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  • ऋषि दयानन्द का शिक्षादर्शन

    ऋषि दयानन्द ने मानव जीवन के सभी क्षेत्रों से सम्बन्ध रखने वाली सभी समस्याओं पर विचार किया है और वेद तथा वेदानुकूल अन्य शास्त्रों के आधार पर उन समस्याओं के इस युग के लिए सर्वथा नवीन और अनूठे समाधान अपने "सत्यार्थ प्रकाश" आदि ग्रन्थों में उपस्थित किये हैं। विभिन्न समस्याओं के सम्बन्ध में ऋषि दयानन्द ने जो विचार और समाधान दिये हैं यदि उनके अनुसार मानव का जीवन बीतने लगे तो धरती स्वर्गधाम बन सकती है और मनुष्य के व्यक्तिगत तथा सामाजिक सब प्रकार के कष्ट-क्लेश दूर होकर यह उन्नति और सुख समृद्धि की चरम सीमा पर पहुंच सकता है।

    शिक्षा समस्या मानव की एक बहुत बड़ी समस्या है। मनुष्य का सब-कुछ उसकी इस समस्या पर निर्भर करता है। मनुष्य का व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन किस प्रकार का होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम अपने बच्चों को किस प्रकार की शिक्षा देते हैं। ऋषि दयानन्द ने शिक्षा के सम्बन्ध में भी सर्वथा नये और निराले विचार दिये हैं। शिक्षा के सम्बन्ध में विचार करते हुए सबसे बड़ा प्रश्न यह उपस्थित होता है कि बालकों की शिक्षा संस्थाएँ किस प्रकार के वातावरण में हों, शिष्य और शिक्षकों के सम्बन्ध किस प्रकार के हों, बालकों को किस प्रकार पढाया जाए, बालकों का रहन-सहन तथा दिनचर्या किस प्रकार की हो और राष्ट्र के प्रत्येक बालक को बिना किसी भेदभाव के ऊंची से ऊंची शिक्षा मिल सके इसके लिए क्या व्यवस्था  की जाये। ऋषि ने शिक्षा विषयक सभी समस्याओं पर अपने ग्रन्थों में विस्तार से विचार किया है। ऋषि के इस सम्बन्ध में जो विचार हैं उनका अति संक्षिप्त उल्लेख किया जा रहा हैं।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    वैदिक विद्वानों की तपस्या के कारण वेद में प्रक्षेप नहीं हैं
    Ved Katha -15 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    शिक्षा संस्थाएँ नगरों से दूर प्राकृतिक सौन्दर्य से युक्त स्थानों में बनाई जानी चाहिएँ। जहॉं स्वाभाविक प्राकृतिक सौन्दर्य न हो वहॉं सुन्दर लता, वृक्षादि लगाकर शिक्षणालय के स्थान को हरा-भरा और शोभाशाली बना लेना चाहिए। जिसमें बालकों का शारीरिक स्वास्थ्य भी ठीक रहे और मानसिक भी। बच्चों को नगर का धुआँ, धूल-धमक्कड़ और दुर्गन्ध से भरी हवा में सांस न लेना पड़े और वे नगर निवासी गृहस्थों के शान-शौकत तथा श़ृंगार से भरे जीवन से भी पृथक रहें और इस प्रकार गृहस्थों के विलासमय जीवन को देखकर कच्ची उमर में ही उनके मन में विलास-प्रियता के निकम्मे विचार न उठने लगें। बालक शिक्षा समाप्ति से पूर्व नगरों में अपने घरों में नहीं जा सकेंगे। ये चौबीस घण्टे अपने गुरुओं के साथ शिक्षा संस्थाओं के आश्रमों में ही रह सकेंगे।

    गुरु और शिष्य एकान्त में रहेंगे। शिष्यों के चौबीस घण्टों के जीवन पर गुरुओं की दृष्टि रहेगी। गुरु शिष्यों के साथ रहकर उनके जीवन का निर्माण करेंगे। गुरु लोग शिष्यों को उनके हाल पर छोड़कर नगरों में रहने के लिए नहीं जा सकेंगे। गुरुओं का अपने शिष्यों के साथ इतना घनिष्ठ सम्बन्ध होगा जितना मॉं का अपने गर्भ में प़ल रहे बच्चे के साथ होता है। मॉं को अपने गर्भ में स्थित बच्चे के प्रति जितना प्यार और हितकामना होती है उतना ही प्यार और हितकामना गुरु में शिष्य के प्रति होनी चाहिए। मॉं को अपने गर्भ में स्थित बच्चे के प्रति जितनी एकात्मकता होती है उतनी ही एकात्मकता गुरु की शिष्य के प्रति होनी चाहिए। जिस प्रकार मॉं के गर्भ में स्थित बच्चे पर मॉं के अतिरिक्त बाहर का किसी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ सकता, उसी प्रकार गुरुओं के अतिरिक्त शिष्यों पर बाहर के लोगों का कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। गुरु लोग बाहर के जिन लोगों को व्याख्यान आदि के लिए बुलाना आवश्यक समझें उन्हीं का प्रभाव उनपर पड़ना चाहिए। जिस प्रकार मॉं को अपने गर्भ में बच्चे को सब प्रकार से श्रेष्ठ और बढिया बनाने की ही चिन्ता रहती है उसी प्रकार गुरुजनों को अपने छात्रों को सब प्रकार से श्रेष्ठ और उत्तम बनाने की चिन्ता रहती है।

    जब गुरुओं की शिष्यों के साथ इतनी गहरी घनिष्ठता होगी और वे शिष्यों की मॉं की तरह हित-कामना करेंगे तो शिष्य सदैव उनकी आज्ञाओं का पालन करेंगे और छात्रों में आज की सी अनुशासनहीनता की समस्या उत्पन्न नहीं होगी।

    बालकों को क्या पढना चाहिए, इस सम्बन्ध में भी ऋषि ने बड़े विस्तार से विचार किया है। सत्यार्थ प्रकाश, संस्कार विधि और ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में किस प्रकार के ग्रन्थ पढने चाहिएँ और किस प्रकार के नहीं, इस विषय विस्तृत प्रकाश डाला है। ऋषि की उस पाठविधि का ध्यान से विश्लेषण करने पर एक बात तो यह स्पष्ट रूप से सामने आती है कि ऋषि की सम्मति में पाठविधि में भौतिकविद्याविज्ञान (फिजिकल साईंस) और आध्यात्मिक (स्प्रिचूवल साईंस) दोनों का ही समावेश होना चाहिए। ऋषि ने जिन ग्रन्थों का उल्लेख किया है उनमें रसायन, भौतिक, गणित, ज्योतिष, अर्थशास्त्र, राजनीति, युद्ध-विद्या, शिल्पकला, आयुर्वेदादि भौतिकविद्या विज्ञानों का भी वर्णन है। उस पाठविधि में संगीत के अध्ययन की व्यवस्था भी है। संस्कृत भाषा और उसके उच्च अध्ययन की व्यवस्था तो है ही, ऋषि दयानन्द ने यह भी लिखा है कि प्रारम्भ से ही बल्कि पाठशाला में जाने से पहले ही घर में ही बालकों को विदेशी भाषाओं का सिखाना आरम्भ कर देना चाहिए। इससे यह संकेत मिलता है कि विदेशी भाषा मे जो ज्ञान विज्ञान है उस के पठन-पाठन के पक्षपाती ऋषि दयानन्द भी थे। ऋषि दयानन्द की पाठविधियों में तर्क और दर्शनशास्त्र को पढाने की व्यवस्था है। चारों वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ और उपनिषदों के पठन-पाठन की व्यवस्था भी वहॉं है। वेदों में भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की विद्याओं की व्यवस्था है। दर्शनों में, उपनिषदों में आध्यात्मिक विद्याओं का वर्णन है। इस प्रकार ऋषि की सम्मति में भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की विद्याएँ साथ-साथ पढाई जानी चाहिएँ। तभी मानव का सन्तुलित विकास हो सकेगा। किसी एक प्रकार की ही विद्या को पढने-पढाने से व्यक्ति एकांगी हो जाएगा। इसके कारण व्यक्ति और समाज दोनों को हानि होगी। आज के संसार में जो कलह, लड़ाई-झगड़े, युद्ध, अशान्ति दिखाई देती है, वह शिक्षा में आध्यात्मिक विद्याओं को स्थान न देने का ही परिणाम है। ऋषि दयानन्द ने जो विस्तृत पाठविधि दी है वह सब विद्याओं के ज्ञाता, उच्चकोटि के महाविद्वान्‌ व्यक्ति के तैयार करने की दृष्टि से दी है। "सत्यार्थप्रकाश" के तृतीय समुल्लास के अन्त में उन्होंने एक न्यूनतम पाठविधि की ओर भी संकेत किया है। उन्होंने लिखा है कि जैसे पुरुषों को व्याकरण, निरुक्त, धर्म और अपने व्यवहार (आजीविकोपार्जन) की विद्या न्यून से न्यून अवश्य सीखनी चाहिए, वैसे ही स्त्रियों को भी व्याकरण, धर्म, वैद्यक, गणित, शिल्प विद्याएँ तो अवश्य सीखनी चाहिए। सुविधानुसार पाठविधि में अधिक से अधिक विषयों को पढाने की व्यवस्था की जानी चाहिए।

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    ऋषि दयानन्द छात्रों में वासनाओं को भड़काने वाले काव्य, नाटक, उपन्यास आदि पढाने के घोर विरोधी थे। वे छात्रों के जीवन में ब्रह्मचर्य, संयम और पवित्रता पर अधिक बल देते हैं। ग्रीस के प्राचीन महान्‌ दार्शनिक प्लेटो ने भी इस प्रकार के कामोत्तेजक साहित्य को पढाने का घोर विरोध किया है। इसी प्रकार आधुनिक विद्वान एल्डस हक्सले ने भी इस प्रकार के साहित्य को पढाने का घोर विरोध किया है। इसी प्रकार ऋषिदयानन्द ने श्राद्ध, मूर्त्तिपूजा, अवतारवाद, भूत और प्रेतादि तथा अन्धविश्वास की शिक्षा देने वाले साहित्य का भी तीव्र विरोध किया है।

    बालकों को अन्य विषयों की शिक्षा के साथ-साथ योग की शिक्षा भी प्रारम्भ से ही देनी चाहिए। योगदर्शन आदि योग-विषयक साहित्य भी पढाया जाना चाहिए और योग के यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि इन आठ अंगों का क्रियात्मक अभ्यास भी कराना चाहिए। आसनों और प्राणायाम  के अभ्यास से उनमें मानसिक और आत्मिक पवित्रता उत्पन्न होगी, जिसके कारण वे सब प्रकार की बुराइयों और दोषों से बचे रहेंगेतथा योग के निरन्तर अभ्यास से वे परमात्मा के दर्शन के अधिकारी भी एक दिन हो जाएंगे। 

    योग के यम  नियमों में शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ये पॉंच नियम कहलाते हैं। इन नियमों के पालन से छात्र (1) शरीर और वस्त्र की दृष्टि से स्वच्छ रहना सीखेंगे। (2) सफलता और असफलता में एकरस रहना सीखेंगे। (3) साज-सिंगार तथा बनाव-ठनाव से दूर रहकर सादगी और कष्ट सहने की तपस्या का जीवन बिताना सीखेंगे। (4) उनमें उत्तम और ज्ञानवर्द्धक ग्रन्थों के अध्ययन की क्षमता जाग्रत होगी। (5) वे ईश्वर के उपासक बनेंगे। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पॉंच यम कहलाते हैं। उन पॉंच यमों के पालन से छात्र (1) अपने स्वार्थ के लिए किसी प्राणी को किसी प्रकार का भी कष्ट नहीं देंगे, प्रत्युत दूसरे के कष्टों को दूर करने का भाव अपने अन्दर जाग्रत करेंगे। (2) सत्य का पालन करना और असत्य से दूर रहना सीखेंगे। (3) किसी भी प्रकार की चोरी की वृत्ति से पृथक्‌ रहना सीखेंगे। (4) मन और इन्द्रियों को वश में रखकर अपनी जननेन्द्रियों को वश में रखने वाले संयमी बनेंगे। (5) वे लोभ और लालच से परे रहने वाले और आवश्यकता से अधिक धन अपने पास न रखने की वृत्ति वाले बनेंगे। ये दशों बातें जिन छात्रों के जीवन में ढल जाएँगी उनके जीवन में आगे चलकर किसी प्रकार के पाप या बुरे कार्य नहीं होंगे और आज के समाज में जो घोर चरित्रभ्रष्टता पाई जाती है वह चरित्रभ्रष्टता इस प्रकार की शिक्षा-दीक्षा में पले युवकों से बने समाज में कभी दिखाई नहीं देगी। ऋषि दयानन्द ने अपनी शिक्षा-पद्धति में इन यम-नियमों का पालन एक आवश्यक अंग रखा है। - आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति

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    When the gurus will have such deep intimacy with the disciples and they wish the disciples like their mother, the disciples will always obey their commands and the problem of indiscipline will not arise in the students today.

     

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  • ऋषि बोध पर्व को सांस्कृतिक पृष्ठभूमि

    वैदिक काल के इतिहास से प्रकट है कि हिमाचल प्रदेश कभी देवलोक या देवभूमि के रूप में था। वहॉं देवराज्य था। देवजाति में भी यक्ष, किन्नर, गन्धर्व आदि अनेक वर्ग थे। देवराज्य के सभापति का नाम विष्णु, प्रशासक का नाम इन्द्र, कोषाध्यक्ष का कुबेर और सेनापति का नाम रुद्र या शिव था।

    रुद्र और शिव समानार्थक हैं। रुद्र का अर्थ है- पापियों को रुलाने वाला और शिव का अर्थ है कल्याण करने वाला। जिस राज्य का सेनापति अपने कर्त्तव्य के प्रति सजग होकर दृष्टों को रुलाता हैं, उसी राष्ट्र का कल्याण होता है।

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    धन वैभव को दौलत क्यों कहते हैं
    Ved Katha Pravachan _50 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    शिवरात्रि का सम्बन्ध शिवजी के जीवन की एक विशेष घटना से है। युवा सेनापति शिव का विवाह सौन्दर्य और सद्‌गुणों की प्रतिमूर्ति पार्वती देवी के साथ सम्पन्न हुआ था। सुहाग रात्रि के दिन अनायास ही सूचना मिलती है कि असुरों ने देवराज्य पर आक्रमण कर दिया। देव सेनापति शिव के लिए यह सब कुछ अप्रत्याशित था। वे ठगे से रह गये। पर वे योगी थे। कुछ क्षणों को वे समाधिस्थ हुए। उन्होंने अपना तृतीय नेत्र=विवेक नेत्र (ज्ञान नेत्र) खोला और कामदेव की वाण वर्षा को निरस्त करके उसे भस्मसात्‌ कर दिया। रात्रि का अन्धकार गहन था। पर उस निबीड़ अँधियारी रात्रि में शिवजी का आत्मा जागरूक थावह निरन्तर जागरूक रहा और अन्तत: वासना पर विवेक की विजय हुई। देव सेनापति ने घोषणा की- "जब तक असुर सेना पर हम विजय नहीं प्राप्त कर लेंगे तब तक हमारी अखण्ड ब्रह्मचर्य साधना चलेगी।" देवसेना एक प्रकार के जादू से सम्मोहित हो उत्साह से भर उठी। शिव का डमरू बज उठापग थिरक उठेप्रलयङ्कर ताण्डव नृत्य का दृश्य उपस्थित हो उठा।

    पार्वती श़ृंङ्गार-सज्जित बैठी रही और जब उसे वास्तविकता का ज्ञान हुआ तो उसने भी "पति लोकं गमेयम्‌" इस आदर्श को चरितार्थ करते हुए शिवजी के इस रात्रि जागरण के व्रत में दीक्षा ले ली। यों संयम और साधना द्वारा देवत्व प्राप्ति के लक्ष्य को सार्थकता प्रदान की और भारतीय देवियों में अमर पद प्राप्त किया। तभी से यह रात्रि "महाशिरात्रि" बन गई।

    वाम मार्ग काल में तो सभी कुछ उलट गया। शिव का डमरु-वादनताण्डवनृत्यरात्रि जागरणत्रिनेत्रभाल में चन्द्र स्थिति आदि सभी अलङ्कारिक प्रयोगों का सौष्ठव नष्ट कर दिया गया। शिवलिङ्ग पूजा का महाभ्रष्ट क्रम चल पड़ा। कामारि शिव के नाम पर घोर घिनौनी कथायें घड़ ली गईभाङ्ग-धतूरा आदि को शिवजी की प्रिय वस्तु बना दिया गया। मानव पतन की यह पराकाष्ठा थी। ईश अनुकम्पा से इसी शिवरात्रि को फिर एक बालक ने अज्ञान की अँधियारी रात्रि में जागरण की साधना की और अखण्ड ब्रह्मचर्य की साधना का व्रत लेकर बालक मूलशङ्कर ने भोगवाद और असंयम से संतप्त विश्र्व पर दया और आनन्द की वर्षा कर "दयानन्द" संज्ञा को सार्थक किया।

    यों शिवरात्रि और बोध रात्रि का एक ही सन्देश है- हम जागते रहें। जागने का अर्थ प्रकृति नियम विरुद्धस्वास्थ्य नियम विरूद्ध रात्रि भर जागने का नाटक करना नहीं है। वरन्‌ जागने का अर्थ है अपने विवेक को जागरूक रखनाजिससे हम मानव-जीवन के उद्‌देश्य के प्रति जागरूक रहें। हममे प्रतिक्षण यह जागरूकता रहे कि जीवन का उद्‌‌‌देश्य प्रकृति के सदुपयोग द्वारा सच्चिदानन्द स्वरूप परमेश प्रभु कि प्राप्ति है। हमें बोध रहे कि भौतिक सुख साधन तो हैं पर साध्य परमात्मा है। हमें बोध रहे कि हम त्यागपूर्वक भोगेंसंयमशील बनें। इसका अर्थ है कानों से वही सुनें जो सुनना चाहिएआंखों से वही देखें जो देखना चाहियेहाथों से वही करें जो करणीय है आदि। हमें बोध रहे कि प्रभु की प्रजा की सेवा ही सच्ची ईश्वर आराधना है। हमें बोध रहे कि स्वयं अपने प्रतिपरिवारसमाजराष्ट्रविश्र्व मानव और प्राणिमात्र के प्रति कर्त्तव्य पालन ही प्रभु का प्यार पाने का साधन है। तो आयें हम शिव रात्रि को बोध रात्रि बनायेंबोध रात्रि को शिव रात्रि बनायें और आत्म-कल्याण के साथ ही अन्यों के कल्याण का साधन बनें। अब तक जो कुछ भी हुआ सो हुआपर अब आगे हम बोध पर्व पर इस विवेचन के प्रकाश में आत्म-जागरण और परिवार के वैदिकीकरण का व्रत लें। यही शिवरात्रि व्रत का रहस्य है। यही बोधपर्व का सन्देश है। -महात्मा प्रेमभिक्षु (तपोभूमिफरवरी 1997)

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    The history of Vedic period reveals that Himachal Pradesh was once in the form of Devaloka or Devbhoomi. He was the kingdom of Dev. In Devajati also there were many classes like Yaksha, Kinnar, Gandharva etc. The name of the Chairman of Devrajya was Vishnu, the administrator's name Indra, the treasurer's Kubera and the commander's name was Rudra or Shiva.

