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Arya Samaj Indore - 9302101186. Arya Samaj Annapurna Indore |  धोखाधड़ी से बचें। Arya Samaj, Arya Samaj Mandir तथा Arya Samaj Marriage Booking और इससे मिलते-जुलते नामों से Internet पर अनेक फर्जी वेबसाईट एवं गुमराह करने वाले आकर्षक विज्ञापन प्रसारित हो रहे हैं। अत: जनहित में सूचना दी जाती है कि इनसे आर्यसमाज विधि से विवाह संस्कार व्यवस्था अथवा अन्य किसी भी प्रकार का व्यवहार करते समय यह पूरी तरह सुनिश्चित कर लें कि इनके द्वारा किया जा रहा कार्य पूरी तरह वैधानिक है अथवा नहीं। "आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी अन्नपूर्णा इन्दौर" अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट द्वारा संचालित इन्दौर में एकमात्र मन्दिर है। भारतीय पब्लिक ट्रस्ट एक्ट (Indian Public Trust Act) के अन्तर्गत पंजीकृत अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट एक शैक्षणिक-सामाजिक-धार्मिक-पारमार्थिक ट्रस्ट है। आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी के अतिरिक्त इन्दौर में अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट की अन्य कोई शाखा या आर्यसमाज मन्दिर नहीं है। Arya Samaj Mandir Bank Colony Annapurna Indore is run under aegis of Akhil Bharat Arya Samaj Trust. Akhil Bharat Arya Samaj Trust is an Eduactional, Social, Religious and Charitable Trust Registered under Indian Public Trust Act. Arya Samaj Mandir Annapurna is the only Mandir in Indore controlled by Akhil Bharat Arya Samaj Trust. We do not have any other branch or Centre in Indore. Kindly ensure that you are solemnising your marriage with a registered organisation and do not get mislead by large Buildings or Hall.
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  • श्रीराम के सच्चे अनुयायी - केवल आर्य समाजी

    आर्य समाज के बारे में बहुत सी भ्रान्तियॉं पौराणिक पुरोहितों, पुजारियों एवं विद्वानों ने अपने स्वार्थ हित साधारण हिन्दू जनता में फैला रखी हैं। एक गलतफहमी यह भी प्रचलित है कि आर्यसमाजी तो श्रीराम और कृष्ण को मानते ही नहीं। वास्तविक स्थिति यह है कि भले ही वेदों की शिक्षानुसार हम इन महापुरुषों, युगपुरुषों को ईश्वर या ईश्वर का अवतार नहीं मानते, तथापि हम उनका अत्यन्त आदर करते हैं, उनको आर्यों का प्रतीक मानते हैं, उनके आदर्शों पर तथा उनके मार्ग पर चलने का प्रयास करते हैं, जबकि सनातनी (पौराणिक) बन्धु स्वयं उन युग पुरुषों के सन्देश का सम्भवत: सही अर्थ नहीं समझते। इन महापुरुषों को कई चमत्कारों, भ्रमजालों, विसंगतियों और सृष्टिक्रम विरुद्ध मान्यताओं से ओतप्रोत कर रखा है। यदि आज श्रीराम और श्रीकृष्ण स्वयं भी आ कर देखें, तो वे इन मनगढन्त, अव्यावहारिक एवं कपोलकल्पित कथाओं का अनुमोदन नहीं करेंगे, क्योंकि वे महान्‌ वैदिक धर्मी थे और ऐसी तिलिस्मी करामातों में विश्वास नहीं रखते थे।

    Ved Katha Pravachan - 94 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    श्रीराम के समय न गीता थी, न महाभारत लिखी गई थी, न अभी रामायण ही पूरी हूई और न एक भी पुराण था। पुराण ईसा की आठवीं से दसवीं शताब्दी के बीच लिखे गये, यह अन्वेषणों से सिद्ध किया जा चुका है। उनके लेखक ऋषि नहीं थे, उनका नाम श्रद्धालु जनता को भ्रमित करने के लिए लिखा जाता है । प्रश्न यह है कि श्रीराम कौन से धार्मिक ग्रन्थ पढते थे? वह वेद, उपवेद, दर्शन, उपनिषद्‌ ही पढते थे और आज इस वैदिक धरोहर का अध्ययन सनातनी भाई तो नहीं करते दिखाई देते एकाध को छोड़ कर। हॉं, आर्य समाजी अवश्य करते हैं। श्रीराम प्रतिदिन नियमपूर्वक सन्ध्या तथा हवन वेद मन्त्रों के उच्चारण से करते थे। आज उन्हीं वेद मन्त्रों से आर्य समाजी सन्ध्या और हवन अपने घरों/मन्दिरों में करते हैं, पौराणिक नहीं। वे तो आरती बोलते हैं और हवन में नौ ग्रहों की पूजा, गणेश पूजा आदि कराते हैं, जिनका वेदों में जिक्र तक नहीं है। जब आर्य समाजी उन्ही मन्त्रों और उन्हीं धार्मिक ग्रन्थों को आज भी पढते हैं, जिन्हें श्रीराम पढते थे, तो वे राम के सच्चे पथगामी हुए या नहीं? राम तो यज्ञ की रक्षा करने ऋषि विश्वामित्र के साथ वन में गये और मुनियों को अभय किया। सन्त शिरोमणि तुलसीदास रामचरितमानस में लिखते हैं:

    प्रात कहा मुनि सन रघुराईनिर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई।
    होम करन लागे मुनि झारीआपु रहे मख की रखवारी।।

    आज वही वैदिक यज्ञ आर्यसमाजी करते हैं, अत: वही राम के सच्चे अनुयायी हैं। 

    आर्य मन्दिरों में विवाह वैदिक विधि से होता है, परन्तु अपने आपको राम भक्त कहने वाले सनातनी आज ऐसा विवाह कराना पसन्द नहीं करते, जबकि आर्य समाजी करते हैं। बताइये! श्रीराम के पद चिन्हों पर चलने वाले आर्य समाजी हुए या सनातनी? सीता जी के कन्यादान का वर्णन रामचरित मानस में इन शब्दों में किया गया है-

    सुख मूल दूलहु देखि दम्पति पुलक तन हुलस्यो हियो।
    करि लोक वेद विधानु कन्यादानु नृपभूषण कियो।

    और

    क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावंरी।
    करि होमु विधिवत्‌ गांठि जोरी होन लागी भावंरी।।

    अर्थात्‌ रामजी का विवाह और फेरे हवन कुण्ड के चारों ओर हुए और सीता का कन्यादान वेद विधान से हुआ।

    श्रीराम की फैलाई चेतनता से लाखों वर्ष बाद भी विश्व में चेतनता है। उनके आदर्शों के लिए आर्य ही नहीं, समस्त संसार सदैव के लिए ऋणी रहेगा, क्योंकि उनके आदर्श, उनकी मर्यादाएं मानव मात्र पर लागू होती हैऔर उनसे किसी भी मनुष्य का विरोध हो ही नहीं सकता। परन्तु पौराणिकों की लीला तो देखिये कि उस जन जन को चेतनता प्रदान करने वाले महामानव को उनकी जड़ मूर्ति बना कर अपने मन्दिरों के छोटे से किसी कमरे मेंे बन्द कर रखा है और आगे से लोहे की ग्रिल लगा रखी है, मानो श्रीराम कोई कैदी हों। कहते यह हैं कि राम की कृपा से सब को खाने-पहनने को मिलता है, परन्तु राम को प्रतिदिन दो समय खाना खिलाने का नाटक करते हैं। अच्छा है नाश्ता नहीं करवाते, दूध फल आगे रखते हैं, मगर मुंह में नहीं डालते। यह दूसरी बात है कि राम कभी खाते नहीं। रामजी को स्नान करवाते हैं, वस्त्र बदलते हैं, आराम करवाते हैं, गहने पहनाते हैं। जब सबको देने वाले राम ही हैं, तो फिर यह दिखावा क्यों?

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    राम की महानता का कोई पारावार नहीं। उनके आदर्श, मान्यताएं, मर्यादाएं, विकट से विकट परिस्थितियों में भी सम रहने की क्षमता, उदारता, सहनशीलता एक अलग ही कोटि की हैं। उन जैसा माता-पिता का आज्ञाकारी, उन जैसा स्नेही भाई, उन जैसा प्रजापालक और धर्म रक्षक राजा, उन जैसा तपस्वी, त्यागी, धर्मात्मा आज तक कभी नहीं हुआ है। काश, कि पौराणिक हिन्दू जगत्‌ उनकी इस महानता को समझता।

    बेशक आर्य समाज मन्दिरों में राम की प्रतिमा का पूजन न होता हो, उनको भोग न लगाया जाता हो, किन्तु उनके प्रिय वेदों और आर्ष ग्रन्थों का पाठ अवश्य होता है । उनको प्रिय सन्ध्या और हवन रोज होते हैं तथा उनके आदर्शों पर चलने की शिक्षा अवश्य दी जाती है।  मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जयघोष अवश्य होता है। रामनवमी, विजयादशमी तथा दीपावली के पावन पर्वों पर राम के आदर्शों का गुणगान भी होता है। इस प्रकार आर्य समाज राम की सच्ची पूजा करता है, जैसे माता-पिता और गुरुओं की जाती है।  -विशम्भरनाथ अरोड़ा (आर्यजगत्‌ दिल्ली, 9 अप्रेल 2000)

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    अन्नपूर्णा, इंदौर (मध्य प्रदेश) 452009
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    Many misconceptions about Arya Samaj, mythological priests, priests and scholars have spread their selfish interests to the ordinary Hindu people. A misconception is also prevalent that Aryasamaji does not believe in Shriram and Krishna. If Sri Ram and Shri Krishna come and see themselves today, they will not approve these fabricated, impractical and fanciful stories, because they were great Vedic righteous and did not believe in such religious creations.

     

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  • सत्य और न्याय के पोषक-ऋषि दयानन्द

    ऋषि दयानन्द अपने युग की महान विभूति थे। उनके व्यक्तित्व में तेजस्विता, अखण्ड ब्रह्मचर्य, अपूर्व क्रान्ति, योगानुभूति, चुम्बकीय प्रभाव आदि गुण थे। भीष्म पितामह के बाद उनसे बड़ा कोई ब्रह्मचारी नहीं हुआ। जगत्‌ गुरु शंकराचार्य के पश्चात उनसे बड़ा कोई विद्वान्‌ नहीं हुआ। वे सत्य के पुजारी थे। सत्य के लिए ही जिये और सत्य के लिए ही उन्होंने प्राणों की आहुति दी। उन्होंने सत्य के विरुद्ध कभी समझौता नहीं किया। उन्हें सत्य से कोई डिगा नहीं सका। सत्य की रक्षा के लिए उन्हें अनेकों बार जहर पीना पड़ा। वे जीवित शहीद थे। सत्य की यज्ञाग्नि में उन्होंने अपना सर्वस्व होम कर दिया था। गुरुडम और मूर्तिपूजा का खण्डन न करने के लिए उन्हें एकलिंग की गद्दी व अपार धन-ऐश्वर्य का प्रलोभन दिया गया। किन्तु वह निराला तपस्वी, त्यागी, यति अपने ध्येय से टस से मस नहीं हुआ। काशी के विद्वानों ने लालच दिया कि यदि आप मूर्तिपूजा व ब्राह्मणवाद के विरोध में बोलना बन्द कर दें तो हम आपकी हाथी पर सवारी निकाल कर आपको अवतार घोषित कर सकते हैं। किन्तु सत्य के उद्धारक ऋषिवर अपने संकल्प से किंचित विचलित नहीं हुए। सत्यासत्य के प्रकाश के लिए उन्होंने सत्यार्थप्रकाश की रचना की। संसार की आंखों पर पड़ी अज्ञान, अन्धकार, असत्य, पाप-पाखण्ड आदि की पट्टी को खोलकर सबको सत्य मार्ग दिखाया। उनका संकल्प था- ऋतं वदिष्यामि,सत्यं वदिष्यामि। इस व्रत  को उन्होंने जीवन पर्यन्त निभाया। सच्चे शिव की खोज में वे घर से निकले थे। सत्य रूप शिव को उन्होंने पाया और उसको संसार को दिखाया।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    मनुष्य बनने के साधन एवं सूर्य के गुण
    Ved Katha Pravachan -9 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    ऋषि की सत्यनिष्ठा- वह पुण्यात्मा संसार में सत्य की नई रोशनी लेकर आया था। सत्य के प्रकाश के मार्ग में जो पाखण्डआडम्बररूढियॉंअवतारपीर पैगम्बरमसीहामहन्त आदि आएउन्हें तर्क प्रमाण व युक्ति से परास्त किया और "सत्यमेव जयते" के आर्ष वाक्य को जीवित रखा। वे सत्य के कथन में कठोर थे। सत्य के आगे किसी से डरे नहीं और समाज के नियमों में सत्य को पांच बार दोहराया। उनकी दृष्टि में सत्य सर्वोपरि था। वे संसार में सत्य-सनातन वैदिक धर्म प्रचारित एवं प्रसारित करने आए थे। सत्य की रक्षा के लिए उन्होंने ईंटपत्थर तथा गालियॉं खाई। वे इस भूली-भटकी मानव जाति को सत्य पथ दिखाने के लिए संसार में आए थे। इसीलिए वे सदा सत्य के उद्‌घोषक रहे। उनके जीवनव्यवहार और कथन में सत्य ही निकलता था। बरेली के व्याख्यान में कलेक्टर व कमिश्नर को डांटते हुए सम्बोधन में कहा- लोग कहते हैं कि सत्य को प्रकट न करोकलेक्टर क्रोधित होगाकमिश्नर अप्रसन्न होगागवर्नर पीड़ा देगा। अरे! चक्रवर्ती राजा क्यों न अप्रसन्न होहम तो सत्य ही कहेंगे। ऐसी थी उस सत्यवादी ऋषि की निर्भीकता। एक बार सहारनपुर में जैनियों ने कुपित होकर विज्ञापन निकाला। एक भक्त ऋषि के पास आए। बड़े दुखी मन से कहा कि महाराज जैन मत वाले आपको जेल में बन्द कराना चाहते हैं। स्वामी जी ने कहा- भाई! सोने को जितना तपाया जाता हैउतना ही कुन्दन होता है। विरोध की अग्नि में सत्य और चमकता है। दयानन्द को यदि कोई तोपों के मुख के आगे रखकर भी पूछेगा कि सत्य क्या हैतब भी उसके मुख से सत्य और वेद की श्रुति ही निकलेगी। वे सत्य के उपासक थे। जोधपुर जाते समय लोगों ने कहा- स्वामी जी आप जहॉं जा रहे हैं वहॉं के लोग कठोर प्रकृति के हैं। कहीं ऐसा न हो कि सत्योपदेश से चिढकर वे आपको हानि पहुंचाएं। प्रभु विश्वासी ऋषि ने कहा- यदि लोग हमारी उंगलियों की बत्ती बनाकर जला दें तो कोई चिन्ता नहीं। मैं वहॉं जाकर अवश्य उपदेश दूंगा। वह निडर संन्यासी सत्य के पालन के कारण जीवन भर अपमानविरोध और जहर पीता रहा। उन्होंने मृत्यु को हंसते-हंसते वरण किया। वे कभी भी अन्यायअसत्य व अधर्म की ओर नहीं झुके।

    असत्य से समझौता नहीं- ऋषि की वाणी में अद्‌भुत शक्ति और प्रभाव था। जिसने भी उन्हें सुना और उनके सम्पर्क में आया वह प्रेरित होकर लौटा। न जाने कितने मुंशीरामअमीचन्द और गुरुदत्तों को उन्होंने नये जीवन दिए। उनके तप: पूत जीवन से निकली पवित्र वाणी लोगों के जीवन में चमत्कार का कार्य करती थी।

    जोधपुर प्रवास में एक दिन ऋषिवर महाराजा यशवन्त सिंह के दरबार में पहुंचे। महाराजा ऋषि का बड़ा आदर सम्मान करते थे। उस समय महाराजा के पास नन्हीं बाई वेश्या आई हुई थी। ऋषि के आगमन से महाराज घबरा गए। वेश्या की डोली को स्वयं कन्धा लगाकर जल्दी से उठवा दिया। किन्तु इस दृश्य को देखकर पवित्रात्मा ऋषि को अत्यन्त दु:ख हुआ। उन्होंने कहा- राजन्‌ ! राजा लोग सिंह समान समझे जाते हैं। स्थान-स्थान पर भटकने वाली वेश्या कुतिया के सदृश होती है। एक सिंह को कुतिया का साथ अच्छा नहीं होताइस कुव्यसन के कारण धर्म-कर्म भ्रष्ट हो जाता है। मान-मर्यादा को बट्टा लगता है। इस कठोर सत्य से राजा का हृदय परिवर्तन हो गया। नन्हीं बाई की राजदरबार से आवभगत उठ गई। उसे बड़ी गहरी ठेस पहुंची। उसने षड्‌यन्त्र रचा। इस षड्‌यन्त्र में ऋषि के विरोधी भी सम्मिलित हो गए। स्वामी जी के विश्वस्त पाचक को लालच देकर फोड़ा गया। पाचक ने रात्रि को दूध में हलाहल घोलकर पिला दिया। सत्य का पुजारी सत्य पर शहीद हो गया। वह युग पुरुष शारीरिक कष्ट वेदना सहता हुआघोर अंधेरी अमावस्या की रात में संसार को ज्ञान व प्रकाश की दीपावली देता हुआ सदा के लिए विदा हो गया। इसलिए दीवाली का पर्व ऋषि भक्तों और आर्य विचारधारा वालों के लिए विशेष सन्देश व प्रेरणा लेकर आता है। हर साल दीवाली आती हैधूम-धड़ाकेखान-पानमेले व श्रद्धाञ्जलि तक सीमित रह जाती हैऋषि की व्यथा-कथा को कोई नहीं सुन पाता है।

    हम और हमारी श्रद्धाञ्जलि- ऋषि भक्तो ! आर्यो ! उठो ! जागो ! आंखें खोलो ! सोचो ! हृदय की धड़कनों पर हाथ रखकर अपने से पूछो हम दयानन्द और उनके मिशन आर्य समाज के लिए क्या कर रहे हैंहम उस ऋषि के कार्य को कितना आगे बढा रहे हैंउसके प्रचार-प्रसार के लिए कितना योगदान दे रहे हैंउस योगी की आत्मा जहॉं भी होगी हमसे पूछ रही होगी- आर्यो ! मैंने जो सत्य-सनातन वैदिक धर्म की मशाल तुम्हारे हाथों में दी थीउसे तुम समाज मन्दिर में बने स्कूलदुकानबारातघर और औषधालय के कोने में रखकर वेद की ज्योति जलती रहेओ3म्‌ का झण्डा ऊंचा रहे बोलकर शान्ति पाठ कर रहे होमैंने जिन बातों का विरोध किया थाजिस पाखण्डगुरुडमअज्ञान आदि को दूर करने के लिए मैं जीवन भर जहर पीता रहावही सब कुछ तुम जीवन में घर और मन्दिरों में कर रहे हो। जिस सहशिक्षा और अंग्रेजियत की शिक्षा का मैं विरोधी रहावही सब कुछ तुम समाज मन्दिरों में महापुरुषों के चित्रों के नीचे कव्वालियॉं और लड़के-लड़कियों के नाच करा रहे हो। मेरे नाम को व्यापार बनाकर धन बटोरकर मौजमस्ती ले रहे होमैंने तुम्हें जीवन जगत्‌ के लिए श्रेष्ठ सीधा सच्चा व सरल मार्ग दिखाया था। जो प्रभु का आदेशउपदेश और सन्देश वेदवाणी है उसका तुम्हें आधार दिया था। उसके प्रचार-प्रसार का कार्य छोड़कर तुम भी भवनोंदुकानोंस्कूलों और एफडियों की लाइन में लग रहे होपदमानमहत्त्व और सत्ता के लिए ऐसे लड़ने लगे हो जैसे परस्पर पशु लड़ते हैं। तुम्हारी इस चुनावी जंग को देखकर

    श्रद्धालु भावनाशील और विचारों व सिद्धान्तों को प्यार करने वाले लोग तुमसे अलग होते जा रहे हैं। जो मैंने तुम्हें आर्य समाज के माध्यम से श्रेष्ठतम विचारों का चिन्तन दिया थाउसे तुमने इतना संकीर्णसीमित बना दिया है कि अनुयायियों व प्रभाव की दृष्टि से राष्ट्रीय स्तर पर कोई विशेष महत्त्व नहीं रखता है। समाज मन्दिरों को जलसेजलूस व लंगरों तक सीमित करते जा रहे हो। समाज मन्दिरों की दशावातावरणपरिस्थिति आदि को देखकर रोना आता है। क्या मेरे किए हुए कार्यों का यही प्रतिदान हैयही स्मरण हैयही श्रद्धाञ्जलि हैयदि यही है तो आर्यों ! मुझे माफ करो ! मैंने आर्य समाज को बनाकर बड़ी भूल कीमुझे ये उम्मीद न थी जिस रूप में आज समाज है और जिस दिशा में जा रहा है।

    ऋषि के बलिदान दिवस पर शान्त भाव से सच्चाई को समझकर यदि कुछ हम जीवन और आर्य समाज के लिए सोच सकेंकुछ अपने को बदल सकेंकुछ दिशाबोध ले सकेंऋषि के दर्द को समझ सकेंमिशन के लिए तपत्यागसेवा का भाव जगा सकें तो ये लिखी पंक्तियां सार्थक समझी जाएंगी। डॉ. महेश विद्यालंकार

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    There is no compromise with untruth - the sage's voice had amazing power and influence. Whoever heard them and came in contact with them returned inspired. Do not know how many Munshiram, Amichand and Gurudattas gave them new life. The sacred voice that came out of his tenacity and life was a miracle in people's lives.

