहे थे। प्रवचनों से खिन्न होकर उनका अपमान करने के लिए एक आदमी का मुँह काला करके गधे पर उल्टा बिठाकर और उसके गले में जूतों की माला पहनाकर पीछे बीस-तीस विरोधी ढोल बजाते हुए जुलूस निकाल रहे थे और उस व्यक्ति की पीठ पर लिखा था "नकली दयानन्द''। ऋषि के भक्तों को यह बड़ा अशोभनीय लगा और वे ऋषि के पास गए तथा सारा वृत्तान्त कह सुनाया। ऋषि मुस्कुराते हुए बोले कि वे जुलूस ठीक ही तो निकाल रहे हैं, नकली दयानन्द की तो यही दुर्गति होनी ही चाहिये। असली दयानन्द तो यहॉं बैठा है। यह सुनकर ऋषि के भक्तों को बड़ा आश्चर्य हुआ। यह धैर्य की पराकाष्ठा नहीं तो क्या है? शिव का धैर्य का गुण भी महर्षि में अत्यधिक था। इसलिए उनकी शिव से तुलना करना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। 

    गले में सर्पों की माला रखना- गले में सर्पों की माला रखने का भावार्थ यह है कि परोपकार के लिये जीवन को हर समय संकट में रखना और प्रसन्नचित्त रहना। इसका एक दूसरा भाव है, दुष्टों को भी आदर देकर गले से लगाना। यह दोनों ही गुण महर्षि के जीवन में बहुत अधिक देखने को मिलते हैं। शिव के गले में सर्पों का रहना तो एक उपमा मात्र है। परन्तु ऋषि के ऊपर तो कितनी ही बार दुष्टों ने मरे हुए सॉंप फेंके, ईंट, पत्थर मारे। लेकिन वाह रे देव ऋषि! तू कभी भी क्रोधित नहीं हुआ और शान्त चित्त से सभी सहन करते हुए वेदों का प्रचार और परोपकारी कार्य करता रहा। धरती पर अनेकों मत संस्थापक व सन्त, ऋषि, महात्मा आये, जिनको विरोधियों का विरोध सहना पड़ा। ऋषि का तो पूरा जीवन ही संकटों से घिरा था। उनके ऊपर कितनी ही बार विरोधियों ने घातक हमले किये, फिर भी उन्होंने विरोधियों से प्रेम का व्यवहार किया। यहॉं तक कि विष देने वाले पाचक जगन्नाथ को भी पॉंचसौ रुपयों की थैली देकर नेपाल भाग जाने को कहा। 

    हाथ में त्रिशूल- हाथ में त्रिशूल, दुष्टों  के संहार तथा वीरता का सूचक है। ऋषि में जितनी सहनशीलता थी, उससे कहीं ज्यादा दुष्टों व अन्यायियों के दम्भ को चूर करने की भी उनमें शक्ति थी। कर्णवास प्रवास के दौरान राव कर्णसिंह महर्षि के वेद प्रचार से रुष्ट होकर उन्हें गाली-गलौच करने लगा। स्वामी जी ने राव को समझाया कि विचारों का मतभेद बातचीत से प्रेमपूर्वक मिटाया जा सकता है। लेकिन राव तो ताकत के नशे में चूर था। गाली बकते हुए तलवार लेकर महर्षि पर लपका। उसे महर्षि के अतुल्य बल का अनुमान नहीं था। महर्षि ने झपटकर उसके हाथ से तलवार छीन ली तथा भूमि पर टेककर दो टुकड़े कर दिये और शान्त मुद्रा में कहा- "मैं संन्यासी हूँ। तुम्हारी किसी भी गलत हरकत से चिढ़कर, मैं तुम्हारा अनिष्ट कभी नहीं करूंगा। जाओ! ईश्वर तुम्हें सुमति प्रदान करें।'' 

    हाथ में डमरू- हाथ में डमरू धर्म प्रचार का सूचक है। ऋषि ने जो सबसे ज्यादा कार्य किया, वह वैदिक धर्म का प्रचार कार्य है। उस समय वेद सरलता से उपलब्ध नहीं थे। बहुत अधिक परिश्रम करके वेद की कुछ प्रतियॉं दक्षिण भारत से और कुछ जर्मनी से मंगवाकर चारों वेद उपलब्ध करवाये। उनके प्रचार के लिये विरोधियों से कितने ही शास्त्रार्थ किये। सारे भारत में घूम-घूमकर कितने ही व्याख्यान व भाषण दिये। अनेकों ग्रन्थ लिखे। वेदों के भाष्य भी किये और वेद प्रचार करने के लिये ही आर्यसमाज की स्थापना सन्‌ 1875 में मुम्बई में की, जिसका मुख्य उद्देश्य मानव मात्र की सेवा करते हुए वेद प्रचार करना ही है। डमरू का कार्य जितना महर्षि दयानन्द ने किया, उतना शायद ही किसी अन्य धार्मिक विद्वान्‌ ने किया हो। 

    शरीर पर राख रमाना- शिव शरीर पर राख रमाते थे। इसका तात्पर्य एक तो यह हो सकता है कि राख जैसी महत्वहीन वस्तु को भी महत्व देना यानि निम्न, कमजोर, अनाथ व असहाय व्यक्तियों को गले लगाना और उनको सहयोग व सम्मान देना। दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि परहित के कार्यों में अपने तन, मन, धन को समर्पित करके त्याग द्वारा स्वयं को राख के समान बना देना। ये दोनों ही काम महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में बहुत अधिक मात्रा में किये। उन्होंने वेद प्रचार के बाद यदि कोई दूसरा काम अधिक-से अधिक किया था, तो वह था दुखित, असहाय, व अनाथ लोगों का जीवन सुखी बनाने हेतु जन-समाज को प्रेरित करना तथा समाज में अपमानित व निन्दित शूद्र वर्ग जिसे अछूत कहा जाता था, उसको हिन्दू समाज का अभिन्न अंग बताकर उसको सम्मान दिलाना और पढ़ने व धार्मिक स्थानों में प्रवेश का अधिकार दिलाना। 

    नारी जाति की भी उस समय दुर्दशा थी। उन्हें पढ़ाना तो दूर रहा, घर से बाहर निकालना भी दुष्कर्म समझा जाता था। उनका जीवन एक कैदी के समान था, बाहर की हवा भी नहीं लगने दी जाती थी। नारी घर का काम करने की केवल मशीन मात्र थी। ऐसे समय में महर्षि ने मनुस्मृति के श्लोक "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः' के आधार पर उन्हें परिवार व समाज में सम्मान दिलवाया और गार्गी जैसी विदूषियों का उदाहरण देकर उन्हें लौकिक शिक्षा ही नहीं, वेद पढ़ने व पढ़ाने तक का अधिकार दिलाया। महर्षि ने विधवा-विवाह का समर्थन कर विधवाओें को सुखी जीवन प्राप्त कराया। 

    बाघाम्बर धारण- शिव वस्त्रों की जगह पहनने व बिछाने में बाघ की खाल (बाघ-छाल) का ही प्रयोग करते थे। इसका तात्पर्य यह है कि अपनी हिंसक प्रवृत्तियों का दमन करके अपने वश में करना। महर्षि दयानन्द इस विषय में सर्वोपरि और बेजोड़ थे। वे बाल ब्रह्मचारी तो थे ही साथ ही त्यागी, तपस्वी, परोपकारी और प्रकाण्ड वेदज्ञ विद्वान भी थे। कोई ऐसा मानवीय गुण जैसे दया, उदारता, सहृदयता, निर्भयता, निष्पक्षता, ईमानदारी, विनम्रता, अहिंसा आदि नहीं, जो उनमें नहीं हो और अमानवीय दुर्गुण जैसे ईर्ष्या, द्वेष, राग, घृणा व अहंकार आदि तो उनसे कोसों दूर रहते थे। यदि यह कहा जाए कि हिंसक प्रवृत्तियों के दमन का कार्य महर्षि ने बाल ब्रह्मचारी होने के कारण शिव से भी बढ़कर किया, तो यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस प्रकार शिव के सातों आभूषणों के प्रतीक के रूप में सभी गुण महर्षि दयानन्द सरस्वती के जीवन में पूर्णरूपेण देखे जा सकते हैं। - खुशहालचन्द्र आर्य

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    Shiva simply means welfare. Shiva's imagination of the Puranas is also inspired by the feeling of well-being. Shiva is the deity who wants the welfare and well-being of all. The person who wishes the well-wishers and interests of others is mostly of pure and pure heart and innocence. That is why Shiva is also called Bhola Baba, who is a deity who is very happy with only a little worship.

     

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  • माता को प्रथम गुरु क्यों कहा गया है

    मॉं को प्रथम गुरु कहा गया है। माता जहॉं जन्म देती है तथा शिशु को नौ महीने तक गर्भ में पालती है और साथ ही संस्कारित भी करती है। बालक नौ महीने तक गर्भ के अन्दर रहता है, तब जो शिक्षा चलती है वह संस्कारों की शिक्षा है। इसलिए माता प्रथम गुरु है। शिवाजी को उसकी मॉं जीजाबाई ने गर्भ में ही संस्कारों की शिक्षा दी थी। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान है। 

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    मनुष्य को मनुष्य क्यों कहते हैं

    Ved Katha Pravachan _56 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    माता मन में ज्ञान के प्रकाश को डालती है। मन-बुद्धि के अन्दर ज्ञान भली प्रकार माता के द्वारा डाला जाता है। यह संस्कारों का पोषण है। माता पोषित एवं संस्कारित करती है और पिता पालन करता है तथा गुरु अज्ञान रूपी अन्धकार को दूर करने वाला है। गुह्य ज्ञान का प्रकाशक जो है, उसका नाम है गुरु। अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला। बालक जब बड़ा हो जाता है तो संसार का ज्ञान कराती है मॉं। गुरु भी ज्ञान कराता है, लेकिन गर्भ के अन्दर जो ज्ञान होता है, वह आन्तरिक ज्ञान है, अन्तः शिक्षा है। यह अन्तः शिक्षा पूरे जीवन में काम करती है। बाह्य शिक्षा समय के साथ है, संस्कारों के साथ है। जो संंस्कार गर्भ में पड़ जाते हैं, वही जीवन भर चला करते हैं। इसलिए मॉं को श्रेष्ठ और प्रथम गुरु कहा गया है। 

    बल, बुद्धि और ज्ञान से सम्पन्न को वेद में शूरवीर कहा गया है। जो न स्वयं दीन होते हैं और न ही राष्ट्र को दीन बनने देते हैं, ऐसे पुत्र को जन्म देने वाली मॉं साधुवाद और प्रशंसा की पात्र है। क्योंकि ऐसे वीर पुत्र देवों को भी वश में कर लेते हैं। ऐसे पुत्रों को जन्म देने वाली मॉं और वह कुल जिसमें जन्म लिया है, दोनों ही कृतार्थ हो जाते हैं। - डॉ. विनोद शर्मा

    दुनिया में सबसे सुन्दर हाथ

    एक छोटा बच्चा अपने माता-पिता के साथ अपने आरामदेय घर में बैठा था। वह अपनी मॉं से बोला- "मॉं! आपका चेहरा दुनिया में सबसे दयालु व सुन्दर है। दिल चाहता है कि मैं इसे हमेशा देखता रहूँ।'' 

    जैसे ही वह ये शब्द बोल रहा था, उसकी नजर अपनी मॉं के हाथों पर पड़ी। वे मुड़े हुए और बड़े कुरूप थे। वह बोल उठा- "मॉं! आपके हाथ दुनिया में सबसे कुरूप हाथ होंगे। मैं उनकी तरफ देख भी नहीं सकता।'' 

    इस पर पिता ने बेटे को अपनी गोद में बैठाया और कोमलता से बोला- "मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ। एक समय की बात है कि एक नन्हा बच्चा अपने पालने में शान्तिपूर्वक सोया हुआ था कि पालने को आग लग गई।'' 

    लड़के ने पूछा- "बच्चे का क्या हुआ?'' "बच्चे की देखभाल के लिए जो आया रखी थी, वह डरकर भाग गई'', पिता ने बात जारी रखी, "लेकिन मॉं ने आग देख ली और बच्चे को बचाने दौड़ी। उसने देखा कि बच्चे के चारों ओर आग इतनी फैल चुकी थी कि बच्चे को घायल हुए बिना उठाना असम्भव था। उसने हाथों से ही आग बुझाई। उसके हाथ बुरी तरह जल गये। उन्हें ठीक होने में कई महीने लग गये। पर उन पर दाग फिर भी रह गये।'' 

    छोटा बच्चा चहक उठा- "कितनी बहादुर मॉं होगी!'' 

    पिता ने कहा- "जानते हो वह कौन थी? वह तुम्हारी मॉं थी। उसके कुरूप हाथों ने ही तुम्हें बचाया था।'' 

    यह सुन बच्चे की आँखों में आँसुओं की धारा फूट पड़ी। वह अपनी मॉं की तरफ मुड़ा और बार-बार उसके हाथ चूमने लगा। वह रोते हुए बोला- "मॉं, यह दुनिया के सबसे सुन्दर हाथ हैं।'' - प्रस्तुतिः वरुण

    शिष्य की निष्ठा

    एक सन्त घने जंगल से होकर अपने गन्तव्य के लिये निकले। यह देखकर उनका शिष्य भी उनके पीछे चल पड़ा। रास्ते में नदी पड़ी। नदी को पार करने के लिए कोई पुल न था। सन्त को नदी के पार पहुंचना जरूरी था। यह देख शिष्य दौड़कर गुरु जी से आगे आया और नदी के तेज जल में उतर गया। गुरु खड़े हुए यह दृश्य देखते रहे। शिष्य नदी को पार करने लगा। उसके गले तक जल आने लगा। अन्ततः उसने नदी को पार कर ही लिया। उसने गुरु जी से कहा- गुरुवर! अब आप भी धीरे-धीरे नदी पार कर लें। गुरु ने भी उसके आग्रह पर तेज जल प्रवाह में चलकर नदी को पार कर लिया। 

    सन्त ने शिष्य से कहा कि तू दौड़कर मुझसे आगे आया और नदी में उतर गया। अगर तू डूब जाता तो क्या होता? शिष्य ने गुरु के चरण पकड़कर कहा- "हे गुरुवर, अगर मैं डूब जाता तो कोई फर्क न पड़ता, किन्तु अगर आप डूब जाते तो देश की अत्यधिक हानि होती। आपको मेरे जैसे अनेक शिष्य मिल जायेंगे। किन्तु जन-मानस को आप जैसा गुरु कहॉं से मिलता?'' प्रस्तुतिः कु. भावना

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    Mother has been called the first Guru. The mother where she gives birth and raises the baby in the womb for nine months and also performs the rituals. The child stays inside the womb for nine months, then the education that goes on is the education of the sacraments. Therefore Mata is the first Guru. Shivaji was taught the rites by his mother Jijabai in the womb itself. Janmani Janmabhoomi Swargadpi Gariyasi. Janani and Janmabhoomi is also greater than heaven.