     

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  • कर्म-फल

    ओ3म्‌ न किल्विषमत्र नाधारो अस्ति न यन्मित्रैः समममान एति।
    अनूनं निहितं पात्रं न एतत्‌ पक्तारं पक्वः पुनराविशाति।।
    (अथर्व.13.3.38)

    शब्दार्थ - (अत्र) इसमें, कर्मफल के विषय में (किल्विषम्‌ न) कोई त्रुटि, कमी नहीं होती और (न) न ही (आधारः अस्ति) किसी की सिफारिश चलती है (न यत्‌) यह बात भी नहीं है कि (मित्रैः) मित्रों के साथ (सम्‌ अममानः एति) सङ्गति करता हुआ जा सकता है (नः एतत्‌ पात्रम्‌) हमारा यह कर्मरूपी पात्र (अनूनम्‌ निहितम्‌) पूर्ण है, बिना किसी घटा-बढ़ी के सुरक्षित रक्खा है (पक्तारम्‌) पकाने वाले को, कर्म-कर्त्ता को (पक्वः) पकाया हुआ पदार्थ, कर्मफल (पुनः) फिर (आविशाति) आ मिलता है, प्राप्त हो जाता है। 

    Ved Katha Pravachan _94 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    भावार्थ - मन्त्र में कर्मफल का बहुत ही सुन्दर चित्रण किया गया है। कर्म का सिद्धान्त इस एक ही मन्त्र में पूर्णरूप से समझा दिया गया है- 

    1. कर्मफल में कोई कमी नहीं हो सकती। मनुष्य जैसे कर्म करेगा उसका वैसा ही फल उसे भोगना पड़ेगा। 

    2. कर्मफल के विषय में किसी की सिफारिश नहीं चलती। किसी पीर, पैगम्बर पर ईमान लाकर मनुष्य कर्मफल से बच नहीं सकता। 

    3. मित्रों का पल्ला पकड़कर भी कर्मफल से बचा नहीं जा सकता। 

    4. किसी भी कारण से हमारे कर्मफल-पात्र में कोई कमी या बेशी नहीं हो सकती। यह भरा हुआ और सुरक्षित रक्खा रहता है। 

    5. कर्मकर्त्ता जैसा कर्म करता है, वैसा ही फल उसे प्राप्त हो जाता है। यदि संसार से त्राण पाने की इच्छा है, तो शुभकर्म करो। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

    पापी के पास ही लौटा आता है पाप

    ओ3म्‌ असद भूम्याः समभवत्‌ तद्‌ द्यामेति महद्‌ व्यचः।
    तद्‌ वै ततो विधूपायत्‌ प्रत्यक्‌ कर्तारमृच्छतु।। (अथर्ववेद 4.16.6)

    शब्दार्थ - (असत्‌) असद्‌ व्यवहार, पाप, अधर्म (भूम्याः) भूमि से (समभवत्‌) उत्पन्न होता है और (तत्‌)  वह (महत्‌ व्यचः) बरे रूप में, अत्यन्त विकसित होकर (द्याम्‌ एति) द्युलोक तक पहुंच जाता है फिर (ततः) वहॉं से (तत्‌ वै) वह पाप निश्चयपूर्वक (विधूपायत्‌) सन्ताप कर्म करने वाले को (ऋच्छतु) आ पड़ता है।

    भावार्थ - मन्त्र में पापकर्म-कर्ता का सुन्दर चित्र खींचा गया है -

    1. मनुष्य पाप करता है और समझता है कि किसी को पता नहीं चला। परन्तु यह बात नहीं है। पाप जहॉं से उत्पन्न होता है वहीं तक सीमित नहीं रहता, अपितु शीघ्र ही सर्वत्र फैल जाता है। 

    2. फैलकर पाप वहीं नहीं रह जाता, अपितु पापी को कष्ट देता हुआ उसके ऊपर वज्र-प्रहार करता हुआ वह पापी के पास ही लौट आता है। 

    3. पाप का फल पाप होता है और पुण्य का फल पुण्य। उन्नति के अभिलाषी मनुष्यों को चाहिए कि अपनी जीवनभूमि से पाप, अधर्म, अन्याय और असद्‌-व्यवहार के बीजों को निकालकर पुण्य के अंकुर उपजाने का प्रयत्न करें। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

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    पुनर्जन्म

    ओ3म्‌ पुनर्मनः पुनरायुर्म आगन्‌ पुनः प्राणः पुनरात्मा 
    म आगन्‌ पुनश्चक्षुः पुनः श्रोत्रम्म आगन्‌।
    वैश्वानरो अदब्धस्तनूपा अग्निर्नः पातु दुरितादवद्यात्‌।।(यजुर्वेद 4.15) 

    शब्दार्थ- (मे) मुझे (मनः पुनः) मन फिर से (आगन्‌) प्राप्त हुआ है (प्राणः पुनः) प्राण भी फिर से प्राप्त हुए हैं (चक्षुः पुनः) नेत्र भी नूतन ही मिले हैं (श्रोत्रम्‌ मे पुनः आगन्‌) कान भी मुझे फिर से प्राप्त हुए हैं (आत्मा मे पुनः आगन्‌) आत्मा भी मुझे फिर से प्राप्त हुआ है। अतः (मे पुनः आयुः आगन्‌) मुझे पुनः जीवन, पुनर्जन्म प्राप्त हुआ है। (वैश्वानरः) विश्वनायक, सर्वजनहितकारी (अदब्धः) अविनाशी (तनूपाः) जीवनरक्षक (अग्निः) परमतेजस्वी, सर्वोन्नति-साधक परमात्मा (दुरितात्‌ अवद्यात्‌) बुराई और निन्दा से, दुराचार और पाप से (नः पातु) हमारी रक्षा करें।

    भावार्थ - जो लोग यह कहते हैं कि वेद में पुनर्जन्म का उल्लेख नहीं है, वे इस मन्त्र को ध्यानपूर्वक पढ़ें। इस मन्त्र में पुनर्जन्म का स्पष्ट उल्लेख है। देह के साथ आत्मा के संयोग को पुनर्जन्म कहते हैं। मन्त्र के पूर्वार्द्ध में कथन है कि मुझे नूतन मन, प्राण, चक्षु, श्रोत्र और आत्मा मिला है। अतः मेरा पुनर्जन्म हुआ है। यह स्पष्ट रूप से पुनर्जन्म का वर्णन है। 

    मन्त्र के उत्तरार्द्ध में प्रभु से एक सुन्दर प्रार्थना की गई है कि हे प्रभो! हमें दुराचार और पाप से बचा। दुराचार और पाप से बचकर जब हम शुभ-कर्म करेंगे, तो नीच योनियों में न जाकर हमारा जन्म श्रेष्ठ योनियों में होगा अथवा हम मुक्ति को प्राप्त करेंगे। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

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  • क्या आप बहू को अपनी बेटी बना सकती हैं

    बहू तुम अपनी तैयारी कर लो। रवि के कपडे भी रख लेना। सुबह की गाड़ी से तुम दोनों चले जाओ। बुखार से कराहती मेरी सास ने मुझसे कहा तो सभी एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। थोड़ी देर खामोशी छाई रही, फिर मेरे ससुर ने ही मेरी सास से कुछ सोच-विचार के बाद कहा, तुम्हें इतना तेज बुखार है। डॉक्टर ने हिलने-डुलने तक को मना किया है, टाइफाइड का संदेह है। बहू को भेज दोगी तो तुम्हारी देखभाल कौन करेगा? मेरी चिंता न करो बहू के मायके से फोन आया है। समधिन की तबियत ज्यादा ही खराब होगी, तभी फोन किया है। बेचारी के पास तीनों में से एक बेटी नहीं है बेटा तो है नहीं जो बहू का सुख देखती। बहू को ऐसे वक्त पर नहीं भेजेंगे तो फिर कब भेजेंगे? रवि के चले जाने से उन्हें बहुत सहारा मिलेगा।

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    मैं सास के सिरहाने बैठी उनका सिर दबा रही थी। मैंने भर्राए हुए स्वर में कहा, मां जी आप भी तो बीमार हैं। आप ज्याद बीमार हो गई तो मुझे दुःख होगा कि मैं आपको ऐसी हालत में छोड़कर क्यों गई। मां की चिंता तो मुझे है परन्तु यहां से जाकर आपकी चिंता में भी तो दुःखी रहूंगी। मेरी चिंता बिल्कुल मत करना बेटी। मुझे टाइफाइड वगैरह कुछ नहीं है। थोड़ी सर्दी लगी है तो बुखार आ गया। एक दो दिन में उतर जाएगा और हां, बच्चों को साथ न ले जाना वरना तुम उन्हीं में उलझी रहगी। अपनी मां की देखभाल क्या कर पाओगी? मेरी ह्रदय गदगद हो उठा। कोई भी अवसर आए, मेरी सास हमेशा ही अपनी सहृदयता का परिचय देती हैं।

    सास के इस आग्रह ने तो मुझे जन्मभर के लिए अपने मोहपाश में बांध लिया। मेरी पड़ोसन ने जब खोद-खोदकर इसका राज जानना चाहा तो मेरी सास ने नम आंखों से बताया कि निःसंदेह जिस दिन से बहू हमारे घर में आई हमें बेटी की कभी कमी महसूस नहीं हुई। बहू को मैंने मां का प्यार दिया तो उसने भी मुझे अपनी मां के समान ही आदर व स्नेह दिया परन्तु यदि मैं उससे यह अपेक्षा करूं कि वह अपनी मां की उपेक्षा करके मुझे उसका दर्जा दे तो यह मेरी भारी भूल होगी। मैं जानती हूं कि वह अंश तो अपने माता-पिता का ही है। अतः मुझे पहले उसके माता-पिता को बराबरी का दर्जा देना होगा, तभी बहू भी मुझे उनके बराबर सम्मान देगी। अन्यथा मैं कभी उसकी मां नहीं बन पाउंगी। बस उसकी सास ही रह जाऊंगी और आप तो जानती ही हैं कि सास-बहू के संबंध की क्या छीछालेदर की जाती है।

    मेरी एक सहेली के बेटे ने अपनी पसंद की लड़की से शादी की। लड़की के परिवार में जरा भी समानता नहीं थी। केवल लड़की गुणवती और सुन्दर थी। ये लगो सात लोगों की बारात लेकर गए और लड़की ब्याह लाए परन्तु लोग तो जानबूझकर दूसरों की स्थिति का जायजा लेते हैं। बहू के आने पर अनेक प्रश्नों की बौछार हो गई। क्या-क्या लाई है बहू? सोना कितने तोला हैं ? आपके लिए तो बहू के मायके वालों ने बहुत ही कीमती साड़ी दी होगी.... देखें तो कैसी है? पता नहीं लोग अपनी आदतें क्यों नहीं छोड़ते? दूसरों को ऐसी स्थिति में डाल देते हैं कि कोई जवाब देते नहीं बनता। वे झल्लाते हुए बता रही थी, सबको यह कहूं कि कुछ नहीं मिला तो बहू कैसा महसूस करेगी? ये लोग इतना भी नहीं समझते कि मैं बेटे को ब्याहने गई थी, न की अपने लिए कीमती साड़ी लेने। मैंने तो कभी बहू के मायके वालों से यह अपेक्षा नहीं की कि वे मेरे घर के अन्य सदस्यों के लिए कुछ दें।

    हमें तो केवल ऐसी लड़की चाहिए थी जो घर में आते ही हिल-मिल जाए, बड़ों को आदर दे व बराबर वालों को स्नेह। लोगों की टिका-टिप्पणी से बहू को सुरक्षित रखने के लिए वह कभी बहू द्वारा लाए गए वस्त्रों को भी नुमाइश नहीं लगातीं। जितने लोग देखते हैं उतनी ही बातें बनाते हैं। कुछ लोगों को तो यह एक आंख नहीं सुहाता कि किसी घर में सास-बहू शांति से रहें। अतः ऐसी स्थिति से बचना ही उचित है।

    इसके विपरीत बहू के आने से पहले ही लोग उससे क्या-क्या अपेक्षाएं लगाए रखते हैं। जो सामान इस मंहगाई के युग में वे स्वयं खरीदने में असमर्थ हैं, उसी की आशा वे बहू के मायके वालों से लगाए रखते हैं। ननदों देवरों के लिए भी बढ़िया से बढ़िया वस्त्रों की आशा की जाती है। यहां तक कि अन्य रिश्तेदारों के लिए भी जोड़ों की मांग की जाती है। इतना बोझ पड़ने पर बहू के मायके वाले यदि कुछ सस्ता कपड़ा खरीद लेते हैं तो सबके चेहरे बिगड़ जाते हैं। बहू के सामने ही आलोचना शुरू हो जाती है। क्या इसका स्पष्ट तौर पर यह अर्थ नहीं होता कि अपेक्षा कपड़ों को अधिक महत्व दिया जा रहा है, फिर बहू का मन जीतने की आशा ही ससुराल वाले कैसे कर सकते हैं? बदलते समय के साथ हमें अपने सिद्धांत और मान्यताएं बदलनी पड़ेगी। बहू को बहू बनाना तो सभी जानते हैं परन्तु बहू को बेटी बनाना और सास को मां बनाने वालों के पास ही गृह शांति और परस्पर प्रेम की कुंजी होती है।

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  • क्या वेदों में दूरदर्शन का सिद्धान्त है?

    वेदों को सभी सत्य विद्याओं की पुस्तक माना गया है और इसका पढना-पढाना, सुनना-सुनाना प्रत्येक भारतीय का धर्म माना गया है। इस वाक्य को अगर ब्रह्म वाक्य मानकर पालन किया जाये तो हमारे मन में अनेक प्रश्न उठते हैं। प्राय: पूछा जाता है कि क्या वेदों में आधुनिक ज्ञान-विज्ञान है या नहीं और ऐसे प्रश्न वेदों के स्वाध्याय के समय और जहॉं वेदों की चर्चा मिलती है वहॉं अक्सर उठते हैं और कई बात तो वार्त्तालापों में निरुत्तर हो जाते हैं और कई विद्वान्‌ उपदेशकों का मजाक भी बना दिया जाता है।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    गायत्री से सुप्रेरणा, बुद्धि प्राप्ति व दुःख निवारण
    Ved Katha Pravachan _44 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    18वीं और 19वीं सदी में जब वेदों का पाश्चात्य जगत्‌ को परिचय हुआ जिसमें मैक्समूलरविल्सन आदि विद्वान्‌ थे। उन्होंने वेदों के तत्कालीन अनुवाद और भाष्यों को देखकर कह दिया कि वेद "गडरियों के गीत हैं" और तत्कालीन भारतीय विद्वानों ने भी उनका अनुसरण किया। पश्चिमी प्रकृति के अनुसार वेदों में इतिहास भी खोजा जाने लगा। लेकिन आर्य समाज के प्रवर्त्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने कठिन परिश्रम और स्वाध्याय के बाद दावे से कहा कि वेद सभी सत्य विद्याओं का पुस्तक है। उन्होंने वेदों का भाष्य करने से पूर्व ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका लिखी। उन्होंने वेदों में जिन विषयों की चर्चा की हैबताया है। उनके अनुसार वेदों में ईश्वरवेद उत्पत्तिदेवता विषययज्ञकर्मकाण्डसृष्टि उत्पत्तिवेदोक्त धर्मतार विद्यागणितपुनर्जन्मप्रकाश विषयअग्निहोत्र आदि विषय हैं। महर्षि दयानन्द की यह मान्यता थी कि विदेशी आततायियों ने भारत का बहुत नुकसान किया। इसी के साथ यहॉं के निवासियों की फूटअविद्याअज्ञानता ने सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। उनके अनुसार वेदों में इतिहास नहीं हैवरन्‌ वेदों में सामाजिकआर्थिकराजनैतिक एवं विज्ञान के नियम हैं। उनका यह भी दावा था कि वेदों की उत्पत्ति मनुष्य उत्पत्ति के साथ ही हुई थी। यह सत्य है कि गणित में सवाल दिये जाते हैं तथा उनके नियम दिये जाते हैंलेकिन उनको हल करना हमारा कर्त्तव्य है। प्रश्नों के उत्तर खोजना मनुष्य का काम है। वेदों में राज व्यवस्था दी हैलेकिन वह राज व्यवस्था कैसे करनाउनका क्रियान्वयन कैसे किया जाए यह तो मनुष्य के हाथ में है। वेदों में नियमों को संचित किया गया है और इन नियमों की सत्यता को खोजकर जनमानस के सामने लानेवाले ऋषि कहलाये। वर्तमान में हम जो कुछ देख रहे हैंवह सब कुछ सृष्टि में पहले से ही मौजूद है। परमाणु शक्ति की खोज के पूर्व क्या वह नहीं थीयह प्रश्न उठता है। उत्तर यही है कि- मौजूद थी। वे नियम भी मौजूद थे लेकिन उनका हल किया जाना शेष थाजो वर्तमान में खोजा जा रहा है। महर्षि दयानन्द ने जो वेदों का भाष्य कियाउन्होंने उसका आधार व्याकरणनिरुक्तअलंकारकल्पब्राह्मण ग्रन्थआयुर्वेदछन्दज्योतिष आदि आर्षग्रन्थों को आधार मानकर और जहॉं जिन मन्त्रों और ऋचाओं में शब्द आये हैं और उन मन्त्रों की संगति देखकर उनका भाष्य किया। यह हमारा दुर्भाग्य था कि वे वेदों का पूरा भाष्य नहीं कर पाये। उनकी शैली और मार्गदर्शन के आधार पर अन्य विद्वानों ने वेदों के भाष्य किये।

    इतनी बड़ी भूमिका लिखना इसलिए आवश्यक थाक्योंकि किसी बात को सिद्ध करने से पूर्व भूमिका लिखी जाना आवश्यक है और रहता हैताकि कोई सिद्धान्त भली प्रकार सिद्ध हो सके। वेदों का मुख्य विषय ही है कि हम प्राकृतिक शक्तियों को पहिचानें और धर्माधर्म को पहिचान कर सुखी हो सकें।

    वर्तमान सृष्टि में हमें जो कुछ दिखाई दे रहा है वह विकारित सृष्टि है और तेजोमय ब्रह्म ही सबका कारण है। यह वेद मानता है और प्रकृति में जब गति पैदा होती है तब स्थावर-जंगम की उत्पत्ति होती है। सबसे पहले प्रकृति से महत्तत्व प्रकट होता है और उसी से स्थूल सृष्टि का आधारभूत मन प्रकट होता है और यह मन नाना प्रकार के आकार धारण करता है। मन का लक्षण बताते हुए यजुर्वेद में आया है-

    यज्जाग्रातो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवेति।
    दूरङ्गमं ज्यौतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु।।

    यह मन दिव्य शक्तियों वाला है और जो संकल्प तथा विकल्प करता है और जाग्रत अवस्था में दूर-दूर तक चला जाता है और सोने की दशा में भी दूर-दूर चला जाता है। यही मन हमारी इन्द्रियों का प्रकाशक है। जब यह मन कल्याणकारी संकल्प वाला होता हैतब यही मन अनेक शक्तियों को प्राप्त कर लेता है। मन की शक्तियों को प्रकट करने वाले अनेक मन्त्र हैं। मन हमारा आन्तरिक दूरदर्शन है जो शारीरिक उष्मा से जाग्रत रहता है और व्यक्ति जब इस मन को स्थिर रखकर स्थितप्रज्ञ हो जाता है तब योगी बनकर भूतभविष्यवर्तमान को जान सकता है।

    वेदों में अग्नि की पहिचान कराने वाले अनेक मन्त्र दिये हैं तथा अग्नि की उत्पत्ति का क्रम बताया गया है। जब मन नाना प्रकार के आकार धारण करता है । उससे शब्द गुणवाले आकाश की उत्पत्ति होती है । आकाश का गुण शब्द है। जब आकाश में विकार उत्पन्न होता हैतब उससे वायु प्रकट होती है और वायु का गुण स्पर्श ज्ञान है। वायु के विकृत होने पर अग्नि उत्पन्न होती है और अग्नि का गुण रूप है। अर्थात्‌ अग्नि के प्रकाश से ही रूपदर्शन होता है और हम दूर-दूर तक की वस्तुओं का ज्ञान कर सकते हैं। जब व्यक्ति पर प्रकाश की किरणें पड़ती हैं तो उसकी छाया भी दूर-दूर तक चली जाती है और उसका रूपदर्शन करा देती है। वैसे ही इस मूल वैदिक सिद्धान्त को विकसित कर दूरदर्शन की कल्पना को साकार किया गया है और वेदों में स्थान-स्थान पर जल और अग्नि शक्ति के उपयोग के आदेश दिये गये हैं और मनुष्य अपनी उत्पत्ति से आज तक प्रकृति की सुसुप्त शक्तियों की पहिचान कर रहा है। अग्नि के तेज में जब विकार उत्पन्न होता हैतब जल की उत्पत्ति होती है और ये शक्तियॉं क्रमश: सभी धारण किये रहती हैं।

    जल में विद्युत शक्ति हैयह आज प्रकट है । बड़े-बड़े बान्धों से उत्पन्न विद्युत हमारे घरों में विराजमान है। आज बिजली गायब होती है तो सब ओर अन्धकार छा जाता है। अग्नि का कार्य रूप को प्रकट करना है और अग्नि रूप की उष्मा है । उसी को धातुओं के तन्तुओं (तारों) में प्रवाहित किया जाता है। तब वह सूक्ष्म होने के कारण धातु के कण-कण में समाहित हो जाती है। उस उष्मा (करण्ट) से सारे कार्य सम्पादित किये जाते हैं। जिस प्रकार वायु सम्पूर्ण आकाश में छायी हैप्रत्येक वस्तु में आकाश है उसी प्रकार तन्तुओं में अग्नि का प्रवाह उष्मा रोकने पर उसका रूप समाप्त हो जाता है। वेदों में इन्द्र अर्थात्‌ विद्युत का स्थान-स्थान पर वर्णन मिलता है और उसकी शक्ति को पहिचानने का निर्देश दिया गया है। यजुर्वेद के अष्टादश अध्याय में अनेक विद्युत शक्तियों का वर्णन किया गया हैजिसका भावार्थ मनुष्य प्राण और बिजली की विद्या को जान और इनकी सब ओर से व्याप्ति को जानकर बहुत दीर्घ जीवन को सिद्ध करे। मनुष्य के लिए कहा है कि मनुष्य जब तक लोकों तथा पृथ्वी आदि पदार्थों में ठहरी हुई बिजली (विद्युत) को नहीं जानतेतब तक ऐश्वर्य को प्राप्त नहीं कर सकते। इसलिए वैज्ञानिकों को निर्देश दिये गए हैं कि अग्नि की शक्तियों को पहिचानें। आज वायुयानराकेटअन्तरिक्षयान आदि सभी अग्नि से ही चलते हैं। अणु-परमाणु के घर्षण से भी विद्युत तरंगें ही तो उठती हैं। वेदों में इन्द्र अर्थात्‌ बिजली और इलेक्ट्रोनिक्स इन्द्रशक्ति के प्रयोग से ही संसार की उन्नति हो सकती है और हो रही है और उसमें जल विद्युत अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही है। आज अगर जल परियोजनाएं या परमाणु परियोजनाएं अस्त-व्यस्त हो जाएं तो क्या हम जो उन्नति कर रहे हैं और जो दिख रही है वह दिखेगीइसलिए ऋग्वेद का प्रथम मन्त्र कहता है-

    अग्निमीडे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्‌। होतारम्‌ रत्नधातमम्‌।।

    इस विवेचन से यह प्रमाणित होता है कि वेदों में मूल सिद्धान्त प्रत्येक विद्या के दिये हैं। अब हमारे सामने यह प्रश्न आता है कि जब वेदों में सब कुछ दिया है तो भारतवासियों द्वारा यह सभी आविष्कार क्यों नहीं कियेउसका एकमात्र उत्तर भारतीयों द्वारा वेद विमुख हो जाना है। समाज में वेदविरुद्ध मतमतान्तरों का जाल बिछ जानावेदों की विदेशी व देशी विद्वानों की व्याख्यावेदों को पश्चिमी चश्में से देखना और विदेशी-मुस्लिम व यूनानी आक्रमणकारियों द्वारा देश के बड़े-बड़े पुस्तकालयों को जलाकर खाक करना जिनमें वेदों की अनेक शाखाओं और उनकी संहिताओं का नष्ट होनाभारतवासियों का प्रमादआलस्य और वेदविमुख हो वेदों के अलावा अन्यत्र शोध करना भी इसके कारण हैं। आज पुन: आवश्यकता है वेदों की ओर आने कीताकि हम पुन: अपना गौरव प्राप्त कर सकें और उसी अनुसार हम अपनी सामाजिक व्यवस्थाएं भी कर सकें। - सुखदेव व्यास

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    Water has electric power, it is manifest today. The power generated by big binds sits in our homes. Today, lightning disappears, darkness envelops everywhere. The function of fire is to manifest form and the heat of form is fire. The same is carried in the fibers (wires) of metals. Then, due to being subtle, it gets absorbed into the particle of the metal. All works are performed with that heat. Just as the air is covered in the entire sky, every object has a sky, similarly the fire stops flow in the fibers, its form ends.