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  • सत्यार्थप्रकाश की प्रासंगिकता

    ऋषि दयानन्द जिस समय सन्‌ 1860 में गुरु विरजानन्द जी के पास विद्याध्ययन के लिये पहुँचे, उस समय उनकी आयु 36 वर्ष की थी। 1863 में उन्होंने अपने गुरु से दीक्षा ली और उनके पास से अध्ययन समाप्त कर जीवन-क्षेत्र में उतर पड़े। इस समय वे 39-40 वर्ष के हो चुके थे। विरजानन्द जी के पास उन्होंने जो कुछ सीखा वही उनकी वास्तविक शिक्षा थी। क्योंकि इससे पहले वे जो कुछ पढ आये थे, उसे विरजानन्द जी ने भुला देने की उनसे प्रतिज्ञा ली थी। इस प्रकार ऋषि दयानन्द जी की यथार्थ शिक्षा 1960 से 1963 तक अर्थात्‌ कुल तीन वर्ष हुई थी। उन्होंने पीछे चलकर अपने जीवनकाल में जितने व्याख्यान दिये, जितने ग्रन्थ लिखे, जितने शास्त्रार्थ किये, वह इन तीन वर्षों के अध्ययन का ही परिणाम था। इसी से स्पष्ट होता है कि इन तीन सालों में उन्होंने जो पाया था वह कितना मूल्यवान था।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    वेद सन्देश- विद्या एवं ज्ञान प्राप्ति के चार चरण
    Ved Katha Pravachan _35 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    अपने गुरु विरजानन्द जी से ऋषि दयानन्द ने जो गुर पाया था वह आर्ष तथा अनार्ष ग्रन्थों में भेद करना था। 36 वर्ष की आयु से पहले उन्होंने जो कुछ पढा था वह अनार्ष ग्रन्थों का अध्ययन था। आर्ष ग्रन्थों के अध्ययन ने उनके जीवन, उनके विचारों में जो क्रान्ति उत्पन्न कर दी उससे भारत के पिछले वर्षों का इतिहास बन गया।

    इस क्रान्ति का मूल स्रोत सत्यार्थ प्रकाश है। सत्यार्थप्रकाश 1874 में लिखा गया। मुरादाबाद के राजा जयकृष्णदास जी काशी में डिप्टी कलेक्टर थे तब ऋषि दयानन्द काशी पधारे। राजा जयकृष्ण दास ने ऋषि से कहा कि आपके उपदेशामृत से वे ही व्यक्ति लाभ उठा सकते हैं जो आपके व्याख्यान सुनते हैं। जिन्हें आपके व्याख्यान सुनने का अवसर नहीं मिलता उनके लिए अगर आप विचारों को ग्रन्थ रूप में लिख दें, तो जनता का बड़ा उपकार हो। ग्रन्थ के छपने का भार राजा जयकृष्णदास ने अपने ऊपर ले लिया। यह आश्चर्य की बात है कि यह बृहत्कार्य तथा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ, जिसे पं. गुरुदत्त विद्यार्थी ने 14 बार पढकर कहा कि हर बार के अध्ययन से उन्हें नया रत्न हाथ आता है, कुल साढे तीन महीनों में लिखा गया।

    केवल साढे तीन मास में- सत्यार्थप्रकाश का गहराई से अध्ययन करने पर पता चलता है कि इसमें 377 ग्रन्थों का हवाला है। इस ग्रन्थ में 1542 वेद-मन्त्रों या श्लोकों के उद्धरण दिये गये हैं। चारों वेद, सब ब्राह्मण ग्रन्थ, सब उपनिषद्‌, छहों दर्शन, अट्‌ठारह स्मृति, सब पुराण, सूत्रग्रन्थ, जैन-बौद्ध ग्रन्थ, बायबल, कुरान इन सबके उद्धरण ही नहीं, उनके रेफरेंस भी दिये गये हैं। किस ग्रन्थ में कौन-सा मन्त्र या श्लोक या वाक्य कहॉं है, उसकी संख्या क्या है यह सब कुछ इस साढे तीन महीनों में लिखे ग्रन्थ में मिलता है। आज का कोई रिसर्च स्कालर अगर किसी विश्वविद्यालय की संस्कृत की अप-टु-डेट लायब्रेरी में, जहॉं सब ग्रन्थ उपलब्ध हों, इतने रेफरेंस वाला कोई ग्रन्थ लिखना चाहे तो भी उसे सालों लग जायें, जिसे ऋषि दयानन्द ने साढे तीन महीनों में तैयार कर दिया था। साधारण ग्रन्थ की बात दूसरी है। सत्यार्थप्रकाश एक मौलिक विचारों का ग्रन्थ है। ऐसा ग्रन्थ जिसने समाज को एक सिरे से दूसरे सिरे तक हिला दिया। जिन ग्रन्थों ने संसार को झकझोरा है उनके निर्माण में सालों लगे हैं। कार्ल मार्क्स ने 34 वर्ष इंग्लैण्ड में बैठकर "कैपिटल" ग्रन्थ लिखा था जिसने विश्व में नवीन आर्थिक दृष्टिकोण को जन्म दिया।  मार्क्स के ग्रन्थ ने यूरोप का आर्थिक ढॉंचा हिला दिया तथा ऋषि दयानन्द के ग्रन्थ ने भारत का सांस्कृतिक तथा सामाजिक ढॉंचा हिला दिया।

    क्रान्तिकारी विचारों का खजाना- सत्यार्थप्रकाश चुने हुए क्रान्तिकारी विचारों का खजाना है। ऐसे विचारों का जिन्हें उस युग में कोई सोच भी नहीं सकता था। समाज की रचना जन्म के आधार पर नहीं होनी चाहिए, सत्यार्थ-प्रकाश का यही एक विचार इतना क्रान्तिकारी है कि इसके व्यवहार में आने से हमारी 60 प्रतिशत समस्याएँ हल हो जाती हैं। ऐसे संगठन में जन्म से न कोई ऊँचा, न कोई नीचा, जन्म से न कोई गरीब, न कोई अमीर, जो कुछ हो कर्म हो। ऐसी स्थिति में कौन-सी समस्या है जो इस सूत्र से हल नहीं हो जाती।

    शिक्षा क्षेत्र में गुरुकुल शिक्षा- प्रणाली का विचार सत्यार्थप्रकाश की ही देन है, जिसे पकड़ कर उत्तर भारत में जगह-जगह गुरुकुलों का जाल बिछ गया। आज भी हमारी शिक्षा-प्रणाली की जो छीछालेदार हो रही है, उसका इलाज गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली में ही निहित है।

    लोकमान्य तिलक ने कहा था-"स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।" दादा भाई नौरोजी ने भी "स्वराज्य" शब्द का प्रयोग किया था। इन सबसे पहले ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के 8वें समुल्लास में लिखा था-"कोई कितना ही कहे, परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है।" ऋषि दयानन्द के ये वाक्य उस जगत्‌-प्रसिद्ध अंग्रेजी वाक्य से जिसमें कहा गया था- “Good government is no substitute for self-government”  से इतने मिलते-जुलते हैं कि 1874 में अंग्रेजों के राज्य में कोई व्यक्ति यह लिखने का साहस कर सकता था, यह जानकर आश्चर्य होता है।

    आज जिन समस्याओं को लेकर हम उलझे हैं, हरिजनों की समस्या, स्त्रियों की समस्या, गरीबी की समस्या, शिक्षा की समस्या, राष्ट्र-भाषा की समस्या, चुनाव की समस्या, नियम तथा व्यवस्था की समस्या, गोरक्षा की समस्या आदि कौन सी समस्या है जिसका हल सत्यार्थप्रकाश में मौजूद नहीं है और कौन-सा ऐसा हल आज के राजनीतिज्ञों ने ढूँढ निकाला हे, जो सत्यार्थ प्रकाश में पहले से नहीं है।

    वेदों के नाम पर-हिन्दू-समाज की सबसे बड़ी समस्या वेदों की थी। यहॉं हर-कोई हर बात के लिए वेदों का नाम लेता था। स्त्रियों तथा शूद्रों को वेद पढने का अधिकार क्यों नहीं? क्योंकि वेदों में लिखा है- "स्त्री शूद्रौ नाधीयताम्‌।" बाल-विवाह क्यों नहीं होना चाहिए? क्योंकि वेदों में लिखा है- "अष्टवर्षा भवेत्‌ गौरी नववर्षा च रोहिणी। पिता चैव ज्येष्ठो भ्राता तथैव च, त्रयस्ते नरकं यान्ति दृष्टवा कन्यां रजस्वलाम्‌।" जन्म से वर्णव्यवस्था क्यों मानें? क्योंकि वेद में लिखा है- "ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्‌" - ब्राह्मण परमात्मा के मुख और शूद्र उसके पॉंव से उत्पन्न हुए हैं। जैसे मुख बाहु और बाहु मुख नहीं बन सकता, इसी प्रकार  ब्राह्मण शूद्र तथा शूद ब्राह्मण नहीं बन सकता। जब ऋषि दयानन्द ने यह देखा कि वेदों का नाम लेकर हर संस्कृत वाक्य को वेद कहा जा रहा है और वेदों का उद्धरण देकर वेद-मन्त्रों का अनर्थ किया जा रहा है, तब उन्होंने निश्चय कर लिया कि वेदों को ही केन्द्र बनाकर हिन्दू-समाज की रक्षा की जा सकती है और वह रक्षा तभी की जा सकती है, जब जन-साधारण की समझ में आ जाये कि वेदों में क्या कहा गया है।

    वैदिक वाड्‌मय के सम्बन्ध में ऋषि दयानन्द की खोज यह थी कि हर संस्कृत वाक्य तथा हर संस्कृत ग्रन्थ वेद नहीं है। ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिषद्‌, स्मृति, पुराण, सूत्र-ग्रन्थ ये सब वेद नहीं हैं। इन ग्रन्थों में जो कुछ लिखा है वह अगर वेद-विरुद्ध है तो वह त्याज्य है, जो वेदानुकूल है वही  स्वीकार करने योग्य है। ऋषि दयानन्द का हिन्दू-समाज को कहना यह था कि अगर वेद को तुम अपनी संस्कृति का आधार मानते हो, तो इस पैमाने को लेकर चलना होगा। तुम जो चाहो वह वेद नहीं है, वेद जो है वह मानना होगा। इस कसौटी पर कसने से हिन्दू-समाज की 60 प्रतिशत रुढियॉं अपने आप गिर जाती हैं। इस विचारधारा को प्रकट करने के लिए उन्होंने दो शब्दों का प्रयोग किया-आर्ष ग्रन्थ तथा अनार्ष ग्रन्थ। अब तक संस्कृत साहित्य में इस दृष्टि को किसी ने नहीं अपनाया था। संस्कृत के हर ग्रन्थ में जो कुछ लिखा मिलता था वह प्रामाणिक मान लिया जाता था। ऋषि दयानन्द ने इस विचार को ध्वस्त कर दिया।

    वेदों के शब्द रूढिज नहीं- वेदों के सम्बन्ध में ऋषि दयानन्द की दूसरी खोज यह थी कि वेदों के शब्द रूढिज नहीं, यौगिक हैं। यद्यपि यह विचार नया नहीं था, निरुक्तकार का भी यही कहना था। तो भी वेदों के सभी भाष्यकारों ने वैदिक शब्दों के रूढि अर्थ ही किये थे। सायण, उव्वट, महीधर तथा उनके पीछे चलते हुए पाश्चात्य विद्वानों मैक्समूलर, राथ, विल्सन, ग्रासमैन ने मक्खी पर मक्खी मार अनुवाद किया था। सायण आदि एक तरफ वेदों को ईश्वरीय ज्ञान मानते थे तो दूसरी तरफ उनमें इतिहास भी मानते थे, जो वेदों के ईश्वरीय ज्ञान होने के सिद्धान्त से टकराता था। इस बात की उन्हें कोई चिन्ता नहीं थी। असल में सायण का भाष्य किसी गम्भीर विद्वत्ता से नहीं किया गया था, वह एक विशिष्ट लक्ष्य को सामने रखकर किया गया था। दक्षिण के विजयनगर हिन्दू-राज्य के राजा हरिहर और बुक्का के वे मन्त्री थे। मुस्लिम संस्कृति राज्य में प्रतिष्ठित न हो जाये, इसलिए संस्कृत वाड्‌मय का प्रसार करना मात्र इस भाष्य का उद्देश्य था। यही कारण था कि सायण या महीधर के भाष्य गहराई तक नहीं गये और असंगत बातों के शिकार रहे। वह यज्ञों का समय था। इसलिए भाष्यकार समझते थे कि वेदों के अग्नि, वायु, इन्द्र आदि देवता सचमुच स्वर्ग से यज्ञों में पधारते हैं और दान-दक्षिणा आदि लेकर तथा यजमान को आशीर्वाद देकर स्वर्ग चले जाते हैं। पाश्चात्य विद्वानो को यह बात अपनी विचारधारा के अनुकूल पड़ती थी। उनका विचार विकासवाद पर आश्रित था। आदि में मानव जंगली था। जंगली आदमी सूर्य को, अग्नि को और वायु को देवता समझकर पूजे तो यह युक्तियुक्त प्रतीत होता है। पाश्चात्य विद्वान कहने लगे कि वैदिक ऋषि क्योंकि जंगली थे इसलिए अनेक देवताओं को पूजते थे। इस निष्कर्ष में सायण आदि के भाष्य उनके विचारों की पुष्टि करते थे।

    ऋषि दयानन्द ने इस विचार को भी ठोकर मार कर गिरा दिया। वेदों से ही उन्होंने सिद्ध किया कि अग्नि आदि नाम विभिन्न देवताओं के नहीं अपितु एक ही परमेश्वर के हैं।  ऋग्वेद में लिखा है-एकं सद्‌ विप्रा बहुधा वदन्ति अग्निं यमं मातरिश्वानमाहु। परमात्मा एक है, उसे अनेक नामों से स्मरण किया जाता है। इस एक मन्त्र से सारा का सारा विकासवाद कम-से-कम जहॉं तक वेदों का सम्बन्ध है, ढह जाता है।

    तीन प्रकार के अर्थ- ऋषि दयानन्द का कहना था कि वैदिक शब्दों के तीन प्रकार के अर्थ होते हैं- आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक। उदाहरणार्थ- इन्द्र का आधिभौतिक अर्थ अग्नि, विद्युत, सूर्य आदि है, आधिदैविक अर्थ राजा, सेनापति, अध्यापक आदि दैवीय गुणवाले व्यक्ति हैं, आध्यात्मिक अर्थ जीवात्मा, परमात्मा आदि हैं। इसी प्रकार अन्य शब्दों के विषय में कहा जा सकता है। इस कसौटी को सामने रखकर अगर वेदों को समझा जाये, तो न उनमें इतिहास मिलता है, न बहुदेवतावाद मिलता है, न जंगलीपन मिलता है, न विकासवाद मिलता है।

    वेदों के जितने भाष्यकार हुए हैं, इस देश के तथा विदेशों के उनमें सबसे ऊँचा स्थान ऋषि दयानन्द का है। अगर वेदों को किसी ने समझा तो ऋषि दयानन्द ने। अरविन्द घोष ने लिखा है-

     “In the matter of Vedic interpretation Dayanand will be honoured as the first discoverer of the right clues. Amidst the chaos and obscurity of old ingnorance and agelong misunderstanding, his was the eye of direct vision, that pierced the truth and fastened on that which was essential.”

    इस प्रकार इस युग के महायोगी श्री अरविन्द का कहना है कि जहॉं तक वेदों का प्रश्न है, दयानन्द सबसे पहला व्यक्ति था जिसने वेदों के अर्थों को समझने की असली कुञ्जी खोज निकाली। वेदों का अर्थ समक्षने के लिए सदियों से जिस अन्धकार में हम रास्ता टटोल रहे थे उसमें दयानन्द की दृष्टि ही इस अन्धकार को भेदकर यथार्थ सत्य पर जा पहुँचती थी।

    उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में अनेक समाज सुधारक हुए। ऋषि दयानन्द, राजा राममोहनराय, केशवचन्द्र सेन इसी युग की उपज थे। वे सब एक तरफ हिन्दू-समाज के पिछड़ेपन को देख रहे थे, दूसरी तरफ पश्चिमी देशों की प्रगतिशीलता को देख रहे थे। यह सब देखकर वे हिन्दू-समाज को रूढियों की दासता से मुक्त करना चाहते थे। ऋषि दयानन्द तथा दूसरों की विचारधारा में भेद यह था कि जहॉं दूसरे हिन्दू-धर्म, हिन्दू-संस्कृति तथा हिन्दुत्व को समाप्त करने पर तुल गये, वहॉं ऋषि दयानन्द ने हिन्दुओं को हिन्दु रखते हुए उन्हें नवीनता के नये रंग में रंग दिया। कोई वृक्ष जड़ के बिना नहीं खड़ा रह सकता है। जड़ कट जाये, तो वृक्ष गिर जाता है। जड़ को मजबूत बनाकर जो वृक्ष उठता है, वही टिका रहता है।

    कोई समाज अपने भूत के बिना नहीं जी सकता। भूत में पैर जमाकर भविष्य की तरफ बढना, पीछे भी देखना, आगे भी देखना यही किसी समाज के जीवन का गुर है। ऋषि दयानन्द ने इसी गुर को पकड़ा था। पीछे वेदों की ओर देखो, उसमें जमकर आगे भविष्य की ओर पग बढाओ। भूत को छोड़ दोगे तो वृक्ष की जड़ कट जाएगी। भविष्य की अनदेखी कर उठ नहीं सकोगे। यही सत्यार्थ प्रकाश का सन्देश है। - डॉ. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार 

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    The trick that Rishi Dayanand got from his Guru Virjanandji was to distinguish between joy and non-scripture. What he had read before the age of 36 was the study of non-human texts. The history of the last years of India became a history due to the revolution that arose in his life, his thoughts, by the study of the Aasha texts.

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  • सफलता चाहते हैं तो एक लक्ष्य का पीछा करें

    किसी ने खूब कहा है- लक्ष्यरहित जीवन मल्लाहरहित नाव जैसा है। एक लक्ष्य चुनें और उसकी प्राप्ति में जुट जाएँ। ईश्वर-प्रदत्त अमूल्य जीवन को लक्ष्यविहीन रहकर पशुओं की तरह बरबाद कर देना कहॉं की बुद्धिमानी है? जीवन में प्रगति के लिए सबसे पहले एक सुनिश्चित लक्ष्य निर्धारित करना जरूरी है। यदि कोई लक्ष्य नहीं रखा जाता है, तो जीवन का प्रयोजन ही खत्म हो जाता है। जिसने लम्बे समय तक लक्ष्य-प्राप्ति का प्रयत्न किया, वही व्यक्ति अच्छा जीवन जी सकता है।

    Ved Katha Pravachan -12 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    लक्ष्य को चुनते समय एक बात का ख्याल रखें कि यह आपने सोच-समझकर चुना होन कि किसी को देखकर। यदि आपने सोच-समझकर लक्ष्य चुन लिया और लक्ष्यों की मृगतृष्णा में नहीं भटकेतो समझिए आपने आधा कार्य पूरा कर लिया। गाड़ी के लिए सिर्फ गति प्राप्त करना ही कठिन होता है। एक बार गति पकड़ लेने के पश्चात्‌ रास्ता तय करने में कोई खास परेशानी नहीं होती। परन्तु कभी-कभी ऐसा होता है कि अपने बहुमूल्य समय का उपयोग हम व्यर्थ की योजनाएँ बनाने में करने लगते हैं और अनेक लक्ष्य निर्धारित कर लेते हैं। जब हम अनेक लक्ष्य निर्धारित कर लेते हैंतो हमारी हालत उस हिरण के समान हो जाती हैजिसे तपते में भी चारों ओर सरोवर ही दिखाई देता है। अतः एक लक्ष्य सफलता की सीढ़ी है। प्रत्येक युवक को चाहिए कि वह अपने लक्ष्य के अनुरूप वातावरण का निर्माण करे। अच्छे वातावरण में रहना और बुरे वातावरण से बचना सफलता की एक बड़ी आवश्यकता है।

    वातावरण की प्रबलता को मानवीय विवेक और मनोबल से बदला जा सकता है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैंजिनमें कई बार असफल होने वाले लोगों ने लगन तथा सतत पुरुषार्थ के बल पर अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया। पं. मदनमोहन मालवीय ने कहा था कि एक बार लक्ष्य निर्धारित करने पर सफलता अवश्य मिल जाती है। अगर आपका लक्ष्य एक है और उसकी प्राप्ति हेतु की जाने वाली अन्य भी परीक्षाओं में काम आ सकती हैतो विकल्प के रूप में एक जैसी अनेक परीक्षाओं में सफल हुआ जा सकता है। हॉंलक्ष्य के विपरीत मनोभावों की चंचलता के शिकार होकर यदि आप अन्धाधुन्ध या आनन-फानन में परीक्षाओं में बैठेंगेतो नतीजे सकारात्मक आने के अवसर शून्य के बराबर होंगे।

    एक लक्ष्य का निर्धारण ही सफलता तक ले जा सकता है। उदाहरणार्थएक ही स्टेशन से अनेक दिशाओं में गाड़ियॉं जाती हैं। स्टेशन पर उनकी पटरियॉं पास-पास ही होती हैं। किन्तु कुछ ही आगे कई मोड़ आ जाते हैंजो रेलगाड़ियों की दिशाओं को बदल देते हैं। रेलगाड़ियों के गन्तव्य में सैकड़ों किलोमीटर का फासला हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति स्टेशन पर खड़ी रेलगाड़ियों में से बिना अपने गन्तव्य स्थान को ध्यान में रखे किसी भी डिब्बे में बैठेतो वह कहीं भी पहुँच जाएगा। लेकिन यदि वह निश्चित गाड़ी में बैठेगातो निश्चित स्थान पर ही पहुँचेगा। विश्व इतिहास यह बताता है कि कोई भी दुर्भाग्य एक इच्छित लक्ष्य वाले युवकों को सफलता से नहीं रोक सकता। अनेक लक्ष्य उन कामनाओं की तरह होते हैंजो उबलते दूध की तरह खाली बरतन को भी भरा दिखाते हैंकिन्तु उबलता हुआ दूध कुछ समय पश्चात्‌ बैठ जाता है। इसके विपरीत एक लक्ष्य उस बाण की तरह होता हैजो निशाने पर पहुँचकर ही दम लेता है। कार्य कठिन लगे या उसके लिए अधिक परिश्रम करना पड़े तो निराश न हों।

    लक्ष्य तक पहुँचने में आने वाली कठिनाइयों का पूर्ण मनोबल से सामना करें। जो व्यक्ति स्वयं को नकारते हैंवे अपनी असफलता को बुलावा देते हैं। कारणवश असफलता मिल जाएतो भी उत्साह व साहस से इच्छित लक्ष्य की प्राप्ति हेतु संघर्षरत रहें। - कारूलाल जमड़ा

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    Somebody has said a lot - aimless life is like a boat without a boat. Choose a goal and start achieving it. Where is the wisdom of destroying God-given priceless lives like animals without aiming? In order to progress in life it is necessary to first set a definite goal. If no goal is set, then the purpose of life ends. The person who tried to achieve the goal for a long time can live a good life.

