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  • मैकाले तो मुस्कुराएगा ही

    सन्‌ 1835 की फरवरी से अभी 2010 तक पूरे पौने दो सौ वर्ष का समय बीत चुका है। उस समय ब्रिटिश संसद में भाषण देते हुए लार्ड मैकाले ने कहा था- "मैंने भारत का हर गांव हर शहर देख लिया, भारत में न कोई अशिक्षित है, न असभ्य। भारत सपेरों और पशु चराने वालों का देश नहीं है। उनकी सभ्यता और संस्कृति बहुत गहरी है। अगर भारत पर राज करना है तो हमें भारत की इस सभ्यता-संस्कृति को नष्ट करना होगा, जो कि भारतीयों की रीढ़ है और इसके लिए जरूरी है उनकी शिक्षा पद्धति को बदल देना।'' और धीरे-धीरे भारत की रीढ़ को कमजोर करने का काम मैकाले करता गया। फिर भी, 1947 से पहले हमारी रीढ़ बहुत मजबूत थी। हमने कहा कि, देशवासियो खून दो, देश को आजादी मिलेगी।

    Ved Katha 1 part 4 (Different Types Names of one God) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    हमने यह भी कहा कि स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। हमने यह गीत भी गाया कि "नहीं रखनी सरकार अंग्रेजी सरकार नहीं रखनी।'' जिन लोगों ने विदेशी शासकों के समक्ष आत्म समर्पण किया भी थी, उनकी संख्या बहुत कम थी। वे अंग्रेजों द्वारा बांटे गए पदों को सजाकर अकड़ते रहे, पर राष्ट्रभक्तों ने देश के इन गद्दारों को "टोडी बच्चा हाय-हाय' कहकर भगा दिया। "इंकलाब जिन्दाबाद' और "अंग्रेजो, भारत छोड़ो' के नारों की तरह ही टोडी बच्चों को भगाने वाला नारा लोकप्रिय हो गया, पर मैकालेवाद बढ़ता गया। शिक्षा के नाम पर भारतीय संस्कृति विरोधी विष देश की नई पीढ़ी के खून में धीरे-धीरे घुलता रहा और कड़वे करेले पर नीम चढ़ाने का काम कुछ उन नेताओं ने कर दिया। जिन्होंने स्वतन्त्र भारत की कमान संभाली, उन्होंने पूरे देश को यह विश्वास दिलवाया कि अंग्रेजी शिक्षा पद्धति व जीवनशैली ही "उन्नत का एकमात्र मार्ग है।' 

    मैकाले ने भारत से अपने परिजनों को एक पत्र लिखा था, जिसमें उसने यह विश्वास प्रकट किया कि अगर उसकी शिक्षा नीति केवल पचास वर्ष भी भारत में चल गई, तो भारत अगले पॉंच सौ वर्ष के लिए गुलाम रहेगा। मुझे लगता है कि मैकाले ने अपनी शक्ति का आकलन गलत नहीं किया था। पौने दो सौ वर्ष बाद भी मैंने महसूस किया कि मैकाले मुस्कुरा रहा है। वह मुस्कुराए भी क्यों न! 3 नवम्बर 2009 को चंडीगढ़ मे दो दीक्षांत समारोह मैंने देखे। इनकी अध्यक्षता के लिए भारत के प्रधानमन्त्री उपस्थित थे, पर मञ्च और सभागार मेें भारत था ही नहीं, बस इंडिया था। मैकाले और डायर की ही भाषा और उन्हीं के ओढ़ाए हुए गाउन और सर पर अंग्रेजों जैसे ही बड़े-बड़े टोप सजाए प्रधानमन्त्री, भारत के स्वास्थ्य मन्त्री और राज्यपाल बैठे थे। सभी प्रसन्न थे और उसी भाषा में भाषण हो रहे थे, जिस भाषा में मैकाले ने भारत की रीढ़ को तोड़ने का संकल्प लिया था। और आश्चर्य यह भी कि उस मंच पर समापन के समय राष्ट्रगान भी न हो सका। मंच पर राष्ट्रगान न होने के कई कारण सुनने को मिले, राष्ट्रगान सुनने को नहीं मिला। मैकाले की छाया में चले इस कार्यक्रम में काले बादलों में सुनहरी रेखा की तरह सरस्वती वन्दना का स्वर दो क्षणों के लिए सुनने को मिला। और यही सब कुछ पंजाब विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में भी हुआ। आखिर इससे नई पीढ़ी को क्या दीक्षा मिली होगी? इससे पिछले वर्ष भी पंजाब विश्वविद्यालय के ऐसे ही समारोह में मुझे उपस्थित रहने का अवसर मिला था। तब भारत के उपराष्ट्रपति मन्च पर थे। वातावरण बिल्कुल वैसा ही था, जिसका चित्रण मैं ऊपर कर चुकी हूँ। मुझे गर्व है कि मंच पर बैठने का जिन्हें सौभाग्य मिला, उनमें से केवल मुझे ही परमात्मा ने यह बल दिया कि मैं काला लबादा ओढ़े बिना बैठी। मंचासीन और पंडाल में बैठे नई और पुरानी पीढ़ी के विद्वज्जन को यह सब बुरा लगा ही नहीं। यूं भी कह सकते हैं कि हमारी शिक्षा-दीक्षा ने नई पीढ़ी को यह साहस ही नहीं दिया कि वह इन दीक्षादायकों से यह पूछ तो सके कि क्यों वे खुद काला ओढ़ते हैं और हमें भी ओढ़ाते हैं? काला रंग तो मृत्यु, शोक और विरोध का प्रतीक है, अज्ञान का दूसरा नाम है। महाकवि सूरदास ने भी कहा है- सूरदास कारी कामरि पे, चढ़त न दूजो रंग ।

    हमारी शिक्षा पद्धति ने किसी विद्यार्थी में इतना साहस भी नहीं भरा कि वह हाथ उठाकर उच्च स्वर में कह सके कि आज तो विद्या प्राप्ति का पर्व है, मैं काला क्यों पहनूं। विद्या की देवी सरस्वती तो शुभ्रवसना हैं, काले कपड़ों का कोई औचित्य तो बताइए। महाकवि जयशंकर प्रसाद के शब्दों में यह कह सकते हैं- अन्धकार में दौड़ लग रही, मतवाला यह सब समाज है । 

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    चिकित्सा कालेजों और विश्वविद्यालयों में हमने शरीर चिकित्सा के डाक्टर तो बना दिए, विभिन्न विषयों में एम.ए., पीएचडी की डिग्रियां भी दे दीं, पर यह नहीं बताया कि भारत की रीढ़ तोड़ने का जो संकल्प मैकाले ने लिया था, उसका इलाज भी हमें ही करना है। सच तो यह है कि देश की शिक्षण संस्थाओं को एक "एंटी मैकालेवाद औषधि' या सर्जरी का पाठ पढ़ाना ही होगा, जो भारत की सन्तानों को स्वदेशी का गौरव अनुभव करना सिखा सके। दुनिया को दुनिया की भाषा में जवाब देना हमें आता है, हम देते भी रहे हैं। स्वामी विवेकानन्द, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, शहीद भगतसिंह, ऊधमसिंह, मदनलाल ढींगरा और वीर सावरकर जैसे भारत पुत्रों ने बड़ी कुशलता से दुनिया को भारतीय उत्तर दिया था। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और उनके साथियों ने इन फिरंगियों को खूब पाठ पढ़ाया। पर जिस देश को अपनी भाषा में मॉं कहने में ही शर्म आ रही हो उसे क्या कहेंगे? हमारे कुछ नेता मुम्बई को बम्बई कहने पर भड़क उठते हैं। कोलकाता को कलकत्ता शहर कह दो तो लाल-पीले हो जाते हैं, पर जब तीन चौथाई से ज्यादा देश अपनी मॉं को "मम्मी' अथवा "मॉम' बना बैठा है, तब उन्हें गुस्सा क्यों नहीं आता, जब भारत माता को हम इण्डिया कहते हैं तो उनके खून की रवानी रुक जाती है? भाषा के नाम पर तनाव भड़काने वालों के बच्चे भी अधिकतर उस भाषा में शिक्षा ग्रहण नहीं करते, जिस भाषा के समर्थन में भाषण देकर वे लोगों को लड़वाते हैं। गाड़ी-बसें जलवा देना जिनके बाएं हाथ का काम है। 

    मैकाले मुस्कुराये क्यों न, जब हम ज्योति की पूजा करने वाले देश के लोग अपने बच्चों के जन्मदिन पर दीप जलाने के बजाय बुझाते हैं। दीप बुझाने के बाद खुशी में तालियां बजाते हैं। हजारों तरह की मिठाइयां बनाने वाले देश के लोग केक के मोहताज हो गए हैं। ऐसे में लगता है कि मैकाले कामयाब हो गया, हमारी रीढ़ी टूटी तो नहीं, पर बहुत कमजोर हो गई है। हम सूर्य के उपासक हैं। सूर्य की प्रथम किरण के साथ नए दिन का स्वागत करने वाले भारत के बहुत से लोग आधी रात के अंधेरे में अंग्रेजी ढंग से अंग्रजों के नववर्ष का स्वागत करते हैं और यही लोग अपने को "वी.आई.पी.' मानते हैं, धन सम्पन्न हैं और भारत को "इण्डिया' कहने वालें हैं। बेचारा गरीब आदमी कहीं-कहीं इनकी नकल कर लेता है। किसी महानगर का नाम बदलने और डण्डे के बल पर उसका प्रयोग करवाने वाले, नारी को देवी मानने वाले देश के ये मैकालेवादी तब दुखी नहीं होते, जब उन्हीं के कुछ महानगरों में नारी के लगभग नग्न शरीर को नचाया जाता है, उसके लिए करोड़ों रुपए खर्च कर दिए जाते हैं।

    भारतीय अस्मिता की किसी को परवाह ही नहीं है। इसी का प्रभाव हमारे दूरदर्शन और अन्य टीवी चैनलों में भी देखने को मिलता है। भारतीय दूरदर्शन का भी कमाल है। रात नौ बजे के समाचार अंग्रेजी में प्रसारित होते हैं। जब आधा हिन्दुस्थान रात्रि का भोजन ले चुका होता है, तब नौ बजे समाचार शुरू करते ही वाचक "गुड़ इवनिंग' कहता है, पर सवा नौ जब समाचार खत्म होते हैं तो इन्हें शायद मजबूरी में "गुड नाइट' कहना पड़ता है। आखिर किस कारण 15 मिनट बाद ही "ईवनिंग' "नाईट' हो जाती है, यह दूरदर्शन वाले भी नहीं बता सकते। जो देश अपने दूरदर्शन पर वन्देमातरम्‌ का गीत हर रोज नहीं गा-दिखा सकता, जिस देश के करोड़ों विद्यार्थियों को वह गीत याद नहीं जिस गीत के बल पर बंग-भंग आन्दोलन लड़ा गया और असंख्य देशभक्तों ने फांसी के फन्दे को हंसते-हसंते गले में डाल लिया, अंग्रेजों की अमानवीय यातनाएं सहीं, उस देश की हालत पर मैकाले तो मुस्कुराएगा ही।

    मैं न निराश हूँ, न हताश। यह सन्तोष का विषय है कि आज भी भारत के स्वाभिमान को जगाने के लिए, स्वदेशी को अपनाने के लिए अनेक साधक साधना कर रहे हैं। अब मैकाले नहीं, भारत मॉं मुस्कुराएगी। अगर कहीं कमी है, तो इस देश के राजनेताओं में है। जब भारत का प्रधानमन्त्री अपने पद की शपथ भी मैकाले की भाषा में लेता है, उस समय देश को दर्द होता है। जब इनके दीक्षान्त भाषण नई पीढ़ी के विद्यार्थियों को जबरन पिलाए जाते हैं तब नई पीढ़ी को निराशा होती है। मुझे इन दीक्षान्त समारोहों में मैकाले के मुस्कुराने का एक कारण मिला, पर मुझे पूरा विश्वास है कि जब भारत मुस्कुराएगा तो मैकाले मुरझा जाएगा। भारत की मुस्कान के लिए हम सबको काम करना है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता, स्वदेश और स्वदेशी के भाव को प्रखर करना होगा और फिर वही गीत गाना होगा- 

    जननी जन्मभूमि स्वर्ग से महान है,
    इसे वास्ते ये तन है, मन है और प्राण है।

    और याद भारतेन्दु को भी करना होगा, जिन्होंने कहा था-

    अपनी भाषा है भली, भलो अपनो देश,
    जो कुछ है अपनो भलो, यही राष्ट्र सन्देश। - लक्ष्मीकान्ता चावला

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    Our education system did not even inspire any student so much that he could raise his hand and say in a loud voice that today is the festival of learning, why should I wear black. Saraswati, the goddess of learning, is auspicious, tell me some reason for black clothes. In the words of Mahakavi Jaishankar Prasad, it can say- Running in darkness, it is all society. 

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  • युवा-मञ्च

    राष्ट्र निर्माण में युवा वर्ग की भूमिका

    हमारा देश अभी भी अशिक्षा, गरीबी, पिछड़ेपन एवं सामाजिक अन्याय से पीड़ित है। विश्व शान्ति एवं सांस्कृतिक सद्‌भाव का प्रेरक देश आज आतंकवाद एवं उग्रवाद के विस्फोटों से ग्रस्त है। जातीय और साम्प्रदायिक हिंसा हमारे देश के लिए खतरा बनी हुई है। समूचा राष्ट्र भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है। पूरा समाज आज नेतृत्व-विहीन है। राजनीति भ्रष्टाचार एवं अपराध का पर्याय बन गयी है। लोकतन्त्र की व्यवस्था उपहास मात्र बनती जा रही है। राष्ट्र निर्माण का लक्ष्य एक अंधेरी गली में खो गया है। राष्ट्रव्यापी असंतोष, अव्यवस्था आज देश की बुरी स्थिति को प्रकट कर रही है। ऐसी विषम परिस्थितियों से जूझने की सामर्थ्य किसमें है? उलटे प्रवाह को उलटकर सीधा करने का साहस कौन कर सकता है? इन सभी प्रश्नों के उत्तर में हम युवा शक्ति का आह्वान करते हैं। सभी इस बारे में एकमत हैं कि युवाओं में प्रचण्ड ऊर्जा है, भले ही आज वह दिशाहीन होकर बिखर रही है। हमें इस युवाशक्ति को उचित दिशा की ओर प्रेरित करना चाहिए, जिससे हमारे राष्ट्र का निर्माण सफलतापूर्वक हो सके और हमारा भारत प्राचीन गौरव को पुनः प्राप्त कर सके।

    Ved Katha Pravachan -11 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    अपनी मनोभावनाओें को मनुष्य अपने सामने वालों पर थोप देता है और उन्हें वैसा ही समझता है जैसा कि वह स्वयं है। संसार एक लम्बा-चौड़ा बिल्लौरी कॉंच का चमकदार दर्पण हैइसमें अपना चेहरा हुबहू दिखाई पड़ता है। जो व्यक्ति जैसा हैउसके लिए सृष्टि में वैसे ही तत्व निकलकर आगे आ जाते हैं। सतयुगी आत्माएँ हर युग में रहती हैं और उनके पास सदैव सतयुग बरसता रहता है। आशावादी व्यक्ति कठिन और असम्भव से प्रतीत होने वाले कार्यों में जहॉं सफलता प्राप्त कर लेता हैवहीं निराशावादी मनोवृत्ति वाला व्यक्ति साधारण-सी समस्या और कठिनाइयों को भी पार नहीं कर पाता है।

    सदैव राष्ट्रीय गौरव की सुरक्षा के लिए युवाओं ने ही अपने कदम बढाये हैं। संकट चाहे सीमाओं पर हो अथवा सामाजिक एवं राजनैतिकइसके निवारण के लिए अपने देश के युवक-युवतियों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। आवश्यकता यही है कि अपने हृदय में समाज की कसक उत्पन्न करें और अपनी बिखरी शक्तियों को एकत्रित करके समाज की विभिन्न समस्याओं को सुलझाने में लगायें। देश की प्रगति ही अपनी प्रगति और उन्नति है। इस श्रेष्ठ विचार के आधार पर ही युवाशक्ति राष्ट्रशक्ति बनकर राष्ट्र को समृद्धिउन्नति व प्रगति के मार्ग पर ले जा सकती है।

    किसी देश का विकास भीड के सहारे नहींबल्कि मूर्धन्य प्रतिभाओं के सहारे होता है। आज बड़े दुःख की बात है कि अधिक धन एवं सुख-सुविधा के लोभ में देश की युवा प्रतिभाएँ विदेशों में अपना रैन-बसेरा बनाने के लिए आतुर हैं। किसी भी देश के नवनिर्माण में ज्ञान एवं युवाशक्ति का योगदान सदा ही रहा है। परन्तु किसी भी काल में यह इतना महत्वपूर्ण नहीं रहा होगाजितना कि आज के इस वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकी के युग में है। इन क्षणों में प्रत्येक युवा को जो महान्‌ पाठ सीखना हैवह है परिश्रमत्याग और प्रत्येक व्यक्ति को सबके हित में कार्य करने का पाठ।

    सबके जीवन में अनुकूलता और प्रतिकूलता समान रूप में नहीं आतीकिसी के जीवन में कम और किसी के जीवन में ज्यादा। परन्तु इन परिस्थितियों का सर्वथा अपवाद कोई नहीं हो सकता यह एक सच्चाई हैजिसे हर व्यक्ति को स्वीकार करना ही पड़ता है। इसीलिए इन परिस्थितियों से घबराना कायरता है। हमें इन प्रतिकूल परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करना चाहिए। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जो भावनात्मक स्तर पर अपना संतुलन बनाये रखता हैवह बाह्य कारणों से प्रभावित नहीं होता है। इसीलिए हमें शरीर को आरंभ से ही प्रतिकूलताओं को सहन करने हेतु सक्षम बनाना चाहिए।     

    स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि प्रत्येक व्यक्ति की भॉंति प्रत्येक राष्ट्र का भी एक विशेष जीवनोद्देश्य होता है। वही उसके जीवन का केन्द्र होता हैउसके जीवन का प्रधान स्तर हैजिसके साथ अन्य सब स्वर मिलकर समरसता उत्पन्न करते हैं। भारतवर्ष में धार्मिक जीवन ही राष्ट्रीय जीवन का केन्द्र है और वही जीवन रूपी संगीत का प्रधान स्वर है। यदि कोई राष्ट्र अपनी स्वाभाविक जीवनी शक्ति को दूर फेंक देने की चेष्टा करेउससे विमुख हो जाने का प्रयत्न करे और यदि वह अपने इस कार्य में सफल हो जायतो वह राष्ट्र मृत हो जाता है। अतः अपनी प्रत्येक क्रिया का केन्द्र धर्म नैतिकता-सदाचार को ही बनाना होगा। युवाओं में किसी प्रकार का सुधार या उन्नति की चेष्टा करने के पहले धर्म प्रचार आवश्यक है। संसार को समाजवादी अथवा राजनैतिक विचारों से भरने से पहले आवश्यक है कि उसमें आध्यात्मिक विचारों की बाढ़ ला दी जाय। पहले यही धर्म-प्रचार आवश्यक है। धर्म-प्रचार करने के बाद उसके साथ ही साथ लौकिक विद्या और अन्यान्य आवश्यक विद्याएँ अपने आप ही आ जायेंगी। मनुष्य केवल मनुष्य भर ही होना चाहिए। बाकी सब कुछ अपने आप ही हो जायेगा। अब अपने पैरों पर खड़े हो जाओ और मर्द बनो। हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता हैजिससे हम मनुष्य बन सकें। हम निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि इन हृदयवान्‌ उत्साही युवकों के भीतर से ही सैकड़ों वीर उठेंगेजो हमारे पूर्वजों द्वारा प्रचारित सनातन आध्यात्मिक सत्यों का प्रचार करने और शिक्षा देने के लिए संसार के एक छोर से दूसरे छोर तक भ्रमण करेंगे। आज युवकों के सामने यही महान्‌ कर्त्तव्य है। अतएव एक बार फिर हमारे देश के युवकों के "उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत' का अनुसरण करना चाहिए। - गौरीशंकर शर्मा(नवोत्थान लेखासेवा हिन्दुस्थान समाचार)

     

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    Man imposes his feelings on those in front of him and considers them as he himself is. The world is a luminous mirror of a long, wide bellow conch, in which its face is seen accurately. For a person who is like him, similar elements come out in the creation. Satyuga souls live in every age and they always have the golden age. Where an optimistic person achieves success in difficult and seemingly impossible tasks, a person with pessimistic attitude is not able to overcome even the simple problems and difficulties.

     

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  • योगी द्वारा राजा को आशीर्वाद

    सतपुड़ा पर्वतमाला में एक घना जंगल था। इस जंगल में कुछ ऋषि-मुनि रहते थे और जप-तप करते थे। इनमें एक बहुत वृद्ध योगी भी थे। लोगों की मान्यता यह थी कि वे बोलते नहीं हैं लेकिन जब बोलते हैं, तब उनके वचन बहुत कठोर होते हैं। पर उनके अर्थ बहुत उपयोगी होते हैं। उनके दर्शन मात्र से ही मनुष्य का कल्याण होता है। योगी महाराज कभी किसी से कुछ लेते नहीं थे।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए-
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    देवताओं के पूजन की सही विधि

    Ved Katha Pravachan _68 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    एक राजा ने योगी महाराज की कीर्ति सुनी। उन्हें लगा कि इन योगी महाराज के दर्शन करने चाहिए। एक दिन राजा उनके दर्शन के लिए निकले। महारानी को भी साथ ले लिया था। मन्त्री और सेनापति तो संग में थे ही। सूर्योदय होते-होते ये सभी योगी के निवास स्थान पर पहुंच गए। वहॉं पहुंचकर उन्होंने देखा कि एक बड़े बरगद के पेड़ के नीचे योगी की एक छोटी-सी कुटिया थी। कुटिया में कोई सामान नहीं था। योगी के गले में रुद्राक्ष की एक माला थी और कपड़ों के नाम पर केवल दो धोतियां। वे एक धोती धोते और दूसरी पहनते थे। राजा अपनी सेना के साथ पहुंचेउस समय योगी ध्यानमग्न थे।

    राजा और उनके साथी कुटिया के सामने चुपचाप बैठ गए ताकि उनका ध्यान भंग न हो। थोड़ी देर के बाद योगी ने आँखें खोलीं। उन्होेंने सबको देखा। राजा ने योगी को साष्टांग प्रणाम किया। योगी बोले, "गधा हो जा और कुत्ता बन जा।सुनकर सभी स्तब्ध रह गए। राजा को आज तक किसी ने ऐसा नहीं कहा था। इस तरह के वचन बोलने वाले की जीभ काट ली जाती थी। पर राजा शान्त रहे। उन्होंने विनयपूर्वक हाथ जोड़कर कहा, "महाराज!मुझसे कोई गलती हुई होतो क्षमा मांगता हूँ। पर ऐसा शाप मुझे क्यों दे रहे हैंआप कहें तो मैं प्रायश्चित करूं?'' 

    "राजन्‌यह शाप नहीं आशीर्वाद है। गधा सदा काम करता रहता है। उसकी आवश्यकताएँ कम से कम होती हैं। जो मिल जाएवही खाकर सन्तुष्ट रहता है। कुत्ता हमेशा सावधान रहता है। वह सोते हुए भी जागता रहता है। अपने मालिक के प्रति वह वफादार होता है। हे राजन्‌प्रजा की भलाई के लिए निरन्तर काम करो। अनावश्यक आवश्यकताएं मत बढ़ाओ। जो मिल जाएउसी में निर्वाह करो। तुम एक राजा हो। तुम पर प्रजा की जिम्मेदारी है। इसलिए सदा सावधान रहो। नींद में भी जागते रहना सीखो। ईश्वर सभी का मालिक है। उसकी भक्ति करो। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ।'' इतना कहकर योगी मौन हो गए। वे आंखें बन्दकर पुनः ध्यान में लीन हो गए। राजारानीमन्त्रीसेनापति सभी योगी को प्रणाम कर राजधानी लौट आए। - प्रस्तुतिः कु. भावना

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    There was a dense forest in the Satpura ranges. Some sages and sages lived in this forest and used to do chanting and meditation. There was also a very old yogi among them. The belief of the people was that they do not speak but when they speak, their words are very harsh. But their meanings are very useful. Man's welfare is only due to his philosophy. Yogi Maharaj never used to take anything from anyone.

     

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  • राधा-कृष्ण प्रसंग

    क्या सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी प्रामाणिक है?

