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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-14

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    खण्डन- ऋषि दयानन्द का प्रादुर्भाव ऐसे समय में हुआ जब भारत अज्ञानान्धकार में बुरी तरह डूबा हुआ था। सबसे बुरी बात तो यह थी कि धर्म के नाम पर अधर्म हो रहा था। व्यभिचार तक को धर्म का प्रश्रय प्राप्त था। अतएव सभी सुधारक खण्डन में प्रवृत्त थे। वस्तुत: खण्डन और मण्डन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं- एक ही क्रिया के दो भाग हैं- एक विनाशक है तो दूसरा विधायक। घास-फूँस काटकर फेंकना विनाशक है तो बीजारोपण करना विधायक है। किसान या माली खेत या बगीचे में उत्पन्न खरपतवार या हानिकारक घास-पात को उखाड़कर फेंकता है और उपयोगी पौधों को खाद-पानी देकर पुष्ट करता है। तब अपेक्षित अन्न प्राप्त होता है। इससे खण्डन और मण्डन एक-दूसरे के पूरक ठहरते हैं। समाज के हितैषी महापुरुष समाज में व्याप्त दोषों,अन्धविश्वासों और कुरीतियों को दूर करके उसके विकास में सहायक विचारों का प्रचार व प्रसार करते हैं। शरीर को हानि पहुँचा रहे अंग को काटकर फेंक देना और उसके स्थान पर स्वस्थ अंग का प्रत्यारोपण करना शरीरशास्त्र की दृष्टि से खण्डन-मण्डन ही तो हैं।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    दुःख की निवृति एवं सुख-प्राप्ति के वैदिक उपाय
    Ved Katha -16 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    निर्माण कार्य में बाधक चट्टानोंजङ्गलोंकुओंतालाबों आदि को नष्ट करके धरती को समतल किये बिना उस पर निर्माण नहीं होता। इसी प्रकार समाज में व्याप्त दोषों को दूर किये बिना समाज-सुधार के कार्य में पूर्ण सफलता नहीं मिल सकती। सदसत्‌ प्रवृत्तियों का संघर्ष मानवमात्र में सदा से चला आता है। सद्‌गुणरूपी दैवी सेना तथा दुर्गुणरूपी आसुरी सेना दोनों आमने-सामने खड़ी रहती हैं। दोनों ने अपनी-अपनी व्यूह रचना व्यवस्थित कर रक्खी है। वेद में "भद्रमासुव" से पहले "दुरितानि परासुव" कहा है। जब तक "दुरित" दूर होकर जगह खाली नहीं करेंगे तब तक "भद्र" को स्थान कैसे मिलेगा ! गीता में भी "परित्राणाय साधूनाम्‌" के साथ ही "विनाशाय च दुष्कृताम्‌" भी कहा है। दुष्टों का दमन किये बिना सज्जनों की रक्षा नहीं हो सकती। राक्षसों का संहार किए बिना श्रेष्ठतम कर्म यज्ञ का सम्पादन नहीं हो सकता था। इसलिए ऋषियों को क्षत्रिय कुमारों की आवश्यकता पड़ी- "शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्रे शास्त्र चर्चा प्रवर्त्तते"। समाज में क्षत्रिय खण्डन का प्रतीक है तो ब्राह्मण मण्डन का। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।

    समस्त दु:खों या पापों का मूल अविद्या है। ज्ञानविद्या तथा सत्य पर्यायवाची हैं। इसी प्रकार अविद्याअज्ञान और असत्य एकार्थवाची हैं। दवाई की जगह जहर की शीशी चाहे जानकर पी जाएचाहे अनजानेदोनों का परिणाम एक ही है- मृत्यु। सुकरात ने अपने मुकदमे के दौरान कहा था-"अज्ञान के बिना पाप हो ही नहीं सकता। जिसे तुम पाप कहते होवह अज्ञान ही है।" जिसके बिना कोई  पाप हो ही नहीं सकतावह (अज्ञान) स्वयं महा पाप है। कानून का अज्ञान अपराध करने का बहाना नहीं हो सकता (lgnorance of law is no excuse)। ईश्वरीय कानून को न जानना सबसे बड़ा अपराध है। इसलिए समाज का परिष्कार करनेवालों ने सदा अज्ञान-असत्य को मिटाकर सदा ज्ञान-सत्य का प्रचार-प्रसार करना ही अपने जीवन का उद्‌देश्य बनाया।

    देर-सवेर सभी को खण्डन का आश्रय लेना पड़ता है। जब सामान्य ओषधोपचार से काम नहीं चलता तो आपरेशन के लिए सर्जन को चाकू चलाना पड़ता है। इस सन्दर्भ में स्वामी विवेकानन्द का निम्न वक्तव्य द्रष्टव्य है-

    "संसार को समय-समय पर कठोर आलोचना की भी आवश्यकता होती है (हिन्दू धर्मपृ.56)। प्रत्येक कलुषित असत्य के प्रति मैं मधुर और अनुकूल नहीं बन सकता (पत्रावली भाग 2पृ.71)। मैं मधुर बनने का भरसक प्रयत्न करता हूँपरन्तु जब अन्तरस्थ सत्य से समझौता करने का अवसर आता है तब मैं रुक जाता हूँ (वही पृ. 70)। हमारे  बहुतेरे कुसंस्कार हैंहमारी देह पर बहुत-से काले धब्बे और हानिकारक घाव हैं- उन्हें चीर-फाड़ करके एक दम निकाल देना होगा। नहीसमझौता नहींलीपा-पोती नहींगले-सड़े मुर्दों को फूलों से न ढको (विवेकानन्द चरितपृ. 376)। यदि हम देखें कि परम्परा-प्राप्त आचार-विचार समाज के विकास व परिपुष्टि के मार्ग में बाधक हैंयदि वे हमारे विशुद्धज्ञान की प्राप्ति में रोड़े सदृश हैं तो हम जितनी जल्दी उनका त्याग कर दें उतना अच्छा है (विवेकानन्द चरित168)। पुरातन पौराणिक घटनाओं को रूपक मानकर चिरस्थायी करने की चेष्टा करने और इस प्रकार उन्हें महत्त्व देने से कुसंस्कारों की उत्पत्ति होती है और यह सचमुच दुर्बलता है। असत्य के साथ कभी भी और किसी प्रकार का समझौता नहीं करना चाहिए। सत्य का उपदेश दो और किसी प्रकार से भी असत्य के पक्ष में युक्ति देने की चेष्टा मत करो (देववाणी पृ. 161)। उन पाखण्डी पुरोहितों को जो सदा उन्नति के मार्ग में बाधक होते हैंनिकाल बाहर करोक्योंकि उनका कभी सुधार नहीं होगा (पत्रावली भाग 1पृ.65)। पौरोहित्य की बुराइयों को ऐसा धक्का देना होगा कि वे एकदम चकराकर एटलांटिक सागर में जा गिरें (वही पृ.254)"।

    यह सर्वसम्मत तथ्य है कि महाभारत से पहले संसार में वेद से अतिरिक्त अन्य कोई धर्म नहीं था। महाभारत के पश्चात्‌ कुकुरमुत्तों की तरह फैले अवैदिक मतों का निराकरण आवश्यक था। इस दुरूह कार्य को करने का साहस दयानन्द- जैसा उद्भट विद्वान्‌ तथा सत्यनिष्ठनिष्पक्ष एवं निर्भीक महामानव ही कर सकता था। मत-मतान्तरों की आलोचना से दयानन्द का तात्पर्य था कि धर्म को तर्कसंगतयुक्तियुक्त एवं सहेतुक बनाया जाए। उसमें अन्धविश्वासों के लिए कोई स्थान न हो। बाबा वाक्यं प्रमाणम्‌ के स्थान पर सत्यासत्य की स्वयं परीक्षा करके सत्य को ग्रहण किया जाए और असत्य का परित्याग किया जाए। भगवान्‌ मनु का वचन है- "यस्तर्केणानुसन्धत्ते स धर्मं वेद नेतर:" - जो मनुष्य तर्क के द्वारा अनुसन्धान करता है वही धर्म के तत्व को जानता हैअन्य नहीं। पूर्वकाल में ऋषियों के न रहने पर मनुष्य देवजनों (श्रेष्ठ विद्वानों) के पास गये और जिज्ञासा की- "को न ऋषिर्भविष्यति?" अब कौन हमारा ऋषि होगा (निरुक्त 13.12)। देवजनों ने उन्हें तर्क नाम का ऋषि दिया। मनु के आदेश के अनुसार सत्यासत्य की परीक्षा के लिए धर्म पर तर्क की कैंची चलाना आवश्यक है। तर्करूपी कैंची से जो कट जाएसमझो वह तीन कौड़ी का है- धर्म ही नहीं है। दयानन्द ने वही किया। सत्यासत्य के लिए तर्क द्वारा परख करके असत्य का खण्डन और सत्य का मण्डन किया।

    अधिक समझदार लोगों को यह कहते सुना जाता है कि समालोचना तो ठीक हैपर खण्डन-मण्डन करना उचित नहीं है। वास्तव में लोग समालोचना से अंग्रेजी के Criticism का और खण्डन से Condemnation का ग्रहण करते हैं। ऐसा इसलिए है कि वे समालोचना शब्द के निहितार्थ को नहीं समझते। समालोचना शब्द "सम्‌+आ" उपसर्गपूर्व "लुच्‌" धातु से निष्पन्न होता है। इस प्रकार इसका अर्थ है किसी वस्तु को विधिपूर्वक हर प्रकार से अच्छी तरह देखना। विधिपूर्वक अच्छी तरह देखने में हम उस वस्तु के आकार-प्रकाररूप-रंगगुण-कर्म-स्वभाव एवं गुण-दोष के आधार पर उससे सम्भावित हानि-लाभ का विवेचन करते हैं। तभी हमें उस वस्तु का पूर्ण तथा यथार्थ ज्ञान होता है। दयानन्द के खण्डन की प्रक्रिया समालोचना से भिन्न नहीं है। दयानन्द ने सदा से चली आ रही परम्परा का ही अनुसरण किया है। उसमें किसी प्रकार का असामञ्जस्य अथवा अनौचित्य नहीं है।

    भारत में दार्शनिक सम्प्रदायों में खण्डन-मण्डन सदा से चला आया है। समन्वयवाद के नाम पर यह कहना कि "अपनी-अपनी जगह सब ठीक है" आधुनिकता या भलमनसाहत की पहचान बन गया हैकिन्तु इस "रामाय स्वस्ति:रावणाय स्वस्ति:" की उपलब्धि तो शून्य है। वह आत्म-प्रवंचन या भ्रमजाल से अधिक कुछ नहीं। कुछ करने की भावनावाले खण्डन में प्रवृत्त हुए बिना नहीं रह सकते। "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" का उद्‌घोष करनेवाले आदि शंकराचार्य सारा जीवन जैनबौद्ध और चार्वाक आदि नास्तिक मतों का खण्डन करने में ही लगे रहे। सिद्धान्तभेद के कारण मण्डन मिश्र जैसे वैदिक मतावलम्बी को भी ललकारने में संकोच नहीं किया। समन्वयवाद का आदर्श माने जानेवाले क बीर ने तो सबको खरी-खोटी सुनाईं हीकबीर की अपेक्षा कहीं अधिक सौम्य नानकदेव भी दूसरे मतों का खण्डन करने में पीछे नहीं रहे।

    खण्डन में भी स्वामीजी कितने सन्तुलित रहेइसका पता 11वें समुल्लास का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन करने पर चलता है। उन्होंने गुरु नानक तथा गुरु गोविन्द सिंह की आलोचना की है। गुरु नानक से सम्बन्धित आपत्तिजनक अंश इस प्रकार है-"विद्या कुछ भी नहीं थी.... वेदादिशास्त्र और संस्कृत कुछ भी नहीं जानते थे। मान-प्रतिष्ठा के लिए कुछ दम्भ भी किया होगा।"परन्तु जहॉं स्वामीजी ने यह लिखावहॉं ये स्तुतिपरक वाक्य भी लिखे हैं- "नानक जी का आशय अच्छा था। उस समय उन्होंने कुछ लोगों को (मुसलमान होने से) बचाया।"

    इन शब्दों से स्पष्ट है कि स्वामीजी के मन में गुरु नानक के प्रति दुर्भावना न होकर प्रशंसा के भाव थे। उनका (गुरु नानक) का संस्कृत से और वेदशास्त्र से अनभिज्ञ होना तो निर्विवाद हैपरन्तु इसके लिए भी उन्होंने गुरु नानक को नहींतत्कालीन परिस्थितियों को दोषी ठहराया है। उन्होंने लिखा है- "उस समय पंजाब संस्कृतविद्या से रहित और मुसलमानों से पीड़ित था।" गुरु नानक सम्बन्धी गपोड़ों के लिए स्वामीजी लिखते हैं-"इसमें उनके चेलों का दोष हैनानकजी का नहीं।" गुरु नानक द्वारा प्रवर्तित भक्तिभावना के विषय में उन्होंने लिखा है- "नानकजी ने कुछ भक्तिविशेष ईश्वर की लिखी थीउसे करते जाते तो अच्छा था।" इस प्रकार भक्ति-आन्दोलन के सन्दर्भ में भी गुरु नानक के उसके परित्याग के लिए भी उनके अनुयायियों को दोष दिया है।

    दशम गुरु गोविन्दसिंह के विषय में स्वामीजी ने लिखा है- "गुरु गोविन्दसिंह शूरवीर हुए। पंच ककार की रीति उन्होंने बुद्धिमत्ता से की। इन सब (अर्थात्‌ सिख गुरुओं) ने भोजन का बखेड़ा बहुत-सा हटाया। जैसे इसको हटाया वैसे विषयासक्तिदुरभिमान को भी हटाकर वेदमत की उन्नति करें तो बहुत अच्छी बात है।" स्वामी दयानन्द वेदों के प्रकाण्ड विद्वान्‌ थे। वे वेदों को सब विद्याओं का मूल मानते थे और उन्हीं के अपनाए जाने में वे मनुष्य मात्र का कल्याण मानते थे। इसलिए वेद विरोधी सभी मतों और उनके प्रवर्तकों की आलोचना की। इसमें उन्होंने कहीं भी पक्षपात नहीं किया। पंजाब में एक ऐसा समय था जब उच्चवर्ग के हिन्दू दलित व पिछड़ेवर्ग के लोगों को अछूत मानते थे। हिन्दुओं में ही नहींअपने को हिन्दुओं से अलग माननेवाले सिखों में भी मजहबीगुलाबदासीरैदासीकबीरपन्थी आदि को भी अछूत समझा जाता था। उस समय ऐसे लोगों को सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने के लिए भी आन्दोलन करना पड़ा। उच्चवर्ग (सवर्णों) की तुष्टि के लिए उनके शुद्धि संस्कार और दलितों के सन्तोष के लिए बड़े स्तर पर सहभोजों आदि की व्यवस्था की जाती थी। इन पंक्तियों के लेखक को अपने पिताश्री के साथ अनेक बार ऐसे शुद्धि-संस्कारों तथा समारोहों में सम्मिलित होने का अवसर मिला। इस प्रकार शुद्ध होकर समाज में प्रतिष्ठित होनेवाले लोग स्वाभाविक रूप से अपने को आर्यसमाजी मानकर महाशय जीआर्य जी आदि नामों से पुकारें जाने में गौरवान्वित अनुभव करने लगे। 

    दयानन्द पर खण्डन का आरोप लगाते समय तत्कालीन विशेष परिस्थियों परविचार करना आवश्यक है। हमें भी पिछले पृष्ठों में आलोचना का आश्रय लेगा पडा। ‘All that glitters is not gold’ इसलिए खरे-खोटे की पहचान करने-कराने के लिए अपेक्षित कसौटियों पर कसना,घिसना आवश्यक था।

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    When accusing Dayanand of rebuttal, it is necessary to consider the then special circumstances. We also had to take criticism in the previous pages. 'All that glitters is not gold', therefore, it was necessary to tighten and weave the required criteria in order to identify the mold.

     

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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-4

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    वस्तुत: विवेकानन्द का मूर्त्तिपूजा के प्रति आग्रह उनके अनेक प्रकार के अन्धविश्वासों के कारण था। इसीलिए एक स्थान पर उन्होंने लिखा है- "यदि मूर्त्तिपूजा में नाना प्रकार के कुत्सित विचार भी प्रविष्ट हो जाएँ तो भी मैं उसकी निन्दा नहीं करूँगा।" - (विवेकानन्द-चरित, पृष्ठ 146)

    मूर्त्तिपूजा की बात करते समय स्वामी विवेकान्नद विवेक को ताक पर रख देते थे,यह निम्नलिखित घटना से स्पष्ट हो जाता है-

    “When Miss noble came to India in January 1898 to work for the education of India, he gave her the name of Sister Nivedita. At first he taught her to worship Shiva and then made the whole ceremony eliminate in an offering at the feet of Buddha.” - Vivekanand A Biography by Swami Nikhilanand, P. 260

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    सुखी जीवन के रहस्य
    Ved Katha Pravachan _27 (Vedic Secrets of Happy Life & Happiness) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    शिक्षासम्बन्धी कार्य के लिए आने वाली विदेशी महिला को पहले शिवजी की पूजा सिखाना और उसकी विधि पूरी हो जाने पर शिव-पूजा के विरोधी महात्मा बुद्ध के चरणों पर चढानाइन दो परस्पर विरोधी कृत्यों का विधान कहॉं मिलता है और किस प्रकार इनकी संगति बिठाई जा सकती है?

    श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द की आराध्य देवी की निर्दोष प्राणियों की हत्या से पूजा होना और उनका खून पीकर उसका तृप्त होना सर्वविदित है। उसके भक्तों में दया-ममता की कल्पना कैसे की जा सकती हैउक्त-जीवनी में उसके विषय में लिखा है- “One day in the Kali temple of Calcutta a western lady shuddered at the sight of blood of goats, sacrificed before the mighty, and exclaimed- ‘Why is there so much blood before the Godess?’ Quickly the Swami (Vivekanand) replied- ‘Why not a little blood to complete the picture?” -Ibid. 261

    स्वामी विवेकानन्द की फ्रैंच भाषा में प्रकाशित जीवनी के लेखक रोम्यॉं रोलॉं के अनुसार रामकृष्ण एक मुसलमान से प्रभावित होकर अपना धर्मपरिवर्तन करने और गोमांस खाने के लिए तैयार हो गये थे। इस प्रसंग में मैक्समूलन ने लिखा है-“For long days the (Ramkrishna) subjected himself to various kinds of discipline to realise the Mohammadon idea of all powerful Allah. He let his beard grow, he fed himself on Muslim diet, he ocmpletely repeated the Koran.” - A Real Mahatman, P. 35. 

    स्वामी विवेकानन्द के इस्लाम के गीत गाने का कारण अपने गुरु के प्रति अन्धभक्ति का अतिरेक था। रामकृष्ण मिशन ने अपने हिन्दु न होने के पक्ष में जो तर्क और प्रमाण कलकत्ता हाईकोर्ट में प्रस्तुत किये थेउनका एक अंश अहमदाबाद से प्रकाशित होनेवाले Times of Indiaके 23 जनवरी 1886 के अंक से यहॉं उद्‌धृत किया जा रहा है-“During his practice of Islam he repeated the name of Allah and said Namaz thrice daily. During this while he dressed and ate like a Muslim. Another biographical work ‘Ramkrishna Panth’ by Akshoy Sen, provides some more details. A Muslim cook was brought who instructed the brahman cook how to wear a lungi and cook like the Muslim way. We are also told that at this time Ramkrishna felt a great urge to take beef. However, this urge could not be satisfied openly. But one day as he sat on the bank of the Ganges, a carcase of a cow was floating by. He entered the body of a dog astrally and tasted the flesh of the cow. His Muslim Sadhana was now complete.

    All this is highly comic but it holds an important position in the mission. The lawyears of mission did not forget to argue in the court that Ramkrishna was on the verge of eating beef. This was meant to prove that he was an indifferent Hindu and not far from being a devout Muslim.” The mission won the case.

    उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि रामकृष्ण में इस्लाम और गोमांसभक्षण के प्रति ललक थी। इसी प्रयोजन से वे अल्लाह का नाम जपते थे और दिन में तीन बार नमाज पढते थे। मुसलमानों-जैसी वेशभूषा भी उन्होंने अपना ली थी। एक मुस्लिम रसोइया उनके ब्राह्मण रसोइये को मुस्लिम खाना बनाना सिखाता था। उस समय रामकृष्ण को गोमांस खाने की इच्छा हुई। इस इच्छा को खुलकर पूरा करना सम्भव नहीं था। कालान्तर में तो उनके परम शिष्य स्वामी विवेकानन्द ने खुलकर मांस खाया हीदूसरों को भी वैसा ही करने की प्रेरणा दी। इतना ही नहींवैदिक कालीन ब्राह्मणों पर गोमांस भक्षक होने का आरोप लगाया।

    एक दिन जब रामकृष्ण गंगातट पर बैठे थे तो उन्होंने एक गाय के शव को गंगा में बहते देखा। उसे देखते ही उनके मुँह से लार टपकने लगी। तभी उन्होंने पास ही एक मरे हुए कुत्ते को देखा। झट से उस कुत्ते के शरीर में प्रवेश करके उन्होंने गोमांस का रसास्वादन किया । इस प्रकार उनकी मुस्लिम साधना पूर्ण हुई।

    स्वामी विवेकानन्द एक स्थान पर लिखते हैं-“Too much faith in personality has a tendency to produce weakness and idolatory.” - II, 84-85

    व्यक्तिविशेष में श्रद्धा का अतिरेक बौद्धिक निर्बलता तथा मूर्त्तिपूजा को जन्म देता हैपरन्तु जब रामकृष्ण की बात आती है तो उनकी (विवेकानन्द की) श्रद्धा का अतिरेक सब अतिरेकों की सीमा को लॉंघ जाता है और तब वे कहते हैं-“Through thousands of years the lives of the great prophets of yore came down to us, and yet, none stands so high in brilliance as the life of Ramkrishna Paramhansa.” - II,312

    हजारों वर्षों में प्राचीनकाल के अनेक सिद्ध पुरुषों के जीवन हमारे सामने आयेपरन्तु उनमें से एक भी रामकृष्ण की ऊँचाई को न छू सका।

    इतना ही नहींपत्रावली भाग 1पृष्ठ 138 पर संस्कृत के एक श्लोक को उद्धृत कर विवेकानन्द जी अपने आराध्यदेव रामकृष्ण को ब्रह्माविष्णु और शिव तीनों से बढाकर साक्षात्‌ नारायण का अवतार कहते हैं। गुरु के प्रति श्रद्धा के इस अतिरेक ने उन्हें उनकी अपनी ही मान्यता के विपरीत मूर्त्तिपूजक और इतना निर्बल बना दिया कि वे विवेकशून्य हो गये और मन्दिरों में स्थापित मूत्तियों के स्थान पर वे रामकृष्ण की पादुकाओं को पुष्प अर्पित कर उनकी प्रतिमा पर क्षीरभोग चढाने लगे। -विवेकानन्दजी के सङ्ग मेंपृ. 139

    "भगवान्‌ रामकृष्ण परमहंस ईश्वर के अवतार थेइसमें मुझे तनिक भी सन्देह नहीं है। भगवान्‌ श्रीकृष्ण का जन्म हुआ ही थायह हम निश्चितरूप से नहीं कह सकते और बुद्ध व चैतन्य-जैसे अवतार पुराने हैंपर श्री रामकृष्ण सबकी अपेक्षा आधुनिक और पूर्ण है" (पत्रावली 256)। इस प्रकार रामकृष्ण और बुद्ध की ऐतिहासिकता को नकारते हुए उन्हें रामकृष्ण से हीन सिद्ध करने के लिए वे यह कहने में संकोच नहीं करते कि "उनकी (रामकृष्ण की) पवित्रताप्रेम और ऐश्वर्य का कणमात्र प्रकाश ही रामकृष्णबुद्ध आदि में था।" - पत्रावली भाग 1187

    स्वामी विवेकानन्द इतना भी नहीं सोच सके कि अन्य सभी महापुरुष रामकृष्ण के पूर्ववर्ती थे। पूर्ववर्तियों में पश्चाद्वर्ती का प्रकाश आएगा या पश्चाद्वर्ती में पूर्ववर्ती का।

    श्री रामकृष्ण के सम्बन्ध में विवेकानन्द जी के अधिकांश कथन सर्वथा हास्यास्पद तथा अविश्वसनीय हैं। अन्यान्य महापुरूषों की तुलना करने में तो वे औचित्य की सभी सीमाओं का अतिक्रमण कर जाते हैं और उन्हें चमत्कारी पुरुष सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। उदाहरणार्थ- "उन-(रामकृष्ण)- पर जिनका विश्वास नहीं है और उनमें जिनकी भक्ति नहीं हैउनका कुछ नहीं होगा।" -पत्रावली भाग 1पृ.188

    रामकृष्ण को महिमामण्डित करने के लिए विवेकानन्द इतिहास को यदृच्छया बदलने और अपने को उपहास का पात्र बनाने में भी संकोच नहीं करते। उनके अनुसार "सत्ययुग का आरम्भ रामकृष्ण के अवतार की जन्मतिथि से हुआ।" - पत्रावली भाग 1पृ. 188

    विवेकानन्द को इतना भी ज्ञान नहीं कि सत्ययुग का आरम्भ और अन्त हुए लाखों वर्ष बीत चुकेजबकि कलयुग का आरम्भ हुए लगभग पॉंच हजार और रामकृष्ण को पैदा हुए केवल 60 वर्ष बीते थे।

    जैसाकि हम स्वयं विवेकानन्द के ग्रन्थों के सम्पादक के शब्दों में स्पष्ट करेंगेउनके लेखों तथा व्यक्तव्यों में परस्पर विरोधी वचनों की भरमार है। इस कारण उनकी कथनी और करनी में सामंजस्य का अभाव है। स्वामी जी लिखते हैं-

    “The dead never return, the past night does not reappear. Neither does man inhabit the same body ever again.” - II, 185

    अर्थात्‌ मरनेवाला वापस नहीं आता। मरने के बाद मनुष्य उसी शरीर में फिर नही आताकिन्तु रामकृष्ण को लोकोत्तर अवतारी पुरूष अथवा ईश्वर का अवतार सिद्ध करने के लिए विवेकानन्द रामकृष्ण के शव को भस्म करने के बाद भी उनका अपने उसी शरीर में दर्शन देना स्वीकार करते हैं-“Within a week of the Master’s passing away Narendra was one night strolling in the garden with a brother disciple, when he saw a luminous figure. There was no making. It was Shri Ramkrishna himself. Narendra remained silent, regaridng the phenomenon as an illusion. But his brother disciple exclaimed in wonder. ‘See, Naren! See?’ There was no room for further doubt. Narendra was convinced that he was Ramkrishna who appeared in a luminous body. As he called the other brother discipes to behold, the Master, disappeared. - Bio. 69

    श्री रामकृष्ण की मृत्यु के एक सप्ताह के बाद एक दिन वे अपने एक गुरुभाई के साथ बाग में घूम रहे थे कि उन्हें अपने सामने एक द्युतिमान शरीर दिखाई दिया। इसमें भ्रम की कोई गुंजाइश नहीं थी। निश्चय ही वे स्वयं रामकृष्ण थेपरन्तु हो सकता हैयह उनके मन का भ्रम ही होइसलिए वे मौन रहे। इतने में उनका गुरुभाई आश्चर्यचकित हो चिल्लाया-"देखो ! नरेन्द्र देखो।" अब सन्देह के लिए कोई स्थान नहीं था। नरेन्द्र को विश्वास हो गया कि द्युतिमान शरीर में प्रकट होनेवाले रामकृष्ण ही थे।

    जब स्वयं विवेकानन्द के अपने कथनानुसार आत्मा पुन: उसी शरीर में नहीं आती तो रामकृष्ण कैसे आ गयेशरीर के भस्म होने के बाद उसके परमाणु अथवा अन्य कोई परमाणु स्वत: रामकृष्ण का शरीर धारण कर सकते हैं तो सृष्टिरचयिता चेतन ब्रह्म की आवश्यकता क्या रहीऐसी ऊटपटाङ्ग बात विवेकानन्द-जैसे मस्तिष्क में ही आ सकती हैअन्यथा कोई अबोध बालक भी इसे स्वीकार नहीं करेगा।

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    One day when Ramakrishna was sitting on the Ganges, he saw the body of a cow flowing into the Ganges. Seeing him, saliva started dripping from his mouth. Then he saw a dead dog nearby. He quickly tasted the beef by entering the body of the dog. Thus his Muslim practice was completed.

     

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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-5

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    स्वामी विवेकानन्द– स्वामी विवेकानन्द का परिचय देने की आवश्यकता नहीं है। उन्हें समन्वयवादी प्रवृत्ति का महापुरुष माना जाता है, परन्तु उनके ग्रन्थों से उनका वैसा स्वरूप उभरकर सामने नहीं आता। उनके भाषणों तथा लेखों में परस्पर विरोधी विचारों की भरमार है। पदे-पदे वदतोव्याघात के उदाहरण के उदाहरण मिलते हैं। इस बात को ध्यान में रखकर ‘Teaching of Swami Vivekanand’ के सम्पादक ने अपनी भूमिका में लिखा है-

    “Vivekanand was the last person to worry about formal consistency. He almost always spoke extempore, fired by the circumstances of the moment, addressing himself to the condition of a particular group of hearers, reacting to the intent of a certain question. That was his nature and he was supremly indifferent if his words of today seemed to contradict those of yesterday.”

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    धार्मिक शंका समाधान - प्रश्नों के उत्तर
    Ved Katha Pravachan _26 (Vedic Remedies for Wealth) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    स्वामी विवेकानन्द के विचार- यहॉं हम विभिन्न शीर्षकों के अन्तर्गत स्वामी जी के विचारों को उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत कर रहे हैं। हमारे उद्धरणों का स्रोत अद्वैत आश्रम कलकत्ता से प्रकाशित निम्नलिखित दो प्रामाणिक ग्रन्थ हैं-

    1. Vivekanand- A Biography by Swami Nikhilanand Saraswati.

    2. Teachinngs of Swami Vivekanand.

    सुविधा के लिए हमने बार-बार पुस्तक का नाम न लिखकर उपर्युक्त क्रम के अनुसार I और II लिखकर पृष्ठ सं लिख दी है।

    खान-पान1. “To the accusation from some Hindus that the Swami was eating forbidden food, he retorted- ‘If the people of India want me to keep strictly to Hindu diet, please tell them to send me a cook and money enough to keep him.”  -I, 129

    जब कुछ लोगों ने स्वामी विवेकानन्द के गोमांस खाने पर आपत्ति की तो उन्होंने कहा कि यदि भारत के लोग चाहते हैं कि मैं हिन्दूधर्म में निषिद्ध भोजन न करूँ तो उनसे कह दो कि मुझे एक रसोइया भेज दें और उसके वेतन की भी व्यवस्था कर दें ।

    किसी शाकाहारी महापुरुष ने कभी ऐसी बेहूदा मॉंग नहीं की होगी।

    2. “Orthodox Brahmans regarded with abhorrance the habit of animal food. The Swami told them about the habit of beef eating by Brahmans in Vedic times.” - I, 260

    ब्राह्मण मांसाहार से घृणा करते थे। स्वामी जी ने बताया कि वैदिक काल में ब्राह्मण गोमांस खाते थे। एक समय ऐसा भी था कि इसी भारत में मांस न खानेवाला ब्राह्मण नहीं माना जाता था। तुम वेद पढोतुम देखोगे कि जब कोई संन्यासी या राजा किसी के घर जाता था तब किस तरह और कैसे बकरों और बैलों के सिर धड़ से जुदा होते थे। - स्वामी विवेकानन्द से वार्तालाप - अनुवादस्वामी ब्रह्मस्वरूपानन्द

    बिना वेद पढे और बिना प्रमाण प्रस्तुत किये इस प्रकार के अनर्गल प्रलाप से स्वामी विवेकानन्द अपने गोमांस खाने और अपने गुरु द्वारा एतदर्थ प्रयत्न करने के कार्य को शास्त्रसम्मत सिद्ध करना चाहते थे।

    3. “He advocated animal food for the Hindus, if they were to cope at all with the rest of the world and find a place among the great nations.” - I,96

    उनका कहना था कि यदि हिन्दू समस्त संसार का मुकाबला करना चाहते हैं और बड़े-बड़े राष्ट्रों में अपना स्थान  चाहते हैं तो उनके लिए मांसभक्षण अनिवार्य है।

    4. “So long as vegetable food is not made suitable for human system there is no alternative to meat eating. What we now want is an immense awaking of Rajasik Shakti. So, I say, eat large quantities of flesh and meat.” - II, 70

    जब तक शाकाहार मानव शरीर के लिए उपयुक्त नहीं बन जाता तब तक मांसाहार ही उसका विकल्प है। अब हमें राजस शक्ति की आवश्यकता हैइसलिए मैं कहता हूँखूब मांस खाओ।

    यदि स्वामी विवेकानन्द को शरीर-शास्त्र का तनिक-सा भी ज्ञान होता तो कभी ऐसी मूर्खतापूर्ण बात न कहते। प्रकृति ने मनुष्य को जिस प्रकार के दॉंत और आँत दी हैंउनके अनुकूल शाकाहार ही हैमांसाहार कदापि नहीं। जहॉं तक शक्ति का सम्बन्ध है वह शाकाहारी Horse- Power के नाम से प्रसिद्ध हैमांसाहारी Lion-Powerके नाम से नहीं।

    5. एक भक्त ने स्वामी जी से पूछा-"मांस तथा मछली खाना क्या उचित और आवश्यक है?" स्वामीजी ने उत्तर दिया- "खूब खाओ भाईइससे जो पाप होगावह मेरा होगा.... वैदिक तथा मनु के धर्म में मछली और मांस खाने का विधान है।.... घास-पात खाकर पेट-रोग से पीड़ित बाबाजी के दल से देश भर गया है..... अत: अब देश के लोगों को मछलीमांस खिलाकर उद्यमशील बनाना होगा।" - विवेकानन्द के सङ्ग में267-70

    मांसाहार के सम्बन्ध में इस प्रकार के कुत्सित विचार उसी व्यक्ति के हो सकते हैं जिसने न वेद पढे हैं और न मनुस्मृति आदिन जिसे भारतीय संस्कृति का ज्ञान है और न शरीर-विज्ञान या चिकित्सा-शास्त्र की जानकारी।

    इस्लाम व ईसाइयत-1. “The vast majority of perverts to Islam and Christianity are perverts by the sword or descendents of those.” - Ibid. II. 13.

    मुसलमान और ईसाइयों में बहुत बड़ी संख्या उन लोगों की है जिनका धर्म-परिवर्तन तलवार के जोर से किया गया था या जो ऐसों की सन्तति हैं।

    2. “The Mohammdon religion allows Mahammdons to kill all those who are  not of their religion. It is clearly stated in Koran- ‘Kill the Infidles if they do not accept Islam. They must be put to fire and sword.” - II, 180

    इस्लाम उन लोगों को कत्ल करने की आज्ञा देता है जो उनके धर्म के मानने वाले नहीं हैं। कुरान में स्पष्ट लिखा है- काफिरों को मार डालो अगर वे इस्लाम को स्वीकार न करेंया तो उन्हें तलवार के घाट उतार देना चाहिए या आग में झोंक देना चाहिए।

    3. “The Mohammdons came upon the people of India always killing and slaughtering. Slaughtering and killing, they over-ran them.” - II, 151.

    वस्तुत: इस्लाम के खलीफा एक हाथ में कुरान और दूसरे में तलवार लेकर यही करते थे- "या इस्लाम स्वीकार करो या मौत को गले लगाओ।"

    इतना सब होने पर भी स्वामीजी कहते  हैं-

    1. “It is the followers of Islam and Islam alone who look upon and behave towards all mankind as their own soul.” - I, 254.

    केवल इस्लाम के अनुयायी ही ऐसे लोग हैं जो मनुष्य मात्र को अपनी आत्मा के समान मानते और वैसा ही व्यवहार करते हैं।

    2. “Without the help of Islam the theories of Vedant, however fine and wonderful they may be, are entirely valueless.” - I, 255.

    वेदान्त के सिद्धान्त कितने ही अच्छे और विलक्षण क्यों न होंइस्लाम की सहायता के बिना किसी काम के नहीं।

    3. “The spirit of democracy and equality in Islam appealed to Narendra’s (Vivekanand’s) mind and he wanted to create a new India with Vedantic brain and Islamic body.”    

    -I, 79.

    इस्लाम की लोकतन्त्र और समानता की भावना से विवेकानन्द बड़े प्रभावित थे और वे एक नया भारत बनाना चाहते थेजिसका शरीर इस्लाम का हो और मस्तिष्क वेदान्त का।

    4. एक ओर वे इस्लाम के थोथे भ्रातृभाव और उसकी तथाकथित सार्वभौमता की आलोचना करते हुए कहते हैं-"मुसलमान सार्वजनिक भ्रातृभाव का शोर मचाते हैंकिन्तु  वास्तविक भ्रातृभाव से कितनी दूर हैं। जो मुसलमान नहीं हैं वे उनके भ्रातृसंघ में शामिल नहीं हो सकते। उनके गले काटे जाने की ही अधिक सम्भावना है।" - धर्मरहस्यपृष्ठ 43

    दूसरी ओर स्वामीजी कहते हैं-

    “For our own motherland a junction of two great religious systems - Hinduism and Islam, is the only hope.” - I, 255. II, 218.

    हमारी अपनी मातृभूमि के लिए संसार के दो महान्‌ धर्मों हिन्दूधर्म व इस्लाम का मेल ही एकमात्र आशा है।

    “I see in my mind’s eye the future perfect India rising out of this chaos and strife, glorious and invincible, with a Vedantic brain and Islami body.” - II, 415-16.

    एक ओर "वसुधैव कुटुम्बकम्‌" का उद्‌घोष करने वाला भारत और मनुष्य को ही नहींप्राणिमात्र को ब्रह्म का रूप माननेवाला वेदान्त और दूसरी ओर मतभेद के कारण दूसरों की गर्दन काटने का आदेश देनेवाला (स्वयं स्वामी विवेकानन्द के पूर्वोद्‌धृत शब्दों में) इस्लाम इन दोनों में 36 का सम्बन्ध होने से मेल होना असम्भव है। संसार के सभी देशों में (विशेषत: भारत में) इसलाम के कारण जो खून की नदियॉं बही हैं और आज भी बह रही हैंइसका थोड़ा-सा भी ज्ञान यदि स्वामी विवेकानन्द को होता तो कभी ऐसी व्यर्थ की बातें न कहते।

    फिर एक जगह वे कह देते हैं- I want to lead mankind to the place where there is neither is neither Veda, nor the Bible, nor the Koran.” (I, 255.)अर्थात्‌ मैं संसार के लोगों को वहॉं ले-जाना चाहता हूँ जहॉं न वेद होन बाइबल और न कुरान।

    ऐसे स्थान का अता-पता उन्होंने नहीं दिया। वस्तुत: स्वामी विवेकानन्द के विचारों में सामंजस्य नहीं है। इसलिए उनके सम्पादक ने पहले ही कह दिया- “Vivekanand was the last person to worry about formal consistency.... That was his nature- and he was supremely indifferent if his words of today seemed to contradict those of yesterday.”

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    On the one hand, he criticizes the slight fraternity of Islam and its so-called universality - "Muslims make a noise of public fraternity, but how far away from genuine fraternity is. Those who are not Muslims cannot join their fraternity. Their throats It is more likely to be cut. " - Religion, page 43

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  • भाव परिवर्तन

    यदि आज आपने एक बार हॉं कहने का साहस बटोर लिया है, तो विश्वास कीजिये कि भविष्य पर आपका अधिकार हो चुका। फिर इस पृथ्वीमण्डल पर कोई शक्ति ऐसी नहीं है, जो आपको आपके इस अधिकार से अधिक समय तक वंचित रख सके। क्योंकि आप और आपके विचार अनन्त काल के लिये अमर हैं और भविष्य आपका अनुचर बन चुका है।

    जो पुरुष धैर्यवान्‌ है और जिसने एक बार प्रतिज्ञा कर ली है, उसके लिये पृथ्वीमण्डल घर के आंगने के समान है, समुद्र बरसाती गड्‌ढे के समान है और पाताल लोक भूमि के तुल्य तथा सुमेरु पर्वत बाम्बी के बराबर है।

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    चारों वेदों के अलग अलग नाम क्यों

    Ved Katha Pravachan _58 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    क्या मनुष्य का जीवन इसलिये है कि वह सदा अपने भाग्य का रोना रोता रहे? उठो और देखो, पूरब में सूर्य अपनी पूर्ण प्रतिमा और सर्वकलाओं से उदय हो रहा है। सोचो, और बताओ! मनुष्य का मार्ग आज तक कौन रोक पाया है? क्या उच्च पर्वत श्रेणियॉं? क्या विशाल नदियॉं और अगाध तथा अनन्त समुद्र? नहीं!

    आप कहेंगे कि मृत्यु हमारे मार्ग का रोड़ा है। परन्तु ऐसा नहीं है। आप पुनः कहेंगे कि दरिद्रता, दासता, कलियुग रोग और ईर्ष्या हमारे मार्ग को अवरुद्ध करेंगे। परन्तु विश्वास करिये वे आपकी आज्ञानुसार बदलेंगे और सहायक होंगे, यदि आपने एक बार ही अपना सुमार्ग निश्चयपूर्वक सदा के लिये चुन लिया है और दूसरी इच्छाओं को स्थान न देने की प्रतिज्ञा कर ली है। आपको अपना उद्देश्य दृढ़ निश्चय की भूमि पर जमाना होगा और जब एक बार उसको भले प्रकार जमा लिया गया, तो बड़े से बड़े मोहक प्रलोभनों से वह आपकी रक्षा करेगा। जब ऐसा हो जाएगा तब संसार की प्रत्येक घटना, प्रत्येक प्राणी और प्रत्येक वस्तु आपके स्पर्श मात्र से आपके उद्देश्य से एकता प्राप्त करने के लिये बाध्य हो जाएगी । क्योंकि आपका उद्देश्य स्वयं सम्पूर्ण जीवन के प्रवाह के अनुकूल निर्माण किया गया है।

    इस प्रकार आप संघर्षमय जीवन को कलामय बनाने में, झाड़-झंकाड़पूर्ण वन को स्वर्ग-कानन बनाने में सफल मनोरथ होंगे।

    जिनकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन जैसी। -आचार्य डॉ.संजय देव

    जीवनोपयोगी चिन्तन

    1. किसी भी व्यक्ति पर कीचड़ उछालना बड़ा सरल काम है किन्तु अपने गिरेबान में झॉंककर देखना निश्चय ही टेढ़ी खीर है।
    2. किसी भी व्यक्ति की शिक्षा उसके संस्कारों के आधार पर प्रमाणित होती है, उपाधियों के आधार पर नहीं। सदाचारी एवं विचार-प्रधान नागरिक ही किसी देश की सबसे बड़ी पूंजी होती है।
    3. भाग्यवादी एवं आलसी में मानसिक अपंगता होती है।
    4. आत्मनिर्भरता ही जीवन है।
    5. किसी भी व्यक्ति का चिन्तन उसकी सच्चरित्रता (या चरित्रहीनता) का परिचय देता है।
    6. जो मॉं-बाप संस्कारविहीन सन्तानें समाज और देश पर थोपते हैं, वे निश्चय ही बहुत बड़ा अपराध करते हैं।
    7. किसी भी व्यक्ति के आर्थिक स्तर एवं जीवन-स्तर का निर्माण उसके मानसिक स्तर के आधार पर होता है।
    8. अर्जित योग्यता सम्पन्न व्यक्ति "भूषण' होता है जबकि आरोपित योग्यता सम्पन्न व्यक्ति "दूषण'।
    9. व्यक्ति की जिजीविषा का आधार इसकी कर्मशीलता होती है।
    10.हर दम्पत्ति को अपनी गृहस्थी मिल-जुलकर चलानी चाहिए। आर्थिक दृष्टि से भी तथा गृहविज्ञान की दृष्टि से भी। आज के ज्ञान-विज्ञान प्रधान युग में दम्पत्ती को अकादमिक उपलब्धियॉं अर्जित करने के लिए सम्पूर्ण मन से सचेष्ट रहना चाहिए।
    11."गीता' जीने की कला का मार्गदर्शक ग्रन्थ है। - डॉ. महेशचन्द्र शर्मा

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    Is the life of a man so that he always weeps for his fortune? Rise and see, in the east, the sun is rising with its full image and all the arts. Think and tell! Who has stopped the path of man till date? What high mountain ranges? What vast rivers and deep and everlasting seas? No!