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  • समय के प्रवाह को बदलने वाले

    लोग कहते हैं कि बदलता है जमाना अक्सर।
    मर्द वो हैं जो जमाने को बदल देते हैं।

    समय के प्रवाह के साथ प्रायः सभी वह जाते हैं। कोई विरला ही ऐसा महामानव होता है, जो समय के प्रवाह को बदलने में समर्थ होता है। ऐसे महामानव इतिहास में अपना नाम अमर कर जाते हैं। "श्रीयुत स्वामी श्रद्धानन्द जी उन महामना मनुष्यधुरीणों में से थे, जो समय की उपज नहीं होते, अपितु समय को बनाया करते हैं। साधारणतया नेता लोकरुचि का प्रवाह देखकर उसमें वेग या प्रचण्डता पैदा करके ख्याति प्राप्त किया करते हैं। श्रद्धानन्द इसका अपवाद हैं।'' ये वाक्य एक अन्य संन्यासी स्वामी वेदानन्द जी तीर्थ के हैं, जो अक्षरशः सत्य हैं। अपने कथन की पुष्टि में श्री स्वामी वेदानन्द जी तीर्थ गुरुकुल स्थापना का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि- "जिस समय महात्मा मुन्शीराम जी ने इसकी स्थापना का संकल्प किया, उस समय लोगों में इसके लिए कोई अनुकूल भावना न थी, कदाचित्‌ प्रतिकूल भावना भी जागृत न थी। श्रद्धानन्द जी को सत्यार्थप्रकाश से गुरुकुल शिक्षा प्रणाली का एक भाव मिला। उसको उन्होंने समय प्रवाह की परवाह न करते हुए मूर्तरूप दे ही डाला। यह  है उनकी निर्माण कुशलता और इसी कारण वे असाधारण महापुरुष की पंक्ति में समादृत हुए हैं और आचन्द्रदिवाकर होते रहेंगे।'' 

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए-
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    जीवन के बाधक दुरितों के निवारण से सुख

    Ved Katha Pravachan _74 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    प्रवाह के विरुद्ध - उस समय गुरुकुल शिक्षा प्रणाली की विचारधारा को क्रियान्वित करना कोई बच्चों का खेल नहीं था। नई कालेजी शिक्षा के बढ़ते काल में प्राचीन गुरुकुल शिक्षापद्धति को प्रचलित करना स्वयं में एक समस्या थी। लोगों के मन में प्रायः यह शंका उठा करती थी कि केवल संस्कृत पढ़ा व्यक्ति अपनी आजीविका कैसे अर्जित कर पायेगा? कोई कहता था कि माता-पिता के बिना बच्चे गुरुकुल में कैसे रह पायेंगे? फिर उसके लिए धन जुटना कोई सरल बात नहीं थी। इस सम्बन्ध में पं. इन्द्र विद्यावचस्पति लिखते हैं कि- "आज तीस हजार रुपये इकट्‌ठा करना बच्चों का खेल मालूम होता है। परन्तु तब गुरुकुल के लिये तीस रुपये भी एकत्र करना असम्भव सा प्रतीत होता था। जब हितैषियों ने पिता जी की बात सुनी तो यह समझा कि इस व्यक्ति का दिमाग फिर गया है। लोग यह भी नहीं जानते थे कि "गुरुकुल' किस चिड़िया का नाम है?'' 

    आर्यसमाज लाहौर के वाषिकोत्सव पर आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब का भी अधिवेशन चल रहा था। उसमें गुरुकुल स्थापना का विषय उपस्थित हुआ। पक्ष-विपक्ष में अनेक वक्ता बोल चुके। किन्तु विवाद था कि समाप्त होने में ही न आ रहा था। इतने में एक सदस्य खोल उठा- "अच्छा प्रधान जी! अब आपकी भी सुननी चाहिए। प्रधान थे श्री स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज। वे अपने आसन से उठे और अति गम्भीर भाव से चारों ओर दृष्टि डालकर ब्रह्मचर्याश्रमपूर्वक गुरुकुल शिक्षा-पद्धति पर प्रकाश डालने लगे। इतने में जनता में से एक धीमी सी आवाज फिर उठी कि- "धन कहॉं से आयेगा?'' बस फिर क्या था, प्रधान जी गरज उठे- '"मुन्शीराम जब तक तीस हजार न जमा कर लेगा, घर में घुसना उसके लिये हराम होगा।'' बस इस घोषणा के साथ समय ने नया मोड़ लिया और यह विवाद कि गुरुकुल खोला जाये या नहीं समाप्त हो गया। फिर भी लोगों के मन में यह शंका बनी रही कि यह वकील साहब इतना धन कैसा इकट्‌ठा कर पायेंगे?

    इस सम्बन्ध में पं. सत्यदेव विद्यालंकार का कथन है कि तीस हजार रुपया इकट्‌ठा करना उस समय मामूली बात न थी। पर वह था धुन का पक्का। उसे यह सवाल हल करना ही था कि "कौमें पागलों के पीछे होती हैं।'' और वस्तुतः गुरुकुल-शिक्षा प्रणाली के लिए पागल उस महामानव ने यह कार्य कर दिखाया। गुरुकुल की स्थापना हुई। अब प्रश्न था कि बच्चे कहॉं से आयेंगे। तब उस दीवाने ने सबसे पहले अपने बच्चे इस कार्य के लिए समर्पित किये और शिक्षक के रूप में भी स्वयं को प्रस्तुत कर दिया। इस प्रकार जो विचार एक स्वप्न सा दिखाई देता था, वह साकार हो उठा और समय मुंह ताकता रह गया। 

    चुनौती का सामना - स्वामी जी के जीवन में एक अवसर और आया, जब उन्होंने समय की चुनौती को स्वीकारा और उसे पराजित करके रख दिया। जलियांवाला बाग में जनरल डायर द्वारा भयंकर नरसंहार के बाद अमृतसर में कांग्रेस का अधिवेशन होना था, जिसकी अध्यक्षता मोतीलाल नेहरू को करनी थी। परन्तु इस भयंकर नरसंहार के बाद अमृतसर की जनता इतनी भयभीत थी कि कोई कांग्रेस का नाम तक लेने को तैयार न था। परिणाम यह हुआ कि स्वागताध्यक्ष बनने को कोई तैयार न हुआ। अन्त में सबकी नजर स्वामी श्रद्धानन्द पर गई और स्वामी जी ने समय की इस चुनौती को स्वीकार कर लिया। 

    एक बड़े से सूखे तालाब के बीचों-बीच गहरे स्थान पर ऊंचा सा मञ्च बनाया गया। चारों ओर दर्शक-दीर्घाएं बनाई गई। एक ओर प्रेस-प्रतिनिधियों के लिए स्थान निर्धारित किया गया । इस प्रकार एक बहुत बड़ा पण्डाल बनकर तैयार हो गया। प्रतिनिधियों और स्वयंसेवकों के निवास के लिए छोलदारियां और तम्बू लगाये गये। अधिवेशन में दो-तीन दिन ही शेष थे कि एक दिन भयंकर तूफान के साथ मूसलाधार वर्षा और आन्धी आ गई, जिससे सारा पण्डाल ध्वस्त हो गया और अधिवेशन स्थल पानी से भर गया। अब और पण्डाल बनाने के लिये न तो समय था और न ही स्थान। ऐसी विषम परिस्थिति में कांग्रेस के अधिकारियों ने यही उचित समझा कि इस वर्ष का अधिवेशन स्थगित कर दिया जाये। 

    पर आपदाओं के साथ टक्कर लेने में अभ्यस्त स्वामी जी इसके लिये तैयार न हुए। उन्होंने घोषणा कर दी कि कांग्रेस का अधिवेशन अवश्य होगा और पूर्व-निर्धारित तिथियों में ही होगा। सभी आश्चर्यचकित थे कि यह कैसा व्यक्ति है, जो परिस्थितियों के आगे झुकना जानता ही नहीं और हर असम्भव बात को सम्भव कर दिखाना बड़ा सहज समझता है। स्वामी जी ने अमृतसरवासियों के नाम एक अपील जारी की और ऐसी विषम परिस्थिति में हरसम्भव सहायता के लिए प्रेरित किया। 

    बस फिर क्या था, नगर के सैकड़ों व्यापारी एवं स्वयंसेवक एकत्र होकर सेवा करने के लिए आगे आये और सबके सब परस्पर कन्धे से कन्धा मिलाकर अधिवेशन को सफल बनाने के काम में जुट गये। 15-20 पम्पसैट लगाकर पण्डाल का सारा पानी निकाला गया, सारे मलबे का ढेर एक ओर हटाकर उस पर सूखी राख बिछा दी गई। दोबारा बृहत्‌ पण्डाल तैयार किया गया और पूरी तैयारी हो गई। लगता था कि जैसे कुछ हुआ ही न हो। केवल प्रतिनिधियों को ठहराने की व्यवस्था शेष रह गई। 

    स्वामी जी ने पुनः एक अपील जारी की कि प्रत्येक अमृतसर निवासी कम से कम एक अतिथि को अपने यहॉं ठहराने और भोजन आदि की व्यवस्था करें। स्वामी जी की इस अपील पर सैकड़ों आर्यसमाजी स्टेशन पर पहुंच गये और अपनी-अपनी सामर्थ्यानुसार अतिथियों को अपने घर लिवा ले गये। इस प्रकार हजारों अतिथियों के निवास, भोजन आदि की व्यवस्था की समस्या का चुटकियों में समाधान हो गया। यह कार्य स्वामी श्रद्धानन्द जी जैसे दृढ़संकल्प वाले व्यक्ति के ही बस का था और उन्होंने इसे करके भी दिखा दिया। लक्ष्य है-

    बहादुर कब किसी का अहसान लेते हैं?
    वही वो कर गुजरते हैं, जो दिल में ठान लेते हैं।

    वस्तुतः स्वामी श्रद्धानन्द समय की हर चुनौती का सामना करने के लिए सदैव समुद्यत रहते थे। वे समय के दास नहीं थे, समय के निर्माता थे। -आचार्य डॉ.संजयदेव

    स्वामी श्रद्धानन्द 

    चरण स्पर्शों से उन्हीं के पूत गंगाधर थी।
    वाणियों से वेद सरिता प्रेम की आगार थी।। 

    ज्ञान से था बुद्ध आत्मा, सत्य से मन शुद्ध था।
    मानवी कल्याण तप से, आत्म तेज प्रबुद्ध था।। 

    सब जनो की उन्नति में, एक उनका ध्यान था। 
    आर्य होवे जगत्‌ सारा, मनुज मात्र समान था।। 

    परम श्रद्धानन्द थे वे, ओज की इक मूर्ति थे। 
    त्याग और बलिदान में भी, आहुति की मूर्ति थे।। 

    देश सेवा जाति सेवा ध्येय था, इक लक्ष्य था। 
    दलित सेवा में बताओ, कौन जो समकक्ष था।। 

    आर्य संस्कृति धर्म वैदिक में उन्हें विश्वास था। 
    दास थे जो मनुजता के, जग उन्हीं का दास था।। 

    - डॉ. इन्द्रसेन जेतली

     

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  • सामाजिक उत्थान और आर्यसमाज

    उन्नीसवीं शताब्दी में भारत का अंग्रेजों द्वारा धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक शोषण अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया था। भारतीय समाज दोहरे संकट से गुजर रहा था। एक उसकी स्वयं की दयनीय दशा और दूसरा इस्लाम तथा ईसाइयत का तेजी से बढता हुआ सर्वग्रासी रूप। धर्म का वास्तविक स्वरूप लुप्त हो चुका था। पाखण्ड, आडम्बर, अन्धविश्वास आदि ने धर्म को आच्छादित कर लिया था। धर्म के नाम पर पापाचार पनप चुके थे। जात पांत, छुआछूत, बाल विवाह, दहेज प्रथा जैसी कुरीतियॉं समाज को जर्जर कर रही थीं। सत्ती प्रथा तथा बहुविवाह, दहेज जैसी क्रूरताएं समाज में विद्यमान थीं। समाज में नैतिक अध:पतन हो जाने के कारण स्त्रियों की दशा अत्यन्त दयनीय थी। राजनीतिक स्वतन्त्रता के अभाव में तत्कालीन आर्थिक स्थिति जर्जर हो गई थी। अंग्रेजों की शोषण नीति के फलस्वरूप भारतीय कृषि व्यवस्था और कुटीर उद्योग धन्धे नष्ट हो गए थे। आर्थिक कठिनाइयों से त्रस्त निम्न वर्ग को ईसाई बनाया जा रहा था।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    वेद ज्ञान के आचरण से ही कल्याण।

    Ved Katha Pravachan - 101 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    राष्ट्र का पुनर्जागरण- ऐसे समय में पुनर्जागरण की लहर समाज में आयी। पुनर्जागरण का अर्थ है कुछ समय निद्रा के उपरान्त राष्ट्र के मानस एवं आत्मा का जाग्रत होना। धार्मिक और सुधारवादी आन्दोलनों में ब्रह्मसमाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन, प्रार्थना समाज एवं थियोसोफिकल सोसाइटी प्रमुख हैं। राजा राममोहन राय ने पर्दा प्रथा, बहु विवाह, स्त्रियों में अशिक्षा, सती प्रथा आदि कुरीतियों के निराकरण का प्रयास किया। प्रार्थना समाज ने अवतारवाद, बहुदेववाह, मूर्ति पूजा, पुजारियों की सत्ता के विरोध के साथ-साथ धार्मिक एवं सामाजिक सुधार का प्रयत्न किया, जिससे हिन्दू समाज जाग्रत हो सके । रामकृष्ण परमहंस ने सभी धर्मों को समान बता कर धार्मिक समन्वय पर बल दिया। इसके पश्चात्‌ थियोसोफिकल सोसाइटी ने भारतीय संस्कृति के गौरव ग्रन्थों वेदों, उपनिषदों के अध्ययन एंव धर्माचरण की प्रेरणा दी।            

    वैदिक हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान- धार्मिक नवजागरण का सबसे प्रभावशाली कार्यक्रम आर्यसमाज द्वारा संचालित किया गया। आर्य समाज ने निराकार ब्रह्म की उपासना एवं भारतीय संस्कृति पर आधारित शिक्षा व्यवस्था सुलभ कराने पर बल दिया। धार्मिक पुनर्जागरण में आर्य समाज आन्दोलन ने महत्वपूर्ण कार्य सन्पादित किये। स्वामी दयानन्द सरस्वती उस सुधार और पुनर्गठन के समर्थक थे, जो विभिन्न मजहबों के समन्वय पर आधारित न हो कर शुद्ध हिन्दू परम्पराओं की मान्यताओं पर आधारित था। स्वामी दयानन्द का उद्देश्य धर्म निरपेक्षता अथवा ईसाई, इस्लामी धर्मों की मान्यताओं की एकता की खोज न करके वैदिक धर्म का पुनरुन्नयन करना है। स्वामी जी का विचार था कि हिन्दू धर्म में नवजीवन तभी आ सकता है, जब समाज में व्याप्त रूढियों, अन्धविश्वासों तथा निर्मूल परम्पराओं को समाप्त करके वैदिक धर्म की स्थापना की जाए।        

    वेद ज्ञान का मूल स्रोत- महर्षि दयानन्द ने हिन्दू समाज को संगठित करने का प्रयास किया। महर्षि दयानन्द के प्रेरणास्रोत वेद एवं अन्य प्राचीन ग्रन्थ थे। उन्होनें वेदों को समस्त ज्ञान का भण्डार सिद्ध किया और वैदिक ज्ञान के आलोक में भारतीय जनमानस में व्याप्त अज्ञानजनित अन्धकार को दूर करने का सार्थक प्रयास किया। स्वामी दयानन्द मुख्यत: धार्मिक सुधारक थे। उन्होंने स्त्री और शूद्रों को वेदाध्ययन का अधिकारी बनाया और निम्न वर्ग पर हो रहे अत्याचारों की निन्दा की। अपनी वाणी, लेखनी, व्याख्यान, शास्त्रार्थ द्वारा हिन्दू समाज को जाग्रत करने का प्रयास किया ।

    पाखण्डों का खण्डन- आर्य समाज आन्दोलन ने व्यापक आन्दोलन का रूप लिया और समाज को नवीन प्रकाश प्रदान किया। महर्षि दयानन्द के अनुसार धर्म का अभिप्राय कर्मकाण्ड के जटिल क्रिया जाल का पालन ही नहीं, अपितु धर्म उन उदात्त गुणों की समष्टि का नाम है, जो मनुष्य के नैतिक संवर्धन तथा आध्यात्मिक उत्थान में सहायक होते हैं। स्वामी दयानन्द ने वेद को धर्म का मूलाधार बताया है। अपने ग्रन्थों द्वारा पाखण्ड एवं अन्धविश्वास दूर करने का प्रयत्न किया।

    आर्य समाज के प्रचार प्रसार में अनेक वीतराग तपस्वी, संन्यासियों, विद्वानों और उत्साही प्रचारकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आज आर्य समाज की अनेक शाखाएं वैदिक संस्कृति का प्रचार कर रही हैं।

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    सामाजिक सुधार- सामाजिक क्षेत्र में स्वामी दयानन्द और आर्य समाज आन्दोलन का अत्यधिक महत्वपूर्ण योगदान है। तत्कालीन समाज में अल्पायु में बालक व बालिकाओं का विवाह कर दिया जाता था। महर्षि दयानन्द ने ब्रह्मचर्य पर बल दिया। विवाह की आयु न्यूनतम 24 वर्ष पुरुष एवं 16 वर्ष कन्या के लिए निर्धारित की। स्वस्थ स्त्री-पुरुष के विवाह से उत्तम सन्तान प्राप्त होती है। महर्षि ने वर एवं कन्या के गुण-कर्म-स्वभाव मिलने पर ही परस्पर विवाह करने का विधान बताया है।     

    आर्य समाज ने विधवाओं के लिए विधवाश्रम, अनाथों के लिए अनाथालयों की स्थापना की। तत्कालीन समाज में व्याप्त भूत प्रेत की पूजा, जादू टोनें में विश्वास, सन्तान प्राप्ति के लिए विविध कर्म, तन्त्र, मन्त्र आदि अन्धविश्वासों को महर्षि ने दूर करने का प्रयास किया। महर्षि ने जन्मगत जाति प्रथा का विरोध करते हुए गुण-कर्म के आधार पर वर्ण-व्यवस्था का पुन: निर्धारण किया। दलितों के उद्धार के लिए दलितोद्धार सभा, अछूतोद्धार सभा, दलितोद्धार संगठन आदि स्थापित किए गए, जिससे निम्न जातियों का उत्थान हो सके।

    वेदाध्ययन का अधिकार- महर्षि दयानन्द ने वेदों के प्रमाण द्वारा सभी को वेदाध्ययन का अधिकार दिया है। नर-नारी शूद्र सहित सभी को वेद पढने का अधिकार प्राप्त है। आर्य समाज के सुधार आन्दोलनों का भारतीय समाज और संस्कृति पर बहुमुखी प्रभाव पड़ा। आर्य समाज के प्रादुर्भाव के समय भारत धार्मिक और नैतिक दृष्टि से पतन की ओर अग्रसर था। समाज में बहुदेवतावाद, अवतारवाद, मूर्तिपूजा के प्रचलन के साथ-साथ धर्मों के नाम पर अनेक कुकर्म हो रहे थे। महर्षि ने निराकार, अजन्मा, परमात्मा की पूजा, आराधना, उपासना तथा सन्ध्या हवन करने की सलाह दी।

    राष्ट्रवादी शिक्षा- भारतवर्ष में राष्ट्रीय शिक्षा के अग्रदूतों में महर्षि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा गान्धी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, मदनमोहन मालवीय और अरविन्द घोष प्रमुख हैं। भारतवर्ष में राष्ट्रीय शिक्षा के प्रर्वतक और उन्नायक महर्षि दयानन्द हैं। उन्होंने प्राचीन संस्कृति पर बल देते हुए गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति की आधारशिला रखी। उन्होंने आदर्शवाद, प्रकृतिवाद, समाजवादी दर्शन को समन्वित करते हुए सत्य, सदाचार एवं ब्रह्मचर्य पर बल दिया। शिक्षा वैयक्तिक एवं सामाजिक उन्नति के लिए है।        

    भारतवर्ष में स्त्री शिक्षा के उन्नायक महर्षि दयानन्द को माना जा सकता है। उन्होंने जाति भेदमूलक शिक्षा व्यवस्था का विरोध किया और स्त्रियों तथा शूद्रों को वेद पढने का अधिकार प्रदान किया। संस्कृत भाषा के ज्ञान के बिना शिक्षा अपूर्ण है। स्वामी जी का विचार है कि स्वावलम्बन की भावना शिक्षा के मूल में होनी चाहिए। उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति के शिक्षित होने पर बल दिया। वर्तमान समय में गुरुकुल, कन्या गुरुकुल, डी.ए.वी. कालेज, आर्य बाल विद्या मन्दिर, आर्य माडल स्कूल, आर्य पब्लिक स्कूल आदि में परम्परागत भारतीय संस्कृति और नवीन पाश्चात्य ज्ञान के समन्वय के आधार पर इस समय शिक्षा दी जा रही है। पांच हजार से भी अधिक शिक्षा संस्थाएं देश विदेशों में आर्य समाज द्वारा संचालित की जा रही हैं।            

    स्वराज्य का मन्त्र- महर्षि ने राजनीतिक और आर्थिक सुधारों पर बल दिया। स्वराज्य का मन्त्र सर्वप्रथम महर्षि द्वारा उद्‌घोषित किया गया। महर्षि दयानन्द ने भारत को राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक रूप में एक सूत्र में बान्धने का प्रयास किया। उन्होंने स्वदेश, स्वधर्म, स्वजाति, स्वसंस्कृति और स्वभाषा का प्रबल समर्थन करके भारतवासियों में राष्ट्रीय भावना का संचार किया।   