     

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  • खोजिए रामराज्य के आधार-सूत्र

    महात्मा गांधी जी का स्वप्न था, आजादी के बाद भारत में रामराज्य की स्थापना। बासठ वर्ष का लम्बा समय व्यतीत हो चुका है स्वतन्त्रता प्राप्ति को। परन्तु रामराज्य तो दूर की बात है, वर्तमान में तो उसके विपरीत विभिन्न क्षेत्रों में चरित्रहीनता का नग्न-नृत्य ही दिखाई दे रहा है। देशभक्ति और राष्ट्रीय चरित्र का कहीं दूर तक पता ही नहीं है। नेताओं से पूछने पर उत्तर मिला कि वे अपनी पार्टी के प्रति वफादार हैं। पार्टी ही राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण करती है। खैर जाने दीजिए। वर्तमान के सन्दर्भ में तो डॉ. राधाकृष्णन के शब्द पूर्णतः सही स्थिति प्रस्तुत करते हैं। उनका कथन था, "वर्तमान स्थिति को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि या तो मानव इतिहास का अन्त आ गया है अथवा यह नई करवट लेने को है। जब तक प्रकाश शेष है, परिवर्तन लाने के लिए जुट जाएं, अन्यथा.....।'' अधिक कहने की आवश्यकता नहीं, वर्तमान तो हम सबके सामने है। 

    Ved Katha Pravachan -3 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    भ्रष्टाचार, मिलावट, रिश्वतखोरी तो है ही, परन्तु इससे भी अधिक चिन्ता का विषय है राष्ट्र और राष्ट्रीय संस्कृति की रक्षा के प्रति उदासीनता। प्राथमिकता के आधार पर इस दिशा में चिन्तन करने वाले देशभक्तों की प्रमुख चिन्ता है- "परिवर्तन लाना'। परिवर्तन आवश्यक है। अन्यथा देश की स्वतन्त्रता के अस्त होने के साथ इतिहास सहित आर्यजाति का लोप हो जाना सम्भव है। 

    परिवर्तन की प्रक्रिया के आधारबिन्दु अर्थात्‌ वैचारिक पृष्ठभूमि क्या हो सकती है, इस पर वेद तत्वान्वेषक एवं भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ विद्वानों से चर्चा की गई। एक विद्वान ने अथर्ववेद का उदाहरण देते हुए बतलाया कि पृथ्वी सात गुणों को धारण करती है। मानव धरती-माता का पुत्र है। इसलिए उसमें भी इन्हीं सात गुणों का होना अनिवार्य है। अथर्ववेद के अन्तर्गत "भूमिसूक्त' है। इसमें उल्लेखित है- माता भूमि पुत्रोऽहं पृथिव्या। अर्थात्‌ माता भूमि है और मैं उस माता का पुत्र हूँ। ये सात गुण इस प्रकार हैं- सत्य (मन, वचन एवं कर्म में), सरलता (अभिवादन, विनम्रता, वृद्धसेवा आदि), तेजस्विता (पराक्रम, शौर्य, साहस आदि) दृढ़ संकल्प (निश्चयात्मक बुद्धि) तितिक्षा, ज्ञान  (विज्ञान सहित ज्ञान, तत्वदर्शिता, यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे का ज्ञान), यज्ञ (राष्ट्र तथा लोकोपकार हेतु सर्वस्व का त्याग करने की उत्कट अभिलाषा)। भारतीय चिन्तन के अनुसार देशभक्त में इन गुणों का होना आवश्यक है। धरती माता की अपने पुत्रों से ये ही उत्कट अभिलाषा है। इन्हें धारण करने वाला व्यक्ति सही अर्थों में आर्य है। यही आर्यत्व, मानवता, पुरुषत्व, हिन्दुत्व है। ऐसे गुणसम्पन्न व्यक्ति से किसी भी प्रकार के भ्रष्टाचार का होना सम्भव नहीं है। ऐसे ही चरित्रसम्पन्न व्यक्तियों के द्वारा राष्ट्र-हित में सकारात्मक परिवर्तन लाया जा सकता है। इस आधार पर रामराज्य पर विचार करते हैं। राजा देशरथ के चारों पुत्र राम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न इन्हीं गुणों से विभूषित थे। इन्हीं चारों के संयुक्त प्रयास का परिणाम था रामराज्य-कहेऊ मुनि यह हृदय विचारी, वेदतत्व नृप तव सुत चारी'। (रामचरित मानस)। अथर्ववेद का "पृथिवी सूक्त' इसी दिशा में हमारा मार्गदर्शन कर सकता है। यदि परिवर्तन लाने की उत्कट अभिलाषा हो तो इस ज्ञान की ओर लौटना होगा। ऊपरवर्णित गुण जब व्यवहार में लाए जाएंगें, तभी राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण सम्भव है। आज हमारी राष्ट्रीय अस्मिता और उसका अस्तित्व उस चौराहे पर पहुँच गया है, जहॉं विनाश उसे खोज रहा है। जब तक प्रकाश शेष है अर्थात्‌ अवसर मिल रहा है, परिवर्तन लाने के लिए आपसी भेदभाव भुलाकर सुदृढ़ एकता के साथ प्रयास में जुट जाएं, अन्यथा हमारे पूर्वज और राष्ट्रीय संस्कृति का निर्माण करने वाले ऋषिगण हमें क्षमा नहीं करेंगे। इन गुणों के आधार पर कर्मसाधना अपेक्षित है और तभी, हॉं! तभी भारत के प्रांगण में सच्ची स्वतन्त्रता का सूर्योदय हो सकेगा। यही साधना हमें ऋषिऋण से उऋण कर सकेगी। यही साधना हमें रामराज्य के स्वर्णिम युग में प्रविष्ट करेगी। 

    यह तो हमने सोचा है। आप भी सोचिए और अपने चिन्तन से हमें अवगत कराइए। हम सबने आपस में मिलकर राष्ट्र की झकोले खाती हुई डगमगाती नाव को बचाना है। - आचार्य डॉ.संजयदेव

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    What could be the basis of the process of change, that is, the ideological background, was discussed with the Vedic commentators and the learned scholars of Indian culture. A scholar cites the Atharvaveda as saying that the earth bears seven qualities. Man is the son of Mother Earth. Therefore, it is mandatory to have these seven qualities also. Under the Atharvaveda is "Bhumisukta". It mentions - Mother land sons and earth

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  • घरेलू नुस्खे

    दांत दर्द-दांत में चाहे थोड़ा सा भी दर्द हो, इसके उपचार में देर नहीं लगानी चाहिए। अन्यथा अन्य दॉंतों को रोग लग जाने का भय होता है। दॉंत में दर्द प्रायः रोटी के टुकड़ों आदि के सड़ जाने या कीटाणुओं से होता है। दॉंतों के उपचार में सबसे अधिक ध्यान देने योग्य बात स्वच्छता है। दिन में दो बार दॉंतों को कीटाणुनाशक मंजन आदि से साफ करना चाहिए। गरम पानी में नमक या अन्य कीटाणुनाशक औषधि मिलाकर कुल्ले करने चाहिएं। कैल्शियम की भी ऐसे रोगी को अधिक आवश्यकता होती है। पीड़ा के स्थान पर इन औषधियों में से किसी एक का प्रयोग किया जा सकता है- लौंग का तेल, क्लोरोफाम, पीपरमेन्ट का तेल या क्लोडियन। यदि दॉंत में कीड़ा लगा हो, तो उस स्थान को साफ करवाकर भरवा देना चाहिए। अन्यथा सारे दॉंत को हानि पहुँचने का भय है।

    Ved Katha Pravachan _18 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    उँगलियों में खुजली- यदि हाथ या पांव की उंगलियों में खुजली होती होतो रात को सोते समय हल्के गरम पानी में थोड़ा सा नमक मिलाकर न केवल उँगलियों को धोना ही चाहिएअपितु कुछ समय तक उन्हें पानी में डूबी रहने देना चाहिए। इसके पश्चात्‌ उँगलियों को अच्छी तरह पोंछकर किसी गरम वस्त्र से लपेट दें।

    प्राकृतिक औषधि जल

    पानी के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। शरीर को जिन्दा रखने के लिए हवा के बाद दूसरा स्थान पानी का है। पंचतत्वों से निर्मित मानव शरीर में जल का सबसे अधिक महत्व है। हमारे शरीर में लगभग दो तिहाई मात्रा सिर्फ पानी की है। जब किन्ही कारणों से शरीर में पानी का अंश कम हो जाता है तब शुष्कताथकानबेचैनी तथा अन्य कठिनाइयॉं उत्पन्न होने लगती हैं। ठण्डे पानी से स्नान करने से शरीर निरोग रहता है।

    दो चम्मच जीरा एक गिलास में उबाल लें। ठण्डा होने पर छानकर इससे चेहरा तथा गर्दन धोयें। लगातार एक मास तक यह प्रयोग करने से त्वचा मुलायम होती है और रंग साफ होता है।

    प्रतिदिन सुबह-शाम आँखों पर ठण्डे पानी के छींटे मारें। इससे आँखों को ताजगी मिलती हैनेत्र-ज्योति बढ़ती है और आँखें चमकदार होती हैं।

    साबुन के घोल वाले गुनगुने पानी में पैर भिगोने से नाखून मुलायम हो जाते हैं। फिर उन्हें आसानी से आकार दिया जा सकता है।

    125 ग्राम पानी उबालकर ठण्डा करें। फिर इसमें 15 ग्राम नीम्बू का रस और 15 ग्राम शहद मिलाकर शरबत बना लें। सुबह खाली पेट यह शरबत पीने से मोटापा दूर होता हैअनावश्यक चर्बी घटकर शरीर सुडौल बनता है। दो माह के नियमित सेवन से ही फर्क दिखाई पड़ने लगेगा।

    आँखों के नीचे काले धब्बे या झुर्रियॉं पड़ जाने पर ताजे ठण्डे पानी में नीम्बू का रस व नमक मिलाकर दिन में दो-तीन बार पीयें। लाभ होगा।

    नहाने के बाद एक मग गुनगुने पानी में कुछ बून्दें नारियल के तेल की डालकर पूरे बदन पर इसी पानी को छिड़क लें और फिर तौलिये से थपथपाकर सुखा लें। प्रतिदिन ऐसा करने से सम्पूर्ण शरीर की त्वचा चिकनी व कोमल बनेगी।

    हाथ-मुंह धोते समय मुहॅं में दो घूंट पानी रखकर आँखों में पानी के छींटे दें। रोज ऐसा करने से आँखों की रोशनी बढ़ जाती है।

    त्वचा की कांति और चेहरे की चमक के लिए प्रातःकाल खाली पेट एक गिलास गुनगुने पानी में आधा नीम्बू निचोड़कर पीना चाहिए।

    स्तनों की पुष्टता के लिए एक बर्तन में गर्म तथा दूसरे बर्तन में ठण्डा पानी लेकर उनमें एक-एक तौलिया भिगो लें। स्तनों को वस्त्रविहीन करके पहले गर्म पानी में भीगे तौलिये को लेकर स्तनों पर फैला दें। कुछ देर बाद जब तौलिया ठण्डा हो जायेतब हटाकर ठण्डे पानी से भीगे तौलिये को फैलायें। ऐसा कई बार बदल-बदलकर करें। इससे स्तनों का रक्त संचार बढ़ेगा और स्तन पुष्ट और सुडौल बनेंगे।

    बालों को लम्बा करने के लिए पचास ग्राम कलौंजी को पानी में पीसकर एक लीटर पानी में मिला लें। इस पानी से प्रतिदिन सिर धोयें। इससे बाल एक माह में ही लम्बे हो जाते हैं।

    60 ग्राम इमली लेकर 250 ग्राम पानी में फूलने दें। फिर उसको मसलकर चटनी के समान बनाकर सारे शरीर में मलकर पन्द्रह मिनट बाद स्नान करें। उससे त्वचा का सांवलापन दूर होगा।

    बाल धोने के बाद अन्त में एक मग ठण्डे पानी में एक नीम्बू का रस निचोड़कर बाल धो लें। इससे बाल रेशन जैसे मुलायमचमकदार और स्वस्थ होते हैं।

    दोमुंहे बाल और बाल झड़ने की समस्या आजकल आम हो गई है। इसके लिए तीन बड़े चम्मच समुद्री नमक एक लीटर पानी में उबालकर ठण्डा करके बोतल में रख लें। जिस दिन बालों में शैम्पू करना होउस दिन इस पानी को बालों की जड़ों में लगाकर अच्छी तरह मालिश करें। ऐसा करने से बाल स्वस्थ व मजबूत होते हैं। आनन्द कुमार

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    दूध से निखारें सौन्दर्य

    पौष्टिकता में संसार के किसी भी आहार की तुलना दूध से नहीं हो सकती है। प्रोटीन के अतिरिक्त दूध अन्य पौष्टिक तत्वों जैसे कैल्शियमफास्फोरसविटामिन का भी उत्तम साधन है। दूध को एक सम्पूर्ण आहार भी माना जाता है। दूध मनुष्यों के लिए पूर्ण भोजन ही नहीं हैरोगों की औषधि भी है। दूध तो अमृत आहार है। वास्तव में दूध ऐसा आहार है जो कमजोर काया को नवीन जीवनी शक्ति प्रदान कर सकता है। रात को सोते समय दूध में थोड़ी मात्रा में शहद मिलाकर सेवन करना गुणकारी बताया गया है। इसे भोजन के तुरन्त बाद न लेंवरन्‌ भोजन करके 2-3 घण्टे बाद सेवन करना चाहिए। दूध में मिठास होती हैजिसे हम "लैक्टोजके नाम से जाना जाता है।

    दूध केवल पीने-पिलाने एवं व्यंजन बनाने के काम नहीं आताबल्कि सौन्दर्य निखारने में भी यह काफी सहायक होता है। सौन्दर्य विशेषज्ञों ने दूध तथा दही में तमाम सौन्दर्य बढ़ाने वाले गुणों की चर्चा की है। वास्तव में दूध शारीरिक सौन्दर्य बढ़ाने एवं रूप को निखारने के लिए सबसे सरल व सस्ता साधन है। चेहरे की सफाई के लिए दूध का प्रयोग अच्छा रहता है। दूध सबसे बेहतरीन क्लीजिंग एजेण्ट है। यहॉं दूध के कुछ सौन्दर्यवर्धक गुणों के बारे में जानकारी दी जा रही है-

    1. त्वचा को कान्तिमय और आकर्षक बनाने के लिए थोड़ा सा कच्चा दूध लीजिए। उसमें शहद मिला लीजिए। डबल रोटी के टुकड़े को इस मिश्रण में भिगोकर त्वचा पर मलिए। यह बहुत लाभप्रद है।

    2. गर्दन और हाथ-पैरों को सुन्दर व स्वच्छ रखने के लिए गाय के कच्चे दूध में ऊन का फाहा डुबोकर उससे गर्दन व हाथ-पैरों पर पुचारा दीजिए। बाद में रगड़कर धो लीजिए। ये उपाय बड़े ही कारगर पाये गए हैं।

    3. चेहरे का रूखापन समाप्त करने के लिए संतरे के सूखे हुए छिलके को कच्चे दूध में भिगो देंफिर उसे पीस लें। इस लेप को चेहरे पर उबटन की भांति प्रयोग करें।

    4. नहाने से पूर्व एक भाग बेसन को दो भाग दूध में मिलाकर यह लेप शरीर में साबुन के स्थान पर लगाया जायेतो शरीर की चिकनाहट और मुलायमित बनी रहती है।

    5. थोड़े से कच्चे या गुनगुने दूध में रूई या ऊनी कपड़े के एक टुकड़े को चेहरे और हाथों पर तथा शरीर के अन्य भागों पर धीरे-धीरे मलें। 8-10 मिनट बाद पानी से धो डालें। इससे त्वचा मुलायम और चिकनी हो जाएगी। साथ ही चेहरे की झुर्रियॉं आदि भी समाप्त हो जाएगी।

    6. रात को सोने से पहले मुलहठी का चूर्ण 5 ग्रामआधा चम्मच शुद्ध घी तथा डेढ़ चम्मच शहद मिलाकर चाटेंऊपर से दूध पी लें। हर आयु के व्यक्ति का शरीर इस उपाय से पुष्टसुड़ौल व शक्तिशाली बनता है।

    7. प्रातःकाल उठकर सबसे पहले चेहरे को कच्चे दूध से साफ करें। फिर चन्दन का पेष्ट (चन्दन पाउडर न लेकर यदि चन्दन की लकड़ी को घिसकर उसका इस्तेमाल करेंतो ज्यादा बेहतर होगा) बनाकर चेहरे पर 10 या 15 मिनट तक लगा रहने दें। सूखने पर धो लें। ऐसा नियमित करने से चेहरा चमक उठेगा।

    8. चने की दाल को रात भर दूध में भिगोकर सुबह पीस लें। उसमें थोड़ी सी हल्दी मिलाकर चेहरे पर लगाएं। सूखने पर ताजे पानी से चेहरा साफ कर लें। चेहरे में निखार आएगा।

    9. त्वचा की रंगत साफ करने के लिए दूधनीम्बू और सन्तरे का रस मिलाकर चेहरे पर लगाएं। 20 मिनट बाद चेहरा ताजा पानी से साफ कर लें।

    10. दूध व नमक मिलाकर चेहरे पर लगाएं। इसके उपयोग से त्वचा कोमल बनी रहती है।

    11. सरसों को दूध में भिगोकर पीसकर चेहरे पर लगाएं। ये झाइयों को दूध करती है।

    12. एक चम्मच चिरौंजी को 4 चम्मच कच्चे दूध में 12 घण्टे तक भिगोकर उसके बाद पीसकर उसका पेष्ट तैयार कर लीजिए। इस पेस्ट को चेहरे पर आधे घण्टे तक लगा रहने देंउसके बाद ठण्डे से धो देना चाहिए। ऐसा करने से शुष्क त्वचा मुलायम एवं कोमल हो जाती है। 

    13. जायफल को गाय के दूध में पीसकर पेष्ट तैयार कीजिए। इसपेष्टकोप्रतिदिन रात में लगाने से मुहांसेझुर्रियॉं एवं कालापन दूर हो जाता है।

    14. भुने मटर को नारंगी के छिलके के साथ कच्चे दूध में पीसकर चेहरे पर मलने से चेहरे का रंग निखरता है।

    15. शहददूध की क्रीम तथाबेसन मिलाकर उबटन तैयार करें। इसे चेहरे पर लगाने से खुश्की एवं झुर्रियॉं दूर होती हैं।

    16. गर्म दूध की मलाई का लेपकरने से कटे-फटे होंठ लाल गुलाब की पंखुड़ियों की भांति खिल उठते हैं।

    17. शुष्क त्वचा के लिए एक चम्मच ताजी मलाई2-3 बून्दें नीम्बू के रस कीचुटकी भर हल्दी पाऊडर लें। इन सबको मिला लें। इस पेस्ट को चेहरे पर लगा लें। 20 मिनट बाद चेहरा हल्के हाथों से रगड़कर गुनगुने पानी से साफ करें।

    18. यदि त्वचा तैलीय हैतो क्रीम से निकले दूध में 8-10 बून्दें पानी के रस की मिला लें। फिर त्वचा की सफाई करके पानी को धो लें। चेहरा पोंछते समय थपथपा कर सुखाएंरगड़कर न पोछें।

    19. आपको चेहरा मौसम अथवा अन्य किसी कारणवश पीला पड़ जायेतो दूध में कुछ बून्दें नीम्बू की डालें। साथ में एक छोटा चम्मच शहद भी मिला दें। इस लेप को रूई की सहायता से चेहरे पर लगाएं। 30 मिनिट बाद सामान्य पानी से साफ कर लें। इससे त्वचा में कोमलता और कान्ति आएगी।

    20. आँखों के चारों ओर झुर्रियां न पड़ेंइसके लिए आँखों के चारों ओर दूध रोज लगाएँ।

    21. होठों पर स्वाभाविक रंग लाने के लिए केसर और बादाम को दूध में घिसकर रात के समय लगाएं।

    22. बाल ज्यादा खुश्क होंतो धोने के बाद कच्चा दूध दस मिनट तक बालों में लगाए रखें। फिर गुनगुने पानी से धो लें। रूखे व शुष्क बालों के लिए यह अच्छा कंडीशनर है।

    23. प्याज के बीजों को दूध में पीसकर लेप करने से मुख पर सुन्दरता आती है और सिर के बाल नहीं झड़ते। - डॉ. हनुमान प्रसाद उत्तम

     

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    Life cannot be imagined without water. To keep the body alive, water is the second place after wind. Water is of the highest importance in the human body made from the five elements. About two-thirds of our body is water only. When the water content in the body decreases due to any reason, then dryness, fatigue, restlessness and other difficulties begin. Taking a bath with cold water keeps the body healthy. 