     

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  • मन्यु का पात्र

    ओ3म्‌ समस्य विशो विश्वा नमन्त कृष्टयः।
    समुद्रायेव सिन्धवः।। (ऋग्वेद 8.6.4 साम. पू. 2.1.5.3. अथर्व. 20.107.1)

    ऋषिः काण्वो वत्सः।।देवता इन्द्रः।। छन्दः गायत्री।। 

    विनय - इन्द्र परमेश्वर जहॉं हमारे पिता हैं, उत्पादक और पालक हैं, वहॉं वे हमारे कल्याण के लिये रुद्र भी हैं, संहारकर्त्ता भी हैं। जब जगत्‌ में किसी स्थान पर संहार की आवश्यकता आ जाती है तो प्रभु अपने मन्यु को प्रकट करते हैं। मानो अपना तीसरा नेत्र खोल देते हैं, अपने तीसरे रूप को प्रकाशित करते हैं। उस कल्याणकारी शिव के मन्यु का तेज जब देदीप्यमान होने लगता है, तो नाश होने योग्य सब संसार पतङ्गे की भॉंति आ-आकर उसमें भस्म होने लगता है। मन्यु का पात्र कोई भी व्यक्ति इससे बच नहीं सकता, सब बहे चले आते हैं। देखो, समय-समय पर बड़े-बड़े संग्राम, दुष्काल या महामारी आदि रूपों में प्रभु का वह महाबलवाला मन्यु जगत्‌ में प्रकट होता रहता है। 

    सब मनुष्य अपने विनाश की ओर खिंचे चले जा रहे होते हैं, पर उन्हें यह मालूम नहीं होता। जैसे सब नदियॉं समुद्र की ओर बही चली जा रही हैं व उसमें जाकर समाप्त हो जाएँगी, लीन हो जाएंगी, उसी प्रकार प्रभु का मन्यु काल-समुद्र बनकर उन सब प्राणियों को अपनी ओर खींचता जा रहा है, जिनका कि समय आ गया है। मनुष्यों के किये हुए पाप उन्हें विनाश की ओर वेग से खींचे ले जा रहे हैं। जिन्होंने इस संसार को जरा भी तह के अन्दर घुसकर देखा है, वे देखते हैं कि किस-किस विचित्र ढंग से मनुष्य अपने मृत्युस्थल की ओर खिंचे चले जा रहे हैं। धन्य होते हैं अर्जुन जैसे दिव्यदृष्टिपात पुरुष जिन्हें कि काल का यह आकर्षण दिखाई दे जाता है और जो देखते हैं- यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति। तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति।। हम लोग तो मौत के मुँह में घुसे जा रहे होते हैं, पर कुछ पता नहीं होता। हममें से अपनी शक्तियों का बड़ा गर्व करने वाले बड़े-बड़े प्रख्यात लोग जिस समय संसार को जितने अभिमान के साथ अपना पराक्रम दिखा रहे होते हैं, उसी समय वे उतने ही वेग से मृत्यु की ओर दौड़े जा रहे होते हैं, पर उन्हें कुछ पता नहीं होता है। जब उनका सब ठाठ एक क्षण में गिर पड़ता है, सामने मौत खड़ी दिखती है, तब जाकर प्रभु का रूद्ररूप उन्हें दीख पड़ता है। प्यारो! तब तुम अभी से क्यों नहीं देखते कि उसके मन्यु के सामने जब संसार झुका पड़ा है। पापी होकर कोई भी मनुष्य उसके सम्मुख खड़ा नहीं रह सकता, जिससे तुम अभी से उसके मन्यु का पात्र न बनने की समझ पा सको। 

    शब्दार्थ - अस्य = इस परमेश्वर की मन्यवे = मन्यु, "क्रोध', दीप्ति के सामने विश्वा विशः = सब प्रजाएँ कृष्टयः = सब मनुष्य सं नमन्त = ऐसे झुक जाते हैं समुद्राय इव सिन्धवः = जैसे कि नदियॉं समुद्र में समा जाने के लिए उधर स्वयं बही जाती है। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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    हे नाथ !

    ओ3म्‌ नामानि शतक्रतो विश्वाभिर्गीर्भिरीमहे।
    इन्द्राभिमातिषाह्ये।।ऋग्वेद3.37.3, अथर्व. 20.19.3।।

    ऋषिः गाथिनो विश्वामित्रः।। देवता इन्द्र ।। छन्दः गायत्री।।

    विनय - हे परमेश्वर! मुझे यह वाणी तेरे नामोच्चारण के लिए ही मिली है। मैं निरन्तर तेरे पवित्र नामों का उच्चारण करता रहता हूँ। तेरी दी हुई इस वाणी से मैं अन्य कुछ कर ही नहीं सकता। कोई भी निरर्थक बात, कोई भी अनीश्वरीय बात मेरी वाणी से नहीं निकल सकती। मेरे एक-एक कथन में तेरी ही धुन होती है, तेरा ही निवास होता है। हे इन्द्र! मैं इस प्रकार अपनी सब वाणियों से नानारूप में तेरे ही नामों का कीर्त्तन करता रहता हूँ। यदि मैं ऐसा न करूँ तो मैं अपने शत्रुओं को कैसे पराजित कर सकूँ? उनसे कैसे रक्षित रहूँ? तेरा पवित्र नामोच्चरण करता हुआ ही मैं निरन्तर सब शत्रुओं पर विजयी हुआ हूँ और हो रहा हूँ। मेरा सबसे बड़ा शत्रु "अभिमाति' है, अभिमान है। आजकल इस महाशत्रु को मार डालने के लिए विशेषतया तेरा नाम मेरा महा-अस्त्र हो रहा है। जब मनुष्य के काम-क्रोध आदि अन्य शत्रु जीते जा चुके होते हैं, मनुष्य आत्मिक उन्नति की ऊँची अवस्था को पहुँचा होता है, तब भी यह अभिमान, अस्मिता, अहंकार मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ता। यही है जो अविद्या का कुछ अंश शेष रहने तक भी आत्मा का मुकाबला करता रहता है। यही है जो कि हे मेरे परमेश्वर! मुझे अन्त तक तुमसे जुदा किए रहता है। जब मनुष्य खूब उन्नत हो जाता है, तब उसे और कुछ नहीं तो अपनी उन्नतावस्था का, अपने पुण्यात्मा होने का अभिमान हो जाया करता है। यह अभिमान ही मनुष्य को बिल्कुल पतित कर देने के लिए पर्याप्त होता है। इसीलिए हे शतक्रतो! हे अनन्तवीर्य! हे अनन्तप्रज्ञ! इसीलिए मैं निरन्तर तेरे नाम को जपता रहता हूँ, जीभ पर तेरा परमपवित्र नाम रक्खे फिरता हूँ। जब जरा भी अभिमान मन में आता है कि ""यह बड़ा भारी काम मैं कर रहा हूँ'', "यह मैंने किया'' तो तुरन्त मेरे हाथ जुड़ जाते हैं और मुख से तेरा नाम निकल पड़ता है। इस तरह इस महाशत्रु से मेरी रक्षा हो जाती है। तेरा नाम मुझे तुरन्त नमा देता है। तेरा स्मरण आते ही मैं अवनत-शिर होकर भूमि पर मस्तक टेक देता हूँ। तब उस महाबली अभिमान को क्षणभर में विलीन हो चुका पाता हूँ, चारों ओर कोसों दूर तक उसका पता नहीं होता, सब पृथिवी पर तुम ही तुम होते हो और मैं तुम्हारे चरणों में। मैं उस समय तेरे पृथिवीरूप विस्तृत चरणों में लगी हुई धूल का एक परम तुच्छ कण बनकर निरभिमानता के परम-पावन सात्त्विक सुख का उपभोग पाता हूँ। हे नाथ ! तेरे नाम की अपार महिमा का मैं क्या वर्णन करूँ ! 

    शब्दार्थ - शतक्रतो = हे अनन्तकर्म ! हे अनन्त प्रज्ञ ! विश्वाभिः गीर्भिः = मैं अपनी सब वाणियों से ते नामानि = तेरे नामों को ईमहे = लेता रहता हूँ। इन्द्र = हे परमेश्वर ! अभिमातिषाह्ये = शत्रु का, अभिमानरूपी शत्रु का पराभव करने के लिए तेरा नाम लेता हूँ। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

    Ved Katha Pravachan _88 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


     

    Vinay- Indra Parmeshwar, where our father is our producer and foster, he is also Rudra for our welfare, also a savior. When there is a need to kill at some place in the world, God reveals his mind. As if we open our third eye, we publish our third form. When the glory of that welfare Shiva's manu becomes resplendent, then all the world that is perishable begins to devour in it like the husband. No person can avoid Manu, all of them come away. See, from time to time, in the form of big battles, droughts or epidemics etc., that great power of Lord Manu continues to appear in the world.

     

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  • महर्षि दयानन्द की धर्म सम्बन्धी देन

    धर्म के सम्बन्ध में अज्ञान अभिशाप बन जाता है। यदि अशिक्षित व्यक्ति बिना जाने धर्म को ग्रहण करता है तो अन्ध विश्वासी बन जाता है और यदि शिक्षित व्यक्ति बिना जाने धर्म को ग्रहण करता है तो वह सर्वथा अविश्वासी नास्तिक बन जाता है। ऋषि दयानन्द के आगमन से पहले धर्म की यही दशा थी। एक ओर धर्म के नाम पर आडम्बर एवं पाखण्ड पनप रहे थे तो दूसरी ओर नास्तिकता फैल रही थी। धर्म के अनुयायियों में विशेष दोष यह आ गया था कि उन्होंने धर्म को आत्मा से सर्वथा दूर कर दिया था। सीधे रूप में यह कहा जा सकता है कि धर्म पालन के लिये आचरण आवश्यक नहीं रह गया था और उसे एक व्यापारिक वस्तु बना दिया गया था।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    कोई भी राष्ट्र धर्म निरपेक्ष नहीं हो सकता -2

    Ved Katha Pravachan -6 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    जैसे व्यापार में पैसे से कोई चीज खरीदी जा सकती है या एजेन्टों के द्वारा सारा कारोबार चलता हैठीक इसी प्रकार पैसे से धर्म उपार्जन किया जा सकता है या स्वयं कुछ न करके अन्यों के द्वारा किया जा सकता है। धनिक लोग मद्य मांस तथा वेश्यागमन आदि पाप करते हुए भी दक्षिणा से खरीदे ब्राह्मणों के द्वारा यज्ञ तथा जप आदि कराते थे और उन धनक्रीत धर्माध्यक्षों के द्वारा धर्म के संरक्षक भी घोषित किये जाते थे। इस प्रकार टकों से धर्म संग्रह की सम्भावना बढ जाने पर क्यों कोई झंझट में पड़े तप या साधना के। धर्म के धन का दास बन जाने की एक प्रतिक्रिया हुई कि पापों के क्षमा हो जाने की व्यवस्था चल पड़ी। इतना दान-पुण्य करो और पाप से छुटकारा पा जाओ। इससे कर्म फल व्यवस्था का आधार ही नष्ट हो गया और धर्म की तो जड़ ही कट गई। समाज में कदाचार तथा कुप्रवृत्तियों का बोल-बाला हो गया। चोर डाकू आदि भी देवताओं से वरदान पाने लगेनिज कार्य की सिद्धि के लिये उनकी उपासना आराधना करने लगे। प्रत्येक जघन्य कर्म देव स्तुति से आरम्भ होने लगा। धर्म के नाम पर वाममार्ग की प्रतिष्ठा हो गयी। धर्म के सम्बन्ध में आचरण का जो अंश बचा था वह भी इतना उलझा दिया गया कि किसी भी मनुष्य के लिये उसका पालन सम्भव न रहा। उदाहरण के लिये साल भर में एक नैष्ठिक हिन्दू को 2000 व्रत उपवास करने होते थे। प्रतिदिन 6-7 का औसत पड़ता है। क्या कोई व्यक्ति ऐसे धर्म का अनुष्ठान करते हुए संसार का या अपना कोई अन्य कार्य भी कर सकता है?

    जब धर्म का आचरण अथवा आत्मा से सम्बन्ध विच्छिन्न हो गया तो एक और भारी बुराई पैदा हो गई। जन्म के आधार पर लोग धर्म के ठेकेदार बन गये। ब्राह्मण के घर में जन्म लेने मात्र से काला अक्षर भैंस बराबर व्यक्ति भी समाज में गुरुवत्‌ पूजा जाने लगा और शूद्र के घर में जन्मा विद्वान तथा पवित्राचरणशील व्यक्ति भी अनादर एवं दुर्व्यवहार का भाजन हो गया। इससे सारी सामाजिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयीसामाजिक मूल्य नष्ट हो गये। धर्माधिकारियों ने अपनी गद्दियों को सुरक्षित रखने के लिये ऐसे षडयन्त्र रचे कि अधिकांश जनता को अज्ञानान्धकार के गर्त में फेंक दिया गया। एक ने स्त्री जाति को शिक्षा के अधिकार से वंचित किया तो दूसरे ने शूद्रों की शिक्षा पर प्रतिबन्ध लगा दिये। अवस्था यहॉं तक पहुँची कि कुछ लोगों से धन मिल गया तो उन्हें उच्च कुलीनक्षत्रियवैश्य आदि घोषित कर दिया गया और जिनसे धन की प्राप्ति न हुईउन्हें नीच कुलीन शूद्र पतित आदि की क्षेणियों में धकेल दियागया।

    वैदिक संस्कृति तथा समाज का नारा था- धर्मादर्थश्च कामश्च। अर्थात्‌ धर्मपूर्वक अर्थ और काम की सिद्धि श्रेयसी होती है। अब इसके विपरीत होगा- अर्थाद्‌धर्मश्च कामश्च। धन से ही धर्म तथा काम की सिद्धि सुगम है। क्रान्तदर्शी ऋषि के सात्विक हृदय पर इस वाम मार्ग ने कड़ा आघात किया। उन्हें लगा कि सब अनर्थों का मूल धर्म सम्बन्धी अज्ञानता है। धर्म के वास्तविक स्वरूप को लोग भूल चुके हैंमूल धर्म से समाज का सूत्र विच्छिन्न हो गया है। ईश्वर और धर्म के वास्तविक स्वरूप का प्रतिपादन हुए बिना अविद्याग्रस्त मानव का कल्याण असम्भव है। इसी लगन और धुन में वे घर परिवार छोड़कर सच्चे ईश्वर की प्राति में जुट गए। निरन्तर 18 वर्ष की दीर्घ तपस्या तथा कठोर साधना के फलस्वरूप उन्होंने अपने अभीष्ट को पा लिया और फिर मानव कल्याण के लिए प्रचार में लग गये। अकाट्य तर्कों तथा युक्ति प्रमाणों के आधार पर सिद्ध किया कि ईश्वर एकनिराकारनिर्विकारसर्वज्ञसर्वव्यापक हैउसी की उपासना करनी चाहिये। जीव अल्पज्ञ हैकर्म करने में स्वतन्त्र हैपरन्तु फल भोग में पराधीन है। फल की व्यवस्था ईश्वराधीन है। ईश्वर भी न्यायकारी हैजीव के कर्मों के अनुसार ही सुख दु:ख रूपी फल देता है। बिना कर्म किए फल नहीं मिल सकता और जो कर्म किया है उसके फल से किसी भी प्रकार छुटकारा नहीं हो सकता। किसी दूसरे के किये हुए कर्म का किसी को कोई फल नहीं मिल सकता। 

    यद्यपि सन्त सुधारक इस देश में 14 वीं से 17 वीं शताब्दी तक अनेक हुए,जिन्होंने हिन्दू धर्म में सुधार तथा संशोधन के लिए सराहनीय प्रयत्न किये। परन्तु यह  तथ्य है कि वे समाज एवं जाति की धारा को न मोड़ सके। इसका कारण यही रहा कि वे जाति की ज्ञान चक्षुओं को न खोल सके। ऋषि दयानन्द की अपनी दो विशेषतायें थीं- अखण्ड ब्रह्मचर्य तथा अगाध विद्वत्ता। इन दोनों शक्तियों के बल पर उन्होंने सोये समाज को झिंझोड कर जगाया। संसार के सारे देशी-विदेशी मत-मतान्तरों का तर्क की कसौटी पर विश्लेषण किया। कोई भी धर्म पुस्तक या धर्म प्रवर्तक न बचा,जिसके ऊपर ऋषि की लेखनी न चली हो। ऐसा निर्भीक आचार्य सम्भवत: भूतल पर दूसरा नहीं उतरा जिसने इस प्रकार निर्मम शल्यक्रिया की हो। धर्म के क्षेत्र में श्रद्धा तथा विवेक का ऐसा सामंजस्य कहॉं देखने को मिलेगा,जैसा ऋषि दयानन्द में मिलता है। इसके साथ ही एक बहुत बड़ा उपकार उन्होंने यह किया कि धर्म तथा दर्शन की गूढतम गुत्थियों को जनता की सरल भाषा में ऐसा निबद्ध किया कि उनके महान ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश को पढकर ही मनुष्य धर्म एवं ईश्वर के सम्बन्ध में सब कुछ जान सकता है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं कि सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन से ही साधारण कृषक या दुकानदार धर्म के ऐसे व्याख्याता बन गये कि दूसरे मतों के अच्छे-अच्छे विद्वान्‌ भी उनके मुकाबले में न ठहर सकते थे। सार यह कि ऋषि दयानन्द ने धर्म और ईश्वर के नाम पर चलने वाले आडम्बर-पाखण्डों को छिन्न-भिन्न किया,अनर्थों का निराकरण किया। साथ ही इन दोनों का बुद्धिसम्मत तथा तर्कानुगत स्वरूप इस प्रकार जन भाषा में प्रस्तुत किया कि बुद्धिवादी लोग धर्म का आदर करने लगे और धर्म कुछ विशेष साधन सम्पन्न अथवा सुविधा प्राप्त लोगों की वस्तु न रहकर सर्व साधारण की धरोहर बन गया। उसका सम्बन्ध सीधा आत्मा से जुड़ गया और आचार के आधार पर वह पुन: प्रतिष्ठित हो गया। अन्ध विश्वास और नास्तिकता दोनों पर एक साथ प्रहार हुआ। यह धर्म के सम्बन्ध में ऋषि दयानन्द की देन है। आर्य समाज की स्थापना इसी देन के सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक प्रचार के लिए हुई है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिये विद्या का प्रचार और अविद्या का नाश करने तथा सत्य के ग्रहण करने और असत्य के परित्याग में प्रत्येक को सदैव समुद्यत रहना चाहिये। -रघुवीर सिंह शास्त्री

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    When the conduct of religion or the relationship with the soul was severed, another great evil was born. On the basis of birth, people became the contractors of religion. Just by being born in a Brahmin's house, even a person with a black letter buffalo started to worship Guruvata in the society and a scholar and a pious person born in a Shudra's house also became a victim of disrespect and abuse. Due to this, the entire social system was torn apart, social values ​​were destroyed. 

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  • महाराणा प्रताप और वीर छत्रसाल

    यह सुखद संयोग है कि मातृभूमि और धर्म की रक्षा करने वाले वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप और रक्ष बांकुरे छत्रसाल का जन्म एक ही तिथि ज्येष्ठ शुक्ल 3 को हुआ था। यद्यपि उनके जीवनकाल में लगभग 200 वर्षों का अन्तर था। महाराणा प्रताप का जन्म संवत 1540 में हुआ था। जब दिल्ली का बादशाह अकबर था जबकि छत्रसाल का जन्म संवत 1706 में हुआ जब दिल्ली में औरंगजेब का शासन था। इस वर्ष 22 मई को दोनों महापुरुषों की जयन्ति है। 

    महाराणा उदयसिंह की मृत्यु के पश्चात जब प्रतापसिंह गद्दी पर बैठे, भारत के बड़े भूभाग पर मुगल बादशाह अकबर का शासन था। बड़े-बड़े राजा महाराजाओं ने अकबर की आधीनता स्वीकार कर ली थी। वीरों की भूमि राजस्थान के अनेक राजाओं ने न केवल मुगल बादशाह की दासता स्वीकार की अपनी बहू बेटियोें की डोली भी समर्पित कर दी थी। महाराणा प्रताप इसके प्रबल विरोधी थे। उन्होंने मेवाड़ की पूर्ण स्वतन्त्रता का प्रयास जारी रखा और मुगल सम्राट के सामने झुकना कभी स्वीकार नहीं किया। अनेक बार अकबर ने उनके पास सन्धि के लिए प्रस्ताव भेजे और इच्छा व्यक्त की कि महाराणा प्रताप केवल एक बार उसे बादशाह मान ले लेकिन स्वाभिमानी प्रताप ने हर प्रस्ताव को ठुकरा दिया। 

    Ved Katha Pravachan _76 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    इसके परिणाम स्वरूप राणा प्रताप को निरन्तर युद्ध करते रहना पड़ा। वे जंगल-जंगल भटकते रहे और करीब 25 वर्षों तक अकबर की विशाल सेना हर बार मुकाबला करते रहे। 

    महाराणा प्रताप और अकबर के बीच दिनांक 18 जून 1576 में हुआ हल्दीघाटी का युद्ध विश्व में प्रसिद्ध हुआ। इस युद्ध में अकबर की सेना का नायक आमेर का राजा मानसिंह था जो अत्यन्त वीर और पराक्रमी था। देवयोग से वह प्रताप के वार से बच निकला। इस युद्ध में प्रताप ने अकबर की विशाल सेना को तहस नहस कर दिया। विजय किसी की नहीं हुई। इसके पश्चात्‌ प्रताप ने छापामार युद्ध प्रणाली अपनायी और अपने जीवनकाल में ही मेवाड़ का अधिकांश भूभाग दुश्मन से मुक्त करा लिया। 

    महाराणा प्रताप के जीवन के कुछ प्रसंग उल्लेखनीय हैं। राणा प्रताप अपने अनुज शक्तिसिंह के साथ एक बार आखेट पर गए। शिकार किसने किया इस पर दोनों में विवाद हुआ और दोनों ने तलवार खींच ली। परिस्थिति विकट देखकर साथ गये राजपुरोहित ने कहा यदि लड़ाई बन्द नहीं हुई तो मैं आत्म हत्या कर लूंगा। चेतावनी का असर होता न देख विप्र ने कटार मारकर आत्महत्या कर ली। परिणाम में दोनों सान्त हुवे, युद्ध टल गया। यदि ऐसा न होता तो कल्पना कीजिए क्या स्थिति होती? इन राज पुरोहित का नाम नारायणदास पालीवाल था। उनके 4 पुत्र थे उनमें से 2 ने हल्दीघाटी युद्ध में भाग लिया था और खेत रहे थे। 