    आर्थिक चिन्तन- आर्य समाज ने आर्थिक सुधारों पर भी ध्यान दिया। स्वामी जी का मत है कि करों का उद्देश्य प्रजा का सुख है। महर्षि ने बीस प्रतिशत बजट शिक्षा, बीस प्रतिशत धन स्थिर कोष, बीस प्रतिशत राज्य, तीस प्रतिशत रक्षा व्यवस्था के लिए निर्धारित किया है। महर्षि द्वारा प्रतिपादित अर्थव्यवस्था आज भी प्रासंगिक है। आर्य समाज ने सामाजिक, धार्मिक, नैतिक सुधार, जातिवादी परम्पराओं में सुधार, शिक्षा के क्षेत्र में सुधार तथा राजनीतिक, आर्थिक सुधारों द्वारा हिन्दुओं की क्षीण शक्ति को पुनजीर्वित किया और समाज को नई दिशा प्रदान की। महर्षि दयानन्द का स्पष्ट मत है कि मानसिक, सामाजिक, राजनीतिक सभी प्रकार की दासता से मुक्ति प्राप्त होनी चाहिए। अपने स्थापनाकाल से आज तक आर्य समाज विविध सुधार कार्यों में सफलतापूर्वक अग्रसर होता रहा है। इसके प्रगतिशील विचार और मानवतावादी सन्देश समाज को नई दिशा प्रदान करते हैं। महर्षि दयानन्द को भारत के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक सुधार के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। लेखक- डा. आर्येन्दु द्विवेदी

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  • साम्प्रदायिकता की समस्या और ऋषि दयानन्द

    साम्प्रदायिकता भारतीय समाज की चिर-परिचित समस्याओं में से प्रमुख विचारणीय समस्या रही है। वर्तमान युग में तो इस समस्या का राजनीतिकरण हो जाने के कारण यह अत्यधिक जटिल एवं चिन्तनीय हो गई है। साम्प्रदायिक विद्वेष, दंगे, उग्रवाद, आतंकवाद और अल्पसंख्यकवाद तथा बहुसंख्यकवाद की राजनीति ये समस्या के जाने-पहचाने चेहरे हैं, जो समय-समय पर राष्ट्रीय परिदृश्य में दृष्टिगोचर होते रहते हैं। कभी आक्रामक रूप में तो कभी सामान्य रूप में ये सामाजिक शान्ति, प्रगति और स्थायित्व के राष्ट्रीय तन्त्र को प्रभावित करते हैं।

    इस समस्या के समाधान हेतु समय-समय पर विभिन्न विचारकों ने समाधान भी प्रस्तुत किये हैं, जिनमें महात्मा गांधी का "आदर्शवादी समाधान" विशेष प्रसिद्ध है, जिसे "सर्वपन्थ समभाव" के रूप में जाना जाता है। स्वामी विवेकानन्द और सर्वपल्ली राधाकृष्णन प्रभृति दार्शनिकों का भी यही मन्तव्य है। इस दृष्टिकोण के अनुसार सभी पन्थ ईश्वर की ओर ले जाने वाले कल्याण-मार्ग हैं। इसलिए मानव-मात्र को सभी पन्थों के प्रति समान आदर भाव प्रदर्शित करना चाहिए। यह समाधान सभी पन्थों में निहित सत्य, परोपकार, पवित्रता, सेवा, करुणा जैसे उदात्त मूल्यों पर बल देता है। परन्तु इस "समभाव" से इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं मिलता है कि विभिन्न धार्मिक सम्प्रदाय परस्पर टकराते क्यों हैं? और इस टकराव में वे क्यों एक दूसरे का अस्तित्व मिटाने के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं। साम्प्रदायिक टकराव से कैसे बचा जा सकता है, जिसकी सामाजिक समरसता, शान्ति और स्थायित्व के लिए आज नितान्त आवश्यकता है।

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    Ved Katha Pravachan -14 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    ऋषि दयानन्द ने इस जटिल समस्या के ऊपर आदर्श और यथार्थ- दोनों दृष्टियों से विचार किया हैजो प्रस्तुत निबन्ध का प्रतिपाद्य विषय भी है। आदर्शवादी दृष्टिकोण को अपनाते हुए उन्होंने विभिन्न मत-पन्थों में निहित शाश्वत मूल्यों एवं सिद्धान्तों को न केवल स्वीकार किया हैवरन्‌ उनके आधार पर समाज के पुन: संगठन पर बल भी दिया है। उनके शब्दों में, "आजकल बहुत विद्वान्‌ प्रत्येक मतों में हैंवे पक्षपात छोड़ सर्वतन्त्र सिद्धान्त अर्थात्‌ जो-जो बातें सबके अनुकूल हैंउनका ग्रहण करना और जो-जो बातें एक दूसरे के विरुद्ध हैंउनका त्याग कर प्रीति से बर्तें तो जगत्‌ का पूर्ण हित होेवे" (सत्यार्थ प्रकाश-भूमिका)

    ऋषि का यह सुविचारित मत है कि उन शाश्वत मूल्यों एवं सिद्धान्तों का मूल स्रोत "वेद" हैजो ईश्वरीय ज्ञान होने के कारण निर्भ्रान्त है। अतएव मानव-मात्र के लिए वेदों में प्रतिपादित धर्म-आचार अनुपालनीय एवं रक्षणीय है। दयानन्द इस देश के सांस्कृतिक इतिहास पर दृष्टिपात करते हुए भी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि पॉंच हजार वर्ष से पूर्व वेद मत से भिन्न संसार में दूसरा कोई मत न था। क्योंकि वेदोक्त सब बातें विद्या से अविरुद्ध हैं। वेदों की अप्रवृत्ति होने के कारण महाभारत का युद्ध हुआ। उसके उपरान्त संसार में सर्वत्र अज्ञानान्धकार व्याप्त हो गया। मनुष्य की बुद्धि भ्रमित होने से जिसके मन में जैसा आया मत चलायाजिनकी संख्या आज सहस्त्र से कम नहींपरन्तु अध्ययन-मनन की सुविधा की दृष्टि से उन्हें चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- पुराणीजैनीकिरानी और कुरानी। (सत्यार्थ प्रकाश-एकादश समुल्लासअनुभूमिका)

    ऋषि दयानन्द ने इन चार वर्गों पर विचार करते हुए यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाया है और उन कारणों की पहचान करने का प्रयास किया हैजिनके कारण एक सम्प्रदाय दूसरे से टकराता है। वे कारण हैंविभिन्न सम्प्रदायों की मिथ्या वेद-विरुद्ध मान्यताएं एवं अन्धविश्वास यथा मूर्तिपूजाअवतारवादपैगम्बरवादचमत्कारपाप-क्षमाश्राद्ध-तर्पणतीर्थ-महात्म्यगुरुडमवादनाम-स्मरणग्रहवाद आदि-आदि। साम्प्रदायिक संघर्ष की जड़ें इन भिन्न मान्यताओं में हैं। इसीलिए स्वामी दयानन्द अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के उत्तरार्द्ध की रचना करके विभिन्न सम्प्रदायों की असंगतता को सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैंजो संक्षेप में इस प्रकार है-

    ऋषि दयानन्द ने पुराणी वर्ग के अन्तर्गत वाममार्गियों से लेकर ब्रह्मसमाजियों तथा प्रार्थना समाजियों तक का उल्लेख किया है। पुराणी वर्ग के अन्तर्गत आने वाले सम्प्रदायों की प्रमुख मान्यताएं हैं- अवतारवादगुरुडमवादभाग्यवादमूर्तिपूजाश्राद्ध-तर्पणव्रततीर्थाटनगंगा-स्नानपाप-क्षमा और नाम-स्मरण आदि। ये वेदों को प्रमाण रूप में तो स्वीकार करते हैंकिन्तु तन्त्र-साहित्यपुराणउपपुराण आदि इनके मुख्य ग्रन्थ हैं। अत: इन्हें ही विशेष मान्यता प्रदान करते हैं। पुजारीमहन्तसाधुतान्त्रिकओझा और पण्डित आदि इन पौराणिक सम्प्रदायों के धर्म-गुरु तथा व्यवस्थापक माने जाते हैं। मूर्तिपूजा इनकी आय का नियमित स्रोत होता है तथा श्राद्ध-तर्पणव्रत-अनुष्ठान आदि आय के अन्य आवश्यक साधन माने जाते हैं।

    जैनी वर्ग के अन्तर्गत दयानन्द ने वेद-विरोधी चार्वाकजैनोंबौद्धों का समावेश किया है। उन्होंने इनकी समीक्षा "सत्यार्थप्रकाश" के द्वाद्वश समुल्लास में विशेष रूप से की है। दयानन्द के मतानुसार इन वेद विरोधी मतों का जन्म वैदिक धर्म में विकृति आने के कारण उसकी प्रतिक्रियास्वरूप हुआ। इन्होंने वैदिक साहित्य तथा परम्परा के समानान्तर अपने स्वतन्त्र साहित्य तथा परम्परा की रचना की। ऋषि दयानन्द के अनुसार यही कारण है कि पौराणिकों की भॉंति इन सम्प्रदायों में साधु-साध्वी आदि भी दृष्टिगोचर होते हैं। दयानन्द के मतानुसार मूर्तिपूजा जैनियों से प्रचलित हुई और बौद्धों तथा पौराणिकों में उत्कर्ष पर पहुँच गयी।

    किरानी वर्ग के अन्तर्गत दयानन्द ने यहूदी तथा ईसाई मजहबों का उल्लेख किया है जिनमें से दयानन्द युगीन भारतवर्ष में ईसाई धर्म अंग्रेज शासकों के धर्म के रूप में प्रतिष्ठापित था। जबूरतौरेत तथा इंजील इनकी धार्मिक पुस्तकें हैं। पैगम्बरवादपाप-क्षमाचमत्कार आदि इनकी प्रमुख धार्मिक मान्यताएं हैं।पादरीपोप आदि इनके धर्म-गुरु समझे जाते हैं। अनुयाइयों द्वारा दान इनकी आय का प्रमुख स्रोत होता है।

    इनके अलावा कुरानी वर्ग के अन्तर्गत दयानन्द ने शियासुन्नी आदि सम्प्रदायों का उल्लेख किया है। इस वर्ग में मुसलमान आते हैंजिनमें भारतवर्ष के सभी मुस्लिम सम्प्रदायों का समावेश हो जाता है। कुरान-मजीदहदीस आदि इनकी धार्मिक पुस्तकें मानी जाती हैं। पैगम्बरवादपाप-क्षमाचमत्कारवाद आदि इनकी भी प्रमुख धार्मिक मान्यताएं हैं। इमाममुल्लामौलवीहाफिज आदि इनके धर्म-गुरु समझे जाते हैं। इस वर्ग की आय का प्रमुख साधन मुसलमानों से समय-समय पर प्राप्त आय समझी जाती है।

    दयानन्द इन सभी मत-पन्थों/सम्प्रदायों का गहराई से अध्ययन-मनन करने के उपरान्त सहजत: इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि विभिन्न सम्प्रदायों का आधार सम्प्रदायजनित अन्धविश्वास तथा भ्रान्त धारणाएं हैंजन-साधारण में व्याप्त अज्ञानता में ही जिनकी जड़े हैं। इसलिए साम्प्रदायिक गुरुओं और प्रवक्ताओं के सभी दावों तथा आश्वासनों को जन-साधारण समुचित परीक्षा किये बिना ही स्वीकार करने लगते हैं और इसी कारण साम्प्रदायिक आग्रहों में फॅंसी साधारण जनता अपनी-अपनी साम्प्रदायिक मान्यताओं और आस्थाओं को दूसरों से श्रेष्ठ समझने लगती हैजो कालान्तर में अन्य सम्प्रदायों के प्रति असहिष्णुता या कट्‌टरता तथा ईर्ष्या-द्वेष के रूप में सामने आती है। दयानन्द विभिन्न सम्प्रदायों के बीच टकराव तथा ईर्ष्या-द्वेष के लिए धर्म-गुरुओं को उत्तरदायी ठहराते हैं। उनके शब्दों में, "विद्वानों के विरोध ने सबको विरोध-जाल में फॅंसा रखा है। यदि ये लोग अपने प्रयोजन में न फॅंसकर सबके प्रयोजन को सिद्ध करना चाहें तो अभी एक मत हो जायें" (सत्यार्थ प्रकाश-अनुभूमिकाएकादश समुल्लास)। इसलिए वे साम्प्रदायिक एकता स्थापित करने के लिए विभिन्न सम्प्रदायों के आचार्यों से मानवीय-मूल्यों तथा समस्याओं के आधार पर एकता स्थापित करने की अपील भी करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं।

    दयानन्द विभिन्न सम्प्रदायों के बीच तनाव तथा संघर्ष को साम्प्रदायिक गुरुओं का निहित स्वार्थ मानते हैं। उनके अनुसार अलग-अलग "साम्प्रदायिक प्रभु" भोली-भाली अनपढ जनता का आर्थिकधार्मिक तथा सामाजिक शोषण करने के लिए नित नये-नये हथकण्डे खोजते हैंइनसे उन्हें धन तथा कामोपभोग की नित्य प्रति प्रचुर सामग्री प्राप्त होती रहती है। यही कारण है कि दयानन्द साम्प्रदायिकता के मनोवैज्ञानिक आधार पर चोट करने के लिए जन-जन में व्याप्त अज्ञानतामिथ्या विश्वासों तथा अन्धश्रद्धा पर चोट करते हैंजिनमें अवतारवादगुरुडवादपैगम्बरवादभाग्यवादपाप-क्षमाकालवाद आदि प्रमुख हैंवहॉं इसी के साथ साम्प्रदायिकता के आर्थिक स्रोतों को बन्द करने के लिए उसके सामाजिक तथा धार्मिक आधार को छिन्न-भिन्न करने का प्रयत्न करते हैंजिनके अन्तर्गत मूर्तिपूजाव्रततीर्थकुपात्रों को दान आदि का खण्डन विशेष रुप से उल्लेखनीय है।

    दयानन्द विभिन्न सम्प्रदायों में व्याप्त अन्धविश्वास तथा रूढियों काजिन्हें वे प्राय: पाखण्ड के नाम से सम्बोधित करते दृष्टिगोचर होते हैंका खण्डन करने के लिए शास्त्रार्थ प्रणाली को आधार बनाते हैंजिनमें वे सभी अवैदिक मत-पन्थों तथा उनकी आधारभूत मान्यताओं की अवैज्ञानिकता तथा तर्कहीनता का प्रतिपादन प्रतिपक्षी की उपस्थिति में करते हैं। प्राय: जन-साधारण के सम्मुख इस प्रकार के तर्कीय आयोजनों का परिणाम यह होता है कि जन-साधारण असंगततर्क-विरुद्ध अन्धविश्वासों का परित्याग करने लगते हैं और दयानन्द द्वारा प्रतिपादित वैदिक मान्यताओं की सुगमता को स्वीकार करने के लिए उद्यत हो जाते हैं। दयानन्द द्वारा प्रवर्तित पाखण्ड-खण्डन के आन्दोलन की प्रासंगिकता को इसी आधार पर भलीभॉंति समझा जा सकता है।

    दयानन्द की दृष्टि में साम्प्रदायिकता साम्प्रदायिकता हैफिर चाहे वह कथित वैदिक नाम पर हो अथवा अ-वैदिकवह भारतीय हो अथवा अभारतीय। जन-जन में व्याप्त अज्ञानतामिथ्या विश्वास तथा पूजा-पाठी वर्ग का निहित स्वार्थउसके ये दो प्रमुख संघटक तत्व होते हैं। इसीलिए दयानन्द इन दोनों ही तत्वों के खण्डन के लिए प्राणपण से संकल्पवान्‌ जान पड़ते हैंजो उनके मण्डनात्मक या विधायी पक्ष को मूर्तरूप प्रदान करने के लिए आवश्यक प्रतीत होता है।

    दयानन्द के साम्प्रदायिकता-विरोधी दृष्टिाकोण को समुचित रूप में समझने के लिए धर्म तथा साम्प्रदायिकता में भी अन्तर करना आवश्यक प्रतीत होता है। दयानन्द के मतानुसार धर्म का अभिप्राय सत्यन्यायपरोपकारपवित्रता आदि उन शाश्वत मानवीय-मूल्यों से हैजिनका व्यक्ति और समाज की उन्नति तथा मुक्ति के लिए पालन करना आवश्यक है। उनके शब्दों में, "जो पक्षपात-रहित न्यायाचरणसत्य भाषणादि युक्त ईश्वराज्ञा वेद से अविरुद्ध है उसको धर्म...... मानता हूँ।" किन्तु साम्प्रदायिकता का आधार संकुचितनिहित स्वार्थ तथा अज्ञानता से है। दयानन्द के अनुसार विभिन्न सम्प्रदायों के अन्तर्गत सत्यन्यायपवित्रतापरोपकारअहिंसा और शान्ति आदि मानवीय मूल्यों को किसी न किसी रूप में अवश्य स्वीकार किया जाता हैअन्यथा समाज में अस्तित्व बनाये रखना असम्भव हो जायेगातथापि अपने निहित स्वार्थों को प्रमुखता और वरीयता प्रदान करने के कारण ही विभिन्न सम्प्रदायों में परस्पर इतने विभेदझूठ तथा ईर्ष्या-द्वेष उत्पन्न हो गये हैं कि उन्हें धार्मिक तो क्या सहजत: सामाजिक संगठन स्वीकार करने में भी कठिनाई का अनुभव होने लगता है। इसलिए दयानन्द जहॉं एक ओर समाज में प्रचलित विभिन्न सम्प्रदायों में व्याप्त अज्ञानताभ्रान्त धारणाओंअन्धविश्वासों तथा पाखण्डों का खण्डन करते हैंवहीं दूसरी ओर वैदिक धर्मत्रैतवादवैदिक कर्मफलवादपुरुषार्थ चतुष्टयसंस्कार आदि का मण्डन भी करते दृष्टिगोचर होते हैं जो उनकी दृष्टि में सबसे प्राचीन सत्य मानवतावादी धर्म है।

    अन्त में निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि दयानन्द साम्प्रदायिकता की समस्या दूर करने के लिए विभिन्न धार्मिक मत-पन्थ में निहित शाश्वत महत्व के तत्वों, मूल्यों की एकता पर बल देते हैं। उनके रक्षण, पल्लवन के लिए वैदिक धर्म के संस्थापन का लक्ष्य सामने रखते हैं, जो न केवल विश्व का प्राचीनतम धर्म है, वरन्‌ सभी शाश्वत मूल्यों का सार्वभौम स्रोत भी है। इसी के साथ-साथ विभिन्न साम्प्रदायिक, अन्धविश्वासों एवं भ्रान्त मान्यताओं से मानव-मात्र को मुक्ति दिलाने हेतु उनकी अतार्किकता, अवैदिकता एवं असत्यता का भी सफलतापूर्वक प्रतिपादन करते हैं, जिसकी वर्तमान भूमण्डलीयकरण के दौर में महती आवश्यकता है। -डॉ. सोहनपाल सिंह आर्य

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    In Dayanand's view, communalism is communalism, be it in the alleged Vedic name or non-Vedic, be it Indian or non-Indian. Ignorance prevailing among the people, false belief and vested interest of the class of worship are its two major constituents. That is why Dayanand appears determined to rebut both these elements, which seems necessary to give a tangible or legislative aspect.


    हिन्दुस्तान हिन्दुस्तानियों के लिए के उद्‌घोषक

    महर्षि दयानन्द ही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने "हिन्दुस्तान हिन्दुस्तानियों के लिए" का नारा लगाया था। स्वामी दयानन्द ने वेदों तथा उपनिषदों द्वारा भारत के प्राचीन गौरव को सिद्ध करके बता दिया और संसार को दिखा दिया कि भारतवर्ष दर्शन-शास्त्र तथा आध्यात्मिक विद्या की खान (भण्डार) है। भारत में रहने वाले लोग मानते है कि भारत की प्राचीन महिमा तथा गौरव पागलों का प्रलाप नहीं, परन्तु सत्य है। आर्यसमाज के लिये मेरे हृदय में शुभ इच्छाएं हैं और उस महान्‌ पुरुष ऋषि दयानन्द के लिये जिसका आज आर्य आदर करते हैं, मेरे हृदय में सच्ची पूजा की भावना है।-भारत-भक्त नेत्री एनी बीसेन्ट

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  • सार्थक लक्ष्य

    युवा-प्रेरणा

    हे मानव !
    जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहॉं,
    फिर जा सकता वह सत्त्व कहॉं?
    तुम स्वत्व सुधा-रस पान करो,
    उठ के अमरत्व विधान करो।

    राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त इन पंक्तियों के माध्यम से मनुष्य को जागृत करते हुए कह रहे हैं कि समस्त प्राणी जगत्‌ में सर्वश्रेष्ठ मानव जीवन दिशाहीन न हो, लक्ष्य से विचलित न हो। जीवन में सफलता पाने के लिये एक सार्थक लक्ष्य होना चाहिए। लक्ष्य के अभाव में जीवन बिना पतवार की नाव के समान होता है। लक्ष्य अपनी इच्छा और प्रतिभा के अनुरूप होना चाहिए। इसे पाने के लिए आपका तन-मन जुट जाए। इसके लिये कठोर से कठोर श्रम भी थकाए नहीं। बेचैन न करे। लक्ष्य को पाने पाने के लिये जो हर कठिनाई हंसते-खेलते झेल लेता है, उदासीनता, निराशा उसके पास नहीं फटकती। ऐसे पुरुषार्थी अपना लक्ष्य पा लेते हैं।

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    Ved Katha Pravachan _62 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    लक्ष्य को लांघने वाला व्यक्ति भूत और भविष्यकाल के बारे में चिन्ता नहीं करता। क्योंकि वर्तमान से ही भविष्य को खरीदा जा सकता है, वह उसे कल पर टालता नहीं है। जीवन के प्रति सदैव आशावान रहना चाहिये। कठिनाइयॉं और संघर्ष हमें निराश करने नहीं आते, बल्कि हममें साहस और शक्ति का संचार करने आते हैं। इसलिये उनसे निराश होकर जीवन की खुशी खोना नहीं है। जीवन जीने की कला हम जान लें तथा सकारात्मक सोच रखें, तो जीवन एक मुस्कुराहट भरा गीत बन जाएगा।

    नकारात्मक सोच रखने वाला व्यक्ति हर स्थिति में अपने को हारा हुआ मानता है। अच्छी से अच्छी परिस्थिति में भी पहले उसकी नजर, उसकी दृष्टि नकारात्मक पहलू पर ही पड़ती है। वह सकारात्मक पहलू पर ध्यान जाने से पूर्व ही निस्तेज हो जाता है। मनोवैज्ञानिक भी इसे मानने लगे हैं। वस्तुतः सभी के अन्दर कोई न कोई शक्ति छिपी है। बस उसे जागृत करने की आवश्यकता होती है और इसके लिये आवश्यकता है प्रेरणा की। प्रेरणा से प्रतिभा का उदय होता है और प्रतिभा परिश्रम के लिये व्यक्ति को मानसिक रूप से तैयार करती है।

    कई बार हम सफल इसलिये नहीं होते, क्योंकि हम अवसर को गम्भीरता से नहीं लेते। जैसे ही हम अवसर पर ध्यान देना शुरू करते हैं, जीवन मेें परिवर्तन घटित होने लगते हैं। तब हम अमूल्य समय को गंवाते नहीं हैं, नष्ट नहीं होने देते। क्योंकि हम यह समझ जाते हैं कि यदि वह समय गंवा दिया, तो पुनः लौटकर नहीं आएगा। फलस्वरूप लक्ष्य पा लेते हैं।

    सार्थक लक्ष्य पाने के लिये जीवन में अनुशासन का भी बहुत महत्व है। एक बार आचार्य सुमेध अपने शिष्यों के साथ गंगा नदी के किनारे टहल रहे थे। शिष्य वरतन्तु ने पूछा "आचार्य! विद्याध्ययन अथवा किसी लक्ष्य की प्राप्ति का आधार बौद्धिक प्रखरता है तो फिर कठोर अनुशासन की क्या आवश्यकता है?''