    दो वयस्क स्त्री-पुरुषों को साथ रहना चाहिए। इसमें विवाह का बन्धन अनिवार्य नहीं। भारतीय इतिहास में राधा-कृष्ण का साथ रहना इसी बात का उदाहरण है। यह सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी है। सर्वोच्च न्यायालय कोई बात कहे तो उसे प्रामाणिक माना जाता है। यह देश की सर्वोच्च निर्णायक संस्था है। इसके द्वारा दिये गये निर्णय देश की जनता के लिए नियम होते हैं। वैसे भी देश के जो बड़े विचारक संस्थान हैं, उनमें कही गई बातें अन्यत्र उद्‌धृत की जाती हैं, प्रमाण के रूप में प्रस्तुत की जाती हैं। देश के संस्थान जैसे सरकार, संसद, राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री, विश्वविद्यालय के विद्वान, कुलपति तथा न्यायालयों के न्यायाधीश जब कोई बात कहते हैं उसका महत्व होता है। वह बात प्रामाणिक मानी जाती है। इन व्यक्तियों की बात देश की कार्य पद्धति, सामाजिक मूल्य तथा दिशा निश्चित करती है।

    Ved Katha Pravachan -8 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    एक बार कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में गीता सम्मेलन का आयोजन था। इसमें हॉलैण्ड के विश्वविद्यालय से एक वेद के विद्वान प्रोफेसर पधारे थे। भोजन का समय था। चर्चा में उनसे पूछा गया कि आप वेद के अध्यापक और विद्वान हैं, आप गोमांस का सेवन करते हैं, क्या यह उचित है? तो उस व्यक्ति ने प्रतिप्रश्न किया कि- क्या आपके विश्वविद्यालय में सायण का वेदभाष्य पढ़ाया जाता है या नहीं? उन्हें बताया गया पढ़ाया जाता है। उन्होंने कहा, उसमें गोमांस भक्षण का विधान है, फिर आप द्वारा मेरे गोमांस भक्षण पर आपत्ति कैसे की जा सकती है? हमारे देश के विद्वान्‌ और संस्थायें जिन बातों को प्रमाण मानती हैं, उनको पूरा देश प्रमाण मानता है।

    अतः इनमें जो बात हो वह प्रामाणिक होनी चाहिए। जहॉं तक सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राधा-कृष्ण के सम्बन्ध को दो वयस्कों के विवाहेतर सम्बन्धों के रूप में देखा जाना है, तब इसमें अनेक विचारणीय बिन्दु उपस्थित होंगे जिन पर निर्णय करना आवश्यक है। न्यायालय द्वारा राधाकृष्ण को इस प्रकार स्वीकार करने का एक लाभ है कि न्यायालय राधा और कृष्ण के अस्तित्व को स्वीकार करता है, क्योंकि बहुत से इतिहासकार कृष्ण और महाभारत की वास्तविकता का ही निषेध करते हैं। यही बात भारत सरकार अपने विद्यालयों में पढ़ाती है।

    दूसरी बात है राधा-कृष्ण का इतिहास महाभारत का इतिहास नहीं है। राधा की कल्पना तो पुराणों की देन है। यदि न्यायालय इसे ऐतिहासिक मानता है तो इतिहास लिखने के आधार बदलने होंगे और पंचतन्त्र की कहानियों को ऐतिहासिक घटना और उनके पात्रों को ऐतिहासिक व्यक्तियों के रूप में देखना होगा। राधा-कृष्ण के सम्बन्ध को न्यायालय द्वारा प्रामाणिक स्वीकार करने से एक संकट और समाज को झेलना पड़ेगा। अभी तो दो वयस्क अविवाहित लोगों के सम्बन्धों को मान्यता देने का प्रसंग था, परन्तु न्यायालय ने राधा-कृष्ण के उदाहरण से विवाहित लोगों के विवाहेतर सम्बन्धों को भी मान्यता प्रदान कर दी है। जो लोग राधा-कृष्ण के साथ को स्वीकार करते हैं, वे स्वयं भी इसे दिव्य प्रेम के रूप में देखना चाहते हैं। भले ही उनके नाम पर स्वयं कितना ही अनुचित आचरण करते हों। यहॉं पर विचारणीय है कि हमारे समाज में राधा-कृष्ण चाहे जितने प्रचलित हों, परन्तु इतिहास में राधा-कृष्ण का स्वरूप निराधार है।

    आजकल कुछ लोग पाश्चात्य प्रभाव से उन्मुक्त आचरण को स्वीकार्य, स्वाभाविक और श्रेष्ठ बताना चाहते हैं। परन्तु यदि सब कुछ प्राकृतिक रूप में स्वीकार करने का आग्रह मान्य कर लिया जाता है, तो यह पशु समुदाय के तुल्य होगा। आजकल हम आधुनिकता के नाम पर जो आचरण स्वीकार करते हैं, जैसे रात्रि को देर से सोना आधुनिकता है और जल्दी समय पर सोना रूढ़ि है। हर समय कुछ भी खाते रहना आधुनिकता है और समय पर सात्विक शाकाहारी भोजन करना रूढ़ि है। भड़कीले फैशन वाले आधे-अधूरे कपड़े पहनना आधुनिकता है और सादे पूरे वस्त्र पहनना रूढि है। यदि यही सब आधुनिकता है तो कुत्ते, गधे आदि पशु सबसे अधिक आधुनिक हैं। वे जो चाहे खायें, जब चाहे खायें, जब चाहे सोयें, जहॉं चाहे जो हरकतें करें, तो कुत्ते-गधे आदि सबसे प्राकृतिक और सबसे अधिक आधुनिक हैं। क्या हम ऐसा मनुष्य समाज बनाने की कल्पना कर सकते हैं? क्या यही हमारे लिए आधुनिकता है? यहॉं सोचना चाहिए, समाज में व्यक्ति की प्राकृतिक इच्छायें पहले हैं या इसको लेकर बनाये गये नियम पहले हैं। इसका स्वाभाविक उत्तर होगा, इच्छायें पहले हैं और नियम बाद में बने हैं। जब नियम बाद में बने हैं तो उन नियमों के बनाने के कारण अवश्य होंगे। पहला कारण है भगवान ने मनुष्य को असीम इच्छायें देकर इस संसार में भेजा है। यदि सभी मनुष्यों को अपनी सभी इच्छाओं को पूरा करने की छूट दी जाये, तो सारे समाज में अराजकता उत्पन्न हो जायेगी। इस अराजकता को पशु तो अपने बल से नियन्त्रित करता है, परन्तु मनुष्य बुद्धि से नियन्त्रित करता है। अतः मनुष्य ने इच्छाओें को मर्यादित करने के लिए नियम बनाये हैं।

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    समाज में बनाये गए नियम समाज और व्यक्ति दोनों के लाभ के लिए बने हैं। इन नियमों के कारण मनुष्य का आचरण आदर्श बनता है। और यदि आदर्श रहित समाज को स्वीकार किया जाता है, तो हम अराजकता वाली स्थिति की ओर ही बढ़ेंगे। आज बिना विवाह के रहना स्वीकार किया है, कल परिवार के सदस्यों को भी यदि अमर्यादित आचरण की छूट देंगे, तो पशु के और मनुष्य के समाज में कोई अन्तर ही नहीं रह जायेगा। जैसा पहले कहा गया कि समाज में नियम बनाने के दो कारण होते हैं। प्रथमतः वह नियम व्यक्ति के अपने लाभ के लिए होता है तथा समाज की व्यवस्था में सहायक होता है। नियम अपने पुराने अनुभव के आधार पर बनाये जाते हैं। इस कारण नियम हमें उस हानि से बचाते हैं, जो भूतकाल में होती रही है। निकट सम्बन्धों में विवाह प्रकृति ने वर्जित नहीं कर रखा है, परन्तु ऐसे विवाह करने से मनुष्य-सन्तति की परम्परा रोग ग्रस्त होती है। उसकी सन्तानें बुद्धि और स्वास्थ्य से हीन होती हैं। इसलिए विवाह सम्बन्ध दूर देश और दूर परिवार में करना उचित है। अतः शास्त्र में गोत्र, परिवार, पीढ़ी आदि के छोड़ने की बात कही गई है। अनुभव ने इस नियम को जन्म दिया। अतः आज आप इस नियम को तोड़ते हैं, तो इसकी हानि का कुछ समय बाद समाज को अनुभव होगा।

    विवाह का मुख्य उद्देश्य सन्तान है। परिवार सुख उसका सहज आधार है। यदि नियम बने हैं तो परिवार और सन्तान के लाभ के लिए बने हैं और मनुष्य की सुख की इच्छा को मर्यादित किया गया है। यदि मनुष्य सन्तान की अपेक्षा शरीर सुख को अधिक महत्व देता है तो उसके परिवार और सन्तान को हानि तो उठानी पड़ेगी। आज शरीर सुख के लिए परिवार और सन्तान के लाभ की हम उपेक्षा करते हैं, तो भविष्य की सन्तान परिवार या माता-पिता के द्वारा लालित-पालित न होकर एक कानून से पाली गई होगी, जैसा कि पाश्चात्य देशों में होता है।

    निकट सम्बन्धों में और जाति में विवाह की हानियॉं हम मुस्लिम और पारसी समाज की स्थिति का अध्ययन करने से समझ सकते हैं। आधुनिकता के समर्थक तथा आग्रही इस प्रकार के सम्बन्धों के विषय में शास्त्र में और समाज में जिन सन्दर्भों को उद्‌धृत करते हैं, तो वे अनुचित रूप से उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। जैसे उपनिषदों में सत्यकाम जाबाल का उदाहरण अविवाहित सम्बन्धों के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया जाता है। यह उदाहरण का शीर्षासन है। क्योंकि उपनिषद में यह उदाहरण समाज के नियम के रूप में नहीं अपितु अपवाद के रूप में प्रस्तुत है। सत्यकाम के विवरण को सत्य स्वीकार करने वाले सत्यवादी व्यक्ति के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है, न कि अविवाहित सन्तान की वैधता बताने के लिए। समाज में हर नियम के अपवाद पाये जाते हैं, इससे अपवाद को नियम के रूप में प्रस्तुत कर उसकी स्थापना करना नियम से बलात्कार करना है। समाज में विवाहेतर सम्बन्ध थे, आज भी हैं, आगे भी रहेंगे। परन्तु इससे नियम निरर्थक नहीं हो जाते। चोरी, हिंसा, बलात्कार, शोषण समाज में सब कुछ होता था, हो रहा है और भविष्य में भी होगा। परन्तु इससे सरकार, पुलिस, कानून व्यर्थ नहीं हो जाते। इस सब अनुचित को नियमित, मर्यादित, नियन्त्रित करने के लिए नियम बनाये जाते हैं और नियम का लाभ व्यक्ति और समाज को मिलता है। अतः अपवादों की साक्षी से नियम की निरर्थकता को सिद्ध नहीं किया जा सकता।

    मनुष्य और प्रकृति के बनाये नियमों में सबसे बड़ा यही अन्तर है कि प्रकृति के नियम अपरिवर्तनीय रहते हैं और मनुष्य के नियम परिवर्तित होते रहते हैं। प्रकृति में शाश्वत परिस्थिति को ध्यान में रखकर नियम बनाये गये हैं। इसलिए उसके नियमों में पूर्णता पायी जाती है और इन नियमों को बनाने वाला भी पूर्ण है। इसके विपरीत मनुष्य का ज्ञान और बल अपूर्ण होने से उसके नियम भी अपूर्ण हैं।परन्तु मनुष्य अल्पज्ञ होने से केवल वर्तमान के सुख-दुःख से प्रेरित होकर व्यवहार करता है। इसी आधार पर वह पुराने नियमों को बदलता रहता है और नये नियमों को बनाता है। यह मनुष्य का स्वभाव है। वह वर्तमान और आज को देखकर चलता है। इसी बात को आज हम अपने नये नियमोें के निर्माण का आधार मान रहे हैं।

    कभी-कभी हम अपनी विचारधारा को प्रमाणित करने के लिए कितने मिथ्या तर्कों का सहारा लेते हैं उसका एक उदाहरण देखिए। पिछले दिनों आउटलुक पत्रिका ने क्रान्तिकारी सावरकर के विरुद्ध बहुत सारी सामग्री छापी, जिसमें बताया गया कि यह सामग्री भारत सरकार के पुरातत्व विभाग में रखी है। देखने की बात है सामग्री रखी है, पुलिस की रिपोर्ट है। वह न्यायालय में प्रस्तुत हुई। परन्तु मान्य पुलिस की रिपोर्ट होगी या न्यायालय द्वारा किया गया निर्णय। किसी भी न्यायालय में पूर्व पक्ष द्वारा प्रस्तुत आरोप निर्णय के पश्चात्‌ आरोपी के विरुद्ध तभी मान्य हो सकते हैं, जब वे निर्णय के कारण बने हों। वही स्थिति राधा-कृष्ण की कथा की है। राधा-कृष्ण की कथा अज्ञान और स्वार्थ के परिणामस्वरूप पुराणों के द्वारा प्रस्तुत की गई है। कोई बात स्वार्थ के कारण झूठ कही गई और आज उसे प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, जो उस व्यक्ति के प्रति तो अन्याय है ही, परन्तु यह उदाहरण समाज और व्यक्ति दोनों के लिए हितकर नहीं है।

    और अन्त में नियम का निर्माण, बन्धन या मर्यादा का लाभ समाज और परिवार के लिए तो है ही, साथ ही हमें स्मरण रखना चाहिए कि हमारी इच्छायें अनन्त हैं और आवश्यकतायें सीमित। आवश्यकता शरीर, परिवार  और समाज की है, इच्छायें मन की। आवश्यकतायें पूरी की जानी चाहिएं और पूरी की जा सकती हैं। परन्तु इच्छायें कभी भी पूरी नहीं की जा सकती। अतः आवश्यकता को पूरा करने और इच्छाओं को नियन्त्रित करने के लिए नियम बनाये जाते हैं। उनके औचित्य को समझकर उनका पालन करने में ही मनुष्य का, उसके परिवार और समाज का हित और सुख निहित है। इस बात को गीता में कहा गया है कि कोई कामनाओं की पूर्ति करके उनको तृप्त नहीं कर सकता। अतः मनुष्यता मर्यादायुक्त समाज का नाम है। शेष तो पशुता है। कामनायें तो भोग से बढ़ती ही जाती हैं, जैसे आग में घी डालने से आग बढ़ती जाती है।

    न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।
    हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिबर्धते।।(गीता) प्रो. धर्मवीर

     

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    Therefore, whatever is there in them should be authentic. As far as the relationship of Radha-Krishna is to be seen by the Supreme Court to be the extramarital relationship of two adults, then there will be several points of consideration on which it is necessary to decide. There is an advantage of the court accepting Radhakrishna in such a way that the court accepts the existence of Radha and Krishna, as many historians reject the reality of Krishna and the Mahabharata. This is what the Indian government teaches in its schools.

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  • राष्ट्रवादी महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज का आन्दोलन

    जनवरी सन्‌ 1873 को महर्षि दयानन्द सरस्वती ब्रिटिशों की राजधानी में पहुँचने से पूर्व ही विभिन्न स्थानों पर वैदिक धर्म के सिद्धान्तों और भावनाओं का प्रचार करते हुए कलकत्ता पहुंचे।

    अंग्रेजी राज्य महर्षि दयानन्द की लोकप्रियता और उनकी प्रसिद्धि से भली प्रकार परिचित हो चुका था। साथ ही उन्हें इस बात का भी पता हो चुका था कि महर्षि जहॉं कहीं भी पहुँचते हैं उन पर आस्था रखने वाले सहस्त्रों की संख्या में नर-नारी उपस्थित होकर उनके विचारों से लाभान्वित होते हैं।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    धर्म एवं सम्प्रदाय में अन्तर
    Ved Katha Pravachan -4 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती जब कलकत्ता पहुँचे तो तत्कालीन भारत के वायसराय लार्ड नार्थब्रुक ने उनसे भेंट करने की अपनी आकांक्षा प्रकट की। श्री स्वामी जी ने उनकी इस प्रार्थना को स्वीकृत कर लिया। निश्चित तारीख पर वायसराय महोदय संस्कृत और अंग्रेजी के विशिष्ट अनुवादकर्त्ता के साथ स्वामी जी के पास पहुँचे।

    औपचारिक शिष्टाचार और कुशल क्षेम के उपरान्त वायसराय बहादुर ने कहा कि- "मुझे ज्ञात हुआ है कि आप अन्य सम्प्रदायों के सिद्धान्तों और उनके विश्वास की कड़ी आलोचना करते हैं। इससे उनको मानसिक कष्ट होता है। इसके कारण वे आपके शत्रु भी हो सकते हैं। यदि आप आज्ञा करें तो आपकी सुरक्षा का प्रबन्ध किया जाए।" इस पर महर्षि ने कहा कि "अंग्रेजी राज्य में मुझे कोई कष्ट और पीड़ा नहीं। मुझको अपने विचारों की अभिव्यक्ति में पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त है। मैं किसी का शत्रु नहीं हूँ। प्रत्येक सम्प्रदाय में व्याप्त बुराई को हटाना मेरा कर्त्तव्य है।"

    लार्ड नार्थ ब्रुक ने श्री स्वामी दयानन्द जी सरस्वती से कहा कि "हमारे राज्य में आपको यदि कोई कष्ट नहीं है तो इस राज्य के भारत में बने रहने के लिए ईश्वर से प्रतिदिन प्रार्थना करें तो उचित होगा।" लार्ड महोदय की इस बात को सुनकर श्री स्वामी जी ने दर्शाया कि आपकी इस बात को मैं कदापि स्वीकार नहीं कर सकता। कारण कि मेरा यह विश्वास है कि मेरे देश की जनता को संसार के अन्य देशों में प्रतिष्ठापूर्ण स्थान प्राप्त करने के लिए शीघ्र स्वतन्त्रता प्राप्त कर लेना आवश्यक है। मैं प्रतिदिन परमेश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि जिस प्रकार भी हो सके शीघ्र विदेशी राज्य की दासता से मेरा देश मुक्त हो जाए। स्वामी जी के इन विचारों को सुनकर वायसराय महोदय का मुख कान्तिहीन हो गया और विद्रोही संन्यासी की इस विद्रोहात्मक भावना को स्पष्ट शब्दों में सुन कर वायसराय महोदय ने गुप्त रूप से ब्रिटिश राज्य को सूचना दी कि "आर्यसमाज का आन्दोलन" जिस विद्रोही संन्यासी ने आरम्भ किया है इससे राज्य को खतरा है और इस पर विशेष रूप से दृष्टि रखनी भी आवश्यक है। भविष्य में यह आन्दोलन राज्य को क्षति पहुँचा सकता है।

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    महर्षि दयानन्द का विचार था कि साम्राज्यवादी सरकार को जहॉं समाप्त करना आवश्यक हैउससे कहीं अधिक आवश्यकता है कि राष्ट्रीयता की भावना का देशवासियों में प्रचार किया जाये। स्वामी जी ने अपनी विश्वविख्यात क्रान्तिकारी पुस्तक सत्यार्थप्रकाश में लिखा है कि "देश में अखण्डस्वतन्त्रनिर्भय चक्रवर्ती राज्य की स्थापना हो।" फिरंगी राज्य स्थापित हो जाने के बाद स्वामी दयानन्द ही ऐसे क्रान्ति के अग्रदूत रहे हैं कि जिन्होंने देशवासियों के हृदय में स्वाधीनता और देश प्रेम की ज्योति जागृत की थी।

    कहा जाता है कि भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना और उसे सुद्दढ बनाने की दृष्टि से जिस गौरव के साथ "लार्ड क्लाइव" का नाम लिया जाता है उसी प्रकार देश की जनता में देश प्रेम और स्वराज्य की स्थापना की स्वाभाविक भावना को जागृत करके देश भर के बुद्धिवादी वर्ग को सचेत करने का यश स्वामी दयानन्द सरस्वती  को ही है। आप ने जो जनता के हृदय में स्वतन्त्रता की अग्नि प्रदीप्त की थीउसी का ही परिणाम था कि आगे चलकर दीर्घकाल के बाद महात्मा गांधी और स्वतन्त्रता के पुजारियों के महान्‌ बलिदानों और प्रयत्नों से सन्‌ 1947 में अंग्रेजी राज्य का सूर्य जो पश्चिम से उदय हुआ था भारत भूमि के पश्चिम में सदैव के लिए अस्त हो गया।

    महर्षि इस बात को भली प्रकार से जानते थे कि अपने देश में स्वराज्य और विदेशी राज्य के होने का क्या उद्देश्य हैस्वामी जी का उद्देश्य कोरा कर्मकाण्डी सम्प्रदाय-स्थापित करना नहीं था। वह राज्य धर्म के सच्चे संस्थापक थे। देश और आर्यावर्त्त की सभ्यता व संस्कृति से आपको कितना प्रेम थाइसका एक उदाहरण यहॉं प्रस्तुत किया जाता है।

    घटना इस प्रकार है कि एक बार एक अंग्रेज अधिकारी ने महर्षि से कहा कि "भारत में हमारे राज्य के होने से आपको प्रसन्न होना चाहिए। कारण कि इस देश को उन्नति के मार्ग पर हमने लगाया है। यदि हम यहॉं न आते तो शायद ही हिन्दुस्थान खुशहाल हो पाता।" इस पर महर्षि ने कहा था कि "यह आपकी धारणा भ्रान्तिपूर्ण है। आप जिसको उन्नति और प्रगति मानते हैं वह धोखा और भ्रम है। अन्यों को दास बनाए रखने वाले धर्मभ्रष्ट लोगों ने क्या कभी किसी देशजाति और राष्ट्र का हित किया हैमुझे नहीं जान पड़ता।"

    महर्षि की इस यथार्थ बात को सुनकर अंग्रेज अधिकारी के नेत्र क्रोध से लाल हो गए और कांपते होठों से कहा कि "धर्मभ्रष्ट से आपका क्या अभिप्राय है?" स्वामी जी ने उच्च स्वर में निर्भीकता से उत्तर दिया कि "अपने पास जो कुछ है उसको ही सब कुछ समझना और उसी पर निर्भर रहनादूसरों के देश पर छल-बल से अधिकार कर अपना लाभ उठाएवह धर्मभ्रष्ट है। इन बातों से जो मुक्त रहता हैवह धर्मात्मा है।"

    महर्षि न केवल धार्मिक-सामाजिक सुधारक और भारतीय सभ्यता और संस्कृति के पोषक व प्रचारक थेअपितु  वह राष्ट्रीयता के भी अग्रदूत थे। यदि महर्षि ने इन राष्ट्रीय विचारों को भारतीय जनता में जागृत न किया होता तो स्वतन्त्रता का प्राप्त कर लेना इतना सरल और सुगम न था।

    महर्षि के द्वारा स्थापित आर्यसमाज ने न केवल भारत में ही स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष किया और जनता को तैयार कियाअपितु दास बनाकर विदेशों को ले जाए जाने वाले भारतीयों के मन में भी स्वाभिमान व जागृति के भाव उत्पन्न किए। इसके परिणामस्वरूप ही अन्य देशों में बसने वाले भारतीयों ने शानदार ढंग से वहॉं के स्वाधीनता आन्दोलनों में अपना योग प्रदान किया। यह विश्वव्यापी सफलता आर्य समाज के आन्दोलन की विश्व को बहुत बड़ी देन है।

    आज की परिस्थिति में आर्यसमाजियों को आस्था के साथ संकल्प करना होगा कि समाज के भीतर प्रविष्ट सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध आवाज उठाकर समाज को दृढ और युवकों को वैचारिक और चरित्र की दृष्टि से श्रेष्ठ बनाकर प्राप्त स्वतन्त्रता को अक्षुण्ण बनाए रखें। - स्वामी सोमानन्द सरस्वती

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    When Shri Swami Dayanand Saraswati reached Calcutta, the then Viceroy of India Lord Northbrook expressed his desire to meet him. Shri Swami Ji accepted his prayer. On a certain date, the Viceroy reached Swamiji with a special translator of Sanskrit and English.