    जब राणा प्रताप जंगलों में भटक रहे थे। खाने का भी साधन नहीं था। भूखे राजकुमारों को देखकर उनका हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने सुलह के लिये अकबर को पत्र लिखा। तब बीकानेर के राजा अनुज पृथ्वीराजसिंह बादशाह के दरबार में थे। उन्हें प्रताप पर गर्व था। प्रताप का पढ़ पढ़कर उनकी आत्मा सिहर उठी। उन्होंने एक जोशीला पत्र प्रताप को भेजा जिससे प्रताप का स्वाभिमान जाग उठा और उन्होंने युद्ध करना निश्चित किया। पृथ्वीराज के पत्र की अन्तिम कड़ी थी-

    मैं आज सुनी है म्यानां में तलवार रेवेला सूनी
    म्हारो हिलडो कांपे है मूंछारी मोड़ मरोड़ गई
    पीथल ने राणा लिख भेजो आ बात कठा तक गिनूं सही

    राणा के पत्र की अन्तिम कड़ी थी-

    थे राखो मूंछ एठयोरी, लोई री नदी बहा दूंगा
    मैं तुर्क कहूंला अकबर ने उजड्‌यो मेवाड़ बसा लूंगा।                                      

    म्हूं राजपूत रो जायो हूँ, रजपूति करंज चुकाऊँगा
    यो शीश गिरे पर पाग नहीं म्हूँ दिल्ली आण झुकाउंगा

    जब हल्दीघाटी के युद्ध में राणा प्रताप दुश्मनों से चारों और घिर गए और बचने की कोई आश नहीं थी। यह स्थिति देखकर झाला सरदार मानसिंह तुरन्त उनके पास पहुँचे। उनका राजचिन्ह अपने सिर पर रखा और राणाजी को घेरे से बाहर निकलने की राह बनाई। दुश्मनों ने मानसिंह को राणा समझकर घेर लिया और वे वीरगति को प्राप्त हुए। यदि समय पर झाला सरदार ऐसा न करते तो हल्दीघाटी का इतिहास ही और होता। 

    जब प्रताप घायल होकर घायल घोड़े चेतक पर बैठकर युद्ध क्षेत्र से बाहर निकले उन्हें देख दुश्मन के दो सवारों ने उनका पीछा किया। परिस्थिति को गम्भीरता को देखकर राणा के अनुज शक्तिसिंह ने पीछा किया और दोनों सैनिकों को मार गिराया और प्रताप से क्षमा मांगी यदि ऐसा न होता। 

    इसी प्रकार भामाशा ने अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति राणा प्रताप को अर्पित कर राष्ट्र भक्ति का अद्वितीय कार्य किया। इतिहास में उनका नाम अमर रहेगा। 

    महाराणा प्रताप योद्धा ही नहीं महान व्यक्तित्व के धनी भी थे। वे अपने शत्रु से भी धर्मपूर्वक व्यवहार करते थे। जब प्रताप का देहान्त हुआ शहंशाह अकबर हैरान हो गया उसकी आँखें छलक उठी। उसके मुँह से निकला ऐ प्रताप तू महान था। तूने हिन्दुस्थां की शान रखी। 

    वास्तव में महान योद्धा, स्वाधीनता का पक्षधर, कर्मठ देशभक्त प्रताप इस देश की अस्मिता और स्वतन्त्रता के लिए जिए और अमर हो गये। 

    महाराज छत्रसाल - बुन्देलखण्ड के राजा चम्पतराय ने जीवनभर अपने देश की स्वतन्त्रता के लिये मुगलों से संघर्ष किया। वृद्धावस्था उनकी आकस्मिक मृत्यु के पश्चात, कर्त्तव्य का दायित्व उनके पुत्र छत्रसाल के कन्धों पर पड़ा। छत्रसाल की शिक्षा दीक्षा उनके माना के यहॉं हुई। 

    छत्रसाल ने हिन्दू धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए हिन्दू राजाओं को संगठित करने का प्रयास किया। परन्तु उसमें वे सफल नहीं हो सके। बुन्देलखण्ड के अनेक राजा मुगलों के साथ थे। ऐसी परिस्थिति में छत्रसाल ने विश्वस्त युवकों की एक सेना तैयार की और मुगलों से संघर्ष करते रहे। 

    कुछ वर्ष पश्चात छत्रसाल ने महाराष्ट्र जाकर शिवाजी महाराज से भेंट की। उन्होंसे राजनीति और रणनीति के गुर सीखे। छत्रसाल शिवाजी से बहुत प्रभावित थे। उनकी ही रणनीति से छत्रसाल ने बुन्देलखण्ड में एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की। यह उल्लेखनीय है कि छत्रपति शिवाजी की तरह महाराज छत्रसाल भी कभी युद्ध में नहीं हारे। छत्रसाल महान योद्धा और श्रेष्ठ कवि थे। साहित्यकारों का वे सम्मान करते थे। 

    बुन्देलखण्ड पर कब्जा करने के लिए बादशाह औरंगजेब के शासनकाल में बहुत प्रयत्न हुए। औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात्‌ उसका पुत्र फर्रुखसियर बादशाह हुआ। उस समय छत्रसाल वृद्ध हो गये थे। ऐसे समय में बादशाह ने अपार सेना महमदखां बंगश के अधीन भेजकर बुन्देलखण्ड पर आक्रमण किया। छत्रसाल ने उसे कई बार पीछे धकेला परन्तु उसकी सेना विशाल थी और उसे बराबर सहायता मिलती जा रही थी। 

    स्थिति संकटपूर्ण थी। तब छत्रसाल का शिवाजी को वह आश्वासन याद आया कि हिन्दूत्व की रक्षा के लिए जब आवश्यक हो महाराष्ट्र की सेना बुन्देलखण्ड सहायतार्थ आयेगी। इस समय मराठों का नेतृत्व बाजीराव के हाथ में था। छत्रसाल ने बाजीराव को सहायता के लिए मर्मस्पर्शी पत्र लिखा- उसने लिखा-

    जो गति गज की भई सो गति भई है आज।
    बाजी जात बुन्देल की राखो बाजी लाज। 

    पत्र पढ़कर बाजीराव सहायतार्थ पहुँच गए। बंगश पर घेरा डाल दिया गया। बाजीराव के आक्रमण से उसके कई सेना नायक मारे गये। अन्त में उसने प्राणों की भीख मांगी। तब युद्ध का व्यय देने और भविष्य में कभी बुन्देलखण्ड की तरफ नजर डालने की शपथ पर उसे प्राणदान दिया गया।

    इस संकट की घड़ी में सहायता करने वाले बाजीराव के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए छत्रसाल ने बाजीराव को अपना तीसरा पुत्र माना और बुन्देलखण्ड राज्य का एक तिहाई भाग दिया। छत्रसाल की एक मुस्लिम स्त्री से उत्पन्न कन्या को भी छत्रसाल ने बाजीराव को दी जो इतिहास में मस्तानी के नाम से प्रख्यता हुई।

    छत्रसाल के राज्य में प्रजा सुखी थी बुन्देलखण्ड में आज भी प्रार्थना में कहा जाता है "छत्रसाल महाबली करियो सबकी भली। वीर छत्रसाल की वीरता से महाकवि भूषण इतने प्रभावित हुए थे कि शिवाजी की प्रशंसा करते हुए उन्हें कहना पड़ा- शिवा को सराहूँ कि सराहूँ छत्रसाल को। 

    महान योद्धा, धर्मरक्षक महाराणा प्रताप और वीर छत्रसाल को श्रद्धापूर्वक नमन। श्रीकृष्ण पुरोहित

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    Maharana Pratap was not only a warrior but a rich man of great personality. They also used to treat their enemies religiously. Emperor Akbar was shocked when Pratap died. Ai Pratap came out of his mouth, you were great. You respected the Hindusthan.

     

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  • माता को प्रथम गुरु क्यों कहा गया है

    मॉं को प्रथम गुरु कहा गया है। माता जहॉं जन्म देती है तथा शिशु को नौ महीने तक गर्भ में पालती है और साथ ही संस्कारित भी करती है। बालक नौ महीने तक गर्भ के अन्दर रहता है, तब जो शिक्षा चलती है वह संस्कारों की शिक्षा है। इसलिए माता प्रथम गुरु है। शिवाजी को उसकी मॉं जीजाबाई ने गर्भ में ही संस्कारों की शिक्षा दी थी। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान है। 

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    मनुष्य को मनुष्य क्यों कहते हैं

    Ved Katha Pravachan _56 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    माता मन में ज्ञान के प्रकाश को डालती है। मन-बुद्धि के अन्दर ज्ञान भली प्रकार माता के द्वारा डाला जाता है। यह संस्कारों का पोषण है। माता पोषित एवं संस्कारित करती है और पिता पालन करता है तथा गुरु अज्ञान रूपी अन्धकार को दूर करने वाला है। गुह्य ज्ञान का प्रकाशक जो है, उसका नाम है गुरु। अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला। बालक जब बड़ा हो जाता है तो संसार का ज्ञान कराती है मॉं। गुरु भी ज्ञान कराता है, लेकिन गर्भ के अन्दर जो ज्ञान होता है, वह आन्तरिक ज्ञान है, अन्तः शिक्षा है। यह अन्तः शिक्षा पूरे जीवन में काम करती है। बाह्य शिक्षा समय के साथ है, संस्कारों के साथ है। जो संंस्कार गर्भ में पड़ जाते हैं, वही जीवन भर चला करते हैं। इसलिए मॉं को श्रेष्ठ और प्रथम गुरु कहा गया है। 

    बल, बुद्धि और ज्ञान से सम्पन्न को वेद में शूरवीर कहा गया है। जो न स्वयं दीन होते हैं और न ही राष्ट्र को दीन बनने देते हैं, ऐसे पुत्र को जन्म देने वाली मॉं साधुवाद और प्रशंसा की पात्र है। क्योंकि ऐसे वीर पुत्र देवों को भी वश में कर लेते हैं। ऐसे पुत्रों को जन्म देने वाली मॉं और वह कुल जिसमें जन्म लिया है, दोनों ही कृतार्थ हो जाते हैं। - डॉ. विनोद शर्मा

    दुनिया में सबसे सुन्दर हाथ

    एक छोटा बच्चा अपने माता-पिता के साथ अपने आरामदेय घर में बैठा था। वह अपनी मॉं से बोला- "मॉं! आपका चेहरा दुनिया में सबसे दयालु व सुन्दर है। दिल चाहता है कि मैं इसे हमेशा देखता रहूँ।'' 

    जैसे ही वह ये शब्द बोल रहा था, उसकी नजर अपनी मॉं के हाथों पर पड़ी। वे मुड़े हुए और बड़े कुरूप थे। वह बोल उठा- "मॉं! आपके हाथ दुनिया में सबसे कुरूप हाथ होंगे। मैं उनकी तरफ देख भी नहीं सकता।'' 

    इस पर पिता ने बेटे को अपनी गोद में बैठाया और कोमलता से बोला- "मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ। एक समय की बात है कि एक नन्हा बच्चा अपने पालने में शान्तिपूर्वक सोया हुआ था कि पालने को आग लग गई।'' 

    लड़के ने पूछा- "बच्चे का क्या हुआ?'' "बच्चे की देखभाल के लिए जो आया रखी थी, वह डरकर भाग गई'', पिता ने बात जारी रखी, "लेकिन मॉं ने आग देख ली और बच्चे को बचाने दौड़ी। उसने देखा कि बच्चे के चारों ओर आग इतनी फैल चुकी थी कि बच्चे को घायल हुए बिना उठाना असम्भव था। उसने हाथों से ही आग बुझाई। उसके हाथ बुरी तरह जल गये। उन्हें ठीक होने में कई महीने लग गये। पर उन पर दाग फिर भी रह गये।'' 

    छोटा बच्चा चहक उठा- "कितनी बहादुर मॉं होगी!'' 

    पिता ने कहा- "जानते हो वह कौन थी? वह तुम्हारी मॉं थी। उसके कुरूप हाथों ने ही तुम्हें बचाया था।'' 

    यह सुन बच्चे की आँखों में आँसुओं की धारा फूट पड़ी। वह अपनी मॉं की तरफ मुड़ा और बार-बार उसके हाथ चूमने लगा। वह रोते हुए बोला- "मॉं, यह दुनिया के सबसे सुन्दर हाथ हैं।'' - प्रस्तुतिः वरुण

    शिष्य की निष्ठा

    एक सन्त घने जंगल से होकर अपने गन्तव्य के लिये निकले। यह देखकर उनका शिष्य भी उनके पीछे चल पड़ा। रास्ते में नदी पड़ी। नदी को पार करने के लिए कोई पुल न था। सन्त को नदी के पार पहुंचना जरूरी था। यह देख शिष्य दौड़कर गुरु जी से आगे आया और नदी के तेज जल में उतर गया। गुरु खड़े हुए यह दृश्य देखते रहे। शिष्य नदी को पार करने लगा। उसके गले तक जल आने लगा। अन्ततः उसने नदी को पार कर ही लिया। उसने गुरु जी से कहा- गुरुवर! अब आप भी धीरे-धीरे नदी पार कर लें। गुरु ने भी उसके आग्रह पर तेज जल प्रवाह में चलकर नदी को पार कर लिया। 

    सन्त ने शिष्य से कहा कि तू दौड़कर मुझसे आगे आया और नदी में उतर गया। अगर तू डूब जाता तो क्या होता? शिष्य ने गुरु के चरण पकड़कर कहा- "हे गुरुवर, अगर मैं डूब जाता तो कोई फर्क न पड़ता, किन्तु अगर आप डूब जाते तो देश की अत्यधिक हानि होती। आपको मेरे जैसे अनेक शिष्य मिल जायेंगे। किन्तु जन-मानस को आप जैसा गुरु कहॉं से मिलता?'' प्रस्तुतिः कु. भावना

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    Mother has been called the first Guru. The mother where she gives birth and raises the baby in the womb for nine months and also performs the rituals. The child stays inside the womb for nine months, then the education that goes on is the education of the sacraments. Therefore Mata is the first Guru. Shivaji was taught the rites by his mother Jijabai in the womb itself. Janmani Janmabhoomi Swargadpi Gariyasi. Janani and Janmabhoomi is also greater than heaven.

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  • मांस निषेध

    ओ3म्‌ यः पौरुषेयेण क्रविषा समङ्‌क्ते यो अश्व्येन पशुना यातुधानः।
    यो अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च।। (ऋ. 10.87.16)

    शब्दार्थ- (यः यातुधानाः) जो राक्षस, दुष्ट (पौरुषेयेण) पुरुष सम्बन्धी मांस से (सम्‌ अङ्‌क्ते) अपने शरीर को पुष्ट करते हैं (यः) जो क्रूर लोग (अश्व्येन) घोड़े के मांस से और (पशुना) पशु के मांस से अपना उदर भरते हैं (अपि) और भी (यः) जो (अघ्न्यायाः) अहिंसनीय गौ के (क्षीरम्‌) दूध को (भरति) हरण करते हैं (अग्ने) हे तेजस्वी राजन्‌! (तेषां) उन सब राक्षसों के (शीर्षाणि) शिरों को (हरसा) अपने तेज से (वृश्च) काट डाल। 

    Ved Katha Pravachan _87 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    भावार्थ - मन्त्र में राजा के लिए आदेश है कि जो मनुष्यों का मांस खाते हैं, जो घोड़ों का मांस खाते हैं, जो अन्य पशुओं का मांस खाते हैं और जो बछड़ों को न पिलाकर गौ का सारा दूध स्वयं पी लेते हैं, हे राजन्‌! तू अपने तीव्र शस्त्रों से ऐसे दुष्ट व्यक्तियों के सिरों को काट डाल। इस मन्त्र के अनुसार किसी भी प्रकार के मांस-भक्षण का सर्वथा निषेध है।

    "अघ्न्याया क्षीरं भरति' का यही अर्थ सम्यक्‌ है कि जो बछड़े को न पिलाकर सारा दूध स्वयं ले लेते हैं। इस मन्त्र से गोदुग्ध पीने वालों को मार दे ऐसा भाव लेना ठीक नहीं है। क्योंकि वेद में अन्यत्र कहा गया है "पयः पशूनाम्‌' (अथर्व. 19.31.5) हे मनुष्य! तुझे पशुओं का केवल दूध ही लेना है। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

    मद्य निषेध

    ओ3म्‌ हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम्‌।
    ऊधर्न नग्ना जरन्ते ।। (ऋग्वेद 8.2.12)

    शब्दार्थ - (न) जिस प्रकार (दुर्मदासः) दुष्टमद से युक्त लोग (युध्यन्ते) परस्पर लड़ते हैं उसी प्रकार (हृत्सु) दिल खोलकर (सुरायाम्‌ पीतासः) सुरा, शराब पीने वाले लोग भी लड़ते और झगड़ते हैं तथा (नग्नाः) नङ्गों की भॉंति (ऊधः) रातभर (जरन्ते) बड़बड़ाया करते हैं।

    भावार्थ - मन्त्र में बड़े ही स्पष्ट शब्दों में शराब पीने का निषेध किया गया है । मन्त्र में शराब की दो हानियॉं बताई गई हैं- 

    1. शराब पीने वाले परस्पर खूब लड़ते हैं ।
    2. शराब पीने वाले रातभर बड़बड़ाया करते हैं।

    मन्त्र में शराबी की उपमा दुर्मद से दी गई है। जो शराब पीते हैं वे दुष्टबुद्धि होते हैं। मद्यपान से बुद्धि का नाश होता है और "बुद्धिनाशात्‌ प्रणश्यति' (गीता 2.63) बुद्धि के नष्ट होने से मनुष्य समाप्त हो जाता है। "शराब' शब्द दो शब्दों के मेल से बना है - शर+आब। इसका अर्थ होता है शरारत का पानी। शराब पीकर मनुष्य अपने आपे में नहीं रहता । वह शरारत करने लगता है, व्यर्थ बड़बड़ाने लगता है। 

    मद्य पेय पदार्थ नहीं है। शराब पीने की निन्दा करते हुए किसी कवि ने भी सुन्दर कहा है-

    गिलासों में जो डूबे फिर न उबरे जिन्दगानी में।
    हजारों बह गए इन बोतलों के बन्द पानी में।। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

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    Charity - In the mantra, there is a command for the king that those who eat the flesh of humans, who eat the flesh of horses, who eat the flesh of other animals, and who drink all the milk of the cow themselves without feeding the calves, O king! You cut off the heads of such evil persons with your sharp arms. According to this mantra, eating meat of any kind is strictly prohibited.

     

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  • मूल्यों का पतन : कारण व निवारण

    विश्व का आध्यात्मिक गुरु, प्राचीनतम संस्कृति, ईश्वरीय वाणी के रूप में प्राचीनतम ग्रंथ वेद, सबके आदर्श अनुकरणीय मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जीवन चरित्र, आपत धर्म के पालन, गीता जैसे गूढ़ ज्ञान के प्रदाता योगीराज कृष्ण आधुनिक समय में वेदों को पुनः स्थापित करने वाले महान समाज सुधारक स्वामी दयानन्द पर्यन्त कितने उदाहरण हैं जिनकी शिक्षायें किसी के लिए भी अनुकरणीय हो सकती है। इस प्रकार वर्तमान काल में कितने टी.वी. चैनल आस्था, संस्कार, जागरण आदि जो निरंतर विभिन्न धर्म गुरुओं के प्रवचनों की वर्षा कर रहे हैं। कोई भी कथावाचक किसी भी शहर या कस्बे में जा पहुचें तो आज भी कितनी भीड़ स्वतः स्फूर्त जुट जाती है प्रवचन सुनकर स्वयं को धन्य करने के लिए। शायद हमारा देश एक ऐसा देश है जिसके नागरिक अपना अधिकांश कीमती समय भगवान की पूजा-अर्चना, उपासना, तीर्थ-यात्राओं या दर्शनों में लगाते हैं।

    Motivational speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
    वेद कथा - 3 | Explanation of Vedas & Dharma | मजहब ही सिखाता है आपस में बैर | क्रांतिकारी प्रवचन

    इस सबके बावजूद कितनी बड़ी विसंगति है कि आज हमारे देश में अनाचार, दुराचार, सामाजिक कुरीतियां, पाखंड भी उतनी ज्यादा तेजी से बढ़ रहा हैं आखिर क्या कारण है कि इतनी विविध तेजी से बढती दिखाई दे रही धार्मिक आस्थाओं के बीच उससे भी ज्यादा तेजी से समाज की गहरी अंधी खाइयों की तरह लुढ़क रहा है। क्यों समाज में निरंतर टूटना, पाखंड, कुरीतियां, भ्रांतियां, धार्मिक विद्वेषभाव, विघटन अलगाववाद, जातिगत संघर्ष, आसहिष्णुता, प्रांतीयता, सिर उठाती नई नवेली अलगाव पैदा करती भावनायें, आतंकवाद, चरमराती कानून वयवस्था, भक्षक बने कानून के रक्षक हर मुददे पर टूटन ही टूटन तिस पर देश के राजनेताओं में शक्ति का अभाव बस साम-दाम दंड-भेद से सत्ता मद में चूर शोषण करके अपना पोषण करते राजनेता आदि। आखिर क्या कारण हैं आज समाज में इस सक्रमण काल की आखिर कौन सी स्थितियां इसके लिए उत्तरदायी हैं । जिस प्रकार रोग के निदान लिए कारन कारण जान लेना आवश्यक होता है इसी प्रकार जानना इसके निवारण लिए अत्यंत आवश्यक हैं।
    १. हमारी सनातन पुरातन वैदिक संस्कृति हमारे लिए हमारे लिए गौरव विषय है पर वर्तमान काल में हम इस संस्कृति का कितना अनुसरण कर रहे हैं यह विचारणीय विषय है । हमारी वंश परम्परा महान है पर आज हम क्या हैं कहां हैं इस पर विचार करना आवश्यक हैं।

    २. हमारी वैदिक संस्कृति श्रेष्ठतम है इस पर किसी को कोई संशय नहीं पर हम स्वयं अपनी इस पुरातन संस्कृति से परिचित नहीं हैं तो अनुकरण कर पायेंगे । बिना रास्ता जाने दिशा भटक कर हम किधर जा रहे हैं यह विचारणीय है। आज हमारी हालत भेड़ों के झुंड में जन्मकाल रहकर पहचान भूल चुके सिंह शावक की सी है हमें स्वयं को पहचानना होगा ।

    ३. हमारी महानतम मान्यताओं में समय साथ कुछ वर्ग विशेषतया वर्ण विशेष अपनी स्वार्थ सिद्धि वशीभूत लोगों की अन्धश्रद्धा लाभ उठाकर अंधविश्वासों, कुरीतियों, पाखंडों को जोड़ दिया है । जिस प्रकार मैदानी भाग में प्रवेश के बाद पवित्र गंगा में हर शहर को गंदा नाला उसे प्रदूषित कर देता है इसी लिए गंगा सफाई की आवश्यकता पड़ती है ठीक उसी प्रकार अब हमें अपने विवेक की छलनी से छान कर कुरीतियों दूर करना होगा। तुलसी, कबीर, स्वामी दयानन्द, राजा राममोहन राय जैसे समाज सुधारकों ने इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया है। 