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  • मांस निषेध

    ओ3म्‌ यः पौरुषेयेण क्रविषा समङ्‌क्ते यो अश्व्येन पशुना यातुधानः।
    यो अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च।। (ऋ. 10.87.16)

    शब्दार्थ- (यः यातुधानाः) जो राक्षस, दुष्ट (पौरुषेयेण) पुरुष सम्बन्धी मांस से (सम्‌ अङ्‌क्ते) अपने शरीर को पुष्ट करते हैं (यः) जो क्रूर लोग (अश्व्येन) घोड़े के मांस से और (पशुना) पशु के मांस से अपना उदर भरते हैं (अपि) और भी (यः) जो (अघ्न्यायाः) अहिंसनीय गौ के (क्षीरम्‌) दूध को (भरति) हरण करते हैं (अग्ने) हे तेजस्वी राजन्‌! (तेषां) उन सब राक्षसों के (शीर्षाणि) शिरों को (हरसा) अपने तेज से (वृश्च) काट डाल। 

    Ved Katha Pravachan _87 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    भावार्थ - मन्त्र में राजा के लिए आदेश है कि जो मनुष्यों का मांस खाते हैं, जो घोड़ों का मांस खाते हैं, जो अन्य पशुओं का मांस खाते हैं और जो बछड़ों को न पिलाकर गौ का सारा दूध स्वयं पी लेते हैं, हे राजन्‌! तू अपने तीव्र शस्त्रों से ऐसे दुष्ट व्यक्तियों के सिरों को काट डाल। इस मन्त्र के अनुसार किसी भी प्रकार के मांस-भक्षण का सर्वथा निषेध है।

    "अघ्न्याया क्षीरं भरति' का यही अर्थ सम्यक्‌ है कि जो बछड़े को न पिलाकर सारा दूध स्वयं ले लेते हैं। इस मन्त्र से गोदुग्ध पीने वालों को मार दे ऐसा भाव लेना ठीक नहीं है। क्योंकि वेद में अन्यत्र कहा गया है "पयः पशूनाम्‌' (अथर्व. 19.31.5) हे मनुष्य! तुझे पशुओं का केवल दूध ही लेना है। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

    मद्य निषेध

    ओ3म्‌ हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम्‌।
    ऊधर्न नग्ना जरन्ते ।। (ऋग्वेद 8.2.12)

    शब्दार्थ - (न) जिस प्रकार (दुर्मदासः) दुष्टमद से युक्त लोग (युध्यन्ते) परस्पर लड़ते हैं उसी प्रकार (हृत्सु) दिल खोलकर (सुरायाम्‌ पीतासः) सुरा, शराब पीने वाले लोग भी लड़ते और झगड़ते हैं तथा (नग्नाः) नङ्गों की भॉंति (ऊधः) रातभर (जरन्ते) बड़बड़ाया करते हैं।

    भावार्थ - मन्त्र में बड़े ही स्पष्ट शब्दों में शराब पीने का निषेध किया गया है । मन्त्र में शराब की दो हानियॉं बताई गई हैं- 

    1. शराब पीने वाले परस्पर खूब लड़ते हैं ।
    2. शराब पीने वाले रातभर बड़बड़ाया करते हैं।

    मन्त्र में शराबी की उपमा दुर्मद से दी गई है। जो शराब पीते हैं वे दुष्टबुद्धि होते हैं। मद्यपान से बुद्धि का नाश होता है और "बुद्धिनाशात्‌ प्रणश्यति' (गीता 2.63) बुद्धि के नष्ट होने से मनुष्य समाप्त हो जाता है। "शराब' शब्द दो शब्दों के मेल से बना है - शर+आब। इसका अर्थ होता है शरारत का पानी। शराब पीकर मनुष्य अपने आपे में नहीं रहता । वह शरारत करने लगता है, व्यर्थ बड़बड़ाने लगता है। 

    मद्य पेय पदार्थ नहीं है। शराब पीने की निन्दा करते हुए किसी कवि ने भी सुन्दर कहा है-

    गिलासों में जो डूबे फिर न उबरे जिन्दगानी में।
    हजारों बह गए इन बोतलों के बन्द पानी में।। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

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    Charity - In the mantra, there is a command for the king that those who eat the flesh of humans, who eat the flesh of horses, who eat the flesh of other animals, and who drink all the milk of the cow themselves without feeding the calves, O king! You cut off the heads of such evil persons with your sharp arms. According to this mantra, eating meat of any kind is strictly prohibited.

     

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  • मुक्ति से पुनरावृत्ति

    ओ3म्‌ कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम।
    को नो मह्या अदितये पुनर्दात्‌ पितरं च दृशेयं मातरं च।।

    ओ3म्‌ अग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम।
    स नो मह्या अदितये पुनर्दात्‌ पितरं च दृशेयं मातरं च।। (ऋग्वेद 1.24.1-2)

    शब्दार्थ- (अमृतानाम्‌) नित्य पदार्थों में (कतमस्य कस्य देवस्य) कौन-से तथा किस गुण वाले देव का (चारु नाम मनामहे) सुन्दर नाम हम स्मरण करें। (कः नः) कौन हमें (मह्या अदितये पुनः दात्‌) महती, अखण्ड-सम्पत्ति-मुक्ति के लिए पुनः देता है (पितरं च मातरं च दृशेयम्‌) और फिर किसकी प्रेरणा से माता-पिता के दर्शन करता हूँ। (वयम्‌) हम (अमृतानाम्‌) नित्य पदार्थों में (प्रथमस्य अग्नेः देवस्य) सर्वप्रमुख, ज्ञानस्वरूप, परमात्मदेव के (चारु नाम मनामहे) सुन्दर नाम का स्मरण करें। (सः नः) वही परमात्मा हमें (मह्या अदितये) महती मुक्ति के लिए (पुनः दात्‌) फिर देता है और उसी से प्रेरणा पाकर (पितरं च मातरं च दृशेयम्‌) मैं माता और पिता के दर्शन करता हूँ। 

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    भावार्थ- मनुष्यों को सर्वप्रमुख, ज्ञानस्वरूप परमात्मा का ही जप, ध्यान एवं स्मरण करना चाहिए। वह प्रभु ही जीव को मुक्ति में पहुँचाता है। वही परमात्मा मुक्त जीव को मुक्ति-सुख-भोग के पश्चात्‌ माता-पिता के दर्शन करता है, उसे जन्म धारण कराता है। जन्म धारण करना, मुक्ति प्राप्त करना, पुनः जन्म धारण करना यह एक क्रम है, जो निरन्तर चलता रहता है और चलना भी चाहिए। यदि जीव परमात्मा में विलीन हो जाए, तो वह मुक्ति क्या हुई? - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

    त्रैतवाद

    ओ3म्‌  द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
    तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति।। (ऋग्वेद 1.164.20)

    शब्दार्थ- (द्वा सुपर्णा) दो उत्तम पंखों वाले पक्षी, पक्षी की भॉंति गमनागमनवाले, आत्मा और परमात्मा (सयुजा) एक-साथ मिले हुए (सखाया) एक-दूसरे के मित्र बने हुए (समानं वृक्षम्‌) एक ही वृक्ष=प्रकृति अथवा शरीर पर स्थित (परिषस्वजाते) एक-दूसरे को आलिङ्गन किये हुए हैं (तयोः) उन दोनों में (अन्यः) एक जीवात्मा (पिप्पलं स्वादु अत्ति) संसार के फलों को स्वादु जानकर खाता है, भोगता है (अन्यः अनश्नन्‌) दूसरा परमात्मा न खाता हुआ (अभि चाकशीति) केवलमात्र देखता है, साक्षी बनकर रहता है। 

    भावार्थ- मन्त्र में त्रैतवाद का सुन्दर ढंग से प्रतिपादन किया गया है। संसार में तीन पदार्थ अनादि हैं- परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति। मन्त्र में इन तीनों का निर्देश है। जीवात्मा और परमात्मा दोनों ज्ञानवान्‌ और चेतन हैं। दोनों संसाररूपी वृक्ष पर स्थित हैं। जीवात्मा अल्पज्ञ है। अपनी अल्पज्ञता के कारण वह संसार के फलों को स्वादु समझकर उनमें आसक्त हो जाता है। परमात्मा सर्वज्ञ है। उसे भोग की इच्छा नहीं, आवश्यकता भी नहीं। वह जीवात्मा का साक्षी बना हुआ है। 

    मनुष्य को संसार के पदार्थों का त्यागपूर्वक भोग करते हुए परमात्मा की शरण में जाना चाहिए, इसी में उसका कल्याण है। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

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    Trivialism is beautifully rendered in the chant. Three substances in the world are eternal - divine, living soul and nature. All three are instructed in the mantra. Both the soul and the divine are knowledgeable and conscious. Both are located on the tree of the world. The individual is little known. Due to his superficiality, he considers the fruits of the world to be tasty and gets enamored in them. God is omniscient. He has no desire for enjoyment, not even need. He remains a witness to the individual soul.

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  • मूल्यों का पतन : कारण व निवारण

    विश्व का आध्यात्मिक गुरु, प्राचीनतम संस्कृति, ईश्वरीय वाणी के रूप में प्राचीनतम ग्रंथ वेद, सबके आदर्श अनुकरणीय मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जीवन चरित्र, आपत धर्म के पालन, गीता जैसे गूढ़ ज्ञान के प्रदाता योगीराज कृष्ण आधुनिक समय में वेदों को पुनः स्थापित करने वाले महान समाज सुधारक स्वामी दयानन्द पर्यन्त कितने उदाहरण हैं जिनकी शिक्षायें किसी के लिए भी अनुकरणीय हो सकती है। इस प्रकार वर्तमान काल में कितने टी.वी. चैनल आस्था, संस्कार, जागरण आदि जो निरंतर विभिन्न धर्म गुरुओं के प्रवचनों की वर्षा कर रहे हैं। कोई भी कथावाचक किसी भी शहर या कस्बे में जा पहुचें तो आज भी कितनी भीड़ स्वतः स्फूर्त जुट जाती है प्रवचन सुनकर स्वयं को धन्य करने के लिए। शायद हमारा देश एक ऐसा देश है जिसके नागरिक अपना अधिकांश कीमती समय भगवान की पूजा-अर्चना, उपासना, तीर्थ-यात्राओं या दर्शनों में लगाते हैं।

    Motivational speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
    वेद कथा - 3 | Explanation of Vedas & Dharma | मजहब ही सिखाता है आपस में बैर | क्रांतिकारी प्रवचन

    इस सबके बावजूद कितनी बड़ी विसंगति है कि आज हमारे देश में अनाचार, दुराचार, सामाजिक कुरीतियां, पाखंड भी उतनी ज्यादा तेजी से बढ़ रहा हैं आखिर क्या कारण है कि इतनी विविध तेजी से बढती दिखाई दे रही धार्मिक आस्थाओं के बीच उससे भी ज्यादा तेजी से समाज की गहरी अंधी खाइयों की तरह लुढ़क रहा है। क्यों समाज में निरंतर टूटना, पाखंड, कुरीतियां, भ्रांतियां, धार्मिक विद्वेषभाव, विघटन अलगाववाद, जातिगत संघर्ष, आसहिष्णुता, प्रांतीयता, सिर उठाती नई नवेली अलगाव पैदा करती भावनायें, आतंकवाद, चरमराती कानून वयवस्था, भक्षक बने कानून के रक्षक हर मुददे पर टूटन ही टूटन तिस पर देश के राजनेताओं में शक्ति का अभाव बस साम-दाम दंड-भेद से सत्ता मद में चूर शोषण करके अपना पोषण करते राजनेता आदि। आखिर क्या कारण हैं आज समाज में इस सक्रमण काल की आखिर कौन सी स्थितियां इसके लिए उत्तरदायी हैं । जिस प्रकार रोग के निदान लिए कारन कारण जान लेना आवश्यक होता है इसी प्रकार जानना इसके निवारण लिए अत्यंत आवश्यक हैं।
    १. हमारी सनातन पुरातन वैदिक संस्कृति हमारे लिए हमारे लिए गौरव विषय है पर वर्तमान काल में हम इस संस्कृति का कितना अनुसरण कर रहे हैं यह विचारणीय विषय है । हमारी वंश परम्परा महान है पर आज हम क्या हैं कहां हैं इस पर विचार करना आवश्यक हैं।

    २. हमारी वैदिक संस्कृति श्रेष्ठतम है इस पर किसी को कोई संशय नहीं पर हम स्वयं अपनी इस पुरातन संस्कृति से परिचित नहीं हैं तो अनुकरण कर पायेंगे । बिना रास्ता जाने दिशा भटक कर हम किधर जा रहे हैं यह विचारणीय है। आज हमारी हालत भेड़ों के झुंड में जन्मकाल रहकर पहचान भूल चुके सिंह शावक की सी है हमें स्वयं को पहचानना होगा ।

    ३. हमारी महानतम मान्यताओं में समय साथ कुछ वर्ग विशेषतया वर्ण विशेष अपनी स्वार्थ सिद्धि वशीभूत लोगों की अन्धश्रद्धा लाभ उठाकर अंधविश्वासों, कुरीतियों, पाखंडों को जोड़ दिया है । जिस प्रकार मैदानी भाग में प्रवेश के बाद पवित्र गंगा में हर शहर को गंदा नाला उसे प्रदूषित कर देता है इसी लिए गंगा सफाई की आवश्यकता पड़ती है ठीक उसी प्रकार अब हमें अपने विवेक की छलनी से छान कर कुरीतियों दूर करना होगा। तुलसी, कबीर, स्वामी दयानन्द, राजा राममोहन राय जैसे समाज सुधारकों ने इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया है। 

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    ४. समाज में बुरी तरह से कोढ़ की भांति फ़ैल चुकी युवा वर्ग में नशे की पृवत्ति, दहेज़ प्रथा के कारण कन्या भ्रूण हत्या, दहेज़ का दिखावा, युवावर्ग में बढ़ती अनैतिकता, फैशन के नाम पर नंगापन, नारी आजादी के नाम पर टूटती मर्यादायें आदि कुरीतियां आपत उपचार मांगती हैं अन्यथा समाज के भविष्य की तस्वीर भयावह दिखाई देती है । 

    ५. हम कभी आध्यात्मिक गुरु थे विश्व हमारा अनुकरण करता था पर शायद लंबी गुलामी के बाद हमें पिछलग्गू बनकर रहने की आदत हो गई है । आज भी तथाकथित विकास के नाम पर हम पश्चात्य अंधानुकरण कर रहे हैं। इस पाश्चात्य अंधानुकरण में भी हम उनकी अच्छी आदतें राष्ट्रवाद, मेहनत, नए अन्वेषण, वैज्ञानिक प्रगति आदि नहीं सीख रहे अपितु जींस, पिज्जा, बर्गार, कोक, नंगेपन की भौंडी नकल अवश्य कर रहे हैं। यह पाश्चात्य अंधानुकरण हमें हमारी संस्कृति से काट रहा है। टी.वी. चैनलों आदि मीडिया के माध्यम से इसका तीव्र प्रहार हमारे दिलोदिमाग पर हो है । बड़े से बड़ा वट वृक्ष भी जब अपनी जड़ों से कट जाता है तो अंततः सुखकर ठूंठ बनकर गिर पड़ता है ।

    ६. हमारी विकास की परिभाषा के मायने बदल चुके हैं हम बड़ी तीव्र गति से सेंसेक्स के बढ़त सूचकांक की भांति भौतिकतावाद, बाजारवाद और भोगवाद का शिकार होकर विनाश की ओर सम्मोहित होकर हम अपने संभावित विनाश को नहीं देख पा रहे है । बाजारवाद के इस युग में हमारे समाज में मूल्यों का अवमूल्यन हुआ है हर चीज हर सामग्री यहां तक कि हमारा दीन ईमान सब विनिमय की वस्तु हो चूका है हम बिकने को तैयार बैठे हैं बस खरीददार चाहिए। विनाश की तरफ तेजी से दौड़ते तथाकथित विकासशील समाज को रुक कर सोचने और दिशा परिवर्तन पर विचार करना होगा । 

    ७. भौतिक सुख संसाधनों सम्पदा की अंधी दौड़ में नैतिक मूल्यों का लोप आज के समाज की त्रासदी है । नैतिक मूल्यों की स्थापना और समाज को क्षणिक भौतिक सुख और आनन्द की स्थिति में अन्तर महसूस करना होगा। 

    ८. आजादी के बाद भी हम गुलामी की मानसिकता से उबर नहीं पाए । भावी पीढ़ी के निर्माण के लिए गुलामी की प्रतीक मैकाले के दत्तक पुत्र, क्लर्क तैयार करने वाली शिक्षा प्रणाली को हमने अपनाया जिसमें चरित्र निर्माण, मानव रचना, अपनी संस्कृति से परिचय या नैतिक मूल्यों को कोई स्थान नहीं दिया गया। मैकाले की यह शिक्षा पद्धति शायद सामाजिक अधोगति का बहुत बड़ा कारण है जो आज भी अच्छे क्लर्क, इंजिनियर, डॉक्टर, मैनेजर आदि तो बना रही है पर अच्छे इंसान बनाने की की व्यवस्था नहीं है। 'ब्रेन-ड्रेन' या फिर आउट सोर्सिंग' के शिकार आज की युवा शक्ति धन लोलुपता या भौतिकतावाद में विदेशी आकाओं की सेवा में लगी है। 

    ९. धर्म जाति भाषा क्षेत्र जैसे अपनी सुविधा के मुददो पर समूचे समाज को वोट बैंकों में तोड़कर आपस में लड़वाते रहने वाली राजनैतिक लोकतांत्रिक प्रणाली भी सामाजिक पतन के लिए उत्तरदायी है। सामाजिक तनाव पैदा करके साम-दाम दंड-भेद से सत्ता मद में चूर होकर शोषण कर स्वयं के पोषण की प्रवृति ने राजनीति को व्यापर बना दिया है जिसके कोई नियम नहीं है। कानून बनाने वाली विधायिका और पालन करवाने वाली नौकरशाही स्वयं को कानून से उपर समझती है कर शोषण को जन्मसिद्ध अधिकार मानती है। इस व्यवस्था की खामियों को दूरकर इसकी भावना को समझना होगा।