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  • जागते रहने वाले को वेद चाहते हैं

    ओ3म्‌ यो जागार तमृचः कामयन्ते यो जागार तमु सामानि यन्ति।
    यो जागार तमयं सोम आह तवाहमस्मि सख्ये न्योकाः।। ऋग्वेद 5.44.14।।

    अर्थ - (ऋचः) ऋग्वेद के मन्त्र (तम्‌) उसको (कामयन्ते) चाहते हैं (यः) जो (जागार) जागता रहता है (उ) और (तम्‌) उसी के पास (सामानि) समावेद के मन्त्र (यन्ति) जाते हैं (यः) जो (जागार) जागता रहता है (यः) जो (जागार) जागता रहता है (तम्‌) उसी को (अयम्‌) यह (सोमः) शान्ति और आनन्द का धाम भगवान्‌ (आह) कहता है कि (अहम्‌) मैं (तव) तेरी (सख्ये) मित्रता में (न्योकाः) नियत रूप से रहने वाला (अस्मि) होता हूँ।

    Ved Katha Pravachan _97 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    मन्त्र में आये 'ऋचः' और 'सामानि' पदों का सामान्य अर्थ ऋग्वेद के मन्त्र और सामवेद के मन्त्र होता है। इन पदों से सूचित होने वाले 'ऋग्वेद' और 'सामवेद' यहॉं शेष दोनों वेदों यजुर्वेद और अथर्ववेद के भी उपलक्षण हैं। अर्थात्‌ ऋग्वेद और सामवेद के निर्देश से चारों वेदों का ही निर्देश समझ लेना चाहिए। वस्तुतः चारों वेदों के मन्त्रों की रचना तीन प्रकार की है। जो मन्त्र छन्दोवद्ध हैं और छन्दों में होने वाली पादव्यवस्था से युक्त हैं उन्हें 'ऋच्‌' या 'ऋचा' कहा जाता है- यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था सा ऋक्‌। (जैमिनीयसूत्र 2.1.35) ऋग्वेद में ऐसे मन्त्रों का बाहुल्य है इसलिए उसे ऋग्वेद कहा जाता है। जब ऋचाओं को ही गीति के रूप में गाया जाता है तो उन्हें 'साम' कहा जाता है- गीतिषु सामाख्या (जैमिनीयसूत्र 2.1.36)। सामवेद में जितने मन्त्र हैं वे भक्तिरस में भरकर गीतिरूप में गाये जाते हैं, इसलिए उसका नाम सामवेद है। जो मन्त्र छन्दोबद्ध नहीं हैं और गीतिरूप में गाये नहीं जा सकते अर्थात्‌ जो मन्त्र पद्य नहीं हैं गद्य हैं, उन्हें 'यजुः' कहते हैं- शेषे यजुः शब्दः (जैमिनीयसूत्र 2.1.37)। यजुर्वेद में ऐसे 'यजुः' मन्त्र अधिक हैं इसलिए उसका नाम यजुर्वेद है। अथर्ववेद में तीनों प्रकार के मन्त्र हैं। क्योंकि चारों वेदों के मन्त्रों की रचना ही तीन प्रकार की है, इसलिए चारों वेदों को त्रयी या तीन वेद कह दिया जाता है। यों वेद चार ही हैं। केवल तीन प्रकार की रचना के कारण उन्हें तीन वेद भी कह दिया जाता है। इन तीन प्रकार की रचनाओं में भी प्राधान्य ऋग्‌ मन्त्रों और साम मन्त्रों का ही है, चारों वेदों की अधिकांश रचना इन्हीं में है। इसलिए इस मन्त्र के 'ऋचः' और "सामानि' ये पद यों भी चारों वेदों का निर्देश करने वाले हो जाते हैं।

    मन्त्र कहता है कि ऋग्वेद उसी की कामना करता है और सामवेद उसी के पास जाता है, जो जागता रहता है। ऋग्वेद और सामवेद से उपलक्षित होने वाले चारों वेदों का अध्ययन कौन कर सकता है ? उनका अध्ययन करके उन्हें भली-भॉंति कौन समझ सकता है ? और उन्हें भली-भॉंति समझकर उनके अनुसार आचरण करके क्रियात्मक जीवन में उनसे लाभ कौन उठा सकता है ? वह जो कि जागता रहता है।

    जो जागता रहता है, जो मुस्तैद और चौकन्ना रहता है, जो सावधान और सतर्क रहता है, जो सोता नहीं रहता, जो आलसी और प्रमादी नहीं बनता, वेद उसी की कामना करते हैं, उसे ही चाहते हैं, उसी के पास जाते हैं। जो व्यक्ति आलस्य और प्रमाद को परे फैंककर, सतर्क और सावधान होकर वेद को पढ़ने और उसका मर्म समझने के लिये भरपूर परिश्रम करता है, वेद उसी के पास जाता है। वेद का गूढ़ रहस्य उसी की समझ में आता है। वेद के गूढ़ रहस्य को समझकर और फिर उसके अनुसार आचरण करके उसके क्रियात्मक जीवन में सब प्रकार के लाभ वही जागरूक वृत्ति वाला व्यक्ति ही उठा सकता है। वेद तो सब प्रकार के वरदानों की, सब प्रकार के मंगलों की खान है। पर वेद से मिलने वाले इन मंगलों को प्राप्त वह कर सकता है, जो जागता रहता है। सोते रहने वाले को वेद के ये मंगल प्राप्त नहीं होते।

    और जो व्यक्ति जागरूक होकर वेद का अध्ययन करता है, उसके मर्म को समझ लेता है और फिर तद्‌नुसार आचरण करके अपने आपको पूर्ण पवित्र और ज्ञानवान्‌ बना लेता है, उसी जागते रहने वाले को भगवान्‌ के भी दर्शन होते हैं। वेद के ऐसे जागरूक विद्यार्थी के आगे भगवान्‌ अपने पट खोल देते हैं और कहने लगते हैं- "हे जागकर वेद का स्वाध्याय करने वाले स्वाध्यायी! मैं सदा तेरी मित्रता में रहूंगा, मेरा निवास सदा नियत रूप से तेरे हृदय में रहेगा।'' भगवान सोम हैं। उनमें चन्द्रमा की-सी शान्तिदायकता और आह्लादकता है। वे शान्ति और आनन्द के धाम हैं। जब वेद के स्वाध्याय से हमें परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान हो जायेगा, जब वेदानुकूल शुभ आचरण से हमारे हृदय निर्मल हो जायेंगे और जब उसके परिणामस्वरूप हमारे हृदयों में प्रभु की ज्योति झलकने लगेगी, तब उस शान्ति और आनन्द के धाम के हमारे हृदयों में निवास से हम भी अवर्णनीय शान्ति और आनन्द के समुद्र में गोते लगाने लगेंगे। तब शान्ति और आनन्द के धाम, रस के समुद्र, भगवान्‌ के इस दर्शन, इस साक्षात्कार से हमें जीवन का चरम लक्ष्य, एकमात्र लक्ष्य प्राप्त हो जायेगा। वेद भी जागते रहने वाले को ही चाहते और प्राप्त होते हैं।

    हे मेरे आत्मा! तू भी जाग और वेद को प्राप्त कर। हे मेरे आत्मा! तू भी जाग तथा 'सोम' के, शान्ति और आनन्द के निधि वेदपति भगवान्‌ को प्राप्त कर। आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति

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    The mantra says that the Rigveda wishes for the same and Samveda goes to him, who remains awake. Who can study the four Vedas arising from the Rigveda and the Samveda? Who can understand them well by studying them? And considering them well and behaving according to them, who can benefit from them in a functional life? The one who keeps awake.

     

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  • जीवन के पंचशील और उनसे आगे-2

    वेद-सन्देश

    5. आस्तिक भावना-

    3म उत स्वया तन्वा संवदे तत्कदान्वन्तर्वरुणो भुवानि।
    किं मे हव्यमहृणानो जुषेत कदा मृलीकं सुमना अभिख्यम्‌।। ऋग्वेद7.86.2।।

    हॉं! मैं अपनी (तनु) देह से संवाद करता हूँ। पूछता हूँ कि ऐ मेरी देह! तु मुझे यह बतला कि कब मैं वरने योग्य, वरने वाले परमात्मा में अपने को विराजमान हुआ देखूं? देह से संवाद इसलिये है कि जो जन्म से मरण पर्यन्त साथ देती है। पर ऐ मेरी देह! एक दिन तू भी मेरा साथ छोड़ देगी। तू तो मेरे रहने की कुटिया है। टूटने-फूटने वाली है। तो अपने टूटने-फूटने के पहले मेरे वरुण के अन्दर मुझे बिठाती जा। वह मेरी किस भेंट को स्वागत से स्वीकार कर सके? मैं कब उस सुखस्वरूपानन्द रूप परमात्मा को अच्छे मन वाला होकर देख सकूं। देह से संवाद क्या करना। इससे तो संघर्ष करना, लड़ना-झगड़ना है। ऐ मेरी देह! क्या तू सदा संसार के भोग विलासों में जहॉं-तहॉं फैलाने के लिये है? नहीं-नहीं, तू इस काम के लिये नहीं है। परन्तु तू उस प्रभु परमात्मा के सत्संग में ले जाने, उसकी शरण में पहुंचाने के लिये है। जिस मनुष्य में उस प्रभु परमात्मा के लिये आस्तिक भाव नहीं है, अपनी आत्मा का झुकाव नहीं है, ऐसा मनुष्य संसार में दस-बीस वर्ष रोटियॉं खाकर चला गया, ऐसा रूखा-सूखा जीवन तो प्राणी मात्र का है। मानव जीवन की सफलता तो इसी में है कि वह पूर्ण आस्तिक बने। और परमात्मा की उपासना करे।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    गाय का घी विष नाशक है

    Ved Katha Pravachan _69 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    मानव जीवन के भी दो विभाग हो जाते हैं। 1. साधारण जीवन और 2. दिव्य जीवन। नक्षत्र-तारा जीवन जो लाखों मनुष्यों में किसी विरले का होता है। उसके अन्दर दिव्यता निहित होती हैजो थोड़े से संस्पर्श या संघर्ष से जाग उठती है। जैसे दयानन्द का जीवन। शिवरात्रि की रात्रि में दयानन्द के सामने छोटी सी घटना आती है। शिवलिङ्ग पर छोटा सा चूहा चढ़ जाता है और खाने-पीने के पदार्थ को खा-पी लेता है तथा ऊपर से मूत्र-पुरीष की भी कुचेष्टा कर जाता है। यह छोटी सी घटना दयानन्द के सामने होती है। दयानन्द सोचते हैं कि कथा में तो सुना था कि शिव संसार का रक्षक है। यह तो चूहे से भी अपनी रक्षा नहीं कर पाता। यह शिव नहीं है। उस रात्रि में दयानन्द जागासचमुच जागा। स्वयं जागा और मानव समाज को भी जगाया।

    जागता वही दीपक है जिसमें जागने की शक्ति हैघृत के रूप में या तेल के रूप में। जिस दीपक में घृत नहींतेल नहीं उसका क्या जागना और जगाना। जगायाकिञ्चित्‌ टिमटिमाया और बुझ गया। ऐसी क्षणिक टिमटिमाहट तो प्रत्येक मनुष्य के अन्दर हो जाती है। जब कोई मनुष्य मर जाता हैउसे श्मशान ले जाते हैंकाष्ठ चिता पर रख देते हैंदाहकर्म आरम्भ हो जाता हैअग्नि की ज्वाला जलने लगती हैउस समय प्रत्येक मनुष्य के अन्दर वैराग्य की टिमटिमाहट हो जाती है। प्रत्येक मनुष्य अनुभव करता हैक्या है इस जीवन का ठिकानादो दिन का जीवन क्यों पाप कमानापरन्तु यह टिमटिमाहट मात्र हैजो घर जाते ही बुझ जाती है।

    एक वह मानव है जो अपने प्रासाद (महल) से गाड़ी में बैठकर चलता है। चलते हुए वह देखता है कि कुछ लोग कुछ उठाये जा रहे हैं। वह सारथि से पूछता है कि ये लोग क्या उठाये लिये जा रहे हैंवह उत्तर देता है कि ये लोग शव अर्थात्‌ मुर्दे को लिए जा रहे हैं। फिर पूछता है कि शव या मुर्दा किसे कहते हैंसारथि उत्तर देता है कि यह मनुष्य मर गया हैयह चल नहीं सकताहाथों से पकड़ नहीं सकताबोल नहीं सकता और समझ नहीं सकता। फिर पूछता है कि इस मुर्दे का क्या बनेगासारथि कहता है कि भस्म बना दी जायेगी। वह फिर पूछता है कि यह स्थिति मनुष्य मात्र की है क्यासारथि कहता है कि जो जन्मा है उसकी अन्तगति यही होती है। फिर वह पूछता है कि क्या मेरे लिए भीसारथि उत्तर देता है कि हॉं आपकी भी अन्तगति यही होगी। फिर वह सारथि से कहता है कि गाड़ी लोटाओमुझे सैर नहीं करनी है। अपने महल पर पहुंचकर उसे सदा के लिए त्यागने की इच्छा पैदा हुई। वे मानव महात्मा बुद्ध थे। उनकी इस वैराग्य की ज्योति पर एक कालिमा की रेखाधुएं की रेखा आ गई। उनका नवजात पुत्र उत्पन्न हुआ थाजिसका आगे राहुल नाम प्रसिद्ध हुआ था। सोचाउसका मुख तो देखता चलूं। पुत्र के मुखदर्शन का सुख गृहस्थों को होता हैयह सब जानते हैं। किन्तु वैराग्य की ज्योति फिर तीव्र हो उठी। उसने धुएं की रेखा को खा लिया। बुद्ध के अन्दर विचार आया कि इस थोड़ी सी बात के लिए अपने लक्ष्य से पीछे हटता हैलौटता है तो फिर न जाने जीवन में कितनी बार लौटना पड़ेगा। इसी प्रकार दयानन्द के जीवन में भी मृत्यु को देखकर वैराग्य की ज्योति जाग गई थी। प्यारी बहन का देहान्त उनके सामने हुआप्यारे चाचा का देहान्त उनके सामने हुआ।

    अन्त समय को देख दयानन्द घर से बन को जाता।
    निश्चय अपना किया जगत्‌ में किससे किसका नाता?

    इस प्रकार दयानन्द के वैराग्य की ज्योति पर कोई धुएं की रेखा नहीं आयी। चलते समय उनके अन्दर यह विचार नहीं आया कि मैं फिर से घर चलूंजैसे ही वैराग्य की ज्योति को धारण करके ग्राम को छोड़ान फिर पीछे मुंह मोड़ा।

    दिव्य जीवन बनाने के लिए वेद का उपदेश है कि मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्‌ (ऋग्वेद 10.53.3) दिव्य जीवन बनाने के लिए तू मनु हो जाअपने मूल में चला जा अर्थात्‌ मननशील हो जा। यह इस प्रकार से दिव्य जीवन बनाने का सन्देश हैजो साधारण लाखों मनुष्यों में किसी का नक्षत्र-तारा जीवन होता है। वेद और भी आगे बढ़ने का सन्देश देता है। लाखों दिव्य जीवनों या नक्षत्र-तारा जीवनों में कोई विरला सोम जीवन होता हैचांद जीवन होता है। वेद में कहा है-

    सुविज्ञानं चिकितुषे जनाय सच्चासच्च वचसी पस्पृधाते।
    तयोर्यत्संत्यं यतरदृजीयस्तदित्सोमोऽवति हन्त्यासत्‌।। (ऋग्वेद-7.104.12, अथर्ववेद 8.4.12)

    समझदार मनुष्य के लिए यह भली-भॉंति समझने योग्य है कि सत्य-असत्य वचन परस्पर स्पर्धा करते हैंएक दूसरे के विरुद्ध चलते हैं। इन दोनों में सत्य वह है जो अत्यन्त ऋजु हैसरल से सरल है। उसकी सोम रक्षा करता है और असत्‌ का हनन करता हैखण्डन करता है। विद्वान के सामने सत्य-असत्य विरोधी प्रतीत होते हैं। जो यह कहते और मानते हैं कि यह धर्म भी सत्य हैवह धर्म भी सत्य हैवे विद्वान नहीं हैं। विद्वानों में भी जो सत्य का रक्षण अर्थात्‌ मण्डन करता है और असत्य का खण्डन करता हैवह उनसे भी ऊंचा है। सोम नाम से कहलाने वाला चन्द्र जीवन है।

    ऐसे विद्वान्‌ भारत और विदेशों में थेजिनके सम्मुख सत्य और असत्य अलग-अलग प्रतीत होते थे। परन्तु वे सत्य को सत्य कहने के लिए और असत्य को असत्य कहने के लिए उद्यत नहीं थे। उनकी वाणी पर पक्ष काभय का और लोभ का ताला लगा हुआ था। किन्तु दयानन्द की वाणी पर पक्षभय और लोभ का ताला नहीं लगा था। उसे किसी पक्ष ने फंसाया नहींकिसी डर ने डराया नहीं और किसी लोभ ने लुभाया नहीं। लाहौर में ब्रह्मसमाजियों ने अपने यहॉं ठहराया। व्याख्यान हुआ वेद के महत्व पर। उन्होंने उनको वहॉं से हटा दिया और कहा कि तुमने हमारे धर्म की प्रशंसा नहीं कीअपितु वेद की प्रशंसा की। फिर डॉ. रहीम खॉं ने उन्हें अपनी कोठी पर ठहराया। भाषण दिया इस्लाम की आलोचना पर। लोगों ने कहा कि आप यह क्या करते हैंइन्होंने आपको स्थान देकर आपका उपकार किया और आप इन्हीं की आलोचना करते हैं। उन्होंने कहा कि ठीक हैइन्होंने मेरे ऊपर उपकार किया। मैं भी प्रत्युपकार करता हूँ। जो मनुष्य अन्धेरे में जा रहा हो उसे हाथ पकड़कर लाना भी मेरा काम है। ईसाई लोग चर्च में बुलाते हैं व्याख्यान देने को। वहॉं वे व्याख्यान देते हैं बाईबिल की आलोचना पर। ऐसा निराला वक्ता जिसे किसी पक्ष ने नहीं फंसायान उनको किसी डर ने डराया। अनेक बार विष के प्याले पिये और प्रहार सहे।

    हमने देखा कि आजकल के जो बड़े-बड़े नेता हैंगुरुकुलादि संस्थाओं में जाते हैं तो सन्ध्या-हवन की आलोचनावेद की आलोचना कर जाते हैं। किन्तु हमने न देखा न सुना कि किसी नेता ने मस्जिद में जाकर नमाज की आलोचना या कुरान की आलोचना कीहो। उन्हें गला कटने का भय और अपने पक्ष में न होने का सन्देह रहा।

    दयानन्द को किसी लोभ ने नहीं लुभाया। महाराणा उदयपुर ने कहा कि आप क्यों संसार के साथ अपना मस्तिष्क थकाते-दुखाते फिरते हैंयह लाखों रुपयों का मन्दिर आपका हैइसको सम्भालोबैठो। ऋषि ने उत्तर दिया कि यह मन्दिर तो क्याजितना आपका राज्य हैचाहूं तो मैं एक दौड़ में पार कर सकता हूँ। परन्तु मैं अपने ऊपर उसको राजा मानता हूँ जो विश्वराट्‌ परमात्मा है। उसकी आज्ञा का पालन न करके और सत्य का प्रचार न करके किस कोने में जाऊंगा। इसलिए मुझे मन्दिर नहीं चाहिए। वेद और भी मुझे आगे बढ़ने को कहता है। लाखों चांद जीवनों में कोई बिरला जीवन सूर्य का जीवन होता है। वेद में कहा है कि ब्रह्मचर्य्येण तपसा देवा मृत्युमुपाघ्नत (अथर्व 11.5.19) ब्रह्मचर्य रूप तप से देव लोग मृत्यु को परास्त करते हैं। यह तो हुआ ब्रह्मचर्य का फल। किन्तु के देवाःदेव कौन हैंउत्तर- ये ब्रह्मचर्येण मृत्युमपाघ्नन्ति। जो ब्रह्मचर्य-तप से मृत्यु को परास्त करते हैं वे देव हैं। वेद में सूर्य को ब्रह्मचारी कहा है- ब्रह्मचारीषणं चरति रोदसी उभे तपसा पिपर्ति। (अथर्व. 11.5.1)

    सूर्य ब्रह्मचारी होता हुआ आकाश में विचरता है। द्युलोकपृथ्वीलोक को अपने प्रकाश रूप तप से पूरित करता है। दयानन्द भी आदित्य ब्रह्मचारी थे। उन्होंने घर पर रहते हुए बहन और चाचा की मृत्यु को देखा। घर-परिवार के जन सब रो रहे थे। परन्तु वह नहीं रो रहा था। सब लोग कह रहे थे कि कितना निष्ठुर कठोर बालक हैजरा भी आँखों मेें आंसू नहीं हैं। परन्तु कौन जानता था कि यह बालक अन्दर ही अन्दर रो रहा है और मृत्यु की औषध को खोज रहा है। वेद ने बतायाइसका औषध है "ब्रह्मचर्य'। ऋषि ने इस औषध को वेद से प्राप्त कर गटागट पान कर लिया। उनके जीवन में ब्रह्मचर्य आपूर-भरपूर हो गयाजैसे किसी नदी लहर में जब जल आपूर-भरपूर हो जाता है तो उछल-उछलकर किनारों से बाहर भी बिखरता है। विरोधियों ने एक वेश्या को बहकाकर उनके पास भेजा कि वह उनको पतित करेवेश्या ने कहा कि आप जैसा अपने अन्दर पुत्र चाहती हूँ। ऋषि ने उत्तर दिया- आज से मैं तेरा पुत्र और तू मेरी माता। ऋषि के इतना कहने पर वेश्या के अन्दर ब्रह्मचर्य की धारा दौड़ गईउसकी काया पलट गई। गिड़गिड़ाकर कहने लगी- मैंने अनेक साधु देखेपर तेरे जेसा नहीं। तूने तो मेरा जीवन सुधार दिया। उसने आयु भर वेश्या कर्म छोड़ दिया। ऋषि को ब्रह्मचर्य ने मृत्युञ्जय बना दिया। दिवाली की अमावस्या उनका मृत्युञ्जय दिवस है। उस दिन ऋषि कहते हैं कि एक मास पीछे आज सुख का दिन है।

    संसार से उनके प्रस्थान का दिन है। विष के कारण अंग-अंग में छाले-फफोड़े पड़े हुए थे। आँखों की पुतलियों में छाले-फफोड़े पड़े थे। डाक्टर लोग चकित थे कि इतने अपार दुःख में भी यह साधु हाय-हाय नहीं करता और न ही घबराता है। अजमेर से बाहर के दर्शक और भक्त आये हुए थे। उनमें पं. गुरुदत्त जी वैज्ञानिक विद्वान्‌ थे। उन्होंने ऋषि दयानन्द के सम्मुख ईश्वर सम्बन्धी प्रश्न रखे थे। ऋषि ने उनका उत्तर दिया था। गुरुदत्त ने कहा था कि मेरे सारे प्रश्न हल हो गयेपरन्तु मुझे ईश्वर पर विश्वास नहीं हुआ। ऋषि ने कहा कि मेरा काम तुम्हारे प्रश्न उत्तर देना था। विश्वास तो अन्दर की वस्तु है। अन्दर से ही उपजेगा। पं. गुरुदत्त ऋषि के जीवन काल में ही नास्तिक रहे। प्राणान्त के समय ऋषि ने उन्हें कहा कि तुम ऐसे स्थान पर पर खड़े हो जाओजहॉं तुम मुझे देखते रहो और मैं तुम्हें न देख सकूं। इस प्रकार सब दर्शकों और भक्तों को अन्दर बुलाया और कहा- वैदिक धर्म का कार्य निरन्तर करते रहना। यह बात पं. गुरुदत्त भी सुन रहे थे। आश्चर्य कर रहे थे कि यह बात तो ऐसी है जैसे परदेश जाने वाला पीछे रहने वालों को सन्देश दे जाया करता है। फिर ऋषि मुण्डन कराते हैं। पं. भीमसेन जो उनके लेखक हैंको बुलाते हैं और कहते हैं 200 रुपए और दुशाला तुम्हारे लिये भेंट है। पीछे आनन्द में रहना। फिर आत्मानन्द शिष्य को बुलाते हैं और कहते हैं- बोलोतुम्हें क्या दिया जायेआत्मानन्द कहते हैं- महाराज! आप स्वस्थ हो जायेंमेरी यही इच्छा है। ऋषि ने कहा "यह शरीर क्षणभङ्गुर हैइसका क्या स्वस्थ होना। अब अन्त है।'' ये बातें सुन-सुनकर पं. गुरुदत्त आश्चर्य में पड़ रहे थे। फिर ऋषि ने सबकी ओर दृष्टि डालकर आँखें बन्द कर लीं। समाहित हो गये। ध्यानमग्न हो गये। कुछ देर पश्चात्‌ ऋषि ने संस्कृत में प्रार्थना कीफिर हिन्दी में की। अन्त में बोले- ईश्वर! तूने अच्छी लीला की। क्या तेरी यही इच्छा हैसचमुच तेरी यही इच्छा हैतेरी इच्छा पूर्ण हो। ऐसा कहकर श्वांस को लम्बा करके छोड़ दिया और छोड़ दिया सदा के लिये।

    हंस हंस हंस उड़ा एक उड़ान में।
    परब्रह्म में केवल में व्योम समान में।। 

    पं. गुरुदत्त जी इस दृश्य को देखकर मन में सोचने लगे- क्या यह मृत्यु का अभिनय हैऐसा मरण कभी देखने को नहीं मिला। उनके अन्दर यह भावना आई कि ऋषि दयानन्द जा रहे हैंयह कहते हुए जा रहे हैं- क्यों गुरुदत्त! अब भी ईश्वर है या नहींगुरुदत्त का हृदय भर आया। आंखों से आंसू बहने लगे- ऋषि! ऋषि!! प्यारे ऋषि!!! हॉंमैं समझ गया। हैवह ईश्वर है। वह अमर ज्योति जिसके जीवन वह जो ईष्टदेव होता हैउसका अन्त समय में भी उपदेश देता हुआ चला जाता है।स्वामी ब्रह्ममुनि

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    Awakening is the same lamp that has the power to wake up, in the form of melted butter or oil. What to awaken and awaken in a lamp that has no butter, no oil. Woke up, little flicker and extinguished. Such momentary flicker occurs in every human being. When a person dies, they take him to the crematorium, place the wood on the pyre, the cremation starts, the flame of fire starts burning, at that time there is a flicker of quietness in every human being. Every human feels, what is the whereabouts of this life, why should a two-day life be sinful? But it is just flicker, which is extinguished as soon as we go home.

