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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-9

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    ईसाइयत का आक्रमण- सन्‌ 1857 तक भारत पर अंग्रेजों का शासन ईस्ट इंडिया कम्पनी के माध्यम से होता था। कम्पनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के चेयरमैन मिस्टर मैंगलस ने ब्रिटिश पार्लियामेंट में अपने भाषण में कहा था-

    “Providence has entrusted the extensive empire of Hindustan to England in order that the banner of Christ should wave triumphant from one end to the other. Every one must exert all his strength that there should be no dilatoriness on any account in continuing in the country the grand work of making all Indians Christians.”

    विधाता ने हिन्दुस्तान का विशाल साम्राज्य इंगलैंड के हाथों में इसलिए सौंपा है कि ईसा मसीह का झण्डा इस देश के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक फहरा सके। प्रत्येक ईसाई का कर्त्तव्य है कि समस्त भारतीयों को अविलम्ब ईसाई बनाने के महान्‌ कार्य में पूरी शक्ति के साथ जुट जाए।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    परमात्मा के दर्शन एवं उसके कार्य
    Ved Katha Pravachan _22 (Introduction to the Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    भारतीय स्वाधीनता के प्रथम युद्ध की समाप्ति के दो वर्ष बाद इंग्लैंड के तत्कालीन प्रधानमन्त्री लार्ड पामर्स्टन ने घोषणा की-

    “It is not only our duty but in our own interest to promote the diffusion of christianty as far as possible throughout the length and breadth of India.” - Christianity and Government of India. by Mayhew, P. 194.

    अर्थात्‌ यह हमारा कर्त्तव्य ही नहींअपितु हमारे हित में भी है कि भारतभर में ईसाइयत का अधिक-से-अधिक प्रसार हो।

    पंजाब के गवर्नर लार्ड री ने सन्‌ 1876 में ईसाई मिशनरियों के शिष्टमण्डल को प्रिंस ऑफ वेल्स के सामने प्रस्तुत करते हुए कहा था- “They are doing in India more than all those civilians, soldiers, judges and governers your highness has met.” जितना काम आपके सिपाहीजजगवर्नर और दूसरे अफसर कर रहे हैंउससे कहीं अधिक ये (मिशनरी) कर रहे हैं।

    विदेशी शासक और ईसाइयत का चोली-दामन का सम्बन्ध रहा है। हमारी दासता की बेड़ियों को सुदृढ करने में ईसाइयों ने अंग्रेजों के कंधे-से-कंधा मिलाकर काम किया है। आक्रमणकारी के रूप में जाने से पहले ईसाई मिशनरी भेजे जाते रहे। ईसाई मिशनरी द्वारा मैदान तैयार हो जाने के बाद सेनाएँ भेजी जाती रहीं। सैनिक शक्ति के बल पर शासन जम जाने पर सरकार की ओर से देश के ईसाईकरण में पूरी सहायता दी जाती थी। महात्मा गॉंधी जैसे समन्वयवादी तथा सर्वथा असाम्प्रदायिक व्यक्ति को भी स्वीकार करना पड़ा कि ईसाईयों द्वारा किये जा रहे सेवा-कार्यों का वास्तविक उद्‌देश्य असहाय लोगों की विवशता का लाभ उठाकर उन्हें ईसाई बनाना है। आज भी केरलनागालैंडमिजोरमअसम आदि में जहॉं-जहॉं ईसाईयों का जोर हैवहॉं-वहॉं राष्ट्रविरोधी गतिविधियों का जोर है।

    मुसलमान इस देश में आततायी आक्रमणकारियों के रूप में आये और लगभग सात सौ वर्ष तक यहॉं राज्य किया। यह ठीक है कि भारत के मुसलमानों में प्राय: सभी इस देश के रहने वाले हैंकिन्तु उन्होंने स्वयं कभी भी इस देश पर शासन नहीं किया। यहॉं शासन करनेवाले - गुलामगौरतुगलकखिलजीलोधीमुगल-सभी विदेशी थेतथापि उनके विदेशी होने के कारण इस देश के मुसलमानों ने कभी उनका विरोध नहीं किया। इतिहास इस बात का साक्षी है। सच तो यह है कि कट्‌टर देशभक्त भी कलमा पढते ही देशविद्रोही बन जाता है। बड़े-से-बड़े राष्ट्रवादी (?) मुसलमान के हृदय में भी जो आदर विदेशी आक्रमणकारी मुहम्मद गजनवीमुहम्मद गोरी या बाबर के लिए है वह इस देश की धरती से उत्पन्न रामकृष्णप्रताप और शिवाजी के लिए नहीं है।

    भारत की अस्मिता पर प्रहारलार्ड मैकाले ने अपने मित्र मिस्टर राउस को लिखा था-

    "अब हमें केवल नाममात्र का नहींसचमुच नवाब बनना है और वह भी परदा रखकर नहींखुल्लमखुल्ला बनना है।"(मिल्स कृत "भारतीय इतिहास" खण्ड 4पृ.332)।

    इसी योजना के अन्तर्गत 1899 में आर्थर ए. मैक्डानल ने संस्कृत साहित्य का इतिहास लिखा। ईसाई मत के प्रचार से भारत के  उद्धार की बाद कहने से पहले यह सिद्ध करना आवश्यक था कि भारत के लोग सदा से बर्बर और असभ्य रहे हैं। कारणयदि उन्हें पहले से सभ्य मान लिया जाए तो वे उन्हें सभ्य बनाने का दावा कैसे कर सकते थेमैक्डानल रचित पुस्तक में जो कुछ लिखा गया उसके निर्देशनार्थ कतिपय वाक्य यहॉं उद्‌धृत किये जाते हैं-

    "इतिहासपूर्व काल में जिन आर्यों ने भारत को जीता था वे स्वयं पुराने समय में दूसरों से पराजित होते चले आये थे। (पृ.408)। भारत में इतिहास का अस्तित्व ही नहीं है। उन्होंने कभी इतिहास लिखा ही नहीं थाक्योंकि उन्होंने कभी कोई ऐतिहासिक कार्य किया ही नहीं था (पृ.10-11)। ईरान को भारत कीमती-कीमती भेंट दिया करता था।"

    नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जब दूसरे दशक में पढने के लिए इंगलैंड में रहे तो वहॉं से उन्होंने अपने सहपाठी संस्कृत के प्रख्यात विद्वान्‌ पण्डित क्षत्रेशचन्द्र चट्‌टोपाध्याय को बहुत-से पत्र लिखे थे। उनमें से उनके कैम्ब्रिज से 12 फरवरी 1921 को लिखे एक पत्र का कुछ अंश यहॉं उद्‌धृत कर रहे हैं-

    "साधारण अंग्रेज युवक (एवम्‌ वयस्क भी) भारत के सम्बन्ध में न अधिक जानता है और न जानना चाहता है। वह जानता है कि अंग्रेज जाति एक महान्‌ जाति है एवम्‌ भारतवासियों को सभ्य बनाने के लिए अपनी हानि सहकर भी अंग्रेज भारत गये हैं। इस धारणा के लिए जिम्मेदार हैं हमारे एंग्लो-इंडियन अफसर एवं पादरी लोग। क्रिश्चियन पादरी हैं हमारी संस्कृति के महाशत्रु। यह बात मैंने इस देश में आकर समझी। वे पैसा इकट्‌ठा करने के उद्‌देश्य से पब्लिक को यह समझाने का प्रयास करते है कि भारतवासी एक असभ्य जाति हैं और भील एवम्‌ कोल जातियों के फोटो मॅंगवाकर इस देश के लोगों को दिखाते हैं।   -नवभारत टाइम्सबम्बई22 जनवरी 1994

    इस प्रकार भारत सदा से एक पराभूत होनेवाला देश रहा है। यह सार-संक्षेप है उस इतिहास का जिसे मिथ्या होते हुए भी हमने अपनी मानसिक दासता के कारण स्वीकार किया हुआ है।

    हीनभावना से ग्रस्त कोई व्यक्तिसमाज अथवा राष्ट्र ऊपर उठने की सोच भी नहीं सकता। इसलिए दयानन्द ने सबसे पहले मैक्डानल की बातों का प्रत्याख्यान करते हुए लिखा-"यह आर्यावर्त ऐसा देश है जिसके सदृश भूगोल में कोई दूसरा देश नहीं है। इसीजिए इस भूमि का नाम "स्वर्ण भूमि" हैक्योंकि यही स्वर्ण आदि रत्नों को उत्पन्न करती है। पारस मणि पत्थर सुना जाता हैयह बात तो झूठ हैपरन्तु आर्यावर्त्त देश ही सच्चा पारसमणि है जिसको लोहेरूपी दरिद्र विदेशी छूते ही स्वर्ण अर्थात्‌ धनाढ्‌य हो जाते थे। सृष्टि के आरम्भ से लेके पॉंच सहस्त्र वर्षों से पूर्व समयपर्यन्त आर्यों का सार्वभौमिक चक्रवर्ती अर्थात्‌ भूगोल में सर्वोपरि एकमात्र राज्य था। अन्य देशों में माण्डलिक अर्थात्‌ छोटे-छोटे राजा रहते थे"। -सत्यार्थप्रकाश समुल्लास 11

    वैदिक धर्म में सार्वजनिक हित की भावना से प्रेरित मातृभूमि के प्रति अत्यन्त आदर का भाव होना स्वाभाविक है। (अथर्ववेद का भूमिसूक्त 12-1) इस दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। अपने विषय का यह अनूठा गीत है। संसार के किसी भी साहित्य में वैसा सुन्दर गीत शायद ही मिले। उसकी एक झलक विष्णुपुराण के इस श्लोक में मिलती है-

    गायन्ति देवा: किल गीतकानिधन्यास्तु ये भारतभूमिभागे।
    स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूतेभवन्ति भूय: पुरुषा: सुरत्वात्‌।।

    यह अपने मुंह मियॉं मिट्‌ठु बनने-जैसी बात नहीं है। ऋषि दयानन्द रचित ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पढने के बाद मैक्समूलर ने भारतीय प्रशासनिक सेवा (Indian Civil Service= I.C.S.) में नियुक्त युवकों को इंगलैंड से भेजे जाते समय भारत का परिचय देते हुए कहा था- "आप अपने अध्ययन के लिए जो भी भाषा अपनाएँ-भाषाधर्मदर्शनविज्ञानकानूनपरम्पराएँ- हर विषय का अध्ययन करने के लिए भारत ही सर्वाधिक उपयुक्त क्षेत्र है। आपको अच्छा लगे या न लगेपरन्तु वास्तविकता यही है कि मानवता के इतिहास की बहुमूल्य एवं निर्देशक सामग्री भारतभूमि में संचित हैकेवल भारतभूमि में। (हम भारत से क्या सीखें)

    “We have all come from the East - what we value most has come to us from the East and by going to the East everybody ought to feel that he is going to this ‘old home’ full of memories, if only we can red them.” -Ibid

    अर्थात्‌ यह निश्चित है कि हम सब पूर्व से आये हैं। इतना ही नहींजो कुछ भी हमारे जीवन में मूल्यवान्‌ और महत्तवपूर्ण हैवह सब हमें पूर्व से ही मिला है। ऐसी स्थिति में जब भी हम पूर्व की ओर जाएँ तब हमें यही सोचना चाहिए कि हम अपनी पुरानी स्मृतियों को संजोए हुए अपने पुराने घर की ओर जा रहे हैं।

    फ्रांस के महान्‌ सन्त तथा विचारक क्रूजे (Cruiser) ने लिखा है-

    “If there is country which can rightly claim the honour of being the cradle of human race or at least the scane of primitive civilisation, the successive development carried in all parts of the ancient world, and even beyond, the blessings of knowledge which is the second life of man, that country assuredly is India.” -J. Beatie : Civilisation and Progress.

    अर्थात्‌ यदि कोई देश वास्तव में मनुष्यजाति का पालक होने और उस आदि सभ्यता का जिसने विकसित होकर संसार के कोने-कोने में ज्ञान का प्रसार कियास्त्रोत होने का दावा कर सकता है तो निश्चय ही वह देश भारत है ।

    जैकालियट संस्कृत के विद्वान्‌ थे। उन्होंने फ्रैंच भाषा में ‘La Bible dans la Inde’ (बाइबल इन इण्डिया) नामक एक विश्वविख्यात ग्रन्थ की रचना की थी। पं. भगवद्दत्तजी के अनुसार इस ग्रन्थ का प्रकाशन सन्‌ 1869 में हुआ था। "भारत में बाइबल" नाम से हिन्दी में इसका अनुवाद पं. सन्तराम बी.ए. ने किया था। जैकालिस्ट के अनुसार मिश्रजूडियायूनानरोम आदि सब देश अपने जातिभेदअपनी मान्यताओं और धार्मिक विचारों में भारत के ब्राह्मणों का ही अनुकरण करते थे और उसके ब्राह्मणों तथा याज्ञिकों को आज भी वैसे ही मानते हैं जैसे कभी पहले वैदिक समाज की भाषाधर्मशास्त्र और दर्शनशास्त्र को मानते थे।

    अमेरिकन विदुषी श्रीमती व्हीलर विल्लौक्स (Wheeler Willox) ने इस विषय में लिखा है-

    “It (India) is the land of the Great Vedas - the most remarkable works, containing not only religious ideas for a perfect life but also facts which science has since proved true. Electricity, Redium, Electrons, Airships - all seem to have been known to the seers who found the Vedas.”

    अर्थात्‌ यह (भारत) उन महान्‌ वेदों की भूमि हैजो अद्‌भुत ग्रन्थ हैंजिनमें न केवल पूर्ण जीवन के लिए उपयोगी धार्मिक सिद्धान्त बताये गये हैंअपितु उन तथ्यों का भी प्रतिपादन किया गया है जिन्हें विज्ञान ने सत्य प्रमाणित किया है। बिजलीरेडियमइलेक्ट्रॉनविमान आदि सभी कुछ वेदों के द्रष्टा ऋषियों को ज्ञात प्रतीत होता है।

    इस देश का निर्माण वही कर सकता था जिसे इसकी मिट्‌टी से प्यार होजो इस देश को अपना मानता होअर्थात्‌ अपने को इस देश पर बाहर से आकर बलात्‌ अधिकार करनेवाला विदेशी आक्रमणकारी न मानकर इस देश का मूल निवासी मानता हो। इसकी सभ्यता तथा संस्कृति में जिसकी आस्था हो,इसके इतिहास पर जिसे गर्व होइसके महापुरूषों के प्रति श्रद्धा हो और जो वैदिक मान्यताओं के आधार पर इसका निर्माण करने के लिए कटिबद्ध हो। गत सहस्त्रों वर्षों में इस प्रकार का अलौकिक व्यक्तित्व दयानन्द के रूप में अवतरित हुआ। वह न हुआ होता तो हिन्दुस्तानइण्डिया-जैसा नामधारी देश तो होताकिन्तु आर्यावर्त्त अथवा भारत कहीं देखने में न आता। इसलिए आधुनिक भारत का निर्माता दयानन्द के सिवाय कौन हो सकता है?

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    नरेन्द्र तिवारी मार्ग, बैंक ऑफ़ इण्डिया के पास, दशहरा मैदान के सामने
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    Tel. : 0731-2489383, 8989738486, 9302101186
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    That is, this (India) is the land of the great Vedas, which are wonderful texts, which not only contain the religious principles useful for the whole life, but also the facts which have been proved by science to be true. Electricity, radium, electrons, planes etc. all seem to be known to the seers of the Vedas.

     

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  • भारतीय नारी के उत्थान में महर्षि का योगदान

    भारतीय नारी के उत्थान में महर्षि दयानन्द का क्या योगदान है? यह जानने से पहले यह जानना आवश्यक है कि सृष्टि के आरम्भ अर्थात्‌ वैदिक काल में नारी की क्या स्थिति थी। भारतीय नारी सृष्टि के आरम्भ से ही अनन्त गुणों की आगार रही है। पृथ्वी सी क्षमा, सूर्य जैसा तेज, समुद्र की सी गम्भीरता, चन्द्रमा जैसी शीतलता, पर्वतों की सी मानसिक उच्चता हमें एक साथ नारी के हृदय में दृष्टिगोचर होते हैं। वह दया, करुणा, ममता और प्रेम की पवित्र मूर्ति है और समय पड़ने पर प्रचण्ड चण्डी का रूप भी धारण कर सकती है। नारी का त्याग और बलिदान भारतीय संस्कृति की अमूल्य निधि है । इसलिये प्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद जी ने कहा है-

    नारी तुम केवल श्रद्धा हो,
    विश्वासरजत नग पग तल में
    पीयूष स्रोत सी बहा करो,
    जीवन के सुन्दर समतल में।।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    सुखी मानव जीवन के वैदिक सूत्र एवं सूर्य के गुण

    Ved Katha Pravachan -10 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    वैदिक काल में नारियों को उच्च स्थान प्राप्त था। मनु महाराज का कथन है-

    यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।
    यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया:।।

    अर्थात्‌ जहॉं स्त्रियों की पूजा होती है वहॉं देवता निवास करते हैं। जहॉं उनकी प्रतिष्ठा नहीं होती वहॉं सब क्रियायें निष्फल हो जाती हैं। वैदिक काल में नारी को गृहलक्ष्मी कहकर पुकारा जाता था। उन्हें पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त थे तथा वैसी ही शिक्षा मिलती थी। गृहस्थी का कोई भी कार्य उनकी सलाह के बिना नहीं किया जाता था। कोई भी धार्मिक कृत्य उनके अभाव में अपूर्ण समझा जाता था। सीता जी की अनुपस्थिति में श्री रामचन्द्र जी ने उनकी स्वर्ण प्रतिमा रखकर अश्वमेध यज्ञ को पूर्ण किया था। धार्मिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में ही नहींअपितु रणक्षेत्र में भी वे अपने पति को सहयोग देती थीं। देवासुर संग्राम में कैकेयी ने अपने अद्वितीय कौशल से महाराज दशरथ को भी चकित कर दिया था।

    अपनी योग्यताविद्वत्ता और बुद्धि के बल पर कई नारियों ने पुरुषों को भी शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया था। महर्षि याज्ञवल्क्य की पत्नी मैत्रेयी इसकी ज्वलन्त उदाहरण है। उस समय गृहस्थाश्रम का सम्पूर्ण अस्तित्व नारी पर आधारित था। बिना गृहिणी के गृह की कल्पना भी नहीं की जाती थी। मनु महाराज ने कहा है:-

    न गृहं गृहमित्याहु: गृहिणी गृहम्‌ उच्यते।
    गृहं हि गृहिणीहीनं अरण्यसदृशं मतम्‌।।

    गृहिणी के कारण ही घर वस्तुत: घर कहलाता है। गृहिणी के बिना घर जंगल के समान है। संसार परिवर्तनशील है। उसकी प्रत्येक गतिविधि में प्रत्येक क्षण परिवर्तन होता है। मुगलों के शासन काल में देश की परतन्त्रता के साथ-साथ स्त्रियों की भी स्वतन्त्रता का अपहरण हुआ। नारी का प्रेमबलिदान और सर्वस्व समर्पण की भावना उसके लिए घातक बन गई। उनको पर्दे में रहने के लिये विवश किया गया। उनकी शिक्षा का अधिकार भी उनसे छीन लिया गया । नारी की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया । वह घर की चार दीवारी में बन्द होकर अविद्या और अज्ञान के गहन अन्धकार में भटकने लगी। उसका पग-पग पर अपमान होताठुकरायी जातीपर वह अशिक्षित होने के कारण इन सभी यातनाओं को मौन होकर मूल पशु की तरह सहती रही। इस समय छोटी-छोटी कन्याओं का विवाह कर दिया जाता था तथा बेमेल विवाह होते थे । परिणामस्वरूप छोटी उम्र में ही कन्यायें विधवा हो जाती थीं और विधवा का हर क्षेत्र में तिरस्कार किया जाता था। पर्दा प्रथाबाल विवाहविधवाओं की हीन दशाशिक्षा का अभावअनमेल विवाह आदि कुरीतियों के कारण नारी की स्थिति बहुत शोचनीय थी।

    समय के अनुसार हमारे देश में राजनैतिक चेतना के साथ-साथ नारियों में भी जागृति हुई। भारतीय नेताओं का ध्यान सामाजिक कुरीतियों की तरफ गया। इन कुरीतियों को दूर करने के लिये सन्‌ 1824 में महर्षि दयानन्द एक देवदूत बनकर आये। जब महर्षि दयानन्द अज्ञानता और अन्धविश्वास को दूर करने के लिये निकले तो उन्होंने अनुभव किया कि जब तक नारी शिक्षित नहीं होगीतब तक हमारा समाज भी अज्ञान के अन्धकार में भटकता रहेगा।

    founder of arya samaj

    "मातृमानपितृमानआचार्यवान पुरुषो वेद" के अनुसार उन्होंने माता को प्रथम गुरु बताया। उनकी  प्रेरणा से कन्या गुरुकुलों की स्थापना की गई। स्त्रियॉं जो अब तक घर की चारदीवारी में बन्द थी अब पर्दा छोड़कर शिक्षा प्राप्त करने के लिये घरों से बाहर निकलीं। स्वामी जी ने कहा कि स्त्री और पुरुष दोनों समान शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। दोनों के अधिकार समान हैं।

    स्वामी जी से पहले हमारे देश के धार्मिक नेताओं का कहना था कि वेद पढने का अधिकार केवल सवर्ण पुरुषों को ही हैस्त्रियॉं तथा निम्न जाति के लोग वेद नहीं पढ सकते- स्त्री शूद्रौ नाधीयाताम्‌। परन्तु स्वामी जी ने इसका विरोध किया। वे स्त्री जाति को वैदिक काल वाली उन्नत और उज्ज्वल पदवी देना चाहते थेजिसमें सती साध्वी मातायें देश का मान थीं। स्वामी जी ने कहा कि चाहे कोई स्त्री हो या शूद्र जाति का व्यक्ति होसभी वेद पढ सकते हैं। यह सब स्वामी जी के प्रयास का ही परिणाम है कि आज महिलायें पुरुषों के साथ मिलकर देवयज्ञ करती हैं और देवमन्त्रों का सस्वर पाठ करती हैं।

    महर्षि दयानन्द का समय सामाजिक चेतना का समय था। उस समय राजा राममोहन राय सती प्रथा तथा विधवा विवाह के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे । महर्षि स्वामी दयानन्द ने नारी के सर्वांगीण विकास पर बल दिया। उस समय बाल विवाह होते थेजिससे छोटी अवस्था में कन्यायें मां बन जाती थीं। स्वामी जी ने बाल विवाह की भर्त्सना की और सोलह साल से कम आयु की लड़कियों के विवाह को अनुचित बताया। इसके अतिरिक्त उन्होंने विधवा विवाह को भी प्रोत्साहन दिया। उन्होंने इस बाल पर बल दिया कि जो विधवा स्त्री संयम और एकान्त का शुद्ध जीवन व्यतीत न कर सकेउसके लिये पुन: विवाह करके गृहस्थाश्रम की शोभा बढाना उचित है। समाज में भ्रष्टाचार कम करने के लिये विधवा विवाह अत्यन्त आवश्यक है। स्वामी जी ने कहा कि यदि पुरुष विधुर हो जाने पर दूसरा विवाह कर सकता है तो एक स्त्री को भी अधिकार है कि वह विधवा हो जाने पर अपना दूसरा जीवन साथी चुन सके। इन सब कार्यों के लिये उन्होंने कई आन्दोलन भी किये।

    जब स्वामी जी ने आर्य समाज की स्थापना की तो आर्य समाजों ने धर्म प्रचार के साथ सर्वप्रथम स्त्रियों की अशिक्षा दूर करने की ही आवाज उठाई थी। यह स्वामी जी के परिश्रम का ही परिणाम हुआ कि श्रीमती सरोजिनी नायडू ने उत्तर प्रदेश के गर्वनर पद को सुशोभित किया तथा श्रीमती विजय लक्ष्मी पण्डित विदेशी राजदूत के पद पर आसीन हुई और श्रीमती इन्दिरा गान्धी ने सारे भारतवर्ष का भार अपने बलिष्ठ कन्धों पर सम्भाले रखा। यदि स्वामी जी नारी समाज में इतनी क्रान्ति न लाते तो नारी आज प्रधानमन्त्रीमुख्यमन्त्री आदि न बनकर घर की चार दीवारी में कैद होती। महर्षि दयानन्द के अथक प्रयासों के कारण आज नारी अबला नहीं है बल्कि वह सबला हैजो पुरुष को भी अन्धकार में भटकने से बचा सकती है और अपनी बुद्धिविवेक तथा विद्वता से अपने परिवारसमाज और यहॉं तक कि देश को भी उन्नत बना सकती है।

    स्वामी दयानन्द ने नारी समाज का इतना उद्धार किया कि उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। अब हमें देखना यह है कि भारतीय नारी के क्या आदर्श होने चाहिएंभारतीय सभ्यता का मूल मन्त्र "सादा जीवन उच्च विचार" था। परन्तु आज की नारियॉं सादे जीवन से कोसों दूर हैं। आज के इस समय में जब देश में हजारों व्यक्तियों के पास न खाने को अन्न हैन पहनने को कपड़ा। ऐसे समय में राष्ट्र की सम्पत्ति का एक बहुत बड़ा भाग श़ृंगार के साधनों में लुटा दिया जाता हैजिसका कोई भी महत्त्व नहीं है।

    आज की नारी तितली की तरह अपने शारीरिक  बाह्य सौन्दर्य को सुरक्षित रखने में हर समय तत्पर रहती है। पुरुष को मोहित करने के लिये अपने आपको सजाने की प्रवृत्ति में ही वह अपना अधिकांश समय और धन नष्ट कर देती है। जब तक नारी की यह आन्तरिक दुर्बलता दूर न होगीउसका भीतरी व्यक्तित्व नहीं बदलेगा। जब तक नारी अपनी विद्वत्ताशालीनतावैदिक ज्ञानसहनशीलतासदाचारिताआत्मसंयम आदि गुणों से अपने को अलंकृत नहीं करेगीतब तक नारी ओजस्विनी और तेजस्विनी नहीं बन सकती और वह पुरुष की काम वासना का शिकार बनती रहेगी जैसा कि आजकल हो रहा है। इन गुणों को धारण करने से ही नारी सच्चे अर्थों में आदर्श गृहिणी बन सकती हैजिसकी कल्पना महर्षि दयानन्द सरस्वती ने की अथवा जैसी नारी का स्वरूप हमारे वैदिक काल में था।

    स्वतन्त्र भारत में नारी का यह भी कर्त्तव्य है कि वह देश की सामाजिक कुरीतियों का बहिष्कार करे। दहेज प्रथाबाल विवाहविधवा विवाहअनमेल विवाह आदि कुछ ऐसी भयानक कुरीतियॉं समाज में चल रही है इन सब कुरीतियों को दूर करने के लिये सरकार चाहे कितने भी कानून बनाये पर तब तक यह पूर्णतया दूर नहीं हो सकती जब तक कि नारी जाति स्वयं जागरूक नहीं होगी। कृष्णा बाला (आर्यजगत्‌ दिल्ली26 अक्टूबर 1997)

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    According to the time, there was awakening in our country along with political consciousness. The attention of Indian leaders went towards social evils. In 1824, Maharishi Dayanand came as an angel to remove these evil practices. When Maharishi Dayanand came out to remove ignorance and superstition, he realized that till the time the woman is educated, our society will also be wandering in the darkness of ignorance.