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    ४. समाज में बुरी तरह से कोढ़ की भांति फ़ैल चुकी युवा वर्ग में नशे की पृवत्ति, दहेज़ प्रथा के कारण कन्या भ्रूण हत्या, दहेज़ का दिखावा, युवावर्ग में बढ़ती अनैतिकता, फैशन के नाम पर नंगापन, नारी आजादी के नाम पर टूटती मर्यादायें आदि कुरीतियां आपत उपचार मांगती हैं अन्यथा समाज के भविष्य की तस्वीर भयावह दिखाई देती है । 

    ५. हम कभी आध्यात्मिक गुरु थे विश्व हमारा अनुकरण करता था पर शायद लंबी गुलामी के बाद हमें पिछलग्गू बनकर रहने की आदत हो गई है । आज भी तथाकथित विकास के नाम पर हम पश्चात्य अंधानुकरण कर रहे हैं। इस पाश्चात्य अंधानुकरण में भी हम उनकी अच्छी आदतें राष्ट्रवाद, मेहनत, नए अन्वेषण, वैज्ञानिक प्रगति आदि नहीं सीख रहे अपितु जींस, पिज्जा, बर्गार, कोक, नंगेपन की भौंडी नकल अवश्य कर रहे हैं। यह पाश्चात्य अंधानुकरण हमें हमारी संस्कृति से काट रहा है। टी.वी. चैनलों आदि मीडिया के माध्यम से इसका तीव्र प्रहार हमारे दिलोदिमाग पर हो है । बड़े से बड़ा वट वृक्ष भी जब अपनी जड़ों से कट जाता है तो अंततः सुखकर ठूंठ बनकर गिर पड़ता है ।

    ६. हमारी विकास की परिभाषा के मायने बदल चुके हैं हम बड़ी तीव्र गति से सेंसेक्स के बढ़त सूचकांक की भांति भौतिकतावाद, बाजारवाद और भोगवाद का शिकार होकर विनाश की ओर सम्मोहित होकर हम अपने संभावित विनाश को नहीं देख पा रहे है । बाजारवाद के इस युग में हमारे समाज में मूल्यों का अवमूल्यन हुआ है हर चीज हर सामग्री यहां तक कि हमारा दीन ईमान सब विनिमय की वस्तु हो चूका है हम बिकने को तैयार बैठे हैं बस खरीददार चाहिए। विनाश की तरफ तेजी से दौड़ते तथाकथित विकासशील समाज को रुक कर सोचने और दिशा परिवर्तन पर विचार करना होगा । 

    ७. भौतिक सुख संसाधनों सम्पदा की अंधी दौड़ में नैतिक मूल्यों का लोप आज के समाज की त्रासदी है । नैतिक मूल्यों की स्थापना और समाज को क्षणिक भौतिक सुख और आनन्द की स्थिति में अन्तर महसूस करना होगा। 

    ८. आजादी के बाद भी हम गुलामी की मानसिकता से उबर नहीं पाए । भावी पीढ़ी के निर्माण के लिए गुलामी की प्रतीक मैकाले के दत्तक पुत्र, क्लर्क तैयार करने वाली शिक्षा प्रणाली को हमने अपनाया जिसमें चरित्र निर्माण, मानव रचना, अपनी संस्कृति से परिचय या नैतिक मूल्यों को कोई स्थान नहीं दिया गया। मैकाले की यह शिक्षा पद्धति शायद सामाजिक अधोगति का बहुत बड़ा कारण है जो आज भी अच्छे क्लर्क, इंजिनियर, डॉक्टर, मैनेजर आदि तो बना रही है पर अच्छे इंसान बनाने की की व्यवस्था नहीं है। 'ब्रेन-ड्रेन' या फिर आउट सोर्सिंग' के शिकार आज की युवा शक्ति धन लोलुपता या भौतिकतावाद में विदेशी आकाओं की सेवा में लगी है। 

    ९. धर्म जाति भाषा क्षेत्र जैसे अपनी सुविधा के मुददो पर समूचे समाज को वोट बैंकों में तोड़कर आपस में लड़वाते रहने वाली राजनैतिक लोकतांत्रिक प्रणाली भी सामाजिक पतन के लिए उत्तरदायी है। सामाजिक तनाव पैदा करके साम-दाम दंड-भेद से सत्ता मद में चूर होकर शोषण कर स्वयं के पोषण की प्रवृति ने राजनीति को व्यापर बना दिया है जिसके कोई नियम नहीं है। कानून बनाने वाली विधायिका और पालन करवाने वाली नौकरशाही स्वयं को कानून से उपर समझती है कर शोषण को जन्मसिद्ध अधिकार मानती है। इस व्यवस्था की खामियों को दूरकर इसकी भावना को समझना होगा।

    १०. धार्मिक उन्माद वर्ण या जातिगत संघर्ष पैदाकर समाज को वोट बैंकों में तोड़ने की राजनैतिक दलों की साजिशों के साथ वर्ग संघर्ष के नाम पर अलगाववाद, नक्सलवाद, उग्रवाद को भड़काना भी सत्ता प्राप्ति का साधन बन चूका है । सत्ता प्राप्ति का रास्ता धनबल और बाहुबल से ही तय किया जा सकता है । राजनीति के अपराधीकरण से चला यह अनैतिक सफर अब अपराधियों के राजनीतिकरण तक पहुंच चूका है । यह स्थिति अत्यंत खतरनाक है । नेता अपराधी और अधिकारी का नापाक गठजोड़ सत्ता का शक्ति केंद्र बन चूका है । 

    ११. समाज में धर्मपरायणता के स्थान पर धर्मभीरुता बढ़ रह है। हर व्यक्ति मन ही मन अपने दुष्कर्मों के फल लेकर कभी ना कभी परेशान हो जाता है तो यह गुरुडमवाद फैलाकर स्वयं को ईश्वरीय अवतार घोषित कर रहे तथाकथित कथावाचक दान दक्षिणा लेकर पापों से मुक्ति का सरल उपाय बताकर अभयदान देते हैं। इससे अपराधी अपराध भावना से मुक्त हो फिर से दुष्कर्म करने की तरफ प्रवृत हो जाता है। यही धर्मभीरु लोगों की ही इन अवतारों की सभाओं में शोभा बढाती है

    १२. प्रेम शब्द अपना व्यापक यौगिक अर्थ खो चूका है आजकल प्रेम का अर्थ मात्र विपरीत लिंगों में वासना के लिए रह गया है जबकि भक्त का भगवान के प्रति, पिता का पुत्र वा पुत्री के प्रति, माता का बेटे के लिए, भाई-बहन का प्यार सब प्रेम की व्यापक परिभाषा में आते हैं। 

    १३. हम परिवारों में बच्चों को संस्कार देने में असमर्थ सिद्ध हुए हैं। बच्चों को जो कहा जाए उसे सुनते नहीं है अपितु जो वह देखते हैं उसे सीख जाते हैं। हम अपनी जीवन चरित्र अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए अनुकरणीय बनने में सर्वथा असमर्थ सिद्ध हुए हैं। अपितु आने वाली पीढ़ी इस विनाश मार्ग पर हमसे ज्यादा तेज से चल रही है। परिवार विघटित हो रहे हैं बच्चे बड़ों की इज्जत करना भूल चुके हैं शायद बड़े ही इसके लिए अधिक उत्तरदायी हैं।

    यह कुछ स्थितियां हैं जो कि समाज की अधोगति का कारण है शायद इन्हीं कारणों के विवेचन में इनका निवारण भी छिपा है। अतः आज समय की मांग है कि हम विनाश के इस मार्ग को छोड़ दें अन्यथा आने वाली पीढ़ियां जब हमसे हमारे पतन का कारण पूछेंगी तो हमारे पास कोई उत्तर नहीं होगा। - नरेंद्र आहूजा ''विवेक''

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  • मैकाले तो मुस्कुराएगा ही

    सन्‌ 1835 की फरवरी से अभी 2010 तक पूरे पौने दो सौ वर्ष का समय बीत चुका है। उस समय ब्रिटिश संसद में भाषण देते हुए लार्ड मैकाले ने कहा था- "मैंने भारत का हर गांव हर शहर देख लिया, भारत में न कोई अशिक्षित है, न असभ्य। भारत सपेरों और पशु चराने वालों का देश नहीं है। उनकी सभ्यता और संस्कृति बहुत गहरी है। अगर भारत पर राज करना है तो हमें भारत की इस सभ्यता-संस्कृति को नष्ट करना होगा, जो कि भारतीयों की रीढ़ है और इसके लिए जरूरी है उनकी शिक्षा पद्धति को बदल देना।'' और धीरे-धीरे भारत की रीढ़ को कमजोर करने का काम मैकाले करता गया। फिर भी, 1947 से पहले हमारी रीढ़ बहुत मजबूत थी। हमने कहा कि, देशवासियो खून दो, देश को आजादी मिलेगी।

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    हमने यह भी कहा कि स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। हमने यह गीत भी गाया कि "नहीं रखनी सरकार अंग्रेजी सरकार नहीं रखनी।'' जिन लोगों ने विदेशी शासकों के समक्ष आत्म समर्पण किया भी थी, उनकी संख्या बहुत कम थी। वे अंग्रेजों द्वारा बांटे गए पदों को सजाकर अकड़ते रहे, पर राष्ट्रभक्तों ने देश के इन गद्दारों को "टोडी बच्चा हाय-हाय' कहकर भगा दिया। "इंकलाब जिन्दाबाद' और "अंग्रेजो, भारत छोड़ो' के नारों की तरह ही टोडी बच्चों को भगाने वाला नारा लोकप्रिय हो गया, पर मैकालेवाद बढ़ता गया। शिक्षा के नाम पर भारतीय संस्कृति विरोधी विष देश की नई पीढ़ी के खून में धीरे-धीरे घुलता रहा और कड़वे करेले पर नीम चढ़ाने का काम कुछ उन नेताओं ने कर दिया। जिन्होंने स्वतन्त्र भारत की कमान संभाली, उन्होंने पूरे देश को यह विश्वास दिलवाया कि अंग्रेजी शिक्षा पद्धति व जीवनशैली ही "उन्नत का एकमात्र मार्ग है।' 

    मैकाले ने भारत से अपने परिजनों को एक पत्र लिखा था, जिसमें उसने यह विश्वास प्रकट किया कि अगर उसकी शिक्षा नीति केवल पचास वर्ष भी भारत में चल गई, तो भारत अगले पॉंच सौ वर्ष के लिए गुलाम रहेगा। मुझे लगता है कि मैकाले ने अपनी शक्ति का आकलन गलत नहीं किया था। पौने दो सौ वर्ष बाद भी मैंने महसूस किया कि मैकाले मुस्कुरा रहा है। वह मुस्कुराए भी क्यों न! 3 नवम्बर 2009 को चंडीगढ़ मे दो दीक्षांत समारोह मैंने देखे। इनकी अध्यक्षता के लिए भारत के प्रधानमन्त्री उपस्थित थे, पर मञ्च और सभागार मेें भारत था ही नहीं, बस इंडिया था। मैकाले और डायर की ही भाषा और उन्हीं के ओढ़ाए हुए गाउन और सर पर अंग्रेजों जैसे ही बड़े-बड़े टोप सजाए प्रधानमन्त्री, भारत के स्वास्थ्य मन्त्री और राज्यपाल बैठे थे। सभी प्रसन्न थे और उसी भाषा में भाषण हो रहे थे, जिस भाषा में मैकाले ने भारत की रीढ़ को तोड़ने का संकल्प लिया था। और आश्चर्य यह भी कि उस मंच पर समापन के समय राष्ट्रगान भी न हो सका। मंच पर राष्ट्रगान न होने के कई कारण सुनने को मिले, राष्ट्रगान सुनने को नहीं मिला। मैकाले की छाया में चले इस कार्यक्रम में काले बादलों में सुनहरी रेखा की तरह सरस्वती वन्दना का स्वर दो क्षणों के लिए सुनने को मिला। और यही सब कुछ पंजाब विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में भी हुआ। आखिर इससे नई पीढ़ी को क्या दीक्षा मिली होगी? इससे पिछले वर्ष भी पंजाब विश्वविद्यालय के ऐसे ही समारोह में मुझे उपस्थित रहने का अवसर मिला था। तब भारत के उपराष्ट्रपति मन्च पर थे। वातावरण बिल्कुल वैसा ही था, जिसका चित्रण मैं ऊपर कर चुकी हूँ। मुझे गर्व है कि मंच पर बैठने का जिन्हें सौभाग्य मिला, उनमें से केवल मुझे ही परमात्मा ने यह बल दिया कि मैं काला लबादा ओढ़े बिना बैठी। मंचासीन और पंडाल में बैठे नई और पुरानी पीढ़ी के विद्वज्जन को यह सब बुरा लगा ही नहीं। यूं भी कह सकते हैं कि हमारी शिक्षा-दीक्षा ने नई पीढ़ी को यह साहस ही नहीं दिया कि वह इन दीक्षादायकों से यह पूछ तो सके कि क्यों वे खुद काला ओढ़ते हैं और हमें भी ओढ़ाते हैं? काला रंग तो मृत्यु, शोक और विरोध का प्रतीक है, अज्ञान का दूसरा नाम है। महाकवि सूरदास ने भी कहा है- सूरदास कारी कामरि पे, चढ़त न दूजो रंग ।

    हमारी शिक्षा पद्धति ने किसी विद्यार्थी में इतना साहस भी नहीं भरा कि वह हाथ उठाकर उच्च स्वर में कह सके कि आज तो विद्या प्राप्ति का पर्व है, मैं काला क्यों पहनूं। विद्या की देवी सरस्वती तो शुभ्रवसना हैं, काले कपड़ों का कोई औचित्य तो बताइए। महाकवि जयशंकर प्रसाद के शब्दों में यह कह सकते हैं- अन्धकार में दौड़ लग रही, मतवाला यह सब समाज है । 

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    चिकित्सा कालेजों और विश्वविद्यालयों में हमने शरीर चिकित्सा के डाक्टर तो बना दिए, विभिन्न विषयों में एम.ए., पीएचडी की डिग्रियां भी दे दीं, पर यह नहीं बताया कि भारत की रीढ़ तोड़ने का जो संकल्प मैकाले ने लिया था, उसका इलाज भी हमें ही करना है। सच तो यह है कि देश की शिक्षण संस्थाओं को एक "एंटी मैकालेवाद औषधि' या सर्जरी का पाठ पढ़ाना ही होगा, जो भारत की सन्तानों को स्वदेशी का गौरव अनुभव करना सिखा सके। दुनिया को दुनिया की भाषा में जवाब देना हमें आता है, हम देते भी रहे हैं। स्वामी विवेकानन्द, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, शहीद भगतसिंह, ऊधमसिंह, मदनलाल ढींगरा और वीर सावरकर जैसे भारत पुत्रों ने बड़ी कुशलता से दुनिया को भारतीय उत्तर दिया था। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और उनके साथियों ने इन फिरंगियों को खूब पाठ पढ़ाया। पर जिस देश को अपनी भाषा में मॉं कहने में ही शर्म आ रही हो उसे क्या कहेंगे? हमारे कुछ नेता मुम्बई को बम्बई कहने पर भड़क उठते हैं। कोलकाता को कलकत्ता शहर कह दो तो लाल-पीले हो जाते हैं, पर जब तीन चौथाई से ज्यादा देश अपनी मॉं को "मम्मी' अथवा "मॉम' बना बैठा है, तब उन्हें गुस्सा क्यों नहीं आता, जब भारत माता को हम इण्डिया कहते हैं तो उनके खून की रवानी रुक जाती है? भाषा के नाम पर तनाव भड़काने वालों के बच्चे भी अधिकतर उस भाषा में शिक्षा ग्रहण नहीं करते, जिस भाषा के समर्थन में भाषण देकर वे लोगों को लड़वाते हैं। गाड़ी-बसें जलवा देना जिनके बाएं हाथ का काम है। 

    मैकाले मुस्कुराये क्यों न, जब हम ज्योति की पूजा करने वाले देश के लोग अपने बच्चों के जन्मदिन पर दीप जलाने के बजाय बुझाते हैं। दीप बुझाने के बाद खुशी में तालियां बजाते हैं। हजारों तरह की मिठाइयां बनाने वाले देश के लोग केक के मोहताज हो गए हैं। ऐसे में लगता है कि मैकाले कामयाब हो गया, हमारी रीढ़ी टूटी तो नहीं, पर बहुत कमजोर हो गई है। हम सूर्य के उपासक हैं। सूर्य की प्रथम किरण के साथ नए दिन का स्वागत करने वाले भारत के बहुत से लोग आधी रात के अंधेरे में अंग्रेजी ढंग से अंग्रजों के नववर्ष का स्वागत करते हैं और यही लोग अपने को "वी.आई.पी.' मानते हैं, धन सम्पन्न हैं और भारत को "इण्डिया' कहने वालें हैं। बेचारा गरीब आदमी कहीं-कहीं इनकी नकल कर लेता है। किसी महानगर का नाम बदलने और डण्डे के बल पर उसका प्रयोग करवाने वाले, नारी को देवी मानने वाले देश के ये मैकालेवादी तब दुखी नहीं होते, जब उन्हीं के कुछ महानगरों में नारी के लगभग नग्न शरीर को नचाया जाता है, उसके लिए करोड़ों रुपए खर्च कर दिए जाते हैं।

    भारतीय अस्मिता की किसी को परवाह ही नहीं है। इसी का प्रभाव हमारे दूरदर्शन और अन्य टीवी चैनलों में भी देखने को मिलता है। भारतीय दूरदर्शन का भी कमाल है। रात नौ बजे के समाचार अंग्रेजी में प्रसारित होते हैं। जब आधा हिन्दुस्थान रात्रि का भोजन ले चुका होता है, तब नौ बजे समाचार शुरू करते ही वाचक "गुड़ इवनिंग' कहता है, पर सवा नौ जब समाचार खत्म होते हैं तो इन्हें शायद मजबूरी में "गुड नाइट' कहना पड़ता है। आखिर किस कारण 15 मिनट बाद ही "ईवनिंग' "नाईट' हो जाती है, यह दूरदर्शन वाले भी नहीं बता सकते। जो देश अपने दूरदर्शन पर वन्देमातरम्‌ का गीत हर रोज नहीं गा-दिखा सकता, जिस देश के करोड़ों विद्यार्थियों को वह गीत याद नहीं जिस गीत के बल पर बंग-भंग आन्दोलन लड़ा गया और असंख्य देशभक्तों ने फांसी के फन्दे को हंसते-हसंते गले में डाल लिया, अंग्रेजों की अमानवीय यातनाएं सहीं, उस देश की हालत पर मैकाले तो मुस्कुराएगा ही।

    मैं न निराश हूँ, न हताश। यह सन्तोष का विषय है कि आज भी भारत के स्वाभिमान को जगाने के लिए, स्वदेशी को अपनाने के लिए अनेक साधक साधना कर रहे हैं। अब मैकाले नहीं, भारत मॉं मुस्कुराएगी। अगर कहीं कमी है, तो इस देश के राजनेताओं में है। जब भारत का प्रधानमन्त्री अपने पद की शपथ भी मैकाले की भाषा में लेता है, उस समय देश को दर्द होता है। जब इनके दीक्षान्त भाषण नई पीढ़ी के विद्यार्थियों को जबरन पिलाए जाते हैं तब नई पीढ़ी को निराशा होती है। मुझे इन दीक्षान्त समारोहों में मैकाले के मुस्कुराने का एक कारण मिला, पर मुझे पूरा विश्वास है कि जब भारत मुस्कुराएगा तो मैकाले मुरझा जाएगा। भारत की मुस्कान के लिए हम सबको काम करना है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता, स्वदेश और स्वदेशी के भाव को प्रखर करना होगा और फिर वही गीत गाना होगा- 

    जननी जन्मभूमि स्वर्ग से महान है,
    इसे वास्ते ये तन है, मन है और प्राण है।

    और याद भारतेन्दु को भी करना होगा, जिन्होंने कहा था-

    अपनी भाषा है भली, भलो अपनो देश,
    जो कुछ है अपनो भलो, यही राष्ट्र सन्देश। - लक्ष्मीकान्ता चावला

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    Our education system did not even inspire any student so much that he could raise his hand and say in a loud voice that today is the festival of learning, why should I wear black. Saraswati, the goddess of learning, is auspicious, tell me some reason for black clothes. In the words of Mahakavi Jaishankar Prasad, it can say- Running in darkness, it is all society. 