     

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  • तस्य वाचकः प्रणवः का रहस्य

    १/२७ योग के इस सूत्र के वास्तविक अर्थ को समझने में अध्येता प्रायः मूल करते है और केवल शब्दार्थ मात्र को ही फालतार्थ समझ लेते है। यहाँ ओ३म् पर की जगह पुरुष विशेष ईश्वर पद का प्रयोग है। यह है कि उस ओ३म् का वाचक ''प्रणव'' शब्द है तदनुसार उस ईश्वर को ओ३म् कहे या प्रणव कहें बात एक ही है। यहाँ वाचक शब्द सापेक्ष है, वह किसी दूसरे पद की यानी वाच्य है ओ३म् शब्द।

    इस सूत्र में वाच्य ओ३म् पद है और वाचक प्रणव पद है। वाचक का अर्थ वाच्य के स्वरूप को विस्तार कहने वाला है। अतः प्रणव पद का सीमित अर्थ न लेकर, शब्दार्थ-पदार्थ मात्रा न लेकर फलिस्तार्थ - विस्तारित भावार्थ लेना चाहिये। यह विस्तृत भावार्थ यौगिक अर्थ द्वारा जाना जाता है।

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    वेद कथा - 4 | Explanation of Vedas & Dharma | धर्म एवं सम्प्रदाय में अन्तर | धर्म लड़ना नहीं सिखाता

    इसी अभिप्रायः से प्रणव शब्द का प्रयोग महर्षि पतन्जलि ने किया है। प्रणव शब्द की व्युत्पति आदि भी यही बताती है। प्रकर्सेण नूयते स्तूयते अनेनेति प्रणवः, प्रकर्सेध नीति स्तौति इति वा प्रणवः'' प्र उपसर्गपूर्वक णु स्तुतौ अदादि धातु से प्रणव पद निष्पन्न होता है प्रणवैः- ओंकारैः यजुर्वेद १९/२५। यहाँ प्रणव शब्द का का प्रयोग बहुवचन में किया गया है। अमृतं वैप्रणवः गोपथ ब्राह्मण उतर भाग ३/११। ब्रहम वै प्रणवः कौषीत की ब्रहम वै प्रणवः कौषीत की ब्राहमण ११/४ ! इन अर्थो का तात्पर्य समझने का प्रयत्न कीजिये।

    स्तुति परम जिसमें शब्दों द्वारा नम्रता से स्तुति की जाये जिसकी वह प्रणव है। ओ३म् है। अथवा मन्त्र जिसकी उत्तमता से स्तुति करता है, वह प्रणव है। ओ३म् है इन अर्थो को प्रणव पद ही बता सकता है क्यांकि केवल प्रणव पद में ही णु स्तुतौ धामु का प्रयोग है।

    ओ३म् के वाचक अन्य जितने भी पद हैं, वे इस फलितार्थ को प्रकट नहीं करते। इस वाक्य से यहाँ वाक्य ओ३म् को समझना चाहिये। यही फलितार्थ महर्षि दयानन्द जी ने पन्च महायज्ञ विधि में गायत्री मन्त्र की व्याख्या करते समय ओ३म् पद से लिया है। संस्कार विधि में गायत्री मन्त्र की व्याख्या है। पद दो प्रकार के होते है व्युत्पन्न और अव्युत्पन्न ओ३म् शब्द। मैंने यहां ओ३म के साथ एक साथ एक जगह पद शब्द का तथा दूसरी जगह पद की शब्द का प्रयोग किया है ऐसा क्यों किया है यह व्याकरण जानने वाले विद्वाने ही समझ सकते है। अन्य नहीं। सामान्यतया पद की जगह शब्द का और शब्द की जगह पद का प्रयोग किया जाता है।

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    महर्षि दयानन्द ने अ, उ, म, से निष्पन्न ओ३म् शब्द की विस्तृत व्याख्या कि है और परमात्मा के समस्त गुण कार्य स्वभाव वाले सभी पदों से ओ३म् पद में से लिया है। जिसकी विस्तृत व्याख्या आप सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में पढ़ सकती है। यही बात प्रणव पद से भी कही गई है या यों कहिये कि ये सारी बाते कहने एक सामर्थ्य प्रणव पद में है। इसलिए पूर्व वर्णित उस समय ईश्वर का वाचक प्रणवः कहा है।

    यह व्युत्पन्न ओ३म् शब्द का वाचक है, इसी व्युत्पन्न ओ३म् शब्द का वाचक प्रणव शब्द है। इसीलिए सभी शास्त्रों का सार है कि ''ओ३म् इत्येकाक्षरं ब्रह्म'' ब्रहम - ओ३म् इति एक अक्षर वाला है। अ उ म् के संयोग से नहीं बना है। सयुक्त ओ३म् पद तो केवल एकाक्षर ओ३म् को समझने के लिए है।

    ओ३म् के गुणों को कहने वाला वाचक कोई एक पद नहीं है, क्योंकि अनंत गुणों के भंडार ओ३म् का वर्णन किसी एक पद से एक शब्द से किया जा सकता है। जितने भी गुण कथन करने वाले शब्द हैं, वे सब ''प्रणव'' पद में आ जाते है। अतः उस ईश्वर का ओ३म् का वाचक प्रणव पद है।

    यजुर्वेद के मन्त्र ४०/१५ में महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि ''ओ३म् इति सनन्नाम वाच्य ईश्वरम् वाच्य तो केवल अव्युत्पन्न ओ३म् शब्द है अन्य जितने भी नासम परमात्मा के है व र्स्ववाचक है। स्वयम् ओ३म् से निष्पन्न व्युत्पन्न ओ३म् पद की वाचक है अव्युत्पन्न एकाक्षर ओ३म् वाच्य है।-प्रो. रमेशचन्द्र शास्त्री

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    Maharishi Dayanand ji has taken the OM while explaining Gayatri Mantra in Panch Mahayagya method. Gayatri Mantra is explained in Sanskrit method. The terms are of two types, derivative and non-derivative. Here, along with OM, I have used the word 'Pad' in one place and the word 'Pad' in another place, only the scholars who know this grammar can understand it. No other. Generally, the word is used instead of the word and the word is used instead of the word. 

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  • दर्शनों और ब्राह्मण ग्रन्थों में वेद-महिमा

    दर्शनकारों ने मुक्तकण्ठ से वेद की महिमा वर्णित की है। वैशेषिकदर्शन में गया कहा है- तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्‌।। वैशोषिक. 10.1.3 

    ईश्वर द्वारा उपदिष्ट होने से वेद स्वतः प्रमाण हैं। बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे। वैशेषिक. 6.1.1. वेद की वाक्य-रचना बुद्धिपूर्वक है। उसमें  सृष्टिक्रम-विरुद्ध गपोड़े और असम्भव बातें नहीं हैं। अतः वह ईश्वरीय ज्ञान है। सांख्यकार महर्षि कपिल को कुछ लोग भ्रान्ति से नास्तिक समझते हैं। वस्तुतः वे नास्तिक थे नहीं। महर्षि कपिल ने भी वेद को स्वतः प्रमाण माना है- न पौरुषेयत्वं तत्कर्तुः पुरुषस्याभावात्‌।। सांख्य. 5.46

    वेद पौरुषेय (पुरुषकृत) नहीं हैं। क्योेंकि उनका रचयिता कोई पुरुष नहीं है। जीव अल्पज्ञ और अल्पशक्ति होने से समस्त विद्याओं के भण्डार वेद की रचना में असमर्थ है। वेद मनुष्य की रचना न होने से उनका अपौरुषेयत्व सिद्ध ही है।

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    वेद का शान्ति सन्देश (वेद कथा)

    Ved Katha Pravachan _60 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    निजशक्त्यभिव्यक्तेः स्वतःप्रामाण्यम्‌।। सांख्य. 5.51. वेद अपौरुषेयशक्ति से, जगदीश्वर की निज शक्ति से अभिव्यक्त होने के कारण स्वतः प्रमाण हैं। 

    मन्त्र और आयुर्वेद के प्रमाण के समान आप्तजनों के वाक्यों के प्रामाणिक होने से वेद की भी प्रामाणिकता है। परमेश्वर परम-आप्त है तथा वेद असत्य, परस्पर विरोध और सृष्टिक्रम के विरुद्ध बातों से रहित है। अतः वेद परम-प्रमाण है। 

    योगदर्शनकार महर्षि पतञ्जलि का कथन है- स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्‌। योग. 1.26 

    वह ईश्वर नित्य वेद-ज्ञान को देने के कारण सब पूर्वज गुरुओं का भी गुरु है। अन्य गुरु काल के मुख में चले जाते हैं। परन्तु वह काल के बन्धन से रहित है। 

    वेदान्तदर्शन में वेद का गौरव निम्न शब्दों में प्रकट किया गया है- शास्त्रयोनित्वात्‌। वेदान्त. 1.1.3 

    ईश्वर शास्त्र=वेद का कारण है। अर्थात्‌ वेदज्ञान ईश्वर-प्रदत्त है। इस सूत्र पर शङ्कराचार्य का भाष्य पठनीय है। यहॉं उसका हिन्दी रूपान्तर दिया जा रहा है-

    "ऋग्वेदादि जो चारों वेद हैं, वे अनेक विद्याओं से युक्त हैं। सूर्यादि के समान सब सत्यार्थों का प्रकाश करने वाले हैं। उनको बनाने वाला सर्वज्ञत्वादि गुणों से युक्त सर्वज्ञ-ब्रह्म ही है। क्योंकि ब्रह्म से भिन्न कोई जीव सर्वगुणयुक्त इन वेदों की रचना कर सके, ऐसा सम्भव नहीं है।'' 

    एक अन्य सूत्र में कहा गया है- अत एव च नित्यत्वम्‌। वेदान्त. 1.3.29 

    इसी कारण से (परमात्मा से वेद की उत्पत्ति हुई है) वेद नित्य हैं। मीमांसा शास्त्र के कर्त्ता जैमिनि ने तो धर्म का लक्षण ही इस प्रकार किया है- चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः।। मीमांसा. 1.1.3 

    जिसके लिए वेद की आज्ञा हो वह धर्म और जो वेदविरुद्ध हो वह अधर्म है। एक अन्य स्थान पर वे कहते हैं- नित्यस्तु स्याद्दर्शनस्य परार्थत्वात्‌।। 1.3.18 

    शब्द नित्य है, नाशरहित है। क्योंकि उच्चारण क्रिया से जो शब्द का श्रवण होता है वह अर्थ ज्ञान के लिए ही है। यदि शब्द अनित्य होता तो अर्थ का ज्ञान न हो सकता। 

    इस प्रकार समस्त शास्त्र एक स्वर से वेद के गौरव, नित्यता और स्वतः प्रमाणता का वर्णन करते हैं। 

    ब्राह्मणग्रन्थों में अनेक स्थानों पर वेद के महत्व का प्रदर्शन करने वाले स्थल उपलब्ध होते हैं। यहॉं तैत्तिरीयब्राह्मण 3.10.11.3 की एक आख्यायिका दी जा रही है-

    "महर्षि भरद्वाज ने ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए 300 वर्ष पर्यन्त वेदों का गहन एवं गम्भीर अध्ययन किया। इस प्रकार निष्ठापूर्वक वेदों का अध्ययन करते-करते जब भरद्वाज अत्यन्त वृद्ध हो गये, तो इन्द्र ने उनके पास आकर कहा- "यदि आपको सौ वर्ष की आयु और मिले तो आप क्या करेंगे?' भरद्वाज ने उत्तर दिया कि मैं उस आयु को भी ब्रह्मचर्य-पालन करते हुए वेदाध्ययन में ही व्यतीत करूँगा। तब इन्द्र ने पर्वत के समान तीन ज्ञान-राशिरूप वेदों को दिखाया और प्रत्येक राशि में से मुट्‌ठी भरकर भरद्वाज से कहा कि ये वेद इस प्रकार ज्ञान की राशि या पर्वत के समान हैं। इनके ज्ञान का कहीं अन्त नहीं है। अनन्ता वै वेदाः। वेद तो अनन्त हैं। यद्यपि आपने 300 वर्ष तक वेद का अध्ययन किया है, तथापि आपको सम्पूर्ण ज्ञान का अन्त प्राप्त नहीं हुआ। 300 वर्ष में इस अनन्त ज्ञान-राशि से आपने तीन मुट्‌ठी ज्ञान प्राप्त किया है।'' 

    ब्राह्मणकार की दृष्टि में वेदों का क्या महत्व है, यह इस आख्यायिका से स्पष्ट है। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

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    The Vedas are not Pourusheya (maleized). Because their author is not a male. Being a superficial and superfluous person, all the disciplines are unable to create the Veda. Since Vedas are not the creation of humans, their inauspiciousness is proved.

     

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  • दीवाली, दयानन्द और आर्य समाज

    मानव जीवन बहुमूल्य है। बहु आयामी है। समग्रता से युक्त जीवन, अनेक जीवनों को ज्योतित कर देता है। त्याग, तप और शुद्धाचरण व्यापक प्रभाव छोड़ता  है। देह के विसर्जन होने पर भी अदृश्य देही के गुण शताब्दियों तक नहीं भूलते। क्या अल्पज्ञ जीव जीवन में समग्रता को संजोकर साधना के मार्ग पर तत्परता के साथ जब चलता है तो उसे ही लोकोत्तर कार्य करने के कारण पूर्ण पुरुष कहते हैं। उसी के बतलाए ज्ञान के प्रकाश में जीवन को जीने की कला तो सीखते ही हैंउसको ज्योति स्तम्भ मान कर अपना पथ प्रदर्शक हृदय से स्वीकारते ही नहीं अपितु उसके एक-एक शब्द पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं। सांसारिक दृष्टि से ही नहीं अपितु ऐसी विभूतियॉं आध्यात्मिक दृष्टि से भी सभी की पूज्यार्ह हो जाती हैं। शारदीय नवसस्येष्टि (दीपावली) हजारों वर्षों से अपने नाम को सार्थक करती हुई धूमधाम से मनाई जाती है, परन्तु जो दीपावली सम्वत्‌ 1940 तदनुसार 30 अक्टूबर 1883, मंगलवार को मनाई गई उसकी प्रभा महर्षि दयानन्द सरस्वती की उच्च आत्मा ने नश्वर देह का परित्याग करते हुए गहरे नास्तिक को आस्तिक बनाने का चमत्कार से कम महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं है क्या?

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    सुख-शान्ति का रास्ता एवं सुखी जीवन के वैदिक सूत्र
    Ved Katha Pravachan -11 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    कितनी दीवालियॉं आई और चली गईपरन्तु एक दीपमाला ऐसी भी आई कि एक ज्योति तो देह छोड़ कर जगज्जननी की अमृतमयी क्रोड़ में आनन्द प्राप्ति हेतु समर्पण कर रही है और दूसरी ओर महर्षि दयानन्द के देह त्याग से आकर्षक मुख मण्डल की आभा-प्रभा-प्रसन्नता को देखकर एक सुपठित गुरुदत्त नास्तिकता के गहरे गर्त्त से निकल आस्तिकता की आनन्दमयी लहरों की उत्ताल तरंगों से आप्लावित हो रहा है। ऐसे अवसर के लिये जो सांसारिक मुहावरा बना "जादू वही जो सिर चढ कर बोले" चरितार्थ हो गया। यह विश्व के इतिहास में आश्चर्य चकित करने वाली घटना है। किसी की मृत्यु भी किसी को जीवन दे सकती है। यदि मृत्यु मार्ग दिखा सकती है किसी को तो उसके जीवन में क्या शक्ति रही होगी यह अनुमान लगाना सहज है। ऐसे महापुरुषों का लोकोत्तर जीवन में आना और जाना लोक कल्याण के लिये होता है। चमत्कार में महर्षि दयानन्द सरस्वती को कोई विश्वास नहीं। सांसारिक दृष्टि से महत्ता प्रकट करणार्थ इससे सरल और चिरपरिचित शब्द भी नहीं जो अभिधा में ये अर्थ प्रकट करे।

    मूलशंकर ने एक सामान्य ग्राम टंकारा में जन्म पाया। माता-पिता का आज्ञाकारी पुत्र मूलशंकर रहा। चौदह वर्ष की उम्र में सम्पूर्ण यजुर्वेद स्मरण करना और माता-पिता की आज्ञा मान कर शिवरात्रि में व्रत रख कर मन्दिर में जागरण करना मूलशंकर की मातृ-पितृ भक्ति परायणता का परिचायक है। चौदह वर्ष की बालावस्था में सम्पूर्ण यजुर्वेद स्मरण करना जिसके चालीस अध्याय और एक हजार नौ सौ पिछत्तर मन्त्र हैं। ये उस युग के घरों की शिक्षा का खुला विवरण है। आज हमारे घरों में गृहशिक्षा न के बराबर है। गायत्री मन्त्र भी शायद हमारे बच्चों को नहीं आता। यह विडम्बना कहॉं तक झेलते रहेंगे हमस्वामी दयानन्द जी महाराज से किसी नवयुवक ने पूछा कि आप बड़े विद्वान्‌तार्किकसंस्कृतज्ञत्यागी-तपस्वी एवं वेदों के मर्म को जानने वाले हैं परन्तु आपको अपने जैसा आदमी क्यों नहीं मिलास्वामी जी महाराज का सत्यता से परिपूर्ण सरल यह उत्तर था कि "मैंने जीवन में अपना घर छोड़ कर माता-पिता की आज्ञा के विरुद्ध आचरण किया। अत: मुझे जीवन में मेरे जैसा आदमी नहीं मिला।" यह स्वाभाविक उत्तर स्वामी जी के किसी भाव को इंगित करता है। स्वामी जी के आज के अनुयायियों को सोचना चाहिए। पितृ यज्ञ का पंचमहायज्ञ विधि में नैतिक जीवन के लिये विधान है। हमारे घरों में केवल पितृयज्ञ का पालन कैसा हो रहा हैयह विचारणीय है। स्वामी जी के समस्त साहित्य में जो व्यावहारिक शिक्षाएं हैं वे सर्वोपयोगी सर्वग्राह्य है। आज भौतिकवाद की अन्धी आन्धी ने सबको आँख होते हुए भी अन्धा बना दियाहै। आर्यों के लिये भौतिकवाद की खुली चुनौती है और आर्य समाज मूक दर्शक बना हुआ है। किंकर्त्तव्यविमूढ नेतृत्वहीन और दिशाहीन है।

    आर्य समाज की स्थापना करके महर्षि दयानन्द सरस्वती ने जो स्फूर्ति और जो उर्वरा भूमि आर्य समाज के माध्यम से वेद के रूप में शाश्वत मूल्यों को प्रदान कीजिसमें विश्व के मनीषियों को ज्ञान प्राप्ति के साथ चरित्र के निर्माण हेतु आर्यावर्त्त देश में आकर शिक्षा ग्रहण का सन्देश उच्च स्वर से प्रदान कियाक्या उत्तरदायित्व लेने वाले लोगों ने इसे गम्भीरता से निभायाऐसे अकर्मण्य दिशाहीन वेदविहीन लोगों ने ऋषि की महिमा और उद्देश्य को समझा ही नहीं। अन्धेरे में लाठी चलाने का कोई लाभ नहीं। जगाने वाले गहरी नींद में सो गये। इनको कौन जगाये?