     

    Maharishi Dayanand's Contribution to the Upliftment of Indian woman | Arya Samaj Indore - 9302101186 Arya Samaj Mandir Indore | Arya Samaj Marriage Indore | Arya Samaj Mandir Marriage Indore | Arya Samaj Annapurna Indore | Arya Samaj Mandir Helpline Indore for Dindori - Guna - Mumbai City - Mumbai Suburban - Jaipur - Jaisalmer | Official Web Portal of Arya Samaj Bank Colony Indore Madhya Pradesh | Arya Samaj Mandir Indore | Arya Samaj | Arya Samaj Mandir | Arya Samaj in India | Arya Samaj Marriage Indore | Arya Samaj in India | Arya Samaj in Madhya Pradesh | Vedas | Maharshi Dayanand Saraswati | Vaastu Correction Without Demolition | Arya Samaj helpline Indore Madhya Pradesh | Arya Samaj Online | Arya Samaj helpline | Hindi Vishwa | Intercast Marriage | Hindu Matrimony | Havan for Vastu Dosh Nivaran | Vastu in Vedas | Vedic Vastu Shanti Yagya | Vaastu Correction Without Demolition

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  • भाव परिवर्तन

    यदि आज आपने एक बार हॉं कहने का साहस बटोर लिया है, तो विश्वास कीजिये कि भविष्य पर आपका अधिकार हो चुका। फिर इस पृथ्वीमण्डल पर कोई शक्ति ऐसी नहीं है, जो आपको आपके इस अधिकार से अधिक समय तक वंचित रख सके। क्योंकि आप और आपके विचार अनन्त काल के लिये अमर हैं और भविष्य आपका अनुचर बन चुका है।

    जो पुरुष धैर्यवान्‌ है और जिसने एक बार प्रतिज्ञा कर ली है, उसके लिये पृथ्वीमण्डल घर के आंगने के समान है, समुद्र बरसाती गड्‌ढे के समान है और पाताल लोक भूमि के तुल्य तथा सुमेरु पर्वत बाम्बी के बराबर है।

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    चारों वेदों के अलग अलग नाम क्यों

    Ved Katha Pravachan _58 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    क्या मनुष्य का जीवन इसलिये है कि वह सदा अपने भाग्य का रोना रोता रहे? उठो और देखो, पूरब में सूर्य अपनी पूर्ण प्रतिमा और सर्वकलाओं से उदय हो रहा है। सोचो, और बताओ! मनुष्य का मार्ग आज तक कौन रोक पाया है? क्या उच्च पर्वत श्रेणियॉं? क्या विशाल नदियॉं और अगाध तथा अनन्त समुद्र? नहीं!

    आप कहेंगे कि मृत्यु हमारे मार्ग का रोड़ा है। परन्तु ऐसा नहीं है। आप पुनः कहेंगे कि दरिद्रता, दासता, कलियुग रोग और ईर्ष्या हमारे मार्ग को अवरुद्ध करेंगे। परन्तु विश्वास करिये वे आपकी आज्ञानुसार बदलेंगे और सहायक होंगे, यदि आपने एक बार ही अपना सुमार्ग निश्चयपूर्वक सदा के लिये चुन लिया है और दूसरी इच्छाओं को स्थान न देने की प्रतिज्ञा कर ली है। आपको अपना उद्देश्य दृढ़ निश्चय की भूमि पर जमाना होगा और जब एक बार उसको भले प्रकार जमा लिया गया, तो बड़े से बड़े मोहक प्रलोभनों से वह आपकी रक्षा करेगा। जब ऐसा हो जाएगा तब संसार की प्रत्येक घटना, प्रत्येक प्राणी और प्रत्येक वस्तु आपके स्पर्श मात्र से आपके उद्देश्य से एकता प्राप्त करने के लिये बाध्य हो जाएगी । क्योंकि आपका उद्देश्य स्वयं सम्पूर्ण जीवन के प्रवाह के अनुकूल निर्माण किया गया है।

    इस प्रकार आप संघर्षमय जीवन को कलामय बनाने में, झाड़-झंकाड़पूर्ण वन को स्वर्ग-कानन बनाने में सफल मनोरथ होंगे।

    जिनकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन जैसी। -आचार्य डॉ.संजय देव

    जीवनोपयोगी चिन्तन

    1. किसी भी व्यक्ति पर कीचड़ उछालना बड़ा सरल काम है किन्तु अपने गिरेबान में झॉंककर देखना निश्चय ही टेढ़ी खीर है।
    2. किसी भी व्यक्ति की शिक्षा उसके संस्कारों के आधार पर प्रमाणित होती है, उपाधियों के आधार पर नहीं। सदाचारी एवं विचार-प्रधान नागरिक ही किसी देश की सबसे बड़ी पूंजी होती है।
    3. भाग्यवादी एवं आलसी में मानसिक अपंगता होती है।
    4. आत्मनिर्भरता ही जीवन है।
    5. किसी भी व्यक्ति का चिन्तन उसकी सच्चरित्रता (या चरित्रहीनता) का परिचय देता है।
    6. जो मॉं-बाप संस्कारविहीन सन्तानें समाज और देश पर थोपते हैं, वे निश्चय ही बहुत बड़ा अपराध करते हैं।
    7. किसी भी व्यक्ति के आर्थिक स्तर एवं जीवन-स्तर का निर्माण उसके मानसिक स्तर के आधार पर होता है।
    8. अर्जित योग्यता सम्पन्न व्यक्ति "भूषण' होता है जबकि आरोपित योग्यता सम्पन्न व्यक्ति "दूषण'।
    9. व्यक्ति की जिजीविषा का आधार इसकी कर्मशीलता होती है।
    10.हर दम्पत्ति को अपनी गृहस्थी मिल-जुलकर चलानी चाहिए। आर्थिक दृष्टि से भी तथा गृहविज्ञान की दृष्टि से भी। आज के ज्ञान-विज्ञान प्रधान युग में दम्पत्ती को अकादमिक उपलब्धियॉं अर्जित करने के लिए सम्पूर्ण मन से सचेष्ट रहना चाहिए।
    11."गीता' जीने की कला का मार्गदर्शक ग्रन्थ है। - डॉ. महेशचन्द्र शर्मा

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    Is the life of a man so that he always weeps for his fortune? Rise and see, in the east, the sun is rising with its full image and all the arts. Think and tell! Who has stopped the path of man till date? What high mountain ranges? What vast rivers and deep and everlasting seas? No!

     

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  • मजहब ही सिखाता है आपस में बैर करना

    आचार्य डॉ. संजयदेव के प्रवचनों से संकलित 

    आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्‌। जैसा व्यवहार हम अपने साथ चाहते हैं, वैसा ही व्यवहार दूसरों के साथ करें। जैसा व्यवहार हम अपने साथ नहीं चाहते, उससे विपरीत व्यवहार दूसरों के साथ भी न करें । यदि मैं चाहता हूँ कि कोई मेरी मॉं-बहिन- बेटी को बुरी दृष्टि से न देखे, तो मैं भी किसी की मॉं-बहिन-बेटी को बुरी दृष्टि से न देखूं । क्योंकि जैसे कोई मेरी मॉं-बहिन-बेटी को बुरी दृष्टि से देखता है तो मुझे दुःख होता है, मुझे कष्ट होता है। ऐसे ही यदि मैं किसी की मॉं-बहिन-बेटी को बुरी दृष्टि से देखता हूँ तो उसके भी पिता, भाई या पुत्र को कष्ट होता है । धर्म की सबसे बड़ी कसौटी यही है कि हम सबके साथ अपनी आत्मा के साथ जैसा व्यवहार चाहते हैं, वैसा व्यवहार करें। आत्मवत्‌ सर्वभूतेषु पश्यति स पश्यति।  जो अपनी आत्मा के अनुकूल सबके साथ व्यवहार करता है, वही वास्तव में देखने वाला होता है। और जो ऐसा व्यवहार करता है, वही अपने जीवन में आत्यन्तिक सुख की प्राप्ति कर सकता है । त्रासदी यह है कि दुनिया के लोग दुःख से तो बचना चाहते हैं, परन्तु दुःखों के कारण पाप को छोड़ना नहीं चाहते । 

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    मनुष्य जन्म अत्यन्त दुर्लभ है

    Ved Katha Pravachan _57 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    दुनिया के लोग सुख प्राप्त करना तो चाहते हैं परन्तु सुख देने वाले 
    धर्म का आचरण करना नहीं चाहते। सुख के कारण धर्म को अपने जीवन में ढालोगे, धर्म का अपने जीवन में आचरण करोगे, तभी सुख प्राप्त होगा। नहीं तो सुख प्राप्त नहीं होगा। और यह भी निश्चित रूप से जान लीजिए कि मरने के बाद धर्म ही साथ जाता है। जैसा कि महर्षि कणाद कहते हैं वैशषिक दर्शन में- यतो अभ्युदय निःश्रेयस सिद्धि स धर्मः। जिससे इस लोक में और परलोक में उन्नति हो वो धर्म होता है । इस लोक में जैसे धर्म से उन्नति होती है, धर्म से ही परलोक में भी अभ्युदय होता है। मरने के बाद जो हमारे अच्छे-बुरे कर्म हैं, वही हमारे साथ जाएंगे। और हमारा कल्याण, हमारा उत्थान, हमारा उद्धार हमारे अच्छे कर्मों से ही होगा, जिसे शास्त्रों में धर्म कहा गया है। वेद से लेकर महर्षि वेदव्यास पर्यन्त, शंकराचार्य और दयानन्द पर्यन्त जितने भी ग्रन्थ और महापुरुष तथा ऋषि हुए हैं, उन सबका यह मानना है कि मरने के बाद धर्म ही एक साथी होता है। महर्षि मनु कहते हैं-

    एक एव सुहृद धर्मो निधनेऽप्युनुयाति यः।
    शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यद्धि गच्छति।।

    एक ही जो धर्म है वही अपना सगा होता है, वही अपना परम मित्र होता है, जो मरने के बाद भी साथ जाता है। अन्य सब कुछ तो यहीं रह जाता है। जब यक्ष युधिष्ठिर से पूछते हैं महाभारत में, प्रश्न करते हैं कि मरने के बाद कौन मित्र होता है, मरने के बाद भी कौन साथ जाता है ? युधिष्ठिर कहते हैं मरने के बाद धर्म साथ जाता है। मरने के बाद धर्म ही सहयोगी होता है। जो हमारे अच्छे-बुरे कर्म हैं, जो हमारे द्वारा किया हुआ धर्म और अधर्म है, वो मरने के बाद साथ जाएगा और उन धर्म-अधर्म मेें से धर्म हमारा सहयोगी होगा। धर्म हमारा परम मित्र होगा। वही हमारा साथ देगा । कहते हैं -

    धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे नारी गृहद्वारि जनाः श्मशाने।
    देहश्चितायां परलोक मार्गे धर्मानुगो गच्छतिजीव एक।।

    धनानि भूमौ। जो आपने धन-धान्य कमाया है, वैभव-सम्पत्ति एकत्रित की है, वो सब या तो बैंकों में रखा रह जाएगा या भूमि में आपने गा़ड़ा है अथवा दबाया है वहॉं रखा रह जाएगा । आपके साथ नहीं जाएगा। पशवश्च गोष्ठे। और जो आपके पास गा़डियॉं-घोड़े, कारें या अन्य अच्छे-अच्छे वाहन हैं या पशु आदि हैं, वो सब जो आपकी जगह है गाड़ियों को रखने की या पशुशाला है वहीं रह जाएंगे। वो भी साथ नहीं जाएंगे। और नारी गृहद्वारि जनाः श्मशाने। यहॉं तक कि आपकी जो पत्नी है वह भी घर के दरवाजे तक साथ जाएगी। पत्नी भी घर के दरवाजे से आगे जाने वाली नहीं है। जिसको आपने प्राणों से प्यारी कहा है या जिसने आपको प्राणों से प्यारा कहा है, जिसने आपको प्राणप्रिय कहा है, वह भी मरने के बाद घर के दरवाजे तक ही साथ जाएगी। आगे नहीं जाएगी। और जनाः श्मशाने। जिनके लिए हम जान छिड़कते थे, जिनके लिए हम रात को दो बजे भी आने के लिए तैयार होते थे, वो लोग भी श्मशान तक ही साथ देंगे। आगे साथ नहीं देंगे। यावत्‌ जीवेत्‌ सुखं जीवेत्‌, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्‌। इस सिद्धान्त को लेकर के हम आगे बढ़े हैं कि जब तक जियें सुख से जियें, ऋण लेकर भी घी पीयें। इसको मानकर के हमने अपने शरीर को मोटा-तगड़ा बनाया है। ये शरीर भी हमारे साथ नहीं जाएगा। इसलिए कहते हैं देहश्चितायाम्‌। ये शरीर भी जलने तक, अग्नि तक साथ रहेगा। साथ में ये भी नहीं जायेगा। धर्मानुगो गच्छति जीव एक। केवल धर्म ही एक वो तत्व है जो जीव के साथ जाता है, मनुष्य के साथ जाता है। इसलिए कहते हैं-

    कमा ले धर्म-धन प्यारे साथ तेरे जो जाएगा।
    धन-वैभव और माल खजाना धरा यहीं रह जाएगा।।

    जो भी कुछ आपने कमाया है वह सब यहीं रखा हुआ रह जाएगा। यदि आपने अपने सब कर्त्तव्यों का निर्वहन धर्म के साथ किया है, धर्म के साथ अपने सब कर्त्तव्यों को पाला है तो वह धर्म निश्चित रूप से आपके अन्त समय में साथी होगा। आचार्य चाणक्य जिनका मैंने उदाहरण दिया था वो भी यही कहते हैं-

    विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च।
    व्याधिस्तस्योषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च।।

    यदि हम प्रदेश में है जहॉं हमारा कोई परिचय नहीं है, तो विद्या हमारी मित्र होती है। यदि हम विद्वान हैं, ज्ञानवान हैं तो विद्या हमारा साथ देती है। भार्या मित्रं गृहेषु च। घर में पत्नी मित्र होती है। व्याधिस्तस्योषधं मित्रम्‌। यदि हम बीमार हो जाते हैं तो उस अवस्था में औषधि हमारी मित्र होती है और क्या कहते हैं! मनु महाराज द्वारा और अन्य ग्रन्थों में जो कहा गया है, उनके स्वर मेें स्वर मिलाकर चाणक्य भी यही कहते हैं। दुनिया के सबसे बड़े अर्थशास्त्री, जिन्होंने धन-वैभव कमाने का अच्छा रास्ता दुनिया को बताया था, जिनका अर्थ-प्रबन्धन पर सबसे प्राचीन ग्रन्थ है अर्थशास्त्र। वो भी यही कहते हैं धर्मो मित्रं मृतस्य च। मरने के बाद तो धर्म ही मित्र होता है। इसलिए हमारे जितने भी शास्त्र हैं, धर्मग्रन्थ हैं, वो सब यही उपदेश देते हैं कि क्योंकि मरने के बाद धर्म ही साथ जाता है, इसलिए प्रयत्न से धर्म का संचय करो। 

    धर्म के मार्ग पर चलने के लिए और धर्म के लक्षणों में ईश्वर को मानना अनिवार्य शर्त नहीं है। ये बात ध्यान में रख लेना । ईश्वर को मानना धर्म के लिये अनिवार्य शर्त नहीं है। परन्तु ईश्वर को मानने से धर्म का जो मार्ग है वो सुगम हो जाता है। यह अवश्य है। यदि हम ईश्वर पर विश्वास करेंगे, यदि हममे आस्तिक भावना होगी, तो धर्म पर चलने में हमारा रास्ता सुगम हो जाएगा। धर्म पर चलने में हमें सहयोग मिलेगा। जो व्यक्ति ईश्वर को सर्वव्यापक मानता है, कोई भी कार्य करने से पहले जिसको ये मालूम है कि परमात्मा सर्वव्यापक है और मैं जो भी कार्य कर रहा हूँ वो सब देख रहा है। 

    क्योंकि जो व्यक्ति यह मान लेता है कि ईश्वर सब जगह है, जहॉं भी हम पाप कर्म करते हैं वो हमें सब जगह साक्षी भाव से देख रहा है, तो हम पाप कर्म से बच जाते हैं और अच्छे मार्ग की ओर चल पड़ते हैं। ईशोनिषद्‌ यजुर्वेद का अन्तिम अध्याय है। उसमें यही कहा गया है कि परम पिता परमात्मा को सब जगह व्यापक मानते हुए अपने कर्मों का निर्वहन करो, अपने कर्त्तव्यों को करो, तो जीवन में कभी भी दुःख नहीं उठाना पड़ेगा। ईशावास्यम्‌ इदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्‌। इस संसार में जो कुछ भी है वो सब ईश्वर से ढका हुआ है। सब स्थानों में ईश्वर है। इसलिए यदि ईश्वर को साक्षी मानकर कर्म करोगे तो तुम कभी भी सन्देह भाव में नहीं पड़ोगे। 

    अगला मन्त्र यह कहता है कि ईश्वर को साक्षी मान करके-

    कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।
    एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।

    वेदोक्त धर्मयुक्त कर्मों को करते हुए सौ वर्ष तक जीने का प्रयास करो।  कैसे कर्म करो? धर्मयुक्त करो। वेदोक्त कर्म करो। उन कर्मों को करते हुए ही सौ वर्ष तक जीने का प्रयास करो। धर्मयुक्त कर्म करोगे, तो जैसे मैं अपने साथ व्यवहार करता हूँ वैसा ही दूसरों के साथ करूँ, तो दूसरे लोग भी मेरे साथ अच्छा व्यवहार करेंगे, मुझे अच्छा लगेगा,मुझे सुख मिलेगा। और मुझे सुख मिलेगा तो मेरी आयु भी सौ वर्ष हो जाएगी। क्योेंकि सब दृष्टियों से चाहे प्राकृतिक पदार्थों में सन्तुलन करने की दृष्टि हो, चाहे अन्य जल-वायु आदि पदार्थों में सन्तुलन करने की दृष्टि हो, चाहे प्राणियों के प्रति, मनुष्यों के प्रति मित्र की भावना की दृष्टि हो, सब दृष्टियों से हम धर्म का पालन करेंगे, तो उस धर्म का पालन करने से हमें सुख मिलता है।  दुनिया के जितने भी आज तक वेद से लेकर धर्मग्रन्थ हुए हैं वो सब धर्मयुक्त कर्म करने का उपदेश देते हैं। 

    मैंने बताया था कि धर्म का मतलब सम्प्रदाय, मजहब या पन्थ नहीं है। सम्प्रदाय, मजहब और पन्थ तो अनेकोें हो सकते हैं। परन्तु धर्म एक ही होता है।  और वो ईश्वर प्रणीत होता है। धर्म, सम्प्रदाय और पन्थ तो व्यक्ति स्थापित करते हैं। और धर्म को स्वयं ईश्वर स्थापित करते हैं। हमारे अन्तःकरण में धर्म के पालन की प्रेरणा देते हैं। हम जब कोई गलत काम करते हैं तो हमारे हृदय में जो आवाज आती है, भय, शंका और लज्जा उत्पन्न होती है, वह परमपिता परमात्मा की ओर से होती है। और जब हम कोई अच्छा कार्य करते हैं तो आनन्द और उत्साह की वृद्धि होती है। वह भी परमपिता परमात्मा की ओर से होती है। 

    धर्म में और सम्प्रदाय में मूलभूत अन्तर है। आज ये जो कहा जा रहा है कि संसार में धर्म के नाम पर लड़ाई-झगड़े हो रहे हैं, होते रहेंगे या होंगे, यह मिथ्या है। वर्तमान में लोगों को धर्म की परिभाषा समझ में ही नहीं आ रही है । धर्म क्या होता है यह जानते ही नहीं। और एक और बात का जोरों से प्रचार होता है। मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना। एक तरफ तो यह कहते हैं कि धर्म के नाम से झगड़े होते हैं और एक तरफ उससे विपरीत बात कहते हैं कि मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना। 

    जबकि तथ्य यह है कि मजहब ही सिखाता आपस में बैर करना। दुनियॉं में जितनी भी लड़ाईयां हुई हैं या हो रही हैं या होंगी आगे भी, वो सब अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए होती हैं। अपनी बात को मनवाने के लिए होती हैं। और अपनी बात को मनवाने की जहॉं बाध्यता होती है, अपनी बात को मनवाने का जहॉं आग्रह होता है, अपनी विचारधारा की कट्‌टरता को जहॉं फैलाने की बात होती है, वही सम्प्रदाय होता है, वही मजहब होता है, वही पन्थ होता है। उसे ही मत कहा जाता है। यही कारण था कि हमारे देश भारतवर्ष में विदेशी लोग अपने एक हाथ में अपने सम्प्रदाय की पुस्तक को लेकर के और एक हाथ में तलवार लेकर के यहॉं आए थे। उस तलवार के बल पर और अपने उस सम्प्रदाय की पुस्तक के बल पर सारे देश को अत्याचार से युक्त कर दिया था।  सारे देश पर अन्याय ढाया था। वो धर्म के नाम पर नहीं हुआ, सम्प्रदाय के नाम पर हुआ। 

    धर्म तो यह सिखाता है, धर्म तो यह कहता है कि हे प्रभो! धर्म का अनुयायी, वेद का अनुयायी, सनातनधर्मी प्रातः उठते ही मैंने बताया था, कामना करता हैकि- हे प्रभो! सर्वे भवन्तु सुखिनः। सब सुखी रहें। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। सब अच्छा देखें, सर्वे सन्तु निरामयाः। सब निरोग हों। मा कश्चिद्‌ दुःखभाग्‌ भवेत्‌। किसी को कोई दुःख नहीं हो। सनातनधर्मी तो यह मानता है कि चाहे वेद को मानने वाला हो या न हो, आस्तिक हो या नास्तिक हो, राम को मानने वाला हो या रहीम को मानने वाला हो, कृष्ण को मानने वाला हो या अल्लाह को मानने वाला हो, हे प्रभो! सबका कल्याण करना। सनातन धर्म के जितने भी ग्रन्थ हैं, वो सब इसी धर्म पर चलने का उपदेश देते हैं। जब अत्याचार और अन्याय उत्पन्न होता है, जब अत्याचार और अन्याय का इस धरती पर प्रार्दुभाव होता है, तो इसी धर्म की रक्षा के लिए हमारे महापुरुष अवतरित होते हैं। गीता का आरम्भ तो धर्म से ही हुआ है। धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः, मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय। धर्मक्षेत्र में, कुरुक्षेत्र में पाण्डवों ने और कौरवों ने इकट्‌ठे होकर क्या किया, हे संजय! मुझे बताओ। धर्म से प्रारम्भ हुआ। क्योेंकि अन्याय और अत्याचार किया जा रहा था। कर्त्तव्यों का ठीक-ठीक पालन नहीं हो रहा था। दूसरे के भाग को, दूसरे के हिस्से को हड़पा जा रहा था। द्वेषाग्नि सुलग रही थी। भगवान कृष्ण ऐसी स्थिति में ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त होकर अवतरित हुए थे। और क्या कहते हैं गीता में- 

    परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌।
    धर्मसंस्थापनार्थायसम्भवामि युगे युगे।।

     

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    There is a fundamental difference between religion and community. Today it is being said that in the name of religion in the world, there are fights and fights taking place in the name of religion, whether it will happen or will happen, it is false. Presently people do not understand the definition of religion. They do not know what religion is. And another thing is propagated loudly. Religion does not teach hating each other. On the one hand it is said that there are quarrels in the name of religion and on the one side it says the opposite thing that religion does not teach hating one another.

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  • मत-पंथों का कारण

    आज देश में जो नाना प्रकार के मत पन्थ चल रहे हैं उनका मूल कारण क्या है। यह क्रम कहीं पर भी रुका नहीं अपितु निरन्तर प्रवाहमान नदी की भांति आज भी चल रहा है और निरन्तर नये-२ मत-सम्प्रदाय जन्म ले रहे हैं। सदियों से चले आ रहे इस मानसिक रोग ने समाज की वह शक्ति छीन ली है कि जिसके विकलांगता के कारण लोग यह समझ ही नहीं पा रहे कि उनका हित किसमें है। आपको मेरे शब्द 'मानसिक विकलांग' पर कुछ अपनी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, व्यावसायिक समस्याओं का समाधान केवल इस बात में पाते हो कि 'अच्छा यह बताओ समोसा खाया था?' जी हां. खाया था। कब खाया था' जी एक सप्ताह पहले खाया था।' श्लाल की चटनी के साथ खाया था या हरी के साथ? 'जी लाल के साथ खाया था।' अच्छ जाओ अब हरी के साथ खाओ तुम्हारी सारी समस्यायें दूर हो जायेगी। ' अब ऐसे लोगों को (गुरु और चेले दोनों को) मानसिक विकलांग न कहें तो की कहें? जहां पर माता-पिता अपनी सन्तान को तांत्रिकों के कहने पर बलि तक देने को तैयार रहते हों, जहां पर प्रतिदिन नवयौवनाओं का बाबा लोग शारीरक शोषण करते हों, जहां पर धर्म के नाम पर कुछ भी चल सकता हों, ऐसे समाज को मानसिक विकलांग न कहें तो क्या कहें?