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  • युवा-मञ्च

    राष्ट्र निर्माण में युवा वर्ग की भूमिका

    हमारा देश अभी भी अशिक्षा, गरीबी, पिछड़ेपन एवं सामाजिक अन्याय से पीड़ित है। विश्व शान्ति एवं सांस्कृतिक सद्‌भाव का प्रेरक देश आज आतंकवाद एवं उग्रवाद के विस्फोटों से ग्रस्त है। जातीय और साम्प्रदायिक हिंसा हमारे देश के लिए खतरा बनी हुई है। समूचा राष्ट्र भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है। पूरा समाज आज नेतृत्व-विहीन है। राजनीति भ्रष्टाचार एवं अपराध का पर्याय बन गयी है। लोकतन्त्र की व्यवस्था उपहास मात्र बनती जा रही है। राष्ट्र निर्माण का लक्ष्य एक अंधेरी गली में खो गया है। राष्ट्रव्यापी असंतोष, अव्यवस्था आज देश की बुरी स्थिति को प्रकट कर रही है। ऐसी विषम परिस्थितियों से जूझने की सामर्थ्य किसमें है? उलटे प्रवाह को उलटकर सीधा करने का साहस कौन कर सकता है? इन सभी प्रश्नों के उत्तर में हम युवा शक्ति का आह्वान करते हैं। सभी इस बारे में एकमत हैं कि युवाओं में प्रचण्ड ऊर्जा है, भले ही आज वह दिशाहीन होकर बिखर रही है। हमें इस युवाशक्ति को उचित दिशा की ओर प्रेरित करना चाहिए, जिससे हमारे राष्ट्र का निर्माण सफलतापूर्वक हो सके और हमारा भारत प्राचीन गौरव को पुनः प्राप्त कर सके।

    Ved Katha Pravachan -11 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    अपनी मनोभावनाओें को मनुष्य अपने सामने वालों पर थोप देता है और उन्हें वैसा ही समझता है जैसा कि वह स्वयं है। संसार एक लम्बा-चौड़ा बिल्लौरी कॉंच का चमकदार दर्पण हैइसमें अपना चेहरा हुबहू दिखाई पड़ता है। जो व्यक्ति जैसा हैउसके लिए सृष्टि में वैसे ही तत्व निकलकर आगे आ जाते हैं। सतयुगी आत्माएँ हर युग में रहती हैं और उनके पास सदैव सतयुग बरसता रहता है। आशावादी व्यक्ति कठिन और असम्भव से प्रतीत होने वाले कार्यों में जहॉं सफलता प्राप्त कर लेता हैवहीं निराशावादी मनोवृत्ति वाला व्यक्ति साधारण-सी समस्या और कठिनाइयों को भी पार नहीं कर पाता है।

    सदैव राष्ट्रीय गौरव की सुरक्षा के लिए युवाओं ने ही अपने कदम बढाये हैं। संकट चाहे सीमाओं पर हो अथवा सामाजिक एवं राजनैतिकइसके निवारण के लिए अपने देश के युवक-युवतियों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। आवश्यकता यही है कि अपने हृदय में समाज की कसक उत्पन्न करें और अपनी बिखरी शक्तियों को एकत्रित करके समाज की विभिन्न समस्याओं को सुलझाने में लगायें। देश की प्रगति ही अपनी प्रगति और उन्नति है। इस श्रेष्ठ विचार के आधार पर ही युवाशक्ति राष्ट्रशक्ति बनकर राष्ट्र को समृद्धिउन्नति व प्रगति के मार्ग पर ले जा सकती है।

    किसी देश का विकास भीड के सहारे नहींबल्कि मूर्धन्य प्रतिभाओं के सहारे होता है। आज बड़े दुःख की बात है कि अधिक धन एवं सुख-सुविधा के लोभ में देश की युवा प्रतिभाएँ विदेशों में अपना रैन-बसेरा बनाने के लिए आतुर हैं। किसी भी देश के नवनिर्माण में ज्ञान एवं युवाशक्ति का योगदान सदा ही रहा है। परन्तु किसी भी काल में यह इतना महत्वपूर्ण नहीं रहा होगाजितना कि आज के इस वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकी के युग में है। इन क्षणों में प्रत्येक युवा को जो महान्‌ पाठ सीखना हैवह है परिश्रमत्याग और प्रत्येक व्यक्ति को सबके हित में कार्य करने का पाठ।

    सबके जीवन में अनुकूलता और प्रतिकूलता समान रूप में नहीं आतीकिसी के जीवन में कम और किसी के जीवन में ज्यादा। परन्तु इन परिस्थितियों का सर्वथा अपवाद कोई नहीं हो सकता यह एक सच्चाई हैजिसे हर व्यक्ति को स्वीकार करना ही पड़ता है। इसीलिए इन परिस्थितियों से घबराना कायरता है। हमें इन प्रतिकूल परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करना चाहिए। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जो भावनात्मक स्तर पर अपना संतुलन बनाये रखता हैवह बाह्य कारणों से प्रभावित नहीं होता है। इसीलिए हमें शरीर को आरंभ से ही प्रतिकूलताओं को सहन करने हेतु सक्षम बनाना चाहिए।     

    स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि प्रत्येक व्यक्ति की भॉंति प्रत्येक राष्ट्र का भी एक विशेष जीवनोद्देश्य होता है। वही उसके जीवन का केन्द्र होता हैउसके जीवन का प्रधान स्तर हैजिसके साथ अन्य सब स्वर मिलकर समरसता उत्पन्न करते हैं। भारतवर्ष में धार्मिक जीवन ही राष्ट्रीय जीवन का केन्द्र है और वही जीवन रूपी संगीत का प्रधान स्वर है। यदि कोई राष्ट्र अपनी स्वाभाविक जीवनी शक्ति को दूर फेंक देने की चेष्टा करेउससे विमुख हो जाने का प्रयत्न करे और यदि वह अपने इस कार्य में सफल हो जायतो वह राष्ट्र मृत हो जाता है। अतः अपनी प्रत्येक क्रिया का केन्द्र धर्म नैतिकता-सदाचार को ही बनाना होगा। युवाओं में किसी प्रकार का सुधार या उन्नति की चेष्टा करने के पहले धर्म प्रचार आवश्यक है। संसार को समाजवादी अथवा राजनैतिक विचारों से भरने से पहले आवश्यक है कि उसमें आध्यात्मिक विचारों की बाढ़ ला दी जाय। पहले यही धर्म-प्रचार आवश्यक है। धर्म-प्रचार करने के बाद उसके साथ ही साथ लौकिक विद्या और अन्यान्य आवश्यक विद्याएँ अपने आप ही आ जायेंगी। मनुष्य केवल मनुष्य भर ही होना चाहिए। बाकी सब कुछ अपने आप ही हो जायेगा। अब अपने पैरों पर खड़े हो जाओ और मर्द बनो। हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता हैजिससे हम मनुष्य बन सकें। हम निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि इन हृदयवान्‌ उत्साही युवकों के भीतर से ही सैकड़ों वीर उठेंगेजो हमारे पूर्वजों द्वारा प्रचारित सनातन आध्यात्मिक सत्यों का प्रचार करने और शिक्षा देने के लिए संसार के एक छोर से दूसरे छोर तक भ्रमण करेंगे। आज युवकों के सामने यही महान्‌ कर्त्तव्य है। अतएव एक बार फिर हमारे देश के युवकों के "उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत' का अनुसरण करना चाहिए। - गौरीशंकर शर्मा(नवोत्थान लेखासेवा हिन्दुस्थान समाचार)

     

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    Man imposes his feelings on those in front of him and considers them as he himself is. The world is a luminous mirror of a long, wide bellow conch, in which its face is seen accurately. For a person who is like him, similar elements come out in the creation. Satyuga souls live in every age and they always have the golden age. Where an optimistic person achieves success in difficult and seemingly impossible tasks, a person with pessimistic attitude is not able to overcome even the simple problems and difficulties.

     

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  • राष्ट्रवादी महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज का आन्दोलन

    जनवरी सन्‌ 1873 को महर्षि दयानन्द सरस्वती ब्रिटिशों की राजधानी में पहुँचने से पूर्व ही विभिन्न स्थानों पर वैदिक धर्म के सिद्धान्तों और भावनाओं का प्रचार करते हुए कलकत्ता पहुंचे।

    अंग्रेजी राज्य महर्षि दयानन्द की लोकप्रियता और उनकी प्रसिद्धि से भली प्रकार परिचित हो चुका था। साथ ही उन्हें इस बात का भी पता हो चुका था कि महर्षि जहॉं कहीं भी पहुँचते हैं उन पर आस्था रखने वाले सहस्त्रों की संख्या में नर-नारी उपस्थित होकर उनके विचारों से लाभान्वित होते हैं।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
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    Ved Katha Pravachan -4 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती जब कलकत्ता पहुँचे तो तत्कालीन भारत के वायसराय लार्ड नार्थब्रुक ने उनसे भेंट करने की अपनी आकांक्षा प्रकट की। श्री स्वामी जी ने उनकी इस प्रार्थना को स्वीकृत कर लिया। निश्चित तारीख पर वायसराय महोदय संस्कृत और अंग्रेजी के विशिष्ट अनुवादकर्त्ता के साथ स्वामी जी के पास पहुँचे।

    औपचारिक शिष्टाचार और कुशल क्षेम के उपरान्त वायसराय बहादुर ने कहा कि- "मुझे ज्ञात हुआ है कि आप अन्य सम्प्रदायों के सिद्धान्तों और उनके विश्वास की कड़ी आलोचना करते हैं। इससे उनको मानसिक कष्ट होता है। इसके कारण वे आपके शत्रु भी हो सकते हैं। यदि आप आज्ञा करें तो आपकी सुरक्षा का प्रबन्ध किया जाए।" इस पर महर्षि ने कहा कि "अंग्रेजी राज्य में मुझे कोई कष्ट और पीड़ा नहीं। मुझको अपने विचारों की अभिव्यक्ति में पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त है। मैं किसी का शत्रु नहीं हूँ। प्रत्येक सम्प्रदाय में व्याप्त बुराई को हटाना मेरा कर्त्तव्य है।"

    लार्ड नार्थ ब्रुक ने श्री स्वामी दयानन्द जी सरस्वती से कहा कि "हमारे राज्य में आपको यदि कोई कष्ट नहीं है तो इस राज्य के भारत में बने रहने के लिए ईश्वर से प्रतिदिन प्रार्थना करें तो उचित होगा।" लार्ड महोदय की इस बात को सुनकर श्री स्वामी जी ने दर्शाया कि आपकी इस बात को मैं कदापि स्वीकार नहीं कर सकता। कारण कि मेरा यह विश्वास है कि मेरे देश की जनता को संसार के अन्य देशों में प्रतिष्ठापूर्ण स्थान प्राप्त करने के लिए शीघ्र स्वतन्त्रता प्राप्त कर लेना आवश्यक है। मैं प्रतिदिन परमेश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि जिस प्रकार भी हो सके शीघ्र विदेशी राज्य की दासता से मेरा देश मुक्त हो जाए। स्वामी जी के इन विचारों को सुनकर वायसराय महोदय का मुख कान्तिहीन हो गया और विद्रोही संन्यासी की इस विद्रोहात्मक भावना को स्पष्ट शब्दों में सुन कर वायसराय महोदय ने गुप्त रूप से ब्रिटिश राज्य को सूचना दी कि "आर्यसमाज का आन्दोलन" जिस विद्रोही संन्यासी ने आरम्भ किया है इससे राज्य को खतरा है और इस पर विशेष रूप से दृष्टि रखनी भी आवश्यक है। भविष्य में यह आन्दोलन राज्य को क्षति पहुँचा सकता है।

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    महर्षि दयानन्द का विचार था कि साम्राज्यवादी सरकार को जहॉं समाप्त करना आवश्यक हैउससे कहीं अधिक आवश्यकता है कि राष्ट्रीयता की भावना का देशवासियों में प्रचार किया जाये। स्वामी जी ने अपनी विश्वविख्यात क्रान्तिकारी पुस्तक सत्यार्थप्रकाश में लिखा है कि "देश में अखण्डस्वतन्त्रनिर्भय चक्रवर्ती राज्य की स्थापना हो।" फिरंगी राज्य स्थापित हो जाने के बाद स्वामी दयानन्द ही ऐसे क्रान्ति के अग्रदूत रहे हैं कि जिन्होंने देशवासियों के हृदय में स्वाधीनता और देश प्रेम की ज्योति जागृत की थी।

    कहा जाता है कि भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना और उसे सुद्दढ बनाने की दृष्टि से जिस गौरव के साथ "लार्ड क्लाइव" का नाम लिया जाता है उसी प्रकार देश की जनता में देश प्रेम और स्वराज्य की स्थापना की स्वाभाविक भावना को जागृत करके देश भर के बुद्धिवादी वर्ग को सचेत करने का यश स्वामी दयानन्द सरस्वती  को ही है। आप ने जो जनता के हृदय में स्वतन्त्रता की अग्नि प्रदीप्त की थीउसी का ही परिणाम था कि आगे चलकर दीर्घकाल के बाद महात्मा गांधी और स्वतन्त्रता के पुजारियों के महान्‌ बलिदानों और प्रयत्नों से सन्‌ 1947 में अंग्रेजी राज्य का सूर्य जो पश्चिम से उदय हुआ था भारत भूमि के पश्चिम में सदैव के लिए अस्त हो गया।

    महर्षि इस बात को भली प्रकार से जानते थे कि अपने देश में स्वराज्य और विदेशी राज्य के होने का क्या उद्देश्य हैस्वामी जी का उद्देश्य कोरा कर्मकाण्डी सम्प्रदाय-स्थापित करना नहीं था। वह राज्य धर्म के सच्चे संस्थापक थे। देश और आर्यावर्त्त की सभ्यता व संस्कृति से आपको कितना प्रेम थाइसका एक उदाहरण यहॉं प्रस्तुत किया जाता है।

    घटना इस प्रकार है कि एक बार एक अंग्रेज अधिकारी ने महर्षि से कहा कि "भारत में हमारे राज्य के होने से आपको प्रसन्न होना चाहिए। कारण कि इस देश को उन्नति के मार्ग पर हमने लगाया है। यदि हम यहॉं न आते तो शायद ही हिन्दुस्थान खुशहाल हो पाता।" इस पर महर्षि ने कहा था कि "यह आपकी धारणा भ्रान्तिपूर्ण है। आप जिसको उन्नति और प्रगति मानते हैं वह धोखा और भ्रम है। अन्यों को दास बनाए रखने वाले धर्मभ्रष्ट लोगों ने क्या कभी किसी देशजाति और राष्ट्र का हित किया हैमुझे नहीं जान पड़ता।"

    महर्षि की इस यथार्थ बात को सुनकर अंग्रेज अधिकारी के नेत्र क्रोध से लाल हो गए और कांपते होठों से कहा कि "धर्मभ्रष्ट से आपका क्या अभिप्राय है?" स्वामी जी ने उच्च स्वर में निर्भीकता से उत्तर दिया कि "अपने पास जो कुछ है उसको ही सब कुछ समझना और उसी पर निर्भर रहनादूसरों के देश पर छल-बल से अधिकार कर अपना लाभ उठाएवह धर्मभ्रष्ट है। इन बातों से जो मुक्त रहता हैवह धर्मात्मा है।"

    महर्षि न केवल धार्मिक-सामाजिक सुधारक और भारतीय सभ्यता और संस्कृति के पोषक व प्रचारक थेअपितु  वह राष्ट्रीयता के भी अग्रदूत थे। यदि महर्षि ने इन राष्ट्रीय विचारों को भारतीय जनता में जागृत न किया होता तो स्वतन्त्रता का प्राप्त कर लेना इतना सरल और सुगम न था।

    महर्षि के द्वारा स्थापित आर्यसमाज ने न केवल भारत में ही स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष किया और जनता को तैयार कियाअपितु दास बनाकर विदेशों को ले जाए जाने वाले भारतीयों के मन में भी स्वाभिमान व जागृति के भाव उत्पन्न किए। इसके परिणामस्वरूप ही अन्य देशों में बसने वाले भारतीयों ने शानदार ढंग से वहॉं के स्वाधीनता आन्दोलनों में अपना योग प्रदान किया। यह विश्वव्यापी सफलता आर्य समाज के आन्दोलन की विश्व को बहुत बड़ी देन है।

    आज की परिस्थिति में आर्यसमाजियों को आस्था के साथ संकल्प करना होगा कि समाज के भीतर प्रविष्ट सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध आवाज उठाकर समाज को दृढ और युवकों को वैचारिक और चरित्र की दृष्टि से श्रेष्ठ बनाकर प्राप्त स्वतन्त्रता को अक्षुण्ण बनाए रखें। - स्वामी सोमानन्द सरस्वती

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    When Shri Swami Dayanand Saraswati reached Calcutta, the then Viceroy of India Lord Northbrook expressed his desire to meet him. Shri Swami Ji accepted his prayer. On a certain date, the Viceroy reached Swamiji with a special translator of Sanskrit and English.

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  • रोग निवारण के घरेलू नुस्खे

    नीम्बू से रोग निवारण के घरेलू नुस्खे

    1. एक चम्मच नीम्बू का रस, एक चम्मच पिसी हुई अजवायन आधा कप गर्म पानी में डालकर सुबह-शाम पीना चाहिए।
    2. एक गिलास पानी में नीम्बू निचोड़कर चौथाई चम्मच सोड़ा मिलाकर नित्य पीयें।
    3. आधा गिलास गरम पानी में आधा नीम्बू निचोड़कर जरा सी पीसी हुई काली मिर्च की फंकी सुबह-शाम लें।

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    4. एक चम्मच सौंठ तथा साबुत अजवायन 50 ग्राम नीम्बू के रस में भिगोकर छाया में सुखायें। भोजन के बाद इसकी एक चम्मच चबायें।
    5. नीम्बू काटकर इसकी फांकों में नमक तथा काली मिर्च भरकर गर्म करके चूसने से लाभ होता है। उपरोक्त सभी उपायों से वायु विकार में लाभ होता है।
    6. एक गिलास गर्म पानी में आधा नीम्बू निचोड़कर 4 बार नित्य कुल्ले करने या नित्य नीम्बू-पानी में स्वाद के लिये चीनी या नमक डालकर प्रातः भूखे पेट पीने व रात को सोते समय एक गिलास गर्म दूध में एक चम्मच घी डालकर पीने से दो-तीन महीने तक प्रयोग से छालों में लाभ होता है।
    7. नीम्बू के पेड़ से हरी पत्तियॉं तोड़कर चबाकर रस चूसने, तेज गर्म पानी में नीम्बू निचोड़कर घूंट-घूंट पानी पीने से हिचकी बन्द हो जाती है।
    8. नीम्बू, सौंठ, काली मिर्च, अदरक सब थोड़ी मात्रा में लेकर चटनी बनाकर चाटने, नीम्बू में नमक भरकर 4 बार चूसने, काला नमक तथा शहद और नीम्बू का रस मिलाकर चाटने से हिचकी बन्द हो जाती है।
    9. खट्टी डकार आने की स्थिति में गर्म पानी में नीम्बू निचोड़कर पीना चाहिए।
    10. 50 ग्राम पुदीने की चटनी पतले कपड़े में डालकर, निचोड़कर रस निकालकर आधा नीम्बू निचोड़ें।
    11. 2 चम्मच शहद और 2 चम्मच पानी मिलाकर पीने से पेट का दर्द जल्द बन्द हो जाता है।
    12. आधा कप पानी, 10 पिसी हुई काली मिर्च, एक चम्मच अदरक का रस, आधे नीम्बू का रस सब मिलाकर पीने से पेट दर्द ठीक होता है। स्वाद के लिये चीनी या शहद मिला सकते हैं।
    13. एक नीम्बू, काला नमक, काली मिर्च, चौथाई चम्मच सौंठ, आधा गिलास पानी में मिलाकर पीने से पेट दर्द ठीक होता है।
    14. अजवायन तथा सेंधा नमक को नीम्बू के रस में भिगोकर सुखा लें। पेट दर्द होने पर एक चम्मच चबाकर पानी पीएं। इस प्रकार जब तक दर्द रहे, हरेक घण्टे में सेवन करें और पेट पर सेक करें।

    शुद्ध शहद की पहचान कैसे करें

    1. शहद में अपनी साफ उंगली लगाकर नेत्रों में लगावें। यदि नेत्रों को लगता है, आंसू निकलते हैं तो शहद शुद्ध है।
    2. कुत्ते के आगे शहद में रोटी भिगोकर दें। यदि कुत्ता दूर से ही रोटी सूंघकर हट जाये तो शहद असली है।
    3. शहद में रूई की बत्ती भिगोकर जलावें। यदि घी की तरह जलने लगे तो शहद असली है।
    4. शहद को कागज पर रखें। कागज न गले तो शहद शुद्ध है।
    5. पान की दुकान से तरल चूना लेकर हथेली पर रखें। थोड़ी सी शहद की बून्द लेकर हल्के चूना में मिलावें हथेली जलने लगेगी ।
    6. कपड़े पर शहद की बून्द डाल दें तथा कपड़े को हल्का सा झाड़ दें। बून्द कपड़े से अलग गिर जायेगी, निशान नहीं बनेगा । इसके विपरीत परिणाम मिले तो भूलकर भी ऐसा शहद न खरीदें।एकता ओझा

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    सौंफ से पाचन-शक्ति बढ़ती है

    बहुत से लोग भोजन के बाद कभी-कभी सौंफ खाना पसन्द करते हैं। जो लोग कभी भी सौंफ नहीं खाते, वे भी होटल में भोजन करने के बाद पेमेण्ट काउण्टर पर रखी सौंफ को मुंह में डाल लिया करते हैं। रसोईघर में भी सौंफ का बहुत बोलबाला होता है। कुछ विशिष्ट सब्जियों को स्वादिष्ट और खुशबूदार बनाना सौंफ का महत्वपूर्ण गुण है। वैसे ज्यादातर लोग सौंफ को भोजन करने के बाद खाते हैं। स्वागत-सत्कार में भी सौंफ-सुपारी का प्रचलन है। सौंफ के कुछ प्रमुख गुण ये हैं -

    1. इसके खाने से पाचनशक्ति में आश्चर्यजनक वृद्धि होती है।
    2. सौंफ और धनिया को समान मात्रा में पीसकर डेढ़ गुना शुद्ध घी में मिला लें। इसमें स्वाद हेतु शक्कर भी मिला लें। इस मिश्रण का कुछ दिनों तक सुबह-शाम सेवन करें। इसके सेवन से शरीर के किसी भी भाग में होने वाली खुजली जड़ से मिट जाती है।
    3. कच्ची एवं भुनी हुई सौंफ खाने से दस्तों में तुरन्त फायदा होता है।
    4. नीम्बू के रस में पिसी हुई सौंफ का प्रयोग करने से भूख भी खुलकर लगती है एवं कब्ज की शिकायत भी मिटती है।
    5. निःसन्तान महिलाओं को नियमित रूप से दो- तीन माह तक सौंफ के चूर्ण का प्रयोग करना चाहिए। उन्हें सौंफ के एक चम्मच चूर्ण के साथ गाय का शुद्ध घी एक चम्मच मिलाकर सुबह-शाम लेना अत्यन्त गुणकारी है। इसके प्रयोग से पेट के विकार समाप्त होते हैं तथा गर्भ स्थापन की स्थिति बनती है।
    6. वायुगोला का दर्द पेट में होने पर सौंफ को चिलम में भरकर पीने से कुछ ही मिनटों में दर्द उड़न-छू हो जाता है । इसे तम्बाकू की तरह चिलम में भरकर पीते हैं।
    7. जो महिलायें गर्भावस्था में नारियल और सौंफ का प्रयोग करती हैं, उनकी सन्तान गौर वर्ण होती है।
    8. पाचन सम्बन्धित जो भी चूर्ण तैयार होते हैं। लगभग सभी चूर्णों में सौंफ जरूर डाली जाती है डॉ. ऋषिमोहन श्रीवास्तव

    पुदीना के प्रयोग

    1. गर्मी के कारण उत्पन्न फुंसियों पर पुदीने का रस बहुत राहत देता है।
    2. ताजा हरा पुदीना पीसकर चेहरे पर बीस मिनट तक लगा लें। फिर ठण्डे पानी से चेहरा धो लें। इससे आपको गर्मी से राहत मिल जाएगी और आप तरोताजा महसूस करेंगे।
    3. पुदीने के पत्तों को पीसकर शहद के साथ मिलाकर तीन बार चाटने से अतिसार (दस्त) से राहत मिलती है।
    4. गर्मी के समय प्रतिदिन भोजन के साथ पुदीने की चटनी अवश्य खाएं।
    5. गन्ने के रस में पुदीने का थोड़ा सा रस भी मिलाकर लिया जा सकता है।

     

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    Grind equal quantity of fennel and coriander and mix it in one and a half times pure ghee. Add sugar to taste as well. Drink this mixture twice a day for a few days. Due to its use, itching in any part of the body disappears from the root.