    १०. धार्मिक उन्माद वर्ण या जातिगत संघर्ष पैदाकर समाज को वोट बैंकों में तोड़ने की राजनैतिक दलों की साजिशों के साथ वर्ग संघर्ष के नाम पर अलगाववाद, नक्सलवाद, उग्रवाद को भड़काना भी सत्ता प्राप्ति का साधन बन चूका है । सत्ता प्राप्ति का रास्ता धनबल और बाहुबल से ही तय किया जा सकता है । राजनीति के अपराधीकरण से चला यह अनैतिक सफर अब अपराधियों के राजनीतिकरण तक पहुंच चूका है । यह स्थिति अत्यंत खतरनाक है । नेता अपराधी और अधिकारी का नापाक गठजोड़ सत्ता का शक्ति केंद्र बन चूका है । 

    ११. समाज में धर्मपरायणता के स्थान पर धर्मभीरुता बढ़ रह है। हर व्यक्ति मन ही मन अपने दुष्कर्मों के फल लेकर कभी ना कभी परेशान हो जाता है तो यह गुरुडमवाद फैलाकर स्वयं को ईश्वरीय अवतार घोषित कर रहे तथाकथित कथावाचक दान दक्षिणा लेकर पापों से मुक्ति का सरल उपाय बताकर अभयदान देते हैं। इससे अपराधी अपराध भावना से मुक्त हो फिर से दुष्कर्म करने की तरफ प्रवृत हो जाता है। यही धर्मभीरु लोगों की ही इन अवतारों की सभाओं में शोभा बढाती है

    १२. प्रेम शब्द अपना व्यापक यौगिक अर्थ खो चूका है आजकल प्रेम का अर्थ मात्र विपरीत लिंगों में वासना के लिए रह गया है जबकि भक्त का भगवान के प्रति, पिता का पुत्र वा पुत्री के प्रति, माता का बेटे के लिए, भाई-बहन का प्यार सब प्रेम की व्यापक परिभाषा में आते हैं। 

    १३. हम परिवारों में बच्चों को संस्कार देने में असमर्थ सिद्ध हुए हैं। बच्चों को जो कहा जाए उसे सुनते नहीं है अपितु जो वह देखते हैं उसे सीख जाते हैं। हम अपनी जीवन चरित्र अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए अनुकरणीय बनने में सर्वथा असमर्थ सिद्ध हुए हैं। अपितु आने वाली पीढ़ी इस विनाश मार्ग पर हमसे ज्यादा तेज से चल रही है। परिवार विघटित हो रहे हैं बच्चे बड़ों की इज्जत करना भूल चुके हैं शायद बड़े ही इसके लिए अधिक उत्तरदायी हैं।

    यह कुछ स्थितियां हैं जो कि समाज की अधोगति का कारण है शायद इन्हीं कारणों के विवेचन में इनका निवारण भी छिपा है। अतः आज समय की मांग है कि हम विनाश के इस मार्ग को छोड़ दें अन्यथा आने वाली पीढ़ियां जब हमसे हमारे पतन का कारण पूछेंगी तो हमारे पास कोई उत्तर नहीं होगा। - नरेंद्र आहूजा ''विवेक''

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  • मैकाले तो मुस्कुराएगा ही

    सन्‌ 1835 की फरवरी से अभी 2010 तक पूरे पौने दो सौ वर्ष का समय बीत चुका है। उस समय ब्रिटिश संसद में भाषण देते हुए लार्ड मैकाले ने कहा था- "मैंने भारत का हर गांव हर शहर देख लिया, भारत में न कोई अशिक्षित है, न असभ्य। भारत सपेरों और पशु चराने वालों का देश नहीं है। उनकी सभ्यता और संस्कृति बहुत गहरी है। अगर भारत पर राज करना है तो हमें भारत की इस सभ्यता-संस्कृति को नष्ट करना होगा, जो कि भारतीयों की रीढ़ है और इसके लिए जरूरी है उनकी शिक्षा पद्धति को बदल देना।'' और धीरे-धीरे भारत की रीढ़ को कमजोर करने का काम मैकाले करता गया। फिर भी, 1947 से पहले हमारी रीढ़ बहुत मजबूत थी। हमने कहा कि, देशवासियो खून दो, देश को आजादी मिलेगी।

    Ved Katha 1 part 4 (Different Types Names of one God) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    हमने यह भी कहा कि स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। हमने यह गीत भी गाया कि "नहीं रखनी सरकार अंग्रेजी सरकार नहीं रखनी।'' जिन लोगों ने विदेशी शासकों के समक्ष आत्म समर्पण किया भी थी, उनकी संख्या बहुत कम थी। वे अंग्रेजों द्वारा बांटे गए पदों को सजाकर अकड़ते रहे, पर राष्ट्रभक्तों ने देश के इन गद्दारों को "टोडी बच्चा हाय-हाय' कहकर भगा दिया। "इंकलाब जिन्दाबाद' और "अंग्रेजो, भारत छोड़ो' के नारों की तरह ही टोडी बच्चों को भगाने वाला नारा लोकप्रिय हो गया, पर मैकालेवाद बढ़ता गया। शिक्षा के नाम पर भारतीय संस्कृति विरोधी विष देश की नई पीढ़ी के खून में धीरे-धीरे घुलता रहा और कड़वे करेले पर नीम चढ़ाने का काम कुछ उन नेताओं ने कर दिया। जिन्होंने स्वतन्त्र भारत की कमान संभाली, उन्होंने पूरे देश को यह विश्वास दिलवाया कि अंग्रेजी शिक्षा पद्धति व जीवनशैली ही "उन्नत का एकमात्र मार्ग है।' 

    मैकाले ने भारत से अपने परिजनों को एक पत्र लिखा था, जिसमें उसने यह विश्वास प्रकट किया कि अगर उसकी शिक्षा नीति केवल पचास वर्ष भी भारत में चल गई, तो भारत अगले पॉंच सौ वर्ष के लिए गुलाम रहेगा। मुझे लगता है कि मैकाले ने अपनी शक्ति का आकलन गलत नहीं किया था। पौने दो सौ वर्ष बाद भी मैंने महसूस किया कि मैकाले मुस्कुरा रहा है। वह मुस्कुराए भी क्यों न! 3 नवम्बर 2009 को चंडीगढ़ मे दो दीक्षांत समारोह मैंने देखे। इनकी अध्यक्षता के लिए भारत के प्रधानमन्त्री उपस्थित थे, पर मञ्च और सभागार मेें भारत था ही नहीं, बस इंडिया था। मैकाले और डायर की ही भाषा और उन्हीं के ओढ़ाए हुए गाउन और सर पर अंग्रेजों जैसे ही बड़े-बड़े टोप सजाए प्रधानमन्त्री, भारत के स्वास्थ्य मन्त्री और राज्यपाल बैठे थे। सभी प्रसन्न थे और उसी भाषा में भाषण हो रहे थे, जिस भाषा में मैकाले ने भारत की रीढ़ को तोड़ने का संकल्प लिया था। और आश्चर्य यह भी कि उस मंच पर समापन के समय राष्ट्रगान भी न हो सका। मंच पर राष्ट्रगान न होने के कई कारण सुनने को मिले, राष्ट्रगान सुनने को नहीं मिला। मैकाले की छाया में चले इस कार्यक्रम में काले बादलों में सुनहरी रेखा की तरह सरस्वती वन्दना का स्वर दो क्षणों के लिए सुनने को मिला। और यही सब कुछ पंजाब विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में भी हुआ। आखिर इससे नई पीढ़ी को क्या दीक्षा मिली होगी? इससे पिछले वर्ष भी पंजाब विश्वविद्यालय के ऐसे ही समारोह में मुझे उपस्थित रहने का अवसर मिला था। तब भारत के उपराष्ट्रपति मन्च पर थे। वातावरण बिल्कुल वैसा ही था, जिसका चित्रण मैं ऊपर कर चुकी हूँ। मुझे गर्व है कि मंच पर बैठने का जिन्हें सौभाग्य मिला, उनमें से केवल मुझे ही परमात्मा ने यह बल दिया कि मैं काला लबादा ओढ़े बिना बैठी। मंचासीन और पंडाल में बैठे नई और पुरानी पीढ़ी के विद्वज्जन को यह सब बुरा लगा ही नहीं। यूं भी कह सकते हैं कि हमारी शिक्षा-दीक्षा ने नई पीढ़ी को यह साहस ही नहीं दिया कि वह इन दीक्षादायकों से यह पूछ तो सके कि क्यों वे खुद काला ओढ़ते हैं और हमें भी ओढ़ाते हैं? काला रंग तो मृत्यु, शोक और विरोध का प्रतीक है, अज्ञान का दूसरा नाम है। महाकवि सूरदास ने भी कहा है- सूरदास कारी कामरि पे, चढ़त न दूजो रंग ।

    हमारी शिक्षा पद्धति ने किसी विद्यार्थी में इतना साहस भी नहीं भरा कि वह हाथ उठाकर उच्च स्वर में कह सके कि आज तो विद्या प्राप्ति का पर्व है, मैं काला क्यों पहनूं। विद्या की देवी सरस्वती तो शुभ्रवसना हैं, काले कपड़ों का कोई औचित्य तो बताइए। महाकवि जयशंकर प्रसाद के शब्दों में यह कह सकते हैं- अन्धकार में दौड़ लग रही, मतवाला यह सब समाज है । 

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    चिकित्सा कालेजों और विश्वविद्यालयों में हमने शरीर चिकित्सा के डाक्टर तो बना दिए, विभिन्न विषयों में एम.ए., पीएचडी की डिग्रियां भी दे दीं, पर यह नहीं बताया कि भारत की रीढ़ तोड़ने का जो संकल्प मैकाले ने लिया था, उसका इलाज भी हमें ही करना है। सच तो यह है कि देश की शिक्षण संस्थाओं को एक "एंटी मैकालेवाद औषधि' या सर्जरी का पाठ पढ़ाना ही होगा, जो भारत की सन्तानों को स्वदेशी का गौरव अनुभव करना सिखा सके। दुनिया को दुनिया की भाषा में जवाब देना हमें आता है, हम देते भी रहे हैं। स्वामी विवेकानन्द, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, शहीद भगतसिंह, ऊधमसिंह, मदनलाल ढींगरा और वीर सावरकर जैसे भारत पुत्रों ने बड़ी कुशलता से दुनिया को भारतीय उत्तर दिया था। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और उनके साथियों ने इन फिरंगियों को खूब पाठ पढ़ाया। पर जिस देश को अपनी भाषा में मॉं कहने में ही शर्म आ रही हो उसे क्या कहेंगे? हमारे कुछ नेता मुम्बई को बम्बई कहने पर भड़क उठते हैं। कोलकाता को कलकत्ता शहर कह दो तो लाल-पीले हो जाते हैं, पर जब तीन चौथाई से ज्यादा देश अपनी मॉं को "मम्मी' अथवा "मॉम' बना बैठा है, तब उन्हें गुस्सा क्यों नहीं आता, जब भारत माता को हम इण्डिया कहते हैं तो उनके खून की रवानी रुक जाती है? भाषा के नाम पर तनाव भड़काने वालों के बच्चे भी अधिकतर उस भाषा में शिक्षा ग्रहण नहीं करते, जिस भाषा के समर्थन में भाषण देकर वे लोगों को लड़वाते हैं। गाड़ी-बसें जलवा देना जिनके बाएं हाथ का काम है। 

    मैकाले मुस्कुराये क्यों न, जब हम ज्योति की पूजा करने वाले देश के लोग अपने बच्चों के जन्मदिन पर दीप जलाने के बजाय बुझाते हैं। दीप बुझाने के बाद खुशी में तालियां बजाते हैं। हजारों तरह की मिठाइयां बनाने वाले देश के लोग केक के मोहताज हो गए हैं। ऐसे में लगता है कि मैकाले कामयाब हो गया, हमारी रीढ़ी टूटी तो नहीं, पर बहुत कमजोर हो गई है। हम सूर्य के उपासक हैं। सूर्य की प्रथम किरण के साथ नए दिन का स्वागत करने वाले भारत के बहुत से लोग आधी रात के अंधेरे में अंग्रेजी ढंग से अंग्रजों के नववर्ष का स्वागत करते हैं और यही लोग अपने को "वी.आई.पी.' मानते हैं, धन सम्पन्न हैं और भारत को "इण्डिया' कहने वालें हैं। बेचारा गरीब आदमी कहीं-कहीं इनकी नकल कर लेता है। किसी महानगर का नाम बदलने और डण्डे के बल पर उसका प्रयोग करवाने वाले, नारी को देवी मानने वाले देश के ये मैकालेवादी तब दुखी नहीं होते, जब उन्हीं के कुछ महानगरों में नारी के लगभग नग्न शरीर को नचाया जाता है, उसके लिए करोड़ों रुपए खर्च कर दिए जाते हैं।

    भारतीय अस्मिता की किसी को परवाह ही नहीं है। इसी का प्रभाव हमारे दूरदर्शन और अन्य टीवी चैनलों में भी देखने को मिलता है। भारतीय दूरदर्शन का भी कमाल है। रात नौ बजे के समाचार अंग्रेजी में प्रसारित होते हैं। जब आधा हिन्दुस्थान रात्रि का भोजन ले चुका होता है, तब नौ बजे समाचार शुरू करते ही वाचक "गुड़ इवनिंग' कहता है, पर सवा नौ जब समाचार खत्म होते हैं तो इन्हें शायद मजबूरी में "गुड नाइट' कहना पड़ता है। आखिर किस कारण 15 मिनट बाद ही "ईवनिंग' "नाईट' हो जाती है, यह दूरदर्शन वाले भी नहीं बता सकते। जो देश अपने दूरदर्शन पर वन्देमातरम्‌ का गीत हर रोज नहीं गा-दिखा सकता, जिस देश के करोड़ों विद्यार्थियों को वह गीत याद नहीं जिस गीत के बल पर बंग-भंग आन्दोलन लड़ा गया और असंख्य देशभक्तों ने फांसी के फन्दे को हंसते-हसंते गले में डाल लिया, अंग्रेजों की अमानवीय यातनाएं सहीं, उस देश की हालत पर मैकाले तो मुस्कुराएगा ही।

    मैं न निराश हूँ, न हताश। यह सन्तोष का विषय है कि आज भी भारत के स्वाभिमान को जगाने के लिए, स्वदेशी को अपनाने के लिए अनेक साधक साधना कर रहे हैं। अब मैकाले नहीं, भारत मॉं मुस्कुराएगी। अगर कहीं कमी है, तो इस देश के राजनेताओं में है। जब भारत का प्रधानमन्त्री अपने पद की शपथ भी मैकाले की भाषा में लेता है, उस समय देश को दर्द होता है। जब इनके दीक्षान्त भाषण नई पीढ़ी के विद्यार्थियों को जबरन पिलाए जाते हैं तब नई पीढ़ी को निराशा होती है। मुझे इन दीक्षान्त समारोहों में मैकाले के मुस्कुराने का एक कारण मिला, पर मुझे पूरा विश्वास है कि जब भारत मुस्कुराएगा तो मैकाले मुरझा जाएगा। भारत की मुस्कान के लिए हम सबको काम करना है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता, स्वदेश और स्वदेशी के भाव को प्रखर करना होगा और फिर वही गीत गाना होगा- 

    जननी जन्मभूमि स्वर्ग से महान है,
    इसे वास्ते ये तन है, मन है और प्राण है।

    और याद भारतेन्दु को भी करना होगा, जिन्होंने कहा था-

    अपनी भाषा है भली, भलो अपनो देश,
    जो कुछ है अपनो भलो, यही राष्ट्र सन्देश। - लक्ष्मीकान्ता चावला

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    Our education system did not even inspire any student so much that he could raise his hand and say in a loud voice that today is the festival of learning, why should I wear black. Saraswati, the goddess of learning, is auspicious, tell me some reason for black clothes. In the words of Mahakavi Jaishankar Prasad, it can say- Running in darkness, it is all society. 