    Motivational speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
    Greatness of Vedas & India | गौरवशाली महान भारत - 2

    यह तो एक बहुत ही सामान्य सा उदहारण हमने दिया है जो समाज में ऐसी बातों की भरमार है कि जहां पर अशिक्षित मनुष्य तो क्या अपितु उच्च शिक्षा से प्राप्त एवं उच्च अधिकार प्राप्त लोग भी बुद्धि को ताक पर रखकर अनेकों ऐसे कर्म करते हुए देखे जा सकते है जो उनकी अन्धश्रद्धा का परिचय देने के लिए पर्याप्त हैं। 

    स्मरण रखना चाहिये कि कोई भी घटना अचानक नहीं होती। अचानक दुर्घटनाएं हुआ करती हैं। प्रत्येक घटना की भूमिका हमारे मस्तिष्क में विचार रूप में जन्म ले चुकी होती है और जब हमें विश्वास हो जाता है तो फिर वह घटना क्रियारूप में आ जाती है। इसी प्रकार से लोगों की तर्कशून्यता, विचारशून्यता, केवल आज के परिवेश का परिणाम नहीं है अपितु वर्षों से भूमिका तैयार हो चुकी है, वही उसका कारण है। उदारण के लिये मैं जन्माष्टमी के दिन श्रीकृष्ण जी महाराज के जीवन पर व्याख्यान दे रहा था। पौराणिक जगत में जो उनका प्रचलित रूप है उस पर बोलते हुए मैनें कहा कि श्रीकृष्ण जी महाराज एक अद्विदित्य महापुरुष थे। अजेय योद्धा, बहुत उच्च कोटि के विद्वान्, योगी, धर्मात्मा, नीतिवान, कुशल राजनीतिज्ञ, दूरदर्शी, स्पष्टवादी, वेद भक्त, गोभक्त, ईश्वर भक्त अदि-२ अनेक गुणों से युक्त ऐसे महापुरुष थे जिनकी जितनी बड़ाई की जाये, कम है।

    भागवतादि पुराण बनाने वालों ने उनको कहीं का न छोडा। मनमाने दोष लगाकर ईश्वर तो क्या साधारण मनुष्य भी रहने दिया। जब व्याख्यान समाप्त हुआ तो एक खड़ा हो गया और बोला कि मेरी कुछ शंकायें हैं। मैनें कहा कि बोलो क्या हैं? कहने लगा की श्रीकृष्ण तो ईश्वर थे, उनकी सोलह हजार एक सौ आठ रानियां थी, वे सभी के साथ एक ही समय में रह सकते थे, क्योंकि जो ईश्वर होता है वह कुछ भी कर सकता है उसे कोई दोष भी नहीं लगता लगता आदि। आप समझ सकते हैं कि ये विचार कहां से उदय हुए। उस व्यक्ति का इसमे उतना दोष नहीं है जितना दोष इन लोगों से उनकी बुद्धि हरने वालों का है। छल से, चालाकी से अर्थों के अनर्थ करके जो कुछ समाज के भोले-भोले लोगों के सामने परोसा, युगों तक परोसा गया लोगों ने उसका भरपूर स्वाद चखा और यह विष उनके गले से उतर कर उनके रक्त में सम्मिलित हो गया। अब यदि कोई उस विष की चिकित्सा करे तो शल्यक्रिया के समान कष्टदायक लगता है, यह है अनर्थों का बोझ। महर्षि दयानन्द जी महाराज ने इसी वेदना को अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में कुछ इन शब्दों में व्यक्त किया है, 'इस देश को रोग हुआ है, जिसका औषध तुम्हारे पास नहीं' (अर्थात् मेरे पास है) (सत्यार्थ प्रकाश ग्यारहवां सम्मुलास) वह रोग कौन सा है और उनका ओषध क्या है, इस पर फिर कभी स्वतन्त्र रूप से लिखने का यत्न करेगें। यहां हमारा अभिप्राय यह दिखाने का है कि धूर्त लोगों द्वारा चलाई गई अनुचित बातों ने समाज की मानसिकता ही बदल डाली। जन्मना जाति-पांति, छुआ-छूत, मूर्तिपूजा, भूत-प्रेत, अवतारवा, फलित ज्योतिष, चमत्कार, टोने-टोटके, मृतक श्राद्ध आदि-२ के विकृत साहित्य द्वारा जो जन साधारण की वृति बनी उसके प्रकाश में हम यह बलपूर्वक कह सकते है कि यह अर्थों के अनर्थ होने के कारण हुआ। जब तक लोगों की बुद्धि पर इन अनर्थों का बोझ रहेगा तब तक श्रेष्ठ समाज का निर्माण स्वप्न ही रहेगा। - रामफल सिंह आर्य

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    What is the root cause of the many different types of schools of thought going on in the country today. This sequence has not stopped anywhere, but is still going on like a flowing river and new 2 schools are taking birth continuously. This mental disease that has been going on for centuries has taken away the power of society that due to disability people are unable to understand what is in their interest.

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  • मन की दिव्यशक्ति

    ओ3म्‌ वयं सोम व्रते तव मनस्तनूषु बिभ्रतः।
    प्रजावन्तः सचेमहि।। ऋग्वेद 10.57.6

    ऋषिः बन्धुः सुबन्धु आदयः।। देवता विश्वेदेवाः।। छन्दः-गायत्री।। 

    विनय - हे सोम! तुम्हारा दिया हुआ तुम्हारी महाशक्ति का अंशभूत मन हमारे शरीरों में विद्यमान है। इस मन का, इस तुम्हारी अमूल्य देन का हमें गर्व है। इस मन के कारण ही हम मनुष्य हैं। इस मनशक्ति के कारण ही हम पशुओं से ऊँचे हुए हैं। तो क्या अपने शरीरों में मन जैसी प्रबल शक्ति को धारण किये हुए भी हम लोग तुम्हारे व्रत में न रह सकेंगे? बेशक तुम्हारे व्रत का पालन करना बड़ा कठिन है। तुमने जगत्‌ में जो उन्नति के नियम बनाये हैं, ठीक उनके अनुसार चलना बड़ा दुःसाध्य है। पर जहॉं तुमने ये कठिन नियम बनाये हैं, वहॉं तुमने ही हममें मन की अतुल शक्ति भी दी है। अतः हमारा दृढ़ निश्चय है कि हम अपनी मनःशक्ति के प्रयोग द्वारा सदा तुम्हारे व्रत में ही रहेंगे, कभी इसको भंग न करेंगे। कठिन से कठिन प्रलोभन व विपत्ति के समय में भी मनःशक्ति द्वारा हम व्रत में स्थिर रहेंगे। 

    Ved Katha Pravachan _89 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    पर यह सब व्रतपालन किसलिए है? यह तुम्हारी सेवा के लिए है। यह तुम्हारा दिया मन इसी काम के लिए है। हम चाहते हैं कि केवल यह हमारा मन ही नहीं, किन्तु हमारे मन की प्रजा भी तुम्हारी सेवा में ही काम आवे। मन में जो एक रचनाशक्ति है, उस द्वारा प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह कुछ रचना कर जावे, कुछ निर्माण कर जावे। यह रचना ही मन की प्रजा है। यदि हम, हे सोम! सर्वथा तुम्हारे व्रत में होंगे तो हमारी यह रचना (प्रजा) भी निःसन्देह तुम्हारी सेवा के लिए ही होगी, इसी में व्यय होगी। इस प्रकार हम और हमारी प्रजा सदा तुम्हारी सेवा में रहें, तुम्हारी सेवा में ही अपना जीवन बिता देवें। अब यही संकल्प है, यही इच्छा है, यही प्रार्थना है। 

    शब्दार्थ - सोम=हे सोमदेव! तनूषु=अपने शरीरों में मनः=मन को, मनःशक्ति को बिभ्रतः=धारण किये हुए वयम्‌=हम लोग तव व्रते=तुम्हारे व्रत में हैं, तुम्हारे व्रत का पालन करते हैं और प्रजावन्तः=प्रजा-सहित हम लोग सचेमहि=तुम्हारी सेवा करते रहें। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

    आत्म जीवन निर्माण

    ओ3म्‌ अहमिद्धि पितुष्परि मेधामृतस्य जग्रभ।
    अहं सूर्य इवाजनि।। (ऋग्वेद 8.6.10, साम. पू. 2.2.6.8, अथर्व. 20.11.1)

    ऋषिः काण्वो वत्सः।।देवता इन्द्रः।।छन्दः गायत्री।। 

    विनय - मैं सूर्य के सदृश हो गया हूँ। मैं अनुभव करता हूँ कि मैं मनुष्यों में सूर्य बन गया हूँ। मुझ सूर्य से सत्यज्ञान की किरणें सब ओर निकल रही हैं। जैसे इस हमारे सूर्य से प्राणिमात्र को ताप, प्रकाश और प्राण मिल रहा है, सबका पालन हो रहा है, इसी प्रकार मैं भी ऐसा हो गया हूँ कि जो कोई भी मनुष्य मेरे सम्पर्क में आता है उसे मुझसे ज्ञान, भक्ति और शक्ति मिलती है। मैं कुछ नहीं करता हूँ, पर मुझे अनुभव होता है कि मुझसे स्वभावतः जीवन की किरणें चारों ओर निकल रही हैं तथा चारों ओर के मनुष्यों को उच्च, पवित्र और चेतन बना रही हैं। इसमें मेरा कुछ नहीं है। मैंने तो प्रभु के आदित्य (सूर्य) रूप की ठीक प्रकार से उपासना की है। अतः उनका ही सूर्यरूप मुझ द्वारा प्रकट होने लगा है। मैंने बुद्धि द्वारा सूर्य की उपासना की है। मनुष्य का बुद्धिस्थान (सिर) ही मनुष्य में द्युलोक (सूर्य का लोक) है। मैंने अपनी बुद्धि द्वारा सत्य का ही सब ओर से ग्रहण किया है और ग्रहण करके इसे धारण किया है। धारण करने वाली बुद्धि का नाम ही "मेधा' है। इस प्रकार मैंने मेधा को प्राप्त किया है। द्युलोक के साथ अपना सम्बन्ध जोड़कर द्युलोक को अपने में ग्रहण किया है। इसीलिए मैं सूर्य के समान हो गया हूँ। द्युलोक में स्थित प्रभु का रूप ऋतरूप है, सत्यरूप है। मैंने अपनी सब बुद्धियॉं, सब ज्ञान, उन सत्यस्वरूप पिता से ही ग्रहण किये हैं। मैंने इसका आग्रह किया है कि मैं सत्य को ही, केवल सत्य को ही अपनी बुद्धि में स्थान दूँगा। इस तरह मैंने प्रभु के द्युरूप की सतत उपासना की है, ऋत की मेधा का परिग्रह किया है। इस सत्यबुद्धि के धारण करने के साथ-साथ मुझमें भक्ति और शक्ति भी आ गई है। मेरा मन और शरीर भी तेजस्वी हो गया है। पालक पिता के सब गुण मुझमें प्रकट हो गये हैं। मैं सूर्य हो गया हूँ। हे मुझे सूर्यसमान करने वाले मेरे कारुणिक पिताः! तुझ ऋत की मेधा को सब प्रकार से पकड़े हुए मैं तेरे चरणों में पड़ा हुआ हूँ। 

    शब्दार्थ - अहम्‌ इत्‌=मैंने तो हि=निश्चय से पितुः=पालक पिता ऋतस्य=सत्यस्वरूप परमेश्वर की मेधाम्‌=धारणावती बुद्धि को परिजग्रभ=सब ओर से ग्रहण कर लिया है, अतः अहम्‌=मैं सूर्यः इव=सूर्य के समान अजनि=हो गया हूँ। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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    Vinay- I have become like the sun. I feel that I have become the sun in humans. The rays of Satyagyan are emanating from me all over the sun. Just like this our sun is getting heat, light and life, all are being followed, similarly I have also become such that any person who comes in contact with me gets knowledge, devotion and strength from me. I do not do anything, but I feel that the rays of life are naturally coming out from me and making the people around them higher, pure and conscious. I have nothing in it. I have worshiped Lord Aditya (Sun) form properly.

     

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  • मन्यु का पात्र

    ओ3म्‌ समस्य विशो विश्वा नमन्त कृष्टयः।
    समुद्रायेव सिन्धवः।। (ऋग्वेद 8.6.4 साम. पू. 2.1.5.3. अथर्व. 20.107.1)

    ऋषिः काण्वो वत्सः।।देवता इन्द्रः।। छन्दः गायत्री।। 

    विनय - इन्द्र परमेश्वर जहॉं हमारे पिता हैं, उत्पादक और पालक हैं, वहॉं वे हमारे कल्याण के लिये रुद्र भी हैं, संहारकर्त्ता भी हैं। जब जगत्‌ में किसी स्थान पर संहार की आवश्यकता आ जाती है तो प्रभु अपने मन्यु को प्रकट करते हैं। मानो अपना तीसरा नेत्र खोल देते हैं, अपने तीसरे रूप को प्रकाशित करते हैं। उस कल्याणकारी शिव के मन्यु का तेज जब देदीप्यमान होने लगता है, तो नाश होने योग्य सब संसार पतङ्गे की भॉंति आ-आकर उसमें भस्म होने लगता है। मन्यु का पात्र कोई भी व्यक्ति इससे बच नहीं सकता, सब बहे चले आते हैं। देखो, समय-समय पर बड़े-बड़े संग्राम, दुष्काल या महामारी आदि रूपों में प्रभु का वह महाबलवाला मन्यु जगत्‌ में प्रकट होता रहता है। 

    सब मनुष्य अपने विनाश की ओर खिंचे चले जा रहे होते हैं, पर उन्हें यह मालूम नहीं होता। जैसे सब नदियॉं समुद्र की ओर बही चली जा रही हैं व उसमें जाकर समाप्त हो जाएँगी, लीन हो जाएंगी, उसी प्रकार प्रभु का मन्यु काल-समुद्र बनकर उन सब प्राणियों को अपनी ओर खींचता जा रहा है, जिनका कि समय आ गया है। मनुष्यों के किये हुए पाप उन्हें विनाश की ओर वेग से खींचे ले जा रहे हैं। जिन्होंने इस संसार को जरा भी तह के अन्दर घुसकर देखा है, वे देखते हैं कि किस-किस विचित्र ढंग से मनुष्य अपने मृत्युस्थल की ओर खिंचे चले जा रहे हैं। धन्य होते हैं अर्जुन जैसे दिव्यदृष्टिपात पुरुष जिन्हें कि काल का यह आकर्षण दिखाई दे जाता है और जो देखते हैं- यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति। तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति।। हम लोग तो मौत के मुँह में घुसे जा रहे होते हैं, पर कुछ पता नहीं होता। हममें से अपनी शक्तियों का बड़ा गर्व करने वाले बड़े-बड़े प्रख्यात लोग जिस समय संसार को जितने अभिमान के साथ अपना पराक्रम दिखा रहे होते हैं, उसी समय वे उतने ही वेग से मृत्यु की ओर दौड़े जा रहे होते हैं, पर उन्हें कुछ पता नहीं होता है। जब उनका सब ठाठ एक क्षण में गिर पड़ता है, सामने मौत खड़ी दिखती है, तब जाकर प्रभु का रूद्ररूप उन्हें दीख पड़ता है। प्यारो! तब तुम अभी से क्यों नहीं देखते कि उसके मन्यु के सामने जब संसार झुका पड़ा है। पापी होकर कोई भी मनुष्य उसके सम्मुख खड़ा नहीं रह सकता, जिससे तुम अभी से उसके मन्यु का पात्र न बनने की समझ पा सको। 

    शब्दार्थ - अस्य = इस परमेश्वर की मन्यवे = मन्यु, "क्रोध', दीप्ति के सामने विश्वा विशः = सब प्रजाएँ कृष्टयः = सब मनुष्य सं नमन्त = ऐसे झुक जाते हैं समुद्राय इव सिन्धवः = जैसे कि नदियॉं समुद्र में समा जाने के लिए उधर स्वयं बही जाती है। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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    हे नाथ !

    ओ3म्‌ नामानि शतक्रतो विश्वाभिर्गीर्भिरीमहे।
    इन्द्राभिमातिषाह्ये।।ऋग्वेद3.37.3, अथर्व. 20.19.3।।

    ऋषिः गाथिनो विश्वामित्रः।। देवता इन्द्र ।। छन्दः गायत्री।।

    विनय - हे परमेश्वर! मुझे यह वाणी तेरे नामोच्चारण के लिए ही मिली है। मैं निरन्तर तेरे पवित्र नामों का उच्चारण करता रहता हूँ। तेरी दी हुई इस वाणी से मैं अन्य कुछ कर ही नहीं सकता। कोई भी निरर्थक बात, कोई भी अनीश्वरीय बात मेरी वाणी से नहीं निकल सकती। मेरे एक-एक कथन में तेरी ही धुन होती है, तेरा ही निवास होता है। हे इन्द्र! मैं इस प्रकार अपनी सब वाणियों से नानारूप में तेरे ही नामों का कीर्त्तन करता रहता हूँ। यदि मैं ऐसा न करूँ तो मैं अपने शत्रुओं को कैसे पराजित कर सकूँ? उनसे कैसे रक्षित रहूँ? तेरा पवित्र नामोच्चरण करता हुआ ही मैं निरन्तर सब शत्रुओं पर विजयी हुआ हूँ और हो रहा हूँ। मेरा सबसे बड़ा शत्रु "अभिमाति' है, अभिमान है। आजकल इस महाशत्रु को मार डालने के लिए विशेषतया तेरा नाम मेरा महा-अस्त्र हो रहा है। जब मनुष्य के काम-क्रोध आदि अन्य शत्रु जीते जा चुके होते हैं, मनुष्य आत्मिक उन्नति की ऊँची अवस्था को पहुँचा होता है, तब भी यह अभिमान, अस्मिता, अहंकार मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ता। यही है जो अविद्या का कुछ अंश शेष रहने तक भी आत्मा का मुकाबला करता रहता है। यही है जो कि हे मेरे परमेश्वर! मुझे अन्त तक तुमसे जुदा किए रहता है। जब मनुष्य खूब उन्नत हो जाता है, तब उसे और कुछ नहीं तो अपनी उन्नतावस्था का, अपने पुण्यात्मा होने का अभिमान हो जाया करता है। यह अभिमान ही मनुष्य को बिल्कुल पतित कर देने के लिए पर्याप्त होता है। इसीलिए हे शतक्रतो! हे अनन्तवीर्य! हे अनन्तप्रज्ञ! इसीलिए मैं निरन्तर तेरे नाम को जपता रहता हूँ, जीभ पर तेरा परमपवित्र नाम रक्खे फिरता हूँ। जब जरा भी अभिमान मन में आता है कि ""यह बड़ा भारी काम मैं कर रहा हूँ'', "यह मैंने किया'' तो तुरन्त मेरे हाथ जुड़ जाते हैं और मुख से तेरा नाम निकल पड़ता है। इस तरह इस महाशत्रु से मेरी रक्षा हो जाती है। तेरा नाम मुझे तुरन्त नमा देता है। तेरा स्मरण आते ही मैं अवनत-शिर होकर भूमि पर मस्तक टेक देता हूँ। तब उस महाबली अभिमान को क्षणभर में विलीन हो चुका पाता हूँ, चारों ओर कोसों दूर तक उसका पता नहीं होता, सब पृथिवी पर तुम ही तुम होते हो और मैं तुम्हारे चरणों में। मैं उस समय तेरे पृथिवीरूप विस्तृत चरणों में लगी हुई धूल का एक परम तुच्छ कण बनकर निरभिमानता के परम-पावन सात्त्विक सुख का उपभोग पाता हूँ। हे नाथ ! तेरे नाम की अपार महिमा का मैं क्या वर्णन करूँ ! 

    शब्दार्थ - शतक्रतो = हे अनन्तकर्म ! हे अनन्त प्रज्ञ ! विश्वाभिः गीर्भिः = मैं अपनी सब वाणियों से ते नामानि = तेरे नामों को ईमहे = लेता रहता हूँ। इन्द्र = हे परमेश्वर ! अभिमातिषाह्ये = शत्रु का, अभिमानरूपी शत्रु का पराभव करने के लिए तेरा नाम लेता हूँ। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

    Ved Katha Pravachan _88 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


     

    Vinay- Indra Parmeshwar, where our father is our producer and foster, he is also Rudra for our welfare, also a savior. When there is a need to kill at some place in the world, God reveals his mind. As if we open our third eye, we publish our third form. When the glory of that welfare Shiva's manu becomes resplendent, then all the world that is perishable begins to devour in it like the husband. No person can avoid Manu, all of them come away. See, from time to time, in the form of big battles, droughts or epidemics etc., that great power of Lord Manu continues to appear in the world.

     

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  • महर्षि दयानन्द की धर्म सम्बन्धी देन

    धर्म के सम्बन्ध में अज्ञान अभिशाप बन जाता है। यदि अशिक्षित व्यक्ति बिना जाने धर्म को ग्रहण करता है तो अन्ध विश्वासी बन जाता है और यदि शिक्षित व्यक्ति बिना जाने धर्म को ग्रहण करता है तो वह सर्वथा अविश्वासी नास्तिक बन जाता है। ऋषि दयानन्द के आगमन से पहले धर्म की यही दशा थी। एक ओर धर्म के नाम पर आडम्बर एवं पाखण्ड पनप रहे थे तो दूसरी ओर नास्तिकता फैल रही थी। धर्म के अनुयायियों में विशेष दोष यह आ गया था कि उन्होंने धर्म को आत्मा से सर्वथा दूर कर दिया था। सीधे रूप में यह कहा जा सकता है कि धर्म पालन के लिये आचरण आवश्यक नहीं रह गया था और उसे एक व्यापारिक वस्तु बना दिया गया था।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    कोई भी राष्ट्र धर्म निरपेक्ष नहीं हो सकता -2

    Ved Katha Pravachan -6 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    जैसे व्यापार में पैसे से कोई चीज खरीदी जा सकती है या एजेन्टों के द्वारा सारा कारोबार चलता हैठीक इसी प्रकार पैसे से धर्म उपार्जन किया जा सकता है या स्वयं कुछ न करके अन्यों के द्वारा किया जा सकता है। धनिक लोग मद्य मांस तथा वेश्यागमन आदि पाप करते हुए भी दक्षिणा से खरीदे ब्राह्मणों के द्वारा यज्ञ तथा जप आदि कराते थे और उन धनक्रीत धर्माध्यक्षों के द्वारा धर्म के संरक्षक भी घोषित किये जाते थे। इस प्रकार टकों से धर्म संग्रह की सम्भावना बढ जाने पर क्यों कोई झंझट में पड़े तप या साधना के। धर्म के धन का दास बन जाने की एक प्रतिक्रिया हुई कि पापों के क्षमा हो जाने की व्यवस्था चल पड़ी। इतना दान-पुण्य करो और पाप से छुटकारा पा जाओ। इससे कर्म फल व्यवस्था का आधार ही नष्ट हो गया और धर्म की तो जड़ ही कट गई। समाज में कदाचार तथा कुप्रवृत्तियों का बोल-बाला हो गया। चोर डाकू आदि भी देवताओं से वरदान पाने लगेनिज कार्य की सिद्धि के लिये उनकी उपासना आराधना करने लगे। प्रत्येक जघन्य कर्म देव स्तुति से आरम्भ होने लगा। धर्म के नाम पर वाममार्ग की प्रतिष्ठा हो गयी। धर्म के सम्बन्ध में आचरण का जो अंश बचा था वह भी इतना उलझा दिया गया कि किसी भी मनुष्य के लिये उसका पालन सम्भव न रहा। उदाहरण के लिये साल भर में एक नैष्ठिक हिन्दू को 2000 व्रत उपवास करने होते थे। प्रतिदिन 6-7 का औसत पड़ता है। क्या कोई व्यक्ति ऐसे धर्म का अनुष्ठान करते हुए संसार का या अपना कोई अन्य कार्य भी कर सकता है?