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  • रोग निवारण के घरेलू नुस्खे

    नीम्बू से रोग निवारण के घरेलू नुस्खे

    1. एक चम्मच नीम्बू का रस, एक चम्मच पिसी हुई अजवायन आधा कप गर्म पानी में डालकर सुबह-शाम पीना चाहिए।
    2. एक गिलास पानी में नीम्बू निचोड़कर चौथाई चम्मच सोड़ा मिलाकर नित्य पीयें।
    3. आधा गिलास गरम पानी में आधा नीम्बू निचोड़कर जरा सी पीसी हुई काली मिर्च की फंकी सुबह-शाम लें।

    Ved katha _15 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    4. एक चम्मच सौंठ तथा साबुत अजवायन 50 ग्राम नीम्बू के रस में भिगोकर छाया में सुखायें। भोजन के बाद इसकी एक चम्मच चबायें।
    5. नीम्बू काटकर इसकी फांकों में नमक तथा काली मिर्च भरकर गर्म करके चूसने से लाभ होता है। उपरोक्त सभी उपायों से वायु विकार में लाभ होता है।
    6. एक गिलास गर्म पानी में आधा नीम्बू निचोड़कर 4 बार नित्य कुल्ले करने या नित्य नीम्बू-पानी में स्वाद के लिये चीनी या नमक डालकर प्रातः भूखे पेट पीने व रात को सोते समय एक गिलास गर्म दूध में एक चम्मच घी डालकर पीने से दो-तीन महीने तक प्रयोग से छालों में लाभ होता है।
    7. नीम्बू के पेड़ से हरी पत्तियॉं तोड़कर चबाकर रस चूसने, तेज गर्म पानी में नीम्बू निचोड़कर घूंट-घूंट पानी पीने से हिचकी बन्द हो जाती है।
    8. नीम्बू, सौंठ, काली मिर्च, अदरक सब थोड़ी मात्रा में लेकर चटनी बनाकर चाटने, नीम्बू में नमक भरकर 4 बार चूसने, काला नमक तथा शहद और नीम्बू का रस मिलाकर चाटने से हिचकी बन्द हो जाती है।
    9. खट्टी डकार आने की स्थिति में गर्म पानी में नीम्बू निचोड़कर पीना चाहिए।
    10. 50 ग्राम पुदीने की चटनी पतले कपड़े में डालकर, निचोड़कर रस निकालकर आधा नीम्बू निचोड़ें।
    11. 2 चम्मच शहद और 2 चम्मच पानी मिलाकर पीने से पेट का दर्द जल्द बन्द हो जाता है।
    12. आधा कप पानी, 10 पिसी हुई काली मिर्च, एक चम्मच अदरक का रस, आधे नीम्बू का रस सब मिलाकर पीने से पेट दर्द ठीक होता है। स्वाद के लिये चीनी या शहद मिला सकते हैं।
    13. एक नीम्बू, काला नमक, काली मिर्च, चौथाई चम्मच सौंठ, आधा गिलास पानी में मिलाकर पीने से पेट दर्द ठीक होता है।
    14. अजवायन तथा सेंधा नमक को नीम्बू के रस में भिगोकर सुखा लें। पेट दर्द होने पर एक चम्मच चबाकर पानी पीएं। इस प्रकार जब तक दर्द रहे, हरेक घण्टे में सेवन करें और पेट पर सेक करें।

    शुद्ध शहद की पहचान कैसे करें

    1. शहद में अपनी साफ उंगली लगाकर नेत्रों में लगावें। यदि नेत्रों को लगता है, आंसू निकलते हैं तो शहद शुद्ध है।
    2. कुत्ते के आगे शहद में रोटी भिगोकर दें। यदि कुत्ता दूर से ही रोटी सूंघकर हट जाये तो शहद असली है।
    3. शहद में रूई की बत्ती भिगोकर जलावें। यदि घी की तरह जलने लगे तो शहद असली है।
    4. शहद को कागज पर रखें। कागज न गले तो शहद शुद्ध है।
    5. पान की दुकान से तरल चूना लेकर हथेली पर रखें। थोड़ी सी शहद की बून्द लेकर हल्के चूना में मिलावें हथेली जलने लगेगी ।
    6. कपड़े पर शहद की बून्द डाल दें तथा कपड़े को हल्का सा झाड़ दें। बून्द कपड़े से अलग गिर जायेगी, निशान नहीं बनेगा । इसके विपरीत परिणाम मिले तो भूलकर भी ऐसा शहद न खरीदें।एकता ओझा

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    सौंफ से पाचन-शक्ति बढ़ती है

    बहुत से लोग भोजन के बाद कभी-कभी सौंफ खाना पसन्द करते हैं। जो लोग कभी भी सौंफ नहीं खाते, वे भी होटल में भोजन करने के बाद पेमेण्ट काउण्टर पर रखी सौंफ को मुंह में डाल लिया करते हैं। रसोईघर में भी सौंफ का बहुत बोलबाला होता है। कुछ विशिष्ट सब्जियों को स्वादिष्ट और खुशबूदार बनाना सौंफ का महत्वपूर्ण गुण है। वैसे ज्यादातर लोग सौंफ को भोजन करने के बाद खाते हैं। स्वागत-सत्कार में भी सौंफ-सुपारी का प्रचलन है। सौंफ के कुछ प्रमुख गुण ये हैं -

    1. इसके खाने से पाचनशक्ति में आश्चर्यजनक वृद्धि होती है।
    2. सौंफ और धनिया को समान मात्रा में पीसकर डेढ़ गुना शुद्ध घी में मिला लें। इसमें स्वाद हेतु शक्कर भी मिला लें। इस मिश्रण का कुछ दिनों तक सुबह-शाम सेवन करें। इसके सेवन से शरीर के किसी भी भाग में होने वाली खुजली जड़ से मिट जाती है।
    3. कच्ची एवं भुनी हुई सौंफ खाने से दस्तों में तुरन्त फायदा होता है।
    4. नीम्बू के रस में पिसी हुई सौंफ का प्रयोग करने से भूख भी खुलकर लगती है एवं कब्ज की शिकायत भी मिटती है।
    5. निःसन्तान महिलाओं को नियमित रूप से दो- तीन माह तक सौंफ के चूर्ण का प्रयोग करना चाहिए। उन्हें सौंफ के एक चम्मच चूर्ण के साथ गाय का शुद्ध घी एक चम्मच मिलाकर सुबह-शाम लेना अत्यन्त गुणकारी है। इसके प्रयोग से पेट के विकार समाप्त होते हैं तथा गर्भ स्थापन की स्थिति बनती है।
    6. वायुगोला का दर्द पेट में होने पर सौंफ को चिलम में भरकर पीने से कुछ ही मिनटों में दर्द उड़न-छू हो जाता है । इसे तम्बाकू की तरह चिलम में भरकर पीते हैं।
    7. जो महिलायें गर्भावस्था में नारियल और सौंफ का प्रयोग करती हैं, उनकी सन्तान गौर वर्ण होती है।
    8. पाचन सम्बन्धित जो भी चूर्ण तैयार होते हैं। लगभग सभी चूर्णों में सौंफ जरूर डाली जाती है डॉ. ऋषिमोहन श्रीवास्तव

    पुदीना के प्रयोग

    1. गर्मी के कारण उत्पन्न फुंसियों पर पुदीने का रस बहुत राहत देता है।
    2. ताजा हरा पुदीना पीसकर चेहरे पर बीस मिनट तक लगा लें। फिर ठण्डे पानी से चेहरा धो लें। इससे आपको गर्मी से राहत मिल जाएगी और आप तरोताजा महसूस करेंगे।
    3. पुदीने के पत्तों को पीसकर शहद के साथ मिलाकर तीन बार चाटने से अतिसार (दस्त) से राहत मिलती है।
    4. गर्मी के समय प्रतिदिन भोजन के साथ पुदीने की चटनी अवश्य खाएं।
    5. गन्ने के रस में पुदीने का थोड़ा सा रस भी मिलाकर लिया जा सकता है।

     

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  • विचार शक्ति का महत्व

    विचार शक्ति का मनुष्य जीवन में एक विशिष्ट स्थान है।  इसका प्रभाव जीवन में भिन्न-भिन्न प्रकार से असन्दिग्ध रूप में होता ही रहता है। यह एक महान्‌ शक्ति है, जो प्रत्येक मानव के अन्तर में निहित है। बुद्धि अथवा परिस्थितियों द्वारा जब उसका विकास हो जाता है, तब उससे निसन्देह कभी-कभी आश्चर्यजनक कार्य भी होते देखे गये हैं। परमात्मा की दी हुई इस शक्ति का लाभ प्रत्येक नर-नारी को अवश्य उठाना चाहिये, अन्यथा वह परम उपादेय शक्ति प्रयोगविहीन रहकर कुण्ठित हो जाती है और हम उसके सभी सम्भव लाभों से वंचित रह जाते हैं।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए-
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    दुःख निवारण के उपाय

    Ved Katha Pravachan _67 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    यह सम्पूर्ण जगत ही विचार (संकल्प) शक्ति का परिणाम है। यह प्रकृति तो जड़ होने के कारण स्वयं गति शून्य हैपरन्तु परमात्मा में जगदोत्पत्ति का विचार आते ही प्रकृति में गति उत्पन्न हो जाती है और प्राकृतिक नियम के अनुसार क्रमशः जगत्‌ की उत्पत्ति हो जाती है। यह इतना अतुलितमहान्‌ अपरिमित एक अद्वितीय कार्य केवल विचार (संकल्प) के बल पर ही हो जाता है। इसी कारण इस विचार शक्ति का इतना व्यापक महत्व है। मनुष्य जैसे विचार करता है वैसा ही बन जाया करता है। यदि किसी व्यक्ति के विचार अच्छे हैंजो केवल सत्संगउपासना और उत्तम साहित्य के अध्ययन से ही हो सकते हैंतो वह अच्छा बन जाता है और यदि बुरे हैं जो कुसंगति और कुसंस्कारों का परिणाम होते हैंतो वह बुरा बन जाता है। मनुष्य को सुख और दुःख का जो भान होता हैवह भी इन्हीं विचारों का परिणाम है।

    इन विचारों का उद्‌गम स्थान हृदय है और मन के द्वारा उनका व्यापार होता है। जितनी कामनाएँ हैं सभी का कारण विचार ही हैं। मनुष्य पहले मन में विचार करता हैपुनः उसे वाणी अथवा लेख द्वारा प्रकाशित करता हैफिर फल विधि के विधानानुकूल उसे मिल जाता है। इससे स्पष्ट है कि सभी कर्मों का प्रथम अथवा मूल कारण विचार ही है। स्वामी विवेकानन्द ने अपनी पुस्तक "राजयोगमें एक स्थान पर लिखा है, "मनुष्य के हृदय से निकला हुआ प्रत्येक घृणा अथवा प्रेम का विचार बलपूर्वक उसी उसी के पास लौट आया करता हैकोई शक्ति उसे रोक नहीं सकती। अर्थात्‌ घृणा से घृणा और प्रेम से प्रेम की उत्पत्ति होती है।

    मनुष्य बूढ़ा क्यों होता हैविशेषतः अपने विचारों के कारण। जैसे-जैसे वह बुढ़ापे की बातें सोचता जाता हैवैसा ही वह होता जाता है। अमेरिका का एक प्रसिद्ध लेखक बैनट इसका ज्वलन्त उदाहरण है। उसने अपनी 50 वर्ष तक की आयु का उसका एक फोटो उसकी प्रसिद्ध पुस्तक"Old age, its cause and prevention'' में है। फोटो के देखने से यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि वह लगभग 70 वर्ष के बुड्‌ढ़े का चित्र है। बाल सफेदगले में झुर्रियॉंमाथे में सिकुड़न और सम्पूर्ण शरीर की त्वचा मांस रहित। 50 वर्ष की आयु के पश्चात्‌ उसने अपना स्वास्थ्य सुधार प्रारम्भ किया। उसने केवल दो बातों को अपनाया (1) समस्त शरीर के हलके व्यायाम, (2) अपने विचारों को उपयोगी और शक्तिशाली बनाना। इन्हीं दोनों बातों का अभ्यास उसने निरन्तर 20 वर्ष तक किया। 70 वर्ष की आयु का एक दूसरा चित्र उसी पुस्तक में हैजिससे प्रकट होता है कि वह चित्र किसी पैतींस-छत्तीस वर्ष के युवक का है। इस आयु में उसके शरीर में बुढ़ापे के सभी चिन्ह अदृष्ट हो गए थे।

    उसी पुस्तक में एक दूसरा उदाहरण उसने फ्रांस की एक लड़की का दिया है। उस लड़की ने 19 वर्ष की आयु में अपना विवाह वहीं के एक नवयुवक के साथ करने का निश्चय किया। नवयुवक ने अपनी निर्धनता के विचार से लड़की से कहा कि विवाह तो निश्चित हैपरन्तु विवाह से पूर्व मैं कुछ धन संग्रह कर लूं। लड़की ने उसे स्वीकार कर लिया। वह धन उपार्जन करने के लिये अमेरिका चला गया। उस युवक ने तीन वर्ष में अपने अथक परिश्रम से पर्याप्त धन अर्जित कर लिया। परन्तु किसी झगड़े में उसे 15 वर्ष अमेरिका में और रुकना पड़ा। 18 वर्ष पश्चात्‌ जब वह फ्रांस लौटातब उन दोनों का विवाह हुआ। परन्तु आश्चर्य की बात जो उसने देखी वह यह थी कि 37 वर्ष की आयु में भी उस लड़की के मुख की आकृति ठीक वैसी ही थीजैसी वह 19 वर्ष की आयु में अमेरिका जाते हुए छोड़ गया था। उसका रहस्य पूछने पर युवती ने कहा, "मैंने निश्चय किया था कि 19 वर्ष की आयु में विवाह करूँगी। परन्तु जब वह न हो सकातो उसने दूसरा निश्चय किया कि विवाह जब भी होगा मैं उस समय तक अपने मुख का आकार-प्रकार वैसा ही बनाये रखूंगी जैसा 19 वर्ष की आयु में था।'' इस निश्चय की पूर्ति के लिए उसने अपने एक कमरे में मनुष्य की ऊँचाई का एक दर्पण बनवाया जिसमें देखकर उसने अपने मुख की आकृति मन में अंकित कर ली। अब वह जब भी दिन में इस कमरे से होकर जाती तो एक मिनट के लिये उस दर्पण के सम्मुख खड़ी होकर देख लिया करती कि उसके मुख की आकृति में कोई अन्तर तो नहीं आया है। निरन्तर 18 वर्ष तक यह क्रम चलता रहा और उसके सशक्त विचारों का यह प्रभाव हुआ कि उसके मुख की आकृति में कोई अन्तर नहीं आने पाया। यह है विचार का महत्व।

    इस विचार शक्ति का उपयोग जीवन में मनुष्य अनेकों स्थान पर यदि चाहे तो सफलतापूर्वक कर सकता है। विचार प्रकृति के नियम के अनुसार अपने ही समान विचारों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। विचारोें के द्वारा हम सदैव अपने विचारोें के समान ही शक्ति और विचार दृश्य और अदृश्य जगत्‌ में से अपनी ओर आकर्षित करते रहते हैं। हम उसे जानें अथवा न जानेंउसकी इच्छा करें अथवा न करेंपरन्तु यह सिद्धान्त अपना कार्य करता ही रहता  है। अंग्रेजी में भी इस सम्बन्ध में एक कहावत है'Like attracts live'' अर्थात्‌ जैसे को तैसा सदैव आकर्षित करता ही रहता है। शराबी शराबी कोजुआरी जुआरी कोचोर चोर कोगायक गायक कोसत्संगी सत्संगी को इत्यादि। हम विचारों के सागर में तो निवास ही करते हैंजहॉं से हमारे विचार बाहर जाते और बाहर से विचार हमारे पास आते रहते हैं। इस अदृश्य धारा का प्रवाह निरन्तर होता ही रहता है। जिस प्रकार हमारी श्वास और नाड़ी सदैव चलती रहती हैपरन्तु हम उस ओर कभी ध्यान नहीं देतेठीक उसी प्रकार विचारों का आदान-प्रदान भी सदैव अज्ञात रूप में होता ही रहता हैपरन्तु हम उधर ध्यान बहुत ही कम देते हैं। 

    विचारों से ही कर्म की उत्पत्ति होती है। बिना विचारों के कोई कर्म नहीं बनता। विचार ही कर्मों की जननी है। यह निर्विवाद तथ्य है कि शुभ विचारों से शुभ कर्म ही बनेंगे और विचार जितने ही प्रबल होंगेकर्म उतना ही अधिक साध्य और सफल होगा। मनुष्य जितने सूक्ष्म विचार तरंगों को ग्रहण करने योग्य होता है उतना ही प्रभाव विचारों का उस पर होता है। निर्बल मन वाले मनुष्य पर बाहर के विचारों का अधिक और शीघ्र प्रभाव होता है। वह विचारों के अधीन शीघ्र ही हो जाता है। सुदृढ़ मन वाले मनुष्य किस विचार को मन आने देना और किसको न आने देनाऐसा ध्यान में रखकर ही उन्हें ग्रहण करते हैं। विचारों का प्रभाव मनुष्य पर होता ही है। मनुष्य जैसे विचारों की संगति में रहता है और जैसा साहित्य पढ़ता हैउसके विचारों की प्रबलता से दुसाध्य कार्य भी सुसाध्य देखे गये हैं। - आचार्य डॉ. संजयदेव

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    This whole world is the result of thought (sankalpa) power. Due to this nature being inertial, the speed itself is zero, but as soon as the idea of ​​worldliness comes in the divine, motion arises in the nature and according to the natural law, respectively, the world is born. This unique work, so incomparable, is done only on the strength of thought (sankalpa). This is why this power of thought is so widespread. Man becomes like what he thinks.

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  • वीर सावरकरः जीत और हार का एक मूल्यांकन

    स्वातन्त्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर हिन्दुस्तानी इतिहास के वे नायक हैं, जो स्वतन्त्रता संग्राम की लड़ाई में सबसे पहले आए और सबसे बाद में गए। यह लड़ाई जिन-जिन रास्तों से आगे बढ़ी, सावरकर जी उन सबमें आगे थे। हिन्दू के ठण्डे खून को गर्म करने के लिये उन्होंने हथियारों का सहारा लिया, जर्जरित समाज को आधुनिक बनाने के लिये उसे वैज्ञानिक दिशा दी, रूढियों से मुक्त करने के लिये अछूतोद्धार का अभियान चलाया, साहित्य एवं पत्रकारिता को आधार बनाकर जन जागृति की लहर पैदा की और इन सबसे बढ़कर हिन्दुओं को हिन्दुत्व के दर्शन कराके उन्हें जीने की शिक्षा दी और यह कहना सिखलाया कि "गर्व से कहो हम हिन्दू हैं।' 

    Ved Katha Pravachan _75 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    जो इन्सान सिपाही हो, समाज सुधारक हो, दार्शनिक हो, साहित्यकार हो, पत्रकार हो, राष्ट्रभक्त हो और भरपूर रूप से हिन्दू हो, इतने सारे गुण धराने वाले व्यक्ति का मूल्यांकन कठिन ही नहीं असम्भव लगता है। वे जीवन में जीते या हारे, इसका नतीजा निकाल पाना बड़ा कठिन है। जिस इन्सान ने जीवनभर दिया ही दिया हो, उसका नाप तोल भौतिक आधार पर भला कैसे हो सकता है? ऐसे व्यक्ति को इतिहास विजयी ही नहीं "दिग्विजयी' की संज्ञा देता है। 

    हार और जीत की कसौटी यदि किसी व्यक्ति की सफलता और असफलताओं पर आंकी जाए, तो संभवतः फिर इतिहास की धारा को मोड़ना होगा, घड़ी की सुइयों को उल्टा घुमाना होगा। द्वितीय महायुद्ध में इंग्लैण्ड को विजय दिलाने वाले चर्चिल आम चुनाव में हार गए और उनका दल सरकार नहीं बना सका, तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि चर्चिल असफल रहे। सिकन्दर युद्ध के मैदान में अवश्य जीता, मगर इतिहास असली जीत तो पोरस की ही बतलाता है। सिकन्दर की आँख में आँख डालकर वीरता और राष्ट्रभक्ति से पोरस ने अपने देश की रक्षा की, उस हार पर आज भी इतिहास हजारों जीतों को न्यौछावर करता है।

    दस हाथ धरती के नीचे चली गई वे ईंटें धन्य हैं, जो नींव की ईंट बनती हैं। क्योंकि कलश और मीनार उसी पर तो खुली हवा में सांस लेते हैं। क्या उन अदृश्य ईंटों को हम व्यर्थ और बेकार की संज्ञा देंगे? स्वातन्त्र्य वीर सावरकर हिन्दुस्तान के स्वतन्त्रता संग्राम की वह नींव की ईंट है, जिस पर 1920 के पश्चात्‌ का भवन खड़ा हो सका, जिसके कन्धों पर चढ़कर कोई राष्ट्रपिता बना है और कोई लोकनायक कहलाया। यह ईंट धंस जाए तो सारा स्वतन्त्रता संग्राम का इतिहास ही धंस जाए, धूल धूसरित हो जाए। 

    सावरकर की चिरन्तन प्रासंगिता - भारतीय इतिहास में जितने प्रासंगिक सावरकर रहे और भविष्य में रहेंगे, संभवतः ऐसा नायक ढूंढ पाना कठिन है। यदि हथियारों के दम-खम पर क्षत्रिय बनकर सावरकर ने अंग्रेजों को नहीं ललकारा होता, तो फिर इतिहास भगतसिंह को पैदा नहीं करता और आगे चलकर इस देश में "आजाद हिन्द फौज' की स्थापना नहीं होती। खून देकर आजादी लेने की जिसने आकांक्षा की उन सबके प्रणेता सावरकर रहे।

    लार्ड एटली के अनुसार ब्रिटिशों को भारत छोड़ने की मजबूरी इसलिये है कि अब हिन्दुस्तान की फौज उनकी अपनी नहीं रही। बिना फौज के सात समन्दर पार से भारत पर राज करना आसान नहीं है और न ही हमारे पास इतनी विशाल सेना है कि उसे भारत की धरती पर भेजकर अपना साम्राज्य कायम रख सकें। अंग्रेजों को इस स्थिति में किसने पहुँचाया और भारतीय सिपाहियों के मन में आजादी की ललक किसने पैदा की? अपनी भूमि की खातिर परायों से विद्रोह करने की प्रेरणा किसने दी? इन सबके पीछे सावरकर छुपे हुए हैं। उनकी अदृश्य प्रतिभा, आग उगलने वाली लेखनी और अंगारे बरसाने वाले भाषणों ने उस वर्ग को पैदा किया, जो मैदान में उतरकर हार-जीत का फैसला कर लेना चाहते थे।

    भविष्य में देश की सुरक्षा के प्रति कितनी चाहत कि जब काले पानी की सजा भोगने के लिये अण्डमान पर पहुंचते हैं, तो उसे देखकर गदगद हो उठते हैं और कहते हैं कि भारतीय नौसेना के लिये यह टापू अभेद्य किला बनेगा जो पूर्व से आने वाले दुश्मन के लिये चुनौती होगा। सैनिक द्रष्टा के रूप में सावरकर के विचार कितने यथार्थवादी थे, इसका पता आज लगता है कि जब हमारी नौसेना ने पूर्व की रक्षा के लिए अण्डमान टापू को आधार बनाया है। जो इन्सान भविष्य के हिन्दुस्तान की जीत की अण्डमान में आधारशिला रख रहा हो, भला वह योद्धा दुनिया का कोई भी युद्ध कैसे हार सकता है? 