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  • युवा-मञ्च

    राष्ट्र निर्माण में युवा वर्ग की भूमिका

    हमारा देश अभी भी अशिक्षा, गरीबी, पिछड़ेपन एवं सामाजिक अन्याय से पीड़ित है। विश्व शान्ति एवं सांस्कृतिक सद्‌भाव का प्रेरक देश आज आतंकवाद एवं उग्रवाद के विस्फोटों से ग्रस्त है। जातीय और साम्प्रदायिक हिंसा हमारे देश के लिए खतरा बनी हुई है। समूचा राष्ट्र भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है। पूरा समाज आज नेतृत्व-विहीन है। राजनीति भ्रष्टाचार एवं अपराध का पर्याय बन गयी है। लोकतन्त्र की व्यवस्था उपहास मात्र बनती जा रही है। राष्ट्र निर्माण का लक्ष्य एक अंधेरी गली में खो गया है। राष्ट्रव्यापी असंतोष, अव्यवस्था आज देश की बुरी स्थिति को प्रकट कर रही है। ऐसी विषम परिस्थितियों से जूझने की सामर्थ्य किसमें है? उलटे प्रवाह को उलटकर सीधा करने का साहस कौन कर सकता है? इन सभी प्रश्नों के उत्तर में हम युवा शक्ति का आह्वान करते हैं। सभी इस बारे में एकमत हैं कि युवाओं में प्रचण्ड ऊर्जा है, भले ही आज वह दिशाहीन होकर बिखर रही है। हमें इस युवाशक्ति को उचित दिशा की ओर प्रेरित करना चाहिए, जिससे हमारे राष्ट्र का निर्माण सफलतापूर्वक हो सके और हमारा भारत प्राचीन गौरव को पुनः प्राप्त कर सके।

    Ved Katha Pravachan -11 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    अपनी मनोभावनाओें को मनुष्य अपने सामने वालों पर थोप देता है और उन्हें वैसा ही समझता है जैसा कि वह स्वयं है। संसार एक लम्बा-चौड़ा बिल्लौरी कॉंच का चमकदार दर्पण हैइसमें अपना चेहरा हुबहू दिखाई पड़ता है। जो व्यक्ति जैसा हैउसके लिए सृष्टि में वैसे ही तत्व निकलकर आगे आ जाते हैं। सतयुगी आत्माएँ हर युग में रहती हैं और उनके पास सदैव सतयुग बरसता रहता है। आशावादी व्यक्ति कठिन और असम्भव से प्रतीत होने वाले कार्यों में जहॉं सफलता प्राप्त कर लेता हैवहीं निराशावादी मनोवृत्ति वाला व्यक्ति साधारण-सी समस्या और कठिनाइयों को भी पार नहीं कर पाता है।

    सदैव राष्ट्रीय गौरव की सुरक्षा के लिए युवाओं ने ही अपने कदम बढाये हैं। संकट चाहे सीमाओं पर हो अथवा सामाजिक एवं राजनैतिकइसके निवारण के लिए अपने देश के युवक-युवतियों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। आवश्यकता यही है कि अपने हृदय में समाज की कसक उत्पन्न करें और अपनी बिखरी शक्तियों को एकत्रित करके समाज की विभिन्न समस्याओं को सुलझाने में लगायें। देश की प्रगति ही अपनी प्रगति और उन्नति है। इस श्रेष्ठ विचार के आधार पर ही युवाशक्ति राष्ट्रशक्ति बनकर राष्ट्र को समृद्धिउन्नति व प्रगति के मार्ग पर ले जा सकती है।

    किसी देश का विकास भीड के सहारे नहींबल्कि मूर्धन्य प्रतिभाओं के सहारे होता है। आज बड़े दुःख की बात है कि अधिक धन एवं सुख-सुविधा के लोभ में देश की युवा प्रतिभाएँ विदेशों में अपना रैन-बसेरा बनाने के लिए आतुर हैं। किसी भी देश के नवनिर्माण में ज्ञान एवं युवाशक्ति का योगदान सदा ही रहा है। परन्तु किसी भी काल में यह इतना महत्वपूर्ण नहीं रहा होगाजितना कि आज के इस वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकी के युग में है। इन क्षणों में प्रत्येक युवा को जो महान्‌ पाठ सीखना हैवह है परिश्रमत्याग और प्रत्येक व्यक्ति को सबके हित में कार्य करने का पाठ।

    सबके जीवन में अनुकूलता और प्रतिकूलता समान रूप में नहीं आतीकिसी के जीवन में कम और किसी के जीवन में ज्यादा। परन्तु इन परिस्थितियों का सर्वथा अपवाद कोई नहीं हो सकता यह एक सच्चाई हैजिसे हर व्यक्ति को स्वीकार करना ही पड़ता है। इसीलिए इन परिस्थितियों से घबराना कायरता है। हमें इन प्रतिकूल परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करना चाहिए। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जो भावनात्मक स्तर पर अपना संतुलन बनाये रखता हैवह बाह्य कारणों से प्रभावित नहीं होता है। इसीलिए हमें शरीर को आरंभ से ही प्रतिकूलताओं को सहन करने हेतु सक्षम बनाना चाहिए।     

    स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि प्रत्येक व्यक्ति की भॉंति प्रत्येक राष्ट्र का भी एक विशेष जीवनोद्देश्य होता है। वही उसके जीवन का केन्द्र होता हैउसके जीवन का प्रधान स्तर हैजिसके साथ अन्य सब स्वर मिलकर समरसता उत्पन्न करते हैं। भारतवर्ष में धार्मिक जीवन ही राष्ट्रीय जीवन का केन्द्र है और वही जीवन रूपी संगीत का प्रधान स्वर है। यदि कोई राष्ट्र अपनी स्वाभाविक जीवनी शक्ति को दूर फेंक देने की चेष्टा करेउससे विमुख हो जाने का प्रयत्न करे और यदि वह अपने इस कार्य में सफल हो जायतो वह राष्ट्र मृत हो जाता है। अतः अपनी प्रत्येक क्रिया का केन्द्र धर्म नैतिकता-सदाचार को ही बनाना होगा। युवाओं में किसी प्रकार का सुधार या उन्नति की चेष्टा करने के पहले धर्म प्रचार आवश्यक है। संसार को समाजवादी अथवा राजनैतिक विचारों से भरने से पहले आवश्यक है कि उसमें आध्यात्मिक विचारों की बाढ़ ला दी जाय। पहले यही धर्म-प्रचार आवश्यक है। धर्म-प्रचार करने के बाद उसके साथ ही साथ लौकिक विद्या और अन्यान्य आवश्यक विद्याएँ अपने आप ही आ जायेंगी। मनुष्य केवल मनुष्य भर ही होना चाहिए। बाकी सब कुछ अपने आप ही हो जायेगा। अब अपने पैरों पर खड़े हो जाओ और मर्द बनो। हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता हैजिससे हम मनुष्य बन सकें। हम निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि इन हृदयवान्‌ उत्साही युवकों के भीतर से ही सैकड़ों वीर उठेंगेजो हमारे पूर्वजों द्वारा प्रचारित सनातन आध्यात्मिक सत्यों का प्रचार करने और शिक्षा देने के लिए संसार के एक छोर से दूसरे छोर तक भ्रमण करेंगे। आज युवकों के सामने यही महान्‌ कर्त्तव्य है। अतएव एक बार फिर हमारे देश के युवकों के "उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत' का अनुसरण करना चाहिए। - गौरीशंकर शर्मा(नवोत्थान लेखासेवा हिन्दुस्थान समाचार)

     

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    Man imposes his feelings on those in front of him and considers them as he himself is. The world is a luminous mirror of a long, wide bellow conch, in which its face is seen accurately. For a person who is like him, similar elements come out in the creation. Satyuga souls live in every age and they always have the golden age. Where an optimistic person achieves success in difficult and seemingly impossible tasks, a person with pessimistic attitude is not able to overcome even the simple problems and difficulties.

     

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  • राष्ट्रवादी महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज का आन्दोलन

    जनवरी सन्‌ 1873 को महर्षि दयानन्द सरस्वती ब्रिटिशों की राजधानी में पहुँचने से पूर्व ही विभिन्न स्थानों पर वैदिक धर्म के सिद्धान्तों और भावनाओं का प्रचार करते हुए कलकत्ता पहुंचे।

    अंग्रेजी राज्य महर्षि दयानन्द की लोकप्रियता और उनकी प्रसिद्धि से भली प्रकार परिचित हो चुका था। साथ ही उन्हें इस बात का भी पता हो चुका था कि महर्षि जहॉं कहीं भी पहुँचते हैं उन पर आस्था रखने वाले सहस्त्रों की संख्या में नर-नारी उपस्थित होकर उनके विचारों से लाभान्वित होते हैं।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    धर्म एवं सम्प्रदाय में अन्तर
    Ved Katha Pravachan -4 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती जब कलकत्ता पहुँचे तो तत्कालीन भारत के वायसराय लार्ड नार्थब्रुक ने उनसे भेंट करने की अपनी आकांक्षा प्रकट की। श्री स्वामी जी ने उनकी इस प्रार्थना को स्वीकृत कर लिया। निश्चित तारीख पर वायसराय महोदय संस्कृत और अंग्रेजी के विशिष्ट अनुवादकर्त्ता के साथ स्वामी जी के पास पहुँचे।

    औपचारिक शिष्टाचार और कुशल क्षेम के उपरान्त वायसराय बहादुर ने कहा कि- "मुझे ज्ञात हुआ है कि आप अन्य सम्प्रदायों के सिद्धान्तों और उनके विश्वास की कड़ी आलोचना करते हैं। इससे उनको मानसिक कष्ट होता है। इसके कारण वे आपके शत्रु भी हो सकते हैं। यदि आप आज्ञा करें तो आपकी सुरक्षा का प्रबन्ध किया जाए।" इस पर महर्षि ने कहा कि "अंग्रेजी राज्य में मुझे कोई कष्ट और पीड़ा नहीं। मुझको अपने विचारों की अभिव्यक्ति में पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त है। मैं किसी का शत्रु नहीं हूँ। प्रत्येक सम्प्रदाय में व्याप्त बुराई को हटाना मेरा कर्त्तव्य है।"

    लार्ड नार्थ ब्रुक ने श्री स्वामी दयानन्द जी सरस्वती से कहा कि "हमारे राज्य में आपको यदि कोई कष्ट नहीं है तो इस राज्य के भारत में बने रहने के लिए ईश्वर से प्रतिदिन प्रार्थना करें तो उचित होगा।" लार्ड महोदय की इस बात को सुनकर श्री स्वामी जी ने दर्शाया कि आपकी इस बात को मैं कदापि स्वीकार नहीं कर सकता। कारण कि मेरा यह विश्वास है कि मेरे देश की जनता को संसार के अन्य देशों में प्रतिष्ठापूर्ण स्थान प्राप्त करने के लिए शीघ्र स्वतन्त्रता प्राप्त कर लेना आवश्यक है। मैं प्रतिदिन परमेश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि जिस प्रकार भी हो सके शीघ्र विदेशी राज्य की दासता से मेरा देश मुक्त हो जाए। स्वामी जी के इन विचारों को सुनकर वायसराय महोदय का मुख कान्तिहीन हो गया और विद्रोही संन्यासी की इस विद्रोहात्मक भावना को स्पष्ट शब्दों में सुन कर वायसराय महोदय ने गुप्त रूप से ब्रिटिश राज्य को सूचना दी कि "आर्यसमाज का आन्दोलन" जिस विद्रोही संन्यासी ने आरम्भ किया है इससे राज्य को खतरा है और इस पर विशेष रूप से दृष्टि रखनी भी आवश्यक है। भविष्य में यह आन्दोलन राज्य को क्षति पहुँचा सकता है।

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    महर्षि दयानन्द का विचार था कि साम्राज्यवादी सरकार को जहॉं समाप्त करना आवश्यक हैउससे कहीं अधिक आवश्यकता है कि राष्ट्रीयता की भावना का देशवासियों में प्रचार किया जाये। स्वामी जी ने अपनी विश्वविख्यात क्रान्तिकारी पुस्तक सत्यार्थप्रकाश में लिखा है कि "देश में अखण्डस्वतन्त्रनिर्भय चक्रवर्ती राज्य की स्थापना हो।" फिरंगी राज्य स्थापित हो जाने के बाद स्वामी दयानन्द ही ऐसे क्रान्ति के अग्रदूत रहे हैं कि जिन्होंने देशवासियों के हृदय में स्वाधीनता और देश प्रेम की ज्योति जागृत की थी।

    कहा जाता है कि भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना और उसे सुद्दढ बनाने की दृष्टि से जिस गौरव के साथ "लार्ड क्लाइव" का नाम लिया जाता है उसी प्रकार देश की जनता में देश प्रेम और स्वराज्य की स्थापना की स्वाभाविक भावना को जागृत करके देश भर के बुद्धिवादी वर्ग को सचेत करने का यश स्वामी दयानन्द सरस्वती  को ही है। आप ने जो जनता के हृदय में स्वतन्त्रता की अग्नि प्रदीप्त की थीउसी का ही परिणाम था कि आगे चलकर दीर्घकाल के बाद महात्मा गांधी और स्वतन्त्रता के पुजारियों के महान्‌ बलिदानों और प्रयत्नों से सन्‌ 1947 में अंग्रेजी राज्य का सूर्य जो पश्चिम से उदय हुआ था भारत भूमि के पश्चिम में सदैव के लिए अस्त हो गया।

    महर्षि इस बात को भली प्रकार से जानते थे कि अपने देश में स्वराज्य और विदेशी राज्य के होने का क्या उद्देश्य हैस्वामी जी का उद्देश्य कोरा कर्मकाण्डी सम्प्रदाय-स्थापित करना नहीं था। वह राज्य धर्म के सच्चे संस्थापक थे। देश और आर्यावर्त्त की सभ्यता व संस्कृति से आपको कितना प्रेम थाइसका एक उदाहरण यहॉं प्रस्तुत किया जाता है।

    घटना इस प्रकार है कि एक बार एक अंग्रेज अधिकारी ने महर्षि से कहा कि "भारत में हमारे राज्य के होने से आपको प्रसन्न होना चाहिए। कारण कि इस देश को उन्नति के मार्ग पर हमने लगाया है। यदि हम यहॉं न आते तो शायद ही हिन्दुस्थान खुशहाल हो पाता।" इस पर महर्षि ने कहा था कि "यह आपकी धारणा भ्रान्तिपूर्ण है। आप जिसको उन्नति और प्रगति मानते हैं वह धोखा और भ्रम है। अन्यों को दास बनाए रखने वाले धर्मभ्रष्ट लोगों ने क्या कभी किसी देशजाति और राष्ट्र का हित किया हैमुझे नहीं जान पड़ता।"

    महर्षि की इस यथार्थ बात को सुनकर अंग्रेज अधिकारी के नेत्र क्रोध से लाल हो गए और कांपते होठों से कहा कि "धर्मभ्रष्ट से आपका क्या अभिप्राय है?" स्वामी जी ने उच्च स्वर में निर्भीकता से उत्तर दिया कि "अपने पास जो कुछ है उसको ही सब कुछ समझना और उसी पर निर्भर रहनादूसरों के देश पर छल-बल से अधिकार कर अपना लाभ उठाएवह धर्मभ्रष्ट है। इन बातों से जो मुक्त रहता हैवह धर्मात्मा है।"

    महर्षि न केवल धार्मिक-सामाजिक सुधारक और भारतीय सभ्यता और संस्कृति के पोषक व प्रचारक थेअपितु  वह राष्ट्रीयता के भी अग्रदूत थे। यदि महर्षि ने इन राष्ट्रीय विचारों को भारतीय जनता में जागृत न किया होता तो स्वतन्त्रता का प्राप्त कर लेना इतना सरल और सुगम न था।

    महर्षि के द्वारा स्थापित आर्यसमाज ने न केवल भारत में ही स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष किया और जनता को तैयार कियाअपितु दास बनाकर विदेशों को ले जाए जाने वाले भारतीयों के मन में भी स्वाभिमान व जागृति के भाव उत्पन्न किए। इसके परिणामस्वरूप ही अन्य देशों में बसने वाले भारतीयों ने शानदार ढंग से वहॉं के स्वाधीनता आन्दोलनों में अपना योग प्रदान किया। यह विश्वव्यापी सफलता आर्य समाज के आन्दोलन की विश्व को बहुत बड़ी देन है।

    आज की परिस्थिति में आर्यसमाजियों को आस्था के साथ संकल्प करना होगा कि समाज के भीतर प्रविष्ट सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध आवाज उठाकर समाज को दृढ और युवकों को वैचारिक और चरित्र की दृष्टि से श्रेष्ठ बनाकर प्राप्त स्वतन्त्रता को अक्षुण्ण बनाए रखें। - स्वामी सोमानन्द सरस्वती

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    When Shri Swami Dayanand Saraswati reached Calcutta, the then Viceroy of India Lord Northbrook expressed his desire to meet him. Shri Swami Ji accepted his prayer. On a certain date, the Viceroy reached Swamiji with a special translator of Sanskrit and English.