    जब धर्म का आचरण अथवा आत्मा से सम्बन्ध विच्छिन्न हो गया तो एक और भारी बुराई पैदा हो गई। जन्म के आधार पर लोग धर्म के ठेकेदार बन गये। ब्राह्मण के घर में जन्म लेने मात्र से काला अक्षर भैंस बराबर व्यक्ति भी समाज में गुरुवत्‌ पूजा जाने लगा और शूद्र के घर में जन्मा विद्वान तथा पवित्राचरणशील व्यक्ति भी अनादर एवं दुर्व्यवहार का भाजन हो गया। इससे सारी सामाजिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयीसामाजिक मूल्य नष्ट हो गये। धर्माधिकारियों ने अपनी गद्दियों को सुरक्षित रखने के लिये ऐसे षडयन्त्र रचे कि अधिकांश जनता को अज्ञानान्धकार के गर्त में फेंक दिया गया। एक ने स्त्री जाति को शिक्षा के अधिकार से वंचित किया तो दूसरे ने शूद्रों की शिक्षा पर प्रतिबन्ध लगा दिये। अवस्था यहॉं तक पहुँची कि कुछ लोगों से धन मिल गया तो उन्हें उच्च कुलीनक्षत्रियवैश्य आदि घोषित कर दिया गया और जिनसे धन की प्राप्ति न हुईउन्हें नीच कुलीन शूद्र पतित आदि की क्षेणियों में धकेल दियागया।

    वैदिक संस्कृति तथा समाज का नारा था- धर्मादर्थश्च कामश्च। अर्थात्‌ धर्मपूर्वक अर्थ और काम की सिद्धि श्रेयसी होती है। अब इसके विपरीत होगा- अर्थाद्‌धर्मश्च कामश्च। धन से ही धर्म तथा काम की सिद्धि सुगम है। क्रान्तदर्शी ऋषि के सात्विक हृदय पर इस वाम मार्ग ने कड़ा आघात किया। उन्हें लगा कि सब अनर्थों का मूल धर्म सम्बन्धी अज्ञानता है। धर्म के वास्तविक स्वरूप को लोग भूल चुके हैंमूल धर्म से समाज का सूत्र विच्छिन्न हो गया है। ईश्वर और धर्म के वास्तविक स्वरूप का प्रतिपादन हुए बिना अविद्याग्रस्त मानव का कल्याण असम्भव है। इसी लगन और धुन में वे घर परिवार छोड़कर सच्चे ईश्वर की प्राति में जुट गए। निरन्तर 18 वर्ष की दीर्घ तपस्या तथा कठोर साधना के फलस्वरूप उन्होंने अपने अभीष्ट को पा लिया और फिर मानव कल्याण के लिए प्रचार में लग गये। अकाट्य तर्कों तथा युक्ति प्रमाणों के आधार पर सिद्ध किया कि ईश्वर एकनिराकारनिर्विकारसर्वज्ञसर्वव्यापक हैउसी की उपासना करनी चाहिये। जीव अल्पज्ञ हैकर्म करने में स्वतन्त्र हैपरन्तु फल भोग में पराधीन है। फल की व्यवस्था ईश्वराधीन है। ईश्वर भी न्यायकारी हैजीव के कर्मों के अनुसार ही सुख दु:ख रूपी फल देता है। बिना कर्म किए फल नहीं मिल सकता और जो कर्म किया है उसके फल से किसी भी प्रकार छुटकारा नहीं हो सकता। किसी दूसरे के किये हुए कर्म का किसी को कोई फल नहीं मिल सकता। 

    यद्यपि सन्त सुधारक इस देश में 14 वीं से 17 वीं शताब्दी तक अनेक हुए,जिन्होंने हिन्दू धर्म में सुधार तथा संशोधन के लिए सराहनीय प्रयत्न किये। परन्तु यह  तथ्य है कि वे समाज एवं जाति की धारा को न मोड़ सके। इसका कारण यही रहा कि वे जाति की ज्ञान चक्षुओं को न खोल सके। ऋषि दयानन्द की अपनी दो विशेषतायें थीं- अखण्ड ब्रह्मचर्य तथा अगाध विद्वत्ता। इन दोनों शक्तियों के बल पर उन्होंने सोये समाज को झिंझोड कर जगाया। संसार के सारे देशी-विदेशी मत-मतान्तरों का तर्क की कसौटी पर विश्लेषण किया। कोई भी धर्म पुस्तक या धर्म प्रवर्तक न बचा,जिसके ऊपर ऋषि की लेखनी न चली हो। ऐसा निर्भीक आचार्य सम्भवत: भूतल पर दूसरा नहीं उतरा जिसने इस प्रकार निर्मम शल्यक्रिया की हो। धर्म के क्षेत्र में श्रद्धा तथा विवेक का ऐसा सामंजस्य कहॉं देखने को मिलेगा,जैसा ऋषि दयानन्द में मिलता है। इसके साथ ही एक बहुत बड़ा उपकार उन्होंने यह किया कि धर्म तथा दर्शन की गूढतम गुत्थियों को जनता की सरल भाषा में ऐसा निबद्ध किया कि उनके महान ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश को पढकर ही मनुष्य धर्म एवं ईश्वर के सम्बन्ध में सब कुछ जान सकता है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं कि सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन से ही साधारण कृषक या दुकानदार धर्म के ऐसे व्याख्याता बन गये कि दूसरे मतों के अच्छे-अच्छे विद्वान्‌ भी उनके मुकाबले में न ठहर सकते थे। सार यह कि ऋषि दयानन्द ने धर्म और ईश्वर के नाम पर चलने वाले आडम्बर-पाखण्डों को छिन्न-भिन्न किया,अनर्थों का निराकरण किया। साथ ही इन दोनों का बुद्धिसम्मत तथा तर्कानुगत स्वरूप इस प्रकार जन भाषा में प्रस्तुत किया कि बुद्धिवादी लोग धर्म का आदर करने लगे और धर्म कुछ विशेष साधन सम्पन्न अथवा सुविधा प्राप्त लोगों की वस्तु न रहकर सर्व साधारण की धरोहर बन गया। उसका सम्बन्ध सीधा आत्मा से जुड़ गया और आचार के आधार पर वह पुन: प्रतिष्ठित हो गया। अन्ध विश्वास और नास्तिकता दोनों पर एक साथ प्रहार हुआ। यह धर्म के सम्बन्ध में ऋषि दयानन्द की देन है। आर्य समाज की स्थापना इसी देन के सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक प्रचार के लिए हुई है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिये विद्या का प्रचार और अविद्या का नाश करने तथा सत्य के ग्रहण करने और असत्य के परित्याग में प्रत्येक को सदैव समुद्यत रहना चाहिये। -रघुवीर सिंह शास्त्री

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    When the conduct of religion or the relationship with the soul was severed, another great evil was born. On the basis of birth, people became the contractors of religion. Just by being born in a Brahmin's house, even a person with a black letter buffalo started to worship Guruvata in the society and a scholar and a pious person born in a Shudra's house also became a victim of disrespect and abuse. Due to this, the entire social system was torn apart, social values ​​were destroyed. 

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  • महर्षि दयानन्द के उपकार-1

    मानव इतिहास का अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि इस भूमण्डल पर वैदिक युग की समाप्ति के पश्चात्‌ प्रचलित हुए वेद विरुद्ध विभिन्न मतों-पन्थों ने सद्‌ज्ञान रूपी सूर्य को ढक दिया था, जिसके परिणामस्वरूप लगभग पॉंच सहस्त्र वर्षों तक सम्पूर्ण मानव समुदाय अज्ञानान्धकार में भटकता रहा । उस अन्तराल में जो तथाकथिक गुरु-आचार्य, सन्त-महात्मा, सर्वज्ञ, ईश्वर, पुत्र तथा सन्देश वाहक आदि कहलाये वे संसार का अधिक हित नहीं कर सके। क्योंकि उनके द्वारा मनुष्यों को शाश्वत सत्य का बोध नहीं हो पाया। अर्थात्‌ उनमें से किसी ने भी ईश्वरीयज्ञान "वेद" का प्रचार नहीं किया। वे महानुभाव तो केवल स्वकल्पित  मतों को मनवाने में ही लगे रहे।

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    बालक निर्माण के वैदिक सूत्र एवं दिव्य संस्कार-2
    Ved Katha Pravachan -13 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    उनके अनुयायियों में से किसी ने कहा कि हमारे धर्मशास्त्र स्वयं ईश्वर ने मनुष्य का तन धारण करके अपने हाथ से लिखे हैं। किसी ने अपने मान्य आचार्यों द्वारा लिखित ग्रन्थों को सर्वज्ञों की कृति बताया। किसी ने गुरुओं की वाणी को स्वीकारने पर बल दिया। किसी ने प्रभु के पुत्र द्वारा प्रदत्त विचारों की महानता पर विश्वास दिलाने का यत्न किया तो किसी ने अपनी मान्य पुस्तक के माध्यम से ईश्वरीय सन्देश की पुष्टि की, इत्यादि.. जबकि आदि सृष्टि में उत्पन्न हुए अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा नामक उपाधिधारी ऋषियों से लेकर महाभारतकालीन जैमिनि ऋषि तक की अवधि के सभी ऋषियों ने सत्य-शाश्वत वेद और वेद प्रतिपादित मान्यताओं को ही प्राणीमात्र के लिये कल्याणकारी माना था।

    महर्षि जैमिनि के पश्चात्‌ सर्वप्रथम आर्ष शैली में वेद का प्रचार-प्रसार करने वाले महर्षि दयानन्द ही थे। इतिहासविद्‌ यह भली भॉंति जानते हैं कि महर्षि दयानन्द से पूर्व हुए मध्यकालीन विद्वान्‌ सायणमहीधरउबट आदि ने मद्यपानमांसाहारव्यभिचारयज्ञ में पशुबलि जैसे पापोंभूत-प्रेतजादू-टोनों जैसे अन्धविश्वासों और सृष्टिक्रम के विरुद्ध मान्यताओं को वेद सम्मत बताया। इसलिये उस काल में हुए लगभाग सभी मनीषी वेद के विरोधी बन गये। वर्तमान में भी उपर्युक्त  विद्वानों की मान्यताओं पर आधारित पश्चिमी और पूर्वी लेखकों द्वारा किया गया वेदार्थ जिन विद्यालयों में पढाया जाता है उससे वहॉं के अधिकांश विद्यार्थियों के हृदय में वेद के प्रति जो चाहिये वह श्रद्धा नहीं हो पा रही है।

    वेद प्रचारक महर्षि दयानन्द-  महर्षि दयानन्द ने वेदमन्त्रों के अर्थ परम्परागत ऋषि शैली में करके वेद विषयक फैली भ्रान्तियों को मिटा दिया और वेद को ईश्वरीय ज्ञान तथा स्वत: प्रमाण बताते हुए दृढता पूर्वक कहा-"वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है, वेद का पढना पढाना और सुनना सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।" (आर्यसमाज का तीसरा नियम) उन्होंने वेद के सम्बन्ध में अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा-"चारों वेदों (विद्या धर्मयुक्त ईश्वर प्रणीत संहिता मन्त्र भाग) को निर्भ्रान्त स्वत: प्रमाण मानता हूँ।  वे स्वयं प्रमाण रूप हैं कि जिनके प्रमाण होने में किसी अन्य ग्रन्थ की अपेक्षा नहीं। जैसे सूर्य वा प्रदीप स्वरूप के स्वत: प्रकाशक और पृथिव्यादि के भी प्रकाशक होते हैं वैसे चारों वेद है।".

    इसी प्रकार से वे स्वरचित आर्योद्‌देश्य रत्नमाला के 15 वें "रत्न" में भी यही स्पष्ट करते हैं कि-"जो ईश्वरोक्तसत्य विद्याओं से युक्त ऋक्‌ संहितादि चार पुस्तक हैंजिनसे मनुष्यों को सत्यासत्य का ज्ञान होता हैउसको वेद कहते हैं।" महर्षि दयानन्द ने आर्ष शैली में वेद का प्रचार कियाउससे वेद के विषय में अनर्गल प्रलाप करने वालों के मुँह बन्द हो गये। अनेक वेद निन्दक वेद के समर्थक बने और वेदों को गडरियों के गीत बताने वाले लज्जा की अनुभूति करने लगे।

    आर्ष पद्धति को अपना कर किया विश्व में वेद प्रचार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    वेद ही ईश्वरीय ज्ञान हैइस मान्यता की पुष्टि करते हुए महर्षि दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश के सातवें समुल्लास में लिखते हैं-

    (1)  "जैसा ईश्वर पवित्र, सर्व विद्यावित्‌, शुद्धगुणकर्मस्वभाव, न्यायकारी, दयालु आदि गुण वाला है, वैसे जिस पुस्तक में ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के अनुकूल कथन हो, वह ईश्वरकृत, अन्य नहीं।

    (2)  और जिसमें सृष्टिक्रम, प्रत्यक्षादि प्रमाण, आप्तों के और पवित्रात्मा के व्यवहार से विरुद्ध कथन न हो, वह ईश्वरोक्त।

    (3)  जैसा ईश्वर का निर्भ्रम ज्ञान वैसा जिस पुस्तक में भ्रान्ति रहित ज्ञान प्रतिपादन हो, वह ईश्वरोक्त।

    (4)  जैसा परमेश्वर है और जैसा सृष्टिक्रम रक्खा है, वैसा ही ईश्वर, सृष्टि, कार्य, कारण और जीव का प्रतिपादन जिसमें होवे।

    (5) और जो प्रत्यक्षादि प्रमाण विषयों से अविरुद्ध शुद्धात्मा के स्वभाव से विरुद्ध न हो, वह परमेश्वरोक्त पुस्तक होता है।"

    महर्षि दयानन्द ने ऋक, यजु, साम और अथर्व नामक चार सहिताओं को ही वेद माना है, पौराणिक विद्वानों की भॉंति ब्राह्मणग्रन्थादि को नहीं। उन्होंने स्वलिखित ग्रन्थ "ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका" के वेद संज्ञा विचार में स्पष्ट कर दिया-"ब्राह्मणग्रन्थ वेद नहीं हो सकते, क्योंकि उन्हीं का नाम इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा और नाराशंसी भी है। वे ईश्वरोक्त नहीं हैं..।" अपने इस कथन की पुष्टि हेतु प्रमाण प्रस्तुत करते हुए वे आगे लिखते हैं- "ब्राह्मणग्रन्थों की वेदों में गणना नहीं हो सकती, क्योंकि इषे त्वोर्जे त्वा. इस प्रकार से उनमें मन्त्रों की प्रतीक धर-धर के वेदों का व्याख्यान किया है। और मन्त्र भाग संहिताओं में ब्राह्मणग्रन्थों की एक भी प्रतीक कहीं नहीं देखने में आती। इससे जो ईश्वरोक्त मूलमन्त्र अर्थात्‌ चार संहिता है वे ही वेद है, ब्राह्मणग्रन्थ नहीं।"

    यह भी जानने योग्य है कि महर्षि दयानन्द ने वेद के अतिरिक्त अन्य किसी भी ग्रन्थ को स्वत: प्रमाण नहीं माना।  इस सम्बन्ध में उन्होंने यह लिख कर "स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश" में अपना मत व्यक्त किया है-"चारों वेदों के ब्राह्मण (ऐतरेय, शतपथ, साम और गौपथ), छ: अंग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष), छ: उपांग (मीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य और वेदान्त), चार उपवेद (आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद और अर्थवेद) और 1127 (ग्यारह सौ सत्ताइस) वेदों की शाखा जो कि वेदों के व्याख्यान रूप ब्राह्मादि महर्षियों के बनाये ग्रन्थ हैं, उनको परत: प्रमाण अर्थात्‌  वेदों के अनुकूल होने से प्रमाण और जो इन में वेद विरुद्ध कथन है उनका अप्रमाण करता हूँ।"

    ज्ञान शाश्वत बता ईशका किया वेद मत का विस्तार |
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    महर्षि दयानन्द ने वेद के प्रचार का कार्य आरम्भ कियाउस समय तक पौराणिक विद्वान्‌ वेदमन्त्रों का उपयोग केवल तथाकथित पूजा पाठ के लिये ही करते थे। अर्थात्‌ उनकी मान्यतानुसार वेदमन्त्रों के उच्चारण का उद्‌देश्य मात्र स्वकल्पित देवी-देवताओंं को रिझाना था। वेद में ईश्वर की ओर से हम मनुष्यों के लिये कोई आदेशनिर्देशउपदेशसन्देशसम्मतिसत्प्रेरणादि भी हैंउनमें से अधिकांश महानुभावों को यह जानकारी नहीं थी। इसके अतिरिक्त वेद को वे जन्मजात ब्राह्मण समुदाय तक ही सीमित मानते थे। स्त्रियों और शूद्रों को तो उन्होंने वेद सुनने तक से वञ्चित कर दिया था। ऐसी दुरावस्था में महर्षि दयानन्द ने यजुर्वेद के 26 वें अध्याय का यह दूसरा मन्त्र-यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य:।ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च चारणाय।।  उद्‌धृत करते हुए "सत्यार्थ प्रकाश" के तृतीय समुल्लास में लिखा -"परमेश्वर कहता है कि (यथा) जैसे मै (जनेभ्य:) सब मनुष्यों के लिये (इमाम्‌) इस (कल्याणीम्‌) कल्याण अर्थात्‌ संसार और मुक्ति के सुख देनेहारी (वाचम्‌) ऋग्वेदादि चारों वेदों की वाणी का (आ वदानि) उपदेश करता हूँ वैसे तुम भी किया करो।"...

    (ब्रह्म राजन्याभ्याम्‌) हमने ब्राह्मण, क्षत्रिय (अर्य्याय) वैश्य (शूद्राय) शूद्र और (स्वाय) अपने भृत्य वा स्त्रियादि (अरणाय) और अति शूद्रादि के लिये भी वेदों का प्रकाश किया है,... वे आगे लिखते हैं- .. "जो परमेश्वर का अभिप्राय शूद्रादि के पढाने-सुनाने का न होता तो इनके शरीर में वाक्‌ और श्रोत्र-इन्द्रिय क्यों रचता? जैसे परमात्मा ने पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, चन्द्र, सूर्य और अन्नादि पदार्थ सबके लिये बनाये हैं, वैसे ही वेद भी सबके लिये प्रकाशित किये हैं। और जो स्त्रियों के पढने का निषेध करते हो, वह तुम्हारी मूर्खता, स्वार्थता और निर्बुद्धिता का प्रभाव है।"

    आगे उन्होंने शतपथ ब्राह्मण का प्रमाण प्रस्तुत करते हुए बताया कि "भारतवर्ष की स्त्रियों में भूषण रूप गार्गी आदि वेदादि शास्त्रों को पढके पूर्ण विदुषी हुई थी।" महर्षि दयानन्द की कृपा से ही अनेक विदुषी महिलाएं वेदाचार्य की उपाधि प्राप्त कर पाई और शूद्र कुलोत्पन्न अनेकानेक बन्धु वेद के विद्वान्‌ बनकर ईश्वरीय वाणी का प्रचार कर रहे हैं। 

    मनुज मात्र को वेद पठन का पुन: प्राप्त हुआ अधिकार। 
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    ब्र्रह्मवेता महर्षि दयानन्दमहाभारत काल के पश्चात्‌ प्रचलित हुए अवैदिक मत-पन्थों की ओर से ईश्वर के सम्बन्ध में जो कहा और लिखा गया उसे हम कल्पना पर आधारित मानते हैं। इसलिये कि उनके प्रवर्तक वेद के विद्वान्‌ नहीं थे। उन्होंने अध्यात्त्म विषयक जो मत व्यक्त किये वे ऋषियों की (अवैदिक) मान्यता के अनुकूल नहीं हैं।

    यद्यपि उनमें से अनेक महानुभावों ने ऋषियों द्वारा लिखे गये उपनिषदोंदर्शन शास्त्रों आदि को अपने मत की पुष्टि में सहायक बतायाकिन्तु वे उन ग्रन्थकारों की भावनाओं को ठीक से समझ नहीं सके। यही कारण है कि तब से अब तक अध्यात्म के नाम पर जिन मान्यताओं का प्रचार-प्रसार हुआ और हो रहा हैउनमें समानता नहीं पाई जाती।

    यह सर्वविदित है कि अपने आपको अध्यात्म से सम्बन्धित मानने वाले अनेक मत-पन्थ जो ईश्वर को मानते हैंवे उसके स्वरूपनामस्थानकार्य आदि की दृष्टि से परस्पर भिन्न विचार रखते हैं। ये मतभेद प्रमाणित करते हैं कि वेद विरुद्ध मत पन्थों का ईश्वर काल्पनिक हैवास्तविक नहीं। अत: यह निश्चयपूर्वक लिखा जा रहा है कि लगभग पॉंच सहस्त्र वर्षों के पश्चात्‌ मानव समुदाय को वेद में वर्णित ईश्वर सम्बन्धी यथार्थ ज्ञान महर्षि दयानन्द ने ही कराया।

    सदियों के पश्चात्‌ ईश को पुन: जान पाया संसार ।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    "सत्यार्थ प्रकाश" सप्तम समुल्लास का आरम्भ करते हुए महर्षि दयानन्द लिखते हैं जो सब दिव्य गुण-कर्म-स्वभाव विद्या युक्त और जिसमें पृथिवी सूर्यादि लोक स्थित हैं और जो आकाश के समान व्यापकसब देवों का देव परमेश्वर हैउसको जो मनुष्य न जानते न मानते और उसका ध्यान नहीं करते वे नास्तिक मन्दमति सदा दु:ख सागर में डूबे ही रहते हैं।

    महर्षि दयानन्द ने वेद प्रचार का कार्य आरम्भ किया उस समय इस भूमण्डल पर अनेक ईश्वर माने जाते थे। अत: उन्होंने बलपूर्वक यह घोषणा की कि-"चारों वेादें में ऐसा कहीं नहीं लिखा जिससे अनेक ईश्वर सिद्ध हों। किन्तु यह तो लिखा है कि ईश्वर एक ही है ।"

    आगे ईश्वर की सिद्धि के लिये प्रत्यक्षादि प्रमाणों का न्यायदर्शन के एक सूत्र से समर्थन करते हुए वे स्पष्ट करते हैं कि- "जो श्रोत्रत्वचाचक्षुजिह्वाप्राण और मन काशब्दस्पर्शरूपरसगन्धसुखदु:खसत्यासत्य विषयों के साथ सम्बन्ध होने से ज्ञान उत्पन्न होता हैउसको "प्रत्यक्ष" कहते हैंपरन्तु वह निर्भ्रम हो। जैसे चारों त्वचा आदि इन्द्रियों से स्पर्शरूपरस और गन्ध का ज्ञान होने से गुणी जो पृथिवी उसका आत्मा युक्त मन से प्रत्यक्ष किया जाता हैवैसे इस प्रत्यक्ष सृष्टि में रचना विशेष आदि ज्ञानादि गुणों से प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। और जब आत्मा मन इन्द्रियों को किसी विषय में लगाता वा चोरी आदि बुरी वा परोपकार आदि अच्छी बात के करने का जिस क्षण में आरम्भ करता हैउस समय जीव के इच्छा ज्ञानादि उसी इच्छित विषय पर झुक जाते हैं। उसे क्षण में आत्मा के भीतर से बुरे काम करने में भयशङ्क ा और लज्जा तथा अच्छे कामों के करने में अभयनि:शंकता और आन्दोत्साह उठता हैं। वह जीवात्मा की ओर से नहीं किन्तु परमात्मा की ओर से है। और जब जीवात्मा शुद्धान्त:करण से युक्त योग समाधिस्थ होकर आत्मा और परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है तब उसको उसी समय दोनों प्रत्यक्ष होते हैं। जब परमेश्वर का प्रत्यक्ष होता है तो अनुमानादि से परमेश्वर के ज्ञान होने में क्या सन्देह हैक्योंकि कार्य को देख के कारण का अनुमान होता है।"

    ईश्वर निराकार हैइस वैदिक मान्यता की पुष्टि करने के लिये महर्षि दयानन्द ने यह हेतु दिया कि- "जो साकार होता तो व्यापक नहीं हो सकताजब व्यापक न होता तो सर्व ज्ञादि गुण भी ईश्वर में न घट सकते क्योंकि परिमित वस्तु में गुण-कर्म-स्वभाव भी परिमित रहते हैं तथा शीतोष्णक्षुधातृषा और रोगदोषछेदनभेदन आदि से रहित नहीं हो सकता। इससे यही निश्चित है कि ईश्वर निराकार है। जो साकार हो तो उसके नाककानआँख आदि अवयवों का बनाने वाला दूसरा होना चाहिये। क्योंकि जो संयोग से उत्पन्न होता हैउसको संयुक्त करने वाला निराकार चेतन अवश्यक होना चाहिये। जो कोई यहॉं ऐसा कहे कि ईश्वर ने स्वेच्छा से आप ही आप अपना शरीर बना लिया तो भी वही सिद्ध हुआ कि शरीर बनने के पूर्व निराकार था।"

    "जब परमेश्वर के श्रोत्रनेत्रादिइन्द्रियॉं नहीं हैंफिर वह इन्द्रियों का काम कैसे कर सकता हैं?" इस प्रश्न का उत्तर उन्होंने श्वेताश्वतर उपनिषद्‌ के आधार पर यह दिया कि-"परमेश्वर के हाथ नहीं परन्तु अपनी शक्ति रूप हाथ से सबका रचना ग्रहण करतापग नहीं परन्तु व्यापक होने से सबसे अधिक वेगवान्‌चक्षु का गोलक नहीं परन्तु सबको यथावत्‌ देखताश्रोत्र नहीं तथापि सबकी बातें सुनताअन्त:करण नहीं परन्तु सब जगत्‌ को जानता है और उसको अवधि सहित जानने वाला कोई भी नहींउसी को सनातनसबसे श्रेष्ठसबमें पूर्ण होने से "पुरुष" कहते हैं। वह इन्द्रियों और अन्त:करण के बिना अपने सब काम अपने सामर्थ्य से करता है।"

    सप्रमाण कर दिया सिद्ध आकृति रहित है सरजनहार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    ईश्वर अवतार की पौराणिक मान्यता के सम्बन्ध में महर्षि ने अपनी असहमति व्यक्त की और यह पूछे जाने पर कि-"जो ईश्वर अवतार न लेवे तो रावणादि दुष्टों का नाश कैसे हो?" बताया कि-"प्रथम तो जो जन्मा हैवह अवश्य मृत्यु को प्राप्त होता है। जो ईश्वर अवतार शरीर धारण किये बिना जगत्‌ की उत्पत्तिस्थितिप्रलय करता हैउसके सामने कंस और रावणादि एक कीड़ी के समान भी नहीं। वह सर्वव्यापक होने से कंस-रावणादि के शरीरों में भी परिपूर्ण हो रहा हैजब चाहे उसी समय मर्मच्छेदन कर नाश कर सकता है। भला इस अनन्त गुण-कर्म-स्वभाव युक्त परमात्मा को एक शुद्र जीव को मारने के लिए जन्म-मरण युक्त कहने वाले को मूर्खपन से अन्य कुछ विशेष उपमा मिल सकती हैऔर जो कोई कहे कि भक्तजनों के उद्धार करने के लिये जन्म लेता है तो भी सत्य नहींक्योंकि जो भक्तजन ईश्वर की आज्ञानुकूल चलते हैं उनके उद्धार करने का पूरा सामर्थ्य ईश्वर में है। क्या ईश्वर के पृथिवीसूर्यचन्द्रादि जगत्‌ को बनानेधारण और प्रलय करने रूप कर्मों से कंस रावणादि का वध और गोवर्धनादि पर्वतों का उठाना बड़े कर्म हैंऔर युक्ति से भी ईश्वर का जन्म सिद्ध नहीं होता। जैसे कोई अनन्त आकाश को कहे कि गर्भ में आया वा मूठी में धर लियाऐसा कहना कभी सम्भव नहीं हो सकताक्योंकि आकाश अनन्त और सबमें व्यापक है। इससे न आकाश बाहर आता और न भीतर जातावैसे ही अनन्त सर्वव्यापक परमात्मा के होने से उसका आना-जाना कभी सिद्ध नहीं हो सकता। जाना वा आना वहॉं हो सकता हैजहॉं न रहे। क्या परमेश्वर गर्भ में व्यापक नहीं था जो कहीं से नहीं आयाऔर बाहर नहीं था जो भीतर से निकलाऐसा ईश्वर के विषय में कहना और मानना विद्याहीनों के सिवाय कौन कह और मान सकेगा। इसलिये परमेश्वर का आना-जाना जन्म मरण कभी सिद्ध नहीं हो सकता।कमलेश कुमार अग्निहोत्री