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  • विचार शक्ति का महत्व

    विचार शक्ति का मनुष्य जीवन में एक विशिष्ट स्थान है।  इसका प्रभाव जीवन में भिन्न-भिन्न प्रकार से असन्दिग्ध रूप में होता ही रहता है। यह एक महान्‌ शक्ति है, जो प्रत्येक मानव के अन्तर में निहित है। बुद्धि अथवा परिस्थितियों द्वारा जब उसका विकास हो जाता है, तब उससे निसन्देह कभी-कभी आश्चर्यजनक कार्य भी होते देखे गये हैं। परमात्मा की दी हुई इस शक्ति का लाभ प्रत्येक नर-नारी को अवश्य उठाना चाहिये, अन्यथा वह परम उपादेय शक्ति प्रयोगविहीन रहकर कुण्ठित हो जाती है और हम उसके सभी सम्भव लाभों से वंचित रह जाते हैं।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए-
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
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    यह सम्पूर्ण जगत ही विचार (संकल्प) शक्ति का परिणाम है। यह प्रकृति तो जड़ होने के कारण स्वयं गति शून्य हैपरन्तु परमात्मा में जगदोत्पत्ति का विचार आते ही प्रकृति में गति उत्पन्न हो जाती है और प्राकृतिक नियम के अनुसार क्रमशः जगत्‌ की उत्पत्ति हो जाती है। यह इतना अतुलितमहान्‌ अपरिमित एक अद्वितीय कार्य केवल विचार (संकल्प) के बल पर ही हो जाता है। इसी कारण इस विचार शक्ति का इतना व्यापक महत्व है। मनुष्य जैसे विचार करता है वैसा ही बन जाया करता है। यदि किसी व्यक्ति के विचार अच्छे हैंजो केवल सत्संगउपासना और उत्तम साहित्य के अध्ययन से ही हो सकते हैंतो वह अच्छा बन जाता है और यदि बुरे हैं जो कुसंगति और कुसंस्कारों का परिणाम होते हैंतो वह बुरा बन जाता है। मनुष्य को सुख और दुःख का जो भान होता हैवह भी इन्हीं विचारों का परिणाम है।

    इन विचारों का उद्‌गम स्थान हृदय है और मन के द्वारा उनका व्यापार होता है। जितनी कामनाएँ हैं सभी का कारण विचार ही हैं। मनुष्य पहले मन में विचार करता हैपुनः उसे वाणी अथवा लेख द्वारा प्रकाशित करता हैफिर फल विधि के विधानानुकूल उसे मिल जाता है। इससे स्पष्ट है कि सभी कर्मों का प्रथम अथवा मूल कारण विचार ही है। स्वामी विवेकानन्द ने अपनी पुस्तक "राजयोगमें एक स्थान पर लिखा है, "मनुष्य के हृदय से निकला हुआ प्रत्येक घृणा अथवा प्रेम का विचार बलपूर्वक उसी उसी के पास लौट आया करता हैकोई शक्ति उसे रोक नहीं सकती। अर्थात्‌ घृणा से घृणा और प्रेम से प्रेम की उत्पत्ति होती है।

    मनुष्य बूढ़ा क्यों होता हैविशेषतः अपने विचारों के कारण। जैसे-जैसे वह बुढ़ापे की बातें सोचता जाता हैवैसा ही वह होता जाता है। अमेरिका का एक प्रसिद्ध लेखक बैनट इसका ज्वलन्त उदाहरण है। उसने अपनी 50 वर्ष तक की आयु का उसका एक फोटो उसकी प्रसिद्ध पुस्तक"Old age, its cause and prevention'' में है। फोटो के देखने से यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि वह लगभग 70 वर्ष के बुड्‌ढ़े का चित्र है। बाल सफेदगले में झुर्रियॉंमाथे में सिकुड़न और सम्पूर्ण शरीर की त्वचा मांस रहित। 50 वर्ष की आयु के पश्चात्‌ उसने अपना स्वास्थ्य सुधार प्रारम्भ किया। उसने केवल दो बातों को अपनाया (1) समस्त शरीर के हलके व्यायाम, (2) अपने विचारों को उपयोगी और शक्तिशाली बनाना। इन्हीं दोनों बातों का अभ्यास उसने निरन्तर 20 वर्ष तक किया। 70 वर्ष की आयु का एक दूसरा चित्र उसी पुस्तक में हैजिससे प्रकट होता है कि वह चित्र किसी पैतींस-छत्तीस वर्ष के युवक का है। इस आयु में उसके शरीर में बुढ़ापे के सभी चिन्ह अदृष्ट हो गए थे।

    उसी पुस्तक में एक दूसरा उदाहरण उसने फ्रांस की एक लड़की का दिया है। उस लड़की ने 19 वर्ष की आयु में अपना विवाह वहीं के एक नवयुवक के साथ करने का निश्चय किया। नवयुवक ने अपनी निर्धनता के विचार से लड़की से कहा कि विवाह तो निश्चित हैपरन्तु विवाह से पूर्व मैं कुछ धन संग्रह कर लूं। लड़की ने उसे स्वीकार कर लिया। वह धन उपार्जन करने के लिये अमेरिका चला गया। उस युवक ने तीन वर्ष में अपने अथक परिश्रम से पर्याप्त धन अर्जित कर लिया। परन्तु किसी झगड़े में उसे 15 वर्ष अमेरिका में और रुकना पड़ा। 18 वर्ष पश्चात्‌ जब वह फ्रांस लौटातब उन दोनों का विवाह हुआ। परन्तु आश्चर्य की बात जो उसने देखी वह यह थी कि 37 वर्ष की आयु में भी उस लड़की के मुख की आकृति ठीक वैसी ही थीजैसी वह 19 वर्ष की आयु में अमेरिका जाते हुए छोड़ गया था। उसका रहस्य पूछने पर युवती ने कहा, "मैंने निश्चय किया था कि 19 वर्ष की आयु में विवाह करूँगी। परन्तु जब वह न हो सकातो उसने दूसरा निश्चय किया कि विवाह जब भी होगा मैं उस समय तक अपने मुख का आकार-प्रकार वैसा ही बनाये रखूंगी जैसा 19 वर्ष की आयु में था।'' इस निश्चय की पूर्ति के लिए उसने अपने एक कमरे में मनुष्य की ऊँचाई का एक दर्पण बनवाया जिसमें देखकर उसने अपने मुख की आकृति मन में अंकित कर ली। अब वह जब भी दिन में इस कमरे से होकर जाती तो एक मिनट के लिये उस दर्पण के सम्मुख खड़ी होकर देख लिया करती कि उसके मुख की आकृति में कोई अन्तर तो नहीं आया है। निरन्तर 18 वर्ष तक यह क्रम चलता रहा और उसके सशक्त विचारों का यह प्रभाव हुआ कि उसके मुख की आकृति में कोई अन्तर नहीं आने पाया। यह है विचार का महत्व।

    इस विचार शक्ति का उपयोग जीवन में मनुष्य अनेकों स्थान पर यदि चाहे तो सफलतापूर्वक कर सकता है। विचार प्रकृति के नियम के अनुसार अपने ही समान विचारों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। विचारोें के द्वारा हम सदैव अपने विचारोें के समान ही शक्ति और विचार दृश्य और अदृश्य जगत्‌ में से अपनी ओर आकर्षित करते रहते हैं। हम उसे जानें अथवा न जानेंउसकी इच्छा करें अथवा न करेंपरन्तु यह सिद्धान्त अपना कार्य करता ही रहता  है। अंग्रेजी में भी इस सम्बन्ध में एक कहावत है'Like attracts live'' अर्थात्‌ जैसे को तैसा सदैव आकर्षित करता ही रहता है। शराबी शराबी कोजुआरी जुआरी कोचोर चोर कोगायक गायक कोसत्संगी सत्संगी को इत्यादि। हम विचारों के सागर में तो निवास ही करते हैंजहॉं से हमारे विचार बाहर जाते और बाहर से विचार हमारे पास आते रहते हैं। इस अदृश्य धारा का प्रवाह निरन्तर होता ही रहता है। जिस प्रकार हमारी श्वास और नाड़ी सदैव चलती रहती हैपरन्तु हम उस ओर कभी ध्यान नहीं देतेठीक उसी प्रकार विचारों का आदान-प्रदान भी सदैव अज्ञात रूप में होता ही रहता हैपरन्तु हम उधर ध्यान बहुत ही कम देते हैं। 

    विचारों से ही कर्म की उत्पत्ति होती है। बिना विचारों के कोई कर्म नहीं बनता। विचार ही कर्मों की जननी है। यह निर्विवाद तथ्य है कि शुभ विचारों से शुभ कर्म ही बनेंगे और विचार जितने ही प्रबल होंगेकर्म उतना ही अधिक साध्य और सफल होगा। मनुष्य जितने सूक्ष्म विचार तरंगों को ग्रहण करने योग्य होता है उतना ही प्रभाव विचारों का उस पर होता है। निर्बल मन वाले मनुष्य पर बाहर के विचारों का अधिक और शीघ्र प्रभाव होता है। वह विचारों के अधीन शीघ्र ही हो जाता है। सुदृढ़ मन वाले मनुष्य किस विचार को मन आने देना और किसको न आने देनाऐसा ध्यान में रखकर ही उन्हें ग्रहण करते हैं। विचारों का प्रभाव मनुष्य पर होता ही है। मनुष्य जैसे विचारों की संगति में रहता है और जैसा साहित्य पढ़ता हैउसके विचारों की प्रबलता से दुसाध्य कार्य भी सुसाध्य देखे गये हैं। - आचार्य डॉ. संजयदेव

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    This whole world is the result of thought (sankalpa) power. Due to this nature being inertial, the speed itself is zero, but as soon as the idea of ​​worldliness comes in the divine, motion arises in the nature and according to the natural law, respectively, the world is born. This unique work, so incomparable, is done only on the strength of thought (sankalpa). This is why this power of thought is so widespread. Man becomes like what he thinks.

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  • वेद एवं वैदिक संस्कृति के पुनरुत्थान में महर्षि दयानन्द का योगदान

    वेद भारतीय संस्कृति अथवा आर्य संस्कृति के आधार ग्रन्थ हैं। भाषा विज्ञान की शब्दावली में वेद भारतीय परिवार (Indo-European Family) के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। समस्त उत्तरवैदिक साहित्य वेदों के व्याख्या ग्रन्थ हैं। ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, वेदांग, उपवेद, षड्‌दर्शन, सूत्रग्रन्थ, स्मृतियॉं तथा प्रातिशाख्य आदि सबका सम्बन्ध वेद से जोड़ा गया है। मनुस्मृति वेद को परम प्रमाण मनाती है तथा वेद से भूत, भविष्यत्‌, वर्तमान सब कुछ सिद्ध हो सकता है। कवि कुलगुरु कालिदास का कहना है कि यह वेदवाणी ओंकार से आरम्भ होती है तथा उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित तीन भेद से इसका उच्चारण होता है। विभिन्न भारतीय भाषाओं में भी अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। भारत में उद्‌भूत दर्शन एवं सम्प्रदाय या तो वैदिक कोटि में माने गए हैं या अवैदिक। वैसे प्रत्येक सम्प्रदाय अपने को वैदिक ठहराने का प्रयास करता है। वेद का इतना महत्व है कि इसके ज्ञान को नित्य माना गया है। इसकी शब्दानुपूर्वी (Word order) को भी नित्य माना गया। इसीलिए सम्भवत: वेदमन्त्रों की श्रुतिपरम्परा से जिस तरह रक्षा की गई, वैसी आज तक समस्त वैदिक, लौकिक संस्कृत अथवा भारतीय भाषा-साहित्य में किसी भी ग्रन्थ की रक्षा नहीं की गई। हजारों वर्षों से वेदमन्त्रों को कण्ठस्थ किया जाता रहा है और आज भी यह परम्परा अपने मूल में अक्षुण्ण है, यह वेदपाठियों का दावा है। उसका एक भी अक्षर इधर से उधर नहीं हुआ। विश्व के इतिहास में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता। इस परम्परा को अक्षुण्ण (ज्यों का त्यों) बनाए रखने के लिए ऋषियों ने अनेक उपाय किए। प्रत्येक मन्त्र में ऋषि, देवता, छन्द और स्वर का विधान किया गया। अष्ट विकृतियों अर्थात्‌ एक मन्त्र का आठ प्रकार से पाठ करने की प्रणाली चालू की गई और उनमें किसी-किसी पाठ के तो आगे 25 भेद हैं। फिर वेदमन्त्रों के अध्यात्म, अधिदैवत, अधिभूत से तीन-तीन अर्थ होते हैं। वेदार्थ के लिए व्याकरण का अध्ययन आवश्यक है, क्योंकि वेदमन्त्रों में सभी लिंगों एवं विभक्तियों का उल्लेख नहीं मिलता। निरुक्त के अनुसार वेदार्थ के लिए ऋषि, तपस्वी एवं विद्वान होना आवश्यक है। उसका राग और द्वेष तथा पक्षपात से रहित होना भी अपेक्षित है।

    dayanand saraswati

    ऐसे गम्भीर और जटिल विषय का फल क्या है? महामुनि पतंजलि के शब्दों में वेद का एक शब्द भी, यदि उसको अच्छी तरह समझकर जीवन में ढाल लिया जाए तो लोक और परलोक की सिद्धि करने हारा है। बिना अर्थज्ञान के वेदार्थं को हृदयंगम किए बिना वेद को पढना व्यर्थ में भार ढोने के समान है। वेदार्थ को जानने हारा सकल कल्याण को प्राप्त करता है। वेदमन्त्र नारियल के समान बाहर दुर्गम एवं कठोर है, परन्तु भीतर उनमें जीवन रस भरा हुआ है। उसको फाड़कर ही, वेदमन्त्रों को समझकर ही वह रस चखा जा सकता है। वह रस चखा कैसे जाए? मन्त्रों का मनन करने से, केवल पढने से नहीं, काम-क्रोध-राग-द्वेष से रहित होकर मनन-चिन्तन करने से।

    इस प्रकार का है यह वेद का जगत्‌ जो आश्चर्यजनक भी है, सूक्ष्म और गम्भीर भी है। सर्वजनहिताय है, सर्वभूत मैत्रीप्रतिपादनीय है। विश्व के समस्त अमृतपुत्रों, अमर मानवों के लिए है। समस्त पृथिवी इसका क्षेत्र है। वेदान्तदर्शन के शब्दों में जगत्‌ और ब्रह्मा के बीच समन्वय-स्थापक है, जो कुछ जगत ये है उसका वर्णन वेद में है। प्राचीन काल से लेकर आज तक वेद को समझने का प्रयास होता रहा है। पाश्चात्य एवं पौर्वात्य विद्वान्‌ (Indologists or Sanskritists of the East and the West) वेद को समझने का यत्न करते रहे हैं। परन्तु वेद अब भी रहस्य बने हुए हैं।

    इन्हीं वेदों के लिए यतिवर दयानन्द ने अपना जीवन लगाया तथा उनके द्वारा प्रवर्तित आर्यसमाज ने विगत 140 वर्षों में इसके प्रचार और प्रसार का यत्न किया। एक वाक्य में आर्यसमाज के पिछले एक सौ चालीस वर्षों की कहानी वेदों के प्रचार की कहानी है। इसमें उसे कितनी सफलता मिली, यह निर्णय करना सुविज्ञ पाठकों पर है। भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के पुनर्जागरण (Revival) में अनेक महान्‌ आत्माओं ने अपना योगदान दिया है। परन्तु इसके मूल उत्स या प्रेरणास्रोत वेद की ओर हमारा ध्यान किसने खींचा, इसका निर्णय स्वयं पाठक करें। दयानन्द इसलिए महान्‌ नहीं कि वे आर्यसमाज के संस्थापक थे, अपितु इसलिए कि उन्होंने वेद का उद्धार किया तथा वैदिक संस्कृति का पुनरुत्थान किया। जैसे कभी मण्डनमिश्र के द्वार पर शुकसारिकाओं में वेद के स्वत: प्रमाण अथवा परत: प्रमाण होने के बारे में चर्चा होती थी, वैसे ही विगत 140 वर्षों में आर्य समाज के मंच से विभिन्न रूपों में वेदों की चर्चा रही है और आज इसी का परिणाम है कि "आक्सफोर्ड हिस्ट्री आफ इण्डिया" में विन्सैण्ट स्मिथ ने आर्यसमाज के वेद-विषयक मत का उचित उल्लेख किया है। अन्य किसी संस्था या सम्प्रदाय को यह श्रेय नहीं मिला। महर्षि दयानन्द ने वेद में ही मानव की सब समस्याओं का समाधान ढूंढा तथा वेद में ही सब ज्ञान-विज्ञान को बताया। बर्तानिया ज्ञान का विश्वकोष इस बात को स्वीकार करता है-

    वेद के बारे में दयानन्द और उनके आर्यसमाज ने एक शताब्दी पूर्व जो स्थापनाए रखी थीं, वे आज विद्वद्‌जगत्‌ को मान्य हो चली हैं तथा इतिहासकार, वेदविद्‌ तथा संस्कृतज्ञ उनके मत को उचित स्थान देने लगे हैं। प्रश्न केवल निष्पक्ष होकर विचार करने का है। आर्यसमाज मानो रथ है और दयानन्द उस रथ के सारथि हैं और वेद मानो उनका सुदर्शन चक्र था, जिसके द्वारा उन्होंने अज्ञान अविद्या तथा अवैदिक विचारों की कौरव सेना का विध्वंस किया। सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम दस समुल्लासों में दयानन्द ने सनातन वैदिक संस्कृति के सिद्धान्तों का विशद विवेचन प्रस्तुत किया है।

    वेद आर्य अथवा भारतीय संस्कृति के उद्‌गम-स्रोत हैं। भारतीय विद्या भवन बम्बई से प्रकाशितHistory and Culture of Indian people प्रथम खण्ड की भूमिका में डा. मजुमदार इसको स्वीकार करते हैं। वेद ईश्वरीय ज्ञान है, ऋषियों ने तप एवं समाधि के द्वारा वेदमन्त्रों का साक्षात्‌ किया, दयानन्द की यह अगली स्थापना थी। डा. राधाकृष्णन जैसे दार्शनिक इस मत को स्वीकार करने लगे हैं। उनका कहना है कि वेद में वर्णित आध्यात्मिक सत्यों का धर्म एवं तपश्चर्या द्वारा पुन: साक्षात्‌ या प्रत्यक्ष किया जा सकता है।

    आर्य लोग बाहर से नहीं आए, दयानन्द की इस मान्यता को कई विद्वान्‌ स्वीकार करने लगे हैं। डा. के. एम. मुन्शी इस मत को मानते हैं तथा स्वतन्त्र लेख को भी इस विषय मेंHistory and Culture of Indian people में स्थान दिया गया है।

    वेद के विषय में दयानन्द की स्थापनाओं के सन्दर्भ में मैं अपनी ओर से अधिक कुछ न कहकर हिन्दी विश्वकोष को उदधृत करूंगा, जिसे नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी ने प्रकाशित किया है, इसका समस्त व्यय भारत सरकार ने वहन किया है। यह भी एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका की तरह हिन्दी में ज्ञान का विश्वकोष (Encyclopedia Hindi) है। इस विश्वकोष के खण्ड 11 में वेद के विषय में दामोदर सातवलेकर को प्रमाणित मानकर अक्षरश: उद्धृत किया गया है। इससे बढकर दयानन्द की स्थापनाओं की दिग्विजय और क्या हो सकती है? आर्यसमाज के लिए यह गौरव का विषय है कि अन्तत: सुधी विद्वानों ने निष्पक्षभाव से उसकी मान्यताओं का आदर किया है। सातवलेकर के बारे में पाठकों को विदित रहे कि उन्होंने ऋषि दयानन्द द्वारा प्रदर्शित पद्धति का अनुसरण किया है। दयानन्द से पहले आधुनिक समय में किसी ने वेद की ओर हमारा ध्यान नहीं खींचा। सातवलेकर के शब्दों में जो राष्ट्र के लिए श्रेष्ठ सन्देश देता है वह ऋषि कहलाता है। स्वामी दयानन्द सचमुच ऋषि थे, क्योंकि उन्होंने हिन्दुओं के पतन का सच्चा कारण देखा और उन्नति का सच्चा मार्ग भी देखा। यह सत्य दृष्टि ही ऋषि की दृष्टि है। उनके समय में बहुत से नेता थे, वे नेतागण हिन्दुओं के उद्धार का मार्ग भी सोचते थे परन्तु किसी ने वेद का मार्ग देखा नहीं। उस समय शास्त्री पण्डित भी थे, परन्तु वे बेचारे वेद को जान भी नहीं सकते थे, फिर वेद के धर्म से मानवों का त्राण होने की बात जानना और वैसा उपदेश करना तो दूर की बात है। केवल अकेले ऋषि दयानन्द जी के पास ही यह ऋषित्व आता है। इन्होंने ही यह सच्ची रीति से जाना और कहा कि वेदों को पढो और वेदोपदेश को आचरण में लाओ।

    विश्वकोष में लिखा है कि यज्ञ में पशुवध नहीं होता, क्योंकि वेद में वध करने का कोई मन्त्र नहीं है-

    ओषधे त्रायस्व स्वधिते मैनं हिंसी:। हे औषधि, इसका संरक्षण कर। हे शस्त्र, इसकी हिंसा न कर। मन्त्र का स्पष्ट भाव पशु का संरक्षण करना ही है। गोमेध में गाय का वध उचित नहीं, क्योंकि वेदों में गौ को अघ्न्या (अवध्या) कहा है। अजमेध में बकरे का वध करना अनुचित है, क्योंकि अज एक धान्य का नाम है। कोश में अज के अर्थ अजश्रृंगि-औषधि-प्रेरक-नेता-सूर्य किरण-चन्द्रमा-प्रकृति-माया आदि हैं। राष्ट्र सेवा ही अश्वमेध यज्ञ है- राष्ट्र वा अश्वमेध:। (शतपथ ब्राह्मण)