    हारा हुआ इन्सान इतिहास की धारा नहीं मोड़ सकता। सावरकर तो इतिहास के निर्माता थे। आज तक अंग्रेज जिस हिन्दुस्तान आन्दोलन को "गदर' और विद्रोह कहकर राष्ट्रभक्तों का अपमान करते रहे, उन्हें समाज और इतिहास का खलनायक बतलाते रहे, सावरकर ने उस संघर्ष का नाम 'स्वतन्त्रता युद्ध' दिया और इस लड़ाई में अपना तन-मन-धन फूंक देने वालों को वीर, बहादुर, राष्ट्रभक्त और हीरों की संज्ञा से विभूषित किया। इस परिवर्तन से हिन्दुस्तानी जनता ने अपने स्वाभिमान को पहचाना। 

    सावरकर ने यह समस्त काम केवल कथनी के आधार पर नहीं किया, बल्कि उसे क्रियान्वित करने के लिये स्वयं सबसे पहले आगे आए। लड़ाई का मैदान अपने देश की भूमि को नहीं बनाया, अपितु उन अंग्रेजों के देश में जाकर अपनी स्वतन्त्रता की मशाल जलाई। ब्रिटिश साम्राज्य की आँख में आँख डालकर उन्हीं की धरती पर ललकारा। "इण्डिया हाउस' की गतिविधियों ने "बंकिघम' पैलेस की दीवारें हिला दी, टेम्ज नदी के पानी में तूफान उठ खड़ा हुआ। मदन ढींगरा की गोलियों से जब कर्जन वायली ढल पड़ा, तब उन्होंंने मौन भाषा में कहा कि यह अंग्रेज नहीं ढला है, बल्कि उसके साम्राज्य के ढलने की शुरूआत हो गई है। 

    सावरकर का यह जोश कभी बूढ़ा नहीं हुआ। मरते दम तक वे वीर सिपाही की तरह लड़ने को तत्पर रहे अण्डमान से छूटकर भारत आने पर अपने सम्मान में आयोजित किये गये स्वागत के अवसर पर मुम्बई में जो कुछ उन्होंने कहा और 1957 में दिल्ली में आयोजित स्वतन्त्रता संग्राम शताब्दी के अवसर पर व्यक्त की गई भावना इसके जीवित सबूत हैं। 

    एकमेव रास्ता 'हिन्दुत्व' - अपने ग्रन्थ "हिन्दुत्व' के लेखक के रूप में सावरकर जितने प्रासंगिक और व्यावहारिक उस समय थे, उतने ही आज भी हैं। 

    पाश्चात्य आधार लेकर आजादी के बाद से हमारा देश आगे बढ़ने का प्रयास कर रहा है। मगर न तो उसकी पंचवर्षीय योजना का लाभ जनता को मिल सका है और न ही विश्व में उसने वह स्थान प्राप्त कर लिया है जिसके जगद्‌गुरु होने का सपना महर्षि अरविन्द ने देखा था। इन सभी बातों से ऊबकर आज के बुद्धिजीवी और राजनैतिक इस नतीजे पर पहुंचे कि हिन्दुस्तान को सोेने की चिड़िया बनाने और विश्व में अध्यात्म का बोलबाला करवाने के लिये केवल हिन्दुत्व ही एकमात्र रास्ता है। इसलिये हम देख रहे हैं कि इन दिनों देश में "हिन्दू लहर', "हिन्दू आदर्श' और "हिन्दू वोट बैंक' की चर्चा है। 

    धर्मनिरपेक्षता (पन्थनिरपेक्षता कहें) जो कि हिन्दू के जीवन का अटूट तत्व रहा है, उसे जबरदस्ती राजनीति से जोड़कर जीवन जीने का सर्वोपरि लक्ष्य बना दिया गया। परिणामस्वरूप बहुमत के साथ जुड़ा हुआ हिन्दू आदर्श धुंधला पड़ गया और हमारी सोच का दायरा मानवी मूल्यों से निकलकर शुद्ध रूप से राजनैतिक बन गया। अल्पसंख्यकता के आधार पर की जाने वाली राजनीति ने कुछ दिनों के लिये कुछ लोगों को सत्ता का परवाना तो अवश्य दे दिया, मगर हिन्दू संस्कृति के शक्तिशाली प्रवाह से उसे हमेशा के लिये अलग-थलग कर दिया। 

    जब तक देश "हिन्दुत्व' में सांस लेता रहा, वह साधन सम्पन्न बना रहा। इस पथ से ज्यों ही उसके कदम डगमगाए, वह विदेशी साम्राज्य के पंजों में चला गया। सात सौ साल तक यह भटकाव जारी रहा। मगर फिर सन्तों ने हिन्दू आदर्श को भक्ति की वाणी दी। फलस्वरूप महाराष्ट्र में सन्तों की लम्बी श़ृंखला के पश्चात्‌ हिन्दवी साम्राज्य स्थापित करने वाले छत्रपति शिवाजी महाराज ने जन्म लिया। पंजाब में गुरुओं की सतत श़ृंखला के उपरान्त खालसा साम्राज्य की नींव पड़ी। बाद में हिन्दुत्व को मन्त्र बनाकर भारत में एक के बाद एक ऐसे मनीषी और समाज सुधारक जन्म लेते गए, जिन्होंने अपने प्रयासों से इस देश को न केवल रूढ़ियों से और खोखली परम्पराओं से मुक्त कराया, बल्कि उसे शैक्षणिक, राजनैतिक और आर्थिक एवं सामाजिक रूप से भी जागरूक बनाया, जिसमें स्वतन्त्रता आन्दोलन की लहर जन्मी और अन्ततः यह देश आजाद हुआ। आज जब उसे फिर से बनाने और नवनिर्माण करने की आवश्यकता है तो वह भी उसी हिन्दू दर्शन के आधार पर ही सम्भव है। 

    वर्षों पूर्व जब सावरकर ने इन विचारों का प्रचार-प्रसार किया था, तब उस द्रष्टा को साम्प्रदायिक और संकुचित होने की संज्ञा दी गई थी। मगर वातावरण में आज गूंज रही हिन्दुत्व की आवाजें इस बात का सबूत हैं कि देश की नाड़ी और धड़कन पर सही हाथ एकमात्र सावरकर का था। देश के असंख्य स्वतन्त्रता सेनानियों ने स्वतन्त्रता संग्राम की लड़ाई में कुछ मोर्चे जीते हैं, मगर सम्पूर्ण युद्ध तो एकमात्र सावरकर ने जीता है। इसलिए सावरकर अजेय हैं, अमिट हैं, और अमर हैं।  -मुजफ्फर हुसैन

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    This enthusiasm of Savarkar never got old. Till death, he was ready to fight like a brave soldier, what he said in Mumbai on the occasion of the reception organized in his honor after coming out of Andaman and coming to India and the sentiment expressed on the occasion of freedom struggle centenary organized in Delhi in 1957 There is living proof of this.

     

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  • वेद एवं वैदिक संस्कृति के पुनरुत्थान में महर्षि दयानन्द का योगदान

    वेद भारतीय संस्कृति अथवा आर्य संस्कृति के आधार ग्रन्थ हैं। भाषा विज्ञान की शब्दावली में वेद भारतीय परिवार (Indo-European Family) के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। समस्त उत्तरवैदिक साहित्य वेदों के व्याख्या ग्रन्थ हैं। ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, वेदांग, उपवेद, षड्‌दर्शन, सूत्रग्रन्थ, स्मृतियॉं तथा प्रातिशाख्य आदि सबका सम्बन्ध वेद से जोड़ा गया है। मनुस्मृति वेद को परम प्रमाण मनाती है तथा वेद से भूत, भविष्यत्‌, वर्तमान सब कुछ सिद्ध हो सकता है। कवि कुलगुरु कालिदास का कहना है कि यह वेदवाणी ओंकार से आरम्भ होती है तथा उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित तीन भेद से इसका उच्चारण होता है। विभिन्न भारतीय भाषाओं में भी अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। भारत में उद्‌भूत दर्शन एवं सम्प्रदाय या तो वैदिक कोटि में माने गए हैं या अवैदिक। वैसे प्रत्येक सम्प्रदाय अपने को वैदिक ठहराने का प्रयास करता है। वेद का इतना महत्व है कि इसके ज्ञान को नित्य माना गया है। इसकी शब्दानुपूर्वी (Word order) को भी नित्य माना गया। इसीलिए सम्भवत: वेदमन्त्रों की श्रुतिपरम्परा से जिस तरह रक्षा की गई, वैसी आज तक समस्त वैदिक, लौकिक संस्कृत अथवा भारतीय भाषा-साहित्य में किसी भी ग्रन्थ की रक्षा नहीं की गई। हजारों वर्षों से वेदमन्त्रों को कण्ठस्थ किया जाता रहा है और आज भी यह परम्परा अपने मूल में अक्षुण्ण है, यह वेदपाठियों का दावा है। उसका एक भी अक्षर इधर से उधर नहीं हुआ। विश्व के इतिहास में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता। इस परम्परा को अक्षुण्ण (ज्यों का त्यों) बनाए रखने के लिए ऋषियों ने अनेक उपाय किए। प्रत्येक मन्त्र में ऋषि, देवता, छन्द और स्वर का विधान किया गया। अष्ट विकृतियों अर्थात्‌ एक मन्त्र का आठ प्रकार से पाठ करने की प्रणाली चालू की गई और उनमें किसी-किसी पाठ के तो आगे 25 भेद हैं। फिर वेदमन्त्रों के अध्यात्म, अधिदैवत, अधिभूत से तीन-तीन अर्थ होते हैं। वेदार्थ के लिए व्याकरण का अध्ययन आवश्यक है, क्योंकि वेदमन्त्रों में सभी लिंगों एवं विभक्तियों का उल्लेख नहीं मिलता। निरुक्त के अनुसार वेदार्थ के लिए ऋषि, तपस्वी एवं विद्वान होना आवश्यक है। उसका राग और द्वेष तथा पक्षपात से रहित होना भी अपेक्षित है।

    dayanand saraswati

    ऐसे गम्भीर और जटिल विषय का फल क्या है? महामुनि पतंजलि के शब्दों में वेद का एक शब्द भी, यदि उसको अच्छी तरह समझकर जीवन में ढाल लिया जाए तो लोक और परलोक की सिद्धि करने हारा है। बिना अर्थज्ञान के वेदार्थं को हृदयंगम किए बिना वेद को पढना व्यर्थ में भार ढोने के समान है। वेदार्थ को जानने हारा सकल कल्याण को प्राप्त करता है। वेदमन्त्र नारियल के समान बाहर दुर्गम एवं कठोर है, परन्तु भीतर उनमें जीवन रस भरा हुआ है। उसको फाड़कर ही, वेदमन्त्रों को समझकर ही वह रस चखा जा सकता है। वह रस चखा कैसे जाए? मन्त्रों का मनन करने से, केवल पढने से नहीं, काम-क्रोध-राग-द्वेष से रहित होकर मनन-चिन्तन करने से।

    इस प्रकार का है यह वेद का जगत्‌ जो आश्चर्यजनक भी है, सूक्ष्म और गम्भीर भी है। सर्वजनहिताय है, सर्वभूत मैत्रीप्रतिपादनीय है। विश्व के समस्त अमृतपुत्रों, अमर मानवों के लिए है। समस्त पृथिवी इसका क्षेत्र है। वेदान्तदर्शन के शब्दों में जगत्‌ और ब्रह्मा के बीच समन्वय-स्थापक है, जो कुछ जगत ये है उसका वर्णन वेद में है। प्राचीन काल से लेकर आज तक वेद को समझने का प्रयास होता रहा है। पाश्चात्य एवं पौर्वात्य विद्वान्‌ (Indologists or Sanskritists of the East and the West) वेद को समझने का यत्न करते रहे हैं। परन्तु वेद अब भी रहस्य बने हुए हैं।

    इन्हीं वेदों के लिए यतिवर दयानन्द ने अपना जीवन लगाया तथा उनके द्वारा प्रवर्तित आर्यसमाज ने विगत 140 वर्षों में इसके प्रचार और प्रसार का यत्न किया। एक वाक्य में आर्यसमाज के पिछले एक सौ चालीस वर्षों की कहानी वेदों के प्रचार की कहानी है। इसमें उसे कितनी सफलता मिली, यह निर्णय करना सुविज्ञ पाठकों पर है। भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के पुनर्जागरण (Revival) में अनेक महान्‌ आत्माओं ने अपना योगदान दिया है। परन्तु इसके मूल उत्स या प्रेरणास्रोत वेद की ओर हमारा ध्यान किसने खींचा, इसका निर्णय स्वयं पाठक करें। दयानन्द इसलिए महान्‌ नहीं कि वे आर्यसमाज के संस्थापक थे, अपितु इसलिए कि उन्होंने वेद का उद्धार किया तथा वैदिक संस्कृति का पुनरुत्थान किया। जैसे कभी मण्डनमिश्र के द्वार पर शुकसारिकाओं में वेद के स्वत: प्रमाण अथवा परत: प्रमाण होने के बारे में चर्चा होती थी, वैसे ही विगत 140 वर्षों में आर्य समाज के मंच से विभिन्न रूपों में वेदों की चर्चा रही है और आज इसी का परिणाम है कि "आक्सफोर्ड हिस्ट्री आफ इण्डिया" में विन्सैण्ट स्मिथ ने आर्यसमाज के वेद-विषयक मत का उचित उल्लेख किया है। अन्य किसी संस्था या सम्प्रदाय को यह श्रेय नहीं मिला। महर्षि दयानन्द ने वेद में ही मानव की सब समस्याओं का समाधान ढूंढा तथा वेद में ही सब ज्ञान-विज्ञान को बताया। बर्तानिया ज्ञान का विश्वकोष इस बात को स्वीकार करता है-

    वेद के बारे में दयानन्द और उनके आर्यसमाज ने एक शताब्दी पूर्व जो स्थापनाए रखी थीं, वे आज विद्वद्‌जगत्‌ को मान्य हो चली हैं तथा इतिहासकार, वेदविद्‌ तथा संस्कृतज्ञ उनके मत को उचित स्थान देने लगे हैं। प्रश्न केवल निष्पक्ष होकर विचार करने का है। आर्यसमाज मानो रथ है और दयानन्द उस रथ के सारथि हैं और वेद मानो उनका सुदर्शन चक्र था, जिसके द्वारा उन्होंने अज्ञान अविद्या तथा अवैदिक विचारों की कौरव सेना का विध्वंस किया। सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम दस समुल्लासों में दयानन्द ने सनातन वैदिक संस्कृति के सिद्धान्तों का विशद विवेचन प्रस्तुत किया है।

    वेद आर्य अथवा भारतीय संस्कृति के उद्‌गम-स्रोत हैं। भारतीय विद्या भवन बम्बई से प्रकाशितHistory and Culture of Indian people प्रथम खण्ड की भूमिका में डा. मजुमदार इसको स्वीकार करते हैं। वेद ईश्वरीय ज्ञान है, ऋषियों ने तप एवं समाधि के द्वारा वेदमन्त्रों का साक्षात्‌ किया, दयानन्द की यह अगली स्थापना थी। डा. राधाकृष्णन जैसे दार्शनिक इस मत को स्वीकार करने लगे हैं। उनका कहना है कि वेद में वर्णित आध्यात्मिक सत्यों का धर्म एवं तपश्चर्या द्वारा पुन: साक्षात्‌ या प्रत्यक्ष किया जा सकता है।

    आर्य लोग बाहर से नहीं आए, दयानन्द की इस मान्यता को कई विद्वान्‌ स्वीकार करने लगे हैं। डा. के. एम. मुन्शी इस मत को मानते हैं तथा स्वतन्त्र लेख को भी इस विषय मेंHistory and Culture of Indian people में स्थान दिया गया है।

    वेद के विषय में दयानन्द की स्थापनाओं के सन्दर्भ में मैं अपनी ओर से अधिक कुछ न कहकर हिन्दी विश्वकोष को उदधृत करूंगा, जिसे नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी ने प्रकाशित किया है, इसका समस्त व्यय भारत सरकार ने वहन किया है। यह भी एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका की तरह हिन्दी में ज्ञान का विश्वकोष (Encyclopedia Hindi) है। इस विश्वकोष के खण्ड 11 में वेद के विषय में दामोदर सातवलेकर को प्रमाणित मानकर अक्षरश: उद्धृत किया गया है। इससे बढकर दयानन्द की स्थापनाओं की दिग्विजय और क्या हो सकती है? आर्यसमाज के लिए यह गौरव का विषय है कि अन्तत: सुधी विद्वानों ने निष्पक्षभाव से उसकी मान्यताओं का आदर किया है। सातवलेकर के बारे में पाठकों को विदित रहे कि उन्होंने ऋषि दयानन्द द्वारा प्रदर्शित पद्धति का अनुसरण किया है। दयानन्द से पहले आधुनिक समय में किसी ने वेद की ओर हमारा ध्यान नहीं खींचा। सातवलेकर के शब्दों में जो राष्ट्र के लिए श्रेष्ठ सन्देश देता है वह ऋषि कहलाता है। स्वामी दयानन्द सचमुच ऋषि थे, क्योंकि उन्होंने हिन्दुओं के पतन का सच्चा कारण देखा और उन्नति का सच्चा मार्ग भी देखा। यह सत्य दृष्टि ही ऋषि की दृष्टि है। उनके समय में बहुत से नेता थे, वे नेतागण हिन्दुओं के उद्धार का मार्ग भी सोचते थे परन्तु किसी ने वेद का मार्ग देखा नहीं। उस समय शास्त्री पण्डित भी थे, परन्तु वे बेचारे वेद को जान भी नहीं सकते थे, फिर वेद के धर्म से मानवों का त्राण होने की बात जानना और वैसा उपदेश करना तो दूर की बात है। केवल अकेले ऋषि दयानन्द जी के पास ही यह ऋषित्व आता है। इन्होंने ही यह सच्ची रीति से जाना और कहा कि वेदों को पढो और वेदोपदेश को आचरण में लाओ।

    विश्वकोष में लिखा है कि यज्ञ में पशुवध नहीं होता, क्योंकि वेद में वध करने का कोई मन्त्र नहीं है-

    ओषधे त्रायस्व स्वधिते मैनं हिंसी:। हे औषधि, इसका संरक्षण कर। हे शस्त्र, इसकी हिंसा न कर। मन्त्र का स्पष्ट भाव पशु का संरक्षण करना ही है। गोमेध में गाय का वध उचित नहीं, क्योंकि वेदों में गौ को अघ्न्या (अवध्या) कहा है। अजमेध में बकरे का वध करना अनुचित है, क्योंकि अज एक धान्य का नाम है। कोश में अज के अर्थ अजश्रृंगि-औषधि-प्रेरक-नेता-सूर्य किरण-चन्द्रमा-प्रकृति-माया आदि हैं। राष्ट्र सेवा ही अश्वमेध यज्ञ है- राष्ट्र वा अश्वमेध:। (शतपथ ब्राह्मण)

    वैदिक यज्ञों के बारे में यह स्थापना किसने की थी? पाठक स्वयं अनुमान करें।

    अथर्ववेद-अथर्ववेद का अर्थ गतिरहितता अर्थात्‌ शान्ति है। सचमुच अथर्ववेद आत्मज्ञान देकर विश्व में शान्ति स्थापना करने का महत्वपूर्ण कार्य करता है।

    अथर्वेति गतिकर्मा तत्प्रतिषेधो निपात:। (निरुक्त)

    इससे पहले तो अथर्ववेद जादू टोने चमत्कार का ही पिटारा बन गया था। दयानन्द ने उसे वेदत्व का दर्जा दिलवाया, अन्यथा उसके वेद होने को ही नकारा जाने लगा था।

    ये वेद मानव की उन्नति करने का सच्चा धर्म बतलाते हैं। ऋग्वेद (10.111.2) का उपदेश है- संगच्छध्वं संवदध्वं। हम मिलकर चलें, मिलकर बोलें, हमारे मन एक हों। यजुर्वेद (40.1) कहता है कि यह सारा संसार ईश की सत्ता से व्याप्त है, त्याग भाव से इसका उपभोग करो।

    दयानन्द की अगली स्थापना थी कि वेद में इतिहास नहीं। सातवलेकर इस सम्बन्ध में लिखते हैं कि वेद में इतिहास-पुराण की कल्पना पृथक्‌ है। भारत के ऋषि-मुनि मानवीय शरीरों की हलचल को इतिहास नहीं मानते। शरीर की हलचल मानसिक विचारों से होती है। वेद में दशरथ, दु:शासन गुणबोधक नाम है। अयोध्या नगरी शरीर को कहा है, जिसमें आठ चक्र और नवद्वार हैं। ये मानवीय भावों और विचारों का शाश्वत और सनातन इतिहास है।

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    दयानन्द का उद्देश्य कोई नवीन सम्प्रदाय अथवा मत-मतान्तर चलाने का नहीं था। उन्होंने उसी प्राचीन वेदमार्ग का पुनरुद्धार (Revival) किया जिसको ब्रह्मा से लेकर जैमिनी मुनि पर्यन्त मानते आए हैं। वेद परम प्रमाण हैं। वेद विरुद्ध जितनी भी स्मृतियॉं या ग्रन्थ हैं वे निरर्थंक हैं तथा वेद को पढना ही सबसे बड़ा तप या धर्म है। ऋषि दयानन्द ने मनु की इन धारणाओं को अक्षरश: सत्य चरितार्थ कर दिखाया। इसी कारण उन्होंने मतमतान्तरों की आलोचना की, किसी की हानि या द्वेष के भाव से नहीं।

    वर्तमान समय में जब हम एक शताब्दी बाद यतिवर दयानन्द के विचारों का मूल्यांकन (Estimate) करते हैं, तो वेद एवं वैदिक अथवा आर्य संस्कृति अथवा भारतीय संस्कृति के बारे में उनकी मौलिक स्थापनाएं मान्य एवं सत्य हो चली हैं। परन्तु मतमतान्तरों या विभिन्न धर्मों के बारे में उनके विचारों में संशोधन की आवश्यकता है तथा इसी प्रकार का दृष्टिकोण त्याज्य अथवा अपाठ्‌य ग्रन्थों के बारे में अपनाने की आवश्यकता है। विचारों की समय-समय पर पुनर्व्याख्या (Review) पुनरालोचना होती रहने से ही विचार वैज्ञानिक एवं तर्कसंगत बने रहते हैं, अन्यथा वे रूढिग्रस्त (Traditional, old) पुराने तथा असंगत हो जाते हैं। पुनरालोचन से सारतत्व (मुख्य बातें) छंट जाता है तथा गौण बातें त्याग दी जाती हैं। वेद एवं वैदिक संस्कृति का पुनरुद्धार दयानन्द का मुख्य लक्ष्य अथवा साध्य था। मतों की आलोचना तथा त्याज्य ग्रन्थों का उल्लेख यह साधन था। साधन कभी स्थायी नहीं होते, वे देशकालानुसार बदलते रहते हैं। यही दृष्टिकोण (Approach) हमें राग, द्वेष और पक्षपात से रहित होकर अपनाना होगा। विभिन्न भारतीय धर्मों एवं मतों तथा ग्रन्थों में से हम वेदानुकूल को ग्रहण कर लें। दूसरे इन सबमें मूलभूत विचार (Fundamental ideas) तो उसी वैदिक अथवा आर्य संस्कृति के ही हैं।  विभिन्न धर्मों के बारे में विगत एक शताब्दी में काफी शोध (research) कार्य हुआ है। हम नई खोज तथा नए विचारों से लाभ उठाएं।

    आज हमें कालिदास, माघ और भारवि के काव्यों को त्यागने की आवश्यकता नहीं है और न ही सांख्यतत्वकौमुदी तथा तर्कसंग्रह से डरने की आवश्यकता है। यही दृष्टिकोण तुलसी-रामायण के बारे में अपनाना है। विगत 60-70 वर्षों में इस पर काफी अनुसन्धान हुआ है। हॉं, हम इन्हें तर्क की कसौटी पर परख लें। इसी प्रकार पुराणों के बारे में भी अनेक आलोचनात्मक अध्ययन (Critical studies) या ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। स्वयं गीता प्रैस गोरखपुर से राधा और कृष्ण की तथा पुराणों में कृष्णलीला की युक्तिसंगत व्याख्या प्रकाशित हुई है। इसी प्रकार का दृष्टिकोण हमें विभिन्न मतों एवं धर्मों के बारे में अपनाने की आवश्यकता है। सब मतों की अच्छी बातें, जो-जो बातें सबके अनुकूल सत्य हैं, उनको हम ग्रहण कर लें और जो एक दूसरे से विरुद्ध हैं उनको हम त्याग दें। हमें सबको अपने साथ लेकर चलना है, समस्त मानव समाज का कल्याण करना है, सबको श्रेष्ठ बनाना है। सबकी उन्नति में हमारी उन्नति है। भारतोद्‌भूत जितने भी धर्म हैं हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख इनका मूलस्रोत तो एक ही है। ये सारे एक सनातन वैदिक धर्म या आर्य धर्म में विलीन हो जाते हैं। इसी प्रकार ईसाई तथा मुस्लिम धर्मों के प्रति भी हमें अपना दृष्टिकोण उदार तथा विस्तृत करना होगा। क्योंकि आज विज्ञान की दुनियां में समस्त मानव समाज एक इकाई (Unit of family) बन गया है।

    धर्मों एवं मतान्तरों की आलोचना से ऋषि दयानन्द का तात्पर्य था कि धर्म में तर्कसंगतता (resonability), युक्ति एवं हेतु (argument) की प्रधानता हो, अन्धविश्वास तथा आडम्बर न हो। हम बाबा-वाक्यं को प्रमाण न मानें, सत्य-असत्य की स्वयं परीक्षा तथा छानबीन करें। यही उनकी धर्म को स्थायी देन है। - प्रा. चन्द्रप्रकाश आर्य

     

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    Ved Katha Pravachan -3 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

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  • वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है, पर कैसे ?