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  • महर्षि दयानन्द के उपकार-2

    ईश्वर के जन्म लेने और गर्भ में आने की पौराणिक साहित्य में पुष्टि-  जो पौराणिक विद्वान्‌ यह कहते हैं कि ईश्वर जन्म नहीं लेता, वह तो प्रकट होता है। उन्हें अपने मान्य ग्रन्थों को ध्यान से पढना चाहिये। उदाहरणार्थ- श्रीरामचरित मानस के बालकाण्ड में गोस्वामी तुलसीदास जी ने शिवजी के मुँह से कहलवाया "जो दिन तें हरि गर्भहिं आए" तथा स्वयं अपने आराध्य देव श्रीराम से बुलवाया- "जन्मे एक संग सब भाई।" इसी प्रकार श्रीमद्‌भगवद्‌गीता चतुर्थ अध्याय श्लोक पॉंच में "बहुनि मे व्यतीतानि तव चार्जुन" आदि अकाट्‌य प्रमाणों से पौराणिक ईश्वर श्रीराम और श्रीकृष्ण के जन्म लेने की पुष्टि होती है।

    बतलाया प्रभु सर्वव्यापक लेता नहीं कभी अवतार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    बालक निर्माण के वैदिक सूत्र एवं दिव्य संस्कार-1
    Ved Katha Pravachan -12 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    "ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा करता हैवा नहीं?" इस प्रश्न का उत्तर महर्षि दयानन्द ने यह लिखकर दिया-"नहीं। क्योंकि जो पाप क्षमा करे तो उसका न्याय नष्ट हो जाये और सब मनुष्य महापापी हो जायें। क्योंकि क्षमा की बात सुन ही के उनको पाप करने में निर्भयता और उत्साह हो जाये। जैसे राजा अपराधियों के अपराध को क्षमा कर दे तो वे उत्साह पूर्वक अधिक-अधिक बड़े-बड़े पाप करें। क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उनको भी भरोसा हो जाये कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेष्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगे। और जो अपराध नहीं करतेवे भी अपराध करने से न डरकर पाप करने में प्रवृत्त हो जायेंगे। इसलिये सब कर्मों का फल यथावत्‌ देना ही ईश्वर का काम हैक्षमा करना नहीं।"

    महर्षि दयानन्द ने ईश्वर को सगुण और निर्गुण  (दोनों गुणों से मुक्त) माना हैं। वे इस वेदोक्त मान्यता के समर्थन में लिखते हैं- "जैसे जड़ के रूपादि गुण हैं और चेतन के ज्ञानादि गुण जड़ में नहीं हैंवैसे चेतन में इच्छादि गुण हैं और रूपादि जड़ के गुण नहीं हैं। इसलिए जो गुण से सहित वह सगुण और जो गुणों से रहित वह "निर्गुण" कहाता है। अपने-अपने स्वाभाविक गुणों से सहित और दूसरे विरोधी के गुणों से रहित होने से सब पदार्थ सगुण और निर्गुण हैं। कोई ऐसा पदार्थ नहीं है कि जिसमें केवल निर्गुणता वा केवल सगुणता हो किन्तु एक ही में सगुणता और निर्गुणता सदा रहती है। वैंसे ही परमेश्वर अपने अनन्त ज्ञान-बलादि गुणों से सहित होने से सगुण और रूपादि जड़ के तथा द्वेषादि जीव के गुणों से पृथक्‌ होने से "निर्गुण" कहाता है।"

    जब उनसे यह कहा गया कि- "संसार में निराकार को निर्गुण और साकार को सगुण कहते हैं।" तो उन्होंने बताया- "यह कल्पना केवल अज्ञानी और अविद्वानों की है। जिनको विद्या नहीं होतीवे पशु के समान यथा-तथा बर्ड़ाया करते हैं। जैसे सन्निपात ज्बरयुक्त मनुष्य अण्डबण्ड बकता हैवैसे ही अविद्वानों के कहे व लेख को व्यर्थ समझना चाहिये।"

    महर्षि दयानन्द ने ईश्वर को न तो रागी माना और न विरक्त। इस सम्बन्ध में उनका मत यह है कि- "राग अपने से भिन्न उत्तम पदार्थों में होता हैसो परमेश्वर से कोई पृथक्‌ वा उत्तम नहीं हैइसलिये उसमें राग का सम्भव नहीं। और जो प्राप्त को छोड़ देवेउसको विरक्त कहते हैं। ईश्वर व्यापक होने से किसी पदार्थ को छोड़ ही नहीं सकताइसलिये विरक्त भी नहीं।"

    ईश्वर में इच्छा है वा नहीं?" इस प्रश्न के उत्तर में वे लिखते हैं कि- "इच्छा भी अप्राप्त उत्तम और जिसकी प्राप्ति से सुख-विशेष होवे उसकी होती हैतो ईश्वर में इच्छा (कैसे) हो सकेन उससे कोई अप्राप्त पदार्थन कोई उससे उत्तम और पूर्ण सुखयुक्त होने से सुख की अभिलाषा भी नहीं हैइसलिये ईश्वर में इच्छा का तो सम्भव नहीं किन्तु ईक्षण अर्थात्‌ सब प्रकार की विद्या का दर्शन और सब सृष्टि का करना कहाता हैवह ईक्षण है।"

    जान स्वरूप सत्य ईश का भ्रम से मुक्त हुए नर नार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार।।

    अध्यात्म सम्बन्धी अनधिकार चेष्टा-  इन्द्रियों का विषय न होने से मध्ययुग में हुए वेद विहीन व्यक्तियों के लिये  ईश्वर पहेली बन गया। अत: अवैदिक मतों के प्रवर्तकों ने अपने-स्तर पर ईश्वर सम्बन्धी विभिन्न कल्पनाएँ की और अध्यात्म प्रेमियों को भटका दिया। अर्थात्‌ किसी ने अपनी कल्पना के आधार पर ईश्वर की सत्ता का निषेध किया तो किसी ने ईश्वर को एकदेशी और साकार बताया।

    जिन्होंने यह कहा कि संसार में ईश्वर नाम की कोई सत्ता नहीं है अथवा ईश्वर एक देशी और साकार हैउनमें से किसी ने भी ईश्वर साक्षात्कार वाला वेदोक्त मार्ग नहीं बताया तथा न ही महात्माभक्त आदि महानुभावों ने महर्षि पतंजलि वाले अष्टांग योग को आचरण से अपना कर ईश्वर विषयक अपना मत व्यक्त किया। उन्होंने तो ईश्वर के सम्बन्ध में अपनी कल्पना से जो निर्णय लियावही माना और मनवाया।

    यह सर्व विदित है कि ऋषियों द्वारा लिखे गये सभी ग्रन्थ संस्कृत भाषा में हैं। जबकि मध्यकालीन अनेक सन्त-महात्मा नामधारियों को संस्कृत भाषा का तनिक भी ज्ञान नहीं था। यही कारण है कि वे अपने मत की पुष्टि प्राचीन शास्त्रों से नहीं कर पाये और अपनी शैक्षणिक अयोग्यता पर पर्दा डालने के लिये वेद विरोधी बन गये। जो संस्कृत भाषा के विद्वान्‌ थे उन्हें ऋषियों की आर्ष परम्परा का बोध नहीं था। अत: वे वेद तथा वैदिक मान्यताओं को ठीक से जानने में असमर्थ रहे और अपने स्तर पर ईश्वर सम्बन्धी की गई कल्पनाओं को उचित मान बैठे। उनकी ये "अध्यात्म सम्बन्धी अनधिकार चेष्टा" थी। भले ही उन महानुभावों की भावनाएँ अच्छी रहीं होंकिन्तु यथार्थ ज्ञान के अभाव में वे संसार का उपकार नहीं कर सके।

    उदाहरण- डॉक्टर से रोगी को यह कहते हुए सुन कर कि मैं गरीब हूँऔषधियों का मूल्य और आपकी फीस देना मेंरे लिये सम्भव नहीं हैकिसी परोपकार प्रिय व्यक्ति को दया आ जावे और वह निर्धनों को नि:शुल्क चिकित्सा सुविधा देने की कामना से नगर में यह विज्ञापन करावे कि "मैं गरीबों का मुफ्त इलाज करूंगाकृपया मुझे सेवा का अवसर दीजियेगा।" जबकि उसे चिकित्सा सम्बन्धी कुछ भी जानकारी नहीं हैतो क्या उसके इस तथा कथित सेवा कार्य को उचित माना जायेगाहॉंयदि कोई दयालु किसी अभावग्रस्त रोगी का सुयोग्य चिकित्सक से अपने व्यय पर उपचार करवादे तो उसे उपकारी समझा जा सकता हैकिन्तु वह स्वयं ही इलाज करने लगे तो यह उसको "अनधिकार चेष्टा" ही कहलायेगी। मध्ययुग में अध्यात्म के नाम पर यही हुआ। जिसके परिणामस्वरूप मानव समुदाय भ्रमित हो गया।

    शिक्षित वर्ग यह जानता है कि अनधिकारी चिकित्सकों को अपराधी मान कर सरकार उन्हें दण्ड देती है। यदि अध्यात्म सम्बन्धी भी ऐसा कोई विधान होता तो ईश्वर के नाम पर परस्पर विरोधी मान्यताओं वाले ये मत-मतान्तर प्रचलित नहीं हो पाते। आश्चर्य है कि जिन्होंने वेदउपनिषद्‌दर्शनशास्त्र देखे तक नहीं उन्होंने आत्मा-परमात्मा से सम्बन्धित जानकारी देने का दुस्साहस कर लिया।

    अनधिकृत अध्यात्मज्ञान को दूषित सिद्ध किया ललकार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार।।

    ईश्वर सम्बन्धी मूल प्रश्न और यथोचित उत्तर-

    (1) ईश्वर की सत्ता है अथवा नहीं ?
    (2) यदि ईश्वर है तो वह कहॉं रहता है?
    (3) ईश्वर कैसा है?
    (4) ईश्वर के साथ हमारा क्या सम्बन्ध है?

    maharshi swami dayanand saraswati

    महर्षि दयानन्द ने इन प्रश्नों का यथोचित उत्तर देकर अध्यात्मप्रेमियों पर महान्‌ उपकार किया है, इस सत्य को सभी निष्पक्ष बुद्धिमान्‌ मनीषी स्वीकारते हैं। आदि सृष्टि से महर्षि दयानन्द द्वारा रचित ग्रन्थों का स्वाध्याय करने से ज्ञात होता है, संसार में दिखाई दे रहे नियम और हो रहे कार्य आदि नियामक, कर्त्ता ईश्वर के अस्तित्व की साक्षी दे रहे हैं। इस प्रथम का उत्तर है। द्वितीय और तृतीय प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने हेतु आर्यसमाज का दूसरा नियम ध्यान से पढना चाहिये। लिखा है, वह-"ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र है।" चतुर्थ प्रश्न के उत्तर से जानकारी मिलती है  कि ईश्वर सृष्टि का निर्माण, पालन, संहार करता और हम जीवों को हमारे शुभाशुभ कर्मों का यथावत्‌ फल देता है। ईश्वर सम्बन्धी पॉंचवें प्रश्न का उत्तर महर्षि दयानन्द ने स्तुतिप्रार्थनोपासना के सातवें मन्त्र से दिया- "वह परमात्मा अपना गुरु, आचार्य, राजा और न्यायाधीश है" तथा "आर्य्याभिविनय" द्वितीय प्रकाश के प्रथम व्याख्यान में उन्होंने ईश्वर को सम्बोधित करते हुए लिखा- "हम आपको ही पिता, माता, बन्धु, राजा, स्वामी, सहायक, सुखद, सुहृद, परम गुरु आदि जानें।"

    उलझन सुलझादी ईश्वर सम्बन्धी करके कृपा अपार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    भगवान्‌ भक्तों के वश में नहीं होता-  मध्ययुग में हुए तथा कथित भगवद्‌ भक्तों के नाम से अवैदिक मतों द्वारा यह प्रचार किया गया कि भक्तभगवान को वश में कर लेते हैं अर्थात्‌ वे भगवान्‌ से अपने इच्छित कार्य करवा सकते हैं। वेद विरुद्ध इस मान्यता की पुष्टि हेतु "भक्तमाल" जैसी पुस्तकों में विभिन्न काल्पनिक कथाएँ लिखी गईजिन्हें पढ-सुन कर भोले नर-नारी भ्रमित हो गये।

    महर्षि दयानन्द ने "सत्यार्थप्रकाश" के सप्तम समुल्लास में स्पष्ट कर दिया कि "कोई ऐसी भी प्रार्थना करेगा- हे परमेश्वर ! आप हमको रोटी बना कर खिलाइयेमकान में झाडू लगाइयेवस्त्र धो दीजिये और खेती बाडी कीजिए। इस प्रकार जो परमेश्वर के भरोसे आलसी होकर बैठे रहते वे महामूर्ख हैं।"

    "भगवान्‌ भक्तों के वश मेंे हो जाता है"इस अन्धविश्वास ने मानव समुदाय का बहुत अहित किया है। भगवान्‌ से किसी के पॉंव दबवानेखेत कटवाने तथा छप्पर बॅंधवाने वाली कल्पित कथाओं के लेखकों को ईश्वर सम्बन्धी कुछ भी ज्ञान नहीं था।

    "भक्त भगवान्‌ से अपने मनमाने कार्य करवा लेते है"इस मान्यता के समर्थन में जो कहानियॉं सुनायी जाती हैं उनमें से उदाहरणार्थ यहॉं एक कहानी का उल्लेख किया जा रहा है। किसी युवक की मृत्यु का दु:ख उसकी माता के लिये असहाय हो गया। वह तथाकथित एक "भगत" के पास जाकर बोली कि आप भगवान्‌ से कहकर मेरे पुत्र को जीवित करवा दीजिएआपकी बड़ी कृपा होगी। भक्त ध्यानावस्थित हो गया और फिर नेत्र खोलकर उस माता से बोला- "मैंने भगवान्‌ से पूछा तो उन्होंने मुझे बतलाया आपके पुत्र की आयु समाप्त हो चुकी हैइसलिये अब यह जीवित नहीं हो पायेगा।" जब "भगत" ने दुखी माता से यह सुना कि यदि भगवान्‌ आपकी इच्छा पूर्ण नहीं करेंगे तो भक्त और भक्ति पर किसी को विश्वास नहीं होगा । उसने पुन: नेत्र बन्द किये और भगवान से कहकर उस मृत युवक को जीवित करवा दिया। मध्ययुग से होती आ रही ऐसी मूर्खतापूर्ण कथाओं ने ईश्वर के न्याय-नियमों पर प्रश्न चिन्ह लगाया। यह ऐतिहासिक सत्य है।

    भक्तों के वश हुए प्रभु का करके दिखलाया उद्धार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    ईश्वर अपरिवर्तनीय और एकरस है- परमात्मा की सत्ता को स्वीकारने वाले वेद विरुद्ध मतों से सम्बन्धित अनेक महानुभाव यह मानते और कहते हैं कि ईश्वर अपने भक्तों पर प्रसन्नदुष्टों पर कुपित और प्राणियों के शुभाशुभ कर्मों से प्रभावित होता है। जबकि वैदिक मान्यतानुसार ईश्वर की अवस्था सदैव एक-सी रहती है। उसमें किसी भी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं हुआ करता। अर्थात्‌ पापियों को दण्ड और पुण्यात्माओं को सुख देते समय वह परिवर्तित नहीं होता। हम अपने कर्म-फल उसकी न्याय व्यवस्था के अन्तर्गत भोगते रहते हैंउसके न्याय-नियम कभी नहीं बदलते।

    इसी प्रकार से चाहे कोई उसकी निन्दा करे अथवा स्तुतिवह प्रभावित नहीं होता और सर्दी-गर्मीभूख-प्याससुख-दु:खहानि-लाभअनुकूलता आदि का प्रभाव जीवों की भॉंति ईश्वर पर नहीं होता। अर्थात्‌ हम देखते हैंजड़ से जड़जीव से जीवजड़ से जीव और जीव से जड़ पदार्थ प्रभावित होते हैं। जैसे अग्नि से जललकड़ीवस्त्रादिजल से अग्निमिट्‌टीवनस्पति आदिशेर से हिरनखरगोशमनुष्यादिमनुष्यों से अनेक प्राणीसर्दी-गर्मी-भूख-प्यास आदि से देहधारी आत्माएँ और प्राणी जगत्‌ से जलवायु वस्त्रादि प्रभावित होते हैं ईश्वर नहीं।

    कहा सभी को अटल एक रस अपरिवर्तित है करतार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    कृतज्ञता- इस लेख माला में वैदिक मान्यताओं पर आधारित वेद तथा ईश्वर सम्बन्धी यथार्थ बोध कराने वाले महर्षि दयानन्द के उपकारों का संक्षिप्त उल्लेख किया गया है। ऋषियुग की समाप्ति के पश्चात्‌ आये आचार्ययुग और सन्तयुग ने अध्यात्म को बहुत उलझाया है। अर्थात्‌ श्री आचार्य बृहस्पतिश्री शंकराचार्यश्री रामानुजाचायर्यश्री माधवाचार्यश्री राधवाचार्यश्री बल्लभाचार्य आदि आचार्यों तथा कबीरदासतुलसीदाससूरदासरविदास आदि सन्तों ने वेद एवं ईश्वर विषयक परस्पर विरोधी विचार व्यक्त करके मानव समुदाय को विभिन्न भागों में विभक्त कर दिया।

    लगभग पॉंच हजार वर्षों की अवधि में इस भूमण्डल पर आचार्यगुरुसन्तमहन्त नामधारी तो अनेक हुए किन्तु किसी ने ऋषित्व प्राप्त नहीं किया। अर्थात्‌ आर्ष परम्परा के अनुकूल वेद का महत्व तथा ईश्वर का सत्यस्वरूप कोई भी नहीं जान पाया। इस दृष्टि से सम्पूर्ण मानव समुदाय महर्षि दयानन्द का सदैव ऋणि रहेगा। यदि महर्षि दयानन्द का प्रादुर्भाव नहीं होता तो संसार सद्‌ज्ञान और सच्चे अध्यात्म को नहीं समझ पाता।कमलेश कुमार अग्निहोत्री

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    When he was told that- "In the world, the formless are called Nirguna and the corporeal is called Saguna". So he told- "This imagination is only for the ignorant and ignorant. Those who do not have knowledge, they do it like a beast and waste it. Just as a timid human being bumps, so should the words and articles of the ignorant be considered meaningless. "

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  • महर्षि दयानन्द के देशभक्ति से परिपूर्ण विचार

    महर्षि दयानन्द अपने देश पर कितना अभिमान करते थे और उसको कितना ऊंचा स्थान देते थे, इसकी झलक उनके इन विचारों से मिलती है- "यह आर्यावर्त देश ऐसा है, जिसके सदृश भूगोल में दूसरा कोई देश नहीं है। इसीलिए इस भूमि का नाम सुवर्ण भूमि है, क्योंकि यही सुवर्ण आदि रत्न को उत्पन्न करती है। भूगोल में जितने देश हैं, वे सब इसी देश की प्रशंसा करते और आशा रखते हैं। पारसमणि पत्थर सुना जाता है, वह बात तो झूठी है, परन्तु आर्यावर्त देश ही सच्चा पारसमणि है, जिसको लोहेरूप दरिद्र विदेशी छूते के साथ ही सुवर्ण अर्थात्‌ धनाढ्‌य हो जाते हैं।'' (सत्यार्थ प्रकाश, एकादश समुल्लास)

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    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    सम्पूर्ण विश्व के सुख व कल्याण की कामना, यजुर्वेद मन्त्र ३०.३
    Ved Katha Pravachan _29 (Vedic Secrets of Happy Life & Happiness) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    इस देश के वासी होते हुए भी जो लोग अपनी भाषा और संस्कृति के स्थान पर विदेशी भाषा और संस्कृति को अपनाते हैं, उनकी महर्षि इन शब्दों में भर्त्सना करते हैं- "उन लोगों में स्वादेशाभिमान बहुत न्यून है। भला जब आर्यावर्त देश में उत्पन्न हुए हैं और इसी देश का अन्न-जल अब तक खाया-पीया है और अब भी खाते-पीते हैं, तब अपने माता-पिता व पितामह आदि को छोड़कर दूसरे विदेशी मतों पर अधिक झुक जाते हैं और इस देश की संस्कृत विद्या से रहित अपने को विद्वान प्रकाशित करना तथा इंग्लिश भाषा पढ़के पण्डिताभिमानी होकर झटित एक मत चलाने में प्रवृत्त होना मनुष्य का स्थिर बुद्धिकारक काम क्यों कर हो सकता है।'' स्वदेश, स्वभाषा तथा स्वधर्म से प्रेम और अपने पूर्वजों के लिए गौरव एवं अभिमान महर्षि दयानन्द में कूट-कूटकर भरा था। 

    कितने दुःख, व्यथा और वेदना के साथ आप लिखते हैं कि - "विदेशियों के आर्यावर्त में राज्य होने का कारण आपस की फूट, मतभेद, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, विद्या न पढ़ना-पढ़ाना, बाल्यावस्था में अस्वयंवर विवाह, विषयासक्ति, मिथ्याभाषण आदि कुलक्षण, वेद विद्या का अप्रचार आदि हमारी अधोगति के कारण हैं। जब आपस में भाई-भाई लड़ते हैं, तभी तीसरा विदेशी आकर पञ्च बन बैठता है। आपस की फूट से कौरव-पाण्डव और यादवों का सत्यानाश हो गया सो तो हो गया, परन्तु अब तक भी वह रोग पीछे लगा है। न जाने यह भयंकर राक्षस कभी छूटेगा या आर्यों को सब सुखों से छुड़ाकर दुःखसागर में डूबो मारेगा। उसी दुष्ट मार्ग से आर्य लोग अब तक भी दुःख बढ़ा रहे हैं। परमात्मा कृपा करेे कि यह राज रोग हम आर्यों में से नष्ट हो जाये। जब तक एक मत, एक हानि-लाभ, एक सुख-दुःख परस्पर न माने, तब तक उन्नति होना बहुत कठिन है। 

    स्वदेशी का महत्व- "देखो! अंग्रेज लोग अपने देश के बने हुए जूते को कार्यालय (ऑफिस) और कचहरी में जाने देते हैं तथा देशी जूते को नहीं। इतने से ही समझ लो कि वे अपने देश के बने जूतों की जितनी मान-प्रतिष्ठा करते हैं, उतनी अन्य देशस्थ मनुष्यों की भी नहीं करते। देखो! कुछ सौ वर्ष से ऊपर इस देश में यूरोपियनों को आये हो गए। आज तक वे लोग मोटे कपड़े आदि पहिनते हैं, जैसा कि स्वदेश में पहिनते थे। उन्होंने अपने देश का चाल-चलन नहीं छोड़ा। और तुममें से बहुत लोगों ने उनका अनुकरण कर लिया। इसी से तुम निर्बुद्धि और वे बुद्धिमान ठहरते हैं। अनुकरण करना किसी बुद्धिमानी का काम नहीं।'' 

    भारतीयों को उनके गत गौरव का बोध कराते हुए महर्षि ने लिखा था कि हमारा देश प्राचीन समय में विदेशी शासकों के अधीन नहीं रहा था, अपितु हमारे देश के शासकों का ही सर्वत्र सार्वभौम राज्य था और अन्य देशों में माण्डलिक अर्थात्‌ छोटे-छोटे राजा रहते थे। महर्षि ने इस विषयक विचार निम्न प्रकार से व्यक्त किए हैं- "स्वायम्भुव राजा से लेकर पाण्डवों पर्यन्त आर्यों का चक्रवर्ती राज्य रहा। तत्पश्चात्‌ परस्पर के विरोध से लड़कर नष्ट हो गये। क्योेंकि इस परमात्मा की सृष्टि में अभिमानी, अन्यायकारी, अविद्वान लोगों का राज्य बहुत दिन नहीं चलता।'' 

    स्मरण रहे कि महर्षि दयानन्द ने अंग्रेजों के विरोध में ये विचार उस समय व्यक्त किये थे, जब उनके शासन का सूर्य मध्याह्न तक पहुंचा हुआ था और उस समय के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम को दानवी दमन से दबाकर सर्वत्र भय और आतंक की अवस्था उत्पन्न कर दी गई थी। इसीलिए महर्षि दयानन्द सरस्वती को देश में राष्ट्रीयता का भाव भरने वाला प्रथम महापुरुष माना जा सकता है। आचार्य डॉ. संजयदेव

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    Maharishi Dayanand was so proud of his country and gave him a very high status, this is reflected by his thoughts - "This Aryavarta country is like no other country in the geography like it. That is why this land is called Golden Land. Is, because this is the gold that generates the initial gem.