    आचार्य ने मुस्कुराकर पूछा- "अच्छा बताओ, यह गंगा नदी कहॉं से आ रही है और कहॉं तक जाएगी।'

    वरतन्तु ने कहा- "गंगा गोमुख से चलकर गंगासागर में मिल जाती है।''

    आचार्य ने पूछा- "यदि इसके दोनों किनारे न हों तो?''

    शिष्य ने कहा- "तब तो इसका जल दोनों तरफ बिखर जाएगा, बह जाएगा तथा कहीं बाढ़ और कहीं सूखा पड़ जाएगा और यह अपने लक्ष्य गंगासागर तक तो पहुंच ही नहीं पाएगी, बीच में ही खत्म हो जाएगी।'' आचार्य ने कहा- "हॉं, इसी तरह अनुशासन के अभाव में विद्यार्थी या लक्ष्यार्थी की जीवन-ऊर्जा बंट जाएगी, बिखर जाएगी, क्योंकि एक लक्ष्य नहीं होगा, अनेक सोच होंगे। लक्ष्य प्राप्ति में रुकावट आने पर शरीर और मन निस्तेज हो जाएंगे। फलस्वरूप जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति असम्भव हो जाएगी। अनुशासन, विद्याध्ययन या किसी भी उद्देश्य को प्राप्त करने व उसे आत्मसात्‌ करने का सूत्र है।

    सफलता पाने के बाद उसके सुख और यश को स्थायी रखने के लिये आवश्यक है विनय और अहंकारशून्यता। ज्ञानी जन कहते हैं कि ज्ञान, धन, पद, यश, प्रभुता आदि पाकर मनुष्य में अहंकार पैदा हो जाता है। महर्षि आरुणि के पुत्र श्वेतकेतु अत्यन्त वेद ज्ञानी ऋषि थे। वे जब गुरुकुल से वेदाध्ययन करके लौटे, तब उन्हें अपने पाण्डित्य पर इतना अभिमान हो गया था कि घर आकर उन्होंने अपने पिता महर्षि आरुणि को प्रणाम भी नहीं किया। अपने पुत्र का अभिमान देखकर पिता अत्यन्त दुखी हुए। उन्होंने अपने पुत्र से कहा- "वत्स! तुमने ऐसी कौन सी ज्ञान की पुस्तक पढ़ ली है, जो बड़ों का सम्मान करना भी नहीं सिखाती? यह ठीक है कि तुम बहुत बड़े विद्वान हो, वेद-ज्ञान भी प्राप्त कर लिया है। किन्तु क्या तुम यह भी नहीं जानते कि विद्या का सच्चा स्वरूप विनय है? वत्स! जिस विद्या के साथ विनय नहीं रहती, वह न तो फलीभूत होती है और न ही विकसित होती है।''

    पिता की इस मर्मयुक्त वाणी को सुनकर श्वेतकेतु को अपनी भूल ज्ञात हुई। उन्हें स्मरण हो आया जब उनके गुरु जी ने भी एक दिन कहा था- "वत्स श्वेतकेतु! जिस प्रकार फल आने पर वृक्ष की डालियॉं झुक जाती हैंउसी प्रकार ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात्‌ हमें भी अधिक विनम्र और शालीन हो जाना चाहिये। "विद्या ददाति विनयम्‌के इस सिद्धान्त से प्रकाश पाकर ही तुम जीवन मेें सफल हो सकते हो।'' अपनी अहंकारजनित भूल से लज्जित श्वेतकेतु पिता के चरणों में सर झुकाकर क्षमा मांगने लगे। महर्षि ने उन्हें गले लगा लिया और बोले- "अभिमान तो पुत्र की विद्वत्ता पर मुझे होना चाहियेवत्स!''

    अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
    चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्‌।।

    विद्या विनय सिखाती है। बड़ों का सम्मान करने वाले तथा सदा सत्य का आचरण करने वाले विनयी और शीलवान व्यक्ति के आयु, विद्या, यश और बल- पराक्रम बढ़ते हैं। वह स्वयं शक्तिशाली बनकर समाज और देश को भी उन्नत करता है, क्योंकि वह जानता है कि- जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः ध्रुवं जन्म मृतस्य च। तथा स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम्‌।।

    इस संसार में अनेकों प्राणी जीवन धारण करते हैं और अपनी जीवन लीलाओं को समाप्त कर इस संसार से विदा हो जाते हैं। परन्तु जीवन वही जीवन है जो अपने कुल, वंश, समाज और राष्ट्र का नाम उज्ज्वल करता है।

    राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियॉं कितने सुन्दर शब्दों में स्वाभिमान को जागृत करती हैं-

    निज गौरव का नित ज्ञान रहे,
    हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे।

    सब जाये अभी पर मान रहे,
    मरणोत्तर गुंजित गान रहे।।

    कुछ होन तजो निज साधन को,
    नर होन निराश करो मन को।।

    तात्पर्य यह है कि अन्तःप्रेरणा से प्राप्त सार्थक लक्ष्य की प्राप्ति के लिये अवसर की गम्भीरता को समझना अर्थात्‌ वर्तमान क्षण का सदुपयोग करनासकारात्मक सोचअनुशासन और लक्ष्य के प्रति सचेत रहते हुए आशावान रहना जितना आवश्यक हैउतना ही उस सफलता की आत्मतुष्टि को चिरस्थायी रखने के लिये आवश्यक हैं आत्मविश्वासनिरभिमानिता और सज्जनता।- रोचना भारती

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    Discipline is also very important in life to achieve meaningful goals. Once Acharya Sumedha was walking along the banks of the river Ganges with his disciples. The disciple Varatantu asked, "Acharya! Intellectual intelligence is the basis of learning or the attainment of a goal, so what is the need for rigorous discipline?"

     

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  • सूर्य और चन्द्रमा की राह पर चलो

    ओ3म्‌ स्वस्ति पन्थामनुचरेम सूर्याचन्द्रमसाविव।
    पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि।।
    (ऋग्वेद 5.51.15) 

    अर्थ - (सूर्याचन्द्रमसाविव) सूर्य और चन्द्रमा की तरह (स्वस्ति) कल्याण के (पन्थाम्‌) मार्ग पर (अनुचरेम) चलते रहें (पुनः) और (ददता) दान करने वाले (अघ्नता) अहिंसा-स्वभाव वाले (जानता) ज्ञानी पुरुषों की (संगमेमहि) संगति करते रहें। 

    हम सूर्य और चन्द्रमा की तरह कल्याण के मार्ग पर चलते रहें। सूर्य और चन्द्रमा कल्याण के मार्ग पर चलते हैं। हमें भी उन्हीं की तरह कल्याण की राह पर चलना चाहिये। सूर्य और चन्द्र का मार्ग कल्याण का मार्ग किस कारण बन जाता है? इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि सूर्य-चन्द्र की गति नियमित है। इतनी नियमित कि वर्षों पहले सूर्य और चन्द्र-ग्रहणों का पता लग जाता है। सूर्य-चन्द्रादि पिण्ड यदि नियमित गति से न चलें, तो परस्पर टकराकर ब्रह्माण्ड नष्ट-भ्रष्ट हो जाये। इनकी नियमित गति के ही कारण वर्ष में छः ऋतुएं बनती हैं। सरदी, गरमी और वर्षायें आती हैं। और दूसरे यह कि सूर्य-चन्द्र अपनी नियमित गति से समय-समय पर जो ऋतुएँ बनाते हैं, उनका फल लोक-कल्याण होता है। हर एक ऋतु से खास-खास प्रकार के लाभ संसार को मिलते हैं। सूर्य-चन्द्र का प्रकाश और गरमी, उनका आकर्षण और विकर्षण सब संसार के कल्याण के लिये ही होते हैं। 

    Ved Katha Pravachan _96 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    हमें भी सूर्य-चन्द्र की तरह "स्वस्ति' के, कल्याण के मार्ग पर चलना चाहिए। हमारा जीवन नियमित हो, हममें समय पर सब कार्य करने की क्षमता हो और हमारी सब शक्तियॉं संसार का कल्याण करने वाली हों। 

    सूर्य प्रकाश पुञ्ज है। उसमें असीम प्रकाश है। इस असीम प्रकाश के कारण ही सूर्य के जीवन में स्वस्ति है। सूर्य की भॉंति हमें भी अपने भीतर असीम प्रकाश भरना चाहिए। हमें महाज्ञानी बनना चाहिये। हमें तृण से लेकर ईश्वर-पर्यन्त सब पदार्थों के सम्बन्ध में भांति-भांति के विद्या-विज्ञान सीखने चाहियें। सूर्य में असीम गरमी है। इस गरमी के कारण ही उसके जीवन में स्वस्ति है। हमें भी सूर्य की भांति अपने जीवन में गरमी भरनी चाहिए। हमारे जीवन में उत्साह, बल, स्फूर्ति, तेजस्विता और आगे बढ़ने की भावनाओं की गरमी रहनी चाहिए। चन्द्रमा में शीतलता, सौम्यता, शान्ति और आह्लादकता का असीम गुण है। इसके कारण ही उसके जीवन में स्वस्ति है। हमारे जीवन में भी यह गुण असीम मात्रा में होना चाहिए। हमारे जीवन में सूर्य की उष्णता और चन्द्रमा की शीतलता का समन्वय होना चाहिए। और हमें अपने प्रकाश-गुण से, ज्ञान-गुण से, अपनी समझ से भली-भांति विचार करके निश्चय करना चाहिए कि हमें जीवन में कब गरमी का परिचय देना है और कब शीतलता का। अपने प्रकाश, उष्णता और शीतलता के ये तीनों गुण हमें संसार के कल्याण में ही लगाने चाहियें। 

    पर हमारे अन्दर वह शक्ति ही कैसे आए, जिसका हमें सूर्य-चन्द्र की तरह संसार के कल्याण में व्यय करना है। इसका उत्तर मन्त्र के उत्तरार्द्ध में दिया गया है। हमें अपने अन्दर योग्यता हासिल करने के लिये ऐसे पुरुषों का संग करना चाहिए जो दानी हों, अपनी शक्तियों को संसार के उपकार में लगाते हों, जो अहिंसाशील हों, संसार के प्राणियों के दुःख-दर्द मिटाने की भावना से जो कर्म करते हों, जो ज्ञानी होकर तरह-तरह की विद्याओं के तत्व का उपदेश कर सकते हों। ऐसे लोगों की संगति में रहने से हमें शक्ति प्राप्त होती है, जिसका हम सूर्य-चन्द्र की तरह लोक-कल्याण में व्यय कर सकेेंगे। 

    मनुष्य! सत्पुरुषों की संगति में बैठना सीख, उनसे शक्ति प्राप्त कर और फिर उस शक्ति को सूर्य-चन्द्र की तरह से लोक-कल्याण में लगा दे। इसी से तेरा जीवन स्वयं भी स्वस्ति (सु अस्ति) अर्थात्‌ उत्तम सत्ता वाला हो सकेगा। कल्याण का यही मार्ग है। - आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति

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    Humans! Learn to sit in the company of Satpurus, get power from them and then put that power in the public welfare like Surya-Chandra. With this, your life itself will also be healthy (su asti), that is, with good power. This is the path to welfare. - Acharya Priyavrat Vedavachaspati

     

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  • स्वतंत्रता के महान योद्धा नेताजी सुभाषचंद्र बोस - १

    संसार में कुछ महापुरुष ऐसे होते हैं जो साधना के पथ पर चलकर अपने जीवन को सार्थक करते हैं। कुछ महापुरुष ऐसे होते हैं जो पीड़ितों की सेवा करने में अपने जीवन को धन्य मानते हैं। कुछ महापुरुषों में नेतृत्व के गुण बचपन होते हैं, कुछ महापुरुष राष्ट्र की बलिवेदी पर अपने आपको आहूत कर जाते हैं, परन्तु कुछ ही महापुरुष ऐसे होते हैं, जो साधना के पथ पर चलते हुए, पीड़ितों की सेवा करते हुए, बचपन से ही नेतृत्व के गुणों से ओतप्रोत होते हुए, राष्ट्र की बलिवेदी पर अपने आपको आहूत करने में गौरवान्वित अनुभव करते हैं, उनमें से एक महापुरुष का नाम था श्री सुभाषचन्द्र बोस। संभवतः 'नेताजी' केवल और केवल इस महापुरुष के नाम के साथ ही जुड़ा है, अन्य किसी के साथ नहीं। 

    Motivational Speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
    Greatness of India & Vedas | गौरवशाली महान भारत - 3

    जन्मस्थान एवं माता-पिता - उड़ीसा का कटक शहर और उसका ग्राम कोडेलिया वह सौभाग्यशाली ग्राम है जिस ग्राम में एक ऐसे रत्न का जन्म हुआ जिसे लोग प्यार से सुभाष-दा कहते हैं। वह माँ श्रीमती प्रभावती एवं पिता श्री जानकीनाथ बोस सौभाग्यशाली हैं, जिनके घर में २३ जनवरी १८९७ जन्म लिया।

    अंग्रेजी स्वार्थी एवं विश्वास-घाती हैं - एक सात-आठ वर्ष का बच्चा गम्भीर मुख की आकृति बनाकर बैठा है। बच्चे इस आयु में चंचल होते हैं, परन्तु यह बच्चा अपने मुख की गम्भीर आकृति बनाकर बैठा है। उसकी बालसखी कमला उस बच्चे को दूसरे खेलने वाले बच्चों के साथ खेलने के लिए कहती है परन्तु वह बच्चा उन बच्चों के साथ खेलने मना करता है। परन्तु बाल सखी के बार-बार आग्रह कर पर वह बच्चा कहता है- ''मुझे इन अहंकारी बच्चों के साथ खेलना अच्छा नहीं लगता। यह अंग्रेजों के बच्चे आतातायियों की संतानें हैं।'' वह अंग्रेज बच्चे इस बच्चे से उनके साथ न खेलने का करण पूछते हैं तो वह उत्तर देता है- ''अंग्रेज स्वार्थी और विश्वासघाती हैं। मैं तुम जैसे स्वार्थी और विश्वासघाती पिताओं के पुत्रों के साथ खेलना अच्छा नहीं समझता। वह बच्चा कहता है कि इन अंग्रेजों के साथ खेलने की बात तो छोड़ों मैं इनके साथ बात करना भी पसंद नहीं करता।'' तब बाल सखी कहती है कि मैं अंग्रेजों के साथ खेलना पसंद नहीं करती क्योंकि यह हम भारतियों को हिन दृष्टि से देखते हैं। तब वह बच्चा उस बालसखी कमला से कहता है- ''मैं तुम्हें अपनी फौज में भर्ती करूँगा।'' बाल सखी ने पूछा - ''तुम फौज किसलिए बनाओगे?'' उस बच्चे ने उत्तर दिया-''अंग्रेजों को इस देश से खदेड़ने के लिए, फौज आवश्यक है, मैं इसलिए अपनी एक फौज बनाऊँगा।'' इतने देर में उस बच्चे की माँ वहाँ आ गई। वह बाल सखी कमला उस बच्चे की माँ से बोली- ''मौसी जी ! देखो, यह आपका पुत्र फौज बनाने की बात कर रहा है। बड़ी-बड़ी बातें करने लगा है।'' माता श्रीमती प्रभावती ने पूछा -''सुभाष ! यह बड़ी-बड़ी बातें तुम्हें कौन सिखा रहा है?'' उस बच्चे ने कहा माँ ! यह सब आपका आशीर्वाद है। माँ उसकी बात सुनकर मुस्कुरा देती है।'' यह बच्चा और कोई नहीं, स्वतंत्रता सेनानी सुभाषचन्द्र बोस ही था जिसने बचपन से ही अन्यायी, अंग्रेजों को भारत की धरती से खदेड़ने के लिए फौज बनाने की तैयारी कर रहा है। तभी तो कहा है- ''होनहार बिरवान के होत चिकने पात।'' महापुरुषों के गुण पालने में ही दिखने लग जाते हैं। इन दोनों वाक्यों को इस राष्ट्र के महान सपूत सुभाष जी ने सिद्ध कर दिखाया। 

    अंग्रेज चाहे शिक्षक ही क्यों न हो, थप्पड़मार दिया - अंग्रेजी प्रोफेसर ओटंग कक्षा में पढ़ रहे थे। उन्होंने किसी भारतीय छात्र से एक प्रश्न उत्तर पूछा। छात्र तुरन्त उत्तर न दे सका। तब अंग्रेज प्रोफेसर ने उस भारतीय छात्र से कहा- ''यू ब्लैक डाग, क्या खाक पढता है? (तुम काले कुत्ते, क्या खाक पढ़ते हो?)।'' वह भारतीय विद्यार्थी सहम गया। सुभाष विद्युत गति से एकदम बोला - कन्ट्रोल यूअर टन्ग, सर। (श्रीमान जी, कृपया अपनी वाणी पर नियंत्रण रखिये)। प्रोफेसर चीखा- यू सिट डाउन (तुम बैठ जाओ)। सुभाष ने तेज स्वर में कहा - अपने इस भारतीय छात्र को ब्लैक डाग (काला कुत्ता) क्यों कहा? प्रोफेसर आगबबूला हो उठा और बोला - 'टुम बीच में क्यों बोलता है? डैम ब्लाडी।..... ?' बस अंग्रेज प्रोफेसर ओटंग का इतना ही कहना था कि सुभाष ने आव देखा न ताव। सुभाष तड़प उठे और भारतियों का इतना अपमान उसे सहन नहीं हुआ और झपटकर प्रोफेसर के गाल पर भरपूर थप्पड़ जड़ दिया। कक्षा में गहरा सन्नाटा छ गया। वह प्रोफेसर तो गाल सहलाता रहा। अंग्रेज को पीटा भी तथा विद्यालय में हड़ताल करा दी। इस प्रसिद्ध यूरेपियन स्कूल घटित होने वाली यह प्रथम दुस्साहसिक घटना थी जिसने समस्त गोरी चमड़ी वालों में भय का वातावरण बना दिया। विद्यालय के अधिकारीयों ने सुभाष को विद्यालय से निकल दिया। पिता श्री जानकीनाथ बोस को जब घटनाक्रम का पता चला तब उन्होनें सुभाष से कहा- यह तुमने क्या किया है? तुमने अपने भविष्य का नाश कर दिया है। सुभाष ने उत्तर दिया- पिताजी, ओटंग ने सभी भारतीयों का अपमान किया है। हम भारतीयों को मुर्ख, नालायक, काला कुत्ता और बदमाश कहा है। भारतीयों का अपमान सहन नहीं कर सकता। जहाँ तक मेरे भविष्य की बात है मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं आपके नाम को उज्ज्वल करूँगा। पिता की इच्छानुसार आई.सी.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण करके भी सरकारी नौकरी स्वीकार न करके देश के लिए अपने जीवन को आहूत कर दिया। - कन्हैयालाल आर्य

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    Birthplace and parents - Cutelia city of Orissa and its village Kodelia is the fortunate village in which a gem was born which people affectionately call Subhash-da. He is the mother Mrs. Prabhavati and father Mr. Jankinath Bosh, who was born in his house on January 23, 1897.