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  • रोग निवारण के घरेलू नुस्खे

    नीम्बू से रोग निवारण के घरेलू नुस्खे

    1. एक चम्मच नीम्बू का रस, एक चम्मच पिसी हुई अजवायन आधा कप गर्म पानी में डालकर सुबह-शाम पीना चाहिए।
    2. एक गिलास पानी में नीम्बू निचोड़कर चौथाई चम्मच सोड़ा मिलाकर नित्य पीयें।
    3. आधा गिलास गरम पानी में आधा नीम्बू निचोड़कर जरा सी पीसी हुई काली मिर्च की फंकी सुबह-शाम लें।

    Ved katha _15 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    4. एक चम्मच सौंठ तथा साबुत अजवायन 50 ग्राम नीम्बू के रस में भिगोकर छाया में सुखायें। भोजन के बाद इसकी एक चम्मच चबायें।
    5. नीम्बू काटकर इसकी फांकों में नमक तथा काली मिर्च भरकर गर्म करके चूसने से लाभ होता है। उपरोक्त सभी उपायों से वायु विकार में लाभ होता है।
    6. एक गिलास गर्म पानी में आधा नीम्बू निचोड़कर 4 बार नित्य कुल्ले करने या नित्य नीम्बू-पानी में स्वाद के लिये चीनी या नमक डालकर प्रातः भूखे पेट पीने व रात को सोते समय एक गिलास गर्म दूध में एक चम्मच घी डालकर पीने से दो-तीन महीने तक प्रयोग से छालों में लाभ होता है।
    7. नीम्बू के पेड़ से हरी पत्तियॉं तोड़कर चबाकर रस चूसने, तेज गर्म पानी में नीम्बू निचोड़कर घूंट-घूंट पानी पीने से हिचकी बन्द हो जाती है।
    8. नीम्बू, सौंठ, काली मिर्च, अदरक सब थोड़ी मात्रा में लेकर चटनी बनाकर चाटने, नीम्बू में नमक भरकर 4 बार चूसने, काला नमक तथा शहद और नीम्बू का रस मिलाकर चाटने से हिचकी बन्द हो जाती है।
    9. खट्टी डकार आने की स्थिति में गर्म पानी में नीम्बू निचोड़कर पीना चाहिए।
    10. 50 ग्राम पुदीने की चटनी पतले कपड़े में डालकर, निचोड़कर रस निकालकर आधा नीम्बू निचोड़ें।
    11. 2 चम्मच शहद और 2 चम्मच पानी मिलाकर पीने से पेट का दर्द जल्द बन्द हो जाता है।
    12. आधा कप पानी, 10 पिसी हुई काली मिर्च, एक चम्मच अदरक का रस, आधे नीम्बू का रस सब मिलाकर पीने से पेट दर्द ठीक होता है। स्वाद के लिये चीनी या शहद मिला सकते हैं।
    13. एक नीम्बू, काला नमक, काली मिर्च, चौथाई चम्मच सौंठ, आधा गिलास पानी में मिलाकर पीने से पेट दर्द ठीक होता है।
    14. अजवायन तथा सेंधा नमक को नीम्बू के रस में भिगोकर सुखा लें। पेट दर्द होने पर एक चम्मच चबाकर पानी पीएं। इस प्रकार जब तक दर्द रहे, हरेक घण्टे में सेवन करें और पेट पर सेक करें।

    शुद्ध शहद की पहचान कैसे करें

    1. शहद में अपनी साफ उंगली लगाकर नेत्रों में लगावें। यदि नेत्रों को लगता है, आंसू निकलते हैं तो शहद शुद्ध है।
    2. कुत्ते के आगे शहद में रोटी भिगोकर दें। यदि कुत्ता दूर से ही रोटी सूंघकर हट जाये तो शहद असली है।
    3. शहद में रूई की बत्ती भिगोकर जलावें। यदि घी की तरह जलने लगे तो शहद असली है।
    4. शहद को कागज पर रखें। कागज न गले तो शहद शुद्ध है।
    5. पान की दुकान से तरल चूना लेकर हथेली पर रखें। थोड़ी सी शहद की बून्द लेकर हल्के चूना में मिलावें हथेली जलने लगेगी ।
    6. कपड़े पर शहद की बून्द डाल दें तथा कपड़े को हल्का सा झाड़ दें। बून्द कपड़े से अलग गिर जायेगी, निशान नहीं बनेगा । इसके विपरीत परिणाम मिले तो भूलकर भी ऐसा शहद न खरीदें।एकता ओझा

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    सौंफ से पाचन-शक्ति बढ़ती है

    बहुत से लोग भोजन के बाद कभी-कभी सौंफ खाना पसन्द करते हैं। जो लोग कभी भी सौंफ नहीं खाते, वे भी होटल में भोजन करने के बाद पेमेण्ट काउण्टर पर रखी सौंफ को मुंह में डाल लिया करते हैं। रसोईघर में भी सौंफ का बहुत बोलबाला होता है। कुछ विशिष्ट सब्जियों को स्वादिष्ट और खुशबूदार बनाना सौंफ का महत्वपूर्ण गुण है। वैसे ज्यादातर लोग सौंफ को भोजन करने के बाद खाते हैं। स्वागत-सत्कार में भी सौंफ-सुपारी का प्रचलन है। सौंफ के कुछ प्रमुख गुण ये हैं -

    1. इसके खाने से पाचनशक्ति में आश्चर्यजनक वृद्धि होती है।
    2. सौंफ और धनिया को समान मात्रा में पीसकर डेढ़ गुना शुद्ध घी में मिला लें। इसमें स्वाद हेतु शक्कर भी मिला लें। इस मिश्रण का कुछ दिनों तक सुबह-शाम सेवन करें। इसके सेवन से शरीर के किसी भी भाग में होने वाली खुजली जड़ से मिट जाती है।
    3. कच्ची एवं भुनी हुई सौंफ खाने से दस्तों में तुरन्त फायदा होता है।
    4. नीम्बू के रस में पिसी हुई सौंफ का प्रयोग करने से भूख भी खुलकर लगती है एवं कब्ज की शिकायत भी मिटती है।
    5. निःसन्तान महिलाओं को नियमित रूप से दो- तीन माह तक सौंफ के चूर्ण का प्रयोग करना चाहिए। उन्हें सौंफ के एक चम्मच चूर्ण के साथ गाय का शुद्ध घी एक चम्मच मिलाकर सुबह-शाम लेना अत्यन्त गुणकारी है। इसके प्रयोग से पेट के विकार समाप्त होते हैं तथा गर्भ स्थापन की स्थिति बनती है।
    6. वायुगोला का दर्द पेट में होने पर सौंफ को चिलम में भरकर पीने से कुछ ही मिनटों में दर्द उड़न-छू हो जाता है । इसे तम्बाकू की तरह चिलम में भरकर पीते हैं।
    7. जो महिलायें गर्भावस्था में नारियल और सौंफ का प्रयोग करती हैं, उनकी सन्तान गौर वर्ण होती है।
    8. पाचन सम्बन्धित जो भी चूर्ण तैयार होते हैं। लगभग सभी चूर्णों में सौंफ जरूर डाली जाती है डॉ. ऋषिमोहन श्रीवास्तव

    पुदीना के प्रयोग

    1. गर्मी के कारण उत्पन्न फुंसियों पर पुदीने का रस बहुत राहत देता है।
    2. ताजा हरा पुदीना पीसकर चेहरे पर बीस मिनट तक लगा लें। फिर ठण्डे पानी से चेहरा धो लें। इससे आपको गर्मी से राहत मिल जाएगी और आप तरोताजा महसूस करेंगे।
    3. पुदीने के पत्तों को पीसकर शहद के साथ मिलाकर तीन बार चाटने से अतिसार (दस्त) से राहत मिलती है।
    4. गर्मी के समय प्रतिदिन भोजन के साथ पुदीने की चटनी अवश्य खाएं।
    5. गन्ने के रस में पुदीने का थोड़ा सा रस भी मिलाकर लिया जा सकता है।

     

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    Grind equal quantity of fennel and coriander and mix it in one and a half times pure ghee. Add sugar to taste as well. Drink this mixture twice a day for a few days. Due to its use, itching in any part of the body disappears from the root.

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  • विचार शक्ति का महत्व

    विचार शक्ति का मनुष्य जीवन में एक विशिष्ट स्थान है।  इसका प्रभाव जीवन में भिन्न-भिन्न प्रकार से असन्दिग्ध रूप में होता ही रहता है। यह एक महान्‌ शक्ति है, जो प्रत्येक मानव के अन्तर में निहित है। बुद्धि अथवा परिस्थितियों द्वारा जब उसका विकास हो जाता है, तब उससे निसन्देह कभी-कभी आश्चर्यजनक कार्य भी होते देखे गये हैं। परमात्मा की दी हुई इस शक्ति का लाभ प्रत्येक नर-नारी को अवश्य उठाना चाहिये, अन्यथा वह परम उपादेय शक्ति प्रयोगविहीन रहकर कुण्ठित हो जाती है और हम उसके सभी सम्भव लाभों से वंचित रह जाते हैं।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए-
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    दुःख निवारण के उपाय

    Ved Katha Pravachan _67 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    यह सम्पूर्ण जगत ही विचार (संकल्प) शक्ति का परिणाम है। यह प्रकृति तो जड़ होने के कारण स्वयं गति शून्य हैपरन्तु परमात्मा में जगदोत्पत्ति का विचार आते ही प्रकृति में गति उत्पन्न हो जाती है और प्राकृतिक नियम के अनुसार क्रमशः जगत्‌ की उत्पत्ति हो जाती है। यह इतना अतुलितमहान्‌ अपरिमित एक अद्वितीय कार्य केवल विचार (संकल्प) के बल पर ही हो जाता है। इसी कारण इस विचार शक्ति का इतना व्यापक महत्व है। मनुष्य जैसे विचार करता है वैसा ही बन जाया करता है। यदि किसी व्यक्ति के विचार अच्छे हैंजो केवल सत्संगउपासना और उत्तम साहित्य के अध्ययन से ही हो सकते हैंतो वह अच्छा बन जाता है और यदि बुरे हैं जो कुसंगति और कुसंस्कारों का परिणाम होते हैंतो वह बुरा बन जाता है। मनुष्य को सुख और दुःख का जो भान होता हैवह भी इन्हीं विचारों का परिणाम है।

    इन विचारों का उद्‌गम स्थान हृदय है और मन के द्वारा उनका व्यापार होता है। जितनी कामनाएँ हैं सभी का कारण विचार ही हैं। मनुष्य पहले मन में विचार करता हैपुनः उसे वाणी अथवा लेख द्वारा प्रकाशित करता हैफिर फल विधि के विधानानुकूल उसे मिल जाता है। इससे स्पष्ट है कि सभी कर्मों का प्रथम अथवा मूल कारण विचार ही है। स्वामी विवेकानन्द ने अपनी पुस्तक "राजयोगमें एक स्थान पर लिखा है, "मनुष्य के हृदय से निकला हुआ प्रत्येक घृणा अथवा प्रेम का विचार बलपूर्वक उसी उसी के पास लौट आया करता हैकोई शक्ति उसे रोक नहीं सकती। अर्थात्‌ घृणा से घृणा और प्रेम से प्रेम की उत्पत्ति होती है।

    मनुष्य बूढ़ा क्यों होता हैविशेषतः अपने विचारों के कारण। जैसे-जैसे वह बुढ़ापे की बातें सोचता जाता हैवैसा ही वह होता जाता है। अमेरिका का एक प्रसिद्ध लेखक बैनट इसका ज्वलन्त उदाहरण है। उसने अपनी 50 वर्ष तक की आयु का उसका एक फोटो उसकी प्रसिद्ध पुस्तक"Old age, its cause and prevention'' में है। फोटो के देखने से यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि वह लगभग 70 वर्ष के बुड्‌ढ़े का चित्र है। बाल सफेदगले में झुर्रियॉंमाथे में सिकुड़न और सम्पूर्ण शरीर की त्वचा मांस रहित। 50 वर्ष की आयु के पश्चात्‌ उसने अपना स्वास्थ्य सुधार प्रारम्भ किया। उसने केवल दो बातों को अपनाया (1) समस्त शरीर के हलके व्यायाम, (2) अपने विचारों को उपयोगी और शक्तिशाली बनाना। इन्हीं दोनों बातों का अभ्यास उसने निरन्तर 20 वर्ष तक किया। 70 वर्ष की आयु का एक दूसरा चित्र उसी पुस्तक में हैजिससे प्रकट होता है कि वह चित्र किसी पैतींस-छत्तीस वर्ष के युवक का है। इस आयु में उसके शरीर में बुढ़ापे के सभी चिन्ह अदृष्ट हो गए थे।

    उसी पुस्तक में एक दूसरा उदाहरण उसने फ्रांस की एक लड़की का दिया है। उस लड़की ने 19 वर्ष की आयु में अपना विवाह वहीं के एक नवयुवक के साथ करने का निश्चय किया। नवयुवक ने अपनी निर्धनता के विचार से लड़की से कहा कि विवाह तो निश्चित हैपरन्तु विवाह से पूर्व मैं कुछ धन संग्रह कर लूं। लड़की ने उसे स्वीकार कर लिया। वह धन उपार्जन करने के लिये अमेरिका चला गया। उस युवक ने तीन वर्ष में अपने अथक परिश्रम से पर्याप्त धन अर्जित कर लिया। परन्तु किसी झगड़े में उसे 15 वर्ष अमेरिका में और रुकना पड़ा। 18 वर्ष पश्चात्‌ जब वह फ्रांस लौटातब उन दोनों का विवाह हुआ। परन्तु आश्चर्य की बात जो उसने देखी वह यह थी कि 37 वर्ष की आयु में भी उस लड़की के मुख की आकृति ठीक वैसी ही थीजैसी वह 19 वर्ष की आयु में अमेरिका जाते हुए छोड़ गया था। उसका रहस्य पूछने पर युवती ने कहा, "मैंने निश्चय किया था कि 19 वर्ष की आयु में विवाह करूँगी। परन्तु जब वह न हो सकातो उसने दूसरा निश्चय किया कि विवाह जब भी होगा मैं उस समय तक अपने मुख का आकार-प्रकार वैसा ही बनाये रखूंगी जैसा 19 वर्ष की आयु में था।'' इस निश्चय की पूर्ति के लिए उसने अपने एक कमरे में मनुष्य की ऊँचाई का एक दर्पण बनवाया जिसमें देखकर उसने अपने मुख की आकृति मन में अंकित कर ली। अब वह जब भी दिन में इस कमरे से होकर जाती तो एक मिनट के लिये उस दर्पण के सम्मुख खड़ी होकर देख लिया करती कि उसके मुख की आकृति में कोई अन्तर तो नहीं आया है। निरन्तर 18 वर्ष तक यह क्रम चलता रहा और उसके सशक्त विचारों का यह प्रभाव हुआ कि उसके मुख की आकृति में कोई अन्तर नहीं आने पाया। यह है विचार का महत्व।

    इस विचार शक्ति का उपयोग जीवन में मनुष्य अनेकों स्थान पर यदि चाहे तो सफलतापूर्वक कर सकता है। विचार प्रकृति के नियम के अनुसार अपने ही समान विचारों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। विचारोें के द्वारा हम सदैव अपने विचारोें के समान ही शक्ति और विचार दृश्य और अदृश्य जगत्‌ में से अपनी ओर आकर्षित करते रहते हैं। हम उसे जानें अथवा न जानेंउसकी इच्छा करें अथवा न करेंपरन्तु यह सिद्धान्त अपना कार्य करता ही रहता  है। अंग्रेजी में भी इस सम्बन्ध में एक कहावत है'Like attracts live'' अर्थात्‌ जैसे को तैसा सदैव आकर्षित करता ही रहता है। शराबी शराबी कोजुआरी जुआरी कोचोर चोर कोगायक गायक कोसत्संगी सत्संगी को इत्यादि। हम विचारों के सागर में तो निवास ही करते हैंजहॉं से हमारे विचार बाहर जाते और बाहर से विचार हमारे पास आते रहते हैं। इस अदृश्य धारा का प्रवाह निरन्तर होता ही रहता है। जिस प्रकार हमारी श्वास और नाड़ी सदैव चलती रहती हैपरन्तु हम उस ओर कभी ध्यान नहीं देतेठीक उसी प्रकार विचारों का आदान-प्रदान भी सदैव अज्ञात रूप में होता ही रहता हैपरन्तु हम उधर ध्यान बहुत ही कम देते हैं। 

    विचारों से ही कर्म की उत्पत्ति होती है। बिना विचारों के कोई कर्म नहीं बनता। विचार ही कर्मों की जननी है। यह निर्विवाद तथ्य है कि शुभ विचारों से शुभ कर्म ही बनेंगे और विचार जितने ही प्रबल होंगेकर्म उतना ही अधिक साध्य और सफल होगा। मनुष्य जितने सूक्ष्म विचार तरंगों को ग्रहण करने योग्य होता है उतना ही प्रभाव विचारों का उस पर होता है। निर्बल मन वाले मनुष्य पर बाहर के विचारों का अधिक और शीघ्र प्रभाव होता है। वह विचारों के अधीन शीघ्र ही हो जाता है। सुदृढ़ मन वाले मनुष्य किस विचार को मन आने देना और किसको न आने देनाऐसा ध्यान में रखकर ही उन्हें ग्रहण करते हैं। विचारों का प्रभाव मनुष्य पर होता ही है। मनुष्य जैसे विचारों की संगति में रहता है और जैसा साहित्य पढ़ता हैउसके विचारों की प्रबलता से दुसाध्य कार्य भी सुसाध्य देखे गये हैं। - आचार्य डॉ. संजयदेव

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    This whole world is the result of thought (sankalpa) power. Due to this nature being inertial, the speed itself is zero, but as soon as the idea of ​​worldliness comes in the divine, motion arises in the nature and according to the natural law, respectively, the world is born. This unique work, so incomparable, is done only on the strength of thought (sankalpa). This is why this power of thought is so widespread. Man becomes like what he thinks.