    आर्य समाज का तीसरा नियम है- "वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है।" इस नियम को समझने के लिए ऋग्वेद का "अदिति" शब्द बहुत सहायक सिद्ध हो सकता है। अदिति के लिए ऋग्वेद (1.89.10) में निम्न मन्त्र है-

    अदिति द्यौ: अदिति अंतरिक्षं अदिति: माता स: पिता स: पुत्र:।
    विश्वेदेवा: अदिति पञ्चजना: अदिति: जातं अदिति: जनित्वम्‌।।

    संसार में जो कुछ है, वह "अदिति" है। जो दिति न हो वह अदिति होगा। "दिति" शब्द "दो, अवखण्डने" धातु से बना है। "दिति" का अर्थ है- "खण्डित"। "अदिति" का अर्थ हुआ- "अखण्डित"। खण्डित का अर्थ है- एक से दो, दो से तीन, तीन से चार- इस प्रकार बटते जाना। अखण्डित का अर्थ है- सर्वदा एक बने रहना, टुकड़ो में न बटना। जितना भौतिक ज्ञान है, जिसे हम विज्ञान कहते हैं, वह सब दिति के भीतर समा जाता है। अध्यात्म से सम्बन्धित सब कुछ अदिति है, जो जात या जनित्व है वह सब अदिति है, तो वेद भी अदिति है, सत्य भी अदिति है, वेद-ज्ञान भी "अदिति" है। वेद-ज्ञान को अदिति कहने का अर्थ हुआ अखण्डित-ज्ञान, ऐसा ज्ञान जो सदा-सर्वदा एक बना रहता है, कभी बदलता नहीं- सदा सत्य-सनातन। इसी "अदिति"- शब्द के लिए ऋग्वेद (8.18.6) में दो अन्य शब्दों का प्रयोग हुआ है जिससे हमारा विषय अधिक स्पष्ट हो जाता है। वह मन्त्र है:

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    भारत देश की गुलामी के कारण

    Ved Katha Pravachan _48 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    अदितिर्नो दिवा पशुं अदितिर्नक्तं अद्वया।
    अदिति: पात्वहंस: सदावृधा।

    इस मन्त्र में "अदिति" के लिए "अद्वय" तथा "सदावृध" शब्दों का प्रयोग हुआ है। "अद्वय" का अर्थ है- जो दो न हो। "सदावृध" का पदच्छेद करके इसके दो अर्थ हो जाते हैं। सदावृध जो सदा बढता रहेविकसित होता रहेएक से दोदो से तीनतीन से चार होता रहे बटता रहे। इसका दूसरा अर्थ है- सदा अवृध जो सदा एक रहेएक से दोदो से तीन न होनित्य सनातनएक रूप में बना रहे।

    इस प्रकार वेद ने ज्ञान को तीन भागों में विभक्त किया है- अदितिसदावृध तथा सदा+अवृध। अदिति वह ज्ञान है जो सदा रहता हैउसमें दो पक्ष नहीं हो सकते। सदावृध वह ज्ञान है जो सदा बढता रहता हैबदलता रहता हैआज यह और कल वहबढेगा तो बदलकर ही बढेगा। यह वह ज्ञान है जिसे हम आज की भाषा में "विज्ञान" कहते हैं। "सदा अवृध" वह यह ज्ञान है जिसे हम पहले "अदिति" कह आए हैं- सत्य ज्ञानअखण्डित- ज्ञानएक-ज्ञान न बदलने वाला ज्ञान या जिसे हम "ईश्वरीय ज्ञान" कह सकते हैं।

    भौतिक ज्ञान सदा बढता रहता हैसदावृध रहता हैइसका गुरु-शिष्य परम्परा द्वारा आदान-प्रदान हो सकता है या मनुष्य द्वारा आविष्कार हो सकता है। आध्यात्मिक ज्ञान सदा एक रहता है अदिति या "अद्वय" हैदो नहीं एक हैसदा-सनातन हैइसका आविष्कार नहीं हो सकतायह सदा दिया जाता है। संसार में सदा एक रहने वाली अगर कोई वस्तु है तो वह "सत्य" है, "सत्य-ज्ञान" है। सत्य सदा एक रहता हैअखण्डित रहता हैवेद के शब्दों में कहें तो सत्य सदा अद्वय हैअदिति है। यह नहीं हो सकता कि किसी बात के लिए हम कहें कि यह भी ठीक हैऔर उसकी विरोधी बात भी ठीक है। उदाहरणार्थ हिन्दू होईसाई होमुसलमान होयहूदी होपारसी हो- सभी कहेंगे कि सत्य बोलना चाहिएकोई नहीं कहेगा कि सच भी बोल सकते हैं और झूठ भी बोल सकते हैं। सब कहेंगे कि प्रेम करना चाहिएकोई नहीं कहेगा कि प्रेम भी करो और द्वेष भी करोसब कहेंगे परोपकार करना उचित हैकोई नहीं कहेगा कि परोपकार भी करोपर अपकार भी करो। कई ऐसे आधारभूत तत्व हैं जो अद्वय हैं अर्थात्‌ उनमें दो पक्ष हो नहीं सकते- ऐसा सब कोई कहते हैं।

    अगर अदिति का अभिप्राय अद्वय हैतो वेद ने इसी को उक्त मन्त्र में सदावृध या सदा बढने वाला वर्धमान क्यों कहावर्धमान तो वह तत्त्व है जो सदा बढता रहता है। छोटे से बड़ा और बड़े से बहुत बड़ा हो जाता या हो सकता है। आज जैसा हैकल वैसा नहीं हैअर्थात्‌ पहले जैसा नहीं है।

    यजुर्वेद के 40 वें अध्याय में "विद्या" तथा "अविद्या" का वर्णन आता है। वहॉं कहा गया है:

    अन्यदाहु: विद्या अन्यदाहु: अविद्या।
    इति शुश्रुम घीराणां येनस्तद्‌ व्याचचक्षिरे।।

    विद्यां च अविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह।
    अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते।।

    इन मन्त्रों का अभिप्राय यह है कि अविद्या से मृत्यु को तर जाते हैं और विद्या से अमृत की प्राप्ति होती है। कितनी बेतुकी बात लगती है यह। यदि अविद्या से मृत्यु को तर जाते हैं तब तो सबका लक्ष्य अविद्या होना चाहिए। परन्तु नहींवेद में तथा उपनिषद्‌ में विद्या तथा अविद्या का अर्थ क्रमश: ज्ञान तथा अज्ञान नहीं है। वैदिक परिभाषाओं तथा लौकिक परिभाषाओं में जमीन आसमान का भेद है। वेदों तथा उपनिषदों में भौतिकवाद को अविद्या कहा गया हैअध्यात्मवाद को विद्या कहा गया है। यह स्पष्ट है कि भौतिक औषधियों के सेवन से रोग की मुक्ति होती हैदीर्घ जीवन हो सकता हैमृत्यु से लड़ा जा सकता है। इसी कारण तो कहा- अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा- अविद्या से भौतिकवाद सेमृत्यु को तो तरा जा सकता है। परन्तु विद्यया-अमृतमश्नुते- अमृत की प्राप्ति "विद्या" से ही होती है। यहॉं विद्या का अर्थ पढने-पढाने की विद्या से नहींआत्मज्ञान की विद्याअध्यात्मवाद की विद्या है।

    हमारा ज्ञानज्ञान तभी कहला सकता है जब वह वर्धमान होआगे-आगे बढेउन्नति करे। आज का वैज्ञानिक-जगत इसलिए श्रेयकर माना जाता है क्योंकि आज जो बात ठीक मानी जाती हैकल रिसर्च या परीक्षण या खोज करते-करते गलत मालूम पड़ने पर छोड़ दी जाती है। अगर विज्ञान किसी जगह आकर खड़ा हो जाएरुक जाएतो वह फेंक देने लायक होगा। परन्तु यह बात भौतिक-विज्ञान पर ही लागू होती हैआध्यात्मिक विज्ञान पर नहीं। अध्यात्म सदा "अद्वय" तथा "वर्धमान" होता हुआ भी "अवर्धमान" (सदा+अवृध) होता है। हिंसा से शुरू कर मनुष्य "अहिंसा" पर जाकर रुकता हैअसत्य से शुरू कर सत्य की खोज में भटकता हैचोरी-डाके-स्तेय से चलता-चलता अस्तेय को लक्ष्य बनाता हैअब्रह्मचर्य तथा पर-दारा-गमन से गुजरता सदाचार तथा ब्रह्मचर्य को ही जीवन का लक्ष्य बनाता हैछीना-झपटी से जीवन शुरू कर "अपरिग्रह" को ही सामाजिक-जीवन लक्ष्य बनाता है। भौतिक तत्व जब तक वर्धमान तक सीमित रहते हैंतब तक जीवन अपने लक्ष्य को न हीं पकड़ताजब जीवन के वर्धमान तत्व "अवर्धमान" हो जाते हैंवे अहिंसासत्यअस्तेयब्रह्मचर्यअपरिग्रह तक पहुंच जाते हैंतब मनुष्य "अद्वय", "अदिति", "अवर्धमान" कोजीवन के सनातन सत्य को पा लेता है। उसी अद्वयअदितिअखण्डित सत्य का वर्णन वेद में किया गया है।

    वेदों में मुख्यतौर पर "वर्धमान" तत्वों काभौतिकवाद का वर्णन नहीं है। क्योंकि ये तत्व भौतिकवाद का अङ्ग होने के कारण परिवर्तनशील हैं। वेदों में "अवर्धमान" तत्वों काआध्यात्मिक तथ्यों का वर्णन है क्योंकि वे नित्य हैंअपरिवर्ततनशील है क्योंकि वे नित्य हैंअपरिवर्ततनशील हैं। ज्ञान जब बढेगा तो बढते-बढते उसकी भी सीमा कभी-न-कभी आयेगी। वृक्ष ऊँचा जाता हैपरन्तु कहीं तो रुक जाता है। "वर्धमान" जब "अवर्धमान" हो जाता हैतब वही "अद्वय" हो जाता हैअदिति हो जाता है। भौतिकवाद जहॉं रुक जाता है वहॉं अध्यात्मवाद शुरु हो जाता है।

    ज्ञान या तो वर्धमान होगा या अवर्धमान होगा। "वर्धमान" ज्ञान भौतिक हैसमय-समय पर मनुष्य की खोज के आधार पर बदलता रहता है इसलिए बढता भी रहता है। "अवर्धमान" ज्ञान आध्यात्मिक हैनित्य हैसनातनएक हैअद्वय हैअदिति हैबदलता नहीं है। क्योंकि वेद का ज्ञान मनुष्य की खोज नहीं हैईश्वरीय देन हैइसलिए उसे वेद ने "अद्वय" तथा अदिति कहा है। परन्तु ज्ञान का स्रोत मनुष्य तथा ईश्वर दोनों हैं- इसलिए ज्ञान को वेद ने सदावृध भी कहा है। सदावृध शब्द के यहॉं दो अर्थ किए गए हैं। सदावृध संस्कृत भाषा का विलक्षण शब्द है जिसमें ज्ञान के मानुषीय तथा ईश्वरीय दोनों पक्ष आ जाते हैं। "सदा+वृध" मानुषीय ज्ञान है, "सदा+अवृध"ईश्वरीय या वेद ज्ञान है।

    जबकि हम कहते हैं कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक हैतब हमारा अभिप्राय क्या होता हैक्या यह अभिप्राय होता है कि वेद में फिजिक्सकैमेस्ट्री आदि सब कुछ है। क्या रेलहवाई जहाजतारटेलीफोन आदि बनाना सब सत्य विद्यायें वेद में हैंअगर वेद में फिजिक्सकैमिस्ट्रीरेलतारहवाई जहाज आदि सब कुछ है तो भगवान ने मनुष्य को अपने मस्तिष्क से सोचने समझनेखोजने के लिए क्या कुछ भी नहीं छोड़ाहमें इस बात का भी उत्तर देना होगा कि सब भौतिक आविष्कार उन लोगों ने कैसे किये जो वेद का एक अक्षर भी नहीं जानते थे। वास्तविक स्थिति यह है कि वेदों में भौतिक-विद्याओं का बीज तो है परन्तु उसे पुष्पित तथा फलित या क्रियात्मक रूप देने के लिए उपवेदों की रचना की गई। उपवेदों का निर्माण इसलिए हुआ ताकि वेदों में जिन भौतिक विद्याओं का बीज थापरन्तु उसकी प्रधानता न थीउपवेदों द्वारा उनका विशदीकरण किया जाये।

    वेद में जो भी वैज्ञानिक बात कही गई हैवह उदाहरण या उपमा के रूप कही गई है। मुख्य रूप में नहीं कही गई है। उदाहरणार्थ यजुर्वेद के 23 वें अध्याय में यज्ञ का वर्णन करते हुए कहा है- पृच्छामि त्वां परमन्त: पृथिव्या: -मैं पूछता हूँ पृथ्वी का परम छोर क्या हैइसका उत्तर देते हुए कहा गया है "इयं वेदि: परो अन्त: पृथिव्या:"- यह वेदी जहॉं हम यज्ञ कर रहे हैंपृथ्वी का परला सिरा है। इसका अर्थ हुआ कि पृथ्वी गोल है जिसे सिद्ध करने के लिए गैलिलियो को जेल जाना पड़ा था। प्रत्येक गोल वस्तु का आदि तथा अन्त एक ही स्थल होता हैपरन्तु यह कथन भूगोल या भूगर्भ के रूप में नहीं कहा गयायज्ञ के विषय में उदाहरण के रूप में कहा गया है। हमारा कथन है कि वैज्ञानिक या भौतिक तथ्यों को परमात्मा की तरफ से बतलाए जाने की जरूरत नहींउनका आविष्कार करने के लिए भगवान्‌ ने मनुष्य की बुद्धि दी है। आध्यात्मिक तथ्यों को ही वेद द्वारा दिया गया है। अध्यात्म-विद्या ही सत्य विद्या हैवही अद्वय हैवही अदिति हैवही अवर्धमान हैवही विद्या है। भौतिक-विद्या को वेद ने "सदावृद्ध"- सदा बढने वाली विद्या कहते हुए भी "अविद्या" कहा है। भौतिक-विद्या को अविद्या कहते हुए भी जीवन के लिए उपयोगी होने के कारण उसे भी वेद ने सम्मान का स्थान देते हुए कहा है- "अविद्यया मृत्युं तीत्वा"- अविद्या से मृत्यु को तो तरा ही जा सकता हैपरन्तु अमरत्व तो अध्यात्म से ही प्राप्त होता है।

    तो क्या वेद में विज्ञान नहीं हैहमारा उत्तर है- वेद में विज्ञान हैऔर अवश्य है परन्तु ऐसा विज्ञान जो नित्य हैअखण्ड हैजो सदा-अवृध हैजो बदलता नहीं है। जो विज्ञान बदलता रहता हैवह वेद की परिभाषा में अविद्या हैसदावृध- सदा-वर्धमान है। सदावृध- सदा वर्धमान ज्ञान मनुष्य के हाथ में है"सदा-अवृध" - सदा एक रहने वाला ज्ञान वेद द्वारा भगवान्‌ मानव को देता है। -प्रो. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार

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    In this mantra, the words "Adavya" and "Sadavridha" are used for "Aditi". "Advay" means no two. It has two meanings by "Padavadh". Sadavriha, which continues to grow, continues to grow, growing from one to two, two to three, three to four. Its second meaning is to always be the one who always remains one, not one to two, two to three, always in a form.

     

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  • वेद सौरभ - चार वर्ण

    3म्‌  ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्‌ बाहू राजन्यः कृतः।
    ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्‌भ्यां शूद्रो अजायत।।(यजुर्वेद31.11)

    शब्दार्थ- (अस्य) इस सृष्टि का, समाज का (ब्राह्मणः मुखम्‌ आसीत्‌) ब्राह्मण मुख के समान है, होता है (बाहू राजन्यः कृतः) क्षत्रिय लोग शरीर में विद्यमान भुजाओं के तुल्य हैं (यत्‌ वैश्यः) जो वैश्य हैं (तत्‌) वह (अस्य ऊरू) इस समाज का मध्यस्थान, उदर है (पद्‌भ्याम्‌) पैरों के लिए (शूद्रः अजायत) शूद्र को प्रकट किया गया है।

    भावार्थ- इस मन्त्र में अलंकार के द्वारा चारों वर्णों का स्पष्ट निर्देश है। मुख की भॉंति त्यागी, तपस्वी, ज्ञानी मनुष्य ब्राह्मण पद का अधिकारी होता है।

    भुजाओं की भॉंति रक्षा में तत्पर, लड़ने-मरने के लिये सदा तैयार अपने प्राणों को हथेली पर रखने वाले क्षत्रिय होते हैं।

    उदर की भॉंति ऐश्वर्य और धन-धान्य को संग्रह करके उसे राष्ट्र के कार्यों में अर्पित करने वाले व्यक्ति वैश्य होते हैं।

    जैसे पैर समस्त शरीर का भार उठाते हैं, उसी प्रकार सबकी सेवा करने वाले शूद्र कहलाते हैं।

    समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिये इन चारों वर्णों की सदा आवश्यकता रहती है। आज के युग में भी अध्यापक, रक्षक, पोषक और सेवक ये चार श्रेणियॉं हैं ही। नाम कुछ भी रक्खे जा सकते हैं, परन्तु चार वर्णों के बिना संसार का कार्य चल नहीं सकता। 

    इन वर्णों में सभी का अपना महत्व और गौरव है। न कोई छोटा है, न कोई बड़ा, न कोई ऊँच है और न कोई नीच तथा न ही कोई अछूत है। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

    Ved Katha Pravachan _98 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

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    These four varnas are always needed to run the society smoothly. Even today, these four categories are teachers, guards, nurturers and servants. Names can be saved, but without four characters the work of the world cannot go on.

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  • वेद-सौरभ - यज्ञोपवीत

    3म्‌ स सूर्यस्य रश्मिभिः परिव्यत तन्तुं तन्वानस्त्रिवृतं यथा विदे।
    नयन्नृतस्य प्रशिषो नवीयसीः पतिर्जनीनामुपयाति निष्कृतम्‌।।
    (ऋग्वेद9.86.32)

    शब्दार्थ - (सूर्यस्य रश्मिभिः) ज्ञान-रश्मियों से (परिव्यत) आवृत, परिवेष्टित आत्मावाला (सः) वह गुरु (त्रिवृतं तन्तुं) तीन बटवाले धागे, यज्ञोपवीत को (तन्वानः) धारण कराता हुआ (यथा विदे) सम्यक्‌ ज्ञान के लिए (ऋतस्य) सृष्टि-नियम की (नवीयसीः) नवीन, अति उत्तमोत्तम (प्रशिषः) व्यवस्थाओं का (नयन्‌) ज्ञान कराता हुआ (पतिः) उनका पालक होकर (जनीनाम्‌) सन्तानोत्पादक माताओं के (निष्कृतम्‌ उपयाति) सर्वश्रेष्ठ पद को प्राप्त करता है।

    Ved Katha Pravachan _100 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    भावार्थ - 1. जिसकी आत्मा सूर्य के समान देदीप्यमान होऐसा व्यक्ति ही गुरु होने के योग्य है।2. ऐसा गुरु ही शिष्य को यज्ञोपवीत देने का अधिकारी है। 3. गुरु का कर्त्तव्य है कि वह अपने शिष्य को सम्यक्‌ ज्ञान कराए। 4. गुरु को योग्य है कि वह अपने शिष्य को सृष्टि-नियमों का बोध कराएं। 5. गुरु को शिष्यों का पालक और रक्षक होना चाहिए। 6. ऐसे गुणों से युक्त गुरु माता की गौरवमयी पदवी को प्राप्त होता है। माता के समान गौरव और आदर पाने योग्य होता है। 

    मन्त्र में आये "तन्तुं तन्वानास्त्रिवृतम्‌शब्द स्पष्ट रूप में यज्ञोपवीत धारण करने का संकेत कर रहे हैं।स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

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    Connotation- 1. Only a person whose soul is resplendent like the Sun is eligible to be a Guru. 2. Only such a master is entitled to offer the yagyopaveet to the disciple. 3. It is the duty of the Guru to make his disciple get proper knowledge. 4. The Guru is able to make his disciple understand the rules of creation. 5. The Guru should be the foster and protector of the disciples. 6. With such qualities, one attains the glorious status of Guru Mata. It is worthy of pride and respect like a mother.

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  • वैदिक धर्म और विज्ञान

    आज धर्म से मानव-समाज को घृणा हो रही है। इस समय धर्म विश्व के लिए अभिशाप बन गया है। हमारा तात्पर्य धर्म के मौलिक नियमों से नहीं है, इन्हें तो सब मानते हैं। दया, करुणा, मैत्री आदि को तो सब स्वीकार करते हैं। किन्तु यहॉं हमारा प्रयोजन व्यक्ति विशेष द्वारा संचालित मत, मजहब अथवा फिरका से है, जिनके कारण विश्व में सुखपूर्वक जीवन-यापन करना दूभर हो गया है। इस्राइल (यहूदी) और फिलिस्तीनी (मुसलमानों) की लड़ाई धार्मिक है। तेल अबीब के हवाई अड्‌डे पर गोली मारकर निरीह लोगों की हत्या की गई, इसलिए कि वे यहूदी थे, मूसा को अपना पैगम्बर मानते थे, तौरेत इनकी धर्म पुस्तक है। लीबिया के छापामार दस्ते ने इस्रायल के गांवों में घुसकर 10-11 वर्ष के बच्चों की मार्मिक हत्या की, जिसे सुनकर मानवता कांप उठती है। बेरुत में ईसाई और मुसलमानों के रक्त से सड़क गीली हो गई थी। उसी प्रकार पाकिस्तान मेें शिया-सुन्नी का द्वन्द्व तथा बेचारे अहमदिया मुसलमान, गैर मुस्लिम घोषित हो गये हैं। क्योंकि उनका अपराध यह है कि उन्होंने हजरत मुहम्मद को अन्तिम "नबी" नहीं स्वीकार किया है। अमेरिका में राष्ट्रपति कैनेडी की हत्या भी मजहबी जहर था।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    गायत्री उपासना से प्रभु का सन्मार्गदर्शन एवं प्रेरणा

    Ved Katha Pravachan _45 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    उपर्युक्त घटनाए तो इस युग की हैं। सेमेटिक विचारधारा का पुराना इतिहास तो निरीह मानव के रक्त से रंजित हैजो बिना कारण धर्म के नाम पर मारे गए। यह मतमतान्तर विज्ञान की प्रगति में भी बाधक रहा है। ब्रूनोगैलेलियो आदि को निर्मम यातनाएं सत्य का प्रकाश  करने के कारण हुई। अरब  के खलीफा ने रेखागणित की पढाई इसलिए बन्द कर दीक्योंकि पाइन्ट (बिन्दु) की परिभाषा खुदा से मिलती है। स्पेन के कारडोवा विश्व विद्यालय में बीज गणित की पढाई बन्द कर दी गईक्योंकि यह जादू-टोना मालूम पड़ता है। उस समय स्पेन में जादू-टोना कानून के विरुद्ध था।

    इन सबों का कारण व्यक्ति विशेष द्वारा स्थापित "मत" या "मजहब" है। यद्यपि इन मजहबों के संस्थापकों का उद्देश्य पवित्र था। वे उस समय की परिस्थिति में मानवता का उपदेश कर चले गए। किन्तु पश्चात उनके अनुयायियों ने उपदेश को न समझकर व्यक्ति पूजा में विरत हो अनके प्रकार के अत्याचार तथा अनाचार का सृजन किया।

    इसका कारण व्यक्ति पूजा (पर्सनल कल्ट) ही है। तर्कबुद्धि को तिलांजलि देकर व्यक्ति-विशेष को अतिमानव मानना तथा विज्ञान विरुद्ध चमत्कारों में विश्वास करना है। विश्व के सम्पूर्ण धर्म प्रचारकों ने यद्यपि स्वीकार किया है कि मैं कोई नयी शिक्षा का उपदेश नहीं दे रहा हूँतथापि अपने अनुयायियों को अपना भक्त बनाने का प्रयास किया है।

    श्री कृष्ण ने कहा है- मद्याजी मां नमस्कुरु। अर्थात्‌ मेरे साथ चलोमेरी पूजा करो- अहम्‌ त्वा सर्वं पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच। अर्थात्‌ मैं तुम्हारे सारे पापों को धो डालूंगामत चिन्ता करो। ईसामसीह की भी यही घोषणा थी- तुम्हारे सारे पापों को लेकर सूली पर चढ रहा हूँ । मुझ पर विश्वास करोस्वर्ग का राज मिलेगा। भगवान गौतमबुद्ध ने मृत्यु के समय रोते हुए अपने प्रिय शिष्य आनन्द से कहा कि मेरे मरने के बाद मेरा उपदेश ही तुम लोगों के लिए दीपक का काम करेगा। मूसा और जरथुस्त ने भी इसी प्रकार का आदेश अपने अनुयायियों को दिया था। सिख गुरुओं के अनुयायी तो उनके ग्रन्थों को ही साक्षात्‌ गुरु मानकर पूजा करते तथा पंखा झलते हैं। बाइबिल कहती है- धन्य वे हैंजो अपने वस्त्र धो लेते हैंक्योंकि उन्हें जीवन के पेड़ के पास आने का अधिकार मिलेगा और वे फाटकों से होकर नगर में प्रवेश करेंगे। पर कुत्तेटोन्हे और व्यभिचारी तथा हत्यारे और मूर्ति पूजक व हर एक झूठ चाहने वाला और गढने वाला बाहर रहेगा। "प्रकाशित वाक्य"

    किन्तु आज ईसाई सबसे अधिक मूर्तिपूजक हैंकिन्तु केवल ईसा मसीह की मूर्ति के। हजरत मुहम्मद ने एक खुदा का उपदेश दियाबुतपरस्ती का प्रबल विरोध किया। एक अल्लाह का उपदेश दियाकिन्तु कलमा में अल्लाह के साथ अपना नाम जोड़ दिया। बिना मुहम्मद के कलमा पूर्ण नहीं माना जाएगा। उसका परिणाम यह हुआ कि नई मूर्तिपूजा कब्र की पूजा होने लगी । मुहम्मद के कब्र पर सबसे अधिक रतू चढाये गये हैं।