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  • स्वतंत्रता के महान योद्धा नेताजी सुभाषचंद्र बोस - २

    भिखारिन की सहायता करना - एक दिन सुभाष की माता प्रभावती ने सुभाष के कमरे में प्रवेश किया। क्या देखती है कि कुछ चींटियां सुभाष की पुस्तकों की अलमारी में प्रवेश कर रही हैं। माता जी ने अलमारी खोली, दो रोटियां एक कागज में लिपटी हैं, उन रोटियों को खाने के लिए चींटियां आ रही हैं। इतनी देर में सुभाष ने अपने कमरे में प्रवेश किया। माँ ने पूछा- यह रोटियाँ किसलिए रख रखी हैं? सुभाष ने कहा- माँ, इन रोटियों को अब बाहर फेंक दो। माँ इन ने पूछा- सुभाष, क्या बात है? इन रोटियों को देखकर दुःखी क्यों हो रहा है? सुभाष ने उत्तर दिया- माँ, अपने खाने से बचाकर दो रोटियाँ मैं प्रतिदिन एक भिखारिन को देता था। आज वह मिली नहीं थी, इसलिए मैंने यह रोटियाँ इसी आशा में अलमारी में रख दी थी कि थोड़ी देर के पश्चात यह रोटीया दे आऊंगा। परन्तु अभी-अभी मैं इस भिखारिन को देखने गया था तो पता चला कि बेचारी का स्वर्गवास हो गया है। 

    Motivational speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
    Different Types Names of one God | एक ही ईश्वर के अनेक नाम और वेद


    अपनी बात समाप्त कर सुभाष इस प्रकार दुःखी हो गये मानों न होकर कोई आत्मीय की मृत्यु हो गई हो। सुभाष ने सहज भाव से कहा- माँ, हमें निर्धनों की सहायता करनी चाहिए। यह उन की एहसान नहीं है, हमारा कर्तव्य है। माँ ने सुभाष को गले से लगते हुए कहा- सुभाष, इतनी संवेदनायें कहाँ से लाते हो? यह पुरे संसार का दुःख कहाँ समेटे रहते हो? यह कहकर माँ-पुत्र दोनों गले लग गये। माँ इस लिए हैरान थी कि इतना छोटा-सा बच्चा और इतनी बड़ी-बड़ी बातें और सुभाष इसलिए रो रहा है कि मेरे भारत में कितनी निर्धनता है, मैं इसे कब समाप्त करूँगा ? ऐसी ही घटना महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के जीवन में भी आती है।

    एक दिन ऋषि दयानन्द सांयकाल के समय ध्यान में बैठे थे। बाहर जल में बहाने के लिए एक माँ अपने पुत्र के शव को तैयार खड़ी थी। ऋषि दयानन्द जी ने देखा कि उस बच्चे के शव से कफन को इसलिए अलग रही थी कि वह अपने तन को ढक सके। ऐसी निर्धनता देखरक ऋषि दयानन्द का ह्रदय तड़प उठा और कहा- है प्रभु! इस देश की एक माँ अपने पुत्र के शव को कफन तक भी उपलब्ध नहीं करा सकती। इस देश की निर्धनता का मूल कारण यह आततायी अंग्रेज ही हैं। जाजपुर में हैजे का प्रकोप- समाचार-पत्र में एक समाचार छापा-जाजपुर में हैजे का भीषण प्रकोप। नीचे हैजे के होने वाली क्षति का वर्णन पढ़कर सुभाष की आँखे फटी की फटी-सी रह गई। सुभाष पर उस दुःखद समाचार की गहरी प्रतिक्रिया हुई। बस इन पीड़ित रोगियों की सेवा करने का संकल्प कर लिया। वह भी नहीं जानते थे कि उसे पिता ह्रदय तथा विचारों से महान होते हुए भी अपने जीवन स्तर के सम्बन्ध में अत्यन्त सजग हैं। वे कभी नहीं चाहेंगे कि उनका बेटा इन रोगियों के बीच जाकर उनकी सहायता करे। प्रत्येक व्यक्ति के अपने-अपने कर्म होते हैं, भावनाएँ और संवेदनाएँ भी अलग-अलग होती हैं। अपनी भावनाओं और संवेदनाओं, स्वभाव को प्रमुखता देते हुए भूख-प्यास की चिंता किए बिना जाजपुर के हैजा पीड़ितों की सेवा में जुट गया। उसकी सादगी, विनम्रता, निष्ठा, लगन और सेवा तत्परता को देखकर किसी को अनुमान भी न हो सका कि वह कटक के सम्मानित सरकारी वकील रायबहादुर श्री जानकीनाथ का पुत्र होगा। जब लोगों को ज्ञात हुआ तो वे विस्मित रह गये।

    सुभाष लौटा, पिता को प्रणाम किया। पिता से अत्यन्त विनम्र भाव से कहा- पिताजी, क्षमा कीजिये। मैं आपका आदेश लिए बिना जाजपुर अपनी भावनाओं की वशीभूत होकर सेवाकार्य के लिए चला गया। पिता ने कहा- क्षमा का तो प्रश्न ही नहीं उठता परन्तु जो तुमने किया है वह सर्वथा मेरी प्रतिष्ठा के विरुद्ध है। क्या एक तुम्हारी ही सेवा की आवश्यकता थी ? यदि तुम्हारा यही रंग-ढंग रहा तो तुम अपना भविष्य अंधकारमय बना लोगे। इतनी देर में समाचार मिला कि सुभाष ने मेट्रिक की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की है। सुभाष ने हँसते हुए कहा-अच्छा हुआ कि किसी अंगेजी कालेज में पढ़ने के स्थान पर किसी भारतीय कॉलेज में पढ़ने का अवसर प्राप्त होगा। - कन्हैयालाल आर्य 

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    Subhash returned, bowed to father. Said to father very politely - Father, forgive me. I took Jajpur without taking your orders and went for service after subjugating my feelings. The father said - the question of forgiveness does not arise, but what you have done is completely against my reputation. Was only a service required? If you remain this same color, then you will make your future bleak. The news got so long that Subhash passed the matriculation examination in the second class. Subhash smilingly said that it is good that instead of studying in an English college, you will get an opportunity to study in an Indian college. - Kanhaiyalal Arya 

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  • स्वतंत्रता के महान योद्धा नेताजी सुभाषचंद्र बोस - ३

    कलकत्ता के रास्तों का अंग्रेजी नाम बदलकर भारतीय रखे- २० जुलाई १९२१ को सुभाष बाबू की मुलाकात महात्मा गाँधी से हुई। उन्होंने उनकी मुलाकात कलकत्ता के मेयर दास बसु से कराई। दास बाबू सुभाष के विचारों से इतने प्रभावित हो गये कि उन्होंने सुभाष को कार्यकारी अधिकारी के रूप में नियुक्त कर लिया। सुभाष बाबू तो अंग्रेजों से चिढ़ें हुए थे उन्होंने जितने भी कलकत्ता में अंग्रेजों के नाम से रास्ते थे, लगभग उन सबके भारतीय नाम रख दिये और अंग्रेजी नाम हटा दिये।

    चितरंजन दास जी को अपना राजनैतिक गुरु बनाना - बंगाल के वरिष्ठ नेता देशबंधु श्री चितरंजनदास जी ने अपनी लाखों रुपयों की वकालत को ठोकर मार दी। उनके इस त्याग से प्रभावित होकर, उनमें श्रद्धाभाव रखते हुए उन्हें अपना राजनैतिक गुरु मानना स्वीकार कर लिया। त्यागी गुरु का शिष्य भी त्यागी होना चाहिए। यह बात सुभाष ने सिद्ध कर दी।

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    आई.सी.एस की नौकरी छोड़ दी- एक धनी परिवार में जन्म लेने के बावजूद सांसारिक धन-वैभव, पदवी की ओर झुकाव नहीं था। मित्रगण उसे सन्यासी कहते थे। अंग्रेज सरकार की दमनकारी एवं अन्यायपूर्ण नीति के विरोध में आई.सी.एस की परीक्षा उत्तीर्ण करके भी सरकारी नौकरी छोड़ दी। स्वयं ब्रिटिश सर्कार के भारत मंत्री के समझाने के बावजूद भी कलेक्टर और कमिश्नर बनने की बजाय मातृभूमि का सेवक बनना स्वीकार किया।

    बंगाल की भयंकर बाढ़ - बंगाल की भयंकर बाढ़ में फंसे लोगों की भरपूर सहायता की। सामाजिक कार्य निरंतर चलते रहे। इसके लिए युवक दल की स्थापना की ताकि कृषक समाज की सहायता की जा सके।

    यतीन्द्रनाथ की शवयात्रा में भारतियों में जोश भरा- क्रांतिकारी यतीन्द्रनाथ ने जैल में ६३ दिनों की भूख हड़ताल इसलिए की कि वहाँ क्रांतिकारियों के साथ बहुत ही दुर्व्यवहार किया जाता था। वहीं उनका निधन हो गया। उनकी शवयात्रा सरकार के विरोध के बावजूद निकली। अंग्रेजों के विरुद्ध जितना जोशीला भाषण दे सकते थे, दिया। अंग्रेज सरकार ने उन्हें पुनः गिरफ्तार कर लिया।

    ब्लैक हाल स्मारक को हटाना - अंग्रेजों ने भारतीयों को अपमानित करने के लिए एक ब्लैक हाल स्मारक बनवाया। सुभाष इसे देश व भारतीयों का अपमान समझते थे। उन्होंने अंग्रजों के विरुद्ध समझौता विरोधी कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया। चाहे अंग्रेज सरकार ने उन्हें पुनः गिरफ्तार कर लिया परन्तु सुभाष के प्रभाव से भयभीत होकर ब्लैक हाल स्मारक को हटा दिया गया।

    गाँधी जी से मतभेद- रविंद्रनाथ टैगोर, प्रबुल्लचंद्र राय, मेघनाथ साहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाष की कार्यशैली से सहमत थे परन्तु गाँधी जी उनकी कार्यशैली को पसंद नहीं करते थे। चाहे गाँधी जी के सहयोग से १९३१ में वे कांग्रेस के अध्यक्ष बने। गाँधी जी उन्हें अपनी शैली के अनुसार चलाना चाहते थे परन्तु वन का यह सिंह पिंजरे कैसे बंद रह सकता था? उन्होनें कांग्रेस पार्टी ही छोड़ दी क्योंकि गांधी जी की नीति अंग्रजों को सहयोग करके स्वराज्य पाने की थी जबकि सुभाष यह जानते थे कि वे अंग्रेज स्वार्थी, विश्वासघाती एवं अन्यायी लोग हैं, यह शान्ति से हमें आजादी नहीं देंगे। इसके लिए सशस्त्र क्रांति करनी होगी। गान्धी जी से मतभेद हो गये और उनसे अलग हो गये।

    पंडित मोतीलाल नेहरू एवं जवाहरलाल नेहरू से संबन्ध - सुभाष जी की कार्यनिष्ठा, नायकत्व, देशप्रेम, लगन व उच्च चरित्र की प्रशंसा करते हुए प. मोतीलाल नेहरू ने गद्गद् कंठ से कहा था - सुभाषचंद्र बोस मुझे अपने लड़के की तरह प्यारे हैं। परन्तु इस देश का दुर्भाग्य है कि जिस सुभाष को जवाहरलाल नेहरू का पिता अपने लड़के के समान मानता है वहां पं. मोतीलाल नेहरू का पुत्र जवाहरलाल नेहरू सुभाषचंद्र बोस के जीवन से सम्बंधित फाइलों को गुम करा देता है।

    सफलता के लिए ईश्वर का सहारा - दक्षिण पूर्व एशिया के भारतियों ने सिंगापूर में एक ऐतिहासिक सम्मेलन किया। उस सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए सुभाष ने कहा था- भारत की स्वाधीनता आन्दोलन का नेता चुनकर आपने जो सम्मान प्रदान किया है उसके लिए मैं आपका अपनी अंतरात्मा से धन्यवाद करता हूँ कि परमात्मा मुझे अपना कर्त्तव्य पूर्ण करने की शक्ति प्रदान करे, जिससे मैं अपने देशवासियों को पूर्ण संतुष्ट कर सकूँ।

    सैनिकों के लिए आदेश - सिंगापूर में आजाद हिंद फौज के सैनिकों को सम्बोधित करते हुए कहा- भारत की स्वाधीनता सेना के सिपाहियों! आज मैं अपार गौरव तथा अदभुत आनंद का अनुभव कर रहा हूँ कि भारत की भावी सेना का निर्माण भी करेगी। सैनिक होने के नाते आपको सदा तीन आदर्श अपने सामने रखने चाहिएं- १. विश्वाशपात्रता, २. कर्त्तव्य, ३. बलिदान। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं सदैव आपके साथ रहूँगा। इस समय मैं आपको भूख, प्यास और संघर्ष के सिवाय कुछ नहीं दे सकता। यह कोई नहीं जनता कि देश को स्वतन्त्र कराने के लिए हम में से कौन जीवित बचेगा? परन्तु इतना निश्चित है कि हमारा संघर्ष रंग लायेगा। हमारा देश स्वतंत्र होगा परन्तु इसके लिए हमें सर्वात्मना समर्पित होना होगा।

    स्वतंत्रता का सेवक - सिंगापूर में जापान के जनरल तोजो उपस्थित थे। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा- मुझे विश्वास है कि सुभाषचन्द्र बोस स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति होंगे। जापान को भारत पर किसी राष्ट्रपति को लादने का अधिकार तो नहीं है, परन्तु हम इस महामानव को इस योग्य समझते हैं। सुभाषचंद्र बोस ने जनरल तोजो की इस बात का खण्डन करते हुए कहा था- स्वतंत्रता का सेवक मात्र हूँ। - कन्हैयालाल आर्य

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    Removal of Black Hall Memorial - British built a Black Hall Memorial to humiliate Indians. Subhash considered it an insult to the country and Indians. He organized an anti-compromise conference against the British. Although the British government arrested him again, but the fear of Subhash's influence, the Black Hall memorial was removed.

     

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  • स्वतंत्रता के महान योद्धा नेताजी सुभाषचंद्र बोस - ४

    तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा - जापान के सहयोग से आजाद हिंद फौज की स्थापना की। हिटलर से मिले। जर्मनी में 'भारतीय स्वतंत्रता संगठन' तथा 'आजाद हिंद रेडियो' की स्थापना की। जर्मनी से जापान पंहूचकर युवाओं का आह्वान करते हुए यह नारा दिया- 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा' 'जय हिन्द' का नारा भी सुभाष की देंन थी।

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    सबको आकर्षित करने की कला - सुभाष जी केवल मेधावी छात्र रहे हों, अथवा उसमें केवल देशभक्ति ही रही हो, ऐसी बात नहीं थी वरन वह अनेक गुणों का साकार प्रतीक था। उसका चरित्र उस हीरे की भांति था जो किसी भी अग्निपरीक्षा में धूमिल नहीं पड़ता था। उसके आचरण में ऐसी गम्भीरता और संतुलन था जिससे कोई भी व्यक्ति प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था। उसकी आकृति में ऐसा ओज तथा दृढ़ता थी कि लोगों को पल भर में आकर्षित कर लेती थी। 

    आजाद हिंद फौज का गीत -

    कदम-कदम बढ़ाये जो, ख़ुशी के गीत गाये जा।
    ये जिंदगी है कौम की, तू कौम पर लुटाये जा। 

    चलो दिल्ली पुकार के, कौमी निशां सम्भाल के।
    लालकिले पै गाड़ के, फहराये जा फहराये जा।

    यह वह गीत था जिसे सैनिक झूमते-झूमते गाते हुए राष्ट्र की वेदी पर बलिदान हो जाते थे। किन्तु आह! भारतीयों का दुर्भाग्य! देश का दुर्भाग्य! २३ अगस्त १९४५ को टोकियो रेडियो के निम्न समाचार ने भारतीयों पर वज्रपात कर दिया और पूरा विश्व स्तब्ध रह गया। 

    आजाद हिंद की अस्थायी सरकार के सर्वोच्च अधिकारी श्री सुभाषचंद्र बोस कर्नल हबीर्बुरहमान के साथ बैंकांक से टोकियो आ रहे थे......फारमोसा के निकट ताईहोक नामक स्थान पर उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया। उसमे आग लग जाने के कारण नेताजी मृत्यु को प्राप्त हुए।

    इस समाचार को सुनकर सम्पूर्ण भारतीय एवं प्रवासी भारतीय शोकमग्न हो गये। अंग्रेज भी चकित रह गये। उनको इस समाचार पर पूर्ण विश्वास नहीं हो रहा था।वे यह समझ रहे थे कि यह समाचार केवल हम अंग्रेजों को भ्रमित करने के लिए दिया गया है। उनकी मृत्यु एक रहस्य बनकर रह गई। यदि वह सचमुच भारत की आजादी के बाद आ गये होते तो इस देश का इतिहास कुछ और ही होता। यदि वे देश राष्ट्रपति और सरदार पटेल देश के प्रधानमन्त्री बनते तो आज भारत विश्व का सिरमौर राष्ट्र होता परन्तु सभी आशायें धूमिल हो गई। सुभाष जी का कुछ पता न चला। उनकी मृत्यु पर परदा ही रह गया। आजादी के महान योद्धा के जीवन का अंतिम भाग रहस्यमय ही बन गया।

    अब इतना समय बीत गया है कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की कहीं जीवित रहना असम्भव है फिर भी कभी भारत का इतिहास निष्पक्ष ढंग से लिखा गया तो श्री सुभाषचन्द्र बोस जी का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जायेगा। स्वाधीनता के पुजारी, भारत माता की स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने वाले त्याग और बलिदान की इस मूर्ति को शत-शत नमन। - कन्हैयालाल आर्य

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    Now so much time has passed that it is impossible for Netaji Subhash Chandra Bose to survive, yet if the history of India was written objectively, then the name of Shri Subhash Chandra Bose would be written in golden letters. Salute this statue of sacrifice and sacrifice for the freedom of Bharat Mata, the priest of freedom - Kanhaiyalal Arya

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  • स्वतन्त्रता आन्दोलन में आर्यसमाज का योगदान

    सामान्य लोगों में यह भ्रान्त धारणा व्याप्त है कि अंग्रेजों से भारत को स्वाधीनता दिलाने वाली कांग्रेस पार्टी ही है। कांग्रेस की स्थापना सन्‌ 1885 ई. में मि. एलन आक्टेवियन ह्यूम ने की थी। कांग्रेस में शामिल लोग प्रतिवर्ष इकट्ठे होकर अंग्रेजी शासन को वरदान मानकर इसको टिकाये रखने हेतु इसकी प्रशस्ति के प्रस्ताव पारित करते हुए केवल सरकारी नौकरी की मांग करते थे। प्रारम्भ में यह सामान्य भारतीयों की पार्टी भी नहीं थी। अंग्रेजी वेशभूषा में केवल अंग्रेजी बोलते हुए अंग्रेजों की शैली में सरकार को प्रतिनिधि मंडल भेजना इसका प्रमुख कार्य था। बंग भंग आन्दोलन के पश्चात्‌ 1906 ई. में लोकमान्य तिलक ने कांग्रेस के मंच से "स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है" का प्रसिद्ध नारा दिया। 1929 ई. में कांग्रेस ने 1 वर्ष में औपनिवेशिक शासन देने की मांग की और नहीं मिलने पर अन्तत: 1930 ई. में पूर्ण स्वाधीनता की मांग की गई। इसके विपरीत कांग्रेस के भी जन्म से 10 वर्ष पूर्व स्वामी दयानन्द द्वारा स्थापित आर्यसमाज ने धार्मिक समुदाय होते हुए भी क्रियात्मक रूप से भारत में स्वाधीनता आन्दोलन की नींव डाली। इसीलिए बिहार के भूतपूर्व राज्यपाल और भूतपूर्व लोकसभाध्यक्ष ने कहा था कि यदि महात्मा गांधी राष्ट्रपिता हैं तो स्वामी दयानन्द राष्ट्रपितामह हैं। उनके इस कथन में कोई अतिशयोक्ति नहीं है।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    यजुर्वेद मन्त्र 1.1 की व्याख्या

    Ved Katha Pravachan - 96 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    महर्षि दयानन्द के जीवन काल में देश अंग्रेजी की दासता में जकड़ा हुआ था। स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए समय-समय पर भारतीयों ने सशस्त्र संघर्ष किये, जिनमें 1857 ई. का स्वाधीनता संघर्ष सबसे बड़ा था। इसे अंग्रेजों ने निर्दयतापूर्वक दबा दिया था। 1857 ई. के स्वाधीनता आन्दोलन में स्वामी दयानन्द ने भाग लिया था या नही, इस पर पर्याप्त मतभेद है। पर यह निर्विवाद है कि 33 वर्षीय इस युवा साधु दयानन्द ने इसे अपनी आंखों से देखा था और इसका उनके भावी जीवन पर गहरा प्रभाव भी पड़ा था। 1857 ई. के स्वाधीनता संघर्ष की असफलता ने भारतीयों के मनोबल को बुरी तरह तोड़ दिया था। परिव्राजक के रूप में गंगा के तट पर भ्रमण करते हुए युवा दयानन्द ने एक महिला को अपने बच्चे के शव को नदी में चुपचाप छिपाकर बहाते हुए देखा। कफन को धोकर पुन: साड़ी के रूप में उसे पहनकर वह महिला विगलित नयनों में अश्रुकणों को संजोकर आगे बढी। पराधीनता से उत्पन्न निर्धनता का यह नग्नस्वरूप देखकर दयानन्द विचलित हो उठे। दयानन्द का मृत्युपर्यन्त का जीवन इस बात का साक्षी है कि उन्होंने इस दृश्य को कभी नहीं भुलाया। उन्होंने 1875 ई. में आर्यसमाज की स्थापना की। स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज के बारे में श्री पट्‌टाभि सीतारम्मैया ने कांगे्रस के इतिहास में लिखा है:-"स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रवर्तित आर्यसमाज अतीव उग्र राष्ट्रीय आन्दोलन था। यह महान्‌ आन्दोलन स्वामी जी की प्रेरणा से प्रादुर्भाव हुआ था और अपने देशभक्तिपूर्ण उत्साह में इसका स्वरूप आक्रमणात्मक था।"

    स्वामी दयानन्द पहले भारतीय थे जिन्होंने अपनी पुस्तक सत्यार्थप्रकाश में प्रथम बार स्वदेशी और स्वराज्य शब्द का प्रयोग करते हुए लिखा था:- "कोई कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशी राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है अथवा मतमतान्तर के आग्रहरहित अपने और पराये का पक्षपातशून्य, प्रजा पर माता-पिता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायी नहीं है।" कतिपय वेदमन्त्रों का अर्थ करते हुए महर्षि ने यह प्रार्थना भी की थी-"हे महाराजाधिराज परब्रह्म..... अन्य देशवासी राजा हमारे देश में कदापि न हो तथा हम लोग कभी पराधीन न हों।" एक दूसरे वेदमन्त्र का अर्थ करते हुए उन्होंने कहा है:- "मनुष्यों को चाहिए कि पुरूषार्थ करने से पराधीनता छुड़ा के स्वाधीनता निरन्तर स्वीकार करें।" महर्षि ने इन विचारों का प्रतिपादन तब किया था जब कांग्रेस पैदा भी नहीं हुई थी।