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  • वीर सावरकरः जीत और हार का एक मूल्यांकन

    स्वातन्त्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर हिन्दुस्तानी इतिहास के वे नायक हैं, जो स्वतन्त्रता संग्राम की लड़ाई में सबसे पहले आए और सबसे बाद में गए। यह लड़ाई जिन-जिन रास्तों से आगे बढ़ी, सावरकर जी उन सबमें आगे थे। हिन्दू के ठण्डे खून को गर्म करने के लिये उन्होंने हथियारों का सहारा लिया, जर्जरित समाज को आधुनिक बनाने के लिये उसे वैज्ञानिक दिशा दी, रूढियों से मुक्त करने के लिये अछूतोद्धार का अभियान चलाया, साहित्य एवं पत्रकारिता को आधार बनाकर जन जागृति की लहर पैदा की और इन सबसे बढ़कर हिन्दुओं को हिन्दुत्व के दर्शन कराके उन्हें जीने की शिक्षा दी और यह कहना सिखलाया कि "गर्व से कहो हम हिन्दू हैं।' 

    Ved Katha Pravachan _75 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    जो इन्सान सिपाही हो, समाज सुधारक हो, दार्शनिक हो, साहित्यकार हो, पत्रकार हो, राष्ट्रभक्त हो और भरपूर रूप से हिन्दू हो, इतने सारे गुण धराने वाले व्यक्ति का मूल्यांकन कठिन ही नहीं असम्भव लगता है। वे जीवन में जीते या हारे, इसका नतीजा निकाल पाना बड़ा कठिन है। जिस इन्सान ने जीवनभर दिया ही दिया हो, उसका नाप तोल भौतिक आधार पर भला कैसे हो सकता है? ऐसे व्यक्ति को इतिहास विजयी ही नहीं "दिग्विजयी' की संज्ञा देता है। 

    हार और जीत की कसौटी यदि किसी व्यक्ति की सफलता और असफलताओं पर आंकी जाए, तो संभवतः फिर इतिहास की धारा को मोड़ना होगा, घड़ी की सुइयों को उल्टा घुमाना होगा। द्वितीय महायुद्ध में इंग्लैण्ड को विजय दिलाने वाले चर्चिल आम चुनाव में हार गए और उनका दल सरकार नहीं बना सका, तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि चर्चिल असफल रहे। सिकन्दर युद्ध के मैदान में अवश्य जीता, मगर इतिहास असली जीत तो पोरस की ही बतलाता है। सिकन्दर की आँख में आँख डालकर वीरता और राष्ट्रभक्ति से पोरस ने अपने देश की रक्षा की, उस हार पर आज भी इतिहास हजारों जीतों को न्यौछावर करता है।

    दस हाथ धरती के नीचे चली गई वे ईंटें धन्य हैं, जो नींव की ईंट बनती हैं। क्योंकि कलश और मीनार उसी पर तो खुली हवा में सांस लेते हैं। क्या उन अदृश्य ईंटों को हम व्यर्थ और बेकार की संज्ञा देंगे? स्वातन्त्र्य वीर सावरकर हिन्दुस्तान के स्वतन्त्रता संग्राम की वह नींव की ईंट है, जिस पर 1920 के पश्चात्‌ का भवन खड़ा हो सका, जिसके कन्धों पर चढ़कर कोई राष्ट्रपिता बना है और कोई लोकनायक कहलाया। यह ईंट धंस जाए तो सारा स्वतन्त्रता संग्राम का इतिहास ही धंस जाए, धूल धूसरित हो जाए। 

    सावरकर की चिरन्तन प्रासंगिता - भारतीय इतिहास में जितने प्रासंगिक सावरकर रहे और भविष्य में रहेंगे, संभवतः ऐसा नायक ढूंढ पाना कठिन है। यदि हथियारों के दम-खम पर क्षत्रिय बनकर सावरकर ने अंग्रेजों को नहीं ललकारा होता, तो फिर इतिहास भगतसिंह को पैदा नहीं करता और आगे चलकर इस देश में "आजाद हिन्द फौज' की स्थापना नहीं होती। खून देकर आजादी लेने की जिसने आकांक्षा की उन सबके प्रणेता सावरकर रहे।

    लार्ड एटली के अनुसार ब्रिटिशों को भारत छोड़ने की मजबूरी इसलिये है कि अब हिन्दुस्तान की फौज उनकी अपनी नहीं रही। बिना फौज के सात समन्दर पार से भारत पर राज करना आसान नहीं है और न ही हमारे पास इतनी विशाल सेना है कि उसे भारत की धरती पर भेजकर अपना साम्राज्य कायम रख सकें। अंग्रेजों को इस स्थिति में किसने पहुँचाया और भारतीय सिपाहियों के मन में आजादी की ललक किसने पैदा की? अपनी भूमि की खातिर परायों से विद्रोह करने की प्रेरणा किसने दी? इन सबके पीछे सावरकर छुपे हुए हैं। उनकी अदृश्य प्रतिभा, आग उगलने वाली लेखनी और अंगारे बरसाने वाले भाषणों ने उस वर्ग को पैदा किया, जो मैदान में उतरकर हार-जीत का फैसला कर लेना चाहते थे।

    भविष्य में देश की सुरक्षा के प्रति कितनी चाहत कि जब काले पानी की सजा भोगने के लिये अण्डमान पर पहुंचते हैं, तो उसे देखकर गदगद हो उठते हैं और कहते हैं कि भारतीय नौसेना के लिये यह टापू अभेद्य किला बनेगा जो पूर्व से आने वाले दुश्मन के लिये चुनौती होगा। सैनिक द्रष्टा के रूप में सावरकर के विचार कितने यथार्थवादी थे, इसका पता आज लगता है कि जब हमारी नौसेना ने पूर्व की रक्षा के लिए अण्डमान टापू को आधार बनाया है। जो इन्सान भविष्य के हिन्दुस्तान की जीत की अण्डमान में आधारशिला रख रहा हो, भला वह योद्धा दुनिया का कोई भी युद्ध कैसे हार सकता है? 

    हारा हुआ इन्सान इतिहास की धारा नहीं मोड़ सकता। सावरकर तो इतिहास के निर्माता थे। आज तक अंग्रेज जिस हिन्दुस्तान आन्दोलन को "गदर' और विद्रोह कहकर राष्ट्रभक्तों का अपमान करते रहे, उन्हें समाज और इतिहास का खलनायक बतलाते रहे, सावरकर ने उस संघर्ष का नाम 'स्वतन्त्रता युद्ध' दिया और इस लड़ाई में अपना तन-मन-धन फूंक देने वालों को वीर, बहादुर, राष्ट्रभक्त और हीरों की संज्ञा से विभूषित किया। इस परिवर्तन से हिन्दुस्तानी जनता ने अपने स्वाभिमान को पहचाना। 

    सावरकर ने यह समस्त काम केवल कथनी के आधार पर नहीं किया, बल्कि उसे क्रियान्वित करने के लिये स्वयं सबसे पहले आगे आए। लड़ाई का मैदान अपने देश की भूमि को नहीं बनाया, अपितु उन अंग्रेजों के देश में जाकर अपनी स्वतन्त्रता की मशाल जलाई। ब्रिटिश साम्राज्य की आँख में आँख डालकर उन्हीं की धरती पर ललकारा। "इण्डिया हाउस' की गतिविधियों ने "बंकिघम' पैलेस की दीवारें हिला दी, टेम्ज नदी के पानी में तूफान उठ खड़ा हुआ। मदन ढींगरा की गोलियों से जब कर्जन वायली ढल पड़ा, तब उन्होंंने मौन भाषा में कहा कि यह अंग्रेज नहीं ढला है, बल्कि उसके साम्राज्य के ढलने की शुरूआत हो गई है। 

    सावरकर का यह जोश कभी बूढ़ा नहीं हुआ। मरते दम तक वे वीर सिपाही की तरह लड़ने को तत्पर रहे अण्डमान से छूटकर भारत आने पर अपने सम्मान में आयोजित किये गये स्वागत के अवसर पर मुम्बई में जो कुछ उन्होंने कहा और 1957 में दिल्ली में आयोजित स्वतन्त्रता संग्राम शताब्दी के अवसर पर व्यक्त की गई भावना इसके जीवित सबूत हैं। 

    एकमेव रास्ता 'हिन्दुत्व' - अपने ग्रन्थ "हिन्दुत्व' के लेखक के रूप में सावरकर जितने प्रासंगिक और व्यावहारिक उस समय थे, उतने ही आज भी हैं। 

    पाश्चात्य आधार लेकर आजादी के बाद से हमारा देश आगे बढ़ने का प्रयास कर रहा है। मगर न तो उसकी पंचवर्षीय योजना का लाभ जनता को मिल सका है और न ही विश्व में उसने वह स्थान प्राप्त कर लिया है जिसके जगद्‌गुरु होने का सपना महर्षि अरविन्द ने देखा था। इन सभी बातों से ऊबकर आज के बुद्धिजीवी और राजनैतिक इस नतीजे पर पहुंचे कि हिन्दुस्तान को सोेने की चिड़िया बनाने और विश्व में अध्यात्म का बोलबाला करवाने के लिये केवल हिन्दुत्व ही एकमात्र रास्ता है। इसलिये हम देख रहे हैं कि इन दिनों देश में "हिन्दू लहर', "हिन्दू आदर्श' और "हिन्दू वोट बैंक' की चर्चा है। 

    धर्मनिरपेक्षता (पन्थनिरपेक्षता कहें) जो कि हिन्दू के जीवन का अटूट तत्व रहा है, उसे जबरदस्ती राजनीति से जोड़कर जीवन जीने का सर्वोपरि लक्ष्य बना दिया गया। परिणामस्वरूप बहुमत के साथ जुड़ा हुआ हिन्दू आदर्श धुंधला पड़ गया और हमारी सोच का दायरा मानवी मूल्यों से निकलकर शुद्ध रूप से राजनैतिक बन गया। अल्पसंख्यकता के आधार पर की जाने वाली राजनीति ने कुछ दिनों के लिये कुछ लोगों को सत्ता का परवाना तो अवश्य दे दिया, मगर हिन्दू संस्कृति के शक्तिशाली प्रवाह से उसे हमेशा के लिये अलग-थलग कर दिया। 

    जब तक देश "हिन्दुत्व' में सांस लेता रहा, वह साधन सम्पन्न बना रहा। इस पथ से ज्यों ही उसके कदम डगमगाए, वह विदेशी साम्राज्य के पंजों में चला गया। सात सौ साल तक यह भटकाव जारी रहा। मगर फिर सन्तों ने हिन्दू आदर्श को भक्ति की वाणी दी। फलस्वरूप महाराष्ट्र में सन्तों की लम्बी श़ृंखला के पश्चात्‌ हिन्दवी साम्राज्य स्थापित करने वाले छत्रपति शिवाजी महाराज ने जन्म लिया। पंजाब में गुरुओं की सतत श़ृंखला के उपरान्त खालसा साम्राज्य की नींव पड़ी। बाद में हिन्दुत्व को मन्त्र बनाकर भारत में एक के बाद एक ऐसे मनीषी और समाज सुधारक जन्म लेते गए, जिन्होंने अपने प्रयासों से इस देश को न केवल रूढ़ियों से और खोखली परम्पराओं से मुक्त कराया, बल्कि उसे शैक्षणिक, राजनैतिक और आर्थिक एवं सामाजिक रूप से भी जागरूक बनाया, जिसमें स्वतन्त्रता आन्दोलन की लहर जन्मी और अन्ततः यह देश आजाद हुआ। आज जब उसे फिर से बनाने और नवनिर्माण करने की आवश्यकता है तो वह भी उसी हिन्दू दर्शन के आधार पर ही सम्भव है। 

    वर्षों पूर्व जब सावरकर ने इन विचारों का प्रचार-प्रसार किया था, तब उस द्रष्टा को साम्प्रदायिक और संकुचित होने की संज्ञा दी गई थी। मगर वातावरण में आज गूंज रही हिन्दुत्व की आवाजें इस बात का सबूत हैं कि देश की नाड़ी और धड़कन पर सही हाथ एकमात्र सावरकर का था। देश के असंख्य स्वतन्त्रता सेनानियों ने स्वतन्त्रता संग्राम की लड़ाई में कुछ मोर्चे जीते हैं, मगर सम्पूर्ण युद्ध तो एकमात्र सावरकर ने जीता है। इसलिए सावरकर अजेय हैं, अमिट हैं, और अमर हैं।  -मुजफ्फर हुसैन

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    This enthusiasm of Savarkar never got old. Till death, he was ready to fight like a brave soldier, what he said in Mumbai on the occasion of the reception organized in his honor after coming out of Andaman and coming to India and the sentiment expressed on the occasion of freedom struggle centenary organized in Delhi in 1957 There is living proof of this.