    इनमें महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ऐसे हैं जिन्होंने कहा कि हमारा कोई अपना मत नहीं हैतुम से कोई पूछे कि तुम्हारा क्या धर्म हैतब कहो मेरा धर्म वेद है। वेद का अर्थ ज्ञान होता हैवैदिक धर्म का अर्थ ज्ञान का धर्म अर्थात वैज्ञानिक धर्म है।

    महाभारतकार कहते हैं-

    सर्व विदु: वेद विदोवेदे सर्वं प्रतिष्ठितम्‌।

    वेदे हि निष्ठा सर्वस्य यद्‌ यदस्ति च नास्ति च। (शान्ति पर्व)

    मनु ने कहा है- सर्व वेदाद्‌ हि निर्ममौ।

    वैदिक धर्म विज्ञान का विरोधी कभी न रहान वह विज्ञान की प्रगति में बाधक ही बना। गणितज्योतिषरेखागणितबीजगणितवैशेषिक (रसायनभौतिकी)आयुर्वेद आदि शास्त्रों का उद्‌गम वेद ही हैऐसा शास्त्रकार प्रतिपादन करते हैं।

    नारद ने सनत्कुमार से कहा- ऋग्वेदं भगवोध्येमियजुर्वेदं सामवेदमाथर्वणाम्‌ चतुर्थमितिहासं पुराणं पंचमं वेदानां वेदं पित्रम्‌ राशिं दैवं निधिंवाकोवाक्यम्‌ एकायनम्‌ देवविद्याम्‌ ब्रह्मविद्याम्‌भूतविद्याम्‌क्षत्रविद्याम्‌नक्षत्रविद्याम्‌सर्पदेव जन विद्याम्‌ एतद्‌ भगवोऽध्येमि सोऽहं भगवो मन्त्र विदेवोस्मि नात्मवित्‌। श्रुत ह्येव मे भगव: शोचामि तं मा भगवान्‌ शोकस्य पारं तारयत्विति तं हो वाच। यद्वै किंचैतद्‌ अध्यगीष्ठा नामवैदद्‌। (छान्दोग्य उपनिषद्‌‌‌)

    यहॉं पर नारद ने 14 विद्याओं का उल्लेख कियाजिन्हें वे जानते हैं। किन्तु सनत्‌कुमार से प्रार्थना करते हैं कि महाराज! मैं मन्त्रविद्‌ हूँ किन्तु आत्मविद्या जानना चाहता हूँ। अत: मुझे आत्मविद्या का उपदेश कीजिए।

    स सर्वविद्या प्रतिष्ठा मधवीय ज्येष्ठ पुत्राय प्राह-मुराऽकोपहि। अर्थात्‌ अन्होंने सारी विद्याओं का आधार ब्रह्मविद्या का उपदेश किया। यहॉं पर ब्रह्मविद्या को सारी विद्या का आधार कहा गया है। इससे सिद्ध होता है कि वैदिक धर्म विज्ञान की प्रगति का बाधक नहीं रहा है। और मजहबों का कहना है कि मजहब में अकल का दखल नहीं है। वैदिक धर्म तो तर्क द्वारा खरा उतरने वाले को ही धर्म मानता है।

    मनु महाराज कहते हैं- यस्तर्केणानुसन्धत्तेस धर्म वेद नेतर:। अर्थात्‌ जो तर्क से अनुसंधान करता हैवही धर्म को जानता है।

    गीताकार की उक्ति है- तं विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। अर्थात्‌ तुम उस तत्व को प्रश्न पर प्रश्न कर समझो। विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु। अर्थात्‌ विचार कर जैसा चाहो वैसा करो।

    विज्ञान का उद्देश्य सत्य की खोज है। वैदिक धर्म का भी उद्देश्य सत्य की खोज एवं उसकी प्राप्ति है। अत: वैदिक धर्म विज्ञान का विरोधी नहीं अपितु पूरक है।

    इतिहास इस बात का साक्षी है कि वैदिक युग में काफी तर्क व विचार विमर्श के बाद तत्व का निर्णय होता था। वृहदारण्यक उपनिषद्‌ में याज्ञवल्क्य एवं मैत्रेयी का सम्वाद सर्वविदित हैजिसमें प्रत्येक जनपद के दार्शनिक एकत्र हो तत्व का निर्णय करते थे।

    निरुक्त में लिखा है कि ऋषियों के दिवंगत हो जाने के बाद तर्क ही ऋषि हैं। अत: धर्म और विज्ञान में साम्य है।

    स्वामी दयानन्द ने इसी वैदिक धर्म की ओर लौटने का आदेश दिया। जहॉं पर जात-पांतिकाला-गोरादेश अथवा विदेश का भेद नहीं है। मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षान्ताम्‌। मित्र की दृष्टि से सारे प्राणियों को देखो।

    स्वामी जी ने इसी वैदिक धर्म के प्रचारार्थ आर्य समाज की स्थापना की। आर्य का अर्थ होता हैप्रगतिशीलज्ञानी। आर्य समाज का अर्थ ही प्रगतिशीलों तथा ज्ञानियों का समाज है। - आचार्य रामानन्द शास्त्री (सन्दर्भ : सार्वदेशिक दिल्ली29 अक्टूबर 1995)

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    The reason for all this is the "vote" or "religion" established by the individual. Although the purpose of the founders of these religions was sacred. He went on preaching humanity under the circumstances of that time. But after that, his followers did not understand the teachings and the person should be engrossed in worship and created many types of atrocities and incest.

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  • वैदिक विनय - अमरता

    3म्‌ जुहुरे चितयन्तोऽनिमिषं नृम्णं पान्ति।
    आ दृळहां पुरं विविशुः।। ऋग्वेद5.11.2।।

    ऋषिः आत्रेयो वव्रिः।। देवता अग्निः।।छन्दः गायत्री।।

    विनय -एक नगर है जो कि बिलकुल दृढ़ है, अभेद्य है। इसमें पहुंच जाने पर हम पर किसी भी शत्रु का आक्रमण सफल नहीं हो सकता। क्या कोई उस स्थान पर पहुँचना चाहता है? वहॉं पहुँचने का मार्ग कुछ विकट है, कड़ा है, आसान नहीं है। वहॉं पहुँचने वालों को ज्ञानपूर्वक स्वार्थ-त्याग करते जाना होता है और सदा जागते हुए अपने "नृम्ण' की, आत्म-बल की रक्षा करते रहना होता है। ये दो साधनाएँ साधनी होती हैं। कई लोग अपने कर्त्तव्य व उद्देश्य का बिना विचार किये यूँ ही जोश में आकर "आत्म-बलिदान' कर डालते हैं। ऐसा करना आसान है, पर यह सच्चा बलिदान नहीं होता। इससे यथेष्ट फल नहीं मिलता।

    Ved Katha Pravachan _99 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    इस पवित्र उद्देश्य के सामने अमुक वस्तु वास्तव में तुच्छ हैइसलिए अब इस वस्तु को स्वाहा कर देना मेरा कर्त्तव्य हैइस प्रकार के स्पष्ट ज्ञान के बिना आत्म-बलिदान के नाम से वे आत्मघात कर रहे होते हैं। वहॉं पहुँचने के लिए तो आत्मा का घात नहींकिन्तु आत्मा की रक्षा करनी होती है। हम लोग प्रायः क्रोध करकेअसत्य बोलकरइन्द्रियों को स्वच्छन्द भोगों में दौड़ाकर अपना आत्म-तेजआत्मवीर्यआत्मबल खोते रहते हैंपर धीर पुरुष अपने इस "नृम्ण'=आत्मबल की बड़ी सावधानी सेसदा जागरूक रहते हुए बड़ी चिन्ता से रक्षा करते हैं। वे पल-पल में अपनी मनोगति पर भी ध्यान रखते हुए देखते रहते हैं कि कहीं अन्दर कोई आत्मबल का क्षय करने वाला काम तो नहीं हो रहा है। इस प्रकार रक्षा किया हुआ आत्मबल ही उस दृढ़ पुरी में पहुँचाने वाला है। वास्तव में ये दोनों साधनाएँ एक ही हैं। यदि हम इनके इस सम्बन्ध पर विचार करें कि ऐसे लोग आत्मबल की रक्षा करने के लिए शेष प्रत्येक वस्तु का बलिदान करने को उद्यत रहते हैं और ये सदा इतने सत्य के साथ आत्मबलिदान करते जाते हैं कि उनके प्रत्येक आत्मबलिदान का फल यह होता है कि उनका आत्मबल बढ़ता है। आओ! हम भी आत्महवन करते हुए और आत्मबल की रक्षा करते हुए चलने लगें तथा उस मार्ग के यात्री हो जाएं जोकि अभयताअजातशत्रुताअमरता और अभेद्यता की दृढ़ पुरी में पहुँचाने वाला है। 

    शब्दार्थ - जो वि चियन्तो जुहुरे=ज्ञानपूर्वक स्वार्थ-त्याग करते हैं और अनिमिषं नृम्णं पान्ति=लगातार जागते हुए अपने आत्मबल की रक्षा करते हैं ते=वे दृळहां पुरम्‌=दृढ़-अभेद्य नगरी में आविविशुः= प्रविष्ट हो जाते हैं। आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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    Vinay - A city that is absolutely resolute, impenetrable. On reaching it, no enemy attack can succeed on us. Does anyone want to reach that place? The way to reach there is a bit difficult, difficult, not easy. Those who reach there have to go with self-sacrificing knowledge and keep on guarding the self-strength of their "nirma", always awake. These two practices are spiritual. Many people do not consider their duty and purpose. He gets excited and commits "self-sacrifice". This is easy to do, but it is not a true sacrifice. It does not yield enough fruit.

     

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  • वैदिक संस्कृति की गंगा बन्द न होने देना

    ओ3म्‌ अच्छिन्नस्य ते देव सोम सुवीर्यस्य रायस्पोषस्य ददितारः स्याम।
    सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा स प्रथमो वरुणो मित्रो अग्निः।। यजु. 7.14।।

    अर्थ- (देव) हे दिव्य शक्तियों के भण्डार (सोम) सब प्रकार के ऐश्वर्य और शान्ति के निधि प्रभो!  हम (अच्छिन्नस्य) निरन्तर अबाध होकर बहने वाले (ते) तेरे (सुवीर्यस्य) सुवीर्य और (रायस्पोषस्य) ऐश्वर्य और उससे प्राप्त होने वाली पुष्टि के (ददितारः) देने वाले (स्याम) बनें। वह सुवीर्य और रायस्पोष कौन-सा है अथवा कहॉं से आता है ? कहते हैं (विश्ववारा) सबके वरण करने योग्य (सा) वह (प्रथमा) सबसे पहली (संस्कृतिः) वैदिक संस्कृति है। इस संस्कृति का उद्‌गम स्थान कौन है ? कहते हैं (सः) वह (प्रथमः) सबसे पहला (वरुणः) वरण करने योग्य अथवा पाप से बचाने वाला (अग्निः) सबको गर्मी और प्रकाश देकर आगे ले जाने वाला (मित्रः) सबका हित चाहने वाला मित्र तू ही है। 

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    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    वेद में शान्ति और सोम का स्वरूप (वेद कथा)
    Ved Katha Pravachan _61 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    भगवान्‌ वरुण हैं। वे सबके वरण करने योग्य हैं। उनकी प्राप्ति से बढ़कर कोई और चीज मनुष्य के लिये हितकारी नहीं हो सकती। मनुष्य सारी उन्नति और तरक्की इसीलिए करता है कि वह सुखी होना चाहता है। पर उसकी यह पूर्ण सुखी होने की हार्दिक इच्छा जगत्‌ में पूरी नहीं हो सकती, चाहे वह कितनी ही आश्चर्यजनक सांसारिक उन्नति कर ले। इस सांसारिक उन्नति से उसके सुख की मात्रा थोड़ी-बहुत बढ़ सकती है, पर पूर्ण आनन्दवान्‌ होने की उसकी इच्छा यहॉं पूरी नहीं हो सकती। कोई भी सांसारिक जीवनचर्या का गम्भीर निरीक्षण करने वाला इस सच्चाई का अनुभव कर सकता है। पूर्ण सुखी होने की मनुष्य की इच्छा प्रभु को प्राप्त करने पर ही पूरी हो सकती है। क्योंकि एकमात्र प्रभु ही पूर्ण सुखी हैं, आनन्दस्वरूप हैं। इसलिये प्रभु ही सबके सबसे अधिक वरणीय हैं। वह प्रभु पाप के निवारण करने वाले भी हैं। सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों के कल्याण के लिये दिये गये अपने ज्ञान-राशि वेद के द्वारा वे मनुष्य के आगे पाप से बचने के लिये धर्म का स्वरूप खोलकर रख देते हैं। जो प्रभु के साथ अपना गाढ़ा सम्बन्ध जोड़ लेते हैं, उनके हृदयों में पाप मार्ग से बचने के लिये प्रेरणा भी प्रभु करते रहते हैं। जो पाप-मार्ग को छोड़कर धर्म-मार्ग पर चलते हैं, उन्हें एक न एक दिन आनन्द-धाम प्रभु का साक्षात्‌ हो ही जाता है। 

    प्रभु अग्नि हैं। वे गरमी और रोशनी को देकर  सबके जीवनों को उन्नति के मार्ग में आगे ले जाते हैं। धर्म के मार्ग में उन्नति करने के लिये गरमी और रोशनी की जरूरत है। अज्ञानी और ठण्डा पड़ गया मनुष्य उन्नति नहीं कर सकता। धर्म के मार्ग में तो और भी नहीं कर सकता। प्रभु हमें ज्ञान का प्रकाश देने वाले हैं। वेद द्वारा और प्रभु के लिये आत्मार्पण कर चुके हृदयों में प्रेरणा द्वारा प्रभु का प्रकाश मिलता है। बल भी हमें प्रभु की कृपा से ही मिलता है। इसे कोई भी संसार का और अपना गम्भीर निरीक्षण करने वाला आसानी से समझ सकता है। परन्तु प्रभु के लिये आत्मार्पण कर देने वाले भक्तों के हृदयों में जो बल का अथाह और असीम समुद्र हिलोरें लेने लगता है, वह किसी भी पहुँचे हुए प्रभुभक्त के जीवन में स्पष्ट देखा जा सकता है। इन लोगों में युगान्तर उपस्थित कर देने की शक्ति पैदा हो जाती है। प्रभु सचमुच में अग्नि हैं। 

    साथ ही वह प्रभु मित्र भी हैं। प्रभु की वरणीयता और अग्निरूपता हमारे लिये किस काम की, यदि वे हमारे लिये न हों। पर प्रभु तो हमारे मित्र हैं, हमारा परम हित चाहने वाले हैं। उनका सब कुछ हमारे हित और कल्याण के लिये है। वे हमारे मित्र होकर खुले हाथों अपनी वरणीयता और अग्निरूपता लुटा रहे हैं। जो चाहे लेकर अपने को निहाल कर लें। 

    पर हमें तो प्रभु की वरणीयता और अग्निरूपता कहीं लुटती नजर नहीं आती, कहॉं जाकर उसे लें? कहा कि संसार के आरम्भ में मनुष्य मात्र का ही नहीं, अपितु प्राणिमात्र का कल्याण करने के लिये प्रभु ने जो वैदिक संस्कृति दी थी उसका अध्ययन करो, मनन करो और उसे समझो तथा फिर करो उसके अनुसार अपना आचरण। फिर देखो क्या होता है! तुम्हें प्रभु की वरुणरूपता भी समझ में आ जायेगी और अग्निरूपता भी। तुम्हारे पास न बल और पराक्रम की कमी रहेगी,न धन-दौलत की। बल और पराक्रम कैसा? सुवीर्य। उससे किसी का अनिष्ट और बिगाड़ नहीं होना चाहिए। उसका उपयोग सबकी भलाई और कल्याण में होना चाहिये। फिर धन-दौलत कैसी? जिससे तुम्हें पुष्टि भी मिलती हो। वह खाली "रै' न होकर रायस्पोष हो, पुष्टि देने वाली हो। फिर इस सबके स्वीकार करने योग्य संस्कृति के अध्ययन, मनन और तदनुकूल आचरण से खाली इस दुनिया की धन-दौलत ही नहीं मिलेगी, तुम सबसे कीमती, सबसे प्यारी, सबसे स्थायी दौलत के अधिकारी हो जाओगे। तुम पूर्ण सुख के धाम आनन्दस्वरूप भगवान्‌ के प्रत्यक्ष साक्षात्कार के अधिकारी हो जाओगे, जिसके सम्बन्ध में स्वयं वेद ने कहा है- "रसेन तृप्तो न कुतश्चनोनः'। (अथर्ववेद 10.8.44) वह रस से तृप्त है, उसमें रस की कहीं कुछ कमी नहीं है। 

    वैदिक-संस्कृति का अनुशीलन करने वाले और उसके फलस्वरूप अपने को आनन्द धाम प्रभु के साक्षात्कार के योग्य बना लेने वाले भक्त ! उस बल-पराक्रम और रायस्पोष को प्राप्त करके ही सन्तुष्ट न हो जाना, यहीं न ठहर जाना। उस बल-पराक्रम और रायस्पोष की धारा को औरों के लिए भी बहाते रहना और ऐसा प्रबन्ध कर जाना कि यह धारा तुम्हारे पीछे भी, तुम्हारी सन्तति के द्वारा भी निरन्तर अबाधित रूप में अच्छिन्न होकर बहती रहे। वेद के शब्दों में तुमने प्रभु से "अच्छिन्नस्य ते देव सोम सुवीर्यस्य रायस्पोषस्य ददितारः स्याम' यह और प्रतिज्ञा की है। इसे कार्यरूप में लाते रहना। वैदिक संस्कृति की धारा सदा बहाते रहना तेरा कर्त्तव्य है। तेरे द्वारा अपने इस कर्त्तव्य के पालन से ही संसार में शान्ति की धारा बह सकेगी। 

    भगवान्‌ सोम हैं, शान्ति के समुद्र हैं। मनुष्यों को परम शान्ति तथा परम आनन्द की गङ्गा में स्नान कराते रहने की भावना से ही प्रभु ने सृष्टि के आरम्भ में वेद की संस्कृति का, मांजकर पवित्र कर देने वाली वेद की शिक्षा का उपदेश दिया था। "सोम' प्रभु से मिलने वाली संस्कृति ही संसार में वास्तविक शान्ति ला सकती है। आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति

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  • वैदिक-विनय-प्रभु की प्राप्ति

    3म्‌ सदा व इन्द्रश्चर्कृषदा उपो नु स सर्पयन्‌।
    न देवो वृतः सूर इन्द्रः।। साम. पू.3.1.1.3।।

    ऋषिः प्रगाथः काण्वः।। देवता इन्द्रः।।छन्दः गायत्री।।

    विनय - हे मनुष्यो ! तुम अपने परमात्मा से प्रेम क्यों नहीं करते? जहॉं हरिकथा होती है वहॉं से तुम भाग आते हो। बार-बार प्रभु-चर्चा होती देखकर तुम ऊबते हो, जबकि विषयों की चर्चाएँ सुनने के लिए सदा लालायित रहते हो। तुम्हें उस अपने पिता से इतना हटाव क्यों हैं? तुम चाहे जो करो, वह देव तो तुम्हें कभी भुला नहीं सकता। वह तो तुम्हें प्रेम से अपनी ओर आकर्षित ही कर रहा है, सदा आकर्षित कर रहा है, निरन्तर अपनी ओर खींच रहा है। तुम जानो या न जानो, पर वह अत्यन्त समीपता के साथ माता की भॉंति तुम-पुत्रों की निरन्तर परिचर्या भी कर रहा है।

    Ved Katha Pravachan _101 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    वह परमेश्वर हमारे रोम-रोम में रमा हुआहमारे एक-एक श्वास के साथ आता-जाता हुआहमारे मन के एक-एक चिन्तन के साथ तद्रूप हुआ-हुआ और क्या कहेंहमारी आत्मा की आत्मा होकरएक अकल्पनीय एकता के साथ हमसे जुड़ा हुआ है। हमें संसार में जो कुछ प्रेमआरामवात्सल्यभोगसेवासुख मिल रहा है वह किन्हीं इष्ट-मित्रों या प्राकृतिक वस्तुओं से नहीं मिल रहा है। वह सब हमारे उस एक अनन्य सम्बन्धी परम दयालु प्रभु से ही मिल रहा है। वह केवल हमें अपनी ओर खींच ही नहीं रहा हैअपितु अति समीपता से निरन्तर हमारी सेवा भी कर रहा हैप्रेम-प्रेरित होकर हमारी सेवा कर रहा है। हमारा पालनपोषणरक्षणदुःखनिवारण आदि सब परिचर्या कर रहा है। अरे! वह तो कहीं छिपा हुआ भी नहीं है। उसके और हमारे बीच में कोई भी आवरण नहीं है। उसे ढका हुआआच्छादित भी कौन कहता है?

    हे मनुष्यो ! सच बात तो यह है कि यदि हम उसके इस प्रेमाकर्षण को जानने लग जाएँ कि वे प्रभुदेव सदा प्रेम से हमें अपनी ओर खींच रहे हैंयह हम सचमुच अनुभव करने लग जाएँतो हमें यह भी दिख जाए कि वे हमारे अत्यन्त निकट हैं और अत्यन्त निकटता के साथ हमारी सेवा-शुश्रूषा कर रहे हैं और फिर एक दिन हमें यह भी दिख जाए कि वे सब ब्रह्माण्ड के रचयिता महापराक्रमी इन्द्र प्रभुजिनके विषय में परोक्षतया हम इतनी बातें सुना करते थेवे हमसे किसी आवरण से ढके हुए भी नहीं हैं। वे प्रत्यक्ष हमारे सामने हैं और यह दिख जाना ही परमात्मा का साक्षात्कार करना हैपरम प्रभु को पा लेना है।

    शब्दार्थ- हे मनुष्यो ! इन्द्रः = परमेश्वर वः = तुम्हें सदा = सदैव आचर्कृषत्‌ = अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। सः = वह नु = निःसन्देह उप उ=समीप हीसमीपता के साथ सपर्यन्‌ = तुम्हारी सेवा करता हुआ विद्यमान है। शूरः इन्द्र देवः = वह महापराक्रमी इन्द्रदेव वृतः = ढका हुआआच्छादित न = नहीं है। आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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    Hey man The truth is that if we start to know his love for God, that he is pulling us towards us with love, we can start realizing, then we should also see that he is very close to us and very We are doing our service with close proximity and then one day we can also see that all those who were the creators of the universe, Mahaprakrami Indra Prabhu, whom we used to hear so much about indirectly, are not covered by any cover from us. . They are directly in front of us and to see this is to interview God, to find the Supreme Lord.