    वेद निर्भ्रान्त नित्यशाश्वतअपौरुषेय और परमात्मा प्रदत्त ज्ञान है। वेद केवल चार हैं। मूल संहिताएं ही वेद हैं। ऋग्वेदयजुर्वेदसामवेदअथर्ववेद इनके नाम हैं। इन वेदों के लिये स्वामी दयानन्द ने कहा "वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढना-पढाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।" आर्य समाज की स्थापना को एक सौ अड़तीस वर्ष हो गए हैं। आर्य समाज के प्रारम्भिक पचास वर्ष को छोड़कर उपरोक्त नियमानुसार कितनी सत्यविद्याओं का प्रकाश आर्य समाज ने कियाशास्त्रार्थ युग में भी सामाजिक क्षेत्र में वेद का नाम लोगों को परिचित कराने का श्रेय आर्य समाज को जाता है। जिस दृढता के साथ स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यान्वेषक बन कर वेद को प्रमाण मान और जनता के बीच में वेद प्रमाण पुस्तक से दिखा कर वेद के लुप्त ज्ञान को जनता से सहज स्वीकार कराया। यह दयानन्द की प्रकट विधि आर्य समाज में दीर्घ जीवी नहीं हो सकी। स्वामी दयानन्द सरस्वती की वेदों के विषय में सत्य घोषणा से प्रभावित हुए अन्य लाखों लोगों ने दयानन्द की विचारधारा को स्वीकारा। स्वामी दयानन्द जी महाराज ने वेदों को सर्वोपरि स्थान देते हुए लिखा-

    "वेदों के जानने वाले ही धर्माधर्म के जानने तथा धर्म के आचरण और अधर्म के त्याग से सुखी होने को समर्थ होते हैं।"

    "कोई भी मनुष्य वेदाभ्यास के बिना सम्पूर्ण सांगोपांग वेद विद्याओं को प्राप्त होने के योग्य नहीं होता।"

    "जो मनुष्य पुरुषार्थीविचारशीलवेद विद्या के जानने वाले हैं वे ही संसार के आभूषण होते हैं।"

    तेरे दीवाने जिस घड़ी दक्षिण दिशा को चल दिये।
    कितने शहीद हो गये कितनों ने सर कटा दिये।।
    अपने लहू से लेखराम तेरी कहानी लिख गये।
    तूने ही लाला लाजपत शेरे बब्बर बना दिये।।

    ये पंक्तियॉं किसी टिप्पणी की अपेक्षा नहीं रखती। ये स्वामी जी का बोलबाला था।

    आज आर्य समाज के पुस्तकालयों में वेद गर्दोगुब्बार के नीचे दबे पड़े हैं। क्योंकि वेद स्वाध्याय का समय नहीं और वेद आर्यों के लिए उपयोगी नहीं। क्योंकि सारी सत्य विद्याओं का भण्डार आर्य समाजी बन गया। पूछो तो वेद का क ख नहीं बता सकते। ये तो पण्डित जी बतायेंगे। पण्डित जी को अपनी रोजी-रोटी से फुर्सत नहीं। क्योंकि आर्य समाज इन अधूरे पण्डितों को रखकर इनकी विवशता का पूरा लाभ उठा कर पण्डितों को गुलाम बना कर वेद प्रचार करना चाहता है। तो पूरी गलफांसी का शिकार है आर्य समाज। जो थोड़े बहुत गुरुकुलोंविद्यालयों या उपदेशक विद्यालयों में सीख कर इस क्षेत्र में आते हैं वे अधिकारियों के दुर्व्यवहार के कारण सड़क पर रहते हैं। लगभग विद्वानों की स्थिति आर्य समाज में भिखारियों जैसी है। आर्य समाज वेद के कार्य में गम्भीर नहीं।

    चरित्र के धनी स्वामी दयानन्द ने चरित्र निर्माण पर सर्वाधिक बल दिया- शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बाह्य शक्ति के साथ अन्तर्तम के साहचर्य से दिव्य पावन प्रकाश के पावन आलोक में मानव का नवोत्थान है। गायत्री मन्त्र का उपदेश शिक्षा के प्रारम्भ में नैतिक शिक्षा का विश्वोपयोगी सूत्र है। बुद्धि की पवित्रता की कामना प्रभु से करे। स्मृति-श्रुति में जिस आचार का उपदेश दिया गयाउसका आचरण करके आत्मवित बनने का प्रयास करे। ब्रह्मचर्य से राजा राष्ट्र की रक्षा कर सकता है। अहिंसासत्यअस्तेयब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन महाव्रतों की व्यावहारिक शिक्षा देने के प्रबल समर्थक थे स्वामी दयानन्द। यही उनकी सफलता का रहस्य था। आर्ष शिक्षा प्रणाली के प्रबल व्यावहारिक समर्थक थे स्वामी जी। शिखा सूत्र भी हमारी शिक्षा के प्रमुख सूत्र थे। इनके नियमों को पालन करते हुए आत्मवित के साथ जीवन के मूल्यों को आचरण में रचा-पचा कर उच्च शिखर पर आरूढ होता था मनुष्य। आचारहीनं न पुनन्ति वेदा:। जिस मनुष्य का आचार ठीक नहीं उसको तो वेद भी पवित्र नहीं कर सकते।

    महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती की सफलता का रहस्य आचार पर ही सर्वथा निर्भर करता था। पांच यम नियम स्वामी जी ने जीवन में रचा-पचा कर ही सभी प्रकार के पाखण्डों से लड़ाई लड़ी। आजकल आचार सदाचार की परिभाषा ही बदल गई है। "लुच्चा सबसे ऊंचा" तो आचार क्या करेगा।-आचार्य हरिदत्त शास्त्री (आर्यजगत्‌ दिल्ली26 अक्टूबर 1997)

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  • नेताजी सुभाष की अग्नि परीक्षा

    नेताजी सुभाष को अनेक अग्नि परीक्षाओं में से गुजरना पड़ा था। एक बार उन्होंने भारत के सबसे बड़े राजनीतिक नेता महात्मा गान्धी तक को चुनौती दी थी। उनकी इच्छा के विरुद्ध डॉ. पट्टाभिसीतारामैया के मुकाबले में चुनाव लड़ा था और चुनाव जीत गये थे। हाथी ने हिमालय को परे धकेल दिया था। जन साधारण के मानस पर सुभाष के छाये रहने के बाद भी कांग्रेस संगठन पर गान्धी भक्तों की जकड़ पक्की थी। जवाहरलाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि नेता सुभाष के नेतृत्व को सहन नहीं कर पा रहे थे। रामगढ़ कांग्रेस के बाद एक वर्ष तो उन्होंने जैसे-तैसे सुभाष बाबू को सह लिया था, पर त्रिपुरा कांग्रेस में उन्होंने खुल्लमखुल्ला विद्रोह कर दिया। गान्धी जी समेत सभी ने कांग्रेस कार्यसमिति में सम्मिलित होने से इन्कार कर दिया। 

    Ved Katha Pravachan _79 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    पद तभी तक, जब तक आदर से मिले - सुभाष के लिए यह अग्नि परीक्षा की घड़ी थी। अन्त में उन्होंने कांग्रेस-अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया, जिससे कांग्रेस में एकता बनी रहे और स्वाधीनता आन्दोलन में कोई बाधा न पड़े। इस संघर्ष में सुभाष आग की लपट की तरह दमकते रहे, प्रतिद्वन्दियों के हिस्से में केवल राख की कालिमा ही आई।

    ईर्ष्या भुजंगिनी - निःसन्देह वे सभी त्यागी, तपस्वी, बलिदानी देशभक्त थे। परन्तु वे अपने सिवाय अन्य किसी को ऐसा देशभक्त नहीं देखना चाहते थे, जो उनसे बढ़कर हो। यही विडम्बना है! विद्वान किसी को अपने से बड़ा विद्वान्‌ नहीं देखना चाहता, वीतराग संन्यासी-महात्मा किसी को अपने से बड़ा वीतराग नहीं देखना चाहता। बलिदानी अपने से बड़े बलिदानी से खार खाता है। जो खार न खाये, वह देवता होता है। 

    सुभाष की दूसरी अग्निपरीक्षा तब हुई, जब वह न जाने किसी धुन में कालकोठरी (ब्लैकहोल) स्मारक को हटाने के लिए सत्याग्रह कर बैठे। सरकार ने अच्छा बहाना पाकर उन्हें जेल में डाल दिया।

    महापलायन - सुभाष ने कहा कि मैं कुछ व्रत-अनुष्ठान करना चाहता हूँ, इसलिए कुछ दिन बिलकुल एकान्त में रहूंगा, किसी से भी मिलूंगा नहीं। उनका भोजन पर्दे के नीचे से उनके कमरे के दरवाजे पर रख दिया जाता था और बाद में जूठे बर्तन वहीं से उठा लिये जाते थे। इस तरह दो-तीन सप्ताह बीत गये।

    मौलवी जियाउद्दीन - इस अवधि में हुआ यह कि उनकी दाढ़ी बढ़ गई। उनकी शक्ल बदल गई। एक रात वह मुसलमान मौलवी का वेश बनाकर बाहर निकल गये। पुलिस और गुप्तचर धोखा खा गये। कलकत्ते से 120 किलोमीटर कार से जाने के बाद एक छोटे से स्टेशन से उन्होंने पेशावर जाने वाली गाड़ी पकड़ी। उस समय के सैकंड क्लास के डिब्बे में वह जियाउद्दीन नाम से मौलवी के भेष में बैठे रहे। एक गुलूबन्द से उन्होंने अपना चेहरा काफी कुछ ढक रखा था। गले में कष्ट है, ऐसा दिखाकर वह बातचीत को टाल देेते थे।

    नया हनुमान भगतराम - पेशावर स्टेशन पर उन्हें लेने के लिए एक आदमी आया हुआ था। अन्य किसी ने उन्हें पहचाना नहीं। भगतराम नामक एक साहसी, सूझबूझ वाले युवक के साथ वह पेशावर से काबुल गये। तब तक कलकत्ते से उनके गायब होने का समाचार रेडियो पर प्रसारित हो चुका था और सारे भारत की पुलिस उनकी खोज में थी। प्रतिपल पकड़े जाने का खतरा था। ऐसी दशा में डेढ़ महीने उन्हें काबुल में रहना पड़ा। अन्त में एक दिन मार्च 1942 में बर्लिन रेडियो से उनकी आवाज सुनाई पड़ी- "मैं सुभाषचन्द्र बोस बर्लिन से बोल रहा हूँ।'' भारतीय जनता यह सुनकर आनन्द से पागल हो उठी। अंग्रेज और कांग्रेसी मन मसोसकर रह गये। सुभाष फिर आगे निकल गया था।

    सिंगापुर में - सुभाष की सबसे बड़ी अग्नि परीक्षा सिंगापुर में हुई। जापानियों ने सिंगापुर पर कब्जा करते समय जो युद्धबन्दी बनाये थे, उनमें 45000 भारतीय सैनिक भी थे। प्रसिद्ध भारतीय क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस ने उन्हें अपने पक्ष में करके एक आजाद हिन्द फौज बनानी चाही थी। पर इस कार्य में उन्हें यथेष्ट सफलता नहीं मिली थी। उधर सुभाष ने जर्मनी में एक आजाद हिन्द फौज बनाने का यत्न किया था। वहॉं लीबिया और मिस्र की लड़ाइयों में पकड़े गये भारतीय सैनिक जर्मनों के कब्जे में थे। बाद में यह उचित समझा गया कि सुभाष पनडुब्बी से जापान जायें और वहॉं आजाद हिन्द फौज बनाकर भारत को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने का यत्न करें।

    नमकहलाल युद्धबन्दी - सुभाष सिंगापुर पहुंचे। वहॉं उन्होंने भारतीय युद्धबन्दियों से बात की। ये इंग्लैड के राजा के प्रति निष्ठा की शपथ से बन्धे हुए लोग थे। ये जिसका अन्न खाया है, उसके लिए खून बहाने को उद्यत लोग थे। भारत की स्वतन्त्रता के लिए आन्दोलन करने वालों को ये बागी और गद्दार समझते थे। यदि इनके हाथ में हथियार होते, तो अफसर का आदेश होते ही ये बागी सुभाष को गोली से उड़ा देने में एक क्षण का विलम्ब न करते। और अफसर, गोली मारने का आदेश देने से पहले एक पल सोचते तक नहीं। "आल इंडिया रेडियो' दिन-रात सुभाष को बागी और गद्दार कह-कहकर कोसता था।

    नेहरू जी का ऐलान - इन सैनिकों का ही क्या दोष था, जब जवाहरलाल नेहरू तक ने घोषणा की थी, "यदि सुभाष ने जापानी सेना की सहायता से भारत पर आक्रमण किया, तो मैं तलवार लेकर उससे लडूंगा।'' 

    बेचारे नेहरू जी! तलवार उन्होंने देखी अवश्य होगी, परन्तु यह उन्हें पता नहीं होगा कि उसे पकड़ा किधर से जाता है और चलाया कैसे जाता है? फिर वे कांगे्रस के सदस्य होने के नाते अहिंसा की शपथ से बन्धे थे, गान्धी जी की अहिंसा की शपथ से- "कोई तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल उसके आगे कर दो। पलटकर प्रहार करने का विचार भी मन में मत लाओ।" यह उनका सौभाग्य था कि कभी किसी ने उन्हें थप्पड़ नहीं मारा। इसलिए यह पता नहीं चल सका कि वे अहिंसा व्रत पर कितने दृढ़ हैं। फिर, उनकी वह अहिंसा केवल अंग्रेजों के लिए थी। सरकार के सुर में सुर मिलाकर अनेक कांग्रेसी नेता चिल्ला रहे थे- "सुभाष बागी है, सुभाष देशद्रोही है।'' यह शोर इतना मचा कि आखिर गान्धी जी को कहना पड़ा- "सुभाष की देशभक्ति में कोई सन्देह नहीं है। वह हममें से किसी से भी कम देशभक्त नहीं है। पर उसका लड़ने का तरीका गलत है।''

    युद्धबन्दियों का विकट रुख - सिंगापुर के भारतीय युद्धबन्दियों का रवैया इससे कहीं अधिक उग्र था। अफसरों ने देहरादून और सैंडहर्स्ट की रक्षा अकादमियों में शिक्षा पाई थी। अंग्रेजों की कृपा से वे वैभव और प्रभुत्व का जीवन बिता रहे थे। अब बदकिस्मती से वे युद्धबन्दी थे, परन्तु भारतीय वीरों की परम्परा उनके खून में थी- "कट जाये, सिर न झुकना...।" 

    फिर शपथ भंग! राजद्रोह! यह तो सपने में भी सोचने की बात नहीं थी। उन्होंने सुभाष से मिलने और बात करने से ही इन्कार कर दिया। सुभाष को उन्होंने अपने स्तर का ही नहीं माना। सुभाष को अपनी दशा उस हिरन सी लगी, जो अपने सींगों से पहाड़ के टीले को उखाड़ना चाह रहा हो।

    सैनिक समझदार - वह साधारण सैनिकों से मिले और उन्हें अपनी बात समझाई- "तुम कहते हो कि तुमने अंग्रेजों का अन्न खाया है? वह अन्न अंग्रेजों का नहीं था। वह भारत का अन्न था। वह इंग्लैंड में नहीं उपजा था। वह पंजाब, हरियाणा और गंगा-जमना के मैदानों में उपजा था। तुम्हारी निष्ठा भारत के प्रति होनी चाहिए। तुम्हारा देश भारत है। खून बहाना है, तो उसकी आजादी के लिए बहाओ।''

    सैनिकों को सुभाष की बात समझ आ गई। उन्होंने अफसरों को समझाया कि आप लोग नेता जी से बात तो करें। असली सिक्का "खन्‌ खन्‌' बजता है। सुभाष खरा सोना था, बाहर-भीतर एक। उसकी वाणी में सत्य का बल था। शासक की कैद से भागकर जान हथेली पर लिये परदेस में मारा-मारा फिर रहा था। सबको पता था कि उसने आई.सी.एस. की ठाठ की नौकरी को लात मार दी थी। नहीं तो शायद यह आज उन पर ही हुक्म चलाता होता। 

    किसकी शपथ ? कैसी शपथ ! युद्धबन्दी अफसरों ने सुभाष से बात की, तो आग की तपन उन्हें लगी। सुभाष की यह बात उन्हें समझ आ गई कि कोई भी अन्यायपूर्ण, अधर्मपूर्ण शपथ पालने योग्य शपथ नहीं है। अपने देश पर किसी विदेशी का शासन बनाये रखने की शपथ न्यायपूर्ण शपथ नहीं हो सकती। अपनी मातृभूमि की दासता के बन्धनों को काट डालना ही सबसे बड़ा धर्म है। 

    एक बार बान्ध टूटा, तो सारा ही जल प्रवाह उमड़ पड़ा। मेजर जनरल शाहनवाज, सहगल, गुरदयाल सिंह ढिल्लो, कर्नल दारा और गिलानी, दौड़-दौड़कर आजाद हिन्द फौज में सम्मिलित हो गये। वे सुभाष के जितना निकट आते गये, हिमालय के शिखर की भांति वह उन्हें अपने से अधिक और अधिक ऊँचे लगते गये। जब कोहिमा के मोर्चे पर युद्ध शुरू हुआ, तब आजाद हिन्द फौज के हर सैनिक और अफसर ने स्वयं को धन्य माना कि उसे नेताजी सुभाष के नेतृत्व में मातृभूमि की सच्ची सेवा करने का अवसर मिला। -वैद्य विद्यारत्न

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  • प्रखर राष्ट्रभक्त लाला लाजपतराय

    इस युग में देश की श्रद्धा-विभोर जनता ने दो महामानवों को पंजाब केसरी की उपाधि से अलंकृत किया है। उनमें से प्रथम थे महाराज रणजीतसिंह। 18 दिसम्बर 1854 को जन्म हुआ मुन्शी राधाकिशन का, जिनकी प्रथम सन्तान के रूप में पंजाब को अपना दूसरा केसरी प्राप्त हुआ। अपने देश और धर्म के लिए जिस प्रकार का स्वाभिमान, अपने हिन्दूपन के लिए जितनी तड़प और उसका अपमान अथवा हानि होते देखकर जितनी तीव्र प्रतिक्रिया लाला लाजपतराय में जीवन भर होती रही, उसे देखकर यह आश्चर्यजनक लगता है कि उनके पिता अपनी आधी उम्र तक केवल नाम के हिन्दू थे। नहीं तो रमजान के दिनों में रोजे रखने में, हर रोज पॉंच बार नमाज पढ़ने में और कुरान आदि मुस्लिम ग्रन्थों के पारायण में शायद ही कोई मुसलमान उनसे बाजी ले पाता होगा। यह उनके उस्ताद का प्रभाव था, जिसके परिणामस्वरूप उनके अनेक सहपाठी विधिवत्‌ इस्लाम स्वीकार कर चुके थे।

    Ved Katha Pravachan _78 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    मुस्लिम संस्कृति में पोषित पिता - मुन्शी राधाकिशन कलमा पढ़कर बाकायदा मुसलमान नहीं बने। इसका श्रेय बहुत अंश में उनकी पत्नी गुलाब देवी को ही है। मुन्शी जी ने अपने मुसलमान मित्रों को घर पर बुलाकर उनकी इच्छानुसार कई बार मांसादि का भोजन करवाया और कभी-कभी उनके यहॉं से पका हुआ भोजन लाकर खाया। यह सब उनके जैन मत, (अग्रवाल वैश्य) के लिए कितना सह्य था यह तो अलग प्रश्न है। किन्तु इसने उस साध्वी नारी के जीवन को अत्यन्त दुःखित बना रखा था और कई-कई दिन तक उसने गम के सिवा कुछ न खाकर और आंसू पीकर काटे थे। गोद के शिशु पर उसने अपनी ममता भी उंडेली और उसी पर अपनी सारी आशाएं भी केन्द्रित की। परन्तु सारी व्यथा सहकर भी कभी उसने उन्हें छोड़ जाने की कल्पना को पास तक नहीं आने दिया।

    एक बार तो मुन्शी जी ने इस्लाम की दीक्षा लेने का फैसला कर ही डाला और पत्नी व बालक को लेकर मस्जिद में जा पहुंचे। परन्तु सती नारी के अन्तर्मन की पीड़ा उसकी आंखों की मूक वाणी से कुछ ऐसी प्रकट हुई कि बाहर सीढ़ियों पर ही बाल लाजपत चीखकर रोने लग पड़ा। बसइस रुदन से मुन्शी राधाकिशन के दुर्बल मन का अस्थिर निश्चय डगमगा गया और वे लौट आए। आगे चलकर लाला जी ने शुद्धि का जो कार्य करना था उसका भी श्रीगणेश जैसे साक्षात्‌ अपने पिता से शैशवावस्था में ही उन्होंने कर दिया। परन्तु माता के दुःख और पिता के व्यामोह को दूर करने में अभी उन्हें देर लगने वाली थी।

    विद्यार्थी जीवन- लाला लाजपतराय को पढ़ने की लगन पिता से विरासत में मिलीपरन्तु गरीबी के कारण उनका विधिवत्‌ शिक्षण न हो पाया। जहॉं-जहॉं उनके पिता अध्यापक रहेप्रायः उन्हीं स्कूलों में वे पढ़े। शिक्षाकाल में ही वे दो-तीन बार लाहौर आए तो उन्हें दो साथी मिले- गुरुदत्त और हंसराज। कुछ समय पूर्व ही वहॉं आर्यसमाज की स्थापना हो चुकी थी और वे दोनों उस रंग में रंगे हुए थे। इस मैत्री से और इसके द्वारा आर्यसमाज के जो संस्कार लाजपतराय को मिलेउनसे उन्हें देश-जाति की सेवा का संकल्प प्राप्त हुआ। हंसराज में जो सरल सेवा की वृत्ति थीगुरुदत्त में जो बौद्धिक प्रतिभा थी और लाजपतराय में जो उग्र देश-प्रेम तथा करुणा का सागर थाउनके मिश्रण से ये त्रिमूर्ति आर्यसमाज की नींव बन गई। गुरुदत्त तो अकाल मृत्यु के ग्रास बनेपरन्तु लाला लाजपतराय और महात्मा हंसराज की मैत्री आजीवन रही।

    समाज सेवा - लाजपतराय अत्यन्त भावुक प्रकृति के थे। स्वभाव की भावना प्रधानता के कारण उन्हें जहॉं कहीं कष्ट दिखाई पड़ाचाहे वह राजपूताना का अकाल थाचाहे कांगड़ा का भूकम्पवहीं पहुंचे और जन-जन के कष्ट को कम करने में जुटे। पैसा उन्होंने कमाया पर उसमें मन नहीं लगायाउसे जीवनपूर्ति का प्रमुख कार्य नहीं बनाया। यही नहींउन्होंने अन्याय के विरुद्ध सदा आवाज उठाई। कौन कितना बड़ा हैइसकी परवाह किए बगैर उन्होंने अन्यायपूर्ण बात का विरोध किया।

    मुस्लिम कांग्रेस अध्यक्ष को उत्तर - ऐसा ही एक प्रसंग थाजब 1923 में काकीनाडा कांग्रेस के अध्यक्ष पद से मौलाना मुहम्मद अली ने कहा था कि हिन्दू अपनी अछूत जाति की समस्या हल नहीं कर सकते। इसलिए क्यों न उन्हें आधा-आधा बांट लिया जाये! आधे अछूत मुसलमानों को दे दिए जाएं। यह तर्क जितना लचर और निर्लज्ज थाउतना ही हिन्दू भावना पर चोट करने वाला भी था। बाकी लोग भले ही इस अपमान को पी सकेपरन्तु लालाजी की प्रतिक्रिया बहुत तीव्र थी- "यह हमारा घरेलू प्रश्न है। किसी और के दखल की इसमें जरूरत नहीं। हिन्दू ही छूआछूत की समस्या का हल करेंगे। फिर अछूत जातियॉं क्या ढोर पशु हैंजिनके इस तरह बंटवारे की बात की जा रही है?''