    यूरोप में जो कार्य बेकन, दस्कार्ते, स्पिनोजा और वाल्तेयर ने किया वही कार्य भारत में महर्षि दयानन्द ने किया। महर्षि दयानन्द ने देश को जगाने का कार्य अद्‌भुुत रूप से किया। उनका कहना था कि भारतीयों को अंग्रेजों का अनुसरण करते हुए स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना चाहिए। सत्यार्थप्रकाश में अंग्रेजों के स्वदेश-प्रेम की उन्होंने मार्मिक शब्दों में प्रशंसा की है।

    लाहौर में आर्यसमाज ने सर्वप्रथम स्वदेशी वस्तुओं की दुकान खोली थी। 1879 ई. में एक प्रस्ताव पारित कर इसके सभी सदस्य स्वदेशी वस्तु का उपयोग करते थे। 1875 ई. में स्थापित पंजाब नेशनल बैंक के संस्थापकों में बहुसंख्यक आर्यसमाज के सदस्य थे। 1902 ई. में पंजाब नेशनल बैंक का पूर्ण स्वामित्व आर्यसमाजी सदस्यों के हाथों में चला गया था। स्वामी दयानन्द ने स्वदेशी का जिस रूप में प्रतिपादन किया था उसमें केवल स्वदेश में निर्मित वस्तुओं का प्रयोग ही अभिप्रेत नहीं था, अपितु स्वदेशी संस्कृति भी उसके अन्तर्गत थी।

    अत: आर्यसमाज के एक वर्ग ने जहॉं गुरुकुल आन्दोलन के अन्तर्गत लड़कों और लड़कियों के लिए पृथक्‌-पृथक्‌ गुरुकुल खोले, वहॉं दूसरे वर्ग ने डी.ए.वी. आन्दोलन के रूप में यत्र-तत्र-सर्वत्र शिक्षण संस्थाओं का जाल बिछा दिया। स्त्रीशिक्षा के लिए भी सर्वत्र बालिका विद्यालय खोले गये।

    महात्मा गांधी की नेतृत्व में कांग्रेस शनै:-शनै: अहिंसात्मक रीति से देश को आजाद करानेवालों की संस्था के रूप में परिणत होती चली गई। यद्यपि आर्यसमाज संस्थागत रूप में प्रचलित सक्रिय राजनीति के पक्ष में नहीं है। फिर भी राजनीति में रुचि रखनेवाले आर्यसमाजी कांग्रेस में शामिल हो गये। कांग्रेस में ऐसे लोगों का बहुमत था। स्वामी श्रद्धानन्द, आर्य संन्यासी भवानीदयाल और पंजाब केसरी लाला लाजपतराय प्रभृति लोग आर्यसमाज के आन्दोलन से जुड़े हुए थे।

    founder of arya samaj              

    भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में क्रान्तिकारियों के योगदान को विस्मृत करना घोर कृतघ्नता होगी। श्री श्याम जी कृष्ण वर्मा क्रान्तिकारी आन्दोलन के जनक थे। ये स्वामी दयानन्द के प्रिय शिष्य थे। यूरोप में इन्होंने होमरूल सोसायटी की स्थापना की थी। उक्त सोसायटी द्वारा उच्च शिक्षा प्राप्त भारतीयों को जो अंग्रेजों की नौकरी नहीं करने का वचन देते थे, उन्हें छात्रवृत्ति प्रदान की जाती थी। स्वातन्त्र्य वीर सावरकर और लाला हरदयाल ने उक्त छात्रवृत्ति प्राप्त कर क्रान्तिकारी आन्दोलन को नई दिशा प्रदान की। भाई परमानन्द और श्री बालमुकुन्द जी लाला हरदयाल के साथी थे। शहीद भगतसिंह स्वयं व उनके पिता सरदार किशनसिंह और उनके चाचा अजीतसिंह सभी आर्यसमाज से प्रभावित थे। मदनलाल ढींगरा, पं. रामप्रसाद बिस्मिल, राजा महेन्द्रप्रताप, पं. गेन्दालाल दीक्षित, मास्टर अमीरचन्द प्रभृति क्रान्तिकारी आर्यसमाज से जुड़े हुए थे। आजाद हिन्द फौज के जिन तीन सैनिक अधिकारियों पर मुकदमा चलाया था उनमें श्री सहगल जी आर्यसमाजी परिवार के थे। आर्यसमाज ने आजाद हिन्द फौज पर मुकदमा चलाने का भी विरोध किया था। लेखक-दयाराम पोद्दार

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    There is a misconception among the common people that it is the Congress party that has given India independence from the British. The Congress was founded in 1885 AD by Mr. Alan Octavian Hume. The people involved in the Congress gathered every year as a boon and passed a resolution praising it for keeping it as a boon and only demanded a government job. Its main function was to send a government delegation in English costumes in the style of British speaking English only.

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  • स्वतन्त्रता प्राप्ति में आर्य समाज का योगदान

    अंग्रेजों के आधीन पराधीन भारत को स्वतन्त्र कराने में आर्य समाज का अमूल्य और अकथनीय योगदान रहा है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का इतिहास लिखने वाले श्री पट्‌टाभिसीतारमैया ने कांग्रेस के इतिहास में लिखा है कि स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लेने वालों में 80 प्रतिशत आर्य समाजी ही आन्दोलनकारी थे। इसी से आर्य समाज द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्ति हेतु किये गये संघर्ष का सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि आर्य समाज को स्वदेश, स्वराज्य, स्वभाषा एवं स्वसंस्कृति से कितना लगाव था और है । हो भी क्यों न क्योंकि आर्यसमाज का जन्म भी इसीलिए हुआ था।

    स्वतन्त्रता महामन्त्र के दाता, युग प्रवर्तक तथा "स्वतन्त्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है" को भारत भू पर घोषणा करने वाले तिलक को स्वतन्त्रता की प्रेरणा देने वाले युग पुरुष आचार्य प्रवर देव दयानन्द स्वदेश, स्वतन्त्रता, स्वराज्य एवं नागरी भाषा तथा वैदिक संस्कृति के प्रबल एवं सर्वप्रथम समर्थकों में अग्रगण्य हैं। कांग्रेस के जन्म से पूर्व ही ऋषि ने अपनी महान रचना "सत्यार्थ प्रकाश" में लिखा कि कोई कितना ही यत्न करे जो स्वदेशी राज्य होता है वह सर्वोपरि होता है। अथवा मतमतान्तर के आग्रह रहित अपने और पराये का पक्षपात शून्य माता-पिता के समान कृपा, न्याय दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    श्रेष्ठ कर्मों से शरीर और मन की स्वस्थता
    Ved Katha Pravachan - 95 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    इलाहाबाद उच्च न्यायालय इस अभियोग का साक्षी हैं कि स्वतन्त्रता का शंखनाद करने वाली तथा आर्यो के सार्वभौम चक्रवर्ती साम्राज्य की प्रार्थना करने वाली ऋषि की अमर अक्षय रचना "आर्याभिविनय" से तत्कालीन अंग्रेजों में भय व्याप्त हो गया। अत: कुटिल अंग्रेजों ने इस पुस्तक पर अभियोग चलाया, पर ऋषि दयानन्द अपने कण्टकाकीर्ण मार्ग से विचलित नहीं हुए। ऋषि ने पं. श्याम जी कृष्ण वर्मा कों इंग्लैण्ड जाकर स्वतन्त्रता हेतु कार्य करने की प्रेरणा दी थी तथा पं. श्याम जी ने इंग्लैण्ड जाकर इण्डिया हाउस की स्थापना की और इसी के माध्यम से भारतीय विद्यार्थियों में स्वतन्त्रता का बीजारोपण किया। फलस्वरूप सावरकर, ढींगरा जैसे एक नहीं अनेक क्रान्तिकारियों का जन्म हुआ, जिन्होंने पराधीनता के प्रबल पाशों में जकड़ी हुई मातृभूमि को स्वतन्त्र कराने का आजन्म व्रत धारण कर अपने तुच्छ सुखों का परित्याग कर भारतीय स्वतन्त्रता के इतिहास में अपना विशेष स्थान बनाया।

    इधर भारत में ऋषि की महान रचनाओं का जिनमें स्वदेश, स्वराज्य, स्वभाषा, स्वाधीनता तथा स्वसंस्कृति की सर्वत्र चर्चा थी, सम्पूर्ण भारत में असर बढा। फलस्वरूप स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपतराय, रामप्रसाद बिस्मिल, सरदार भगतसिंह आदि क्रान्तिकारियों का जन्म हुआ। इन क्रान्तिकारियों के क्रिया-कलापों से अंग्रेज सरकार की जड़ें हिल गयीं। अंग्रेज इनसे अत्यन्त भयभीत हो गए और उन्हें जमे हुए अंगद के पांव उखड़ते नजर आए।

    उस समय स्वामी दयानन्द के अकाट्‌य तर्कों तथा उनकी जादू भरी वाणी से मुन्शीराम जो कि अपने को बड़ा तार्किक मानते थे की वाणी ही न जाने कहॉं खो गयी । ऋषि का उन पर ऐसा जादू चला कि पंडित मुन्शीराम पहले स्वयं पावन और फिर पतित पावन बन गए और फिर देखते-देखते महात्मा से स्वामी श्रद्धानन्द बन गए। स्वामी दयानन्द सरस्वती से ही प्रेरणा प्राप्त कर मुन्शीराम जी ने गुरुकुल खोला और वहॉं पर प्राचीन आर्य शिक्षा प्रणाली पर आधारित शिक्षा देने लगे। इसी शिक्षा के साथ उन विद्यार्थियों में स्वतन्त्रता की भावना भी भरने लगे। स्वामी श्रद्धानन्द जी स्वयं स्वतन्त्रता हेतु कांग्रेस में सम्मिलित हो गए और इसके सक्रिय कार्यकर्ता बन गए।

    जलियॉंवाला बाग के निरीह निहत्थे, निरपराधियों के प्रमुख हत्यारे जनरल डायर के इस अमानवीयता पूर्ण नरसंहार रूपी दुष्कृत्य को देखकर कोई भी कांग्रेसी पंजाब में होने वाले अधिवेशन का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेकर यमराज को आमन्त्रण देना नहीं चाहता था। कांग्रेस का मनोबल पूर्णत: गिर चुका था। ऐसे समय में निर्भीक श्रद्धानन्द ने ही सम्मेलन की अध्यक्षता स्वीकार कर सबको आश्चर्य चकित ही नहीं कर दिया, अपितु अपने पौरुष का परिचय भी दिया था। यह बात अलग है कि मुस्लिमों को पूर्णत: सन्तुष्ट रखने का प्रयास करने वाली कांग्रेस पार्टी से उनका सम्बन्ध अधिक दिनों तक न बना रह सका, तथापि स्वामी जी ने जो अविस्मरणीय कार्य देश की स्वतन्त्रता हेतु किए वह स्वर्णाक्षरों में लेखनीय हैं। गुरुकुल से स्वतन्त्रता की घुट्‌टी पाने के उपरान्त शिक्षित दीक्षित स्नातकों ने स्वतन्त्रता प्राप्ति में अपना अमूल्य एवं अकथनीय योगदान दिया।

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    स्वामी दयानन्द सरस्वती के जीवन में एक नहीं अनेकों उदाहरण ऐसे मिलने हैं कि जिनमें स्वामी जी ने अंग्रेजों के राज्य का सर्वथा विरोध किया है। निर्भीक दयानन्द परमपिता परमात्मा के सिवा अन्य किसी से भय नहीं खाते थे। तभी तो एक अंग्रेज अधिकारी के यह कहने पर कि "आप अंग्रेजों के अखण्ड राज्य के लिए ईश्वर से प्रार्थना करें" स्वामी जी ने जिस निर्भीकता से प्रत्युत्तर दिया था, उसे सुनकर उस अधिकारी ने उन्हें विद्रोही फकीर की संज्ञा दी थी।

    स्वामी जी ने भूमिगत रहकर अनेक स्वतन्त्रता सेनानियों को जो कि सुप्रसिद्ध 1857 की असफल क्रान्ति के पश्चात अंग्रेजों के दमनचक्र से पूर्णत: हताश निराश हो चुके थे, को प्रोत्साहित कर मातृभूमि को मुक्त कराने की प्रेरणा दी थी। तत्कालीन राजवाड़ों में जाकर राजाओं को भी इस पुण्य कार्य में सहयोग देने की प्रेरणा की। जहॉं-जहॉं स्वामी जी गए वहॉं-वहॉं सुप्त प्राय: पराधीन देशवासियों में स्वतन्त्रता का अलख जगाया। परिणामस्वरूप चतुर्दिक्‌ से अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने की प्रतिक्रिया तीव्र हो गई। इधर सुराजप्रिय कांग्रेस पार्टी का उदय हुआ। पश्चात इसकी विचारधारा में परिवर्तन हुआ और यह स्वराज्य के लिए संघर्ष करने लगी।

    आज इतिहास इन सब तथ्यों को नहीं बताता। स्वतन्त्रता प्राप्ति में कांग्रेस का ही सर्वाधिक योगदान इतिहास में उद्‌धृत है और यही हमारे नौ-निहालों को पढाया भी जाता है कि यदि कांग्रेस, गान्धी और नेहरू न होते तो शायद स्वतन्त्रता कभी न मिलती। हमारा अभिप्राय यहॉं यह लेशमात्र भी नहीं है कि कांग्रेस, गान्धी और नेहरू का स्वतन्त्रता प्राप्ति में कुछ भी योगदान नहीं है। इनका भी बहुत योगदान है, परन्तु आज आर्य समाज का उल्लेख इतिहास के पृष्ठों में नगण्य है। "जो जाति अपने इतिहास को भुला देती है,वह पूर्णत: नष्ट होती है" अत: अपने इतिहास को कभी भी विस्मृत नहीं करना चाहिए। यही उन ज्ञात-अज्ञात मातृभूमि को स्वतन्त्र कराने वाले सेनानियों के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी। लेखक - ब्रह्मानन्द आजाद 
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    The Arya Samaj has played an invaluable and inexplicable contribution in making India independent under the British. Mr. Patababhisitaramaiya, who wrote the history of the Indian National Congress, has written in the history of the Congress that 80 percent of the Arya Samajis were the activists among the participants in the freedom movement. From this, it can be easily estimated that the Arya Samaj's struggle for independence, and how much the Arya Samaj was and is attached to indigenous, self-government, self-language and self-culture. Why not because Arya Samaj was also born for this reason.

     

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  • स्वयं समझो कि क्या करना है

    प्रेरक-प्रसंग

    नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जब सिंगापुर में आजाद हिन्द फौज का गठन कर रहे थे, तब उन्हें अपने कार्यालय में एक निजी सहायक की आवश्यकता पड़ी। इसके लिए उन्होंने आवेदन पत्र मंगाये। उनमें से दस बारह लोगों को साक्षात्कार के लिए बुलाया गया। 

    कमरे के दरवाजे और नेताजी की मेज़ के बीच में एक मोटी पुस्तक फर्श पर खुली पड़ी थी। साक्षात्कार के लिए उम्मीदवार एक-एक करके आते गये। सभी ने उस पुस्तक को पड़े देखा। वे उससे बचकर मेज़ की ओर बढ़ गये। नेताजी से उनके प्रश्नोत्तर हुए और वे वापस लौट गये। लौटते समय भी उन्होंने उस पुस्तक को देखा, परन्तु कुछ किया नहीं। 

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    समस्त दुःखों के निवारण की प्रार्थना

    Ved Katha Pravachan _73 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    एक प्रौढ़ उम्मीदवार ने कमरे में प्रवेश करते ही उस पुस्तक को फर्श पर पड़े देखा, तो उसने नेताजी से पूछा- "'यह पुस्तक फर्श पर पड़ी है। क्या मैं इसे उठाकर आपकी मेज़ पर रख दूँ।'' 

    नेताजी ने सिर हिलाकर स्वीकृति दी और उसने पुस्तक को उठाकर नेता जी की मेज़ पर संवार कर ठीक ढंग से रख दिया। नेता जी ने उससे बिना कोई प्रश्नोत्तर किये उसे वापस लौटा दिया। 

    वह कुछ निराश सा होकर बाहर निकला। परन्तु कुछ ही मिनट बाद उम्मीदवारों को सूचित किया गया कि उसी व्यक्ति को नियुक्ति के लिए चुना गया है। 

    बाद में नेताजी ने बताया कि मुझे ऐसे सहायक की आवश्यकता थी, जो काम में मेरी सहायता करे। इतने लोगों में वही एक मुझे ऐसा लगा, जो खुद यह समझ सकता था कि उसे क्या करना चाहिए।

    गान्धी जी की निर्भीकता

    बिहार के चम्पारण जिले में गोरे मालिकों के हाथों खेतिहार मजदूरों को तरह-तरह की यातनाएं दी जा रही थीं। गान्धी जी ने वहॉं जाकर उनकी दुःखद स्थिति की जांच की। किसी ने गान्धी जी से कहा कि इस इलाके का गोरा मालिक बड़ा खराब आदमी है। उसने आपको खत्म करवाने के लिए कई हत्यारों को तैनात कर रखा है। 

    यह सुनकर गान्धी जी उसी रात को अकेले ही गोरे की कोठी पर पहुंच गए। गोरे ने पूछा- "मिस्टर गान्धी! आप और यहॉं, इतनी रात गए?'' गान्धी जी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया- "मैंने सुना है कि आपने मुझे मारने के लिए कुछ लोगों को किराए पर रख छोड़ा है। आप इतनी परेशानी क्यों उठाएं? इसलिए में खुद ही अकेले आपके पास चला आया, ताकि आप अपनी इच्छा पूरी कर सकें।"

    बेचारा गोरा गान्धी जी की निर्भीकता देखकर दंग रह गया और माफी मांगने लगा।

    कृतज्ञता

    किसी के उपकार को मानना कृतज्ञता है। यह एक दिव्य गुण है। जबकि किसी के उपकार को न मानना कृतघ्नता है। यह पाप है। हमारे इतिहास में अनेक ऐसे प्रेरक उदाहरण हैं, जो हमें इस ओर सचेष्ट करते हैं कि हमें जीवन में कृतज्ञता जैसे पुण्य को अवश्य अर्जित करना चाहिए। 

    भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र उन उच्चकोटि के प्रसिद्ध साहित्यकारों में थे, जिनकी विशेषताओं के कारण उनके समय को भारतेन्दु युग की संज्ञा दी जाती है। वे असीम उदार थे। अपनी उदारता के कारण वे धनाभाव से ग्रस्त रहते थे। एक समय इनके पास ऐसा भी आया कि जब इनके पास इतने भी पैसे न थे कि बाहर से आए पत्रों का उत्तर भी भेज सकें। पत्रों के उत्तर तो लिखते थे, किन्तु डाक में तो तभी भेजे जाएं, जब उन पर यथोचित डाक टिकट लगेहुए हों। किन्तु इसके लिए पैसे कहॉं थे? परिणाम यह हुआ कि पत्र के उत्तरों का ढेर जमा हो गया। उनके एक मित्र ने जब यह देखा तो द्रवित हुआ और पांच रुपये के डाक टिकट लाकर दिए। तब वे पत्र डाक में डाले गए। 

    समय बदलता रहता है। भारतेन्दु जी का आर्थिक अभाव टल गया। उनकी आर्थिक स्थिति सुधरी। अब जब भी वह मित्र मिलते, तभी भारतेन्दु जी बलपूर्वक उनकी जेब में पॉंच रुपये डाल देते और कहते ""आपको याद नहीं, आपके पॉंच रुपए मुझ पर ऋण हैं।'' मित्र इनके इस व्यवहार से तंग आ गया और एक दिन उनसे कहा- '"मुझे अब आपसे मिलना बन्द करना पड़ेगा।'' 

    भारतेन्दु जी की आँखों में आँसू भर आए  और वे रुन्धे कण्ठ से बोले- ""भाई! तुमने ऐसे समय में मुझे पॉंच रुपए दिए थे कि मैं जीवन भर नहीं भूल सकता। मैं तुम्हें यदि पॉंच रुपये प्रतिदिन देता रहूँ, तो भी तुम्हारे ऋण से नहीं छूट सकता।'' 

    बात साधारण सी है। किन्तु कृतज्ञता के भाव को गम्भीरता से प्रकट करती है। प्रस्तुतिः कु. भावना

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    Time varies. Bhartendu Ji's economic absence was averted. Their economic condition improved. Now whenever that friend met, Bharatendu ji would forcefully put five rupees in his pocket and say "" You don't remember, your five rupees are a loan to me. "The friend got fed up with this behavior and told him one day- "I have to stop meeting you now."