     

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  • शिव नाम परमात्मा का है

    शिवरात्रि का सीधा सरलार्थ कल्याण रात्रि है। पौराणिक परिभाषा में यह शिव की रात है। जो भी कोई शिवभक्त इस रात्रि में शिवमूर्ति का पूजन करता है, वह शिवजी के प्रसाद से कृतकृत्य होकर शिव लोक प्राप्त करने का अधिकारी बन जाएगा। ऐसा पौराणिक प्रचार है। मुसलमानों में भी शबरात की बड़ी महिमा है। शबरात "शिवरात्रि' शब्द का ही विकृत रूप हुआ प्रतीत होता है। क्योंकि उर्दू, अरबी तथा फारसी लिपि में इकार-उकारादि मात्रायें प्रायः लिखी नहीं जाती तथा व में मध्य रेखा खींचकर व का ब बन जाना सम्भव है। अतः शिव का शब बन जाना और रात्रि का रात लिखा जाना सरलता से समझा जा सकता है। 

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    स्वर्ग और नरक का निर्माण विचारों से ही होता है

    Ved Katha Pravachan _52 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    वेद में शिव नाम परमात्मा का है, जिसके अर्थ कल्याणकारी के हैं। उसकी आराधना-उपासना प्रातः-सायं होती है। 

    पौराणिकों ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश या शिव तीन देवता माने हैं। पुराणों में इनकी कथाएं बहुत लिखी गई हैं। इनके आधार पर पिता जी ने अपने बालक मूलशंकर को शिवरात्रि के व्रत द्वारा रात्रि जागरण का महात्म्य बताकर शिवदर्शन की बात कही, जिससे आत्मा का कल्याण होकर मोक्ष की प्राप्ति हो। 

    किन्तु जागरण के मध्य ऋषि की आत्मा में सच्चाई का प्रमाण उदित हो गया कि यह जड़ पाषाण मूर्ति सच्चा कल्याणकारी शिव नहीं है। वह सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान्‌, अजर-अमर, नित्य, पवित्र, सृष्टिकर्ता परमात्मा घट-घट वासी है। उस निराकार परमात्मा की पूजा निराकार आत्मा में शुभ गुणों के विकास के साथ-साथ ध्यान द्वारा होती है, जिसके लिये योग साधना की आवश्यकता है। 

    अतः योग-युक्तात्मा के सान्निध्य की आवश्यकता हुई, वर्षों के कठोर परिश्रम और साधना के पश्चात्‌ यह सिद्धिप्राप्त हुई। तब योग-युक्तात्मा महर्षि दयानन्द ने गुरु विरजानन्द जी से वेदों के रहस्यों को समझकर गुरु दक्षिणा में वेदों के प्रचार में जीवन की आहुति देकर संसार के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। 

    वास्तव में जिस भी क्षण में मनुष्य को सन्मार्ग की प्रेरणा मिले, वही शिव अर्थात्‌ कल्याणकारी है। योग-समाधि का पर्याय ही योगनिद्रा है। कल्याण की सच्ची प्राप्ति योगनिद्रा से विभूषित होती है और योगरात्रि भी कही जा सकती है। 

    संसार जागते हुए भी शुभ प्राप्ति से विमुख होकर वास्तव में मोहान्ध होकर एक प्रकार से गफलत की नींद में सोए रहता है। किन्तु योगी समाधि निद्रा में प्रभु दर्शन से आनन्दविभोर हो रहा होता है। यह योगनिद्रा है। यह योग समाधि ही योगरात्रि या कल्याणकारिणी शिवरात्रि है। हिन्दू-मुसलमान तथा अन्य सभी लोग इस रहस्य को समझ जाएं, तो किसी भी जागरूक क्षण को शबरात या शिवरात्रि कहा जा सकेगा। यही रहस्य दयानन्द ने समझा और ऋषि-महर्षि की पदवी प्राप्त की। 

    नमस्यामो देवान्ननु बत ! विधेस्तेऽपि वशगा, विधिर्वन्धः, सोऽपि प्रतिनियत-कर्मैकफलदः।
    फलं कर्मायत्तं किममरगणैः किं च विधिना, 
    नमस्तत्‌ कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवति।। (नीति शतक 95)

    हम विद्वान आदि देवों को नमस्कार करते हैं, किन्तु अरे! वे भी तो विधाता के आधीन हैं। तो फिर विधाता अवश्य वन्दनीय है, किन्तु वह भी तो कर्मों के अनुरूप ही निश्चित फल देता है। इस प्रकार जब फल कर्मों के ही आधीन है (कर्मों के अनुसार ही मिलने वाला है) तो देवों और विधाता के ऊपर निर्भर न रहकर कर्मों को नमस्कार करें, कर्मों को प्रधानता दें, जिनको बदलने में विधाता भी समर्थ नहीं है। - पं. शान्तिप्रकाश (शास्त्रार्थ महारथी)

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    Mythologists have considered Brahma, Vishnu, Mahesh or Shiva as the three gods. Their stories have been written a lot in the Puranas. On the basis of this, Father told Shivdarshan by telling his child Mool Shankar the great significance of night awakening by fasting of Shivaratri, so that the soul can be benefited and attain salvation. 

    Shiva is the name of God | Arya Samaj Bank Colony Indore Madhya Pradesh India | Arya Samaj Indore MP | Arya Samaj Marriage Indore | Arya Samaj Mandir Indore address | Arya Samaj and Vedas | Arya Samaj in India | Arya Samaj and Hindi | Marriage in Indore | Hindu Matrimony in Indore | Maharshi Dayanand Saraswati | Ved Gyan DVD | Vedic Magazine in Hindi |  शिव नाम परमात्मा का है | Arya Samaj Mandir Indore | Arya Samaj | Arya Samaj Mandir | Arya Samaj in India | Arya Samaj Marriage Indore | Arya Samaj in India | Arya Samaj in Madhya Pradesh | Vedas | Maharshi Dayanand Saraswati | Vaastu Correction Without Demolition | Arya Samaj helpline Indore Madhya Pradesh | Arya Samaj Online | Arya Samaj helpline | Hindi Vishwa | Intercast Marriage | Hindu Matrimony | Havan for Vastu Dosh Nivaran | Vastu in Vedas | Vedic Vastu Shanti Yagya | Vaastu Correction Without Demolition .

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  • शिव-रात्रि बोध रात्रि

    भारत में शिवरात्रि के पर्व का बहुत महत्व है। शिवरात्रि का अर्थ है- कल्याणकारिणी रात्रि और शिव (महादेव) से सम्बद्ध रात्रि। वर्तमान में हिन्दू समाज इस रात्रि में विशेष रूप से शिवमूर्ति की अर्चना करता है। परन्तु जब तक शिव (महादेव) के साथ इस रात्रि का क्या सम्बन्ध है, यह प्रकट न हो, तक तक यह पर्व मनाना सफल नहीं हो सकता।

    महाभारत में अनेकों स्थानों पर शिव के महत्वपूर्ण कार्यों का वर्णन है। "शिव सहस्त्रनाम स्तोत्र" में तो एक-एक नाम से महात्मा शिव के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं का संकेत है। महात्मा शिव सपत्नीक होते हुए भी पूर्ण ब्रह्मचारी थे। उनका पार्वती के साथ शारीरिक सम्बन्ध हुआ ही नहीं। इस ओर संकेत करने वाले "शिव सहस्त्रनाम" में अनेक नाम हैं। उदाहरण के लिये दो नाम उपस्थित हैं।

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    Ved Katha Pravachan _51 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    उत्तानशय:-इसका अर्थ है सदा सीधा सोने वाला। स्त्री-संसर्ग में पुरुष अधोमुख होता है। अत: यह नाम बताता है कि शिव ने पार्वती के साथ यौन सम्बन्ध नहीं किया था।

    स्थाणु- स्थाणु का अर्थ होता है पुष्प फल से रहित ठूंठ (वृक्ष)। यह नाम बताता है कि इसी आजन्म ब्रह्मचर्य के कारण शिव सन्तानरूपी फल से रहित थे। कार्तिकेय शिव के औरस पुत्र नहीं थेजैसा कि समझा जाता है। वे उनके पालित पुत्र थेजैसे गणेश। इसकी ओर महाभारतस्थ कार्तिकेयोत्पत्ति का प्रकरण भी संकेत करता है।

    ऐसा आजन्म ब्रह्मचर्य और वह भी पत्नी के होते हुए पालन करना अति असम्भव सा कार्य है। परन्तु शिव ने उसे भी सम्भव कर दिखाया। इसीलिये उन्हें कामारि या मदनारि कहते है। शिव का एक महत्वपूर्ण नाम है- अर्धनारीश्वर। इसका भाव यह है कि नारी पार्वती की उपस्थिति वे बाहर न मानकर अपने अर्धभाग में ही स्वीकार करते थे। जो मनुष्य अपने भीतर ही अर्धभाग में नारी की स्थिति जान लेता है वह बाह्य नारी-सम्बन्ध से दूर हो जाता है। शतपथ में कहा है- तावत्‌ पुरुषो अर्धो भवति यावज्जायां न विन्देत अथ जायां विन्दते पूर्णो भवति।

    इसका भाव यह है कि मनुष्य अपने में किसी वस्तु की न्यूनता समझता है और उसे पूर्ण करने के लिये जाया (पत्नी) को प्राप्त करता है। तब वह अपने को पूर्ण समझने लगता है।

    यदि किसी को यह ज्ञान हो जावे कि जिस नारी रूपी बाह्य वस्तु की मैं कामना करता हूँवह तो मेरे भीतर ही अर्धभाग में स्थित हैतब वह अपने आपको पूर्ण जानकर जाया की कामना नहीं करता। यह ज्ञान परम सूक्ष्म है। इसी महत्वपूर्ण ज्ञान को प्राप्त करके शिव अपने में पूर्ण हो गये और अन्य देवों की अपेक्षा महान्‌ हो गयेमहादेव बन गये। यही उनके तृतीय नेत्र (ज्ञान नेत्र) के उद्‌घाटन का भाव है। इसी विवेक नेत्र से उन्होंने मदन को भस्मीभूत किया था।

    सम्भव है इसी ज्ञान की उपलब्धि उन्हें इस रात्रि में हुई होगी और उन्होंने काम पर विजय पाकर अर्धनारीश्वरत्व को समझा होगा।

    यदि शिवभक्त महात्मा शिव के इस तत्वज्ञान को समझने के लिये कुछ प्रयत्न करेंतो यह रात्रि उनके लिये भी शिव (कल्याण रात्रि बन सकती है)।

    शिवरात्रि महात्मा शिव के वैवाहिक जीवन की प्रथम रात्रि थीसुहाग रात ! तभी असुरों ने देव सेना को ललकारा और तभी देवों के सेनापति रुद्र (शिव) ने असुर और आसुरी सभ्यता के विनाश के लिये अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया। यह था शिव रात्रि व्रत! बज उठा डमरूथिरक उठे पॉंव। सेनापति शिव अब असुर-नाश के रूप में ताण्डव नृत्य कर रहे थे। कैसे खेद का विषय है कि ऐसे योगी और ब्रह्मचारी के नाम पर "शिवलिङ्ग पूजा" का भ्रष्टाचार फैलाया गया है।

    दयानन्द-बोधइसी शिवरात्रि के साथ महान्‌ तत्ववेत्ता ऋषि दयानन्द का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। बालक मूलशङ्कर को इस रात्रि में ही कुल-परम्परा से प्राप्त शिवमूर्ति की पूजा करते हुए इस तत्व का बोध हुआ था कि इतिहास पुराणों में जिस महाबली त्रिपुरारि शिव का वर्णन मिलता हैवह यह प्रस्तरमूर्ति नहीं है। महादेव ने तो बड़े-बड़े बलवान्‌ राक्षसों को मारा था और यह महादेव जिसकी पूजा मैं कर रहा हूँवह तो अपने ऊ पर से नैवेद्य को खाने वाले चूहों को भी हटाने में असमर्थ है। इसीलिये मैं उस सच्चे शिव-महादेव की खोज करूँगाजिसका वर्णन शास्त्रों में मिलता है। इस प्रकार मूलशंकर के लिए यह रात्रि वास्तव में शिव-कल्याण की रात्रि बन गई।

    मूलशंकर ने इस रात जो शिव संकल्प लियाउसके लिए उन्होंने वैभवपूर्ण घर का त्याग करके सच्चे शिव की खोज में अपना सारा जीवन अर्पित कर दिया। सच्चे शिव के दर्शन के लिये योग की आवश्यकता का अनुभव होने पर योगियों की खोज मे अर्वली (आबू) पर्वतहिमालय के हिमाच्छादित शिखरों एव विन्ध्याचल की दुर्गम पर्वत श्रेणियों और जङ्गलों की रोमांचकारी यात्रायें की। "जिन खोजा तिन पाइयांगहरे पानी पैठ" की उक्ति के अनुसार उन्हें कुछ योगीजनों के दर्शन हुए। उनसे योगविद्या सीखी और समाधि पर्यन्त उत्कृष्ट सफलता प्राप्त की।

    परन्तु अभी उन्हें विद्या के क्षेत्र में न्यूनता अखरती थी। यद्यपि उन्होंने अपने दीर्घकालीन भ्रमण में जहॉं भी कोई विद्वान्‌ मिलाउससे शिक्षा ग्रहण करने का पूरा यत्न कियातथापि उन्हें कोई गुरु नहीं मिलाजो शास्त्रज्ञान प्राप्त कर लेने पर भी हृदय में अविद्या की गॉंठ रह जाती हैउसे खोलकर शास्त्रों का तत्वज्ञान कराये। अन्त में उन्हें इसमें भी सफलता मिली और मथुरा निवासी प्रज्ञाचक्षु गुरुवर दण्डी विरजानन्द ऐसे सद्‌गुरु प्राप्त हुए।

    यद्यपि गुरुवर विरजानन्द के चरणों में बैठकर लगभग तीन वर्ष ही विद्याध्ययन किया और वह भी व्याकरण शास्त्र का ही। तथापि गुरुवर विरजानन्द ने व्याकरणशास्त्र के अध्यापन के व्याज से उन्हें उस मूल तत्व ज्ञान से भी सम्पन्न कर दिया जिसके सहारे से दयानन्द शास्त्रों के तत्वज्ञान की उपलब्धि में समर्थ हुए। वह तत्व ज्ञान है आर्ष ग्रन्थों को पढो-पढाओअनार्ष ग्रन्थों का परित्याग करो।

    इतना ही नहींगुरुवर विरजानन्द ने दयानन्द को एक महती शिक्षा यह दी कि अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट मत होवो। अज्ञानान्धकार में भटकती भारतीय जनता को सुमार्ग दर्शाकर उसके दु:खों को दूर करो। देशवासियों की उन्नति में अपनी उन्नति समझो।"

    इस गुरुमन्त्र को पाकर दयानन्द ने अपने व्यक्तिगत मोक्ष के साथ-साथ दया से परिपूर्ण होकर भारतीय जनता के अज्ञानान्धकार जिसके कारण भारतवासी दु:खीहीन दरिद्र और पराधीन थेको दूर करके उन्हें सुमार्ग दर्शाया। अपने इस उद्‌देश्य की पूर्ति के लिये उन्होंने सर्वस्व समर्पित कर दिया। इसी हेतु आर्यसमाज बनाया।

    इस दृष्टि से शिवरात्रि में शिवार्चन करते हुए बालक मूलशंकर को जो बोध हुआ उसी की यह महिमा है कि मूलशंकर स्वयं सच्चे शिव को पाने में जहॉं समर्थ हुएवहॉं उन्होंने भारतीय जनता में व्याप्त अज्ञान मतमतान्तर के विरोध एवं पराधीनता से व्याप्त दु:ख दारिद्रय को दूर करने का सच्चा मार्ग बताकर सभी भारतवासियों को शिव (कल्याण) के मार्ग पर चलने में समर्थ बनाया।

    प्रत्येक भारतीय को मिथ्या मतों को त्याग शिव (कल्याण) के मार्ग (वैदिक सत्य मार्ग) पर चलने का शिवसंकल्प ग्रहण करना चाहिए। इस शिवसंकल्प से जहॉं हमारी व्यक्तिगत उन्नति होगीवहॉं देश और संसार के भी कष्ट दूर होंगे।

    गुरुवर विरजानन्द ने अपने शिष्य को जिस शास्त्रीय तत्व ज्ञान को बोध कराया और दयानन्द ने अपने जीवन में जिसका प्रचार किया, उसे हम प्राय: भुलाते जा रहे है। हमारे अध्ययन-अध्यापन में से उत्तरोत्तर आर्ष ग्रन्थों का लोप होता जा रहा है। इस क्षेत्र में आर्ष ग्रन्थों की नई व्याख्याओं के प्रकाशन का कार्य तो प्राय: अवरुद्ध ही हो गया है, प्राचीन व्याख्यायें भी अप्राप्त हो गई हैं।

    आज वस्तुत: आत्म-निरीक्षण का समय है। अपनी कमियों को पूरा करने के लिये किसी शिव संकल्प को धारण करने का है। यदि आर्य जनता "आर्ष ग्रन्थों के स्वाध्याय का शुभ संकल्प लेवे" और स्वाध्याय में प्रयत्नशील होवे तो उनके लिये यह वस्तुत: शिवस्वरुप हो सकता है। (तपोभूमि मथुराफरवरी 1994)

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    The Mahabharata describes Shiva's important works at many places. In the "Shiva Sahastranam Stotra", each name indicates the important events of Mahatma Shiva's life. Mahatma Shiva was a complete celibate despite being a son. He did not have a physical relationship with Parvati. "Shiva Sahastranama" has many names pointing towards this. For example two names are present.

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  • शूद्र को ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन अधिकार

    जैमिनि मत समीक्षा

    वेद के सांख्यदर्शन आदि छह उपांग हैं। उनमें वेदान्तदर्शन छठा उपांग माना जाता है। यह ब्रह्मविद्या का ग्रन्थ है। इसके रचयिता वेदों के महाविद्वान्‌ श्री वेदव्यास हैं। वेदव्यास के पिता पाराशर और माता सत्यवती थी, जो एक मल्लाह की लड़की थी। श्री वेदव्यास का नाम कृष्णद्वैपायन था और वेदाभ्यास के कारण उनका नाम "वेदव्यास" प्रसिद्ध हुआ। उनका गौत्र-नाम "बादरायण" है।

    श्री वेदव्यास जी ने वेदान्तदर्शन प्रथमाध्याय के तृतीय पाद में प्रसङ्गवश शूद्रों को ब्रह्मविद्या एवं वेद पढने के अधिकार की चर्चा की है जिसका यहॉं सूत्रनिर्देश पूर्वक उल्लेख किया जाता है -

    जैमिनि का मत- 1. मध्वादिष्वसम्भावदनधिकारं जैमिनि:।। वेदान्त दर्शन 1.3.31

    अर्थ- (मधु-आदिषु) मधुच्छन्दा आदि वैदिक ऋषि हैं, जिनका संहिता-ग्रन्थों में मन्त्रों के साथ उल्लेख किया जाता है । उन वैदिक ऋषियों में (असम्भवात्‌) किसी शूद्र का उल्लेख न होने से (अनधिकारं जैमिनि:) जैमिनि शूद्र को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं मानते हैं।

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    महाभारत युद्ध एवं भारत देश की गुलामी के कारण

    Ved Katha Pravachan _47 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    2. ज्योतींषि भावाच्च।। वेदान्त 1.3.32।।

    अर्थ- (च) और ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन में ब्राह्मणक्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्णों का ही अधिकार है। जैसे कि यजुर्वेद में (ज्योतिष भावात्‌) तीन ज्योतियों का ही वर्णन है-

    यस्मान्न जात: परोऽन्योऽस्ति
    य आविवेश भुवनानि विश्र्वा।
    प्रजापति: प्रजया संरराण:
    त्रीणि ज्योतींषि सचते स षोडशी।।8.36।।

    अर्थ- जिससे पर= महान्‌ कोई नहीं हैजो सब भुवनों= लोकों में व्यापक हैप्रजापति परमेश्र्वर जो कि 16 सोलह कला सम्पन्न हैवह प्रजा को कर्मफल प्रदान करता हुआ तीन ज्योतियों से अर्थात्‌ ब्राह्मणक्षत्रियवैश्य से संयुक्त रहता हैचतुर्थ शूद्र से नहीं।

    अन्यत्र वेद में भी लिखा है- स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्‌। (अथर्ववेद 9.71.1) अर्थात्‌ ऋषि कहता है कि मैंने वर प्रदान करने वाली वेदमाता की स्तुति की हैजो कि उत्तम प्रेरणा करने वाले द्विजों अर्थात्‌ ब्राह्मणक्षत्रियवैश्य को ही पवित्र करने वाली हैशूद्रों को नहीं।

    वेदव्यास का मत- 1. भावं तु बादरायणोऽस्ति हि।। वेदान्त दर्शन 1.3.32।।

    अर्थ- (भावं तु बादरायण:) बादरायण अर्थात्‌ वेदव्यास ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन मेंे अधिकार का भाव मानते हैं (अस्तिहि) क्योंकि मधुच्छन्दा आदि वैदिक ऋषियों में शूद्र ऋषियों का भी अस्तित्व है। जैसे दासीपुत्र कवष-ऐलूष अपोनप्त्रीय सूक्त का ऋषि है (ऐतरेय ब्राह्मण 2.3.1) और वेद में शूद्रों को वेदाध्ययन का स्पष्ट उल्लेख है-

    यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य:,
    ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च
    स्वाय चारणाय च ।। यजुर्वेद 26.2।।

    अर्थ- वेद उपदेश करता है- हे मनुष्यो! जैसे मैं तुम्हें इस कल्याणी वाणी वेद का सब मनुष्यों के लिये उपदेश करता हूँ वैसे तुम भीब्राह्मणक्षत्रियअर्य=वैश्यशूद्रस्व= अपने सेवक और अरण=जंगली मनुष्यों को भी वेद का उपदेश किया करो।

    2. शुगस्य तदनादरश्रवणात्‌ तदाद्रवणात्‌ सूच्यते हि।। वेदान्त दर्शन 1.3.34।।

    अर्थ- (शुक्‌ अस्य तदनादरश्रवणात्‌) इस जानश्रुति नामक शूद्र का ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन में अनादर सुनाई देने से वह शुक्‌=शोक से व्याकुल हो गया है वह शुक्‌=शोक से आद्रवित होने से ब्रह्मविद्या के उपदेश के लिये रैक्व नामक गुरु के पास द्रुत गति से गया (सूच्यते हि) इससे सूचित होता है कि वह जानश्रुति शोक से द्रवित होने से शूद्र है- शुच्‌+द्रव: =शू+द्र=शूद्र है। उस शूद्र को रैक्व ऋषि ने ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया। अत: शूद्र को भी ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन का अधिकार है। (द्रष्टव्य छान्दोग्य उपनिषद 4.1.1) और ये शूद्र आदि शब्द गुणवाचक हैंजातिवाचक नहींजैसे कि महाभाष्यकार पतञ्जलि लिखते हैं- सर्व एते शब्दा गुणसमुदायेषु वर्त्तन्ते ब्राह्मण: क्षत्रियो वैश्य: शूद्र:। (महाभाष्य 5.1.115) अर्थात्‌ ब्राह्मणक्षत्रियवैश्य और शूद्र ये गुणसमुदायविशेष के वाचक हैंजातिवाचक नहीं। पढना-पढाना आदि गुणसमुदाय का नाम ब्राह्मण है। ऐसे ही सभी वर्णों में समझें।

    3. क्षत्रियत्वगतेश्र्चोत्तरत्र चैत्ररथेन लिङ्गात्‌ ।। वेदान्त 1.3.35।।

    अर्थ- (अत्तरत्र क्षत्रियगते: च) जानश्रुति पौत्रायण पहले शूद्र थाकिन्तु गुण और कर्म के कारण वह फिर क्षत्रिय गति को प्राप्त हो गया। इससे यह सूचित होता है कि शूद्र आदि वर्ण गुण और कर्म से सिद्ध होते हैं और शूद्र को भी ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन का अधिकार है।

    यह क्या पता कि जानश्रुति पौत्रायण गुण और कर्म से क्षत्रिय हो गया थाइसका उत्तर यह है-(चैत्ररथेन लिङ्गात्‌) जानश्रुति के पास चैत्ररथ था- अश्र्वतर (खच्चर) वाला रथ चैत्ररथ कहलाता हैजो कि क्षत्रिय के पास ही होता है।

    यदि शूद्र का ब्रह्मविद्या में अधिकार है तो उस जानश्रुति का उपनयन-संस्कार क्यों नहीं कियाइसका उत्तर यह है-

    4. संस्कारपरामर्शात्‌ तदभावाभिलापात्‌।। (वेदान्तदर्शन 1.3.36)

    अर्थ- (संस्कार-परामर्शात्‌) शास्त्र के अध्ययन में उपनयन-संस्कार का सम्बन्ध बतलाया जाता हैइसलिये यह विचार उत्पन्न हुआकिन्तु (तदभाव-अभिलापात्‌) कहीं उस उपनयन-संस्कार के अभाव का भी कथन मिलता है। जैसे- तं होपनिन्ये (शतपथ 1.5.3.13) यहॉं उपनयन-संस्कार का विधान है और तान्‌ हानुपनीयैतदुवाच......। (छान्दोग्य उपनिषद्‌ 5.11.7) अर्थात्‌ प्राचीन शाल आदि ब्राह्मणों को कैकेय अश्र्वपति ने वैश्र्वानर-विद्या का उपनयन-संस्कार के बिना ही उपदेश किया था। अत: उपनयन-संस्कार के बिना भी ब्रह्मविद्या की शिक्षा की जा सकती है। अत: ब्रह्मविद्या के अधिकार में उपनयन-संस्कार का कोई प्रतिबन्ध नहीं है।

    गुण और कर्म ही उच्च और अवच का कारण हैंजन्म नहीं। जैसे-

    5. तदभावनिर्धारणे च प्रवृत्ते:।। (वेदान्तदर्शन 1.3.37)