    हिन्दू भाव उनके हृदय में क्यों रहता थाइसका उत्तर उन्हीं के शब्दों में यह है- "यदि स्वराज्य लेने के लिए हमारी आतुरता हमें धर्म बदलने की प्रेरणा दे और हम ईसाई बनेंतो यह एक प्रकार की स्वतन्त्रता अंग्रेज हमें देंगे। परन्तु स्वराज्य तो सच्चे अर्थों में तभी होगाजब हम अपने स्वरूप में स्थिर रहकर राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करें। हमारा स्वरूप है हमारा धर्महमारी संस्कृति और हमारी अपनी देशगतजातिगत भावनाएं। उन्हें त्याग कर मिलने वाला स्वराज्यस्वराज्य नहीं है।''

    जब वे कांग्रेस में रहे तो ऐसे उत्साह के साथ जो सरल व सच्चे हृदयों में ही हो सकता है और जो हर कदम पर हानि-लाभ का विचार करने का अभ्यस्त नहीं होता। वह "आग से खेलता है तो झुलस जाने के लिए तैयार भी रहता है।'' और इसमें कोई दो मत नहीं कि ब्रिटिश सरकार के साथ संघर्ष में इन प्रश्नों पर उलझने के अवसर उनके लिए अनेक आए।

    हिन्दूपन का भाव - राजनैतिक क्षेत्र में पदार्पण से लाला लाजपतराय के जीवन का दूसरा चरण प्रारम्भ होता है। कांग्रेस की स्थापना के समय से ही अलीगढ़ के सर सैयद अहमद ने मुसलमानों को उससे अलग रखने का झण्डा उठा लिया था। उनके लेखों के उत्तर में अनेक पत्र उन्हीं के पुराने विचारों के हवाले से छपे। चाहे वे पत्र गुमनाम थेपरन्तु अधिक दिन तक यह छिपा न रहा कि वे किस लेखनी का प्रसाद थे। उनके कारण लाला जी की जो प्रसिद्धि हुईउसका परिणाम यह था कि कांग्रेस के संस्थापक श्री ह्यूम और पण्डित मालवीय आदि ने प्रयाग कांग्रेस के समय उनका स्वयं स्टेशन पर स्वागत किया और श्री ह्यूम ने उन चिट्ठियों का स्वयं सम्पादन करके पुस्तकाकार में प्रकाशित किया। लाला जी सम्भवत पहले व्यक्ति थेजिन्होंने तब अंग्रेजी में काम करने वाली कांगे्रस के अधिवेशन में हिन्दी में भाषण दिया। उनकी असाधारण वक्तृत्व शक्ति ने उन्हें शीघ्र ही संस्था की चोटी के नेताओं की श्रेणी में ला खड़ा किया।

    बंग-भंग आन्दोलन में - और तब 1905 में आया बंग-भंग का वह निर्णयजिसके विरोध में 'लाल-बाल-पालकी त्रिमूर्ति गरम दल के रूप में देश के उद्‌गारों का प्रतिनिधित्व करने लगी। प्रिंस ऑफ वेल्स के स्वागत के प्रश्न पर बनारस अधिवेशन में कांग्रेस के नरम और गरम दलों में टक्कर हो गई। इसके बाद जागृति की जो लहर देश भर में चली वह मीठे-मीठे भाषणोंसरकार के नाम भेजे गये आवेदन पत्रों और 'गॉड सेव द किंगके गायन की मर्यादाओं को ध्वस्त करके 'स्वराज्यस्वदेशी और बहिष्कारके मन्त्रों के रूप में चारों दिशाओं में व्यापक हो गई। इस नए जागरण के निर्माता यदि महाराष्ट्र में लोकमान्य तिलक और इनका 'केसरीथेतो पंजाब में लाजपत राय और उनका 'पंजाबीतथा बंगाल में विपिनचन्द्र पाल और अरविन्द घोष के सम्पादन में चलने वाला 'वन्देमातरम्‌'। लाला जी की वाणी में ओज तो था हीअब वह आग बरसाने लगी। नौकरशाही इस ताक में रहने लगी कि उनको किस प्रकार रास्ते से हटाए। तभी पंजाब में नहरी आबादियों के कानून के विरुद्ध आन्दोलन चला। सही या गलत यह धारणा कृषकों में घर कर गई कि अंग्रेज कानून द्वारा उत्तराधिकार के नियम को बदलने की तैयारी में है। लाला जी आन्दोलन के समर्थक तो थेपर उसमें सक्रिय नहीं हुए। किन्तु चाहते हुए भी वे खिंचकर उसमें उलझ ही गए। लायलपुर की एक सभा में वे अध्यक्ष बनाए गए। वहीं भगतसिंह के चाचा अजीत सिंह ने भाषण दियाजो काफी विद्रोहपूर्ण था।

    नरम और गरम दल - अजीत सिंह और लाजपतराय दोनों को 1818 के पुराने रेगुलेशन के अधीन निर्वासन का दण्ड दिया गया। 6 महीने की कैद के बाद लाला जी मांडले जेल से रिहा होकर लौटे। इस कैद ने उनकी कीर्ति को दिग्‌दिगन्त तक फैला दिया। उसके शीघ्र बाद ही सूरत कांग्रेस का अधिवेशन था। जनता के हृदयों पर तो लाला जी का शासन था और तिलक भी चाहते थे उन्हीं को अध्यक्ष बनाना। परन्तु लाला जी दलबन्दी में पड़ना न चाहते थे। अधिवेशन तो मार-पिटाई और उछलते जूतों की गड़गड़ में समाप्त हो गया। साथ ही यह स्पष्ट हो गया कि नरम और गरम दल वालों के रास्ते बिलकुल फट गये हैं। लाला जी ने कांग्रेस को छोड़ा तो नहीं पर विरक्ति उन्हें अवश्य हो गईकांग्रेस से ही नहीं राजनीति से भी। कुछ काल के लिए उन्होंने फिर आर्यसमाज के क्षेत्र को अपना लिया। 1914 में वे इंग्लैंड चले गये। वे वहीं थे जब महायुद्ध शुरू हो गया।

    युद्ध नीति - अब भारतीयों और कांग्रेस के सामने यह प्रश्न था कि उनकी नीति युद्ध के बारे में क्या होगांधी जी बिना किसी शर्त के सरकार की सहायता करने के पक्ष में थे। लाला जी का दृष्टिकोण क्या था? "मैं युद्ध में अंग्रेजों की सहायता के विरोध का आन्दोलन चलाने के पक्ष में तो नहीं था। मैं तो उनकी युद्ध नीति का समर्थन करने को भी उद्यत थायदि उसमें हमारे युवकों को भी सेना में प्रतिष्ठित पदों की प्राप्तिशस्त्रास्त्र के प्रयोग तथा युद्धकला में निपुणता प्राप्त करने का अवसर मिल जाता। सरकार ने ये दोनों बातें अस्वीकार कर दीं।.... इस दशा में मैं बिना किसी शर्त के युद्ध में भर्ती होने को तैयार नहीं था। परन्तु मेरे देश के शिक्षित नेताओं का मत इससे भिन्न था।'' लाला जी व तिलक जी दोनों का दृष्टिकोण एक ही था जो कि गांधी जी तुलना में यथार्थवादी भी था और जो कम से कम आज तो स्वीकार किया जा सकता है। अधिक दूरदर्शिता पूर्ण भी था। लाला जी और तिलक जी का दृष्टिकोण! इसी दूरदर्शिता ने लाला जी को देश न लौटने तथा कहीं नजरबन्द हो जाने के स्थान पर बाहर रहने के लिए प्रेरित किया। वे फरवरी 1920 तक नहीं लौटे।

    निरंकुश लाठियॉं - लौटे तो ब्रेडला हाल के पीछे मैदान में उनका पहला भाषण हुआ। उसमें उनकी अंग्रेजों को चुनौती थी- "खिचड़ी पक रही है। न खाएंगे न खाने देंगे। न सोएंगेन सोने देंगे! मंजिल पर पहुंचे बिना चैन न लेंगे।'' और सच में वह महापुरुष न सोया न उसने प्रतिपक्षी को सोने दियाजब तक निरंकुश शासकों की लाठियों ने उसे सदा की नींद न सुला दिया। उन लाठियों के विषय में लाला जी के शब्द किसी भी क्रांति की चिनगारी से कम ज्वलन्त नहीं थे- "हम पर की गई एक-एक चोट ब्रिटिश साम्राज्य के कफन में एक-एक कील सिद्ध होगी!'' उन्होंने यह भी कहा कि ''यदि मैं मर गया और जिन नवयुवकों को मैंने काबू में रखा हुआ थाउन्होंने शांतिपूर्ण उपायों के अतिरिक्त अन्य मार्ग ग्रहण करने का निश्चय कियातो मेरी आत्मा उनके कार्य को आशीर्वाद देगी!''

    अपने निर्वांण समय के निकट मद्रास समुद्र तट पर हुई एक विशाल सभा में जो कुछ लाला जी ने कहावह उनके जीवनभर के भावों को अत्यन्त सुन्दर ढंग से प्रकट करता है- "अब जब जीवन की संध्या होते देखता हूँ और सिंहावलोकन करता हूँ तो खेद होता है कि जिस माता की कोख से जन्माजिसकी गोद को मलमूत्र से अपवित्र कियाजिसका स्तन पियावह माता बन्धन में ही है और मेरे जीवन के सूर्य का अस्ताचल की ओर प्रयाण तीव्रगति से हो चला है। माता के बन्धन तोड़ने के लिए मैंने कुछ नहीं कियाइसी की तीव्र वेदना मुझे व्यथित करती रहती है।''

    आज जब माता के बन्धन टूट चुके हैंलाला लाजपतराय और उनके अन्य साथियों के आदर्श कहॉं तक पूरे हो रहे हैंआज की राजनीति की ऊहापोह में मन खोजता है ऐसे साहसी व उदात्त चरित्रों कोजिन्होंने आदर्शवाद से प्रेरित होकर जीवन को यज्ञ बनाया होजिनके श्वासों में देशप्रेम होजिनकी धड़कनों में राष्ट्र की व्यथा हो। कहॉं हैं ऐसे राजनीतिज्ञ जो स्वयं को उन महापुरुषों के उत्तराधिकारी कह सकेंजिन्होंने पत्थर बनकर स्वातन्त्र्य मन्दिर की नींव को भरा था?

    यदि स्वराज्य लेने के लिए हमारी आतुरता हमें धर्म बदलने की प्रेरणा दे और हम ईसाई बनें तो यह एक प्रकार की स्वतन्त्रता अंग्रेज हमें देंगे। परन्तु स्वराज्य तो सच्चे अर्थों में तभी होगा जब हम अपने स्वरूप में स्थिर रहकर राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करें। हमारा स्वरूप है हमारा धर्महमारी संस्कृति और हमारी अपनी देशगतजातिगत भावनाएँ। उन्हें त्यागकर मिलने वाला स्वराज्यस्वराज्य नहीं है। -डॉ. भाई महावीर (पूर्व राज्यपालम.प्र.)

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    Social Service - Lajpat Rai was of a very emotional nature. Due to the sense of nature, where he had to suffer, whether it was the famine of Rajputana or the earthquake of Kangra, he reached there and was able to reduce the suffering of the people. They earned money but did not mind it, did not make it the main task of life supply. Not only this, he always raised his voice against injustice. He protested against the unjust, regardless of who is big.

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  • प्रान्तीयता घातक है

    विनायक दामोदर सावरकर ने सन्‌1911 में अण्डमान (कालापानी) की जेल में अमानवीय यातनाएं सहन कर रहे थे। तेल पेरने जैसे मशक्कत के कठोर काम से छूट मिलते ही वे कैदियों को हिन्दी सिखाने के काम में लग जाते थे। उन्होंने हिन्दी की पुस्तकें मंगवाई तथा उन्हें जेल के पुस्तकालय में रखवाया, जिससे कैदी रामायण, गीता तथा अन्य हिन्दी पुस्तकों का अध्ययन कर सकें।

    Ved Katha Pravachan -10 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    एक दिन सावरकर जी ने गैर हिन्दी भाषी अपने साथी बन्दियों के बीच कहा- "बंगलामराठीतेलगू आदि सभी भाषाएँ प्रान्तीय हैं। उनका विशेष महत्व है। किन्तु तमाम भारत को अटक से लेकर कटक तक कन्याकुमारी से कश्मीर तक को जोड़ने की सामर्थ्य केवल हिन्दी भाषा में है। बद्रीनाथ-केदारनाथ तीर्थयात्रा के लिये आने वाले दक्षिण भारत के लोग भी हिन्दी सहजता से समझ लेते हैं। संस्कृत के शब्दों की अनेक प्रान्तीय भाषाओं में बहुतायत है। संस्कृत हिन्दी तथा अन्य अनेक भाषाओं की जननी है। इसलिए हिन्दी ही सम्पूर्ण राष्ट्र की भाषा कहलाये जाने की क्षमता रखती है।''

    एक दिन जेल सुपरिण्टेण्डेण्ट बारी ने कुछ बन्दियों को बरगलाया कि सावरकर हिन्दी की आड़ में बंगालीपंजाबी आदि को खत्म करना चाहते हैं। सावरकर जी ने उन्हें समझाया कि "मैं स्वयं मराठी भाषी हूँफिर भी हिन्दी के महत्व को समझता हूँ। आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने गुजराती भाषी होते हुए भी हिन्दी में "सत्यार्थ प्रकाशलिखा।'' उन्होंने हिन्दी पढ़ानी जारी रखी।

    सन्‌ 1915 में सावरकर जी के भाई बाल ने उन्हें कुछ पत्र-पत्रिकाएं व साहित्य भेजा। एक पत्रिका में 'आन्ध्र माता की जयशीर्षक देखकर उन्होंने अपना विचार व्यक्त करते हुए कहा- "इस प्रकार की प्रान्तीयता की भावना से राष्ट्रीय एकता कमजोर होगी। हम सब मराठियोंबंगालियोंतमिल वासियों सभी को अपने-अपने प्रान्तों पर गर्व करते हुए हिन्दी को एकता का सूत्र मानकर "भारत-राष्ट्रकी भावना पुष्ट करनी चाहिए। हमें "बंग आमारकी जगह "हिन्दी आमारका गीत गाना चाहिए।'' 

    "महाराष्ट्र में केवल "मराठी चलेगीका दुराग्रह  करने वालों को महाराष्ट्र में जन्मे सावरकर जी के उपरोक्त विचारों से शिक्षा होनी चाहिए। शिवकुमार गोयल

     

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    One day Jail Superintendent Bari tricked some prisoners that Savarkar wants to end Bengali, Punjabi etc. under the guise of Hindi. Savarkar ji explained to him that "I myself am Marathi speaking, yet I understand the importance of Hindi. The founder of Arya Samaj Swami Dayanand Saraswati wrote" Satyarth Prakash "in Hindi despite being Gujarati speaking." He continued to teach Hindi.

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  • बोलना सिखाया जिन्होंने अब उनसे ही बोलते नहीं

    घर-परिवार

    शीर्षक में इंगित समस्या आज की ही नहीं, पुरातन काल से चली आ रही है, भले पहले अतिन्यून हो, अब अत्यधिक है। महर्षि दयानन्द सरस्वती से पूर्ण प्रभावित होकर छलेसर के रईस ठाकुर मुकुन्दसिंह ने उनको आग्रहपूर्वक अपने गॉंव में आमन्त्रित किया। हाथी-घोड़ा-पालकी-सैनिक व विशाल जन-समूह के साथ उनका स्वागत किया। उनके प्रवास के लिये नवीन भवन बनवाया। विशेष यज्ञ रचाया। पण्डित व प्रजाजन की वहॉं भीड़ लगी रही। इतने कोलाहल में भी ठाकुर मुकुन्दसिंह के पुत्र कुँअर चन्दनसिंह का मौन महर्षि को बहुत अखर रहा था। कारण कुछ भी हो, पिता-पुत्र की बोलचाल बन्द थी। ग्राम में कुम्भ जैसा मेला और उसका शोर, फिर भी पिता-पुत्र में मनोमालिन्य बना रहे, महर्षि इस पीड़ा को सहन नहीं कर सके। इन दोनों के सम्मुख वे बोले और ऐसा बोले कि पिता ने निज पुत्र के लिए अपनी बाहें फैला दी तथा उसे अपनी गोदी में बैठा लिया और मन का मैल सदा-सदा के लिये धुल गया।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    तेतीस कोटि देवताओं का स्वरूप-1

    Ved Katha Pravachan _65 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev 


    परमपिता परमात्मा अपने प्रतिनिधि पुत्र सन्तरूप में भेजकर समाज में श्रेष्ठ वार्तालाप का वातावरण बनाते रहते हैं। जब यही तथाकथित सन्त स्वार्थी हो जाते हैंतो समाज में संवाद समाप्त होकर विवाद-परिवाद की वायु बहकर सन्ताप उत्पन्न कर देती है।

    विवाह संस्कार के कारण श्रीमती सहित एक उस नगर में जाने का अवसर मिलाजहॉं हम कभी 49 वर्ष पहले गये थे। श्रीमती जी अपनी दूर की दादी से मिलना चाहती थी और मुझे अपने समवयस्क मित्र से मिलने का आकर्षण था। मित्र मिले। वे उतने ही प्रतिष्ठित व लोकप्रिय मिलेजितने राजासाहब सम्बोधन से जाने जाने वाले उनके पिता थे। जितनी अधिक उनकी भूमि-भवन-धन की सम्पदा थीउतनी ही उनकी सुकीर्ति मान्यता भी थी। उन्होंने सर्वत्र मुझको भ्रमण कराया और ले जाकर खड़ा कर दिया अपने एक पुत्र के प्रभूत प्रतिष्ठान पर और लगे उससे मेरा परिचय कराने। वह अच्छा खासा समझदार पुत्र न उनसे बोला और न मुझसे नमस्ते तक की। मित्र तो खड़े के खड़े ही रह गये। किन्तु मुझसे वहॉं नहीं रुका गया और मैं उनका हाथ पकड़कर आगे बढ़ा लाया। मार्ग में उन्होंने बताया कि इस पुत्र को मुझसे यह आपत्ति है कि पिता की इतनी उच्च मान-प्रतिष्ठा होेते हुए भी मेरे लिए कुछ नहीं किया।

    यह तो रही मेरी भेंट मित्र सेअब श्रीमती जी की दूर की दादी की कहानी सुनिये। मिलने पहुँची तो उनको घर से बाहर एक टूटी-टाटी खाट पर पड़ा पाया। देखकर उठी। इनको अपने हृदय से चिपटा लिया। दादी के स्वावलम्बी पुत्र का बाल-बच्चों वाला परिवार! किन्तु दादी से कोई बोलता नहीं।

    यह जो हमने दूर के नगर में जाकर देखावह हमारे नगर में आस-पास भी घटता दिखाई देता रहता है। हम दो ऐसे बच्चों को जानते हैं। एक दूसरे ही वर्ष में चलने और बोलने लगा तथा दूसरे बच्चे ने इन दोनों कार्यों में कई-कई वर्ष लगा दिए। जब यह चलता-बोलता नहीं थातो माता-पिता-परिजन सब व्याकुल रहते थे। उपचार-उपाय खोजते व चिन्तित रहते दिन कटते थे। जिन माता-पिता-अभिभावकों ने उन्हें बोलने में समर्थ बना दियाबड़े होकर वही बच्चे अन्य सबसे तो बोलते हैं पर अपनों से ही नहीं बोलते हैंतो उनका हृदय टूट जाता है। इसका दूरगामी दुष्प्रभाव ऐसी सन्तानों पर पड़ने से कोई रोक नहीं सकता है। माता-पिता ही क्या उस परमेश प्रभु के साथ भी ऐसे लोगों का यही व्यवहार होता हैजो माता-पिता दोनों के रूप में जन्म देकर पालन-पोषण करता है। प्रभुदेव सविता अग्नि के समक्ष शान्त शीतल जलाञ्जलि पूर्वक व्यक्ति मांग करता है- वाचस्पतिर्वाचं ना स्वदतु (यजुर्वेद 30.1) अर्थात्‌ हे वाणी के स्वामी परमेश्वर! आप हमारी वाणी को मधुर बना दीजिये।

    जीभ तो मानव-पशु सबके पास है। पशुओं की जीभ तो सदा समान रहती है, किन्तु मनुष्यों की जीभ अपने स्वाद बदलती रहती है। कभी कड़वी कभी मीठी। कड़वी हुई तो मानो कटार हो गयी। दिल के आर-पार हो गई। अतः इसका कोमल व मधुर रहना ही ठीक है। प्रभु से यही मांग है। इसी क्रम में अभिभावकों की उत्कट कामना द्रष्टव्य है-
    ओ3म्‌ उप नः सूनवो गिरः श़ृण्वन्त्वमृतस्य ये।
    सुमृडीका भवन्तु नः।। सामवेद 1595।।

    अर्थात्‌ हमारे पुत्रगण अविनश्वर परमेश्वर की वाणी सुनें और हम लोगों को सुखी करें। परमेश प्रभु की वाणी वेद का कितना मधुर सन्देश है-

    3म्‌ उत ब्रुवन्तु जन्तव उदग्निर्वृत्रहाजनि।
    धनज्जयो रणे रणे।। सामवेद 1382।।

     

    मन्त्र-भावार्थ देखिये-

    क्षण क्षण सम्मुख रण आते हैं।
    धन-जय प्रभु ही दिलवाते हैं।।

    प्रभु हमको शक्ति विमल देते,
    हम जिससे शत्रु मसल देते।

    प्रभु ने जीवन धाम दिया है,
    प्रभु ही इसको चमकाते हैं।।

    जीवन्त प्राणधारी आओ,
    प्रभु से सम्मति ले आओ।

    बैठो प्रभु से करो वार्ता,
    सन्मार्ग वही दिखलाते हैं।।

    जिसने निज को उत्कृष्ट किया,
    हर कष्ट सहन कर पुष्ट किया।

    वे नर जीवन संग्रामों में,
    प्रभु की सहाय पा जाते हैं।।

    क्षण क्षण सम्मुख रण आते हैं।
    धन-जय प्रभु ही दिलवाते हैं।।

    "सामश़्रद्धाके देवातिथि द्वारा रचित सामगीत में यही सन्देश निहित है कि जिस प्रभु से हम हर संग्राम में विजय व वैभव प्राप्त करने की कामना करते हैं और वह हमें सुलभ भी हो जाता है। इस ऋद्धि-सिद्धि-उपलब्धि के बाद अधिकांश व्यक्ति इसी में रम जाते हैं। इसकी ही बात करते रहते हैं। प्रभु से बात करने का उनके पास समय ही नहीं बचता है। मन्त्र का मृदुल आदेश है कि इसे मांगने व मिल जाने के बाद भी प्रभु से बात करते रहो। स्तुति करके धन्यवाद देते व आशीर्वाद लेते रहो।