     

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  • महर्षि दयानन्द में शिव के दर्शन

    शिव का सीधा-सादा अर्थ है कल्याणकारी। पुराणों की शिव की कल्पना भी कल्याण की भावना से ही प्रेरित है। शिव सबका कल्याण व हित चाहने वाला देवता है। दूसरों का शुभचिन्तक व हित चाहने वाला व्यक्ति अधिकतर शुद्ध-पवित्र हृदय का तथा भोलापन लिए होता है। इसीलिए शिव को भोला बाबा भी कहा जाता है, जो थोड़ी सी उपासना करने से ही प्रसन्न होकर काफी वरदान देने वाला देवता है। शिव के बारे में अनेकों कहानियॉं व किस्से प्रचलित हैं। वह किसी को दुखी देखता है तो उसे सुखी बना देता है। इसीलिये दुखी को सुखी बना देने वाला देवता ही शिव माना गया है। कल्याण व उपकार सब गुणों में श्रेष्ठ व ज्येष्ठ है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी इसी बात को अपने शब्दों में कहा है- परहित सरिस धर्म नहिं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई। इसीलिये शिव को सब देवी देवताओं से बड़ा देवों का देव महादेव भी कहते हैं। 

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    वेद मन्त्र व्याख्या - यजुर्वेद मन्त्र 25.15

    Ved Katha Pravachan _34 (Vedic Secrets of Happy Life & Happiness) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    बिना स्वार्थ के देने वाले को देव या देवता कहते हैं। देवता दो प्रकार के होते हैं, चेतन और जड़। दूसरे शब्दों में जीवित देव और निर्जीव देव भी कहे जाते हैं। जीवित या चेतन देवों में माता, पिता, आचार्य, विद्वान, वृद्धजन व अतिथि आते हैं, जो हमें उपदेश, सद्‌ज्ञान, अनुभव व आशीर्वाद देकर हमारे जीवन को सुखी व शान्तिप्रद बनाने का प्रयत्न करते हैं। निर्जीव या जड़ देवों में सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी, अन्न, फल व वनस्पति हैं, जिनसे हमारे शरीर को भोजन, गर्मी व शक्ति मिलती है। तभी हमारे शरीर को गति मिलती है और रक्षा होती है। यानी जड़ देवता हमें जीवित रखने में परम सहयोगी हैं। यहॉं प्रसंगवश यह बता देना उचित है कि जैसे हम अपने शरीर के सब अंगों को भोजन व रस पहुँचाने के लिए मुख से भोजन करते हैं, फिर उस भोजन का रस बनकर हमारी नस-नाड़ियों द्वारा शरीर के सभी अंगों को पहुँच जाता है, वैसे ही सभी जड़ देवताओं का मुख अग्नि है। इसीलिये हम यज्ञ द्वारा अग्नि में आहुति देते हैं। यज्ञ में डाली हुई सामग्री व घृत की सुगन्ध हजारों गुणी होकर हवा में फैलकर सब जड़ देवताओं सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, जल, अग्नि व वनस्पतियों को पहुँच जाती है तथा वह शुद्ध व पवित्र होकर प्राणी मात्र का कल्याण करती है और यज्ञ से ही वायुमण्डल हल्का हो जाने से वृष्टि भी होती है। वृष्टि से अन्न, फल व वनस्पतियॉं पैदा होती हैं, जिनको खाकर प्राणीमात्र जीवित रहता है। इसीलिये वेदों में "यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्मः' कहकर यज्ञ की महिमा कही गई है। वेदों में यज्ञ को विश्व की नाभि यानि केन्द्र भी बताया गया है। 

    पुराणों में शिव को सात आभूषणों से विभूषित किया गया है, जो उनके गुणों को प्रदर्शित करते हैं। वे सभी गुण महर्षि दयानन्द सरस्वती के जीवन में भी पूर्णतः घटित होते हैं। शिव की भॉंति ही महर्षि दयानन्द का पूरा जीवन भी परोपकार के लिये बीता। उनको अपना कोई स्वार्थ नहीं था। उन्होंने अपने जीवन में जो ज्ञान, बल व तेज अर्जित किया, वह सब परहित में ही लगा दिया। महर्षि का एक-एक क्षण और एक-एक श्वास प्राणीमात्र की भलाई के लिये ही बीता। ऐसे महान्‌ व्यक्ति का प्रादुर्भाव संसार में युगों के बाद होता है। शिव ने तो देवताओं व राक्षसों के झगड़े को मिटाने के लिये तथा देवी-देवताओं की रक्षा के लिये विषपान किया था और उस विष को गले में ही रोककर पेट में नहीं जाने दिया, जिससे शिव का गला नीला हो गया। इसीलिये शिव का एक नाम नीलकण्ठ भी है। परन्तु महर्षि दयानन्द ने तो प्राणिमात्र के कल्याण के लिये एक बार नहीं, दो बार नहीं, अनेकों बार विषपान किया और उसको न्यौली क्रिया द्वारा बाहर निकालते रहे तथा विष का प्रभाव शिव की भॉंति ही शरीर पर नहीं होने दिया। इस प्रकार शिव ने जो कार्य बड़े रूप में एक बार किया, वही कार्य महर्षि दयानन्द अनेक बार छोटे रूप में करके शिव के तुल्य बनने के पूरे अधिकारी बने। शिव के सातों आभूषण महर्षि के जीवन में कैसे घटित होते हैं, इसका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है- 

    गंगा को जटा में धारण करना- पौराणिक मान्यता के अनुसार भागीरथ की प्रार्थना पर गंगा के वेग को रोकने के लिये शिव ने पहले गंगा को अपनी जटा में धारण किया। फिर जटा से पृथ्वी पर प्रवाहित किया, जिससे पृथ्वीवासियों का कल्याण व हित हुआ। वैसे ही हजारों वर्षों से वेदों को न पढ़ने से वेद ज्ञान प्रायः लुत हो गया था। सिर्फ ग्रन्थों में ही बन्द था। महर्षि दयानन्द ने गुरु विरजानन्द के चरणों में बैठकर सत्य ज्ञान को जाना और अपने परिश्रम से वेद ज्ञान रूपी गंगा को पुनः धरती पर प्रवाहित किया। यानी वेद ज्ञान का प्रकाश किया। यह कार्य शिव के कार्य के समान था। 

    मस्तिष्क में चन्द्रमा का होना- चन्द्रमा शीतलता यानी धैर्य का प्रतीक है। महर्षि दयानन्द महान्‌ धैर्यवान्‌ व्यक्ति थे। इसके अनेकों उदाहरण ऋषि के जीवन में आते हैं। परन्तु यहॉं दो घटनाएं लिखना ही पर्याप्त होगा। एक बार ऋषि कहीं व्याख्यान  दे रहे थे। उस समय एक विरोधी ने कुछ शरारती बच्चों को बुलाकर यह कहा कि तुम स्वामी जी पर ईंटें, पत्थर व धूल फेंको, मैं तुम्हें मिठाई दूँगा। बच्चों ने वही काम किया। ऋषि के भक्तों ने उन बच्चों को पकड़ लिया और ऋषि के पास लाये। ऋषि ने बच्चों से पूछा कि तुम ईंट, पत्थर क्यों फेंक रहे थे? तब बच्चों ने उस व्यक्ति का नाम लेते हुए कहा कि उसने हमें मिठाई का लोभ देकर यह काम करवाया। स्वामी जी ने अपने भक्तों से मिठाई मगंवाकर उन बच्चों को दी और उन्हें पुचकारते हुए जाने को कहा। बच्चे खुशी-खुशी अपने-अपने घर चले गये। यह थी महर्षि की सहनशीलता व धैर्य। 

    दूसरी घटना इससे भी कहीं ज्यादा हृदय को छूने वाली है जो मानव में नहीं, किसी महामानव में ही पाई जा सकती है। वह घटना  उस समय की है, जब ऋषि पुणे में कई दिनों से अपने धारावाहिक प्रवचन कर रहे थे। प्रवचनों से खिन्न होकर उनका अपमान करने के लिए एक आदमी का मुँह काला करके गधे पर उल्टा बिठाकर और उसके गले में जूतों की माला पहनाकर पीछे बीस-तीस विरोधी ढोल बजाते हुए जुलूस निकाल रहे थे और उस व्यक्ति की पीठ पर लिखा था "नकली दयानन्द''। ऋषि के भक्तों को यह बड़ा अशोभनीय लगा और वे ऋषि के पास गए तथा सारा वृत्तान्त कह सुनाया। ऋषि मुस्कुराते हुए बोले कि वे जुलूस ठीक ही तो निकाल रहे हैं, नकली दयानन्द की तो यही दुर्गति होनी ही चाहिये। असली दयानन्द तो यहॉं बैठा है। यह सुनकर ऋषि के भक्तों को बड़ा आश्चर्य हुआ। यह धैर्य की पराकाष्ठा नहीं तो क्या है? शिव का धैर्य का गुण भी महर्षि में अत्यधिक था। इसलिए उनकी शिव से तुलना करना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। 

    गले में सर्पों की माला रखना- गले में सर्पों की माला रखने का भावार्थ यह है कि परोपकार के लिये जीवन को हर समय संकट में रखना और प्रसन्नचित्त रहना। इसका एक दूसरा भाव है, दुष्टों को भी आदर देकर गले से लगाना। यह दोनों ही गुण महर्षि के जीवन में बहुत अधिक देखने को मिलते हैं। शिव के गले में सर्पों का रहना तो एक उपमा मात्र है। परन्तु ऋषि के ऊपर तो कितनी ही बार दुष्टों ने मरे हुए सॉंप फेंके, ईंट, पत्थर मारे। लेकिन वाह रे देव ऋषि! तू कभी भी क्रोधित नहीं हुआ और शान्त चित्त से सभी सहन करते हुए वेदों का प्रचार और परोपकारी कार्य करता रहा। धरती पर अनेकों मत संस्थापक व सन्त, ऋषि, महात्मा आये, जिनको विरोधियों का विरोध सहना पड़ा। ऋषि का तो पूरा जीवन ही संकटों से घिरा था। उनके ऊपर कितनी ही बार विरोधियों ने घातक हमले किये, फिर भी उन्होंने विरोधियों से प्रेम का व्यवहार किया। यहॉं तक कि विष देने वाले पाचक जगन्नाथ को भी पॉंचसौ रुपयों की थैली देकर नेपाल भाग जाने को कहा। 

    हाथ में त्रिशूल- हाथ में त्रिशूल, दुष्टों  के संहार तथा वीरता का सूचक है। ऋषि में जितनी सहनशीलता थी, उससे कहीं ज्यादा दुष्टों व अन्यायियों के दम्भ को चूर करने की भी उनमें शक्ति थी। कर्णवास प्रवास के दौरान राव कर्णसिंह महर्षि के वेद प्रचार से रुष्ट होकर उन्हें गाली-गलौच करने लगा। स्वामी जी ने राव को समझाया कि विचारों का मतभेद बातचीत से प्रेमपूर्वक मिटाया जा सकता है। लेकिन राव तो ताकत के नशे में चूर था। गाली बकते हुए तलवार लेकर महर्षि पर लपका। उसे महर्षि के अतुल्य बल का अनुमान नहीं था। महर्षि ने झपटकर उसके हाथ से तलवार छीन ली तथा भूमि पर टेककर दो टुकड़े कर दिये और शान्त मुद्रा में कहा- "मैं संन्यासी हूँ। तुम्हारी किसी भी गलत हरकत से चिढ़कर, मैं तुम्हारा अनिष्ट कभी नहीं करूंगा। जाओ! ईश्वर तुम्हें सुमति प्रदान करें।'' 

    हाथ में डमरू- हाथ में डमरू धर्म प्रचार का सूचक है। ऋषि ने जो सबसे ज्यादा कार्य किया, वह वैदिक धर्म का प्रचार कार्य है। उस समय वेद सरलता से उपलब्ध नहीं थे। बहुत अधिक परिश्रम करके वेद की कुछ प्रतियॉं दक्षिण भारत से और कुछ जर्मनी से मंगवाकर चारों वेद उपलब्ध करवाये। उनके प्रचार के लिये विरोधियों से कितने ही शास्त्रार्थ किये। सारे भारत में घूम-घूमकर कितने ही व्याख्यान व भाषण दिये। अनेकों ग्रन्थ लिखे। वेदों के भाष्य भी किये और वेद प्रचार करने के लिये ही आर्यसमाज की स्थापना सन्‌ 1875 में मुम्बई में की, जिसका मुख्य उद्देश्य मानव मात्र की सेवा करते हुए वेद प्रचार करना ही है। डमरू का कार्य जितना महर्षि दयानन्द ने किया, उतना शायद ही किसी अन्य धार्मिक विद्वान्‌ ने किया हो। 

    शरीर पर राख रमाना- शिव शरीर पर राख रमाते थे। इसका तात्पर्य एक तो यह हो सकता है कि राख जैसी महत्वहीन वस्तु को भी महत्व देना यानि निम्न, कमजोर, अनाथ व असहाय व्यक्तियों को गले लगाना और उनको सहयोग व सम्मान देना। दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि परहित के कार्यों में अपने तन, मन, धन को समर्पित करके त्याग द्वारा स्वयं को राख के समान बना देना। ये दोनों ही काम महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में बहुत अधिक मात्रा में किये। उन्होंने वेद प्रचार के बाद यदि कोई दूसरा काम अधिक-से अधिक किया था, तो वह था दुखित, असहाय, व अनाथ लोगों का जीवन सुखी बनाने हेतु जन-समाज को प्रेरित करना तथा समाज में अपमानित व निन्दित शूद्र वर्ग जिसे अछूत कहा जाता था, उसको हिन्दू समाज का अभिन्न अंग बताकर उसको सम्मान दिलाना और पढ़ने व धार्मिक स्थानों में प्रवेश का अधिकार दिलाना। 

    नारी जाति की भी उस समय दुर्दशा थी। उन्हें पढ़ाना तो दूर रहा, घर से बाहर निकालना भी दुष्कर्म समझा जाता था। उनका जीवन एक कैदी के समान था, बाहर की हवा भी नहीं लगने दी जाती थी। नारी घर का काम करने की केवल मशीन मात्र थी। ऐसे समय में महर्षि ने मनुस्मृति के श्लोक "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः' के आधार पर उन्हें परिवार व समाज में सम्मान दिलवाया और गार्गी जैसी विदूषियों का उदाहरण देकर उन्हें लौकिक शिक्षा ही नहीं, वेद पढ़ने व पढ़ाने तक का अधिकार दिलाया। महर्षि ने विधवा-विवाह का समर्थन कर विधवाओें को सुखी जीवन प्राप्त कराया। 

    बाघाम्बर धारण- शिव वस्त्रों की जगह पहनने व बिछाने में बाघ की खाल (बाघ-छाल) का ही प्रयोग करते थे। इसका तात्पर्य यह है कि अपनी हिंसक प्रवृत्तियों का दमन करके अपने वश में करना। महर्षि दयानन्द इस विषय में सर्वोपरि और बेजोड़ थे। वे बाल ब्रह्मचारी तो थे ही साथ ही त्यागी, तपस्वी, परोपकारी और प्रकाण्ड वेदज्ञ विद्वान भी थे। कोई ऐसा मानवीय गुण जैसे दया, उदारता, सहृदयता, निर्भयता, निष्पक्षता, ईमानदारी, विनम्रता, अहिंसा आदि नहीं, जो उनमें नहीं हो और अमानवीय दुर्गुण जैसे ईर्ष्या, द्वेष, राग, घृणा व अहंकार आदि तो उनसे कोसों दूर रहते थे। यदि यह कहा जाए कि हिंसक प्रवृत्तियों के दमन का कार्य महर्षि ने बाल ब्रह्मचारी होने के कारण शिव से भी बढ़कर किया, तो यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस प्रकार शिव के सातों आभूषणों के प्रतीक के रूप में सभी गुण महर्षि दयानन्द सरस्वती के जीवन में पूर्णरूपेण देखे जा सकते हैं। - खुशहालचन्द्र आर्य

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    Shiva simply means welfare. Shiva's imagination of the Puranas is also inspired by the feeling of well-being. Shiva is the deity who wants the welfare and well-being of all. The person who wishes the well-wishers and interests of others is mostly of pure and pure heart and innocence. That is why Shiva is also called Bhola Baba, who is a deity who is very happy with only a little worship.

     

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  • महाराणा प्रताप और वीर छत्रसाल

    यह सुखद संयोग है कि मातृभूमि और धर्म की रक्षा करने वाले वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप और रक्ष बांकुरे छत्रसाल का जन्म एक ही तिथि ज्येष्ठ शुक्ल 3 को हुआ था। यद्यपि उनके जीवनकाल में लगभग 200 वर्षों का अन्तर था। महाराणा प्रताप का जन्म संवत 1540 में हुआ था। जब दिल्ली का बादशाह अकबर था जबकि छत्रसाल का जन्म संवत 1706 में हुआ जब दिल्ली में औरंगजेब का शासन था। इस वर्ष 22 मई को दोनों महापुरुषों की जयन्ति है। 

    महाराणा उदयसिंह की मृत्यु के पश्चात जब प्रतापसिंह गद्दी पर बैठे, भारत के बड़े भूभाग पर मुगल बादशाह अकबर का शासन था। बड़े-बड़े राजा महाराजाओं ने अकबर की आधीनता स्वीकार कर ली थी। वीरों की भूमि राजस्थान के अनेक राजाओं ने न केवल मुगल बादशाह की दासता स्वीकार की अपनी बहू बेटियोें की डोली भी समर्पित कर दी थी। महाराणा प्रताप इसके प्रबल विरोधी थे। उन्होंने मेवाड़ की पूर्ण स्वतन्त्रता का प्रयास जारी रखा और मुगल सम्राट के सामने झुकना कभी स्वीकार नहीं किया। अनेक बार अकबर ने उनके पास सन्धि के लिए प्रस्ताव भेजे और इच्छा व्यक्त की कि महाराणा प्रताप केवल एक बार उसे बादशाह मान ले लेकिन स्वाभिमानी प्रताप ने हर प्रस्ताव को ठुकरा दिया। 

    Ved Katha Pravachan _76 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    इसके परिणाम स्वरूप राणा प्रताप को निरन्तर युद्ध करते रहना पड़ा। वे जंगल-जंगल भटकते रहे और करीब 25 वर्षों तक अकबर की विशाल सेना हर बार मुकाबला करते रहे। 

    महाराणा प्रताप और अकबर के बीच दिनांक 18 जून 1576 में हुआ हल्दीघाटी का युद्ध विश्व में प्रसिद्ध हुआ। इस युद्ध में अकबर की सेना का नायक आमेर का राजा मानसिंह था जो अत्यन्त वीर और पराक्रमी था। देवयोग से वह प्रताप के वार से बच निकला। इस युद्ध में प्रताप ने अकबर की विशाल सेना को तहस नहस कर दिया। विजय किसी की नहीं हुई। इसके पश्चात्‌ प्रताप ने छापामार युद्ध प्रणाली अपनायी और अपने जीवनकाल में ही मेवाड़ का अधिकांश भूभाग दुश्मन से मुक्त करा लिया। 

    महाराणा प्रताप के जीवन के कुछ प्रसंग उल्लेखनीय हैं। राणा प्रताप अपने अनुज शक्तिसिंह के साथ एक बार आखेट पर गए। शिकार किसने किया इस पर दोनों में विवाद हुआ और दोनों ने तलवार खींच ली। परिस्थिति विकट देखकर साथ गये राजपुरोहित ने कहा यदि लड़ाई बन्द नहीं हुई तो मैं आत्म हत्या कर लूंगा। चेतावनी का असर होता न देख विप्र ने कटार मारकर आत्महत्या कर ली। परिणाम में दोनों सान्त हुवे, युद्ध टल गया। यदि ऐसा न होता तो कल्पना कीजिए क्या स्थिति होती? इन राज पुरोहित का नाम नारायणदास पालीवाल था। उनके 4 पुत्र थे उनमें से 2 ने हल्दीघाटी युद्ध में भाग लिया था और खेत रहे थे। 

    जब राणा प्रताप जंगलों में भटक रहे थे। खाने का भी साधन नहीं था। भूखे राजकुमारों को देखकर उनका हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने सुलह के लिये अकबर को पत्र लिखा। तब बीकानेर के राजा अनुज पृथ्वीराजसिंह बादशाह के दरबार में थे। उन्हें प्रताप पर गर्व था। प्रताप का पढ़ पढ़कर उनकी आत्मा सिहर उठी। उन्होंने एक जोशीला पत्र प्रताप को भेजा जिससे प्रताप का स्वाभिमान जाग उठा और उन्होंने युद्ध करना निश्चित किया। पृथ्वीराज के पत्र की अन्तिम कड़ी थी-

    मैं आज सुनी है म्यानां में तलवार रेवेला सूनी
    म्हारो हिलडो कांपे है मूंछारी मोड़ मरोड़ गई
    पीथल ने राणा लिख भेजो आ बात कठा तक गिनूं सही

    राणा के पत्र की अन्तिम कड़ी थी-

    थे राखो मूंछ एठयोरी, लोई री नदी बहा दूंगा
    मैं तुर्क कहूंला अकबर ने उजड्‌यो मेवाड़ बसा लूंगा।                                      

    म्हूं राजपूत रो जायो हूँ, रजपूति करंज चुकाऊँगा
    यो शीश गिरे पर पाग नहीं म्हूँ दिल्ली आण झुकाउंगा

    जब हल्दीघाटी के युद्ध में राणा प्रताप दुश्मनों से चारों और घिर गए और बचने की कोई आश नहीं थी। यह स्थिति देखकर झाला सरदार मानसिंह तुरन्त उनके पास पहुँचे। उनका राजचिन्ह अपने सिर पर रखा और राणाजी को घेरे से बाहर निकलने की राह बनाई। दुश्मनों ने मानसिंह को राणा समझकर घेर लिया और वे वीरगति को प्राप्त हुए। यदि समय पर झाला सरदार ऐसा न करते तो हल्दीघाटी का इतिहास ही और होता। 

    जब प्रताप घायल होकर घायल घोड़े चेतक पर बैठकर युद्ध क्षेत्र से बाहर निकले उन्हें देख दुश्मन के दो सवारों ने उनका पीछा किया। परिस्थिति को गम्भीरता को देखकर राणा के अनुज शक्तिसिंह ने पीछा किया और दोनों सैनिकों को मार गिराया और प्रताप से क्षमा मांगी यदि ऐसा न होता। 

    इसी प्रकार भामाशा ने अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति राणा प्रताप को अर्पित कर राष्ट्र भक्ति का अद्वितीय कार्य किया। इतिहास में उनका नाम अमर रहेगा। 

    महाराणा प्रताप योद्धा ही नहीं महान व्यक्तित्व के धनी भी थे। वे अपने शत्रु से भी धर्मपूर्वक व्यवहार करते थे। जब प्रताप का देहान्त हुआ शहंशाह अकबर हैरान हो गया उसकी आँखें छलक उठी। उसके मुँह से निकला ऐ प्रताप तू महान था। तूने हिन्दुस्थां की शान रखी। 

    वास्तव में महान योद्धा, स्वाधीनता का पक्षधर, कर्मठ देशभक्त प्रताप इस देश की अस्मिता और स्वतन्त्रता के लिए जिए और अमर हो गये। 

    महाराज छत्रसाल - बुन्देलखण्ड के राजा चम्पतराय ने जीवनभर अपने देश की स्वतन्त्रता के लिये मुगलों से संघर्ष किया। वृद्धावस्था उनकी आकस्मिक मृत्यु के पश्चात, कर्त्तव्य का दायित्व उनके पुत्र छत्रसाल के कन्धों पर पड़ा। छत्रसाल की शिक्षा दीक्षा उनके माना के यहॉं हुई। 

    छत्रसाल ने हिन्दू धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए हिन्दू राजाओं को संगठित करने का प्रयास किया। परन्तु उसमें वे सफल नहीं हो सके। बुन्देलखण्ड के अनेक राजा मुगलों के साथ थे। ऐसी परिस्थिति में छत्रसाल ने विश्वस्त युवकों की एक सेना तैयार की और मुगलों से संघर्ष करते रहे। 

    कुछ वर्ष पश्चात छत्रसाल ने महाराष्ट्र जाकर शिवाजी महाराज से भेंट की। उन्होंसे राजनीति और रणनीति के गुर सीखे। छत्रसाल शिवाजी से बहुत प्रभावित थे। उनकी ही रणनीति से छत्रसाल ने बुन्देलखण्ड में एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की। यह उल्लेखनीय है कि छत्रपति शिवाजी की तरह महाराज छत्रसाल भी कभी युद्ध में नहीं हारे। छत्रसाल महान योद्धा और श्रेष्ठ कवि थे। साहित्यकारों का वे सम्मान करते थे। 

    बुन्देलखण्ड पर कब्जा करने के लिए बादशाह औरंगजेब के शासनकाल में बहुत प्रयत्न हुए। औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात्‌ उसका पुत्र फर्रुखसियर बादशाह हुआ। उस समय छत्रसाल वृद्ध हो गये थे। ऐसे समय में बादशाह ने अपार सेना महमदखां बंगश के अधीन भेजकर बुन्देलखण्ड पर आक्रमण किया। छत्रसाल ने उसे कई बार पीछे धकेला परन्तु उसकी सेना विशाल थी और उसे बराबर सहायता मिलती जा रही थी। 

    स्थिति संकटपूर्ण थी। तब छत्रसाल का शिवाजी को वह आश्वासन याद आया कि हिन्दूत्व की रक्षा के लिए जब आवश्यक हो महाराष्ट्र की सेना बुन्देलखण्ड सहायतार्थ आयेगी। इस समय मराठों का नेतृत्व बाजीराव के हाथ में था। छत्रसाल ने बाजीराव को सहायता के लिए मर्मस्पर्शी पत्र लिखा- उसने लिखा-

    जो गति गज की भई सो गति भई है आज।
    बाजी जात बुन्देल की राखो बाजी लाज। 

    पत्र पढ़कर बाजीराव सहायतार्थ पहुँच गए। बंगश पर घेरा डाल दिया गया। बाजीराव के आक्रमण से उसके कई सेना नायक मारे गये। अन्त में उसने प्राणों की भीख मांगी। तब युद्ध का व्यय देने और भविष्य में कभी बुन्देलखण्ड की तरफ नजर डालने की शपथ पर उसे प्राणदान दिया गया।

    इस संकट की घड़ी में सहायता करने वाले बाजीराव के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए छत्रसाल ने बाजीराव को अपना तीसरा पुत्र माना और बुन्देलखण्ड राज्य का एक तिहाई भाग दिया। छत्रसाल की एक मुस्लिम स्त्री से उत्पन्न कन्या को भी छत्रसाल ने बाजीराव को दी जो इतिहास में मस्तानी के नाम से प्रख्यता हुई।

    छत्रसाल के राज्य में प्रजा सुखी थी बुन्देलखण्ड में आज भी प्रार्थना में कहा जाता है "छत्रसाल महाबली करियो सबकी भली। वीर छत्रसाल की वीरता से महाकवि भूषण इतने प्रभावित हुए थे कि शिवाजी की प्रशंसा करते हुए उन्हें कहना पड़ा- शिवा को सराहूँ कि सराहूँ छत्रसाल को। 

    महान योद्धा, धर्मरक्षक महाराणा प्रताप और वीर छत्रसाल को श्रद्धापूर्वक नमन। श्रीकृष्ण पुरोहित

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    Maharana Pratap was not only a warrior but a rich man of great personality. They also used to treat their enemies religiously. Emperor Akbar was shocked when Pratap died. Ai Pratap came out of his mouth, you were great. You respected the Hindusthan.