    अर्थ- (तदभावनिर्धारणे च) और उस वेदाध्ययन विरोधी गुण और कर्म के अभाव का निर्धारण=निश्र्चय हो जाने पर (प्रवृत्ते:) वेद-अध्यापन की प्रवृत्ति दिखाई देती है। क्योंकि गुण और कर्म ही उच्च और अवच वर्ण का कारण है। जैसे कि छान्दोग्य उपनिषद्‌ में लिखा है- सत्यकाम जाबाल हारिद्रुमत गौतम के पास जाकर बोला- मैं आपके पास ब्रह्मचारी रहूंगायदि आपकी आज्ञा हो तो मैं आपके पास रहूं। आचार्य गौतम ने पूछा- हे सोम्य! तेरा क्या गोत्र हैवह कहने लगा- मेरा क्या गोत्र हैयह मैं नहीं जानता। मैंने अपनी माता जबाला से पूछा थाउसने कहा- मैं अनेक लोगों की परिचारिणी (सेविका) रही हूं और यौवनकाल में मैंने तुझे प्राप्त किया हैइसलिये मैं नहीं जानती कि तेरा क्या गोत्र हैहे गुरुवर ! इसलिये मैं तो सत्यकाम जाबाल हूँ। गुरु गौतम ने कहा- यह बात कोई अब्राह्मण नहीं कह सकताअर्थात्‌ तू ब्राह्मण है। हे सौम्य ! तू समिधा ले आमैं तुझे अपने समीप रखूंगा- तुझे वेद की शिक्षा करूँगाक्योंकि तू सत्यभाषण से विचलित नहीं हुआ है।

    इस प्रकार यहॉं अज्ञात कुल शिष्य का भी वेद अध्ययन में अधिकार का विधान किया गया है। सत्यभाषण के गुण से ही अज्ञात कुल सत्यकाम जाबाल को वेदाध्ययन का अधिकार प्राप्त हुआ।

    वेदाध्ययन में चारों वर्णों के बालकों का अधिकार हैकिन्तु गुण-कर्म से हीन का नहीं। जैसे-

    6. श्रवणाध्ययनप्रतिषेधात्‌ स्मृतेश्र्च।। (वेदान्तदर्शन 1.3.38)

    अर्थ- (श्रवणाध्ययनप्रतिषेधात्‌) गुण और कर्म से हीन किसी को भी वेद श्रवण और अध्ययन का प्रतिषेध किया गया है। जैसे-

    1. नाप्रशान्ताय दातव्यं नापुत्रायाशिष्याय वा पुन:। (श्वेताश्वतरोपनिषद्‌ 6.22) अर्थात्‌ अप्रशान्त चित्तवाले पुरुष को ब्रह्मविद्या का दान नहीं करना चाहिये।

    2. विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगामगोपाय मां शेवधिष्टेऽहमस्मि।
    असूयकानृजवेऽयताय न मा ब्रूयां वीर्यवती यथा स्याम।। (निरुक्त 2.14)

    अर्थ- विद्या ब्राह्मण विद्वान्‌ के पास आई और कहने लगी- तू मेरी रक्षा करमैं तेरी शेवधि=खजाना हूँ। तू असूयक=निन्दकअनृजु=कुटिलअयत=असंयमी जन को मेरा उपदेश मत करनाजिससे मैं सदा वीर्यवती=बलशालिनी बनी रहूँ।

    3. पृथिवीमिमां यद्यपि रत्नपूर्णां दद्यान्न देयं त्विदमसंयताय।। (महाभारत शान्तिपर्व)

    अर्थ- रत्नों से पूर्ण इस पृथिवी का दान कर देवेकिन्तु असंयत=असंयमी जन को ब्रह्मविद्या का उपदेश न करे।

    भाव यह है कि ब्रह्मविद्या और वेदाध्ययन का अधिकार चारों वर्णों का हैकिन्तु गुणहीन जन का नहीं। जैसे- एतरेय महीदास शूद्र थाकिन्तु उसने ऋग्वेद को पढकर ऐतरेय ब्राह्मण नामक ग्रन्थ की रचना कीजो ऋग्वेद की सर्वप्रथम व्याख्या है।

    महर्षि दयानन्द ने ब्रह्मा से लेकर जैमिनि मुनि तक ऋषियों के मतों का सम्मान किया हैकिन्तु यहॉं ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन विषयक जैमिनि मुनि का मत वेदविरुद्ध होने से माननीय नहीं है। वेदव्यास और ऋषि दयानन्द के अनुसार चारों वर्णों के गुणवान्‌ बालकों को ब्रह्मविद्या और वेदाध्ययन का अधिकार हैगुणहीन को नहीं।  - पण्डित सुदर्शन देव आचार्य (सर्वहितकारी 14 अप्रेल 2004) 

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    The Vedas have six verses. Vedantadarshana is considered the sixth appendage among them. This is the book of theology. Its author is Sri Ved Vyasa, the great scholar of the Vedas. Ved Vyas's father was Parashar and mother Satyavati, a seafaring girl. Sri Ved Vyasa's name was Krishnadvaipayan and his name "Ved Vyas" became famous due to Vedabhyas. His gotra-name is "Badarayan".

     

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  • श्री और लक्ष्मी में अन्तर

    श्री को छोड़ हमारे प्यार जा पहुंचे लक्ष्मी के द्वारे

    श्री व लक्ष्मी इन दोनों शब्दों की गरिमा के अन्तर को स्पष्ट करने से पूर्व मॉं एवं जननी तथा प्रजा एवं जनता के अन्तर को ही समझ लेते हैं।

    माँ-माता निर्माता होती है। वह सन्तान को जन्म देने के साथ-साथ उसका ऐसा निर्माण करती है कि वह संसार में श्रेष्ठ कार्यों के द्वारा स्वयं का, माता का और धरती "माता" का  यश सारे विश्व में युग युगान्तर के लिए स्थापित कर देती है। इसके लिए माता कौशल्या, माता देवकी, माता यशोदा, माता जीजाबाई, माता अमृतावेन को त्याग-तपस्या करके मर्यादा पुरुषोत्तम राम, योगिराज कृष्ण, बलराम, छत्रपति शिवाजी, वेदोद्धारक दयानन्द को जन्म देकर तदनुरूप निर्माण भी करना पड़ता है। जहॉं तक जननी की बात है, वह सन्तान को मात्र जन्म देती है, किसी व्रत-संकल्प के आधार पर उसके निर्माण में उसकी कोई भूमिका नहीं होती है। खाना-पीना-सोना-जान बचाना तथा आगे-आगे सन्तान को जन्म देते जाना ही इनका जीवन चक्र होता है। पशु-पक्षी योनियों की जननी बड़ी संख्या में अपने बच्चों को जन्मती है। सर्पणी बड़ी संख्या में बच्चे देती है और उन्हें अपना आहार बनाने लगती है, जो उसके घेरे से बाहर आ जाते हैं, वही बच्चे बच पाते हैं। बिच्छू बच्चे जन्मते ही अपनी जननी को ही आहार बना लेते हैं। अब तो मानव-नारियॉं भी पशुओं की भॉंति कई-कई बच्चे जन्म देने लगी हैं। कस्बा अवागढ के नगला गलुआ निवासी नेत्रपाल की पत्नी सर्वेश ने एटा जनपदीय चिकित्सालय में पॉंच बच्चों को जन्म दिया। जननी सहित बच्चे ठीक ठाक हैं। यह बात अप्रैल 09 की है। अगस्त 2007 में लन्दन के प्रसूति ग्रह में अमण्डा इलेरलन ने 2 फीट लम्बे तथा 7.5 पाउण्ड भार के असामान्य बच्चे को जन्म दिया था। देखें अमर उजाला 12 अगस्त 2007।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    भारत की गुलामी का कारण कुत्ता मनोवृत्ति
    Ved Katha Pravachan _49 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    कौशल्या ने राम को जन्म दिया और उनका निर्माण भी किया। जन्म न देकर भी माता सुमित्रा एवं कैकेयी ने राम के आदर्श निर्माण मेंयशोदा ने जन्म न देते हुए भी बलराम-कृष्ण के अद्‌भुत निर्माण में अपने तपस्वी जीवन के प्रत्येक क्षण को न्योछावर किया। पाठकगण। जैसे माता एवं जननी में अन्तर है वैसे ही प्रजा और जनता में भी सूक्ष्म अन्तर है। केवल भूमि का भार बढाने के लिए नहींप्रत्युत्‌ व्रत-प्रकल्प एवं अभिलाषा से प्रकृष्ट रूप में जिसका जन्म होवह प्रजा है। काम न काज के दुश्मन ढाई मन अनाज के। भोगाकांक्षी जन्मते व मरते रहने वाले लोग जनता या जनसाधारण कहे जाते हैं। शिक्षक आचार्यराजा-रईससेठ-साहूकार ही उच्च प्रजा वर्ग में नहीं आते हैअपितु इनकी सेवा में रहने वाले परिवारों को भी मानपूर्वक प्रजा या परजा कहा जाता है। वे भी राष्ट्र-संचालकरक्षक-पोषक जनों की सेवा के द्वारा राष्ट्र-कल्याण-उत्थान में योगदान करके अपने जन्म को प्रकृष्ट रूप प्रदान करते हैं। परिवेश की पवित्रता में महत्तर (अति महत्त्वपूर्ण) सहयोगी मेहतरवस्त्रों की स्वच्छता में सहयोगी बरेहा (वरिष्ठ)शारीरिक स्वच्छता में सहायक नापितजल व्यवस्था में कहारपुष्प श़ृंगार में तथा पाकशाला के बर्तन व भोजन-निर्माण में एवं बच्चों के लालन-पालन में सहयोगी धाय इत्यादि प्रजावर्ग का भाग हर फसलोत्पादन व संस्कार के अवसर पर उन्हें अवश्य ही नियमित रूप से निरन्तर मिलता था। लेखक ने यह सब अपने बचपन में होते देखा है। वह धाय जिसने हम बच्चों को जन्मने में सहायता की थीजब घर में आती थींतो बच्चों को देखकर न केवल प्रसन्न होती थींगर्व भी करती थीं कि इन्हें मैंने जन्म दिया हैबलइयॉं लेतींशुभकामनायें देतीं और घर से भरपूर उपहार लेकर ही वापस लौटती थीं। अपनत्व के नाते का सुन्दर स्वरूप देखने को मिलता था। आज के प्रसूति गृहों में जन्मने वाले बच्चों का अभिलेख मोटी-मोटी पंजिकाओं में भले लिख जाता हैअपनत्व के हृदयों में उनका रेखांकन नहीं होने पाता। इस प्रकार प्रजा व जनता का अन्तर बतलाते हुए लेखक ने परिवार-समाज-राष्ट्र के लिए प्रजा के प्रखर रूप का यहॉं पर चित्रण किया है।

    जननी सन्तान के जन्म के साथ उसके संस्कार-जागरण के लिए तत्पर रहती है तो वह माता-निर्माता बन जाती है। राष्ट्र में उत्पन्न होने वाली जनता जब निज कर्त्तव्य पालन में जागरूक रहती है तो वही प्रजा का उत्कृष्ट रूप धारण करती है। पाठकगण ! अब तो आप "श्री" एवं "लक्ष्मी" के अन्तर को जानने के लिए अवश्य उत्सुक होंगेआइये इस अन्तर को पहले वेद माता से पूछते हैंफिर अपनी बात कहते हैं-

    श्रीणामुदारो धरूणो रयीणां
    मनीषाणां प्रापण: सोमगोपा।
    वसु: सुनु: सहसो अप्सु
    राजा विभात्यग्र उषसामिधान:।। ऋग्वेद 10.45.5।।

    अर्थात्‌ परमेश प्रभु श्री का स्वामी और दाता है। साधनापूर्वक कोई राजा व विद्वान भी श्री का अधिकारी बन जाता है। श्री वह ऐश्वर्य है जो आश्रितों की उन्नति करता है। वह अनेकश: धनों का धारण कराता है-

    गोधन गजधन वाजधन और रत्नधन खान,
    जब आये सन्तोष धनसब धन धूरि समान।

    जिससे उत्तम बुद्धि मिलती है तथा जो सौमनस्य पूर्वक वीर्य-पराक्रम का रक्षण करती है। यह ऐश्वर्य आश्रितों को उजाड़ता नहीं बसाता है। इसे धारणकर्ता स्वयं तो साहसी होता ही है, उसकी सेना भी बलायुध पूर्ण होती तथा आप सन्मार्ग पर चलती है और सभी को चलाती भी है। अपनी प्रजा के मध्य यह तेजस्वी राजा उसी प्रकार देदीप्यमान होता है, जैसे प्रभात वेला में सूर्य शोभायमान रहता है। यही मन्त्र यजुर्वेद अध्याय 12 मन्त्र संख्या 22 में आया है, जिसमें महर्षि दयानन्द सरस्वती ने श्रीणाम्‌ का अर्थ "सब उत्तम लक्ष्मियॉं" बताया है। संसार के श्रेष्ठतम कर्म यज्ञ के अवसर पर तीसरा आचमन करते समय हम बोलते हैं- ओ3म्‌ सत्यं यश: श्रीर्मयि: श्री: श्रयतां स्वाहा (तै.आ.प्र. 10.35) अर्थात्‌ हे सर्वरक्षक प्रभो ! सत्याचरण, यश-प्रतिष्ठा, विजयलक्ष्मी, शोभा हो, आत्म गौरव के साथ धन-ऐश्वर्य मुझमें स्थित हो, यह मैं सत्यनिष्ठापूर्वक प्रार्थना करता हूँ। हिन्दी शब्दकोश में श्री के अर्थ शोभा, कान्ति, सेवा, विजयलक्ष्मी, प्रतिष्ठा, गौरव, समृद्धि, सौभाग्य, श्रेष्ठता, कोमलता, मधुरता, सुन्दरता, ऐश्वर्य, सम्पत्ति, राज्य लक्ष्मी व शक्ति अंकित हैं, जो सभी "श्री" के सकारात्मक स्वरूप को प्रदर्शित करते हैं।

    शब्दकोश में तो "लक्ष्मी को भी "श्री" का पर्यायवाची कह दिया गया हैकिन्तु वेद-भगवती इससे सहमत नहीं हैं। आइए देखें इस तथ्य के रहस्य को। यहॉं पर अथर्ववेद (7.115,2 एवं 4) के दो मन्त्र प्रस्तुत हैं-

    या मा लक्ष्मी: पतयालूरजुष्टाभि चस्कन्द वन्दनेव वृक्षम्‌।
    अन्यत्रास्मत्‌ सवितस्तामितो धा: हिरण्यहस्तो वसुनो रराण:।

    प्रथम मन्त्र का मनन है कि असेवितासुकाम में न आने वाली व दुराचार में गिराने वाली जो लक्ष्मी मुझसे चिपटी हुई हैवह वैसी ही है जैसे वन्दना बेल वृक्ष पर चिपटकर उसे सुखा देती है। हे प्रेरक परमेश्वर! ऐसी लक्ष्मी को तू मुझ से पृथक कर देऔर हिरण्यहस्त- तेजस्वी चमकते कर्त्तव्यशील हाथ से तू हमें निरन्तर ऐश्वर्य प्रदान कर। दूसरा मन्त्र मनन से आगे कठोर निर्णय कुछ यों प्रस्तुत कर रहा है -

    एता एना व्याकरं खिले गा विष्ठिता इव।
    रमन्ती पुण्या लक्ष्मीया: पापीस्ता अनीनशम्‌।।

    अर्थात्‌ इन उन अपने जीवन में आने वाली सैकड़ों प्रकार की लक्ष्मियों का मैं विवेकपूर्वक पृथक्करण करता हूँजैसे व्रज में विविध प्रकार की आ बैठी गौओं का गोपाल पृथक्करण किया करता है। जो पुण्य लक्ष्मीअच्छी कमाई की सम्पदा हैवही मेरे यहॉं रमण करेजो पाप से कमाई है उसे मैं आज ही विनष्ट किये देता हूँ। इन मन्त्रों में बता दिया गया कि लक्ष्मी पुण्यशीला व पापलीला दोनों प्रकार की हो सकती है- अर्थात्‌ सकारात्मक व नकारात्मक। इनमें से जो सकारात्मक लक्ष्मी है वही "श्री" श्रेणी में आती है और श्री सदैव शाश्वत सकारात्मक ही रहती है। श्रम-स्वेदकी चाशनी में पक कर आने वाला लाभ ही शुद्ध स्वादिष्ट "श्री" की महत्ता प्रदान करता है।

    एक नमूना देखिये। पॉंच ग्राम लोहे को आकर्षक ढंग से गोलाकार ढालकर उसके एक ओर भारत वर्ष का मानचित्र व "सत्यमेव जयते" का तथा दूसरी ओर एक सौ रुपये का अंकन करके राष्ट्र-शासन ने एक मुद्रा प्रचलित कर दी। इस मुद्रा का विनिमय करके एक सौ रुपया या इतने मूल्य का कोई पदार्थ क्रय किया जा सकता है। यदि इसी मुद्रा के दोनों ओर के चित्रांकन व मूल्यांकन विनष्ट हो जाएंतो शेष बचा मात्र पॉंच ग्राम लोहाअब इसका मूल्य एक सौ रुपये के स्थान पर एक रुपया भी नहीं रह गया। यह हुआ अस्थिर लक्ष्मी का स्तर कभी तिल तो कभी ताड़। दूसरा नमूना यों देखिये। अंग्रेजों ने अपने शासनकाल में एक रुपये मूल्य की चॉंदी की मुद्रा चलायी थी। उनके भारत छोड़ने से बहुत पहले ही इसका प्रचलन बन्द हो गया था। पर सौ रुपये से कहीं अधिक मूल्यवत यह चॉंदी की मुद्रा किसी भी मान्य स्त्री-पुरुष को सम्मान स्वरूप रजत पदक के रूप में प्रदान की जाती है। अब की बनाई गई गणेश-लक्ष्मी की रजत प्रतीक की तुलना में इन पुरानी मुद्राओं की परिशुद्धता कहीं अधिक विश्वसनीय होती है। यह हुआ "श्री" का एक सुसंगत स्वरूप।

    एक कहावत है- भगवान भक्त के वश में होते हैं। उसी के अनुरूप लेखक भी पाठक के वश में होता है। पाठकगण ने शंका प्रकट की तो श्री एवं लक्ष्मी के अन्तर को स्पष्ट करने में ही प्रचुर समय चला गया। "श्री को छोड़ हमारे प्यारे जा पहुँचे लक्ष्मी के द्वारे" की यात्रा की झलक भी देते चलिये लेखक जी! ठीकतो लीजिये इसे भी सुन लीजिये। पहले तो ऐसी अवांछित घटनायें यदा-कदा होती थींअब तो सर्वत्र-सर्वदा ही होती दिखाई दे रही हैंइसलिए आपको समझने में देर नहीं लगेगी। पहले कल्पनाओं का सहारा लेकर बाल-युवा-प्रोढों को सावधान करने के लिए ऐसी कहानियॉं गढी जाती थीं। अब पश्चिम की हवा ऐसी बही कि हम अपना ही दामन बचाना भूल गयेयुवक हमारे अपसंस्कृति में झूल गये। बालक-बालिका माता-पिता की अतुल आकांक्षाओं के साथ जन्म लेते हैं। वे सुन्दर व आकर्षण से परिपूर्ण घर-परिवार-समाज-राष्ट्र के राजदुलारे अपने उत्तम कार्यों के द्वारा बन जाते हैं। किसी भी श्रेणी का विद्यालय होजब वे लेखन-भाषण-चित्रकारी-खेल में कोई पुरस्कार जीतकर घर आते हैं तो उनके मुख पर एक कान्ति उभर आती है और इसी कान्ति का प्रतिबिम्ब घरवालों के चेहरों पर हंसता-मुस्कराता दमकता दिखाई देता है। यही बच्चे जब ऊँचे से ऊँचे स्तर पर किसी भी क्षेत्र में कोई और उच्च पुरस्कार लेकर आते हैं तो न केवल अपने राष्ट्र मेंअपितु विश्व में उनकी यशोपताका फहराने लगती है। मानो कान्ति श्री की वर्षा चहुँ ओर से उन पर होने लगी हो। हार्दिक सम्मान स्वरूप लोग उनके नाम से मैत्री-संघ बनाते हैंउन पर अपना प्यार लुटाते हैंसमाज व राष्ट्र उनको बड़ी-बड़ी धन राशियों के पारितोषिक प्रदान करते हैं। वे कार-बंगला-सर्व सुविधा-अभिनन्दन से मालामाल होते जाते हैं। उत्पादक तथा व्यवसायी उनके मुख से अपने माल की प्रशंसा कराते हैं। माल चाहे जैसा हो उसकी खपत खूब होती है। व्यवसायीगण इस विज्ञापन का मूल्य करोड़ों की राशि में उस प्रिय पात्र को चुकाते हैं। कुछ तो हमारे प्यारे पात्र इन उपलब्धियों के बोझ से दबकर नम्र हो जाते हैं और कुछ "थोथा चना बाजे घना" के अनुरूप अहंकार में चूर होते जाते हैं। अति साधारण से असाधारण बने खेल जगत के हमारे प्यारे प्यारे दो खिलाड़ी युवक महेन्द्र सिंह एवं हरभजन सिंह हैं। इन्हें दुलार में लोग धोनी और भज्जी नेह नाम से पुकारते हैं। पद्म-अलंकरण वर्ष 2009 के लिए ये दोनों राष्ट्रपति भवन न पहुँचकर अपने व्यावसायिक विज्ञापन कार्यक्रम में ही लगे रहे। चर्चा किये जाने पर मुँहफट भज्जी ने कहा चलिये अगली बार हम दो दिन पहले राष्ट्रपति भवन पहुँच जायेंगे। जैसे यह सम्मान उनका आरक्षित उत्तराधिकार है। इनके प्रशंसकों ने इस राष्ट्रीय अवमानना के दुष्कृत्य के विरुद्ध गहनतम आक्रोश व्यक्त करते हुए मुजफ्फरपुर की अदालत में मुकदमा दायर कर दिया। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध प्राध्यापक पुष्पेश पन्त जी के द्वारा सर्वाधिक कठोर प्रतिक्रिया व्यक्त की गई । खेल के मैदान में कलाबाजी करतब दिखाने वाले करोड़पति नहींअरबपति कुबेर बन बैठते हैं और इसके साथ ही इतने मगरूर हो जाते हैं कि राष्ट्रीय सम्मान को कबूलने की फुर्सत अपनी धन कमाऊ दिनचर्या से निकाल पाना नाजायज और नामुमकिन समझने लगते हैं। इनकी कदाचारिता को न तो अनदेखा किया जा सकता है और न ही माफ किया जाना चाहिए।

    पद्म-अलंकरण की पात्रता कमल में निहित है। कमल कीचड़ में उगकर कीचड़ से ऊपर उठ जाता है और सूर्य के संस्कार से जुड़ जाता है। सूर्योदय पर खिलता सूर्यास्त पर मुद जाता है। ऐसी सूर्य-आभा से सज्जित व्यक्ति पद्म श्री अलंकरण के अधिकारी होते हैं। जो लक्ष्मी सम्मान को अपमान में बदल दे वह "श्री" नहीं हो सकती है। ई. श्रीधरन ने दिल्ली महानगर की यातायात व्यवस्था को मेट्रो द्वारा सुचारू कर दिया और हर व्यक्ति के हृदय में श्रीधरन का नाम अंकित हो गया। भारत राष्ट्र ने पद्म विभूषित कियाइससे तो इस सम्मान का ही मान बढ गया। अधिकतर लोग लक्ष्मी को कुलक्ष्मी बनाते हैं और कोई व्यक्ति ही लक्ष्मी को सुलक्ष्म- श्री बना पाता है। वही श्रीधरन अथवा श्रीपति-लक्ष्मीपति कहलाने का सुपात्र अधिकारी होता है। साफ्टवेयर कम्पनी इनफोसिस के मुख्य संरक्षक एन.आर. नारायणमूर्ति और उनकी पत्नी प्रेरक पद्म श्रेणी में आते हैंजिन्होंने अपनी सारी आय जनसेवा में लगाने के निर्णय से अपने जीवन को नई गरिमा दे दी है। वे कम्पनी के शेयरों से प्राप्त होने वाला सारा डिवीडेण्ड (लाभांश राशि) समाज के स्वास्थ्यशिक्षापोषण पर व्यय करेंगे। वे चाहते तो  कम्पनी के अध्यक्ष पद का त्याग न करते और प्रभूत लाभ-राशि के निवेश से और अधिक ऐश्वर्य का अर्जन करते रहते। लोकसभा के महानिर्वाचन में खड़े होने वाले प्रत्याशी अपनी सम्पत्ति को करोड़ों में घोषित तो करते  हैंपर वे उसे लक्ष्मी से बढकर "श्री" सम्मान की गौरव गरिमा प्रदान करते दिखाई नहीं दे रहे हैं। हमारे राष्ट्र नागरिक धनवान तो बनें पर श्रीमान भी बनेंयही कामना है।-पं. देवनारायण भारद्वाज

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    Mother - Mother is the creator. Along with giving birth to a child, she creates such a way that through the best works in the world, she establishes the fame of herself, mother and the earth "mother" for all the ages in the world. For this, Mata Kaushalya, Mata Devaki, Mata Yashoda, Mata Jijabai, Mata Amruthaven have to be sacrificed and give birth to Maryada Purushottam Rama, Yogiraj Krishna, Balaram, Chhatrapati Shivaji, Vedodharaka Dayanand and build accordingly.

     

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