    वैदिक यज्ञों के बारे में यह स्थापना किसने की थी? पाठक स्वयं अनुमान करें।

    अथर्ववेद-अथर्ववेद का अर्थ गतिरहितता अर्थात्‌ शान्ति है। सचमुच अथर्ववेद आत्मज्ञान देकर विश्व में शान्ति स्थापना करने का महत्वपूर्ण कार्य करता है।

    अथर्वेति गतिकर्मा तत्प्रतिषेधो निपात:। (निरुक्त)

    इससे पहले तो अथर्ववेद जादू टोने चमत्कार का ही पिटारा बन गया था। दयानन्द ने उसे वेदत्व का दर्जा दिलवाया, अन्यथा उसके वेद होने को ही नकारा जाने लगा था।

    ये वेद मानव की उन्नति करने का सच्चा धर्म बतलाते हैं। ऋग्वेद (10.111.2) का उपदेश है- संगच्छध्वं संवदध्वं। हम मिलकर चलें, मिलकर बोलें, हमारे मन एक हों। यजुर्वेद (40.1) कहता है कि यह सारा संसार ईश की सत्ता से व्याप्त है, त्याग भाव से इसका उपभोग करो।

    दयानन्द की अगली स्थापना थी कि वेद में इतिहास नहीं। सातवलेकर इस सम्बन्ध में लिखते हैं कि वेद में इतिहास-पुराण की कल्पना पृथक्‌ है। भारत के ऋषि-मुनि मानवीय शरीरों की हलचल को इतिहास नहीं मानते। शरीर की हलचल मानसिक विचारों से होती है। वेद में दशरथ, दु:शासन गुणबोधक नाम है। अयोध्या नगरी शरीर को कहा है, जिसमें आठ चक्र और नवद्वार हैं। ये मानवीय भावों और विचारों का शाश्वत और सनातन इतिहास है।

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    दयानन्द का उद्देश्य कोई नवीन सम्प्रदाय अथवा मत-मतान्तर चलाने का नहीं था। उन्होंने उसी प्राचीन वेदमार्ग का पुनरुद्धार (Revival) किया जिसको ब्रह्मा से लेकर जैमिनी मुनि पर्यन्त मानते आए हैं। वेद परम प्रमाण हैं। वेद विरुद्ध जितनी भी स्मृतियॉं या ग्रन्थ हैं वे निरर्थंक हैं तथा वेद को पढना ही सबसे बड़ा तप या धर्म है। ऋषि दयानन्द ने मनु की इन धारणाओं को अक्षरश: सत्य चरितार्थ कर दिखाया। इसी कारण उन्होंने मतमतान्तरों की आलोचना की, किसी की हानि या द्वेष के भाव से नहीं।

    वर्तमान समय में जब हम एक शताब्दी बाद यतिवर दयानन्द के विचारों का मूल्यांकन (Estimate) करते हैं, तो वेद एवं वैदिक अथवा आर्य संस्कृति अथवा भारतीय संस्कृति के बारे में उनकी मौलिक स्थापनाएं मान्य एवं सत्य हो चली हैं। परन्तु मतमतान्तरों या विभिन्न धर्मों के बारे में उनके विचारों में संशोधन की आवश्यकता है तथा इसी प्रकार का दृष्टिकोण त्याज्य अथवा अपाठ्‌य ग्रन्थों के बारे में अपनाने की आवश्यकता है। विचारों की समय-समय पर पुनर्व्याख्या (Review) पुनरालोचना होती रहने से ही विचार वैज्ञानिक एवं तर्कसंगत बने रहते हैं, अन्यथा वे रूढिग्रस्त (Traditional, old) पुराने तथा असंगत हो जाते हैं। पुनरालोचन से सारतत्व (मुख्य बातें) छंट जाता है तथा गौण बातें त्याग दी जाती हैं। वेद एवं वैदिक संस्कृति का पुनरुद्धार दयानन्द का मुख्य लक्ष्य अथवा साध्य था। मतों की आलोचना तथा त्याज्य ग्रन्थों का उल्लेख यह साधन था। साधन कभी स्थायी नहीं होते, वे देशकालानुसार बदलते रहते हैं। यही दृष्टिकोण (Approach) हमें राग, द्वेष और पक्षपात से रहित होकर अपनाना होगा। विभिन्न भारतीय धर्मों एवं मतों तथा ग्रन्थों में से हम वेदानुकूल को ग्रहण कर लें। दूसरे इन सबमें मूलभूत विचार (Fundamental ideas) तो उसी वैदिक अथवा आर्य संस्कृति के ही हैं।  विभिन्न धर्मों के बारे में विगत एक शताब्दी में काफी शोध (research) कार्य हुआ है। हम नई खोज तथा नए विचारों से लाभ उठाएं।

    आज हमें कालिदास, माघ और भारवि के काव्यों को त्यागने की आवश्यकता नहीं है और न ही सांख्यतत्वकौमुदी तथा तर्कसंग्रह से डरने की आवश्यकता है। यही दृष्टिकोण तुलसी-रामायण के बारे में अपनाना है। विगत 60-70 वर्षों में इस पर काफी अनुसन्धान हुआ है। हॉं, हम इन्हें तर्क की कसौटी पर परख लें। इसी प्रकार पुराणों के बारे में भी अनेक आलोचनात्मक अध्ययन (Critical studies) या ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। स्वयं गीता प्रैस गोरखपुर से राधा और कृष्ण की तथा पुराणों में कृष्णलीला की युक्तिसंगत व्याख्या प्रकाशित हुई है। इसी प्रकार का दृष्टिकोण हमें विभिन्न मतों एवं धर्मों के बारे में अपनाने की आवश्यकता है। सब मतों की अच्छी बातें, जो-जो बातें सबके अनुकूल सत्य हैं, उनको हम ग्रहण कर लें और जो एक दूसरे से विरुद्ध हैं उनको हम त्याग दें। हमें सबको अपने साथ लेकर चलना है, समस्त मानव समाज का कल्याण करना है, सबको श्रेष्ठ बनाना है। सबकी उन्नति में हमारी उन्नति है। भारतोद्‌भूत जितने भी धर्म हैं हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख इनका मूलस्रोत तो एक ही है। ये सारे एक सनातन वैदिक धर्म या आर्य धर्म में विलीन हो जाते हैं। इसी प्रकार ईसाई तथा मुस्लिम धर्मों के प्रति भी हमें अपना दृष्टिकोण उदार तथा विस्तृत करना होगा। क्योंकि आज विज्ञान की दुनियां में समस्त मानव समाज एक इकाई (Unit of family) बन गया है।

    धर्मों एवं मतान्तरों की आलोचना से ऋषि दयानन्द का तात्पर्य था कि धर्म में तर्कसंगतता (resonability), युक्ति एवं हेतु (argument) की प्रधानता हो, अन्धविश्वास तथा आडम्बर न हो। हम बाबा-वाक्यं को प्रमाण न मानें, सत्य-असत्य की स्वयं परीक्षा तथा छानबीन करें। यही उनकी धर्म को स्थायी देन है। - प्रा. चन्द्रप्रकाश आर्य

     

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    Ved Katha Pravachan -3 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

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  • वेद सौरभ - चार वर्ण

    3म्‌  ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्‌ बाहू राजन्यः कृतः।
    ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्‌भ्यां शूद्रो अजायत।।(यजुर्वेद31.11)

    शब्दार्थ- (अस्य) इस सृष्टि का, समाज का (ब्राह्मणः मुखम्‌ आसीत्‌) ब्राह्मण मुख के समान है, होता है (बाहू राजन्यः कृतः) क्षत्रिय लोग शरीर में विद्यमान भुजाओं के तुल्य हैं (यत्‌ वैश्यः) जो वैश्य हैं (तत्‌) वह (अस्य ऊरू) इस समाज का मध्यस्थान, उदर है (पद्‌भ्याम्‌) पैरों के लिए (शूद्रः अजायत) शूद्र को प्रकट किया गया है।

    भावार्थ- इस मन्त्र में अलंकार के द्वारा चारों वर्णों का स्पष्ट निर्देश है। मुख की भॉंति त्यागी, तपस्वी, ज्ञानी मनुष्य ब्राह्मण पद का अधिकारी होता है।

    भुजाओं की भॉंति रक्षा में तत्पर, लड़ने-मरने के लिये सदा तैयार अपने प्राणों को हथेली पर रखने वाले क्षत्रिय होते हैं।

    उदर की भॉंति ऐश्वर्य और धन-धान्य को संग्रह करके उसे राष्ट्र के कार्यों में अर्पित करने वाले व्यक्ति वैश्य होते हैं।

    जैसे पैर समस्त शरीर का भार उठाते हैं, उसी प्रकार सबकी सेवा करने वाले शूद्र कहलाते हैं।

    समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिये इन चारों वर्णों की सदा आवश्यकता रहती है। आज के युग में भी अध्यापक, रक्षक, पोषक और सेवक ये चार श्रेणियॉं हैं ही। नाम कुछ भी रक्खे जा सकते हैं, परन्तु चार वर्णों के बिना संसार का कार्य चल नहीं सकता। 

    इन वर्णों में सभी का अपना महत्व और गौरव है। न कोई छोटा है, न कोई बड़ा, न कोई ऊँच है और न कोई नीच तथा न ही कोई अछूत है। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

    Ved Katha Pravachan _98 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

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  • वैदिक विनय - अमरता

    3म्‌ जुहुरे चितयन्तोऽनिमिषं नृम्णं पान्ति।
    आ दृळहां पुरं विविशुः।। ऋग्वेद5.11.2।।

    ऋषिः आत्रेयो वव्रिः।। देवता अग्निः।।छन्दः गायत्री।।

    विनय -एक नगर है जो कि बिलकुल दृढ़ है, अभेद्य है। इसमें पहुंच जाने पर हम पर किसी भी शत्रु का आक्रमण सफल नहीं हो सकता। क्या कोई उस स्थान पर पहुँचना चाहता है? वहॉं पहुँचने का मार्ग कुछ विकट है, कड़ा है, आसान नहीं है। वहॉं पहुँचने वालों को ज्ञानपूर्वक स्वार्थ-त्याग करते जाना होता है और सदा जागते हुए अपने "नृम्ण' की, आत्म-बल की रक्षा करते रहना होता है। ये दो साधनाएँ साधनी होती हैं। कई लोग अपने कर्त्तव्य व उद्देश्य का बिना विचार किये यूँ ही जोश में आकर "आत्म-बलिदान' कर डालते हैं। ऐसा करना आसान है, पर यह सच्चा बलिदान नहीं होता। इससे यथेष्ट फल नहीं मिलता।

    Ved Katha Pravachan _99 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    इस पवित्र उद्देश्य के सामने अमुक वस्तु वास्तव में तुच्छ हैइसलिए अब इस वस्तु को स्वाहा कर देना मेरा कर्त्तव्य हैइस प्रकार के स्पष्ट ज्ञान के बिना आत्म-बलिदान के नाम से वे आत्मघात कर रहे होते हैं। वहॉं पहुँचने के लिए तो आत्मा का घात नहींकिन्तु आत्मा की रक्षा करनी होती है। हम लोग प्रायः क्रोध करकेअसत्य बोलकरइन्द्रियों को स्वच्छन्द भोगों में दौड़ाकर अपना आत्म-तेजआत्मवीर्यआत्मबल खोते रहते हैंपर धीर पुरुष अपने इस "नृम्ण'=आत्मबल की बड़ी सावधानी सेसदा जागरूक रहते हुए बड़ी चिन्ता से रक्षा करते हैं। वे पल-पल में अपनी मनोगति पर भी ध्यान रखते हुए देखते रहते हैं कि कहीं अन्दर कोई आत्मबल का क्षय करने वाला काम तो नहीं हो रहा है। इस प्रकार रक्षा किया हुआ आत्मबल ही उस दृढ़ पुरी में पहुँचाने वाला है। वास्तव में ये दोनों साधनाएँ एक ही हैं। यदि हम इनके इस सम्बन्ध पर विचार करें कि ऐसे लोग आत्मबल की रक्षा करने के लिए शेष प्रत्येक वस्तु का बलिदान करने को उद्यत रहते हैं और ये सदा इतने सत्य के साथ आत्मबलिदान करते जाते हैं कि उनके प्रत्येक आत्मबलिदान का फल यह होता है कि उनका आत्मबल बढ़ता है। आओ! हम भी आत्महवन करते हुए और आत्मबल की रक्षा करते हुए चलने लगें तथा उस मार्ग के यात्री हो जाएं जोकि अभयताअजातशत्रुताअमरता और अभेद्यता की दृढ़ पुरी में पहुँचाने वाला है। 

    शब्दार्थ - जो वि चियन्तो जुहुरे=ज्ञानपूर्वक स्वार्थ-त्याग करते हैं और अनिमिषं नृम्णं पान्ति=लगातार जागते हुए अपने आत्मबल की रक्षा करते हैं ते=वे दृळहां पुरम्‌=दृढ़-अभेद्य नगरी में आविविशुः= प्रविष्ट हो जाते हैं। आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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    Vinay - A city that is absolutely resolute, impenetrable. On reaching it, no enemy attack can succeed on us. Does anyone want to reach that place? The way to reach there is a bit difficult, difficult, not easy. Those who reach there have to go with self-sacrificing knowledge and keep on guarding the self-strength of their "nirma", always awake. These two practices are spiritual. Many people do not consider their duty and purpose. He gets excited and commits "self-sacrifice". This is easy to do, but it is not a true sacrifice. It does not yield enough fruit.

     

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  • वैदिक-विनय-प्रभु की प्राप्ति

    3म्‌ सदा व इन्द्रश्चर्कृषदा उपो नु स सर्पयन्‌।
    न देवो वृतः सूर इन्द्रः।। साम. पू.3.1.1.3।।

    ऋषिः प्रगाथः काण्वः।। देवता इन्द्रः।।छन्दः गायत्री।।

    विनय - हे मनुष्यो ! तुम अपने परमात्मा से प्रेम क्यों नहीं करते? जहॉं हरिकथा होती है वहॉं से तुम भाग आते हो। बार-बार प्रभु-चर्चा होती देखकर तुम ऊबते हो, जबकि विषयों की चर्चाएँ सुनने के लिए सदा लालायित रहते हो। तुम्हें उस अपने पिता से इतना हटाव क्यों हैं? तुम चाहे जो करो, वह देव तो तुम्हें कभी भुला नहीं सकता। वह तो तुम्हें प्रेम से अपनी ओर आकर्षित ही कर रहा है, सदा आकर्षित कर रहा है, निरन्तर अपनी ओर खींच रहा है। तुम जानो या न जानो, पर वह अत्यन्त समीपता के साथ माता की भॉंति तुम-पुत्रों की निरन्तर परिचर्या भी कर रहा है।

    Ved Katha Pravachan _101 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    वह परमेश्वर हमारे रोम-रोम में रमा हुआहमारे एक-एक श्वास के साथ आता-जाता हुआहमारे मन के एक-एक चिन्तन के साथ तद्रूप हुआ-हुआ और क्या कहेंहमारी आत्मा की आत्मा होकरएक अकल्पनीय एकता के साथ हमसे जुड़ा हुआ है। हमें संसार में जो कुछ प्रेमआरामवात्सल्यभोगसेवासुख मिल रहा है वह किन्हीं इष्ट-मित्रों या प्राकृतिक वस्तुओं से नहीं मिल रहा है। वह सब हमारे उस एक अनन्य सम्बन्धी परम दयालु प्रभु से ही मिल रहा है। वह केवल हमें अपनी ओर खींच ही नहीं रहा हैअपितु अति समीपता से निरन्तर हमारी सेवा भी कर रहा हैप्रेम-प्रेरित होकर हमारी सेवा कर रहा है। हमारा पालनपोषणरक्षणदुःखनिवारण आदि सब परिचर्या कर रहा है। अरे! वह तो कहीं छिपा हुआ भी नहीं है। उसके और हमारे बीच में कोई भी आवरण नहीं है। उसे ढका हुआआच्छादित भी कौन कहता है?

    हे मनुष्यो ! सच बात तो यह है कि यदि हम उसके इस प्रेमाकर्षण को जानने लग जाएँ कि वे प्रभुदेव सदा प्रेम से हमें अपनी ओर खींच रहे हैंयह हम सचमुच अनुभव करने लग जाएँतो हमें यह भी दिख जाए कि वे हमारे अत्यन्त निकट हैं और अत्यन्त निकटता के साथ हमारी सेवा-शुश्रूषा कर रहे हैं और फिर एक दिन हमें यह भी दिख जाए कि वे सब ब्रह्माण्ड के रचयिता महापराक्रमी इन्द्र प्रभुजिनके विषय में परोक्षतया हम इतनी बातें सुना करते थेवे हमसे किसी आवरण से ढके हुए भी नहीं हैं। वे प्रत्यक्ष हमारे सामने हैं और यह दिख जाना ही परमात्मा का साक्षात्कार करना हैपरम प्रभु को पा लेना है।

    शब्दार्थ- हे मनुष्यो ! इन्द्रः = परमेश्वर वः = तुम्हें सदा = सदैव आचर्कृषत्‌ = अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। सः = वह नु = निःसन्देह उप उ=समीप हीसमीपता के साथ सपर्यन्‌ = तुम्हारी सेवा करता हुआ विद्यमान है। शूरः इन्द्र देवः = वह महापराक्रमी इन्द्रदेव वृतः = ढका हुआआच्छादित न = नहीं है। आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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    Hey man The truth is that if we start to know his love for God, that he is pulling us towards us with love, we can start realizing, then we should also see that he is very close to us and very We are doing our service with close proximity and then one day we can also see that all those who were the creators of the universe, Mahaprakrami Indra Prabhu, whom we used to hear so much about indirectly, are not covered by any cover from us. . They are directly in front of us and to see this is to interview God, to find the Supreme Lord.

     

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  • शिव नाम परमात्मा का है

    शिवरात्रि का सीधा सरलार्थ कल्याण रात्रि है। पौराणिक परिभाषा में यह शिव की रात है। जो भी कोई शिवभक्त इस रात्रि में शिवमूर्ति का पूजन करता है, वह शिवजी के प्रसाद से कृतकृत्य होकर शिव लोक प्राप्त करने का अधिकारी बन जाएगा। ऐसा पौराणिक प्रचार है। मुसलमानों में भी शबरात की बड़ी महिमा है। शबरात "शिवरात्रि' शब्द का ही विकृत रूप हुआ प्रतीत होता है। क्योंकि उर्दू, अरबी तथा फारसी लिपि में इकार-उकारादि मात्रायें प्रायः लिखी नहीं जाती तथा व में मध्य रेखा खींचकर व का ब बन जाना सम्भव है। अतः शिव का शब बन जाना और रात्रि का रात लिखा जाना सरलता से समझा जा सकता है। 

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    स्वर्ग और नरक का निर्माण विचारों से ही होता है

    Ved Katha Pravachan _52 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    वेद में शिव नाम परमात्मा का है, जिसके अर्थ कल्याणकारी के हैं। उसकी आराधना-उपासना प्रातः-सायं होती है। 

    पौराणिकों ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश या शिव तीन देवता माने हैं। पुराणों में इनकी कथाएं बहुत लिखी गई हैं। इनके आधार पर पिता जी ने अपने बालक मूलशंकर को शिवरात्रि के व्रत द्वारा रात्रि जागरण का महात्म्य बताकर शिवदर्शन की बात कही, जिससे आत्मा का कल्याण होकर मोक्ष की प्राप्ति हो। 

    किन्तु जागरण के मध्य ऋषि की आत्मा में सच्चाई का प्रमाण उदित हो गया कि यह जड़ पाषाण मूर्ति सच्चा कल्याणकारी शिव नहीं है। वह सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान्‌, अजर-अमर, नित्य, पवित्र, सृष्टिकर्ता परमात्मा घट-घट वासी है। उस निराकार परमात्मा की पूजा निराकार आत्मा में शुभ गुणों के विकास के साथ-साथ ध्यान द्वारा होती है, जिसके लिये योग साधना की आवश्यकता है। 

    अतः योग-युक्तात्मा के सान्निध्य की आवश्यकता हुई, वर्षों के कठोर परिश्रम और साधना के पश्चात्‌ यह सिद्धिप्राप्त हुई। तब योग-युक्तात्मा महर्षि दयानन्द ने गुरु विरजानन्द जी से वेदों के रहस्यों को समझकर गुरु दक्षिणा में वेदों के प्रचार में जीवन की आहुति देकर संसार के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। 

    वास्तव में जिस भी क्षण में मनुष्य को सन्मार्ग की प्रेरणा मिले, वही शिव अर्थात्‌ कल्याणकारी है। योग-समाधि का पर्याय ही योगनिद्रा है। कल्याण की सच्ची प्राप्ति योगनिद्रा से विभूषित होती है और योगरात्रि भी कही जा सकती है। 

    संसार जागते हुए भी शुभ प्राप्ति से विमुख होकर वास्तव में मोहान्ध होकर एक प्रकार से गफलत की नींद में सोए रहता है। किन्तु योगी समाधि निद्रा में प्रभु दर्शन से आनन्दविभोर हो रहा होता है। यह योगनिद्रा है। यह योग समाधि ही योगरात्रि या कल्याणकारिणी शिवरात्रि है। हिन्दू-मुसलमान तथा अन्य सभी लोग इस रहस्य को समझ जाएं, तो किसी भी जागरूक क्षण को शबरात या शिवरात्रि कहा जा सकेगा। यही रहस्य दयानन्द ने समझा और ऋषि-महर्षि की पदवी प्राप्त की। 

    नमस्यामो देवान्ननु बत ! विधेस्तेऽपि वशगा, विधिर्वन्धः, सोऽपि प्रतिनियत-कर्मैकफलदः।
    फलं कर्मायत्तं किममरगणैः किं च विधिना, 
    नमस्तत्‌ कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवति।। (नीति शतक 95)

    हम विद्वान आदि देवों को नमस्कार करते हैं, किन्तु अरे! वे भी तो विधाता के आधीन हैं। तो फिर विधाता अवश्य वन्दनीय है, किन्तु वह भी तो कर्मों के अनुरूप ही निश्चित फल देता है। इस प्रकार जब फल कर्मों के ही आधीन है (कर्मों के अनुसार ही मिलने वाला है) तो देवों और विधाता के ऊपर निर्भर न रहकर कर्मों को नमस्कार करें, कर्मों को प्रधानता दें, जिनको बदलने में विधाता भी समर्थ नहीं है। - पं. शान्तिप्रकाश (शास्त्रार्थ महारथी)

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    Mythologists have considered Brahma, Vishnu, Mahesh or Shiva as the three gods. Their stories have been written a lot in the Puranas. On the basis of this, Father told Shivdarshan by telling his child Mool Shankar the great significance of night awakening by fasting of Shivaratri, so that the soul can be benefited and attain salvation. 

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