     

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  • माता को प्रथम गुरु क्यों कहा गया है

    मॉं को प्रथम गुरु कहा गया है। माता जहॉं जन्म देती है तथा शिशु को नौ महीने तक गर्भ में पालती है और साथ ही संस्कारित भी करती है। बालक नौ महीने तक गर्भ के अन्दर रहता है, तब जो शिक्षा चलती है वह संस्कारों की शिक्षा है। इसलिए माता प्रथम गुरु है। शिवाजी को उसकी मॉं जीजाबाई ने गर्भ में ही संस्कारों की शिक्षा दी थी। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान है। 

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    मनुष्य को मनुष्य क्यों कहते हैं

    Ved Katha Pravachan _56 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    माता मन में ज्ञान के प्रकाश को डालती है। मन-बुद्धि के अन्दर ज्ञान भली प्रकार माता के द्वारा डाला जाता है। यह संस्कारों का पोषण है। माता पोषित एवं संस्कारित करती है और पिता पालन करता है तथा गुरु अज्ञान रूपी अन्धकार को दूर करने वाला है। गुह्य ज्ञान का प्रकाशक जो है, उसका नाम है गुरु। अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला। बालक जब बड़ा हो जाता है तो संसार का ज्ञान कराती है मॉं। गुरु भी ज्ञान कराता है, लेकिन गर्भ के अन्दर जो ज्ञान होता है, वह आन्तरिक ज्ञान है, अन्तः शिक्षा है। यह अन्तः शिक्षा पूरे जीवन में काम करती है। बाह्य शिक्षा समय के साथ है, संस्कारों के साथ है। जो संंस्कार गर्भ में पड़ जाते हैं, वही जीवन भर चला करते हैं। इसलिए मॉं को श्रेष्ठ और प्रथम गुरु कहा गया है। 

    बल, बुद्धि और ज्ञान से सम्पन्न को वेद में शूरवीर कहा गया है। जो न स्वयं दीन होते हैं और न ही राष्ट्र को दीन बनने देते हैं, ऐसे पुत्र को जन्म देने वाली मॉं साधुवाद और प्रशंसा की पात्र है। क्योंकि ऐसे वीर पुत्र देवों को भी वश में कर लेते हैं। ऐसे पुत्रों को जन्म देने वाली मॉं और वह कुल जिसमें जन्म लिया है, दोनों ही कृतार्थ हो जाते हैं। - डॉ. विनोद शर्मा

    दुनिया में सबसे सुन्दर हाथ

    एक छोटा बच्चा अपने माता-पिता के साथ अपने आरामदेय घर में बैठा था। वह अपनी मॉं से बोला- "मॉं! आपका चेहरा दुनिया में सबसे दयालु व सुन्दर है। दिल चाहता है कि मैं इसे हमेशा देखता रहूँ।'' 

    जैसे ही वह ये शब्द बोल रहा था, उसकी नजर अपनी मॉं के हाथों पर पड़ी। वे मुड़े हुए और बड़े कुरूप थे। वह बोल उठा- "मॉं! आपके हाथ दुनिया में सबसे कुरूप हाथ होंगे। मैं उनकी तरफ देख भी नहीं सकता।'' 

    इस पर पिता ने बेटे को अपनी गोद में बैठाया और कोमलता से बोला- "मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ। एक समय की बात है कि एक नन्हा बच्चा अपने पालने में शान्तिपूर्वक सोया हुआ था कि पालने को आग लग गई।'' 

    लड़के ने पूछा- "बच्चे का क्या हुआ?'' "बच्चे की देखभाल के लिए जो आया रखी थी, वह डरकर भाग गई'', पिता ने बात जारी रखी, "लेकिन मॉं ने आग देख ली और बच्चे को बचाने दौड़ी। उसने देखा कि बच्चे के चारों ओर आग इतनी फैल चुकी थी कि बच्चे को घायल हुए बिना उठाना असम्भव था। उसने हाथों से ही आग बुझाई। उसके हाथ बुरी तरह जल गये। उन्हें ठीक होने में कई महीने लग गये। पर उन पर दाग फिर भी रह गये।'' 

    छोटा बच्चा चहक उठा- "कितनी बहादुर मॉं होगी!'' 

    पिता ने कहा- "जानते हो वह कौन थी? वह तुम्हारी मॉं थी। उसके कुरूप हाथों ने ही तुम्हें बचाया था।'' 

    यह सुन बच्चे की आँखों में आँसुओं की धारा फूट पड़ी। वह अपनी मॉं की तरफ मुड़ा और बार-बार उसके हाथ चूमने लगा। वह रोते हुए बोला- "मॉं, यह दुनिया के सबसे सुन्दर हाथ हैं।'' - प्रस्तुतिः वरुण

    शिष्य की निष्ठा

    एक सन्त घने जंगल से होकर अपने गन्तव्य के लिये निकले। यह देखकर उनका शिष्य भी उनके पीछे चल पड़ा। रास्ते में नदी पड़ी। नदी को पार करने के लिए कोई पुल न था। सन्त को नदी के पार पहुंचना जरूरी था। यह देख शिष्य दौड़कर गुरु जी से आगे आया और नदी के तेज जल में उतर गया। गुरु खड़े हुए यह दृश्य देखते रहे। शिष्य नदी को पार करने लगा। उसके गले तक जल आने लगा। अन्ततः उसने नदी को पार कर ही लिया। उसने गुरु जी से कहा- गुरुवर! अब आप भी धीरे-धीरे नदी पार कर लें। गुरु ने भी उसके आग्रह पर तेज जल प्रवाह में चलकर नदी को पार कर लिया। 

    सन्त ने शिष्य से कहा कि तू दौड़कर मुझसे आगे आया और नदी में उतर गया। अगर तू डूब जाता तो क्या होता? शिष्य ने गुरु के चरण पकड़कर कहा- "हे गुरुवर, अगर मैं डूब जाता तो कोई फर्क न पड़ता, किन्तु अगर आप डूब जाते तो देश की अत्यधिक हानि होती। आपको मेरे जैसे अनेक शिष्य मिल जायेंगे। किन्तु जन-मानस को आप जैसा गुरु कहॉं से मिलता?'' प्रस्तुतिः कु. भावना

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    Mother has been called the first Guru. The mother where she gives birth and raises the baby in the womb for nine months and also performs the rituals. The child stays inside the womb for nine months, then the education that goes on is the education of the sacraments. Therefore Mata is the first Guru. Shivaji was taught the rites by his mother Jijabai in the womb itself. Janmani Janmabhoomi Swargadpi Gariyasi. Janani and Janmabhoomi is also greater than heaven.

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  • माता-पिता की मर्जी बिना प्रेम विवाह के खिलाफ अर्जी खारिज

    मदुरै –8फरवरी,2015मद्रास हाई कोर्ट ने उस जनहित याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया,जिसमें अनुरोध किया गया था कि माता-पिता की मर्जी के बिना प्रेम विवाह कराने से अधिकारियों को रोका जाए। याचिका में कहा गया था कि शादी के मौके पर दंपती के मां-बाप की मौजूदगी सुनिश्चित की जाए ताकि हॉरर किलिंग के नाम पर होने वाली हत्याओं पर अंकुश लगाया जा सके।

    वेलेनटाइन डे से एक सप्ताह पहले दायर याचिका में तमिलनाडु सरकार को यह आदेश देने का अनुरोध किया गया था कि वह पंजीकरणपुलिस और मंदिर अधिकारियों को युवक-युवती के माता-पिता की उपस्थिति और सहमति के बिना शादी नहीं कराने का निर्देश दें। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और अन्य न्यायधीशों ने ऐसा निर्देश देने की संभावना से इनकार किया और कहा कि यह अदालत की ओर से कोई कानून बनाने जैसा कदम होगा। न्यायाधीशों ने कहा कि बालिग लड़के-लड़कियों को अपना साथी चुनने का पूरा अधिकार है। अदालत उसमें दखल नहीं दे सकती। यह जनहित याचिका के. के. रमेश ने दायर की थी।

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    Madras HC declines PIL against love marriages without parents' consent

    Madurai: Feb 08, 2015. Madras High Court on Saturday declined to entertain a PIL petition which sought to forbear officials from solemnising love marriages without the consent and presence of parents of the couples to check honour killings.

    The petition, filed about a week ahead of Valentine's Day on February 14, had sought a direction to the Tamil Nadu Government to issue a circular instructing the registration, police and temple officials not to perform marriages without insisting on the personal appearance and consent of the parents of the girl and the boy.

    Chief Justice Sanjay Kishan Kaul and Justice S Tamilvanan ruled out the possibility of issuing such a direction, saying it would amount to the court making a new law. The judges said a major boy or girl had every right to choose their partner and the court could not intervene.

    would amount to the court making a new law. The judges said a major boy or girl had every right to choose their partner and the court could not intervene.

    जो हमारे लिए उपयोगी होता है, उसकी हानि को हम अपनी हानि समझते हैं। उसकी रक्षा करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। जो हमारे लिए उपयोगी नहीं उसके बारे में हम कोई परवाह नहीं करते।
    We consider the loss of what is useful to us as our loss. Trying to protect him. We don't care about what is not useful to us.
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    कुछ उपयोगी बातें हैं, जिन्हें अपनाकर विद्यार्थी संस्कारी व आत्मविश्वासी बन सकते हैं -विद्यार्थियों को सुबह या शाम नियमित रूप से कुछ देर तक व्यायम या योग्याभ्यास जरूर करना चाहिए।
    There are some useful things, by adopting which students can become cultured and self-confident - Students must do exercise or yoga regularly for some time in the morning or evening.
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    मां-बाप को चाहिए कि वे अपने बच्चों पर थोड़ा सा ध्यान दें और उन्हें न केवल एक संस्कारी बच्चा बनाएं बल्कि एक संस्कारी विद्यार्थी भी बनाएं ताकि ताउम्र बच्चे अपना आत्मविश्वास बनाए रखें, जो जीवन के हर मोड़ पर उसे सफल बनायेगा।
    Parents should pay a little attention to their children and make them not only a cultured child but also a cultured student so that the child maintains self-confidence throughout his life, which will make him successful at every turn of life.

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  • मानव-निर्माण में आर्यसमाज का महत्व-1

    संसार के समस्त प्राणियों में मनुष्य श्रेष्ठतम है। उसकी महत्ता का वर्णन वैदिक ऋचाओं से लेकर अत्याधुनिक कविताओं तक में मिलता है। महाभारतकार के शब्दों में- न हि मानुषात्‌ श्रेष्ठतरं हि किंचित्‌। अर्थात्‌ इस सृष्टि में मनुष्य से श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं है। कविवर सुमित्रानन्दन पन्त ने भी मानव को जगत्‌ का सुन्दरतम प्राणी माना है- सुन्दर है विहग, सुमन सुन्दर । मानव तुम सबसे सुन्दरतम।।

    भोग और कर्मयोनि-निश्चय ही चराचर जगत्‌ में मनुष्य की समता कोई दूसरा प्राणी नहीं कर सकता। वह विधाता की श्रेष्ठतम रचना है, सुन्दरतम विधान है । लेकिन क्यों? इसका कारण सम्भवत: यही प्रतीत होता है कि मानवेतर अन्य प्राणी भोग योनि में हैं, पूर्वजन्मकृत कर्मों का फल भोग रहे हैं । किन्तु मानव भोग और कर्म की उभय योनि में है। मानव योनि में पूर्वजन्मकृत कर्मों का फल तो भोगा ही जाता है, भावी जीवन के लिए नऐ कर्म भी किए जाते हैं। कर्म की इसी विशेषता के कारण मनुष्य की श्रेष्ठता स्वत: प्रमाणित है। कर्म की यह विशेषता धर्म में निहित है, इसीलिए धर्माचरणविहीन मनुष्य को पशुवत्‌ ही माना गया है-

    आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत्‌ पशुभिर्नराणाम्‌।
    धर्मों हि तेषामधिको विशेषो धर्मेंण हीना पशुभि: समाना।।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    गीता और वेद का मार्ग कल्याणकारी है।
    Ved Katha Pravachan - 100 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    मनुष्य का शरीर पा जाने मात्र से ही किसी को मनुष्य नहीं कहा जा सकता। जो प्राणी मानव शरीरधारी होकर भी मानवता के विभेदक लक्षणों से युक्त नहीं है, उसे मनुष्य कहना मानवता का अपमान करना है। मानव को मानव बनाने का काम सर्वाधिक कठिन है। मनुष्य कठिन साधना और पवित्र जीवन से ही मनुष्य बन पाता है। यह आत्मज्ञान का विषय है, इसलिए प्रत्येक प्राणी को पहले यह जानना है कि वह कौन है, किसका है, उसका क्या नाम है और उसके जीवन का क्या लक्ष्य है? इस सन्दर्भ में यजुर्वेद का निम्नांकित मन्त्र प्रमाण है-

    कोऽसि कतमोऽसि कस्यासि को नामासि यस्य ते नामामन्महि यं त्वा सोमेनाति तृपाम।
    भूर्भुव: स्व: सुप्रजा: प्रजाभि: स्यां सुवीरो वीरै: सुपोष: पौषै:।। (यजुर्वेद 7.29)

    कहने की आवश्यकता नहीं कि मानव-शरीर की प्राप्ति अनेक जन्मों के पुण्यों का फल है। चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद मनुष्य-शरीर मिलता है, ऐसा अनेक विचारकों ने माना है। इस शरीर को पाकर भी जो अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की चेष्टा नहीं करता और इसे यों ही गंवा देता है, उससे बढकर मूर्ख और आत्म-घाती दूसरा कोई नहीं। संसार के प्रत्येक प्राणी का ध्येय मोक्ष-लाभ और ईश्वर प्राप्ति है। उसी की ज्योति से चर-अचर आलोकित हो रहे हैं। उसे पा लेने के उपरान्त प्राणी जन्म-मरण के बन्धनों से उसी प्रकार छूट जाता है, जैसे परिपक्व खरबूजा अपनी लता से स्वत: ही पृथक्‌ हो जाता है।यजुर्वेद के तृतीय अध्याय में इसी बात को स्पष्ट करते हुए उल्लेख है- उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। (मन्त्र 60)

    मनुष्य-शरीर पाकर भी यदि हम अपने लक्ष्य-बिन्दु तक न पहुंच सके तो किसी दूसरी योनि में यह काम सम्पन्न न होगा। किन्तु व्यक्ति के लिए सर्वप्रथम सम्यक्‌ ज्ञान द्वारा यह जानना आवश्यक है कि मनुष्य के कर्त्तव्य-कर्म क्या हैं, उसके जीवन का लक्ष्य क्या है? हमारे देश के तत्वज्ञ मुनियों ने मानव-जीवन के भौतिक और आध्यात्मिक पहलुओं पर विचार कर उन दोनों में सामंजस्य स्थापित करने हुए उसके जीवन का लक्ष्य "पुरुषार्थ-चतुष्टय" (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) की प्राप्ति निश्चित किया है। इस लक्ष्य की प्राप्ति तभी सम्भव है, जब मनुष्य मनुष्य बने, अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान कर तदनुसार आचरण करे। मनुष्य को मनुष्य बनाने और अपने कर्त्तव्य-कर्मो की पहचान करा कर उस ओर उन्मुख करने में आर्यसमाज की भूमिका निश्चय ही महत्वपूर्ण है।

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    महर्षि दयानन्द की देनआर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती क्रान्तदर्शी मनीषी थे। आज से लगभग डेढ शताब्दी पूर्व उन्होनें  आर्यसमाज रूपी जिस मशाल को जलाया, उसके प्रकाश से असंख्य मनुष्यों के जीवन आलोकित हो चुके हैं। मनुष्य-मात्र को अन्धकार से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से अमरत्व की ओर ले जाने में इस समाज का जो योगदान है वह अविस्मरणीय है। मानव उद्धारक, दया और आनन्द के मूर्तिमान रूप महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्यसमाज के माध्यम से मानव-निर्माण का जो अभूतपूर्व कार्य किया वह मानवेतिहास में अत्यन्त दुर्लभ है। स्वामी जी ने इस समाज के नियमोपनियमों और वैदिक धर्म के पुनरुत्थान के द्वारा जिस वैचारिक क्रान्ति का सूत्रपात किया उसका सुफल धीरे-धीरे हमारे सामने आ रहा है।

    वैदिक वाङ्‌मय का मन्थन कर उन्होंने जन-भाषा में जिस साहित्य की सृष्टि की, अज्ञानान्धकार के मूलोच्छेद में वह सूर्य के समान निश्चय ही समर्थ है। इस साहित्य का अध्ययन करने पर इसमें रंच-पात्र भी सन्देह नहीं रहता कि ऋषिवर स्वामी दयानन्द सरस्वती न केवल दूर-द्रष्टा वरन्‌ आधुनिकताबोध सम्पन्न विचारक भी थे। किसी बात को सप्रश्न दृष्टि से देखना और विवेक की तुला पर तोलना ऐसी बाते हैं, जो स्वामी जी को अत्याधुनिक चिन्तकों की पंक्ति में सहज ही बिठाती हैं। अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे। बीच में तोड़ने ही होंगे मठ और गढ सब। यह शिक्षा सर्वप्रथम मुक्ति बोध ने नहीं, स्वामी जी ने दी। उन्होंने यह शिक्षा कथन द्वारा मात्र अभिधात्मकरूप में न देकर अपने जीवन और व्यवहार द्वारा दी। सत्य का उद्‌घोष वे जीवन-पर्यन्त निर्भीक रूप से करते रहे। गढों-मठों को तोड़ने के साथ धर्म में व्याप्त आडम्बरों का उन्होंने सदैव पर्दाफाश किया और इसके लिए कभी जिन्दगी की भी परवाह नहीं की। इसका प्रधान कारण स्पष्टत: यही है कि मठ-गढ और धर्माडम्बर मानव-प्रगति में सर्वाधिक बाधक हैं। ये अज्ञानान्धकार फैला कर मनुष्य को मनुष्य नहीं रहने देते। कभी-कभी तो मनुष्य को दुर्दान्त दैत्य बना देेते हैं और इस प्रकार मानवता के नाम पर कलंक लगाते हैं। स्वामी दयानन्द का जीवन, उनका सद्‌-साहित्य और अन्याय-असत्य आदि की विरोधिनी उनकी ओजविनी मूर्ति आज भी धरोहर के रूप में आर्य समाज के पास है। स्वामी जी के बाद आर्य समाज उनके आदर्शों का मूर्तिमन्त रूप है और वह मानव निर्माण के सनातन उत्तरदायित्व का निर्वाह करता आ रहा है। आर्य समाज के नियमों और आदर्शों का पालन कर कोई भी व्यक्ति महान्‌ बन सकता है, यहॉं तक कि देव-कोटि में पहुंच सकता है। किन्तु उसके लिए कथनी और करनी में अन्तर की समाप्ति आवश्यक है, मनसा-वाचा-कर्मणा जीवन को तदनुसार ढालने की आवश्यकता है।

    मानव-निर्माण और सामाजिक अभ्युत्थान की दृष्टि से आर्य समाज की अपनी चिन्तन धारा है। यह समाज वर्ग, जाति, लिंग, देश या काल की संकीर्णताओं में बन्धा नहीं है। कृण्वन्तो विश्वमार्यम्‌ का आदर्श लेकर चलने वाले समाज को बन्धना भी नही चाहिए। मानव-मानव के बीच खड़े समस्त भेद-भावों को समाप्त कर यह समाज विश्व बन्धुत्व का एक अनोखा आदर्श उपस्थित करता है। सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की सन्तान हैं, तब उनमें भेद-भाव कैसा, छुआछूत कैसी ? जन्म से सभी व्यक्ति शूद्र हैं। किन्तु वे कर्म से द्विज बनते हैं- जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते। वस्तुत: वर्ण-व्यवस्था का आधार जन्म नहीं, गुण और कर्म हैं। ऋषि के शब्दों में, जो शूद्र कुल में उत्पन्न होकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के समान गुण-कर्म-स्वभाव वाला हो तो वह शूद्र ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य हो जाए। वैसे ही जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य कुल में उत्पन्न हुआ हो और उसके गुण-कर्म-स्वभाव शूद्र के सदृश हों तो वह शूद्र हो जाये। (सत्यार्थ प्रकाश, चतुर्थ समुल्लास) लेखक- डॉ. सुन्दरलाल कथूरिया 

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    Man is the best among all beings in the world. His significance is found in Vedic hymns to modern poems. In the words of the Mahabharata, neither man is superior or not. That is, there is nothing better than man in this world. Poet Sumitranandan Pant has also considered human being the most beautiful creature of the world - beautiful is the bird, the beautiful is beautiful. Man you are the most beautiful.

     

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  • मानव-निर्माण में आर्यसमाज का महत्व-2

    संस्कारों का महत्व-व्यक्ति के निर्माण में सबसे बड़ा हाथ है संस्कारों का। यदि किसी समाज के व्यक्ति अच्छे हैं तो वह समाज निश्चय ही अच्छा होगा। किन्तु अच्छे समाज के निर्माण के लिए समाज के प्रत्येक घटक का निर्माण आवश्यक है और यह कार्य संस्कारों के द्वारा जितने सुन्दर रूप में सम्पादित हो सकता है, दूसरे किसी उपाय से नहीं। मानव के समुचित विकास के लिए आर्य समाज की दृष्टि में सोलह संस्कार आवश्यक हैं। इन संस्कारों के करने से शरीर और आत्मा सुसंस्कृत होने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त हो सकते हैं और सन्तान अत्यन्त योग्य होती है। आज संसार में जो सन्ताप दिखाई दे रहे हैं, उनका एक कारण यह भी है कि व्यक्ति संस्कार-विहीन हो गया है। जिस प्रकार कुम्हार मिट्टी को चाक पर चढा कर उसे जैसा चाहता है, वैसा रूप दे देता है, उसी प्रकार संस्कारों की चाक पर चढाकर मनुष्य का यथोचित निर्माण किया जा सकता है। संस्कारों की अग्नि में तप कर व्यक्ति कुन्दन के समान भास्कर हो उठता हैं।

    व्यक्ति परिवार का अंग है। आदर्श व्यक्तियों के योेग से आदर्श परिवार का निर्माण होता है। परिवार का निर्माण होता है। परिवार की सुख-शॉंति के लिए एक दूसरे के प्रति त्याग का भाव और सामंजस्य आवश्यक है। स्वार्थ पर टिका सम्बन्ध कभी स्थायी नहीं हो सकता। प्रत्येक परिवार की सुख-समृद्धि के लिए आर्य समाज की पंच-महायज्ञों में आस्था है । यज्ञों के द्वारा व्यक्ति, परिवार और समाज का कल्याण निश्चित है।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    भारत की गुलामी का कारण
    Ved Katha Pravachan - 99 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    पारिवारिक जीवन का आधार पति-पत्नी और सन्तान हैं। गृहस्थी की गाड़ी सुचारु रूप से चले, इसके लिए इनमें उचित सहयोग और कर्त्तव्य-निष्ठा आवश्यक है। सन्तान के निर्माण में माता-पिता का बहुत बड़ा हाथ रहता है। यदि माता-पिता आदर्श हैं तो सन्तान भी आदर्श बनेगी। इस सन्दर्भ में ऋषिवर दयानन्द सरस्वती का यह कथन सर्वथा उपयुक्त है- "जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात्‌ एक माता, दूसरा पिता और तीसरा आचार्य हो, तभी मनुष्य ज्ञानवान होता है। वह कुल धन्य! वह सन्तान बड़ी भाग्यवान! जिसके माता और पिता धार्मिक-विद्वान हैं। जितना माता से सन्तान को उपदेश और उपकार पहुंचता है, उतना किसी से नहीं।"(सत्यार्थ प्रकाश, द्वितीय समुल्लास)

    सामाजिक चिन्तन-आर्य समाज की सामाजिक चिन्तन धारा भी है। इस विचार-धारा को स्वीकार कर लेने पर आदर्श समाज का निर्माण सहज सम्भव है। आर्य समाज वर्णाश्रम व्यवस्था का आधार गुण-कर्म-स्वभाव को मानता है। आर्य समाज सभी मनुष्यों को समान मानकर छुआछूत का विरोध करता है। वह शूद्रों और स्त्रियों को भी वेदाध्ययन का अधिकार देता है। इस सन्दर्भ में स्वामी दयानन्द का तर्क है कि "जो परमेश्वर का अभिप्राय शूद्र आदि के पढाने-सुनाने का न होता तो इनके शरीर में वाक्‌ और श्रोत्र इन्द्रिय क्यों रचता? (सत्यार्थ प्रकाश, तृतीय समुल्लास)

    आर्य समाज ने कभी इस विचार धारा का समर्थन नहीं किया- स्त्री शूद्रौ नाधीयताम्‌। इसके विपरीत आर्य समाज ने "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:" का उद्‌घोष कर नारियों को समाज में उचित स्थान दिलाया, उनकी महत्व प्रतिष्ठा की। बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह और बहु-विवाह का निषेध कर आर्य समाज ने विधवा विवाह का समर्थन किया। सती-प्रथा जो मानवता के नाम पर कलंक थी, का विरोध कर आर्य समाज ने समाज-सुधार का बहुत बड़ा कार्य किया। सामाजिक अभ्युत्थान की दृष्टि से यह आवश्यक है कि व्यक्ति अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट न हो वरन्‌ सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझे। (देखिए : नियम 9) इसी प्रकार सामाजिक आचार-संहिता की दृष्टि से यह कथन भी उचित ही हे कि "सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें।

    मानव-निर्माण में आर्य समाज की धार्मिक दृष्टि का महत्वपूर्ण स्थान है। मानव का व्यावर्तक गुण धर्म ही है। धर्म के अन्तर्गत आर्य समाज ने नैतिकता के शाश्वत और सार्वभौम प्रतिमानों को स्वीकृति दी है। मनु की धर्म विषयक दृष्टि को स्वीकार कर आर्य समाज ने धर्म के निम्नांकित दस लक्षणों को मान्यता दी है-

    घृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रह:।
    घीर्विद्यासत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।।