     

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  • स्वस्थ जीवन के लिए उपयोगी बातें

    आदत बनाएँ- सुबह बिस्तर से उठने के बाद पालथी मारकर बैठें और 1-3 गिलास गुनगुना या ठण्डा पानी पिएं। दो-दो घण्टे के अन्तराल पर दिन में कम से कम 8 से 10 गिलास पानी पिएं।

    महत्वपूर्ण कारक- लम्बी सांस लें और कमर सदैव सीधी रखें। दिन में दो बार मल त्याग की आदत डालें। दिन में दो बार ठण्डे या गुनगुने पानी से स्नान करें। दिन में दो बार सुबह और शाम प्रार्थना एवं ध्यान करेंं।

    विश्राम- भोजन करने के बाद मूत्र त्याग करें और 5 से 15 मिनट तक वज्रासन की मुद्रा में बैठें।सख्त या मध्यम स्तर के बिस्तर पर सोएं और पतला तकिया लगाएं। सोते समय अपनी चिन्ताओं को भूल जाएं और अपने शरीर को ढीला छोड़ दें। पीठ के बल या दाहिनी और करवट लेकर सोने की आदत डालें। भोजन और सोने के बीच दो घण्टे का अन्तर रखें।

    Ved Katha Pravachan -14 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    व्यायाम- प्रतिदिन सुबह आधा घण्टे तक तेज सैर या जॉगिंग करें अथवा आसन-प्राणायाम/सूर्य नमस्कार करें अथवा बागवानी करें या कोई खेल खेलें अथवा तैराकी करें।

    भोजन- भोजन अच्छी तरह चबाकर धीरे-धीरे और शान्तिपूर्वक करें। अपनी भूख के मुताबिक भोजन करेंलेकिन अपना तीन-चौथाई पेट ही भरें। दिन में 7 घण्टे के अन्तर से केवल दो बार ही भोजन करें। सुबह नाश्ते में अंकुरित अन्न अथवा रात भर भिगोए हुए मेवे प्रयोग में लें।

    भोजन का एक भाग अनाज एवं एक भाग सब्जियों का रखें। पके हुए एवं कच्चे भोजन को साथ न मिलाएं। असंतृप्त वसायुक्त शुद्ध तेलों का ही प्रयोग करें और वह भी अल्प मात्रा में।

    कच्चे भोजन में अंकुरित अन्नताजी और पत्तेदार सब्जियॉंमौसम के फलसलादरसचटनीनींबूशहद का उपयोग करें। पके हुए भोजन में चोकर समेत आटाबिना पॉलिश किया चावल और दलिए का इस्तेमाल करें। उबले हुए भोजन का इस्तेमाल करें। उबले हुए भोजन और सूप को प्राथमिकता दें। भोजन करने के बाद 15-20 मिनट तक टहलें।

    कम करें- नमकमिठाइयॉंमसालेमिर्चआइस्क्रीमपकाया हुआ भोजनआलू और गिरीदार चीजें कम मात्रा में लें।

    ऊँची एडी के जूतेकठिन व्यायाम और टी.वी. एवं फिल्मों से बचें। धूम्रपानमदिरानशीली दवाएँसॉफ्टडिंरक्सतम्बाकूजर्दाचायकॉफी एवं बुरे व्यसनों से बचें।

    अभ्यास करें- दिन में एक बार नमक मिले गुनगुने पानी से गरारे कीजिए। अपनी आँखों को स्वस्थ व इनकी चमक बनाए रखने के लिए प्रतिदिन सुबह व शाम इन्हें त्रिफला के पानी से धो लीजिए।

    सप्ताह में एक बार वमनधौति (कुंजल/वमन) कीजिए। कब्ज होने पर एनिमा लीजिए। सप्ताह में एक बार मालिश और धूप स्नान लीजिए। प्रतिदिन तालू की हल्की मालिश कीजिए। प्रतिदिन दो बार माथे व आँखों पर पानी छींटिए और मुँह में पानी भरकर रखते हुए थूक दीजिए। प्रतिदिन थोड़ी देर तक हॅंसिए और गाना गाइए।

    सावधानी बरतें- काटने से पहले सब्जियों व फलों को अच्छी तरह धोइए। क्योंकि इन पर कीटनाशक और अन्य दूषित तत्व लगे होते हैं। जहॉं तक संभव हो सकेफलों व सब्जियों को छिलके समेत खाइए। टी.वी. देखते समय समुचित दूरी पर बैठिए। -रामचन्द्र वैष्णव

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    स्वस्थ जीवन चाहने वालों के लिए आवश्यक सन्देश

    1. प्रातः सूर्योदय से एक घण्टा पूर्व उठें। अच्छी तरह दॉंत और जीभ साफ करके एक या दो गिलास ताजा पानी पीयें और कुछ देर बाद शौच इत्यादि नित्य कर्मों से निवृत्त हों। आँखों पर शीतल जल छिटकें।

    2. किसी खुले और स्वच्छ स्थान पर जाकर व्यायाम करें। व्यायाम में टहलनादौड़नाभिन्न-भिन्न प्रकार की कसरत और योगाभ्यास इत्यादि सम्मिलित हैं।

    3. स्नान करने से पूर्व तेल की मालिश करलें तो अत्यधिक लाभ होगा।

    4. नित्य ठण्डे जल से खूब मल-मलकर स्नान करें।

    5. स्नान के पश्चात्‌ कुछ समय स्वाध्याय करें। जीवनोपयोगी उत्तम पुस्तकों या पत्र-पत्रिकाओं का पठन-पाठन करें।

    6. भोजन के साथ पानी पीएं। भोजन के आधा घण्टा पूर्व एक या दो घण्टे पश्चात्‌ पानी पीएं।

    7. भोजन प्रारम्भ करने से पूर्व अच्छी तरह हाथ-पैर धोएँ।

    8. भोजन नियत समय पर करें। बार-बार न खाएं। दो भोजनों के मध्य कम से कम पॉंच घण्टे का अन्तर होना चाहिए। प्रातः भोजन के पश्चात्‌ एक गिलास छाछ (मट्ठा) पीना स्वास्थ्यवर्द्धक है।

    9. भोजन बिना किसी तनाव के प्रसन्नता के साथ करें और अच्छा चबाकर करें।

    10. भोजन सादा और प्रामाणिक रूप से बनाया हुआ होजिसमें पोषक तत्व नष्ट न हुए हों।भोजन हल्का और पौष्टिक करें। यह सन्तुलित होना चाहिए। भोजन बढ़ती हुई अवस्था में कम मात्रा में करना चाहिये।

    11. भोजन के साथ फल और हरी तरकारियॉं प्रचुर मात्रा में खानी चाहिये।

    12. भोजन के साथ दहीअदरकनीम्बूटमाटर का सेवन किसी न किसी रूप से जुड़ा हुआ रखें।

    13.नित्य प्रतिदिन दाल या सब्जी में हींग का प्रयोग अवश्य करें।

    14.फलों का सलाद भोजन के साथ लें।

    15. भोजन के साथ नमक की मात्रा और गरम मसालों की मात्रा अधिक नहीं होना चाहिए।

    16. आंवलानीम्बूहरड़ का नित्य प्रतिदिन सेवन किसी न किसी रूप में अवश्य करें।

    17. भोजन के पश्चात्‌ अवश्य कुछ देर विश्राम करें और कोई भारी परिश्रम का कार्य न करें।

    18. अपने कार्य को नियत समय पर समाप्त करने का प्रयत्न करेंजिससे दूसरे कामों में गड़बड़ी न हो।

    19. दिन भर में इतना काम अवश्य करेंजिससे शाम को कुछ थकावट अनुभव होने लगे। इससे बड़ी मजेदार और मीठी नीन्द आयेगी। परिश्रम करने के पश्चात्‌ थककर सोनायोग-निद्रा के समान है।

    20. शाम का भोजन कुछ हल्का रखें और सोने से कम से कम तीन घण्टे पूर्व भोजन कर लिया करें। भोजन सूर्यास्त के पूर्व ही करना चाहिये।

    21. शाम को भोजन के बाद कुछ देर खुली हवा में अवश्य टहलें।

    22. वस्त्र अधिक कसे हुए न पहनें।

    23. इच्छा शक्ति के साथ अपना कार्य करें।

    24. विचारों को शुद्ध रखें। दिन में काफी हॅंसें और सदा प्रसन्न चित्त रहने का प्रयत्न करें।

    25. रात को सोने से पहले एक गिलास गर्म दूध पीएं और नौ से दस बजे तक सो जायें।

    26. रात को सोते समय हाथपैरमुँह धोना न भूलें।

    27. संयमहीन स्त्री-पुरुषों का जीवन अशान्त तथा गया-बीता समझें। डॉ. मनोहरदास अग्रावत

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    Food- chew food properly and slowly and calmly. Eat according to your hunger, but only fill three-fourths of your stomach. Eat only twice at a time of 7 hours. Use sprouted grains in breakfast in the morning or dry fruits soaked overnight.

     

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  • स्वाधीनता आन्दोलन और आर्य समाज

    आर्य समाज के प्रवर्तक, युगनिर्माता, वैदिक धर्म के पुनरुद्धारक, भारतीय संस्कृति के संवाहक, महर्षि दयानन्द सरस्वती का नाम राष्ट्र निर्माताओं में सदैव आदरपूर्वक लिया जाएगा। महर्षि दयानन्द ने आध्यात्मिक, धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में जागृति का शंखनाद तो फूंका ही था, उन्होंने देशवासियों को स्वराज्य के महत्त्व से भी अवगत कराया था। उस समय की राजनैतिक दासता की स्थिति से उनका हृदय विह्वल था। उन्होंने अपने महान ग्रंथ "सत्यार्थप्रकाश" के आठवें समुल्लास में लिखा है- "अब अभाग्योदय से और आर्यो के आलस्य, प्रमाद, परस्पर विरोध से अन्य देशों के राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनी, किन्तु आर्यावर्त्त में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ भी है सो भी विदेशियों से पादाकान्त हो रहा है। दुर्दिन जब आता है तब देशवासियों को अनेक प्रकार का दु:ख भोगना पड़ता है। कोई कितना ही करे, परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर के आग्रह रहित, माता-पिता के समान कृपा, न्याय औय दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है।

  • स्वामी दयानन्द एवं साम्यवाद

    ऋषि राज तेज तेरा चहुं ओर छा रहा है।
    तेरे बताए पथ पर संसार चल रहा है।।

    उपरोक्त पंक्तियों से ऋषि दयानन्द द्वारा मण्डित वैदिक सनातन धर्म की व्यापकता एवं लोगों के उसके अनुगमन पर प्रकाश पड़ता है। लेकिन अभी भी आशातीत रूप में सफलता हासिल नहीं हो सकी है। स्वामी जी का वैदिक धर्म के प्रति अटूट विश्वास, निष्ठा एवं धर्मानुचरण अनुकरणीय था। वैदिक धर्म के अनुशीलन एवं अनुकरण से ही मानव मात्र का कल्याण सम्भव है। स्वामी जी ने तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों एवं वेद की शिक्षाओं तथा आर्य संस्कृति पर पड़ रहे विजातियों के प्रभावों को बहुत ही नजदीक से समझा, परखा एवं आत्मसात्‌ किया था। यही कारण है कि उनकी शिक्षाएं आए दिन की अग्नि परीक्षाओं में कुन्दन-सी दमकती रही। उनके कटु सत्य से ढोल ढकोसला वाले लोग विचलित हो उठे। यद्यपि उनकी शिक्षाएं मानव मात्र के लिए थी, किसी सम्प्रदाय या धर्म विशेष के लिए नहीं थी।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    कोई राष्ट्र धर्म निरपेक्ष नहीं हो सकता -1

    Ved Katha Pravachan -5 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    जहॉं स्वामी जी की सत्य ज्ञान गंगा में बहुत लोगों ने अवगाहन किया और अपनी जीवन धारा को ही बदल डालावहीं कुछ ऐसे नासमझ लोग भी थे जिन लोगों ने न स्वामी जी को समझा और न वेद की शिक्षा को। फलस्वरूप लोग वेद से अलग हो गये। सदज्ञान से वंचित रह गए। जो चीज उनके ज्ञान की स्रोत थी उसी चीज से विरक्ति हो गई। जो उनके लिए अमृत लाया था वही उनको कुपथमार्गी दिखने लगा। कवि ने कहा-

    पिलाया जहर का प्याला इन्हीं नादान लोगों ने।
    जिनके लिए अमृत का प्याला ले के आये थे।

    इसका दुष्परिणाम यह निकला कि जिसे लोगों ने ज्ञान समझ रखा था वह अज्ञान साबित हुआ। जिस नींव पर अपने ज्ञान का महल खड़ा किया था वह महल ही धाराशायी हो गया। भौतिक जगत की चमक दमक मन को चैन एवं शान्ति प्रदान नहीं कर सकी। आज न चैन धनवान को हैन बलवान को है और न रूपवान को। धन वाले अलग दुखी हैंनिर्धन अलग। वेद विहित मार्ग पर नहीं चलने से चैन किसी को नहीं है और न था। अगर कहीं सुख दिखाई भी दिया तो वह क्षणिक था।  

    हर युग और समय की अपनी समस्याएं होती हैं। राम के सामने समस्या थी रावण पर विजय और कृष्ण के सामने पाण्डवों को राज्य प्राप्त करानेकी। स्वामी जी के सामने कुछ और ही समस्या थी। स्वामी जी के सामने तो एक रावण या एक कौरव कुल नहींहजारों रावण एवं हजारों कौरव कुल थे। उनकी समस्या थी वेदों का प्रचारछुआछूत का अन्तढोंग पाखण्ड का खण्डन एवं स्वराज्य प्राप्ति। लोगों में व्याप्त अनास्था को आस्था में बदलना कोई सरल काम नहीं था। यह समुद्र मन्थन से भी कठिन काम था। जिनके लिए उन्होंने अपना सर्वस्व होम किया वही उन्हें दुश्मन समझते थे।

    प्राच्य संस्कृति के धर्मअर्थकाम एवं मोक्ष के महत्व और गहनता से अनभिज्ञ कुछ पाश्चात्य विचारकों ने अर्थ को ही जीवन के सत्य के रूप में प्रतिष्ठित किया। मानव जीवन का चरम लक्ष्य अर्थ प्राप्ति ही माना जाने लगा। आर्थिक समानता के नाम पर नये ढंग से शोषण का सूत्रपात हुआ। साम्यवाद की शिक्षा कहती है कि पूंजीवादी समाज में पूंजीपतियों द्वारा मजदूरों का शोषण होता है। लेकिन उनकी व्यवस्था में सर्वहारा वर्ग के अधिनायकवाद में बहुसंख्यक द्वारा अल्पसंख्यक का शोषण होता है। इस चीज को नजर अन्दाज कर दिया गया। साम्यवादी समानता मात्र आर्थिक समानता तक ही सीमित लगती है।साथ ही मानवीय जीवन के अन्य आदर्श अछूते लगते हैं।

    वैदिक समानता का सिद्धान्त अपने आप में निराला है। सभी मानवों के लिए वेदों के ज्ञान ग्रहण की समानता उत्कृष्टतम व्यवस्था का प्रतीक है। साथ ही धनोपार्जन के लिये संयमित प्रयास की आवश्यकतासाधन की पवित्रता एवं साध्य की उत्कृष्टता सम्बन्धी वैदिक सन्देश व्यवस्था वह व्यवस्था है जिसमें गर्भाधान से लेकर मृत्यु पर्यन्त तक के मानवीय व्यवहार को व्यवस्थित करने का प्रावधान है। आचार शुद्धि के बाद ही आर्थिक समानता का वास्तविक लक्ष्य प्राप्त कर सकना सम्भव है।

    स्वामी जी के आदर्शों एवं पवित्र निर्देशों के अनुरूप अगर चला जाये तो निस्सन्देह वसुधैव कुटुम्बकम्‌ हो सकता है। लेकिन आज भौतिकवादी चकाचौंध में भूलकर मानव ने अपना स्वरूप ही खो दिया है। आये दिन हो रहे युद्धआतंक और विश्व में हुए व्यवस्था परिवर्तन नि:सन्देह आधुनिक युग में मानव सुख प्राप्ति के लिए हो रहे प्रयास की असफलता की कहानी है। काश !  आज का मानव पुन: एक बार ऋषि के त्याग एवं तपस्या के महत्व को समझ पाता। जिन मूल्यों के लिए उन्होंने अपना बलिदान कियाउन मूल्यों को मानव अपने जीवन का आदर्श बना पाता तो महर्षि का परिश्रम बहुत अंश में आर्थक होता।

    सुख चैन चाहते हो तो वेद को देखो।
    आनन्द चाहते हो तो दयानन्द को देखो।।-रामचन्द्र सिंह क्रान्तिकारी

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  • स्वामी विरजानन्द दण्डी -2

    आदर्श शिष्य द्वारा गुरु सेवा- गुरु-शिष्य सम्बन्ध का यहॉं उल्लेख करना आवश्यक है। दण्डी ऋषि सुष्टु स्वभाव के होते हुए भी वृद्धवस्था के कारण कुछ तीक्ष्ण और क्रोधी वृत्ति के थे। इसके विपरीत दयानन्द अत्यन्त विनम्र, अध्ययनशीन, आज्ञाकारी और गुरु चरणों में अविचल श्रद्धा रखने वाले थे। दण्डी जी शीघ्र ही यह भांप गये थे कि दयानन्द उनके अन्य शिष्यों की तुलना में विशिष्ट और कुछ असाधारण गुणों का पुंज है। दण्डी जी बारहों महीने यमुना नदी के मध्यवर्ती जलधारा से स्नान और उसी का पान करने के अभ्यासी थे। दण्डी जी की सेवा का यह व्रत दयानन्द ने स्वयं ही अपनी इच्छा से सहर्ष स्वीकार किया। लगभग 3 वर्ष तक के अपने शिक्षाकाल में दयानन्द प्रतिदिन भोर बेला में बिना सर्दी-गर्मी, बरसात, आन्धी की परवाह किए यमुना जल के लगभग 15 घड़ों से गुरु जी को स्नान कराते और उनके लिए पेय जल लाते।

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    सविता का सच्चा स्वरूप।

    Ved Katha Pravachan _71 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    गुरु जी का प्रकोप शिष्य द्वारा सेवा पूर्ववत्‌- दण्डी जी के निवास स्थान को दयानन्द प्रतिदिन झाडू देकर साफ करते थे। एक दिन कूड़ा उठाकर उन्होंने कमरे के एक कोने में रख दिया और उसे बाहर उठाकर ले जाने के लिए कुछ चीज खोजने लगे। इतने में गुरु जी टहलते हुए उधर आ निकले। उनका पांव कूड़े पर पड़ गया। अत्यन्त क्रोधावेश में आ गये और स्वामी दयानन्द पर लाठी का प्रहार कर दिया और कठोर वचन भी कहे। स्वामी जी ने गुरु के इस दण्ड को सहर्ष अंगीकार किया। यद्यपि इस मामले में वे दोषी नहीं थे। जिस समय गुरु जी शान्त हुए तो स्वामी दयानन्द ने उनके चरणों और शरीर को श्रद्धा से सहलाना शुरू कर दिया, यह कहते हुए कि "गुरुवर ! मैं तो युवा हूँ पर आप वृद्ध हैं। आपका दण्ड तो मेरे लिए अमृतवत्‌ है। मेरा शरीर कठोर है, पर आपके वृद्ध, जर्जरित अस्थिमात्र शरीर में पीड़ा हो गई होगी, इसलिए मैं मालिश से उसे दूर करता हूँ।" गुरु अपने शिष्य की इस सेवा भावना से गदगद्‌ हो गये। इसी का यह परिणाम था कि गुरु-शिष्य का कई घण्टों तक प्राय: एकान्त में वार्तालाप होता था। निश्चिय ही गुरु जी को यह दृढ विश्वास हो गया था कि दयानन्द शिष्य सामान्य व्यक्ति नहीं है, किन्तु भारत का एक अनोखा रत्न है।

    गुरु से विदाई : गुरु दक्षिणा- लगभग 3 वर्ष तक दण्डी जी के चरणों में अन्तेवासी के रूप में शिक्षा प्राप्त करने के बाद अब शिष्य दयानन्द की विदाई का समय आ गया। स्वामी दयानन्द की प्रबल इच्छा थी कि गुरु जी से प्राप्त शिक्षा को कार्यान्वित करने के लिये देशाटन करूं। पर खाली हाथ गुरु जी से विदा होना भारतीय परम्परा के विरुद्ध था। दयानन्द अत्यन्त विनम्रभाव से कुछ लौंग लेकर गुरुचरणों में उपस्थित हुए और बोले, "भगवन्‌! आपने विद्यादान कर मुझ पर जो उपकार किये हैं, उनसे मैं आजन्म उऋण नहीं हो सकता। पर अपनी हार्दिक श्रद्धा के प्रतीक ये कुछ लौंग आपके श्रीचरणों में समर्पित हैं।" दण्डी जी ने स्मितहास्य के साथ कहा, "वत्स! मैं पार्थिव वस्तु की यह दक्षिणा नहीं चाहता। मैं अन्य वस्तु तुम से मांगता हूं और वह तुम्हारे पास है। तुम्हें कहीं से लानी नहीं पड़ेगी।" दयानन्द ने निवेदन किया, "गुरुदेव! मैं पूर्ण रूप से आपके चरणों में समर्पित हूँ। आज जो आदेश करेंगे, मैं उसे आजीवन निभाऊगां।" गुरु ने कहा, "मैं तुमसे यही दक्षिणा मांगता हूँ कि तुम आजीवन आर्ष ग्रन्थों का प्रचार और अनार्ष ग्रन्थों का खण्डन करते हुए वैदिक धर्म की स्थापना हेतु अपना प्राण तक अगर न्यौछावर करना पड़े तो तुम संकोच नहीं करोगे।" ऋषि दयानन्द ने गुरुदेव के श्रीचरणों को स्पर्श करते हुए कहा, "आपका शिष्य आपके इस आदेश का प्राणपन से पालन करेगा।" गुरुदेव ने अपने स्नेहमय कर कमलों से दयानन्द के सिर पर हाथ फेरते हुए हार्दिक आर्शीवाद दिया। इस प्रकार गुरु-शिष्य का भौतिक सम्बन्ध तो समाप्त हुआ, पर आत्मिक सम्बन्ध आजीवन अटूट रहा।

    ऋषि दयानन्द ने अपने समस्त ग्रन्थों में अपने आपको "विरजानन्द दण्डी शिष्य" इन शब्दों से गौरवान्वित करते हुए अपने आचार्य वर की पुण्यस्मृति को दैदीप्यमान रखा।

    दण्डी जी का स्वर्गवास- दण्डी विरजानन्द का स्वर्गवास लगभग 82 वर्ष की आयु में सम्वत्‌ 1925 आश्विन वदी त्रयोदशी सोमवार (तद्‌नुसार 14 सितम्बर 1868) को हुआ। ऋषिवर दयानन्द ने इस दु:खद समाचार को सुन कर कहा "आज व्याकरण का सूर्य अस्त हो गया।"

    इस वीतराग संन्यासी की पुण्य स्मृति में आर्यसमाज की ओर से करतारपुर में "श्री विरजानन्द स्मारक भवन" स्थापित किया गया है। 14 सितम्बर 1970 को भारत सरकार द्वारा दण्डी जी की पुण्य स्मृति में डाक टिकट जारी किया गया। जब देश में दण्डी विरजानन्द जी जैसे गुरु और स्वामी दयानन्द जैसे शिष्य होंगे तभी देश का कल्याण होगा। - दीनानाथ सिद्धान्तालंकार

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    In honor of this saintly ascetic, "Sri Virjanand Smarak Bhawan" has been established in Kartarpur on behalf of Aryasamaj. On September 14, 1970, the postal stamp was issued by the Government of India in honor of Dandi Ji. When there will be a guru like Dandi Virjanandji and a disciple like Swami Dayanand in the country, then the country will be well-being. - Dinanath Siddhantalankar

     

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