     

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  • वेद एवं वैदिक संस्कृति के पुनरुत्थान में महर्षि दयानन्द का योगदान

    वेद भारतीय संस्कृति अथवा आर्य संस्कृति के आधार ग्रन्थ हैं। भाषा विज्ञान की शब्दावली में वेद भारतीय परिवार (Indo-European Family) के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। समस्त उत्तरवैदिक साहित्य वेदों के व्याख्या ग्रन्थ हैं। ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, वेदांग, उपवेद, षड्‌दर्शन, सूत्रग्रन्थ, स्मृतियॉं तथा प्रातिशाख्य आदि सबका सम्बन्ध वेद से जोड़ा गया है। मनुस्मृति वेद को परम प्रमाण मनाती है तथा वेद से भूत, भविष्यत्‌, वर्तमान सब कुछ सिद्ध हो सकता है। कवि कुलगुरु कालिदास का कहना है कि यह वेदवाणी ओंकार से आरम्भ होती है तथा उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित तीन भेद से इसका उच्चारण होता है। विभिन्न भारतीय भाषाओं में भी अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। भारत में उद्‌भूत दर्शन एवं सम्प्रदाय या तो वैदिक कोटि में माने गए हैं या अवैदिक। वैसे प्रत्येक सम्प्रदाय अपने को वैदिक ठहराने का प्रयास करता है। वेद का इतना महत्व है कि इसके ज्ञान को नित्य माना गया है। इसकी शब्दानुपूर्वी (Word order) को भी नित्य माना गया। इसीलिए सम्भवत: वेदमन्त्रों की श्रुतिपरम्परा से जिस तरह रक्षा की गई, वैसी आज तक समस्त वैदिक, लौकिक संस्कृत अथवा भारतीय भाषा-साहित्य में किसी भी ग्रन्थ की रक्षा नहीं की गई। हजारों वर्षों से वेदमन्त्रों को कण्ठस्थ किया जाता रहा है और आज भी यह परम्परा अपने मूल में अक्षुण्ण है, यह वेदपाठियों का दावा है। उसका एक भी अक्षर इधर से उधर नहीं हुआ। विश्व के इतिहास में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता। इस परम्परा को अक्षुण्ण (ज्यों का त्यों) बनाए रखने के लिए ऋषियों ने अनेक उपाय किए। प्रत्येक मन्त्र में ऋषि, देवता, छन्द और स्वर का विधान किया गया। अष्ट विकृतियों अर्थात्‌ एक मन्त्र का आठ प्रकार से पाठ करने की प्रणाली चालू की गई और उनमें किसी-किसी पाठ के तो आगे 25 भेद हैं। फिर वेदमन्त्रों के अध्यात्म, अधिदैवत, अधिभूत से तीन-तीन अर्थ होते हैं। वेदार्थ के लिए व्याकरण का अध्ययन आवश्यक है, क्योंकि वेदमन्त्रों में सभी लिंगों एवं विभक्तियों का उल्लेख नहीं मिलता। निरुक्त के अनुसार वेदार्थ के लिए ऋषि, तपस्वी एवं विद्वान होना आवश्यक है। उसका राग और द्वेष तथा पक्षपात से रहित होना भी अपेक्षित है।

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    ऐसे गम्भीर और जटिल विषय का फल क्या है? महामुनि पतंजलि के शब्दों में वेद का एक शब्द भी, यदि उसको अच्छी तरह समझकर जीवन में ढाल लिया जाए तो लोक और परलोक की सिद्धि करने हारा है। बिना अर्थज्ञान के वेदार्थं को हृदयंगम किए बिना वेद को पढना व्यर्थ में भार ढोने के समान है। वेदार्थ को जानने हारा सकल कल्याण को प्राप्त करता है। वेदमन्त्र नारियल के समान बाहर दुर्गम एवं कठोर है, परन्तु भीतर उनमें जीवन रस भरा हुआ है। उसको फाड़कर ही, वेदमन्त्रों को समझकर ही वह रस चखा जा सकता है। वह रस चखा कैसे जाए? मन्त्रों का मनन करने से, केवल पढने से नहीं, काम-क्रोध-राग-द्वेष से रहित होकर मनन-चिन्तन करने से।

    इस प्रकार का है यह वेद का जगत्‌ जो आश्चर्यजनक भी है, सूक्ष्म और गम्भीर भी है। सर्वजनहिताय है, सर्वभूत मैत्रीप्रतिपादनीय है। विश्व के समस्त अमृतपुत्रों, अमर मानवों के लिए है। समस्त पृथिवी इसका क्षेत्र है। वेदान्तदर्शन के शब्दों में जगत्‌ और ब्रह्मा के बीच समन्वय-स्थापक है, जो कुछ जगत ये है उसका वर्णन वेद में है। प्राचीन काल से लेकर आज तक वेद को समझने का प्रयास होता रहा है। पाश्चात्य एवं पौर्वात्य विद्वान्‌ (Indologists or Sanskritists of the East and the West) वेद को समझने का यत्न करते रहे हैं। परन्तु वेद अब भी रहस्य बने हुए हैं।

    इन्हीं वेदों के लिए यतिवर दयानन्द ने अपना जीवन लगाया तथा उनके द्वारा प्रवर्तित आर्यसमाज ने विगत 140 वर्षों में इसके प्रचार और प्रसार का यत्न किया। एक वाक्य में आर्यसमाज के पिछले एक सौ चालीस वर्षों की कहानी वेदों के प्रचार की कहानी है। इसमें उसे कितनी सफलता मिली, यह निर्णय करना सुविज्ञ पाठकों पर है। भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के पुनर्जागरण (Revival) में अनेक महान्‌ आत्माओं ने अपना योगदान दिया है। परन्तु इसके मूल उत्स या प्रेरणास्रोत वेद की ओर हमारा ध्यान किसने खींचा, इसका निर्णय स्वयं पाठक करें। दयानन्द इसलिए महान्‌ नहीं कि वे आर्यसमाज के संस्थापक थे, अपितु इसलिए कि उन्होंने वेद का उद्धार किया तथा वैदिक संस्कृति का पुनरुत्थान किया। जैसे कभी मण्डनमिश्र के द्वार पर शुकसारिकाओं में वेद के स्वत: प्रमाण अथवा परत: प्रमाण होने के बारे में चर्चा होती थी, वैसे ही विगत 140 वर्षों में आर्य समाज के मंच से विभिन्न रूपों में वेदों की चर्चा रही है और आज इसी का परिणाम है कि "आक्सफोर्ड हिस्ट्री आफ इण्डिया" में विन्सैण्ट स्मिथ ने आर्यसमाज के वेद-विषयक मत का उचित उल्लेख किया है। अन्य किसी संस्था या सम्प्रदाय को यह श्रेय नहीं मिला। महर्षि दयानन्द ने वेद में ही मानव की सब समस्याओं का समाधान ढूंढा तथा वेद में ही सब ज्ञान-विज्ञान को बताया। बर्तानिया ज्ञान का विश्वकोष इस बात को स्वीकार करता है-

    वेद के बारे में दयानन्द और उनके आर्यसमाज ने एक शताब्दी पूर्व जो स्थापनाए रखी थीं, वे आज विद्वद्‌जगत्‌ को मान्य हो चली हैं तथा इतिहासकार, वेदविद्‌ तथा संस्कृतज्ञ उनके मत को उचित स्थान देने लगे हैं। प्रश्न केवल निष्पक्ष होकर विचार करने का है। आर्यसमाज मानो रथ है और दयानन्द उस रथ के सारथि हैं और वेद मानो उनका सुदर्शन चक्र था, जिसके द्वारा उन्होंने अज्ञान अविद्या तथा अवैदिक विचारों की कौरव सेना का विध्वंस किया। सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम दस समुल्लासों में दयानन्द ने सनातन वैदिक संस्कृति के सिद्धान्तों का विशद विवेचन प्रस्तुत किया है।

    वेद आर्य अथवा भारतीय संस्कृति के उद्‌गम-स्रोत हैं। भारतीय विद्या भवन बम्बई से प्रकाशितHistory and Culture of Indian people प्रथम खण्ड की भूमिका में डा. मजुमदार इसको स्वीकार करते हैं। वेद ईश्वरीय ज्ञान है, ऋषियों ने तप एवं समाधि के द्वारा वेदमन्त्रों का साक्षात्‌ किया, दयानन्द की यह अगली स्थापना थी। डा. राधाकृष्णन जैसे दार्शनिक इस मत को स्वीकार करने लगे हैं। उनका कहना है कि वेद में वर्णित आध्यात्मिक सत्यों का धर्म एवं तपश्चर्या द्वारा पुन: साक्षात्‌ या प्रत्यक्ष किया जा सकता है।

    आर्य लोग बाहर से नहीं आए, दयानन्द की इस मान्यता को कई विद्वान्‌ स्वीकार करने लगे हैं। डा. के. एम. मुन्शी इस मत को मानते हैं तथा स्वतन्त्र लेख को भी इस विषय मेंHistory and Culture of Indian people में स्थान दिया गया है।

    वेद के विषय में दयानन्द की स्थापनाओं के सन्दर्भ में मैं अपनी ओर से अधिक कुछ न कहकर हिन्दी विश्वकोष को उदधृत करूंगा, जिसे नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी ने प्रकाशित किया है, इसका समस्त व्यय भारत सरकार ने वहन किया है। यह भी एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका की तरह हिन्दी में ज्ञान का विश्वकोष (Encyclopedia Hindi) है। इस विश्वकोष के खण्ड 11 में वेद के विषय में दामोदर सातवलेकर को प्रमाणित मानकर अक्षरश: उद्धृत किया गया है। इससे बढकर दयानन्द की स्थापनाओं की दिग्विजय और क्या हो सकती है? आर्यसमाज के लिए यह गौरव का विषय है कि अन्तत: सुधी विद्वानों ने निष्पक्षभाव से उसकी मान्यताओं का आदर किया है। सातवलेकर के बारे में पाठकों को विदित रहे कि उन्होंने ऋषि दयानन्द द्वारा प्रदर्शित पद्धति का अनुसरण किया है। दयानन्द से पहले आधुनिक समय में किसी ने वेद की ओर हमारा ध्यान नहीं खींचा। सातवलेकर के शब्दों में जो राष्ट्र के लिए श्रेष्ठ सन्देश देता है वह ऋषि कहलाता है। स्वामी दयानन्द सचमुच ऋषि थे, क्योंकि उन्होंने हिन्दुओं के पतन का सच्चा कारण देखा और उन्नति का सच्चा मार्ग भी देखा। यह सत्य दृष्टि ही ऋषि की दृष्टि है। उनके समय में बहुत से नेता थे, वे नेतागण हिन्दुओं के उद्धार का मार्ग भी सोचते थे परन्तु किसी ने वेद का मार्ग देखा नहीं। उस समय शास्त्री पण्डित भी थे, परन्तु वे बेचारे वेद को जान भी नहीं सकते थे, फिर वेद के धर्म से मानवों का त्राण होने की बात जानना और वैसा उपदेश करना तो दूर की बात है। केवल अकेले ऋषि दयानन्द जी के पास ही यह ऋषित्व आता है। इन्होंने ही यह सच्ची रीति से जाना और कहा कि वेदों को पढो और वेदोपदेश को आचरण में लाओ।

    विश्वकोष में लिखा है कि यज्ञ में पशुवध नहीं होता, क्योंकि वेद में वध करने का कोई मन्त्र नहीं है-

    ओषधे त्रायस्व स्वधिते मैनं हिंसी:। हे औषधि, इसका संरक्षण कर। हे शस्त्र, इसकी हिंसा न कर। मन्त्र का स्पष्ट भाव पशु का संरक्षण करना ही है। गोमेध में गाय का वध उचित नहीं, क्योंकि वेदों में गौ को अघ्न्या (अवध्या) कहा है। अजमेध में बकरे का वध करना अनुचित है, क्योंकि अज एक धान्य का नाम है। कोश में अज के अर्थ अजश्रृंगि-औषधि-प्रेरक-नेता-सूर्य किरण-चन्द्रमा-प्रकृति-माया आदि हैं। राष्ट्र सेवा ही अश्वमेध यज्ञ है- राष्ट्र वा अश्वमेध:। (शतपथ ब्राह्मण)

    वैदिक यज्ञों के बारे में यह स्थापना किसने की थी? पाठक स्वयं अनुमान करें।

    अथर्ववेद-अथर्ववेद का अर्थ गतिरहितता अर्थात्‌ शान्ति है। सचमुच अथर्ववेद आत्मज्ञान देकर विश्व में शान्ति स्थापना करने का महत्वपूर्ण कार्य करता है।

    अथर्वेति गतिकर्मा तत्प्रतिषेधो निपात:। (निरुक्त)

    इससे पहले तो अथर्ववेद जादू टोने चमत्कार का ही पिटारा बन गया था। दयानन्द ने उसे वेदत्व का दर्जा दिलवाया, अन्यथा उसके वेद होने को ही नकारा जाने लगा था।

    ये वेद मानव की उन्नति करने का सच्चा धर्म बतलाते हैं। ऋग्वेद (10.111.2) का उपदेश है- संगच्छध्वं संवदध्वं। हम मिलकर चलें, मिलकर बोलें, हमारे मन एक हों। यजुर्वेद (40.1) कहता है कि यह सारा संसार ईश की सत्ता से व्याप्त है, त्याग भाव से इसका उपभोग करो।

    दयानन्द की अगली स्थापना थी कि वेद में इतिहास नहीं। सातवलेकर इस सम्बन्ध में लिखते हैं कि वेद में इतिहास-पुराण की कल्पना पृथक्‌ है। भारत के ऋषि-मुनि मानवीय शरीरों की हलचल को इतिहास नहीं मानते। शरीर की हलचल मानसिक विचारों से होती है। वेद में दशरथ, दु:शासन गुणबोधक नाम है। अयोध्या नगरी शरीर को कहा है, जिसमें आठ चक्र और नवद्वार हैं। ये मानवीय भावों और विचारों का शाश्वत और सनातन इतिहास है।

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    दयानन्द का उद्देश्य कोई नवीन सम्प्रदाय अथवा मत-मतान्तर चलाने का नहीं था। उन्होंने उसी प्राचीन वेदमार्ग का पुनरुद्धार (Revival) किया जिसको ब्रह्मा से लेकर जैमिनी मुनि पर्यन्त मानते आए हैं। वेद परम प्रमाण हैं। वेद विरुद्ध जितनी भी स्मृतियॉं या ग्रन्थ हैं वे निरर्थंक हैं तथा वेद को पढना ही सबसे बड़ा तप या धर्म है। ऋषि दयानन्द ने मनु की इन धारणाओं को अक्षरश: सत्य चरितार्थ कर दिखाया। इसी कारण उन्होंने मतमतान्तरों की आलोचना की, किसी की हानि या द्वेष के भाव से नहीं।

    वर्तमान समय में जब हम एक शताब्दी बाद यतिवर दयानन्द के विचारों का मूल्यांकन (Estimate) करते हैं, तो वेद एवं वैदिक अथवा आर्य संस्कृति अथवा भारतीय संस्कृति के बारे में उनकी मौलिक स्थापनाएं मान्य एवं सत्य हो चली हैं। परन्तु मतमतान्तरों या विभिन्न धर्मों के बारे में उनके विचारों में संशोधन की आवश्यकता है तथा इसी प्रकार का दृष्टिकोण त्याज्य अथवा अपाठ्‌य ग्रन्थों के बारे में अपनाने की आवश्यकता है। विचारों की समय-समय पर पुनर्व्याख्या (Review) पुनरालोचना होती रहने से ही विचार वैज्ञानिक एवं तर्कसंगत बने रहते हैं, अन्यथा वे रूढिग्रस्त (Traditional, old) पुराने तथा असंगत हो जाते हैं। पुनरालोचन से सारतत्व (मुख्य बातें) छंट जाता है तथा गौण बातें त्याग दी जाती हैं। वेद एवं वैदिक संस्कृति का पुनरुद्धार दयानन्द का मुख्य लक्ष्य अथवा साध्य था। मतों की आलोचना तथा त्याज्य ग्रन्थों का उल्लेख यह साधन था। साधन कभी स्थायी नहीं होते, वे देशकालानुसार बदलते रहते हैं। यही दृष्टिकोण (Approach) हमें राग, द्वेष और पक्षपात से रहित होकर अपनाना होगा। विभिन्न भारतीय धर्मों एवं मतों तथा ग्रन्थों में से हम वेदानुकूल को ग्रहण कर लें। दूसरे इन सबमें मूलभूत विचार (Fundamental ideas) तो उसी वैदिक अथवा आर्य संस्कृति के ही हैं।  विभिन्न धर्मों के बारे में विगत एक शताब्दी में काफी शोध (research) कार्य हुआ है। हम नई खोज तथा नए विचारों से लाभ उठाएं।

    आज हमें कालिदास, माघ और भारवि के काव्यों को त्यागने की आवश्यकता नहीं है और न ही सांख्यतत्वकौमुदी तथा तर्कसंग्रह से डरने की आवश्यकता है। यही दृष्टिकोण तुलसी-रामायण के बारे में अपनाना है। विगत 60-70 वर्षों में इस पर काफी अनुसन्धान हुआ है। हॉं, हम इन्हें तर्क की कसौटी पर परख लें। इसी प्रकार पुराणों के बारे में भी अनेक आलोचनात्मक अध्ययन (Critical studies) या ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। स्वयं गीता प्रैस गोरखपुर से राधा और कृष्ण की तथा पुराणों में कृष्णलीला की युक्तिसंगत व्याख्या प्रकाशित हुई है। इसी प्रकार का दृष्टिकोण हमें विभिन्न मतों एवं धर्मों के बारे में अपनाने की आवश्यकता है। सब मतों की अच्छी बातें, जो-जो बातें सबके अनुकूल सत्य हैं, उनको हम ग्रहण कर लें और जो एक दूसरे से विरुद्ध हैं उनको हम त्याग दें। हमें सबको अपने साथ लेकर चलना है, समस्त मानव समाज का कल्याण करना है, सबको श्रेष्ठ बनाना है। सबकी उन्नति में हमारी उन्नति है। भारतोद्‌भूत जितने भी धर्म हैं हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख इनका मूलस्रोत तो एक ही है। ये सारे एक सनातन वैदिक धर्म या आर्य धर्म में विलीन हो जाते हैं। इसी प्रकार ईसाई तथा मुस्लिम धर्मों के प्रति भी हमें अपना दृष्टिकोण उदार तथा विस्तृत करना होगा। क्योंकि आज विज्ञान की दुनियां में समस्त मानव समाज एक इकाई (Unit of family) बन गया है।

    धर्मों एवं मतान्तरों की आलोचना से ऋषि दयानन्द का तात्पर्य था कि धर्म में तर्कसंगतता (resonability), युक्ति एवं हेतु (argument) की प्रधानता हो, अन्धविश्वास तथा आडम्बर न हो। हम बाबा-वाक्यं को प्रमाण न मानें, सत्य-असत्य की स्वयं परीक्षा तथा छानबीन करें। यही उनकी धर्म को स्थायी देन है। - प्रा. चन्द्रप्रकाश आर्य

     

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    मजहब ही सिखाता है आपस में बैर करना

    Ved Katha Pravachan -3 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

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  • वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है, पर कैसे ?