    धर्म के इस स्वरूप को आत्मसात कर कोई भी मनुष्य अपने जीवन को आदर्शात्मक परिणति दे सकता है। सत्य, न्याय और पुरुषार्थ की महत्व प्रतिष्ठा कर आर्य समाज ने मनुष्य मात्र को आत्म-निर्माण का सीधा-सच्चा रास्ता दिखाया है।

    आर्य समाज की धार्मिक दृष्टि- धर्म के नाम पर फैली कुरीतियों, बुराइयों, अनाचारों और मिथ्याडम्बर का आर्य समाज ने उसी प्रकार आपरेशन किया, जैसे कि कोई कुशल सर्जन किसी फोड़े का करता है। धर्म के वास्तविक स्वरूप का उद्‌घाटन कर इस समाज ने एक ही ईश्वर की उपासना पर बल दिया। आर्य समाज की स्पष्ट दृष्टि में ईश्वर सच्चिदानन्द-स्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्‌, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करनी योग्य है। (नियम 2)

    आर्य समाज का आर्थिक और राजनीतिक चिन्तन भी धर्म-नियन्त्रित है। धर्म अर्थ और काम का नियामक है। अत: "सब काम धर्मानुसार, अर्थात्‌ सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिएं।" (नियम 5) "सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए" (नियम 4) क्योंकि सत्य से बड़ी शक्ति इस संसार में दूसरी नहीं है। अन्तिम विजय हमेशा सत्य की होती है- सत्यमेव जयते। सत्य की स्थापना के ही  लिए आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने वेद-विरुद्ध मत-मतान्तरों का "सत्यार्थ-प्रकाश" में खण्डन करते हुए वैदिक धर्म का पुनरुद्धार किया है। धर्म में क्षेत्र में व्याप्त पाखण्डों-श्राद्ध, तीर्थ, भूत-प्रेतादि विषयक धारणाओं के पारम्परिक रूप का निरसन कर ऋषिवर ने इनके वास्तविक स्वरूप का उद्‌घाटन किया है। ऋषि के इन क्रान्तिकारी विचारों से मनुष्य मात्र का निश्चय ही कल्याण हुआ है। पर दु:खकातर स्वामी दयानन्द ने परोपकार को धर्म का मूल माना है। अहिंसा और जीवदया के वे पक्षपाती हैं। यहॉं तक कि स्वयं को विष देने वाले अपराधियों को भी उन्होंने बन्धन-मुक्ति दी है। उनका विचार था कि "मैं संसार के प्राणियों को कैद कराने के लिए नहीं आया। कैद से छुड़ाने के लिए आया हूँ। यदि दुष्ट अपनी दुष्टता नहीं छोड़ता तो हम लोग अपनी सद्‌भावना क्यों छोड़े?" (महर्षि दयानन्द : जीवन और दर्शन, वैद्य नारायणदत्त सिद्धान्तालंकार) स्वामी जी के शिष्यों में अनेक मुसलमान भी थे। यह इस बात का साक्षी है कि आर्य समाज धर्म, जाति, सम्प्रदाय, कुल आदि की संकीर्ण भावनाओं से मुक्त एक व्यापक मानवतावादी आदर्श समाज का पक्षपाती है।

    महर्षि दयानन्द सरस्वती के जीवनादर्शों के अनुरूप आर्य समाज भी मानव निर्माण के रचनात्मक कार्य में अपनी पूरी शक्ति के साथ जुड़ा है। संसार के प्राणियों को दुर्गुणोंकुविचारों और संस्कारों से मुक्त कर आर्य समाज उनके अन्तस्‌ में सद्‌गुण  और सद्‌विचार भर रहा है। बौद्धिकता, तार्किकता और विवेक के आधार पर वह मनुष्य को अपने भीतर छिपी इन्सानियत को पहचानने की अद्‌भुत शक्ति दे रहा है। वर्ग, जाति, लिंग, देश, काल, सम्प्रदाय आदि की क्षुद्र दीवारों को गिरा कर वह एक ऐसे आदर्श समाज की रचना में लीन है, जो आर्य है, श्रेष्ठ है। आर्य समाज ने धरती के प्रत्येक मनुष्य को ऐसा रास्ता दिखाया है, जिस पर चल कर मनुष्य दु:ख और अशांति से छुटकारा पाकर प्रेम, शांति और आनन्द से हंसता हुआ अपनी जीवन-यात्रा पूरी कर सकता है।

    निश्चय ही पिछली लगभग डेढ शताब्दी में आर्य समाज ने मानव-निर्माण का अभूतपूर्व कार्य किया है। उसने मनुष्य को वास्तविक अर्थों में मनुष्य बनने का मार्ग दिखाकर भौतिक और आध्यात्मिक जीवन-मूल्यों में अद्‌भुत सामंजस्य स्थापित करने का वरेण्य प्रयास किया है। लेखक-डॉ.सुन्दरलालकथूरिया

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    The person is part of the family. The ideal family is formed by the involvement of ideal people. Family is formed. A sense of harmony and harmony towards each other is essential for the happiness and happiness of the family. Relations based on selfishness can never be permanent. The Arya Samaj has faith in the Five Mahayagas for the happiness and prosperity of every family. The welfare of the individual, family and society is ensured through Yajna.

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  • मांस निषेध

    ओ3म्‌ यः पौरुषेयेण क्रविषा समङ्‌क्ते यो अश्व्येन पशुना यातुधानः।
    यो अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च।। (ऋ. 10.87.16)

    शब्दार्थ- (यः यातुधानाः) जो राक्षस, दुष्ट (पौरुषेयेण) पुरुष सम्बन्धी मांस से (सम्‌ अङ्‌क्ते) अपने शरीर को पुष्ट करते हैं (यः) जो क्रूर लोग (अश्व्येन) घोड़े के मांस से और (पशुना) पशु के मांस से अपना उदर भरते हैं (अपि) और भी (यः) जो (अघ्न्यायाः) अहिंसनीय गौ के (क्षीरम्‌) दूध को (भरति) हरण करते हैं (अग्ने) हे तेजस्वी राजन्‌! (तेषां) उन सब राक्षसों के (शीर्षाणि) शिरों को (हरसा) अपने तेज से (वृश्च) काट डाल। 

    Ved Katha Pravachan _87 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    भावार्थ - मन्त्र में राजा के लिए आदेश है कि जो मनुष्यों का मांस खाते हैं, जो घोड़ों का मांस खाते हैं, जो अन्य पशुओं का मांस खाते हैं और जो बछड़ों को न पिलाकर गौ का सारा दूध स्वयं पी लेते हैं, हे राजन्‌! तू अपने तीव्र शस्त्रों से ऐसे दुष्ट व्यक्तियों के सिरों को काट डाल। इस मन्त्र के अनुसार किसी भी प्रकार के मांस-भक्षण का सर्वथा निषेध है।

    "अघ्न्याया क्षीरं भरति' का यही अर्थ सम्यक्‌ है कि जो बछड़े को न पिलाकर सारा दूध स्वयं ले लेते हैं। इस मन्त्र से गोदुग्ध पीने वालों को मार दे ऐसा भाव लेना ठीक नहीं है। क्योंकि वेद में अन्यत्र कहा गया है "पयः पशूनाम्‌' (अथर्व. 19.31.5) हे मनुष्य! तुझे पशुओं का केवल दूध ही लेना है। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

    मद्य निषेध

    ओ3म्‌ हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम्‌।
    ऊधर्न नग्ना जरन्ते ।। (ऋग्वेद 8.2.12)

    शब्दार्थ - (न) जिस प्रकार (दुर्मदासः) दुष्टमद से युक्त लोग (युध्यन्ते) परस्पर लड़ते हैं उसी प्रकार (हृत्सु) दिल खोलकर (सुरायाम्‌ पीतासः) सुरा, शराब पीने वाले लोग भी लड़ते और झगड़ते हैं तथा (नग्नाः) नङ्गों की भॉंति (ऊधः) रातभर (जरन्ते) बड़बड़ाया करते हैं।

    भावार्थ - मन्त्र में बड़े ही स्पष्ट शब्दों में शराब पीने का निषेध किया गया है । मन्त्र में शराब की दो हानियॉं बताई गई हैं- 

    1. शराब पीने वाले परस्पर खूब लड़ते हैं ।
    2. शराब पीने वाले रातभर बड़बड़ाया करते हैं।

    मन्त्र में शराबी की उपमा दुर्मद से दी गई है। जो शराब पीते हैं वे दुष्टबुद्धि होते हैं। मद्यपान से बुद्धि का नाश होता है और "बुद्धिनाशात्‌ प्रणश्यति' (गीता 2.63) बुद्धि के नष्ट होने से मनुष्य समाप्त हो जाता है। "शराब' शब्द दो शब्दों के मेल से बना है - शर+आब। इसका अर्थ होता है शरारत का पानी। शराब पीकर मनुष्य अपने आपे में नहीं रहता । वह शरारत करने लगता है, व्यर्थ बड़बड़ाने लगता है। 

    मद्य पेय पदार्थ नहीं है। शराब पीने की निन्दा करते हुए किसी कवि ने भी सुन्दर कहा है-

    गिलासों में जो डूबे फिर न उबरे जिन्दगानी में।
    हजारों बह गए इन बोतलों के बन्द पानी में।। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

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    Charity - In the mantra, there is a command for the king that those who eat the flesh of humans, who eat the flesh of horses, who eat the flesh of other animals, and who drink all the milk of the cow themselves without feeding the calves, O king! You cut off the heads of such evil persons with your sharp arms. According to this mantra, eating meat of any kind is strictly prohibited.

     

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  • मुक्ति से पुनरावृत्ति

    ओ3म्‌ कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम।
    को नो मह्या अदितये पुनर्दात्‌ पितरं च दृशेयं मातरं च।।

    ओ3म्‌ अग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम।
    स नो मह्या अदितये पुनर्दात्‌ पितरं च दृशेयं मातरं च।। (ऋग्वेद 1.24.1-2)

    शब्दार्थ- (अमृतानाम्‌) नित्य पदार्थों में (कतमस्य कस्य देवस्य) कौन-से तथा किस गुण वाले देव का (चारु नाम मनामहे) सुन्दर नाम हम स्मरण करें। (कः नः) कौन हमें (मह्या अदितये पुनः दात्‌) महती, अखण्ड-सम्पत्ति-मुक्ति के लिए पुनः देता है (पितरं च मातरं च दृशेयम्‌) और फिर किसकी प्रेरणा से माता-पिता के दर्शन करता हूँ। (वयम्‌) हम (अमृतानाम्‌) नित्य पदार्थों में (प्रथमस्य अग्नेः देवस्य) सर्वप्रमुख, ज्ञानस्वरूप, परमात्मदेव के (चारु नाम मनामहे) सुन्दर नाम का स्मरण करें। (सः नः) वही परमात्मा हमें (मह्या अदितये) महती मुक्ति के लिए (पुनः दात्‌) फिर देता है और उसी से प्रेरणा पाकर (पितरं च मातरं च दृशेयम्‌) मैं माता और पिता के दर्शन करता हूँ। 

    Ved Katha Pravachan _86 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    भावार्थ- मनुष्यों को सर्वप्रमुख, ज्ञानस्वरूप परमात्मा का ही जप, ध्यान एवं स्मरण करना चाहिए। वह प्रभु ही जीव को मुक्ति में पहुँचाता है। वही परमात्मा मुक्त जीव को मुक्ति-सुख-भोग के पश्चात्‌ माता-पिता के दर्शन करता है, उसे जन्म धारण कराता है। जन्म धारण करना, मुक्ति प्राप्त करना, पुनः जन्म धारण करना यह एक क्रम है, जो निरन्तर चलता रहता है और चलना भी चाहिए। यदि जीव परमात्मा में विलीन हो जाए, तो वह मुक्ति क्या हुई? - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

    त्रैतवाद

    ओ3म्‌  द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
    तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति।। (ऋग्वेद 1.164.20)

    शब्दार्थ- (द्वा सुपर्णा) दो उत्तम पंखों वाले पक्षी, पक्षी की भॉंति गमनागमनवाले, आत्मा और परमात्मा (सयुजा) एक-साथ मिले हुए (सखाया) एक-दूसरे के मित्र बने हुए (समानं वृक्षम्‌) एक ही वृक्ष=प्रकृति अथवा शरीर पर स्थित (परिषस्वजाते) एक-दूसरे को आलिङ्गन किये हुए हैं (तयोः) उन दोनों में (अन्यः) एक जीवात्मा (पिप्पलं स्वादु अत्ति) संसार के फलों को स्वादु जानकर खाता है, भोगता है (अन्यः अनश्नन्‌) दूसरा परमात्मा न खाता हुआ (अभि चाकशीति) केवलमात्र देखता है, साक्षी बनकर रहता है। 

    भावार्थ- मन्त्र में त्रैतवाद का सुन्दर ढंग से प्रतिपादन किया गया है। संसार में तीन पदार्थ अनादि हैं- परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति। मन्त्र में इन तीनों का निर्देश है। जीवात्मा और परमात्मा दोनों ज्ञानवान्‌ और चेतन हैं। दोनों संसाररूपी वृक्ष पर स्थित हैं। जीवात्मा अल्पज्ञ है। अपनी अल्पज्ञता के कारण वह संसार के फलों को स्वादु समझकर उनमें आसक्त हो जाता है। परमात्मा सर्वज्ञ है। उसे भोग की इच्छा नहीं, आवश्यकता भी नहीं। वह जीवात्मा का साक्षी बना हुआ है। 

    मनुष्य को संसार के पदार्थों का त्यागपूर्वक भोग करते हुए परमात्मा की शरण में जाना चाहिए, इसी में उसका कल्याण है। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

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    Trivialism is beautifully rendered in the chant. Three substances in the world are eternal - divine, living soul and nature. All three are instructed in the mantra. Both the soul and the divine are knowledgeable and conscious. Both are located on the tree of the world. The individual is little known. Due to his superficiality, he considers the fruits of the world to be tasty and gets enamored in them. God is omniscient. He has no desire for enjoyment, not even need. He remains a witness to the individual soul.

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  • मूल्यों का पतन : कारण व निवारण

    विश्व का आध्यात्मिक गुरु, प्राचीनतम संस्कृति, ईश्वरीय वाणी के रूप में प्राचीनतम ग्रंथ वेद, सबके आदर्श अनुकरणीय मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जीवन चरित्र, आपत धर्म के पालन, गीता जैसे गूढ़ ज्ञान के प्रदाता योगीराज कृष्ण आधुनिक समय में वेदों को पुनः स्थापित करने वाले महान समाज सुधारक स्वामी दयानन्द पर्यन्त कितने उदाहरण हैं जिनकी शिक्षायें किसी के लिए भी अनुकरणीय हो सकती है। इस प्रकार वर्तमान काल में कितने टी.वी. चैनल आस्था, संस्कार, जागरण आदि जो निरंतर विभिन्न धर्म गुरुओं के प्रवचनों की वर्षा कर रहे हैं। कोई भी कथावाचक किसी भी शहर या कस्बे में जा पहुचें तो आज भी कितनी भीड़ स्वतः स्फूर्त जुट जाती है प्रवचन सुनकर स्वयं को धन्य करने के लिए। शायद हमारा देश एक ऐसा देश है जिसके नागरिक अपना अधिकांश कीमती समय भगवान की पूजा-अर्चना, उपासना, तीर्थ-यात्राओं या दर्शनों में लगाते हैं।

    Motivational speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
    वेद कथा - 3 | Explanation of Vedas & Dharma | मजहब ही सिखाता है आपस में बैर | क्रांतिकारी प्रवचन

    इस सबके बावजूद कितनी बड़ी विसंगति है कि आज हमारे देश में अनाचार, दुराचार, सामाजिक कुरीतियां, पाखंड भी उतनी ज्यादा तेजी से बढ़ रहा हैं आखिर क्या कारण है कि इतनी विविध तेजी से बढती दिखाई दे रही धार्मिक आस्थाओं के बीच उससे भी ज्यादा तेजी से समाज की गहरी अंधी खाइयों की तरह लुढ़क रहा है। क्यों समाज में निरंतर टूटना, पाखंड, कुरीतियां, भ्रांतियां, धार्मिक विद्वेषभाव, विघटन अलगाववाद, जातिगत संघर्ष, आसहिष्णुता, प्रांतीयता, सिर उठाती नई नवेली अलगाव पैदा करती भावनायें, आतंकवाद, चरमराती कानून वयवस्था, भक्षक बने कानून के रक्षक हर मुददे पर टूटन ही टूटन तिस पर देश के राजनेताओं में शक्ति का अभाव बस साम-दाम दंड-भेद से सत्ता मद में चूर शोषण करके अपना पोषण करते राजनेता आदि। आखिर क्या कारण हैं आज समाज में इस सक्रमण काल की आखिर कौन सी स्थितियां इसके लिए उत्तरदायी हैं । जिस प्रकार रोग के निदान लिए कारन कारण जान लेना आवश्यक होता है इसी प्रकार जानना इसके निवारण लिए अत्यंत आवश्यक हैं।
    १. हमारी सनातन पुरातन वैदिक संस्कृति हमारे लिए हमारे लिए गौरव विषय है पर वर्तमान काल में हम इस संस्कृति का कितना अनुसरण कर रहे हैं यह विचारणीय विषय है । हमारी वंश परम्परा महान है पर आज हम क्या हैं कहां हैं इस पर विचार करना आवश्यक हैं।

    २. हमारी वैदिक संस्कृति श्रेष्ठतम है इस पर किसी को कोई संशय नहीं पर हम स्वयं अपनी इस पुरातन संस्कृति से परिचित नहीं हैं तो अनुकरण कर पायेंगे । बिना रास्ता जाने दिशा भटक कर हम किधर जा रहे हैं यह विचारणीय है। आज हमारी हालत भेड़ों के झुंड में जन्मकाल रहकर पहचान भूल चुके सिंह शावक की सी है हमें स्वयं को पहचानना होगा ।

    ३. हमारी महानतम मान्यताओं में समय साथ कुछ वर्ग विशेषतया वर्ण विशेष अपनी स्वार्थ सिद्धि वशीभूत लोगों की अन्धश्रद्धा लाभ उठाकर अंधविश्वासों, कुरीतियों, पाखंडों को जोड़ दिया है । जिस प्रकार मैदानी भाग में प्रवेश के बाद पवित्र गंगा में हर शहर को गंदा नाला उसे प्रदूषित कर देता है इसी लिए गंगा सफाई की आवश्यकता पड़ती है ठीक उसी प्रकार अब हमें अपने विवेक की छलनी से छान कर कुरीतियों दूर करना होगा। तुलसी, कबीर, स्वामी दयानन्द, राजा राममोहन राय जैसे समाज सुधारकों ने इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया है। 

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    ४. समाज में बुरी तरह से कोढ़ की भांति फ़ैल चुकी युवा वर्ग में नशे की पृवत्ति, दहेज़ प्रथा के कारण कन्या भ्रूण हत्या, दहेज़ का दिखावा, युवावर्ग में बढ़ती अनैतिकता, फैशन के नाम पर नंगापन, नारी आजादी के नाम पर टूटती मर्यादायें आदि कुरीतियां आपत उपचार मांगती हैं अन्यथा समाज के भविष्य की तस्वीर भयावह दिखाई देती है । 

    ५. हम कभी आध्यात्मिक गुरु थे विश्व हमारा अनुकरण करता था पर शायद लंबी गुलामी के बाद हमें पिछलग्गू बनकर रहने की आदत हो गई है । आज भी तथाकथित विकास के नाम पर हम पश्चात्य अंधानुकरण कर रहे हैं। इस पाश्चात्य अंधानुकरण में भी हम उनकी अच्छी आदतें राष्ट्रवाद, मेहनत, नए अन्वेषण, वैज्ञानिक प्रगति आदि नहीं सीख रहे अपितु जींस, पिज्जा, बर्गार, कोक, नंगेपन की भौंडी नकल अवश्य कर रहे हैं। यह पाश्चात्य अंधानुकरण हमें हमारी संस्कृति से काट रहा है। टी.वी. चैनलों आदि मीडिया के माध्यम से इसका तीव्र प्रहार हमारे दिलोदिमाग पर हो है । बड़े से बड़ा वट वृक्ष भी जब अपनी जड़ों से कट जाता है तो अंततः सुखकर ठूंठ बनकर गिर पड़ता है ।

    ६. हमारी विकास की परिभाषा के मायने बदल चुके हैं हम बड़ी तीव्र गति से सेंसेक्स के बढ़त सूचकांक की भांति भौतिकतावाद, बाजारवाद और भोगवाद का शिकार होकर विनाश की ओर सम्मोहित होकर हम अपने संभावित विनाश को नहीं देख पा रहे है । बाजारवाद के इस युग में हमारे समाज में मूल्यों का अवमूल्यन हुआ है हर चीज हर सामग्री यहां तक कि हमारा दीन ईमान सब विनिमय की वस्तु हो चूका है हम बिकने को तैयार बैठे हैं बस खरीददार चाहिए। विनाश की तरफ तेजी से दौड़ते तथाकथित विकासशील समाज को रुक कर सोचने और दिशा परिवर्तन पर विचार करना होगा । 

    ७. भौतिक सुख संसाधनों सम्पदा की अंधी दौड़ में नैतिक मूल्यों का लोप आज के समाज की त्रासदी है । नैतिक मूल्यों की स्थापना और समाज को क्षणिक भौतिक सुख और आनन्द की स्थिति में अन्तर महसूस करना होगा। 

    ८. आजादी के बाद भी हम गुलामी की मानसिकता से उबर नहीं पाए । भावी पीढ़ी के निर्माण के लिए गुलामी की प्रतीक मैकाले के दत्तक पुत्र, क्लर्क तैयार करने वाली शिक्षा प्रणाली को हमने अपनाया जिसमें चरित्र निर्माण, मानव रचना, अपनी संस्कृति से परिचय या नैतिक मूल्यों को कोई स्थान नहीं दिया गया। मैकाले की यह शिक्षा पद्धति शायद सामाजिक अधोगति का बहुत बड़ा कारण है जो आज भी अच्छे क्लर्क, इंजिनियर, डॉक्टर, मैनेजर आदि तो बना रही है पर अच्छे इंसान बनाने की की व्यवस्था नहीं है। 'ब्रेन-ड्रेन' या फिर आउट सोर्सिंग' के शिकार आज की युवा शक्ति धन लोलुपता या भौतिकतावाद में विदेशी आकाओं की सेवा में लगी है। 

    ९. धर्म जाति भाषा क्षेत्र जैसे अपनी सुविधा के मुददो पर समूचे समाज को वोट बैंकों में तोड़कर आपस में लड़वाते रहने वाली राजनैतिक लोकतांत्रिक प्रणाली भी सामाजिक पतन के लिए उत्तरदायी है। सामाजिक तनाव पैदा करके साम-दाम दंड-भेद से सत्ता मद में चूर होकर शोषण कर स्वयं के पोषण की प्रवृति ने राजनीति को व्यापर बना दिया है जिसके कोई नियम नहीं है। कानून बनाने वाली विधायिका और पालन करवाने वाली नौकरशाही स्वयं को कानून से उपर समझती है कर शोषण को जन्मसिद्ध अधिकार मानती है। इस व्यवस्था की खामियों को दूरकर इसकी भावना को समझना होगा।

    १०. धार्मिक उन्माद वर्ण या जातिगत संघर्ष पैदाकर समाज को वोट बैंकों में तोड़ने की राजनैतिक दलों की साजिशों के साथ वर्ग संघर्ष के नाम पर अलगाववाद, नक्सलवाद, उग्रवाद को भड़काना भी सत्ता प्राप्ति का साधन बन चूका है । सत्ता प्राप्ति का रास्ता धनबल और बाहुबल से ही तय किया जा सकता है । राजनीति के अपराधीकरण से चला यह अनैतिक सफर अब अपराधियों के राजनीतिकरण तक पहुंच चूका है । यह स्थिति अत्यंत खतरनाक है । नेता अपराधी और अधिकारी का नापाक गठजोड़ सत्ता का शक्ति केंद्र बन चूका है । 

    ११. समाज में धर्मपरायणता के स्थान पर धर्मभीरुता बढ़ रह है। हर व्यक्ति मन ही मन अपने दुष्कर्मों के फल लेकर कभी ना कभी परेशान हो जाता है तो यह गुरुडमवाद फैलाकर स्वयं को ईश्वरीय अवतार घोषित कर रहे तथाकथित कथावाचक दान दक्षिणा लेकर पापों से मुक्ति का सरल उपाय बताकर अभयदान देते हैं। इससे अपराधी अपराध भावना से मुक्त हो फिर से दुष्कर्म करने की तरफ प्रवृत हो जाता है। यही धर्मभीरु लोगों की ही इन अवतारों की सभाओं में शोभा बढाती है

    १२. प्रेम शब्द अपना व्यापक यौगिक अर्थ खो चूका है आजकल प्रेम का अर्थ मात्र विपरीत लिंगों में वासना के लिए रह गया है जबकि भक्त का भगवान के प्रति, पिता का पुत्र वा पुत्री के प्रति, माता का बेटे के लिए, भाई-बहन का प्यार सब प्रेम की व्यापक परिभाषा में आते हैं। 

    १३. हम परिवारों में बच्चों को संस्कार देने में असमर्थ सिद्ध हुए हैं। बच्चों को जो कहा जाए उसे सुनते नहीं है अपितु जो वह देखते हैं उसे सीख जाते हैं। हम अपनी जीवन चरित्र अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए अनुकरणीय बनने में सर्वथा असमर्थ सिद्ध हुए हैं। अपितु आने वाली पीढ़ी इस विनाश मार्ग पर हमसे ज्यादा तेज से चल रही है। परिवार विघटित हो रहे हैं बच्चे बड़ों की इज्जत करना भूल चुके हैं शायद बड़े ही इसके लिए अधिक उत्तरदायी हैं।

    यह कुछ स्थितियां हैं जो कि समाज की अधोगति का कारण है शायद इन्हीं कारणों के विवेचन में इनका निवारण भी छिपा है। अतः आज समय की मांग है कि हम विनाश के इस मार्ग को छोड़ दें अन्यथा आने वाली पीढ़ियां जब हमसे हमारे पतन का कारण पूछेंगी तो हमारे पास कोई उत्तर नहीं होगा। - नरेंद्र आहूजा ''विवेक''

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