    परमेश प्रभु की ही भॉंति हमारे पितरजन भी हमें सब कुछ देते हैं। तन देते हैंसुसंस्कृत मन देते हैंयथासम्भव धन देते हैंविद्या और गुण देते हैं। फिर भी हम सर्वसमृद्ध होकर जरा सी बात पर उनसे बोलना ही बन्द कर देते हैं। वे तो वयोवृद्ध हैं। अपने समस्त उत्तराधिकार देकर हमें समृद्ध करके चिर-विदा लेकर चले ही जाने वाले हैं। फिर हम उनसे बात न करें तो इसे हमारा अधर्माचरण ही कहा जायेगा। यहॉं पर हिन्दी के प्रसिद्ध रसिक कवि बिहारी जी का एक दोहा उद्‌धृत किया जा रहा हैजो इस प्रकार से दो अर्थ प्रस्तुत करता है कि एक ओर तो वे अपने आराध्य श्रीकृष्ण का तथा दूसरी ओर अपने वंश व पिता का स्मरण भी कर लेते हैं। लीजिए पढ़िये-

    प्रगट भए द्विजराज-कुलसुबस बसे ब्रज आइ।
    मेरे हरो कलेस सबकेसव केसवराइ।।

    दोहे में प्रयुक्त "द्विजराजशब्द द्वि-अर्थक है। एक चन्द्रमा व दूसरा ब्राह्मण। दोहे का एक अर्थ बनता है कि केशव कृष्ण चन्द्रकुल में जन्म लेकर ब्रज भूमि में बस रहे हैंवे मेरे सभी कष्टों को दूर करें। दूसरे अर्थ में वे अपने पिताश्री का आराध्यतुल्य स्मरण करते हुए कहते हैं कि मैं भी ब्राह्मण कुल भूषण ब्रजवासी हूँमेरे जन्मदाता केशवराय मेरे कष्टों को दूर करें।

    कभी-कभी ऐसा कुयोग भी आ जाता हैजब सन्तान से पितर वृद्धजन अपनी ओर से बोलना बन्द कर देते हैंवह भी जरा से भ्रम के कारण। एक माता के तीन-चार पुत्री एवं एक पुत्र था। किशोरावस्था में पुत्र नहीं रहा। उनका बड़ा दामाद उनका मातृवत सम्मान करने वाला है। एक बार अपना भोजन साथ लेकर वह दामाद के घर गयी। सदैव की भॉंति दामाद ने स्वागत-अभिवादन किया और उनसे भोजन करने के लिये जोरदार आग्रह करने लगा। माता मना करती रही। दामाद के मुख से निकले शब्द- "आपके कोई है नहींइसलिए मैं आपसे खाने के लिए कह रहा हूँकोई होता तो भला मैं क्यों कहता''- उस माता के हृदय में ऐसे चुभ गये कि कई महीनों से उस माता ने अपने दामाद से बोलचाल बन्द रक्खी। दामाद को स्थिति का आभास हुआ। अनेक प्रकार से उसने माता से बोलना चाहाकिन्तु माता का मुँह बन्द का बन्द ही रहा। माता ने यह स्थिति मुझे बताकर कुछ परामर्श चाहातो मैंने सन्त तुलसीदास के शब्दों को- क्षमा बड़न को चाहियेछोटन को उत्पातदोहरा दिया। तभी माताजी ने कहा कि अब तो वे मुझे अपने बच्चों के साथ तीर्थयात्रा पर ले जाना चाहते हैं। ठीक ही हैसुखद अन्तराल में दुःखद बात विस्मृत होना असम्भव नहीं है। धर्म के दस लक्षणों में "क्षमाविलक्षण है। और सभी एक पक्षीय हैंपर क्षमा द्विपक्षीय है। क्षमा मांगने वाला धर्म का पालन करता है और क्षमा करने वाला सद्धर्म का परिपालन करता है। बड़े लोग किसी भी कारण से बोलना बन्द करने के स्थान पर अपनी सकारात्मक सोच विकसित करके प्रकरण की नकारात्मकता को तिरोहित करके अपने छोटों को सन्मार्ग दिखाने का सत्प्रयास कर सकते हैं।

    उपरोक्त प्रकरण में घोर निराशा को घनघोर आशा में इन्हीं माताजी के शब्दों ने बदल दिया। वे बोली कि कुछ दिनों के लिए बाहर क्या चली गयीपड़ोसी बच्चों ने छत पर कूद-फॉंदकर सीमेण्ट उखाड़ दिया। जरा सी वर्षा में छतें टपकने लगती हैं। प्रयोग में न आने से हस्तचालित नल ने पानी देना बन्द कर दिया और शौचालय का पानी निकलता नहीं। एक अकेले के लिये हजारों रूपये व्यय करके ठीक करायेंफिर चलें जायें बाहर तीर्थयात्रा पर। लौटकर आयें तो वही "ढाक के तीन पात'। मैंने उनसे कहा कि यह सब अव्यवस्थायें इसीलिए हुई हैं कि आप दामाद का आमन्त्रण स्वीकार कर कुछ दिन बाहर तीर्थाटन कर आयें। जब लौटकर आएंगीतो तीन दिन में ही यह सब बिगड़े काम बन जाएंगे और सम्बन्ध स्नेहपूर्ण सामान्य हो जायेंगे। शायद प्रभु भी यही चाहते हैं। माता जी जो सुस्त-मुस्त आयीं थींमस्त-चुस्त मुस्काती चली गयीं।

    3म्‌ महो अर्णः सरस्वती प्र चेतयति केतुना।
    धियो विश्वा वि राजति।।ऋग्वेद 1.3.12।।

    इस मन्त्र अनुसार ज्ञान देवी सरस्वती की उपासना से ज्ञान के महासागर का आभास मिलता है। जो माता सरस्वती के ज्ञानध्वज के नीचे आ जाते हैंवे अपनी सब बुद्धियों को विशेषतया दीप्त करके जिस-जिस वस्तु की गहराई में जाना चाहते हैंउस-उस वस्तु के तत्वबोध को प्राप्त कर लेते हैं। गहराई में उतरने वालों को सबकुछ मिल जाता है और किनारे बैठे रहने वाले इधर-उधर ताकते रह जाते हैं। कहा भी है-

    सरस्वती के भण्डार की बड़ी अपूरब बात।
    खर्चे से घटती नहीं बिन खर्चे घटि जात।।

    शून्य से शिखर पर पहुँचने वाले व्यक्तियों की सन्तानें उनकी प्रतिष्ठा को तो देखती हैंउनकी त्याग-तपस्या-श्रम व पुरुषार्थ को नहीं देख पाती हैं। सन्तानों की अभिलाषा रहती है कि वे भी प्रतिष्ठा पायेंपरन्तु अपने बल पर नहीं पूर्वजों की प्रतिष्ठा के बल पर। उदाहरणस्वरूप एक कथानक प्रस्तुत है। पर्वतीय क्षेत्र से एक किशोर प्रयाग आया। श्रम-साधना एवं सद्‌भावना से प्रयाग विश्वविद्यालय में उच्च से उच्चतर शिक्षा प्राप्त की। अनी मेधा के श्रेयस्वरूप उसी विश्वविद्यालय में प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष बना और सेवानिवृत्त हो गया। इस लम्बे अन्तराल में उसके शिष्यों की श़ृंखलायें बढ़ती गयींऔर परिवार की पीढ़ियॉं भी बढ़ती गयीं। महानगर में शिक्षा-सांस्कृतिक व सामाजिक क्षेत्रों में वयोवृद्ध प्राध्यापक की अकूत मान्यता होने लगी। इस मध्य हुआ यह कि उनके पौत्र की उपस्थिति कम होने के कारण परीक्षा में बैठने से रोक दिया गया। पौत्र व घर वालों ने जोर लगाकर देख लियापर उसको परीक्षा में बैठने की अनुमति नहीं मिली। थककर घर वालों ने प्रतिष्ठित पितामह से अनुशंसा करने को कहा। उन्होंने सुनी-अनसुनी कर दी। घर वालों ने उनसे बोलना बन्द कर दिया। अन्ततः प्राध्यापक पितामह पौत्र को लेकर विश्वविद्यालय के तत्सम्बन्धी विभाग में जा पहुँचे। तेजस्वी विभागाध्यक्ष अपने उच्चासन से उठे और वयोवृद्ध प्राध्यापक के चरणस्पर्श करके अपने आसन पर बैठाया। स्वागत करते हुए वे बोल पड़ेप्रोफेसर सर! आज मैं जो कुछ हूँआपके कारण हूँ। उस समय उपस्थिति कम होने पर आप मुझे परीक्षा में बैठने से रोकते नहींतो मैं विशद तैयारी नहीं करताशीर्ष स्थान न पाता और आज विभागाध्यक्ष न होता। वर्तमान विभागाध्यक्ष ने उनके आने का कारण पूछा। उन्होंने कोई अनुशंसा नहीं की। इधर से निकल रहा थासोचा मिलता चलूँ। अच्छा! अब चलता हूँ। पौत्र ने घर आकर सारी बात बतायी। घर वालों को समझाकर सन्तुष्ट कर दिया। आगे की तैयारी के लिये स्वयं को पुष्ट कर लिया। वयोवृद्ध प्राध्यापक से सबके प्रणाम चल निकले और पौत्र का सुनिश्चय उत्कृष्ट हो गया। उसका भी भविष्य समुज्ज्वल हो गया। देवनारायण भारद्वाज

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    According to this mantra, worship of the knowledge goddess Saraswati gives an impression of the ocean of knowledge. Those who fall under the enlightenment of Mother Saraswati, by lighting all their intellects, they attain the essence of the object of which they want to go in depth. Those who get into the depth get everything and those who sit on the sidelines are kept looking around.

     

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  • भारत-भाग्य विधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती - 1.2

    कुछ लोगों का कहना है कि हम मूर्त्तियों को ईश्वर नहीं मानते, हम उन्हें केवल मानसिक विकास का साधन मानते हैं। इस पर राजा राममोहन राय का कहना था-

    “Hindus of the present age have not the least idea that it is the attributes of the Supreme Being as figuratively represented by Shapes corresponding to the nature of those attributes, they offer adoration and worship under the denomination of gods and godesses.

  • भारत-भाग्य विधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती - 1.1

    राजा राममोहन राय-

    भारत के इतिहास एवं संस्कृति का परिचय देनेवाली पुस्तकें राजा राममोहन राय को आधुनिक भारत के निर्माता के रूप में प्रस्तुत करती हैं । इसमें सन्देह नहीं कि उस युग में राजा राममोहन राय पहले व्यक्ति थे जिन्होंने उस समय प्रचलित कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों पर प्रहार करके समाज-सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। उन्हीं के प्रयत्न के फलस्वरूप सन्‌ 1828 में सतीप्रथा के विरुद्ध कानून बना।

  • भारत-भाग्य विधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती -1.3

    स्वयं मैकाले ने लिखा था-

    “We must do our best to form a class who may be interpreters between us and the millions whom we govern a class of persons Indian in blood and clour, but English in taste, in opinions, words and intellect”.

    अर्थात्‌ हमें इस देश में एक ऐसा वर्ग पैदा करने का यत्न करना चाहिए जो हमारे और हमारे द्वारा शासित करोडों भारतीयों के बीच दुभाषियों का काम कर सके। यह वर्ग हाड़-मांस और रङ्ग से भले ही भारतीय लगे, परन्तु आचार-विचार, रहन-सहन, बोल-चाल और दिल-दिमाग से अंग्रेज बन जाए।

  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-10.2

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    इसमें सन्देह नहीं कि हमारी दासता की बेड़ियों को सुदृढ करने में ईसाइयों ने अंगरेजों के कन्धे-से-कन्धा मिलाकर काम किया है। जब तक किसी देश के लोगों में स्वाभिमान की भावना रहती है तब तक विदेशी शासन के स्थायित्व पर प्रश्नचिह्न लगा रहता है। इसी भावना को नष्ट करने के लिए ईसाइयत ने हिन्दुस्तानियों को असभ्य और जंगली बताकर उनमें हीनता की भावना को उभारने का यत्न किया।

    इस्लाम के इतिहास से सभी भली-भॉंति परिचित हैं। यह ठीक है कि भारत में रहने वाले प्राय: सभी मुसलमान मूलत: इसी देश के वासी हैं,किन्तु आठ सौ वर्ष से इस धरती के अन्न-जल से पोषण पाकर भी वे इस देश के नहीं बन सके। भारत के मुसलमानों ने कभी इस देश पर शासन नहीं किया। शासन करनेवाले मुगल,पठान,खिलजीलोधी,गोरी,आदि सभी आक्रमणकारी विदेशी मुसलमान थे,परन्तु जितना गर्व उन्हें इन विदेशी आक्रमणकारियों और इस देश के लोगों पर अत्याचार करनेवालों पर है उतना इस देश में पैदा हुए राम,कृष्ण और ऋषि-मुनियों पर अथवा इस देश के लिए मर मिटनेवाले राणा प्रताप,शिवाजी आदि पर नहीं है।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    धर्म की कसौटी - सबका कल्याण
    Ved Katha Pravachan _20 (Introduction to the Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    मिस्टर ब्लण्ट ने ही एक बात और लिखी है-‘Dayananda was not merely a religious reformer, he was a great patriot. It would be fair to say that with him religious reform was a mere means to national reform.’

    अर्थात्‌ दयानन्द मात्र धार्मिक सुधारक नहीं था। वह एक महान्‌ देशभक्त था। यह कहना ठीक होगा कि उसके लिए धार्मिक सुधारराष्ट्रीय सुधार का एक उपाय था। ब्लण्ट ने बड़े पते की बात कही है। इसमें सन्देह नहीं कि दयानन्द ने पाखण्डों और परस्पर विरोधी मतों का खण्डन इसलिए किया कि इनके रहते दयानन्द के अपने शब्दों में "परस्पर एकतामेल-मिलाप या सद्‌भाव न रहकर ईर्ष्याद्वेषविरोध और लड़ाई-झगड़ा ही होगा।" यदि ऐसे पाखण्ड न चलते तो आर्यावर्त्त की दुर्दशा क्यों होती?

    दयानन्द ने सबसे अधिक खण्डन मूर्तिपूजा का किया है। इस प्रकरण में उन्होंने मूर्त्तिपूजा से होनेवाली सोलह हानियों का उल्लेख किया हैजिनमें से अधिकतर का सम्बन्ध उसके कारण देश को होनेवाली हानियों से है। वे लिखते हैं, "नाना प्रकार की विरुद्ध स्वरूप-नाम-चरित्रयुक्त मूर्तियों के पुजारियों का ऐक्यमत नष्ट होके विरुद्धमत में चलकर आपस में फूट बढाके देश का नाश करते हैं। जो मूर्ति के भरोसे शत्रु की पराजय और अपना विजय मानके बैठे रहते हैं उनका पराजय होकर राज्यस्वातन्त्र्य और सुख उनके शत्रुओं के अधीन हो जाता हैक्यों पत्थर पूजकर सत्यानाश को प्राप्त हुएदेखोजितनी मूर्तियॉं पूजी हैं उनके स्थान में शूरवीरों की पूजा करते तो कितनी रक्षा होती?"

    राष्ट्रोत्थान के लिए एकता आवश्यक है। दयानन्द ने "सत्यार्थप्रकाश" में अनेकत्र इस बात पर बल दिया है। उनका कहना है, "जब तक एक मतएक हानि-लाभएक सुख-दु:ख न मानें तब तक उन्नति होना बहुत कठिन है।" जब भूगोल में एक मत थाउसी में सबकी निष्ठा थी और एक-दूसरे का सुख-दु:खहानि-लाभ आपस में समान समझते थे तभी तक सुख थापरन्तु दयानन्द के अनुसार "भिन्न-भिन्न भाषापृथक्‌-पृथक्‌ शिक्षाअलग-अलग व्यवहार के विरोध का छूटना अतिदुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है।" एकता-सम्मेलन समझौते का आधार बन सकते हैंएकता का नहीं। समझौतों से सामयिक समस्या का समाधान भले ही हो जाएउसमें स्थायित्व नहीं आ सकता। ऐसे उपायों से रोग दब सकता हैकिन्तु नष्ट नहीं हो सकता। इतना ही नहींकालान्तर में वह और भी उग्र रूप धारण कर सकता है।

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    एक दिन श्री मोहनलाल विष्णुलाल पण्ड्‌या ने स्वामी दयानन्द से पूछाभगवन्‌ ! भारत का पूर्ण हित कब होगायहॉं जातीय उन्नति कब होगीस्वामीजी ने उत्तर दिया, "एक धर्मएक भाषा और एक लक्ष्य बनाए बिना भारत का पूर्ण कित और जातीय उन्नति होना कठिन है। सब उन्नतियों का केन्द्रस्थान ऐक्य है। जहॉं भाषाभाव और भावना में एकता आ जाए वहॉं सागर में नदियों की भॉंति सारे सुख एक-एक करके प्रवेश करने लगते हैं। मैं चाहता हूँ कि देश के राजा-महाराजे अपने शासन में सुधार और संशोधन करें। अपने राज्य में धर्मभाषा और भावों में एकता करें। फिर भारत में आप ही सुधार हो जाएगा।"

    महात्मा गॉंधी ने स्वदेशी के लिए आन्दोलन किया था। उनका वह आन्दोलन स्वदेशी वस्त्रों या खादी तक सीमित था। वर्तमान में एक बार फिर इस प्रकार के आन्दोलन का सूत्रपात हुआ है जिसका लक्ष्य भारत में विदेशी या अर्धविदेशी कम्पनियों द्वारा निर्मित वस्तुओं का बहिष्कार करना बताया जाता है।

    दयानन्द ने अपने समय में देश की आर्थिक समस्याओं पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया। विचार ही नही  किया अपितु निश्चित योजना भी बनाई और तदर्थ विदेशों से पत्र-व्यवहार भी किया। दैवगति से उन्हें अपनी योजनाओं को कार्यान्वित करने का अवसर नहीं मिला। स्वामीजी इस बात को बड़ी पीड़ा के साथ अनुभव करते थे कि विदेशी माल की खपत से कितनी हानि हो रही है। उन्होंने "सत्यार्थप्रकाश" में लिखा, "जब परदेशी हमारे देश में व्यापार करें दो दारिद्र्‌य और दु:ख के बिना दूसरा कुछ भी नहीं हो सकता।" देश की आर्थिक स्थिति को सुधारने के उद्‌देश्य से विदेशी वस्तुओं और रहन-सहन का बहिष्कार करने और स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने की प्रेरणा करते हुए उन्होंने बड़े मर्मभेदी शब्दों में कहा, "इतने से ही समझ लेओ कि अंग्रेज अपने देश के जूते का भी जितना मान करते हैं उतना भी अन्य देशस्थ मनुष्यों का नहीं करते। देखोकुछ सौ वर्ष से ऊपर इस देश में आये यूरोपियनों को हो गये और आज तक ये लोग वैसे ही मोटे कपड़े आदि पहनते हैंजैसेकि स्वदेश में पहनते थेपरन्तु उन्होंने अपने देश का चलन नहीं छोड़ा। तुममें से बहुत-से लोगों ने उनकी नकल कर ली। अनुकरण करना बुद्धिमानों का काम नहीं। इससे तुम निर्बुद्धि और वे बुद्धिमान ठहरते हैं। वे अपने देशवालों को व्यापार में सहायता देते हैंइत्यादि गुणों और अच्छे कर्मों से उनकी उन्नति है।

    "अन्य देशस्थ मनुष्यों का भी उतना मान नहीं करते जितना अपने देश के जूते का" लिखनेवाले के मन में कितनी पीड़ा रही होगीअपने देश की दीन-हीन दशा देखकर कितनी तीव्र घृणा रही होगी उसके हृदय में विदेशी शासन और विदेशी वस्तुओं के प्रयोग के प्रति! छावली निवासी ठाकुर ऊधोसिंह को विदेशी वेशभूषा में देखकर उन्होंने बड़े मार्मिक शब्दों में कहा था, "क्या तुम विदेशी कपड़ों से बने इस नये वेश से विभूषित होकर अपने पिताजी से अधिक सुसंस्कृत हो गये हो।?" -श्रीमद्दयानन्द प्रकाश

    स्वामीजी से प्रेरणा पाकर बड़ी संख्या में आर्यसमाजी स्वदेशी वस्त्रों का प्रेरणा करने लगे थे। लाहौर की आर्य समाज के सभासदों द्वारा अंग्रेजी वस्त्रों का प्रयोग न करने और स्वदेशी वस्त्रों का ही प्रयोग करने के निर्णय का समाचार "स्टेट्‌समैन" के 14 अगस्त 1879 के अंक में इस प्रकार प्रकाशित हुआ था-

    ‘The present condition of India is one of rapidly increasing improverishment. In this condition of the country, there is no public question of such high importance and absorbing interest as the question of the rivival of our trades and industries. The action of the members of Lahore Arya Samaj, founded by the learned Pandit Dayanand Saraswati should, therefore, be hailed with satisfaction by those who have the interest and welfare of this country at heart. They resolved at a meeting held at the premises of the Arya Samaj building to abstain from the use of English clothes. Hence foreward they will stick to the clothes manufactured solely in India. If they can fulfil their promises, and others follow their example, a great object will be gained. This is the only way be which the influence of Manchaster can be counteracted in the Indian market.’

    अर्थात्‌ "भारत की वर्तमान अवस्था तेजी से बढती हुई दरिद्रता की है। देश की इस अवस्था में अपने धन्धों और उद्योगों की पुन: बहाली का प्रश्न जितना महत्त्वपूर्ण और रोचक है उतना अन्य कोई सामाजिक प्रश्न नहीं है। अत: विद्वान्‌ मनीषी दयानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित लाहौर आर्यसमाज के सदस्यों के कदम का सन्तोष के साथ अभिनन्दन उन सब लोगों को करना चाहिए जिनके हृदय में देश का हित है। आर्यसमाज भवन के परिसर में हुई एक बैठक में उन्होंने अंगे्रजी कपड़ों के उपयोग से विरत होने का निश्चय किया है। आगे से वे केवल भारत में बने कपड़ों का हठ रखेंगे। यदि वे अपने वचनों को क्रियान्वित कर सके और अन्य लोग उनके उदाहरण का अनुकरण कर पाये तो एक महान्‌ लक्ष्य पूरा हो जाएगा। भारतीय बाजार में मैंचेस्टर के प्रभाव का जवाब देने का यह एक उपाय हैं।"

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    Of course, Christians have worked together to strengthen the shackles of our slavery by mixing the shoulders of the British. As long as there is a sense of self-respect among the people of a country, then the stability of foreign rule remains in question. To destroy this sentiment, Christianity tried to instill a sense of inferiority in them by calling Hindustani rude and wild. 

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