    आर्य समाज का तीसरा नियम है- "वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है।" इस नियम को समझने के लिए ऋग्वेद का "अदिति" शब्द बहुत सहायक सिद्ध हो सकता है। अदिति के लिए ऋग्वेद (1.89.10) में निम्न मन्त्र है-

    अदिति द्यौ: अदिति अंतरिक्षं अदिति: माता स: पिता स: पुत्र:।
    विश्वेदेवा: अदिति पञ्चजना: अदिति: जातं अदिति: जनित्वम्‌।।

    संसार में जो कुछ है, वह "अदिति" है। जो दिति न हो वह अदिति होगा। "दिति" शब्द "दो, अवखण्डने" धातु से बना है। "दिति" का अर्थ है- "खण्डित"। "अदिति" का अर्थ हुआ- "अखण्डित"। खण्डित का अर्थ है- एक से दो, दो से तीन, तीन से चार- इस प्रकार बटते जाना। अखण्डित का अर्थ है- सर्वदा एक बने रहना, टुकड़ो में न बटना। जितना भौतिक ज्ञान है, जिसे हम विज्ञान कहते हैं, वह सब दिति के भीतर समा जाता है। अध्यात्म से सम्बन्धित सब कुछ अदिति है, जो जात या जनित्व है वह सब अदिति है, तो वेद भी अदिति है, सत्य भी अदिति है, वेद-ज्ञान भी "अदिति" है। वेद-ज्ञान को अदिति कहने का अर्थ हुआ अखण्डित-ज्ञान, ऐसा ज्ञान जो सदा-सर्वदा एक बना रहता है, कभी बदलता नहीं- सदा सत्य-सनातन। इसी "अदिति"- शब्द के लिए ऋग्वेद (8.18.6) में दो अन्य शब्दों का प्रयोग हुआ है जिससे हमारा विषय अधिक स्पष्ट हो जाता है। वह मन्त्र है:

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    भारत देश की गुलामी के कारण

    Ved Katha Pravachan _48 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    अदितिर्नो दिवा पशुं अदितिर्नक्तं अद्वया।
    अदिति: पात्वहंस: सदावृधा।

    इस मन्त्र में "अदिति" के लिए "अद्वय" तथा "सदावृध" शब्दों का प्रयोग हुआ है। "अद्वय" का अर्थ है- जो दो न हो। "सदावृध" का पदच्छेद करके इसके दो अर्थ हो जाते हैं। सदावृध जो सदा बढता रहेविकसित होता रहेएक से दोदो से तीनतीन से चार होता रहे बटता रहे। इसका दूसरा अर्थ है- सदा अवृध जो सदा एक रहेएक से दोदो से तीन न होनित्य सनातनएक रूप में बना रहे।

    इस प्रकार वेद ने ज्ञान को तीन भागों में विभक्त किया है- अदितिसदावृध तथा सदा+अवृध। अदिति वह ज्ञान है जो सदा रहता हैउसमें दो पक्ष नहीं हो सकते। सदावृध वह ज्ञान है जो सदा बढता रहता हैबदलता रहता हैआज यह और कल वहबढेगा तो बदलकर ही बढेगा। यह वह ज्ञान है जिसे हम आज की भाषा में "विज्ञान" कहते हैं। "सदा अवृध" वह यह ज्ञान है जिसे हम पहले "अदिति" कह आए हैं- सत्य ज्ञानअखण्डित- ज्ञानएक-ज्ञान न बदलने वाला ज्ञान या जिसे हम "ईश्वरीय ज्ञान" कह सकते हैं।

    भौतिक ज्ञान सदा बढता रहता हैसदावृध रहता हैइसका गुरु-शिष्य परम्परा द्वारा आदान-प्रदान हो सकता है या मनुष्य द्वारा आविष्कार हो सकता है। आध्यात्मिक ज्ञान सदा एक रहता है अदिति या "अद्वय" हैदो नहीं एक हैसदा-सनातन हैइसका आविष्कार नहीं हो सकतायह सदा दिया जाता है। संसार में सदा एक रहने वाली अगर कोई वस्तु है तो वह "सत्य" है, "सत्य-ज्ञान" है। सत्य सदा एक रहता हैअखण्डित रहता हैवेद के शब्दों में कहें तो सत्य सदा अद्वय हैअदिति है। यह नहीं हो सकता कि किसी बात के लिए हम कहें कि यह भी ठीक हैऔर उसकी विरोधी बात भी ठीक है। उदाहरणार्थ हिन्दू होईसाई होमुसलमान होयहूदी होपारसी हो- सभी कहेंगे कि सत्य बोलना चाहिएकोई नहीं कहेगा कि सच भी बोल सकते हैं और झूठ भी बोल सकते हैं। सब कहेंगे कि प्रेम करना चाहिएकोई नहीं कहेगा कि प्रेम भी करो और द्वेष भी करोसब कहेंगे परोपकार करना उचित हैकोई नहीं कहेगा कि परोपकार भी करोपर अपकार भी करो। कई ऐसे आधारभूत तत्व हैं जो अद्वय हैं अर्थात्‌ उनमें दो पक्ष हो नहीं सकते- ऐसा सब कोई कहते हैं।

    अगर अदिति का अभिप्राय अद्वय हैतो वेद ने इसी को उक्त मन्त्र में सदावृध या सदा बढने वाला वर्धमान क्यों कहावर्धमान तो वह तत्त्व है जो सदा बढता रहता है। छोटे से बड़ा और बड़े से बहुत बड़ा हो जाता या हो सकता है। आज जैसा हैकल वैसा नहीं हैअर्थात्‌ पहले जैसा नहीं है।

    यजुर्वेद के 40 वें अध्याय में "विद्या" तथा "अविद्या" का वर्णन आता है। वहॉं कहा गया है:

    अन्यदाहु: विद्या अन्यदाहु: अविद्या।
    इति शुश्रुम घीराणां येनस्तद्‌ व्याचचक्षिरे।।

    विद्यां च अविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह।
    अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते।।

    इन मन्त्रों का अभिप्राय यह है कि अविद्या से मृत्यु को तर जाते हैं और विद्या से अमृत की प्राप्ति होती है। कितनी बेतुकी बात लगती है यह। यदि अविद्या से मृत्यु को तर जाते हैं तब तो सबका लक्ष्य अविद्या होना चाहिए। परन्तु नहींवेद में तथा उपनिषद्‌ में विद्या तथा अविद्या का अर्थ क्रमश: ज्ञान तथा अज्ञान नहीं है। वैदिक परिभाषाओं तथा लौकिक परिभाषाओं में जमीन आसमान का भेद है। वेदों तथा उपनिषदों में भौतिकवाद को अविद्या कहा गया हैअध्यात्मवाद को विद्या कहा गया है। यह स्पष्ट है कि भौतिक औषधियों के सेवन से रोग की मुक्ति होती हैदीर्घ जीवन हो सकता हैमृत्यु से लड़ा जा सकता है। इसी कारण तो कहा- अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा- अविद्या से भौतिकवाद सेमृत्यु को तो तरा जा सकता है। परन्तु विद्यया-अमृतमश्नुते- अमृत की प्राप्ति "विद्या" से ही होती है। यहॉं विद्या का अर्थ पढने-पढाने की विद्या से नहींआत्मज्ञान की विद्याअध्यात्मवाद की विद्या है।

    हमारा ज्ञानज्ञान तभी कहला सकता है जब वह वर्धमान होआगे-आगे बढेउन्नति करे। आज का वैज्ञानिक-जगत इसलिए श्रेयकर माना जाता है क्योंकि आज जो बात ठीक मानी जाती हैकल रिसर्च या परीक्षण या खोज करते-करते गलत मालूम पड़ने पर छोड़ दी जाती है। अगर विज्ञान किसी जगह आकर खड़ा हो जाएरुक जाएतो वह फेंक देने लायक होगा। परन्तु यह बात भौतिक-विज्ञान पर ही लागू होती हैआध्यात्मिक विज्ञान पर नहीं। अध्यात्म सदा "अद्वय" तथा "वर्धमान" होता हुआ भी "अवर्धमान" (सदा+अवृध) होता है। हिंसा से शुरू कर मनुष्य "अहिंसा" पर जाकर रुकता हैअसत्य से शुरू कर सत्य की खोज में भटकता हैचोरी-डाके-स्तेय से चलता-चलता अस्तेय को लक्ष्य बनाता हैअब्रह्मचर्य तथा पर-दारा-गमन से गुजरता सदाचार तथा ब्रह्मचर्य को ही जीवन का लक्ष्य बनाता हैछीना-झपटी से जीवन शुरू कर "अपरिग्रह" को ही सामाजिक-जीवन लक्ष्य बनाता है। भौतिक तत्व जब तक वर्धमान तक सीमित रहते हैंतब तक जीवन अपने लक्ष्य को न हीं पकड़ताजब जीवन के वर्धमान तत्व "अवर्धमान" हो जाते हैंवे अहिंसासत्यअस्तेयब्रह्मचर्यअपरिग्रह तक पहुंच जाते हैंतब मनुष्य "अद्वय", "अदिति", "अवर्धमान" कोजीवन के सनातन सत्य को पा लेता है। उसी अद्वयअदितिअखण्डित सत्य का वर्णन वेद में किया गया है।

    वेदों में मुख्यतौर पर "वर्धमान" तत्वों काभौतिकवाद का वर्णन नहीं है। क्योंकि ये तत्व भौतिकवाद का अङ्ग होने के कारण परिवर्तनशील हैं। वेदों में "अवर्धमान" तत्वों काआध्यात्मिक तथ्यों का वर्णन है क्योंकि वे नित्य हैंअपरिवर्ततनशील है क्योंकि वे नित्य हैंअपरिवर्ततनशील हैं। ज्ञान जब बढेगा तो बढते-बढते उसकी भी सीमा कभी-न-कभी आयेगी। वृक्ष ऊँचा जाता हैपरन्तु कहीं तो रुक जाता है। "वर्धमान" जब "अवर्धमान" हो जाता हैतब वही "अद्वय" हो जाता हैअदिति हो जाता है। भौतिकवाद जहॉं रुक जाता है वहॉं अध्यात्मवाद शुरु हो जाता है।

    ज्ञान या तो वर्धमान होगा या अवर्धमान होगा। "वर्धमान" ज्ञान भौतिक हैसमय-समय पर मनुष्य की खोज के आधार पर बदलता रहता है इसलिए बढता भी रहता है। "अवर्धमान" ज्ञान आध्यात्मिक हैनित्य हैसनातनएक हैअद्वय हैअदिति हैबदलता नहीं है। क्योंकि वेद का ज्ञान मनुष्य की खोज नहीं हैईश्वरीय देन हैइसलिए उसे वेद ने "अद्वय" तथा अदिति कहा है। परन्तु ज्ञान का स्रोत मनुष्य तथा ईश्वर दोनों हैं- इसलिए ज्ञान को वेद ने सदावृध भी कहा है। सदावृध शब्द के यहॉं दो अर्थ किए गए हैं। सदावृध संस्कृत भाषा का विलक्षण शब्द है जिसमें ज्ञान के मानुषीय तथा ईश्वरीय दोनों पक्ष आ जाते हैं। "सदा+वृध" मानुषीय ज्ञान है, "सदा+अवृध"ईश्वरीय या वेद ज्ञान है।

    जबकि हम कहते हैं कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक हैतब हमारा अभिप्राय क्या होता हैक्या यह अभिप्राय होता है कि वेद में फिजिक्सकैमेस्ट्री आदि सब कुछ है। क्या रेलहवाई जहाजतारटेलीफोन आदि बनाना सब सत्य विद्यायें वेद में हैंअगर वेद में फिजिक्सकैमिस्ट्रीरेलतारहवाई जहाज आदि सब कुछ है तो भगवान ने मनुष्य को अपने मस्तिष्क से सोचने समझनेखोजने के लिए क्या कुछ भी नहीं छोड़ाहमें इस बात का भी उत्तर देना होगा कि सब भौतिक आविष्कार उन लोगों ने कैसे किये जो वेद का एक अक्षर भी नहीं जानते थे। वास्तविक स्थिति यह है कि वेदों में भौतिक-विद्याओं का बीज तो है परन्तु उसे पुष्पित तथा फलित या क्रियात्मक रूप देने के लिए उपवेदों की रचना की गई। उपवेदों का निर्माण इसलिए हुआ ताकि वेदों में जिन भौतिक विद्याओं का बीज थापरन्तु उसकी प्रधानता न थीउपवेदों द्वारा उनका विशदीकरण किया जाये।

    वेद में जो भी वैज्ञानिक बात कही गई हैवह उदाहरण या उपमा के रूप कही गई है। मुख्य रूप में नहीं कही गई है। उदाहरणार्थ यजुर्वेद के 23 वें अध्याय में यज्ञ का वर्णन करते हुए कहा है- पृच्छामि त्वां परमन्त: पृथिव्या: -मैं पूछता हूँ पृथ्वी का परम छोर क्या हैइसका उत्तर देते हुए कहा गया है "इयं वेदि: परो अन्त: पृथिव्या:"- यह वेदी जहॉं हम यज्ञ कर रहे हैंपृथ्वी का परला सिरा है। इसका अर्थ हुआ कि पृथ्वी गोल है जिसे सिद्ध करने के लिए गैलिलियो को जेल जाना पड़ा था। प्रत्येक गोल वस्तु का आदि तथा अन्त एक ही स्थल होता हैपरन्तु यह कथन भूगोल या भूगर्भ के रूप में नहीं कहा गयायज्ञ के विषय में उदाहरण के रूप में कहा गया है। हमारा कथन है कि वैज्ञानिक या भौतिक तथ्यों को परमात्मा की तरफ से बतलाए जाने की जरूरत नहींउनका आविष्कार करने के लिए भगवान्‌ ने मनुष्य की बुद्धि दी है। आध्यात्मिक तथ्यों को ही वेद द्वारा दिया गया है। अध्यात्म-विद्या ही सत्य विद्या हैवही अद्वय हैवही अदिति हैवही अवर्धमान हैवही विद्या है। भौतिक-विद्या को वेद ने "सदावृद्ध"- सदा बढने वाली विद्या कहते हुए भी "अविद्या" कहा है। भौतिक-विद्या को अविद्या कहते हुए भी जीवन के लिए उपयोगी होने के कारण उसे भी वेद ने सम्मान का स्थान देते हुए कहा है- "अविद्यया मृत्युं तीत्वा"- अविद्या से मृत्यु को तो तरा ही जा सकता हैपरन्तु अमरत्व तो अध्यात्म से ही प्राप्त होता है।

    तो क्या वेद में विज्ञान नहीं हैहमारा उत्तर है- वेद में विज्ञान हैऔर अवश्य है परन्तु ऐसा विज्ञान जो नित्य हैअखण्ड हैजो सदा-अवृध हैजो बदलता नहीं है। जो विज्ञान बदलता रहता हैवह वेद की परिभाषा में अविद्या हैसदावृध- सदा-वर्धमान है। सदावृध- सदा वर्धमान ज्ञान मनुष्य के हाथ में है"सदा-अवृध" - सदा एक रहने वाला ज्ञान वेद द्वारा भगवान्‌ मानव को देता है। -प्रो. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार

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    In this mantra, the words "Adavya" and "Sadavridha" are used for "Aditi". "Advay" means no two. It has two meanings by "Padavadh". Sadavriha, which continues to grow, continues to grow, growing from one to two, two to three, three to four. Its second meaning is to always be the one who always remains one, not one to two, two to three, always in a form.

     

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